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Home » उपनिवेश में कुम्भ : उमेश यादव

उपनिवेश में कुम्भ : उमेश यादव

पराधीन भारत में कुम्भ की व्यवस्था ब्रिटिश शासन के अधीन थी. मेले से तत्कालीन सरकार को व्यय से कई गुना अधिक राजस्व की प्राप्ति होती थी. यह स्वाधीनता संघर्ष का समय था. अरुणोदय की बेला थी. विवेक, तर्क और चेतना का प्रसार हो रहा था. धर्म और परम्परा की निर्भय विवेचना होती थी. उस समय की प्रसिद्ध पत्रिका ‘चाँद’ के मार्च 1930 के अंक में विजयानन्द (दुबे जी) द्वारा ‘दुबे जी की चिट्ठी’ नाम से एक लेख छपा मिलता है. यह प्रख्यात साहित्यकार विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक' थे. यह लेख कुम्भ और दूसरे स्नान आदि मेले की तीक्ष्ण और साहसिक आलोचना करता है. लगभग 95 वर्ष बाद इस लेख को पढ़ना उस नवजागरणकालीन चेतना से गुज़रना है जिसने अंततः आज़ादी को संभव किया. इस तरह के लेखन की कल्पना क्या आप आज कर सकते हैं? इस लेख को उमेश यादव ने उपलब्ध कराया है. सभी चित्र भी उन्हीं के सौजन्य से प्राप्त हुए हैं. यह अंक प्रस्तुत है.

by arun dev
January 13, 2025
in शोध
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उपनिवेश में कुम्भ : उमेश यादव
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दुबे जी की चिट्ठी
विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’

अजी सम्पादक जी महाराज,
जय राम जी की !

 

गत मास आपके इलाहाबाद में कुम्भ-स्नान का विराटोत्सव था I यद्यपि अपने राम इस धर्मोत्सव के पास भी नहीं फटके, परन्तु अन्य लोगों से वहाँ के जो समाचार मिले, उनसे अपने राम ने यह निष्कर्ष निकाला कि हिन्दुओं में बौड़म-पन्थ का अटल साम्राज्य है I लोग टिड्डी-दल की भाँति प्रयागराज पर टूट पड़े थे I क्यों? इसलिए कि बारह वर्ष पश्चात् भगवान्-इन-क्षीरसागर ने स्वर्ग के फ्री पास बाँटे थे I प्रत्येक बारहवें वर्ष भगवान् एक विशेष स्थान पर, एक विशेष मास की विशेष तिथि के एक विशेष समय पर स्वर्ग के पास मुफ़्त वितरण करते हैं I ये पास पानी के अन्दर मिलते हैं I भगवान् स्वयं सागर के अन्दर रहते हैं न? इस कारण वह खुश्की में खड़े होकर पास माँगने वालों की बात भी नहीं सुनते I पास प्राप्त करने के लिए पानी में गोता मारना आवश्यक है I इस बार प्रयागराज की त्रिवेणी के सङ्गम पर इन पासों की वर्षा हुई थी I फर्स्ट क्लास के पास तो सुनते हैं, सदैव नाँगे मार ले जाते हैं I नङ्गा खुदाई से चङ्गा I नङ्गों के सामने भले आदमी भला कहाँ टिक सकते हैं? भगवान् भी इन नङ्गों से भय खाते हैं; तब सर्व-साधारण क्यों न डरें? एक ही नङ्गा सैकड़ों को ज़िच कर देता है; तब जहाँ हज़ारों की संख्या हो, वहाँ तो उनका राज्य ही समझना चाहिए I होता भी ऐसा ही है I कुम्भ में नङ्गों का राज्य रहता है I इसलिए फ़र्स्ट- क्लास के सब पास ये लोग हथिया लेते हैं- सर्व-साधारण को सैकेण्ड क्लास तथा थर्ड क्लास के पास मिलते हैं I सुनते हैं, गवर्नमेण्ट की ओर से भी यही प्रबन्ध रहता है कि सब से पहले नाँगे त्रिवेणी पर पहुँच जायँ I गवर्नमेण्ट सर्व-साधारण की तरह दो-चार नंगों से भय नहीं खाती; परन्तु हज़ारों की संख्या होने के कारण ज़रा हाथ-पैर बचा कर काम करती है! और नहीं तो क्या- बैठे बिठाए झगड़ा कौन मोल ले? क्योंकि बौड़म-पन्थ मीमांसा के सप्तम अध्याय के साढ़े-आठवें श्लोक के अनुसार अवसर पड़ने पर सब लोग उन्हीं नंगों की तरफ़दारी करने लगते हैं I ये नाँगे बौड़म-पन्थियों के पूज्य हैं I अच्छी वस्तु सदैव पूज्यों की भेंट की जाती है I इस कारण बौड़म-पन्थी लोग स्वर्ग का उत्तम स्थान नाँगों के लिए छोड़ देते हैं- यद्यपि यह भी सुना जाता है कि ये नाँगे मारते ख़ाँ होने के कारण ज़बरदस्ती ऐसा करते हैं I अस्तु, कारण चाहे जो हो, परन्तु होता ऐसा ही है I अपने राम से लोगों ने बहुत कहा कि दुबे जी, तुम भी प्रयाग जाकर स्वर्ग की एक कुर्सी रिज़र्व करा आओ- कम से कम थर्ड या फोर्थ क्लास में जगह मिल ही जायगी I परन्तु अपने राम को स्वर्ग से ज़रा कम प्रेम है; क्योंकि स्वर्ग का नाम लेने से मृत्यु का स्मरण हो आता है I फ़ारसी-कवि शेख सादी साहब की यह उक्ति याद आ जाती है-

 

बर्दिया दुर मुनाफा बेशुमारस्त् I
अगर ख़्वाही सलामत बर किनारस्त् I I

अर्थात्– “समुद्र में बेशुमार (असंख्य) मोती हैं, परन्तु जान की सलामती किनारे पर ही है I” अतएव जिस बात में जान का ख़तरा हो, उस काम के पास अपने राम कम फटकते हैं, चाहे उससे कितना ही लाभ क्यों न हो I

लोगों का कहना है कि प्रयाग में लाखों साधुओं की भीड़ जमा हुई थी I अनेक प्रकार के तथा अनेक पन्थ के साधु थे I नाँगे, बैरागी, संन्यासी, कबीर-पन्थी, नानक-पन्थी, रैदासी इत्यादि-इत्यादि सबकी बानगियाँ मौजूद थीं I अनेक लोग तो केवल इनके दर्शनों के लिए ही गए थे I वे लोग थे भी दर्शनीय- विशेषतः नाँगे लोग तो निश्चय ही दर्शनीय थे I ऐसे लोगों के दर्शन सर्व साधारण को कहाँ नसीब होते हैं? जिन्होंने बड़े पुण्य किए थे, उन्हीं को वे दर्शन प्राप्त हुए I खेद केवल इतना है कि अब बारह वर्ष तक उनकी झलक देखने को न मिलेगी I बीच में कुम्भी के अवसर पर कदाचित् दर्शन हो जायँ I

कुम्भ से लौटे हुए एक बौड़मपन्थी महाशय से उस दिन मेरी बातचीत हुई- बड़ा आनन्द आया I मैंने पूछा- कहिए, प्रयागराज हो आए? बौड़मपन्थी महोदय दाँत निकाल कर बोले- हाँ, हो आए I पहले तो इच्छा नहीं थी; परन्तु फिर सोचा कि मरने-जीने का मामला है I अगला कुम्भ बारह वर्ष पश्चात् पड़ेगा, तब तक जिए न जिए I

मैंने कहा- यह आपने बहुत बुद्धिमानी का काम किया I यदि इस कुम्भ में न जाते और अगला कुम्भ आने के पहले ही मर जाते, तो नरक में भी ठौर न मिलता I अब तो स्वर्ग के अधिकारी हो गए, अब क्या चिन्ता है? अब कुम्भ चाहे जन्म भर न आए I
“जन्म भर क्यों न आए, बारह वर्ष पश्चात् फिर आएगा I”
“तब फिर हो आइएगा, डबल हक़ हो जायगा I”
“और एक दफ़े पहले गए थे I”
मैंने कहा- तब तो भगवान् आपको स्वर्ग में अपने बराबर ही लिटाएँगे I आप अब इस योग्य हो गए हैं कि जिसकी आप सिफारिश कर दें, उसे स्वर्ग मिल जाय I ज़रा हमारा भी ख्याल रखिएगा I

बौड़मपन्थी महाशय रेशा ख़त्मी होकर बोले-आप भी क्या बातें करते हैं दुबे जी! मैं किस योग्य हूँ? मैं तो एक महापतित, अधम तथा पापी आदमी हूँ I
मैंने कहा- निस्सन्देह आप महापतित, नीच, पाजी, नालायक, उल्लू की दुम फ़ाख़्ता आदमी हैं I आपके मुख पर यही शोभा देता है; परन्तु स्वर्ग के अधिकारी आप हो ही गए I

“शास्त्रों में तो यही लिखा है कि कुम्भ-स्नान करने से सारे पापों का क्षय हो जाता है I”
“आप तो तीन दफ़ा स्नान कर चुके हैं, आपके तो तीन ख़ून माफ़ हो गए I तब क्या चिन्ता है, कल से आरम्भ कीजिए I”
“क्या आरम्भ करूँ?” – बौड़मपन्थी महोदय ने कुछ घबरा कर पूछा I
“ख़ून!”- मैंने उत्तर दिया I
“अजी, राम-राम! आप भी क्या बातें करते हैं दुबे जी! ऐसा काम हम भला कर सकते हैं I”
“क्यों नहीं कर सकते I अपने अधिकारों का सदुपयोग तो करना ही चाहिए I कम से कम एक ही कर डालिए I”
“वाह! आप अच्छा उल्लू बना रहे हैं I खून करूँ, जिसमें फाँसी पर लटकाया जाऊँ!”

“ओहो! यह मुझे याद ही न रहा कि फाँसी पर अवश्य लटकना पड़ेगा, चाहे पाप लगे या न लगे I इस मामले में ‘भगवान् जी ईश्वर जी अल्लामियाँ’ थोड़ी भूल करते हैं I उन्हें गवर्नमेण्ट के पास उन लोगों की सूची भेज देना चाहिए, जिनके तीन खून माफ़ हों I”

बौड़मपन्थी महाशय बोले- भगवान् जी ईश्वर जी अल्लामियाँ का क्या तात्पर्य?

मैंने उत्तर दिया- जैसे मारवाड़ियों तथा अन्य बड़े- बड़े फ़र्मों का नाम पड़ता है- रतन जी रणछोड़ जी डालमियाँ-वैसे ही स्वर्ग में भगवान् जी का भी एक फर्म है I उसका नाम ‘भगवान् जी ईश्वर जी अल्ला मियाँ’ पड़ता है I संसार का सारा काम इसी फर्म के नाम से होता है I “अच्छा ! यह आपको कैसे मालूम हुआ?”

“अब यह न पूछिए I बड़ी मुश्किल से इस रहस्य का पता लगा है I कुम्भ के अवसर पर ‘भगवान् जी ईश्वर जी अल्लामियाँ’ को बड़ा परिश्रम पड़ा है I जैसे यहाँ रेलवे कम्पनियों को ट्रेनों की संख्या बढ़ानी पड़ी थी तथा टिकिट-चेकर, बुकिङ्ग क्लर्क, क्रूमैन इत्यादि बढ़ाने पड़े थे, वैसे ही भगवान् जी को भी बहुत से क्लर्क रखने पड़े थे I

“क्यों?”

“जो लोग कुम्भ-स्नान करने आए थे, उनकी सूची बनाने के लिए I उन्हें स्वर्ग में स्थान देना पड़ेगा न? इसलिए बिना उनकी सूची रक्खे पता कैसे चलेगा? इसके अतिरिक्त उनके सब पापों को कैन्सिल कराया गया I यह सब एक आदमी थोड़े ही कर सकता था I”
बौड़मपन्थी महोदय बोले- यह तो आप मज़ाक करते हैं I

“ऐसा न कहिए; नहीं तो आपका कुम्भ-स्नान का पुण्य तथा स्वर्गाधिकार भी मज़ाक़ हो जायगा I”

“वह तो मज़ाक़ हो ही नहीं सकता- वह तो शास्त्र-सिद्ध बात है I”
“तो जो मैं कह रहा हूँ, वह भी शास्त्र-सिद्ध है I”
“किस शास्त्र के अनुसार सिद्ध है?”
“वह शास्त्र बहुत शीघ्र प्रकाशित होने वाला है I”
“कलियुग में शास्त्र लिख ही कौन सकता है-इतनी क्षमता किसमें है?”
“अच्छा, खैर न सही I अब यह बताइए कि वहाँ आपने और क्या-क्या देखा?”
“साधु-सन्तों के दर्शन किए, बड़े-बड़े महात्मा पधारे थे I”
“नाँगे भी तो आए थे?”
“हाँ, आए थे I उनमें भी बड़े-बड़े महात्मा थे I”
“जब हज़ारों की संख्या में थे, तब बड़े, छोटे, मझोले सब प्रकार के रहे होंगे; पर आपको कौन पसन्द आए, यह बताइए?”
“हमारे लिए सभी अच्छे थे, हम अपने मुँह से किसी को बुरा क्यों कहें?”
“कभी न कहिएगा, नहीं तो सारा पुण्य क्षय हो जायगा I”
“अनेक सभाएँ भी हुई थीं I”
“क्यों न हों, दर्शक मुफ़्त में मिल जाते हैं I”

“मुफ़्त से आपका क्या मतलब?”

“वैसे सभा की जाय, तो लोगों को निमन्त्रण भेजना पड़े, उनके ठहरने तथा भोजन- वोजन का प्रबन्ध करना पड़े I इसमें क्या- एक शामियाना लगा दिया और व्याख्यानदाता व्याख्यान देने लगे, थोड़ी ही देर में दर्शकों की भीड़ जमा हो गई I बड़ा सहल नुस्ख़ा है I”

“यज्ञ भी अनेक हुए थे I मालवीय जी ने भी इन यज्ञों में भाग लिया था I”
“मालवीय जी बड़े धर्मात्मा आदमी हैं I उनका क्या कहना! उन्हीं की बदौलत धर्म की जड़ हरी बनी हुई है I”

बौड़मपन्थी महोदय दाँत निकाल कर बोले- कहते तो आप ठीक हैं I मालवीय जी सत्य ही बड़े धर्मात्मा हैं I कई दिनों तक त्रिवेणी-तट पर पड़े रहे I

“ज़रूर पड़े रहे होंगे I वह ऐसे मामलों में बहुत पड़े रहते हैं I इन्हीं बातों से तो अनेक राजे-महाराजे, सेठ-साहूकार उन पर प्रसन्न रहते हैं I”

“ठीक बात है I धर्मात्मा से सब प्रसन्न रहते हैं I”

“वह ऐसे धर्मात्मा हैं कि सबको प्रसन्न रखते हैं, यहाँ तक कि गवर्नमेण्ट भी उनसे प्रसन्न रहती है I गवर्नमेण्ट को प्रसन्न रखना कितना कठिन कार्य है, यह आप जानते ही हैं I”

“बेशक, आप ठीक कहते हैं I जब सरकार भी प्रसन्न रहती है, तब हद हो गई I”

“हद क्या हो गई ! बस, समझ लीजिए कि ग़ज़ब हो गया I”

वह महोदय कुछ क्षणों तक ठहर कर बोले-मालवीय जी ने एक यज्ञ कराया था, जिसमें तीन लाख रुपए खर्च हुए थे I

“अजी तीन लाख की क्या हस्ती है? यदि मिलते तो करोड़ों स्वाहा कर दिए जाते, ऐसा अवसर रोज़-रोज़ थोड़ा ही मिलता है I”
“मालवीय जी ने बड़ा पुण्य कमाया है I इतना पुण्य कमाया है कि रखते उठाते नहीं बन पड़ता I उनकी तो बात ही क्या, उनकी तीन पुश्त के ख़र्च किए भी न चुकेगा I”

“दुबे जी, आप नहीं गए; यह अच्छा नहीं किया I जाना चाहिए था I”
“बात तो आप समझदारी की कहते हैं I”
“जाते तो बड़ा पुण्य प्राप्त करते I”

“खैर, इसका मुझे अफसोस नहीं I ये लाखों आदमी जो पुण्य की गठरियाँ बाँध बाँध कर लाए हैं, तो क्या सब अकेले ही गटक जायेंगे I यदि थोड़ा-थोड़ा हमारे जैसे आदमियों को दे दें, तो क्या हर्ज है?”

“आप तो दिल्लगी करते हैं I” – यह कह कर वह महोदय चले गए I

सम्पादक जी, हिन्दुओं की बौड़मपन्थी का वर्णन कहाँ तक किया जाय? लाखों रुपए रेल में, यज्ञों में तथा सण्ड-मुसण्ड साधु-सन्तों के भण्डारों में स्वाहा हो गए I हमारे शहर से इन साधुओं के लिए अनेक नौकाएँ खाद्य-सामग्री तथा वस्त्रों से लद कर प्रयागराज गई थीं I जो ग़रीब हैं, जिन्हें वास्तव ही सहायता की आवश्यकता है, उनकी कोई बात भी नहीं पूछता I असंख्य अनाथ बच्चे, विधवाएँ तथा ऐसे लोग, जिन्हें कोई नौकरी अथवा मज़दूरी नहीं मिलती, भूखों मरते हैं और हमारे सेठ-साहूकार इन साधु-सन्तों को, जो रात-दिन नशे में झूमा करते हैं और बहू-बेटियों का सतीत्व नष्ट करने की ताक में रहते हैं- हलवा-पूरी खिलाते हैं I यह धर्म है? यह तो महाअधर्म है I वे लोग, जो घर में स्त्रियों को सात पर्दे के अन्दर रखते हैं, प्रयाग में उन्हें नाँगों का दर्शन कराने ले गए थे I क्यों? इसलिए कि उनके दर्शनों से पाप कट जाते हैं I इस मूर्खता का भी कोई ठिकाना है? इस तूफ़ाने-बेतमीज़ी में सैकड़ों कुचल कर मर गए- सैकड़ों खो गए, अनेकों डूब गए और न जाने कितने बीमारी इत्यादि के ग्रास बन गए I यह लाभ हुआ! जो कुम्भ-स्नान करके सकुशल आ गए, उनसे जो पूछा जाता है कि तुम्हें वहाँ जाने से क्या लाभ हुआ, तो कहते हैं- “आप क्या जानें क्या लाभ हुआ I” बेशक हमको क्या पता मिल सकता है! वह लाभ तो ‘भगवान् जी ईश्वर जी अल्लामियाँ’ के बही-खातों में लिखा हुआ है I

मुझे अनेक ऐसे आदमी मिले, जो कुम्भ में जाने के घोर विरोधी थे; परन्तु फिर भी गए I उनसे जो पूछा गया– “आप तो इसके ख़िलाफ़ थे, फिर क्यों गए?” तो बोले-

“स्त्रियाँ न मानीं; इसलिए मजबूरन जाना पड़ा I” कुछ लोगों ने कहा- “सब लोग जा रहे थे, इसलिए हम भी चले गए I”
यह दशा है, भगवान् जाने इस हिन्दू-समाज को कब बुद्धि आएगी!

भवदीय,
विजयानन्द (दुबे जी) I

 

उमेश यादव

388/1A/1, छोटा बघाड़ा, इलाहाबाद- 211002
ईमेल- umesh198129@gmail.com

Tags: उपनिवेश में कुम्भउमेश यादवविश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक'
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Comments 15

  1. Anonymous says:
    5 months ago

    विशम्भरनाथ शर्मा जी की बुद्धि पर तरस खा कर भी ऐन कुछ नहीं हासिल। वे समझ ही न सके

    Reply
  2. दिवा भट्ट says:
    5 months ago

    लगता ही नहीं कि एक शताब्दी पहले का है।

    Reply
    • Anonymous says:
      5 months ago

      कबीरपंथी और रैदासी भी गये थे स्वर्ग प्राप्ति के लिए।

      Reply
  3. प्रमोद शाह says:
    5 months ago

    सम सामयिक। जब लेखक अंधभक्ति से कतराने के बजाय टकराते थे।

    Reply
  4. बजरंग बिहारी says:
    5 months ago

    यह लेख उपलब्ध करवाने के लिए उमेश यादव जी का विशेष धन्यवाद।
    विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक आस्था की मूलगामी आलोचना करते हैं जो आज बहुत ख़तरे का काम हो गई है। ख़तरनाक तो तब भी थी।

    Reply
  5. कमलानंद झा says:
    5 months ago

    एन वक्त पर अत्यंत प्रासंगिक लेख उपलब्ध कराने के लिए उमेश जी को बहुत बहुत धन्यवाद। और समालोचन पर इसे साहसपूर्वक प्रकाशित करने के लिए अरुण देव जी को साधुवाद। आज अगर कोई ऐसा लिखे तो भक्तों की टोली उसके पीछे मधुमक्खी की तरह पिल पड़ेगी। जान बचे तो लाख उपाय।

    Reply
  6. Anonymous says:
    5 months ago

    इतिहास के झरोखे से वर्तमान को ललकारती एक सुंदर रचना सामने लाने के लिए धन्यवाद।

    Reply
  7. अनिल कुमार सिंह says:
    5 months ago

    अत्यंत सामयिक आलेख उपलब्ध करवाने के लिए उमेश जी को धन्यवाद।बौड़मपंथी मानसिकता ने ही आज तक हिन्दू समाज के अधिकांश को आधुनिक तक न होने दिया है ।सभी अपने अपने धर्म(??)और जातियों के कबीले में ही सुरक्षित महसूस करते हैं । ब्राह्मणवादी व्यवस्था जनमानस के इस असुरक्षावोध को लगातार बनाए रखती है ।दुबे जी की चिट्ठी या शिवशंभु के चिट्ठे जिस स्पेस में लिखे जा रहे थे वह पूरी तरह समाप्त हो चुका है । अब तो शायद शर्मा जी की जान बचना मुश्किल होती ।

    Reply
  8. रोहित कुमार चौधरी says:
    5 months ago

    तात्कालिक समाज से लेकर आज वर्तमान तक में ऐसे बौड़म पंथी। लोग कम होने के बजाए इनमें वृद्धि ही होती।मिली हैं। धर्म के चक्रव्यूह और जन्म जन्मांतर के पाप को पुण्य में बदलने की लालच ने इनकी अक्ल पर ऐसी कुंडली मार ली हैं कि सारा जान विज्ञान थोथा साबित होता हैं।
    उमेश यादव जी को बहुत बहुत साधुवाद की आप इस बेहतरीन लेख को ऐसे समय पर खोज कर लोगों के सामने लाए हैं जहां तार्किक चिंतन करने तक पर आपकी जीवन लीला समाप्त की जा सकती हैं।

    Reply
  9. खुर्शीद अकरम says:
    5 months ago

    कौशिक जी को नहीं जानता। शायद अगले जनम में वही परसाई बन प्रकट हुए होंगे। अन्यथा इतनी सजगता से, इतना सटीक व्यंग्य और कौन लिख सकता।

    Reply
  10. ज्योति यादव says:
    5 months ago

    विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ जी तो कमाल के व्यंग्यकार थे। हम उन्हें ताई और रक्षाबंधन कहानी के कारण ही ज्यादा जानते हैं। कुंभ मेले पर लगभग सौ साल पहले लिखा गया उनका यह व्यंग्य ऐसा लग रहा है जैसे आज की बात हो। ऐसा साहस उस समय के लोगों के पास ही था। क्या मजाल है कोई आज ऐसी एक पंक्ति भी कुंभ पर लिख दे? समालोचन और उमेश जी को बहुत बहुत धन्यवाद, हमें चांद पत्रिका के इस लेख को पुनः उपलब्ध कराने के लिए।

    Reply
  11. कुमार अरुण says:
    5 months ago

    बहुत धन्यवाद, इस आलेख को यहां रखने केलिए !

    Reply
  12. बन्धु कुशावर्ती says:
    5 months ago

    ज्योति का कहना ठीक है–‘यह कौशिकजी का तद-समय का व्यंग्य-लेख है!’ इसके बारे में जो कुछ कहकर प्रस्तुत किया जा रहा है,वह अतिरंजना है! एक बात ही विशेष है कि यह १०० साल पहले ‘चांद’ पत्रिका में छपा था!
    बन्धु कुशावर्ती, लखनऊ/९७२१८ ९९२६८

    Reply
  13. Dinesh Priyaman says:
    5 months ago

    कौशिक जी के सौ साल पहले के इस व्यंग लेख का प्रकाशन वस्तुत: सामयिक के साथ साहसिक भी।उमेश जी के सौजन्य से भाई अरूण देव ने बढ़िया काम किया है।तब के कुंभ की तुलना में न आज के कुंभ का न राजनीति के ग्राफ का ही अनुमान करना कठिन नहीं ।

    Reply
  14. Ram Prasad Yadav says:
    5 months ago

    गुलाम भारत हो या आजाद भारत वस्तु स्थिति आज भी वही और कहें तो उससे भी बद्तर। एक बेबाक व्यंग्य रचना

    Reply

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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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