• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » मुझे किसी पर विश्वास नहीं रहा: कुमार अम्बुज

मुझे किसी पर विश्वास नहीं रहा: कुमार अम्बुज

साहित्य अपने काल में धंस कर लिखा जाता है और अगर उसमें दम होगा तो वह अपने काल को पार करके कालजयी बनेगा.  जैसा समय है उसमें अगर आपमें सत्ताओं और संस्थाओं को लेकर संशय नहीं है तो आप अपना विवेक और संवेदनशीलता दोनों खो बैठे हैं. कुमार अम्बुज की ख्याति कवि की है पर यह कहानी मैं समझता हूँ हिंदी की कुछ महत्वपूर्ण कहानियों में एक मानी जायेगी. समकालीन धूर्तता और उससे पैदा हुई आम हताशा को समझने के लिए यह कहानी हज़ार लेखों और वक्तव्यों पर भारी है.  प्रस्तुत है.

by arun dev
May 13, 2021
in कथा
A A
मुझे किसी पर विश्वास नहीं रहा: कुमार अम्बुज
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

 मुझे किसी पर विश्वास नहीं रहा 

कुमार अम्बुज

मैं हर शहर, हर जगह जहाँ जाता हूँ, पूछता हूँ क्या यह शहर, यह जगह बेनीपुरा है. वही मेरा जन्म-स्थान है. सभी जगहों पर कहा जाता है कि नहीं, यह बेनीपुरा नहीं. यह एक शहर है लेकिन यहाँ कोई पैदा नहीं हुआ. यहाँ सभी लोग किसी न किसी दूसरी जगह से आए हैं. यहाँ सभी निवासी विस्थापित हैं. हमने सुना जरूर है कि सबके जन्म-स्थान खत्म हो गए हैं. नक्शों में भी नहीं बचे. नक्शे बदल चुके हैं. जगहों के परिचित नाम गायब हैं. नये नाम इस तरह रखे गए हैं कि पुराने याद न आ सकें. नये का उच्चारण ऐसा है कि उसे सीखने में पुराना विस्मृत हो जाता है. भूगोल और इतिहास एक साथ नष्ट हो रहे हैं. 

लेकिन ऐसा नहीं हो सकता.

लगता है लोग झूठ बोलते हैं. इधर हर कोई झूठ बोलता है. इसलिए मेरा किसी पर कोई विश्वास नहीं बचा है. जो सच बोलता है उसे खुद पता नहीं कि वह सच बोल रहा है. वह सच भी किसी के झूठ को सच मानकर बोल रहा होता है. सीधे-सादे, भावप्रवण, घबराए और सच्चे आदमी से हर कोई झूठ बोलता है. यह सब इतना अधिक हो चुका है कि अब मुझे किसी पर भरोसा नहीं रहा. यह बात गुस्से या हताशा में नहीं कह रहा हूँ. स्वीकार भाव से और नये जमाने में रहने की, सामंजस्य बैठाने, अपने को अद्यतन करने की कोशिश करते हुए कह कर रहा हूँ. हालाँकि इसका अर्थ भी वही है कि मुझे किसी पर विश्वास नहीं रहा. मेरे पास इस सदी में होने का यही प्रमाण है.

एक स्त्री से पूछता हूँ, क्या तुम्हारा नाम दुलारी है. फिर सब स्त्रियों से पूछता हूँ कि उनमें कोई दुलारी है. हर स्त्री कहती है, वह दुलारी नहीं है. वे कहती हैं कि यहाँ दूर-दूर तक कोई दुलारी नहीं है. जैसे वे उन सब स्त्रियों को जानती हैं जो सब दूर रहती हैं और दुलारी नहीं हैं. पुरुषों से पूछता हूँ कि उनमें कोई प्रकाश है. हर कोई कहता है कि नहीं. फिर वे समूहगान में कहते हैं कि उनमें कोई भी प्रकाश नहीं है. एक वक्त था जब हर दूसरे तीसरे आदमी के नाम में प्रकाश मिल जाता था. अब कहीं कोई दुलारी नहीं है, कोई प्रकाश नहीं है. कोई जगह नहीं है जो मेरी जन्म स्थली हो. सारे नाम गायब हैं, जिनसे दुनिया की याद रहती थी. नामों को इस तरह मिटाया गया कि वे जगहें, वे आदमी ही मिट जाएँ जिनके कि वे नाम थे. अब मैं आदमियों और जगहों पर ही नहीं, अन्य चीज़ों पर भी विश्वास नहीं कर पाता, जिन पर कल शाम तक करता चला आता था और भूल चुका था कि इन पर कभी अविश्वास भी करना पड़ सकता है.

इसी अविश्वास के सिलसिले में, मैं बैंक गया.

मैंने अपनी सावधि जमा रसीदें और बचत खाते की पासबुक मैनेजर के सामने, टेबल पर पटक दी. लीजिए, ये तमाम रसीदें हैं. तेईस हजार पासबुक में हैं. जीवन भर की बचत और नौकरी में जवानी नष्ट करने का मुआवजा. मुझे इसी वक्त सारे रुपये दो. बैंकों पर मेरा कोई भरोसा नहीं रहा. इस मैनेजर पर भी कोई भरोसा नहीं था हालाँकि वह अच्छा आदमी लग रहा था लेकिन अच्छे आदमी और भरोसे के आदमी में जमीन-आसमान का अंतर हो सकता है. बल्कि होता ही है. मैनेजर ने मुझे पहले घूरा. फिर कुछ सोचकर सामने बैठाया, नींबू-पानी ऑफर किया, और मुझसे अजीबो-गरीब बातें कहीं:

‘‘सर, लगता है आपका मन ठीक नहीं है. बैंक ही सबसे अधिक विश्वसनीय हैं. जो बैंक पर विश्वास नहीं कर सकता, वह भला फिर किस पर करेगा. करोड़ों लोगों के पैसे बैंकों में जमा हैं. लगता है आपको कोई सदमा लगा है. आप किसी दुष्प्रचार के शॉक में हैं. वैसे इनके मैच्युअर होने में सात साल बाकी हैं, अभी तोड़कर पैसा लेंगे तो ब्याज का काफी नुकसान होगा. पिछले तीन सालों में हर महीने दिए ब्याज में से वसूली होगी. आगे ब्याज दरें कम होंगी, आपकी इन जमाराशियों पर अच्छा खासा ब्याज चालू है. आप समझदार आदमी हैं. अपना अहित क्यों करना चाहते हैं. बुढ़ापा कैसे कटेगा. आप मेरे पिता समान हैं. मैं आपको ये सब एफ डी नहीं तोड़ने दूँगा.’’

उसके इस अंतिम वाक्य से समझा जा सकता है कि मैनेजर कतई भरोसे का आदमी नहीं. यह मुझे बाप बनाने तैयार है लेकिन पैसा देने तैयार नहीं है. इस पर भला कैसे विश्वास किया जा सकता है. मैंने जोर देकर कहा कि नहीं, मुझे मेरे सारे रुपये चाहिए. नक़द  चाहिए. मैनेजर ने कठोरता से कहा कि नहीं, नक़द  पैसे नहीं मिल सकते. आपके बचत खाते में जाएंगे. उसमें से आप निकाल सकते हैं. एक बार में नक़द  राशि निकालने के लिए नियम है, सीमाएँ हैं. शादी, बीमारी, मृत्यु हो तो अलग बात है वरना पैसे नक़द  नहीं दिए जा सकते हैं. ऐसे तो हर कोई पैसे निकाल लेगा. अराजकता फैल जाएगी. बैंक डूब जाएंगे. रिजर्व बैंक और आयकर विभाग ने सोच-समझकर नियम बनाए हैं. मुझे पहले ही आशंका थी कि यह आदमी और यह बैंक ठीक नहीं है. यह पैसे न देने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकता है. बात रिजर्व बैंक और आयकर विभाग तक पहुँच गई है. अब तय है कि रिजर्व बैंक का भी विश्वास नहीं किया जा सकता. जो संस्थाएँ मिलकर पूरी ताकत यह नियम बनाने में लगा दें कि आदमी अपना पैसा नक़द  न ले सके, उन पर कोई कैसे विश्वास कर सकता है.

मेरे चेहरे पर आक्रोशमयी असहायता झलक आई होगी. शायद इसलिए उसने कुछ चिंताजनक नरमी से कहा, या पूछा या ताना दिया- ‘अंकल, इतने सारे पैसे आप बैंक में नहीं रखेंगे, तो फिर कहाँ रखेंगे. शेयर बाजार में लगाएंगे या तीन पत्ती खेलेंगे.’ 

आखिर मुझे कहना पड़ा कि आप शेयर बाजार का नाम मत लो. उसका हिंदी अनुवाद रसातल है. तीन पत्ती का मैं रेडिकल रूप से विरोधी हूँ. लेकिन आपको इससे क्या कि मैं अपने पैसे का क्या करूँगा. नाली में फेकूँगा. मैंने उसे यह नहीं बताया कि दरअसल, वे रुपये मैं उस पलंग के अंदर बने बॉक्स में रखूँगा, जिस पर मैं सोता हूँ. दीमक और कीड़ों के खिलाफ मैंने पूरे पलंग का ट्रीटमेंट करा लिया है. स्पष्ट कर दूँ कि उस ट्रीटमेंट पर भी मेरा भरोसा नहीं है, मगर मैं रोज सुबह उठकर जाँच तो कर सकता हूँ और जरूरत पड़ने पर पैसे के रक्षा हेतु कदम उठा सकता हूँ. ब्याज गया भाड़ में, अविश्वास इतना पुख्ता और साफ-सुथरा है कि ये बैंक आपकी मूल राशि गायब कर सकते हैं. कह देंगे कि आपकी जमारााशि के खिलाफ जिन्हें कर्ज दिया था, वे सब बेईमान निकले. और नया जमाना है कि बेईमानों की सजा उन्हें मिलती है जो बेईमान नहीं हो सके. पिछले महीने ही इसका बिल संसद में ध्वनिमत से पारित हुआ है.

थक-हारकर मुझे बिना पैसे लिए बैंक से वापस आना पड़ा. क्योंकि निर्णायक बात की तरह मैनेजर ने बताया कि इन रसीदों पर पत्नी का नाम संयुक्त रूप से दर्ज है. भुगतान के लिए आपको इनके दस्तखत लाना पड़ेंगे, बल्कि उन्हें यहाँ बैंक में लाएँ तो अच्छा क्योंकि स्त्रियों के दस्तखत अक्सर गलत हो जाते हैं, वे भूल जाती हैं कि उन्होंने किस तरह से हस्ताक्षर किए थे. तभी आगे कार्रवाई हो सकती है. कार्रवाई यानी नक़द  देने की नहीं, पैसों को बचत खाते में ट्रांसफर करने की. मैं कोई साइको नहीं हूँ कि मुझे यों ही अविश्वास होता चला जा रहा है. आप खुद देख रहे हैं कि मेरा पैसा मुझे नहीं दिया जा रहा है. रिजर्व बैंक, आयकर विभाग, इन दो की सीधी साँठगाँठ, मिलीभगत की तस्दीक मैनेजर ने ही कर दी है. मेरे शक के दायरे में ये पहले से ही थे. मुझे मैनेजर की यह बात भी शक के दायरे में लगी कि वह मेरी पत्नी को बैंक बुलाना चाहता है. हस्ताक्षर लो, कौन मना करता है. मगर नहीं. इनके दिमाग में कितनी चालें हैं, कौन समझ सकता है. मैं अविश्वासी लोगों से ही नहीं, अविश्वासी संस्थाओं से भी घिर चुका हूँ.

दुर्दिन ये हैं कि अब मैं पत्नी पर भी विश्वास नहीं कर पाता. इस मामले में वह बैंक से अधिक अविश्वसनीय है. उसके दस्तखत लेने से कहीं अधिक आसान है कि मैं गवर्नर के दस्तखत ले आऊँ. हालाँकि गवर्नर खुद सार्वजनिक रूप से अविश्वसनीय हो चुके हैं. उनके हस्ताक्षर रातों-रात संदिग्ध बता दिए जाते हैं. अचानक कह दिया जाता है कि अब ये दस्तखत मान्य नहीं रहेंगे. जहाँ, जिन कागजों पर भी उन्होंने हस्ताक्षर किए हैं, वचन दिए है, वे सब एक झटके के साथ पतझर में सूखकर गिर गए जर्जर पीले पत्तों में बदल जाते हैं. मैनेजर के पास दस बहाने थे कि वह पैसा नहीं देगा, पत्नी के पास कम से कम पंद्रह बहाने होंगे. सबसे बड़ा तो यही कि जैसे ही कहूँगा कि बैंक से पैसे निकालकर घर में रखना है, वह बेहोश हो जाएगी. सच में या अभिनय में, ऐसा कुछ विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता. लेकिन तय है कि दस्तखत नहीं करेगी. नहीं, उस पर यह विश्वास नहीं किया जा सकता. 

 

दो

लेकिन मैं नकारात्मक व्यक्ति नहीं हूँ. तार्किक हूँ. औचित्य वगैरह समझता हूँ. इसलिए कुछ चीजों पर अभी मेरा विश्वास कायम है. जैसे मुझे मेरे अचानक कहीं मार दिए जाने या मर जाने का विश्वास है. दर्शन भी यही कहता है कि कोई भी, कहीं भी, किसी भी क्षण मर सकता है. इसमें किसी तरह के अविश्वास की गुंजाइश नहीं. जब आप जीवन में विश्वास करने लगते हैं, ठीक उसी समय आपको मार दिया जाता है. कई बार आपके मरने का समाचार प्रसारित कर दिया जाता है. आप खुद उसे पढ़ते हैं. प्रिंट में, सोशल मीडिया पर, टीवी स्क्रीन के नीचे चल रही पट्टी पर. आपको अपने मरने पर भरोसा करना पड़ता है. जीवित रहने की इच्छा बलबती रहती है मगर जीवित रहने पर से विश्वास उठ जाता है. आप हर क्षण प्रमाणित नहीं कर सकते कि आप जीवित हैं. लोगों पर भी यकीन नहीं रहा कि वे आसानी से विश्वास कर लेंगे.

कहानी उतनी लंबी हो जाएगी कि उसकी रस्सी बनाकर पृथ्वी के चार चक्कर लगाए जा सकें, यदि मैं हर चीज पूरे विवरण के साथ बताने लग जाऊँ कि किस-किस तरह सभी चीजों पर से मेरा विश्वास उठता चला गया है. समझ लें कि यह अचानक नहीं हुआ है. कि यह अविश्वास मनुष्य द्वारा ऐतिहासिक रूप से अर्जित है. कि मनुष्य प्रजाति के लिए काफी हद तक आनुवांशिक है. विवेकसम्मत और वैज्ञानिक है. तब आप खुद ही कह उठेंगे कि हाँ, साहब, आप सही कह रहे हैं, इन पर कोई समझदार आदमी विश्वास नहीं कर सकता.

ऐसा नहीं है कि चीजों पर मेरा कभी विश्वास ही नहीं रहा. कई चीजों पर, कई लोगों पर तीन साल पहले, सात या दस साल पहले, अनेक पर पंद्रह, पच्चीस, पचास या सत्तर साल पहले बहुत विश्वास था. लेकिन बिछुड़े सभी बारी-बारी की तर्ज पर विश्वास का यह संकट इधर गहराता ही जा रहा है. मैंने ईश्वर तक पर वर्षों विश्वास किया.

हाथ क्या आया- वही अविश्वास.

आगे बढ़ने से पहले एक टूटी हुई, बिखरी हुई, संक्षिप्त सूची दूँ:

गाय. कचहरी. शेयर बाजार. सांसद. दवाई. ट्रेन. संपादक. ज्योतिषी. ब्लड रिपोर्ट. पुजारी. दूध. पानी. वोल्टेज. मोबाईल. एंटीवायरस. जिलाधीश. पुलिस स्टेशन. टमाटर.  वकील. क्रिकेट. याददाश्त. सैनेटाईजर. नल की टोंटी. क्लर्क. ए टी एम. धनवान. अभिनेता. गेंद. कुत्ता. गूगल. अदरक. रिश्तेदार. पड़ोसी. विधायक. अखबार. एंकर. चश्मा.  पहलवान. अस्पताल. भिखारी. नगर पालिका. विधायक. बीमा कंपनी. वैद्य. हेलमेट. सचिव. एक्स-रे. मोटर-साइकिल. जिगरी दोस्त. धर्मस्थल. कोषाध्यक्ष. सरपंच. स्कूल. एक बार फिर कचहरी…..

सोचिए, हज़ारों जीवित-अजीवित चीजें एकदम या धीरे-धीरे याद आएँगी, जिन पर आप रोज एकदम इस तरह विश्वास करते आए हैं मानो उन पर कभी पक्का विश्वास नहीं रहा. सोचना पड़ता है कि वे सिर्फ हैं या आपके लिए हैं. इसी बात में सारा मर्म छिपा है. जिन्होंने विश्वास किया उन्होंने ही विश्वासघात सहा. आप महज किसी अंधविश्वास की तरह उन पर विश्वास कर सकते हैं. वक्त के साथ यह विकल्प भी खत्म हो रहा है. जैसे कंपनी की एक के साथ एक मुफ्त या एक्सचेंज की योजना थी. अब नहीं है.

मेरे जैसे आम आदमी के लिए, जिसकी बुद्धिमत्ता केवल विश्वास करने तक में ही सीमित थी, सबसे कष्टकारी उद्घाटन यह हुआ है कि यदि किसी को भरोसे में कुछ दे दिया है या किसी ने आपसे सरेआम ले लिया है तो वह वापस नहीं देगा. चाहे उसने वचन पत्र दिया हो, कार्पोरेट की ग्यारंटी दी हो या संसदीय कार्यवाही के रिकॉर्ड में ही दर्ज कर लिया हो. वापस देने से मना कोई नहीं करेगा लेकिन देगा नहीं. बैंक का उदाहरण विस्तार से दे चुका हूँ. चाहें तो बैंक जाकर आजमा लें. लेकिन आप आसानी से मानेंगे नहीं. इसलिए एक और आपबीती सुनाता हूँ-

मैं चार बच्चों का पिता हुआ. दो बेटियाँ, जिन्हें जिन घरों में दिया, वे वापस नहीं आईं. (वह एक अलग कहानी है.) और दो बेटे. एक था एक है. दोनों सेना में. बड़ा, जेट विमान से आक्रमण करनेवाला अधिकारी. छोटा, थल सेना में मध्यम श्रेणी का अधिकारी. जिसकी पोस्टिंग्स का कभी पता नहीं चलता. गोपनीयता, सम्मान और नैतिक दबाबों के कारण पदनाम नहीं बता सकता. एक क्षणिक गर्वीले युद्ध में वायुसेना का अधिकारी बेटा वीरगति को प्राप्त हुआ. मर गया. काल कलवित हो गया. हम पर वज्रपात हो गया. जो भी कह लें, वह नहीं रहा. झंझट मिटाने के लिए कहने तैयार हूँ कि हाँ भाई, वह शहीद हो गया. अन्य किसी बेहतर अभिव्यक्ति की अनुमति नहीं है. मैं बासठ बरस का और साठ की मेरी पत्नी, हम घबरा गए. अकेले और अवसादग्रस्त हो गए. बच्चे के न रहने से बूढ़े अनाथ हो जाते हैं. हम अनाथ हो गए. तब मैंने कोशिश की कि अपने दूसरे बेटे को सेना से वापस ले आऊँ, उसे सिविलियन बना लूूँ . वह घर में, आँखों के सामने रहेगा तो शायद रोशनी बनी रहेगी. सबका जीवन मिल-जुलकर कट जाएगा. गुहार लगाई कि सरकार, मेरा एक बच्चा आपके लिए बलिदान दे चुका है, अब दूसरे बच्चे को हम हमारे पास, घर बुलाना चाहते हैं. बदले में बातचीत, समझाइश और पत्राचार से जो कुछ हासिल हुआ, उसका सारांशः

‘‘नौ साल बाद विचार हो सकता है. अभी लंबा टर्म बाकी है. वह देश की अमानत है. आप अमानत में खयानत नहीं डाल सकते. किसी के मरने पर भी नियमों का उल्लंघन संभव नहीं. यह एक अनुशासित संस्था है. आप लिख रहे हैं कि वह सरकार पर न्यौछावर हो गया. यह एकदम आपत्तिजनक है. शायद दुख में आपने गलत शब्द का इस्तेमाल कर दिया. उसने देश के लिए बलिदान दिया है. सरकार अनिश्चित है. देश अमर है. शहीद की संचित निधि जितनी मिली है और जो पेंशन हो सकती है, उस पर गर्व होना चाहिए. गर्व नहीं तो देशद्रोह है. राष्ट्र ने प्रशिक्षण पर व्यय किया है, उसे इंसान से सैनिक बनाया है, उस खर्च का दश प्रतिशत भी आप नहीं चुका सकते. आपके इस बेटे पर भी पूरे राष्ट्र ने निवेश किया है. आप किस हैसियत से अपना बेटा वापस माँग सकते हैं. यह आपका बेटा है लेकिन कागज में है, जीवन में नहीं है. वह देश की संपत्ति है. अब यह आपके अधिकार में नहीं. हमारे अधिकार में नहीं. राष्ट्रप्रमुख कुछ कर सकते हैं लेकिन केवल उनके अख्तियार में नहीं है. यह आपका भावुक और कायराना आवेदन है. हमारे पास सेवा शर्तों पर सहमति के हस्ताक्षर हैं. वैसे आपको क्या अधिकार है कि एक वयस्क व्यक्ति की तरफ़ से आप कोई आवेदन दें. आपकी इस हरकत से आपका बच्चा भावुक हो सकता है, बहक सकता है. खुद भी घर जाने की ज़िद कर सकता है. तब हमारे पास कोर्ट मार्शल का तरीका बचेगा. आप गंभीरता समझिए. आप पर दुष्प्रेरणा का मुकदमा चल सकता है. हम आपकी भावनाएँ समझते हैं लेकिन आप इतने बहादुर बच्चों के जन्मदाता होकर अनुशासन और कर्तव्य भूल रहे हैं. देश और देशवासी आपके साथ हैं, आप अकेले नहीं हैं. आप अपने कैंसर से मत डरिये, आप उसे हरा देंगे. देश के सारे बेटे आपके बेटे हैं. हमें आपके ऊपर अभिमान है. विश्वास करें, वैसे वह इतना वीर है कि कोई उसका बाल बाँका नहीं कर सकता. वह मार सकता है, मर नहीं सकता. भरोसा रखें.’’

फिर वही विश्वास. फिर वही भरोसा.

आप समझ गए होंगे कि मेरा बेटा मुझे वापस नहीं मिला. देश भर के युवाओं को मेरा बेटा बनाना चाहते हैं लेकिन मेरा बेटा मुझे नहीं देना सकते. रूल इज रूल. जैसे बैंक मुझे मुझे पिता मान सकता है लेकिन पैसा नहीं देगा. ये कहते हैं कि नौ बरस बाद विचार होगा. डॉक्टर कहता है कि प्रोस्टेट कैंसर के मद्देनजर मेरे पास तीन-चार साल बचे हैं. बाकी चीजें मैं सहन कर लूँ लेकिन उनकी निष्कर्षात्मक बात को नहीं पचा सकताः ‘भरोसा रखें’. अरे, भरोसे की खूँटे से ही बाँधकर यह सब हुआ. भरोसा ही तो उखड़ गया है. कई नियम थे जिनके शब्दों को पढ़कर लगता था कि मेरे पक्ष में हैं मगर हर जगह नियमों की व्याख्याएँ मेरे खिलाफ थीं. मनमाने अपवाद थे. इसलिए विश्वास हुआ कि जो कुछ भी अपना वापस लेना चाहता हूँ, वह नहीं मिल सकता. यह अविश्वास कोई दुस्वप्न नहीं है, नग्न यथार्थ है. जिंदगी का हासिल है.

 

(तीन)

धीरे-धीरे मुझे मेरी इस पुश्तैनी डेढ़ एकड़ जमीन पर भी विश्वास नहीं रहा. पहले इससे बीस क्विंटल फसल लेता था. अब छह क्विंटल हाथ में आती है. मिट्टी में काले रंग के अलावा काली मिट्टी का कोई दूसरा गुण नहीं रह गया. जामुन के पेड़ से जामुन ही मिलेंगे, यह भरोसा भी नष्ट हो चुका है. जो घर से बाहर जा रहा है, भरोसा नहीं कि वह शाम तक वापस आएगा. बल्कि यह अविश्वास ही निश्चित है, बाकी सब अनिश्चित है. पहले यह दस-पंद्रह प्रतिशत था, अब बढ़कर एक सौ प्रतिशत हो चुका है. आप जिरह मत कीजिए, पिंच्यानवें प्रतिशत मान लीजिए.

पड़ोस में रहनेवाले मेरे पुराने दोस्त शिरोड़कर जी का ही वाकिया लें. वही शिरोड़कर जी, जो मेरे साथ शतरंज खेलते थे और कभी-कभार जिनके साथ मैं घर पर ही फिल्में देखता था. वे तीन दिन पहले रात में पलंग से अचानक गिर गए. आज अस्पताल से वापस आए. सफेद पालीथीन में पैक. जैसे ही एम्बुलैंस जमीन पर रखकर गई, पालीथीन में हरकत हुई. वे ज़िंदा निकले. लेकिन मैं विश्वास नहीं करता कि वे ज़िंदा हैं. वे खुद भी विश्वास नहीं करते. धीरे-धीरे पूरा मोहल्ला विश्वास करने लगा है कि ये शिरोड़करजी नहीं, शिरोड़करजी का पुतला है. अब वे मेरे साथ शतरंज नहीं खेलते. जब मैं उनसे शतरंज खेलने का कहता हूँ तो वे बर्गमैन की फिल्म याद करते हैं और उठकर चल देते हैं. कहते हैं पूरा पैसा इलाज में लग गया. विश्वास करो, यही सच्ची मृत्यु है. ग़रीब आदमी जीवित प्रेत हो जाता है. मैं उनकी बात पर विश्वास नहीं करता. मरे हुए आदमी की बात पर क्या भरोसा करना. असल में आदमी जब तक खुद इस तरह नहीं मर जाता, वह विश्वास कर भी नहीं सकता.

कहना यह है कि ज्यों-ज्यों सभ्यता का विकास होता चला जाता है, उतना ही विश्वास का संकट गहरा जाता है. अब वैश्विक सभ्यता, विकास के अंतिम कगार पर है, यानी ‘कृत्रिम बुद्धिमत्ता’ चलन में है. किंआश्चर्यम् कि मनुष्य भी बुद्धिमानी के लिए यंत्रों की तरफ टुकुर-टुकुर देखते हैं. मनुष्यों का मनुष्यों के प्रति, मनुष्यों द्वारा बनाई नैतिकताओं, समाजिकताओं और संस्थाओं पर विश्वास नहीं रह गया है. विकास की कीमत नानाप्रकार चुकाना पड़ती है.

फिर भी मैंने और तमाम तरह की कोशिशें और हरकतें कीं ताकि कुछ यकीन कायम रह सकें. मगर निराशा ही हाथ लगी. चाहने पर भी हासिल कुछ नहीं हुआ. जैसे, गली के मंदिर के लिए दी गईं एक डम्पर ईंटें और रेत वापस चाहता था क्योंकि उस जगह पार्षद ने डेयरी बना ली थी. जीवन की नाकुछ सफलताओं को वापस करके, अपनी असफलताएँ चाहता था. मैं और अधिक अपना जीवन नहीं उजाड़ना चाहता था. जो नारे लगाए थे, वे भी वापस लेना चाहता था, जिनके लिए नारे लगाए थे, वे उनके लिए नारे लगा रहे थे जिनके खिलाफ मुझसे नारे लगवाए गए थे. लाईब्रैरी में दी गई अपनी किताबें वापस लेना चाहता था क्योंकि लाईब्रैरी तोड़कर वहाँ मॉल बनाया जा रहा था. लेकिन पता चला कि वे पहले ही रद्दी में बेची जा चुकी हैं. इनमें से मैं कुछ भी वापस प्राप्त नहीं कर सका. बुक-मार्कर तक नहीं.

अब कहीं अधिक विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि आपको अपना कुछ वापस नहीं मिल सकता. जो विश्वास मुझे अपने जन्म से पहले और बाद में दिए गए, वे भी नहीं. ज्यादातर 1965 में, कुछ 1972, 1975 ,1992 में और बाकी 2002 में छीन लिए गए. क्रम जारी है. उसी थाली में अनगिन छेद किए गए जिसमें एक साथ खाना खाया था. अब मैं विश्वास की थाली बजाता हूँ तो उसमें से चलनी बजाये जाने जितनी आवाज भी नहीं निकलती.

कभी-कभार बस खकार निकलती है.

हालात यहाँ तक आ गई है कि गाँव-शहर में, दिन में, रात में, धुँधलके में, धूप में, बारिश में, किसी से रास्ता पूछो तो वह ऐसा रास्ता बताता है कि जहाँ जाना चाहते हैं, वहाँ कभी पहुँच नहीं सकते. लेकिन मैं उम्मीद और ज़िद में चलता जाता हूँ. तमाम लोगों ने विश्वास तोड़ा  परंतु आशा को मैंने आहत होने के बाद भी जीवित रखा है. यह विश्वास के निर्जन होने की कहानी है, आशा के उजड़ने की नहीं. अभी भी कुछ एकदम नयी चीजें हैं, एकदम नये मनुष्य हैं जो मुझे उतना विश्वास देते हैं कि प्राणवायु मिलती रहे. जैसे घास के ये सफेद-बैंगनी फूल जो कल खिलने को थे और आज खिल गए हैं. जैसे ये बच्चे जो किलक रहे हैं. आप रास्ता गलत बताते हैं तब मैं चिड़ियों को, बादलों को, खुरों-पंजों के निशानों और तारों को देखते हुए और अपने चलते रहने से, देर-सबेर सही जगह पहुँच जाता हूँ. इन पक्षियों, जानवरों, तारों, बच्चों, मेघों और घास के फूलों पर अभी भरोसा बना हुआ है. ये कुछ अंतिम भरोसे हैं. जैसे यह एक अनजान आदमी, जिससे मैंने पानी माँगा तो उसने पीने का पानी ही दिया. शीतोष्ण और प्यास बुझानेवाला. मुश्किल यह है कि लोग इनका विश्वास भी तोड़ देते हैं. जिनका नाम विश्वास है, वे भी विश्वास तोड़ देते हैं.

न्युरौन्स खत्म होते हैं तो नये बन जाते हैं लेकिन दिमाग की एक उम्र आती है जब न्युरौन्स नष्ट होते हैं तो वापस नये उतने नहीं बनते. विश्वासों का भी ऐसा दुष्चक्र बन गया है. मेरे पिछले बीस साल विश्वास टूटने, खोने और खत्म होते चले जाने की कहानी है. लोगों को मेरी यह कहानी कहानी नहीं लगती. लोगों के भी तो अपने अविश्वास हैं. सबको परंपरागत, पुरातन और झूठी कहानियाँ ही कहानियाँ लगती हैं.

ठीक है, आप मत कीजिए विश्वास.

आप पर से मेरा विश्वास भी तो उठ चुका है. कि जिस तरह आप रह रहे हैं, जैसा जीवन जी रहे हैं, मजे में खा-पी-सो रहे हैं और जिस हाल में पड़े-पड़े खुश हैं, उसमें आप इस दुनिया की कोई नयी कहानी न तो लिख सकते हैं और न बना सकते हैं.

_______________________________

कुमार अंबुज
(जन्म : 13 अप्रैल, 1957, ग्राम मँगवार, गुना, मध्य प्रदेश)

कविता-संग्रह-‘किवाड़’, ‘क्रूरता’, ‘अनन्तिम’, ‘अतिक्रमण’, ‘अमीरी रेखा’ और कहानी-संग्रह- ‘इच्छाएँ’ और वैचारिक लेखों की दो पुस्तिकाएँ-‘मनुष्य का अवकाश’ तथा ‘क्षीण सम्भावना की कौंध’ आदि प्रकाशित. 

कविताओं के लिए मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान और वागीश्वरी पुरस्कार आदि प्राप्त.

kumarambujbpl@gmail.com /9424474678

Tags: कुमार अम्बुज
ShareTweetSend
Previous Post

‘लो सँभालो अपनी दुनिया हम चले’: पंकज चौधरी

Next Post

राधाकृष्ण: एक लाख सतानब्बे हजार आठ सौ अट्ठासी

Related Posts

स्मृतियों की स्मृतियाँ : कुमार अम्‍बुज
फ़िल्म

स्मृतियों की स्मृतियाँ : कुमार अम्‍बुज

2024 : इस साल किताबें
आलेख

2024 : इस साल किताबें

पक्षधरता का चुनाव और आचरण का संकट : कुमार अम्बुज
बहसतलब

पक्षधरता का चुनाव और आचरण का संकट : कुमार अम्बुज

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक