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समालोचन

Home » लता मंगेशकर के दस उत्कृष्ट गीत: यतीन्द्र मिश्र

लता मंगेशकर के दस उत्कृष्ट गीत: यतीन्द्र मिश्र

लता मंगेशकर को स्वर्गीय कहने का मन नहीं करता, उनकी आवाज़ इस नश्वर संसार में अमर है. अपने गीतों में वह हमेशा जीवित रहेंगी. उनके गीतों में से दस उत्कृष्ट का चयन आसान नहीं है. हिंदी में संगीत और कलाओं पर लिखने वाले प्रसिद्ध लेखक और कवि यतीन्द्र मिश्र जो ‘लता: सुर- गाथा’ के लेखक भी हैं, ने संगीत की बारीकियों के आधार पर यह चयन किया है और इन गीतों की विशेषताओं पर भी गम्भीरता से प्रकाश डाला है. प्रस्तुत है.

by arun dev
February 12, 2022
in संगीत
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लता मंगेशकर के दस उत्कृष्ट गीत: यतीन्द्र मिश्र
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सांगीतिक दृष्टि से लता मंगेशकर के दस उत्कृष्ट गीत

यतीन्द्र मिश्र

भारत की महान पार्श्वगायिका और भारतीय संस्कृति का सबसे उज्ज्वल सामासिक प्रतीक लता मंगेशकर जी के निधन से भारतीय संगीत में एक ऐसी रिक्तता पैदा हुई है, जिसे अगली शताब्दियों में भरा जाना फिलहाल असम्भव लगता है. उन्होंने अपने पिता मास्टर दीनानाथ मंगेशकर से छह वर्ष की उम्र में संगीत सीखना आरम्भ किया था, जिसे बाद में उनके दो उस्तादों क्रमशः उस्ताद अमान अली ख़ाँ भेंडी बाज़ारवाले और उस्ताद अमानत ख़ाँ देवासवाले ने निखारा.

पिछली सदी के अस्सी के दशक में कुछ दिनों तक उन्होंने संगीत की रागदारी पटियाला घराने के दिग्गज उस्ताद बड़े गुलाम अली ख़ाँ साहब के शिष्य पण्डित तुलसीदास शर्मा से भी सीखी. उनके बारे में जितना लिखा जाए, उनकी सुर-श्रद्धांजलि के लिए कम है. इस टिप्पणीनुमा छोटे से लेख में उनकी गायिकी, रागदारी और सुरों के लगाव को लेकर मैंने दस ऐसे गीत चुने हैं, जिनकी व्याख्या करते हुए उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ.

हालाँकि मेरा मानना है कि उनके एक सदी से बड़े जीवन में संगीत को लेकर उनका जो अप्रतिम योगदान रहा, उस पर रचनात्मक ढंग से अभी बहुत सारा शोध, विश्लेषणात्मक लेखन और अध्ययन बाक़ी है.

(1)

कैसे दिन बीते, कैसे बीती रतियाँ, पिया जाने न…

पण्डित रविशंकर द्वारा संगीतबद्ध ‘अनुराधा’ (1960) का एक कर्णप्रिय गीत है- ‘कैसे दिन बीते कैसे बीती रतियाँ, पिया जाने न’.

मुझे गहरा विश्वास है कि इस गीत को सुनकर कोई भी रसिक और संगीत प्रेमी, अगर सिनेमा गीतों से थोड़ा दूरी भी बरतता रहा है, तो सहज ही उसके मोहपाश में बँधकर रह जायेगा. इसको लेकर कभी-कभी ऐसा एहसास भी होता है कि जैसे इस गीत की धुन सितार पर भी बजाई जा सकती है, विशेषकर, जब लता मंगेशकर ‘कैसे बीती रतियाँ’ कहती हैं. आमतौर पर ऐसी मान्यता है कि वाद्य हमेशा गायिकी का अनुसरण करता है. इस गीत में एक सुन्दर बात यह देखने को मिलती है कि किस तरह गायिकी, वाद्य के प्रभाव में अपना स्वरूप विकसित करती है. आप इस गीत को सुनें, तो इस बात को महसूस किये बग़ैर रह नहीं पायेंगे कि इसका अन्तिम रूप कहीं पण्डित जी के सितार की मनोहारी छाया लेकर परिदृश्य पर आया है.

यह मेरा एक अनुमान ही था, जिसमें शास्त्रीय गायिका शुभा मुद्गल की सहमति भी मौजूद रही है. लता जी से इस गीत की संरचना को लेकर हुई बातचीत में यह बात स्पष्ट भी हुई कि धुन बनाने के लिए पण्डित रविशंकर ने इसे सितार पर बजाकर अवश्य ही देखा होगा. लता जी याद करती हैं

‘मुझे ऐसा लगता है कि पण्डित जी ने इस फ़िल्म के हर गाने को सितार पर बनाया होगा, क्योंकि जिस तरह गाने के स्वर विकसित होते हैं, उनमें सितार अपने आप झलकती हुई दिखाई पड़ती है. ख़ासकर, ‘जाने कैसे सपनों में खो गयी अँखियाँ’ और ‘कैसे दिन बीते कैसे बीती रतियाँ’ में’ (सितार की स्वर-संगति के लिहाज से गीत को गुनगुनाकर बताती हैं).’

मेरे लिये यह खुशी और आश्चर्य मिश्रित खोज से कम नहीं, कि किसी गीत को उसके बनने की प्रक्रिया के दौरान जो आज से कई दशकों पहले सम्भव हो चुकी है, मैं कोई ऐसा सांगीतिक सूत्र भी ढूँढ पा रहा हूँ, जो फ़िल्म से अलग एक बेजोड़ संगीतकार और अप्रतिम गायिका के मध्य आपसी सहकार के कारण सम्भव हुई हो. इस गीत को लेकर शुभा जी की यह स्थापना ध्यान से पढ़ने लायक है-

‘कैसे दिन बीते कैसे बीती रतियाँ’ में ‘हाए’ अत्यन्त नाज़ुक व रूमान से भरे हुए अन्दाज़ में व्यक्त हुआ है, जबकि इस शब्द का प्रयोग अब तक भय, दया और गहरे विषाद की मनोदशाओं में होता रहा है. जलप्रपात की तरह अवरोहात्मक स्वरों में निबद्ध गीत की इस पंक्ति को लता मंगेशकर जिस सहजता से बिना किसी अतिरिक्त मेहनत के निभा ले जाती हैं, सुनना सुख से भर देता है. गीत के अन्तिम अन्तरे में, जहाँ यह पंक्ति ‘बरखा न भाए, बदरा न सोहे’ आती है, जिस सुन्दर ढंग से अति-तार सप्तक पर पहुँची है, उसे लता जी की बड़े दायरे में फैली हुई आवाज़ के सन्दर्भ में देखा जा सकता है.’

 

(2)

सपना बन साजन आए
हम देख-देख मुसकाए
ये नैना भर आए, शरमाए
सपना बन साजन आए

‘सपना बन साजन आए’ जैसा गीत हिन्दी फ़िल्मों के गीत कोश में इस ऊँचाई पर प्रतिष्ठित है कि वहाँ से यह देखना भी सिनेमा-संगीत के लिए एक पहेली बन जाता है कि किस तरह कुछ कम मशहूर लेकिन अत्यन्त सक्षम संगीतकारों ने कैसे इतने जटिल और मधुर गीतों की रचना की है. जमाल सेन के संगीत से सजी ‘शोख़ियाँ’ (1951) के लिए इस गीत की संरचना को अपने जमाने की मशहूर अभिनेत्री सुरैया के किरदार की ख़ातिर परोक्ष रूप से बुना गया था. हालाँकि फ़िल्म में यह गीत सह-अभिनेत्री पर फ़िल्माया गया है, मगर गीत का वितान फ़िल्म के मुख्य किरदार के ऊहापोह से होकर ही गुजरता है.

केदार शर्मा ने इस गीत को जितनी सुन्दर शब्दावली में लिखा है, वह तो यहाँ रचना के आस्वाद के लिए अंकित है ही, परन्तु जिस सौन्दर्य-बोध के साथ जमाल सेन राग यमन पर इसकी धुन को सिरजते हैं, वह लता जी की गायी हुई तमाम राग आधारित प्रतिष्ठित धुनों के समकक्ष ही ठहरता है. यह देखना दिलचस्प होगा कि इस गीत की रागदारी वाली समझ को जमाल सेन कहीं नौशाद, एस.डी. बर्मन, मदन मोहन, रोशन और जयदेव की उत्कृष्ट धुनों की तरह ही बरतते हैं.

 

(3)

जादूगर सैयां छोड़ो मोरी बैयां

संगीतकार हेमन्त कुमार की ‘नागिन’ (1954) फ़िल्म का बेहद कर्णप्रिय गाना ‘जादूगर सैयां छोड़ो मोरी बैयां’ भी अपने शिल्प के कारण विमर्श की वस्तु लगता है, जिसमें लता की अदायगी भी अत्यन्त भावुक ढंग से पूरी संरचना को आन्दोलित करती है. यह गीत शायद फ़िल्म का सर्वोत्तम गीत भी है, जिसमें स्थायी और अन्तरे में ली गई आरोह और अवरोह की हरकतें हैरान करती हैं. कहरवा द्रुत लय में संयोजित इस गीत को राग वृन्दावनी सारंग पर आधारित करके रचा गया है, जिसमें यह देखना महत्वपूर्ण है कि अन्तरे में तार-सप्तक की ओर कोमल गंधार और शुद्ध धैवत का अवरोहात्मक रूप से प्रयोग भी दिखाई पड़ता है. यह दोनों स्वर विवादी स्वर के रूप में गीत में उपस्थित रहकर सौंदर्य को बढ़ाते ही हैं, जिससे स्थायी और अंतरे के भी दो संश्लिष्ट रूप एकदम से एक-दूसरे के समानांतर खिलकर व्यक्त होते हैं. संगीतकार ने इस गीत की धुन में मैंडोलिन और बांसुरी का अद्भुत सहमेल विकसित किया है, जो शहनाई, मंजीरे और तबले के साथ अपनी संरचना को और भी अधिक प्रभावी बनाता है. यह भी देखना चाहिए कि लता जी ऐसे अधिकतर गीतों में अन्तरों में जाकर कमाल करती हैं, जब उनकी आवाज़ स्थाई से होकर अन्तरे पर पहुँचती है. इसी गाने का उदाहरण लें, तो कहना चाहिए कि अन्तरे पर आते हुए जब वे ‘जाने दो ओ रसिया, मोरे मन बसिया, गाँव मेरा बड़ी दूर है, तेरी नगरिया रुक न सकूँगी, प्यार मेरा मजबूर है, जंजीर पड़ी मेरे पाँव, अब घर जाने दो’ कहती हैं, तो आवाज़ की खनक और उसका ऊँचे स्वरमान (पिच) पर उभरना उनकी गायिकी को एक दूसरे ही धरातल पर प्रतिष्ठित करता है.

इस गीत के संदर्भ में यह अवश्य ही कहना चाहिए कि मैंडोलिन, शहनाई और बांसुरी जैसे अति कोमल वाद्य लता जी के उतनी ही कोमल स्वरों के साथ जैसे होड़ लेते प्रतीत होते हैं. कुल मिलाकर धुन की ज्यामिति और गायिकी का तेवर इतना रोचक है, कि इस बात का अंदाज़ा ही नहीं लगाया जा सकता कि तीन मिनट की धुन में इतनी प्रवाहमयता और भावुकता एक साथ कैसे भरी जा सकती है.

 

(4)

मुहब्बत ऐसी धड़कन है

जब आप हसरत जयपुरी का लिखा हुआ ‘मुहब्बत ऐसी धड़कन है’ ‘अनारकली’ (1953, संगीतकार: सी. रामचन्द्र) को लता मंगेशकर की दैवीय आवाज़ में लगभग स्तंभित होने की शर्तों पर सुनते हैं, तो यह विचार ही मन से चला जाता है कि यह गाना एक ऐतिहासिक मेलोड्रामापूर्ण फ़िल्म का एक जीवंत हिस्सा रहा है. ठीक उसी क्षण वह सलीम और अनारकली के जज़्बात से निकलकर एक सहज मानवीय संवेदना का प्रेम-गीत भी बन जाता है. मराठी में जिसे ‘भाव-गीत’ कहा जाता है, कुछ-कुछ उस तरह की संवेदना की नज़ाकत को बेहद कोमलता से फ़िल्म संगीत में बदलने का जो अबूझ कौतुक लता मंगेशकर और सी. रामचंद्र ने आपसी साहचर्य से पैदा किया है, वह कमाल का है.

अधिकांश संगीत जानकार इस गीत को रागेश्री राग पर आधारित मानते हैं. इसका एक कारण यह हो सकता है कि रागेश्री की स्वर-संगति में आने वाले कोमल निषाद की छाया के प्रयोग के चलते ऐसी धारणा बनी हुई है. परंतु ‘मुहब्बत ऐसी धड़कन है’ को टुकड़ों में तोड़कर सुनने से मसलन स्थायी और अंतरे को विभक्त करके देखने पर यह सहज ही पता लगता है कि इस गीत के स्थायी में शुद्ध निषाद की प्रधानता है, जो राग हेमंत और भिन्न षडज को दर्शा रहा है, जबकि अंतरे में कोमल निषाद का प्रयोग राग गोरख कल्याण के चलन पर आधारित है. इस तरह इस गीत का स्वरूप तीन रागों के मिश्रण से बनता है, जिसमें हेमंत, भिन्न षडज और गोरख कल्याण अपने-अपने चलन के साथ उपस्थित हैं. अतः इस गीत को लेकर हम दावे से यह नहीं कह सकते कि यह केवल किसी एक विशेष राग पर आधारित है.

‘मुहब्बत ऐसी धड़कन है’ अपना स्वरूप भिन्न षडज या हेमंत अथवा गोरख कल्याण को लेकर ही विकसित करती है. इस तरह के आकलन में एक तथ्यात्मक सत्यता भी छुपी हुई है कि शास्त्रीय संगीत पर आधारित फ़िल्मी गीतों का स्वरूप अक्सर कई रागों के सहयोग से बनाया जाता रहा है. इस गीत के संदर्भ में लता मंगेशकर से एक निजी बातचीत के दौरान यह स्पष्ट हुआ कि सी. रामचंद्र अपने गीतों को एक ही राग पर आधारित करके कभी नहीं बनाते थे. उनके स्थायी और अंतरे के राग अक्सर भिन्न-भिन्न होते थे. इस कारण इन तीनों रागों का सहमेल इस गीत में उचित ही जान पड़ता है. शायद इसीलिए चित्रपट-संगीत, शास्त्रीयता पर आधारित होने के बावजूद शास्त्र के बंधन में नहीं पड़ता और एक अलग ही श्रेणी सुगम-संगीत के दायरे में गिना जाता है.

 

(5)

आ जा रे परदेसी मैं तो कब से खड़ी इस पार

संगीतकार सलिल चैधरी के संगीत संयोजन की ‘मधुमती’ (1958) में सबसे उल्लेखनीय गीत के रूप में शैलेंद्र का लिखा ‘आ जा रे परदेसी मैं तो कब से खड़ी इस पार’ भी था, जिसकी ऐतिहासिकता इस बात में भी निहित है कि इस गीत को पार्श्वगायन का पहला फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार दिया गया था. उस समय जब पार्श्वगायन की श्रेणी का पुरस्कार आरंभ किया गया, तो पुरुष और स्त्री स्वरों की एक सामान्य श्रेणी ही बनायी गई थी, जिसमें 1958 का पहला पुरस्कार लता मंगेशकर के भावप्रवण गायन के संदर्भ में इस गीत के हिस्से आया. ‘आ जा रे परदेसी’ मूल रूप से राग बागेश्री पर आधारित इतना मधुर गीत बन पड़ा है कि उसकी गूंज पैदा करती हुई सुरीली अभिव्यक्ति, सलिल चैधरी की उस लीक से हटकर चलने वाली परिपाटी के तहत ही विकसित जान पड़ती है, जिसमें लता के लिए इसी तरह के कुछ और दुर्लभ गीत रचे गए हैं. वॉयलिन, पियानो, मैंडोलिन, क्लैरोनेट, बांसुरी, खंजड़ी और तबले के अद्भुत वाद्य-संयोजन से निकली हुई इस गीत की धुन कुछ दूसरे अर्थों में भी प्रयोगधर्मी संगीत का आदर्श उदाहरण रही है. विशेषकर, गीत के मध्यवर्ती-संगीत (इंटरल्यूड्स) में बजाई गई इसी फ़िल्म के दूसरे गीत ‘घड़ी-घड़ी मोरा दिल धड़के’ की धुन का अत्यंत सफल प्रयोग चकित करता है.

इस गीत से संबंधित सलिल चैधरी का यह बयान भी ग़ौरतलब है कि वे

‘आ जा रे परदेसी’ में सातवें कार्ड को मूल स्वर मानकर धुन रच रहे थे, जिससे वैसा अपेक्षित प्रभाव नहीं पैदा हो रहा था, जो वे चाह रहे थे. ऐसे में लता मंगेशकर ने उन्हें एक सुझाव दिया, जो वैसे वे कभी नहीं देती थीं, क्योंकि संगीतकार के काम में दख़ल उन्हें क़तई पसंद नहीं था. फिर भी न जाने किस प्रेरणा के तहत सहज तरीक़े से लता ने उनसे कहा कि यदि हम अंतरे के आरंभ को पांचवें स्वर ‘पंचम’ को आधार बनाकर रचें, तो गीत में एक ऐसी लोच पैदा होगी, जो निश्चित ही सुंदर लगेगी.’

यह विचार सलिल दा को एकाएक बेहद रचनात्मक लगा और उसे उसी तरह लेते हुए उन्होंने ‘आ जा रे परदेसी’ की धुन विकसित की.

 

(6)

पिया तोसे नैना लागे रे

सचिन देव बर्मन के संगीत से सजी कालजयी ‘गाईड’ (1965) के वैसे तो सारे ही गीत बेहतरीन कंपोज़ीशन का उदाहरण हैं, मगर ‘पिया तोसे नैना लागे रे’ को तो हम बर्मन दादा के ही नहीं, हिंदी फ़िल्म संगीत के इतिहास के महान गीतों में आसानी से जगह दे सकते हैं. पूरे आठ मिनट के लंबे अंतराल एवं चार बड़े अंतरों से सजा यह गीत लता मंगेशकर के पसंदीदा गीतों में एक रहा है. इस गीत की व्याख्या के समय हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि साठ के दशक में जो ताज़गी और युवा-प्रेम की अतिशय रूमानियत एस.डी. बर्मन के संगीत के इंटरल्यूड्स (मध्यवर्ती संगीत) में आने लगी थी, उसका एक बड़ा कारण यह भी था कि सन 1955 से लगातार उनके पुत्र आर.डी. बर्मन अपने पिता के सहायक संगीत निर्देशक के बतौर काम करने लगे थे. यह एक ऐसा बिंदु है, जहाँ से पिता और पुत्र के आपसी सामंजस्य और एस.डी. बनाम आर.डी. के संगीत के बहाने हम भारतीय शास्त्रीय रागों, तालों और लोक संगीत के बरअक्स पश्चिमी वाद्य-यंत्रों ब्रास, सैक्सोफ़ोन, पियानो एवं ट्रंपेट पर आधारित आर्केस्ट्रेशन, इंटरल्यूड्स में जैज़, रॉक और अन्यान्य पश्चिमी संगीत की छाया के साथ पर्कशन (ताल-वाद्य या आघात से उत्पन्न) में ड्रम और अन्यान्य वाद्यों का सफल प्रयोग देख सकते हैं. इन सबसे मिलकर बनने वाली एक संतुलित जुगलबंदी के तहत ही एस.डी. बर्मन के संगीत का आकलन किया जाना चाहिए. इसके उदाहरण के लिए, ‘पिया तोसे नैना लागे रे’ जैसा गीत एक मानक गीत बन सकता है.

इस गीत में कई स्तरों पर चलने वाली कलाकारी के दर्शन होते हैं. जैसे गीत के हर अंतरे को संगीतकार ने एक अलग ही ज्यामिति व रंग देने की कोशिश की है. मसलन होली का दृश्य रचने वाले अंतरे में पिचकारी की फुहार मारने की आवाज़ को बड़ी कोमलता से पाश्चात्य वाद्यों से रचा गया है, जिसे सुनना ही अपने आप में रोमांच से भर देता है. इस गीत में पिचकारी की आवाज़ निकालने का काम उतना ही सुंदर बन पड़ा है, जितना कि बरसों पहले हेमंत कुमार ने अपनी फ़िल्म ‘नागिन’ में बीन की मधुर आवाज़ निकालने के लिए कल्याण जी (कल्याण जी-आनंद जी) से क्ले वॉयलिन बजवाया था. क्ले वॉयलिन से निकली बीन की धुन इतनी सफल हुई कि बहुत बाद तक संगीत रसिक यह जान ही नहीं पाए कि यह धुन बीन से अलग किसी पाश्चात्य वाद्य-यंत्र के इस्तेमाल से संभव हुई थी. ठीक इसी के उलट मुखड़े और अंतरे के बीच जब ‘पिया तोसे नैना लागे रे’ का बोल आता है, उस क्षण तबला और पायल की संगति का अद्भुत काम देखने को मिलता है. लता ‘पिया तोसे’ बोलकर जब क्षण भर के लिए विराम लेती हैं, उस क्षण पायल की खनक और तबले के आघात को जिस अभूतपूर्व ढंग से बर्मन दादा शास्त्रीय शैली में उकेरते हैं, वह चकित करता है.

इस गीत की एक अलग से रेखांकित करने वाली विशेषता यह भी है कि इसे अत्यंत सुरीले रागों की छाया लेकर बुना गया है. मूलतः रूपक ताल पर आधारित यह रचना प्रमुख रूप से राग छायानट, वृंदावनी सारंग, गौड़ मल्हार एवं मांझ-खमाज़ के सुरों पर आधारित है. एक हद तक इस जटिल संरचना को स्थायी व अंतरे में इन रागों के आधार पर आपस में बदल-बदल कर गूंथा गया है. मिसाल के तौर पर जब लता, ‘नैना लागे रे’ को स्थायी में दूसरी पंक्ति में दोहराती हैं, तब उस क्षण राग छायानट के रे ग म नी ध प की स्वर-संगति अपने शिखर पर होती है और कोमल नी का जबर्दस्त इस्तेमाल इस गीत को असाधारण बना डालता है. वहीं अलग से बर्मन दादा और आर.डी. दोनों का ही प्रिय रहा राग मांझ खमाज का स्पर्श इसमें अतिरिक्त मिठास भरने का काम करता है. गीत के इंटरल्यूड्स में जिस तरह वेस्टर्न आर्केस्ट्रेशन का भराव का काम आर.डी. बर्मन ने किया है, वह भी बेहद नए ढंग से शास्त्रीय संगीत व लोक-संगीत के साथ जैसे रच-बस गया है. आप ध्यान से इस गीत के उन दो अंतरों की शुरुआत को सुनें, जहां ‘भोर की बेला सुहानी नदिया के तीरे’ एवं ‘रात को जब चांद चमके जल उठे तन मेरा’ के ठीक पहले आर.डी. अपने चिरपरिचित संगीत के टुकड़ों से इसे सजाते हैं, वह क़ाबिले तारीफ़ है. इसमें सैक्सोफ़ोन के संवेदनशील टुकड़े, सितार की संतुलित झंकृति, कहीं-कहीं बांसुरी, संतूर और पखावज का मनोहारी प्रयोग और भराव के लिए वॉयलिन का काम इसे एक ऐसी जड़ाऊ कलात्मक कारीगरी में तब्दील कर देता है, जिसकी नक़ल बना पाना बरसों बाद भी किसी संगीतकार के लिए जल्दी-जल्दी संभव नहीं रहा. कुल मिलाकर ‘पिया तोसे नैना लागे रे’ का लता जी की आवाज़ से किया गया शृंगार इतनी ख़ूबसूरती व तल्लीनता से संजोया गया है, कि वह अपनी संपूर्णता में लगभग एक मानक बनकर उभरा है.

 

(7)

अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम

जयदेव के संगीत की ‘हम दोनों’ (1961) का सबसे उल्लेखनीय गीत ‘अल्लाह तेरो नाम’ मात्र फ़िल्म के लिए रचा गया भजन नहीं है. यह गीत एक तरह से भारत की सामासिक संस्कृति और उसके भीतर रची-बसी ढेरों धार्मिक मान्यताओं की खुली आवाजाही का ऐसा प्रतीकात्मक प्रार्थना-गीत भी है, जिसकी श्रेष्ठता उसकी शब्द व अर्थ के परिसर में मुखर भाव से अभिव्यक्ति पाती है. इस गीत को सुनते हुए सबसे पहला जो विचार मन में कौंधता है, वह इस बात से ताल्लुक रखता है कि भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौर से लेकर आज़ादी के तुरंत बाद तक होने वाली गांधी जी की प्रार्थना-सभाओं में हर शाम को जो सर्व-धर्म कीर्तन होता था, उसका स्वरूप कैसा रहा होगा? क्या वहां जयदेव की इस कृति की अनुगूंजें छूट गई थीं, जो गांधी जी की मृत्यु के बारह बरस बाद साकार होने जा रही थीं.

‘रघुपति राघव राजा राम
पतित पावन सीताराम’ की टेक पर बढ़ने वाले ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम
सबको सन्मति दे भगवान’

जैसी प्रार्थना के समदर्शी सुर कहीं ऐसा भाव-गीत भी रचते हैं, जिसकी अर्थ-छायाओं के भीतर से ऐसे ढेरों सुंदर भजन सृजित किए जा सकते हैं. फ़िल्म संगीत के तमाम विद्वानों ने इस गीत को भारतीय फ़िल्म संगीत का सबसे महत्वपूर्ण भजन या हमारी समन्वयवादी छवि का नेशनल ऐन्थम माना है. यह अकारण नहीं है, क्योंकि गीत के बोल इस बात की पूरी सार्थकता से पैरवी करते हैं. आप में से अधिकांश को यह भजन याद होगा, फिर भी; रचनात्मक आस्वाद के लिए इसे यहां साझा करना प्रीतिकर लगता है. गीत इस तरह है:

अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम
सबको  सन्मति  दे  भगवान
मांगों  का  सिंदूर  न  छूटे
मां-बहनों  की  आस  न  टूटे
देह  बिना  भटके  न  प्रान
ओ  सारे  जग  के  रखवाले
निर्बल  को  बल  देने  वाले
बलवानों  को  दे  दे  ज्ञान

 

(8)

ठाढे़ रहियो ओ बांके यार

गुलाम मुहम्मद की संगीतबद्ध ‘पाकीज़ा’ (1971) के दोनों मुजरों- ‘ठाढे़ रहियो ओ बांके यार’ एवं ‘चलते-चलते यूं ही कोई मिल गया था’ को महफ़िल-परंपरा की दो पारंपरिक छवियों ‘खड़ी महफ़िल’ एवं ‘बैठकी महफ़िल’ का सुंदर निदर्शन करते हैं. ‘ठाढ़े रहियो ओ बांके यार’ की अभिव्यक्ति खड़ी महफ़िल के अंतर्गत रची गई है, जिसमें तवायफ़ बोलों को भावपूर्ण ढंग से कथक की शैली में अंजाम देती है. इस नृत्य को शायद इसीलिए लच्छू महाराज ने अपने कुशल निर्देशन में संपन्न कराया था, क्योंकि जिस ढंग से बोल पढ़ते हुए नर्तकी पैरों और हस्त मुद्राओं के संचालन को अभिनय के साथ संयोजित करती है, वह कथक के निपुण नर्तक या योग्य गुरु द्वारा बिना सीखे हुए फ़िल्माया ही नहीं जा सकता था. संगीतकार ने इस बंदिश को दादरा ताल पर रचते हुए राग मिश्र खमाज में बांधा है. गीत की शुरुआत में तानपूरा और सारंगी का आपस में रचा गया कुशल संगीतपरक संवाद चकित करता है. साथ ही बंदिश को आगे बढ़ाने में तबला, सितार और घुंघरू जैसे इस दादरे को फ़िल्म की चीज़ न बनाकर कालजयी अर्थों में उप-शास्त्रीय गायन का भी प्रामाणिक संयोजन बना डालते हैं.

यह जानना भी ‘ठाढ़े रहियो’ के संदर्भ में क़ाबिले ग़ौर है कि इस गीत को बनारस के मशहूर दादरा ‘ठाढ़े रहियो ओ बांके श्याम हो’ से हूबहू उठा लिया गया है, जो राग मिश्र खमाज पर ही आधारित है, जिसे सिद्धेश्वरी देवी एवं शोभा गुर्टू ने भी गाया है. हालांकि इस गीत में राग मिश्र खमाज के साथ ही राजस्थानी मांड की असरकारी छाया पड़ती हुई भी दिखाई देती है, जो गीत के मुखड़े के पहले बोलनुमा चार पंक्तियों में ख़ूबसूरत ढंग से व्यक्त होता है. आप इन पंक्तियों-

‘चांदनी रात बड़ी देर के बाद आई है
ये मुलाक़ात बड़ी देर के बाद आई है
आज की रात वो आए हैं बड़ी देर के बाद
आज की रात बड़ी देर के बाद आई है’

पर ग़ौर करें, तो मांड के स्वर बरबस आपको अपने प्रभाव में ले लेंगे. फ़िल्म में इस बंदिश को मजरूह सुलतानपुरी ने थोड़ा बदलकर बोल-बांट की ठुमरी जैसा विस्तार दे दिया है. यह शायद इस कारण किया गया होगा कि गीत में स्वाभाविक ढंग से अभिनय के नाटकीय तत्व समाविष्ट हो सकें. इस गीत की गायिकी के संदर्भ में लता मंगेशकर की आवाज़ का विश्लेषण करना व्याख्यातीत जान पड़ता है. उन्होंने हर पंक्ति पर ठहरकर जिस तरह सम आने की अवधि तक अपनी आवाज़ का स्वरमान (पिच) कोमलतम स्तर पर जाकर संभव किया है, वह फ़िल्म संगीत के उदाहरणों में विरल है. गाने की पूरी बनावट में जब भी स्थायी के तौर पर ‘ठाढ़े रहियो…’ आता है, वहां हर बार एक बिलकुल नए अंदाज़ में गायिका यह भाव रचती सुनाई देती हैं. कुल मिलाकर यह देखना आश्चर्य में पड़ने जैसा है कि संगीतकार ने मूल दादरा का स्वभाव और उसका राग बदला नहीं है, वरन उसे बेहद करीने से बुनी गई धुन के साथ लता मंगेशकर की आवाज़ के सान्निध्य में एक नायाब रचना की तरह बरत दिया है. शायद ही इस मुजरा गीत की तुलना में कोई दूसरा ऐसा गीत हमें हिंदी फ़िल्म संगीत के बड़े कैटलाग में से मिल सके, जो इसकी महफ़िल-संगीत वाली गंभीर छवि से मिलता-जुलता हो. अलग से, बिल्कुल सामान्य धरातल पर एक साधारण रसिक या श्रोता के लिए भी ‘ठाढ़े रहियो ओ बांके यार’ हर लिहाज़ से अपनी श्रुति-मधुरता में उल्लेखनीय बन पड़ा है.

 

(9)

अपने  आप  रातों  में  चिलमनें  सरकती  हैं
चौंकते  हैं  दरवाज़े  सीढ़ियाँ  धड़कती  हैं
एक  अज़नबी  आहट  आ  रही  है  कम-कम  सी
जैसे दिल के परदों पर गिर रही हो शबनम सी
बिन किसी की याद आए दिल के तार हिलते हैं
बिन किसी के खनकाए चूड़ियाँ खनकती हैं…

और ग़ज़ल के हर मिसरे के अन्त में ‘अपने आप’ की लरजती टेर. मुश्किल जान पड़ता है यह बता पाना कि यहाँ क़ैफ़ भोपाली बाजी मारते हैं कि संगीतकार ख़य्याम? या इन दोनों से अलग लता मंगेशकर बड़ी सहजता से ‘शंकर हुसैन’ (1977) के इस लगभग आफ़बीट गाने में जाने कितनी तड़प, शोखी और हरारत भरती हुई आगे निकल जाती हैं. आपको विश्वास न हो रहा हो, तो इसे पढ़ना बन्द करके अपने पास मौजूद लता मंगेशकर के कलेक्शन से निकालकर इस गीत को सुन सकते हैं. यदि आपके पास यह गीत न हो, तो आसानी से आप यू-ट्यूब पर जाकर एक बार इस गीत को सुनने का जतन भर कर लें, फिर उसका तिलिस्म ख़ुद आपको अपनी गिरफ़्त में ले लेगा. मैं कह नहीं सकता कि उसके बाद कितनी बार आप उसे सुनना पसन्द करेंगे.

इस बात का अंदाज़ा ही नहीं लगाया जा सकता कि फ़िल्मों में चलने वाली पारम्परिक ग़ज़ल की दुनिया से दूरी बरतते हुए कैसे इस ग़ज़ल में ख़य्याम साहब बिल्कुल एक अलग ही रास्ता पकड़ लेते हैं. ऐसी बहुत कम चुनिन्दा ग़ज़लें होंगी, जो सिनेमा के अध्याय में बिल्कुल दूसरे किस्म की कैफ़ियत रखती रही हैं. ग़ज़ल के बोलों को पढ़ने से यह बात पता लगती है कि किस तरह कुछ सुन्दर से रुमानी बिम्ब हर दूसरे मिसरे को एक अनजानी रोशनी के तागों से पिरो रहे हैं. उस पर लता मंगेशकर जैसी पार्श्वगायिका के स्वर का आघात पड़ते ही जैसे उजाले के फूल खिल आते हैं. डूबते अन्धेरे का एक लम्बा सिलसिला, एकाएक गायिकी की आलोकित सतह से हटकर भभक उठता है.

इस उजाले में जो कुछ दिपता या झिलमिलाता दिखाई पड़ता है, उसमें दिल के परदों पर शबनम गिरती है, दरवाजे चौंकते हैं और बिना किसी की याद के दिल के तार हिलते हैं. इतने पर ही यह दुनिया कायम नहीं रहती, बल्कि मुसाफ़िर रास्ते की ओर नहीं जाता, रास्ता ही जैसे ख़ुद मुसाफ़िर को अपने पास बुलाता है. यह सब इतना सहज नहीं घटता, जितना हम इत्मीनान से उसे महसूस कर पाते हैं. इसमें संगीत अपनी काँपती मध्यम रोशनी के बहाने धीरे-धीरे गुलाबी चाँद के गोले के रूप में तब्दील होता जाता है. यह अकारण नहीं है कि गायिका जब-जब ‘अपने आप’ कहते हुए ग़ज़ल को आगे बढ़ाने की पेशकश कर रही होती है- चाँदनी थोड़ी और गुलाबी, आवाज़ की परछाई कुछ ज़्यादा रुपहली दिखने लगती है.

‘शंकर हुसैन’ की इस ग़ज़ल को सुनते हुए लगता है जैसे कोई किताब आपके सामने खुल रही हो और आप उसमें से अपने पसन्द के लफ़्ज चुनकर ग़ज़ल की बुनावट में बाँध रहे हों. इस बुनावट में हर पन्ने पर मौजूद इबारत ख़ुद को पढ़वाने के लिये जिस तरह शब्दों और ध्वनियों का रहस्य खोल देती है, संगीत भी अपने सुने जाने के लिए ख़ुद के तिलिस्म की चाबी आपको आख़िरकार सौंप देता है.

 

(10)

सुनियो जी अरज म्हारी

पं. हृदयनाथ मंगेशकर के संगीत-योजना की फ़िल्म ‘लेकिन’ (1990) का सबसे उल्लेखनीय गीत ‘सुनियो जी अरज म्हारी’ रहा है, जिसे लता मंगेशकर ने अपनी दैवीय गायिकी के द्वारा तार-सप्तक पर अत्यन्त कोमलता के साथ बरक़रार रखा है. पंजाबी ठेके पर रचे गये इस गीत में रावणहत्था, सुर-मण्डल, वॉयलिन, सरोद, सारंगी, तबला-तरंग, पखावज एवं तबला का मनोहारी वाद्य-संयोजन देखने लायक है. इस गीत में कहीं-कहीं वीणा के सुर भी अपनी निष्कलंक झंकृति में बन्दिश के बोलों को इतनी रोशनी से भरते हैं कि लगता है जैसे इस बन्दिश का गायन असंख्य दीयों की जगमगाहट के बीच किया जा रहा है.

लता की प्रकाश बिखेरती आवाज़ का आरोहण-अवरोहण जैसे सुर के संयोजन को भी सजीले दीपक की तरह पूरे गीत में तरंगित करते हुए लौ का सतरंगी वृत्त बनाता दिखाई पड़ता है. यह देखना ‘सुनियो जी अरज म्हारी’ के सन्दर्भ में ग़ौरतलब है कि इण्टरल्यूड्स में रची गयी पखावज और सरोद की मैत्रीपूर्ण संगति ने पूरे गीत को अतिरिक्त कोमलता प्रदान की है, जिसमें सारंगी और सुरमण्डल से लिया जाने वाला भराव का काम अद्भुत ढंग से ध्वनि की झंकार पैदा करने वाले कई टुकड़ों की सुरीली शृंखला रचता है.

इस लिहाज़ से गीत की गुणवत्ता, उसकी शास्त्रीय उपलब्धि और गायिकी व तर्ज़ के मिलन से उत्पन्न कर्णप्रियता ने लता जी के गाए हुए कुछ पुराने दौर के गीतों की याद भी यहाँ ताजा करा दी है. गीत का शब्द-संयोजन भी अपने विन्यास में अनन्तिम है. इसकी बानगी को कुछ पंक्तियों से समझा जा सकता है, जिसमें लता मंगेशकर का जादू कुछ अलौकिक व्यंजना रचने में समर्थ रहा है.

बिसरा दियो हे काहे, बिदेस भिजाय के
हम का बुलाय ले बाबुल, डोलिया लिवाय के
भेजो  जी  डोली  उठाये  चारों  कहार
सुनियो जी अरज म्हारी, ओ बाबुला हमार
सावन आयो घर लई जइहो, बाबुला हमार.
____________

यतीन्द्र मिश्र युवा हिन्दी कवि, सम्पादक, संगीत और सिनेमा अध्येता हैं. उनके अब तक चार कविता-संग्रह- ‘यदा-कदा’, ‘अयोध्या तथा अन्य कविताएँ’, ‘ड्योढ़ी पर आलाप’ और ‘विभास’;

शास्त्रीय गायिका गिरिजा देवी पर एकाग्र ‘गिरिजा’, नृत्यांगना सोनल मानसिंह से संवाद पर आधारित ‘देवप्रिया’ तथा शहनाई उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ के जीवन व संगीत पर ‘सुर की बारादरी’ प्रकाशित हैं.

प्रदर्शनकारी कलाओं पर ‘विस्मय का बखान’, कन्नड़ शैव कवयित्री अक्क महादेवी के वचनों का हिन्दी में पुनर्लेखन ‘भैरवी’, हिन्दी सिनेमा के सौ वर्षों के संगीत पर आधारित ‘हमसफ़र’ के अतिरिक्त फ़िल्म निर्देशक एवं गीतकार गुलज़ार की कविताओं एवं गीतों के चयन क्रमशः ‘यार जुलाहे’ तथा ‘मीलों से दिन’ नाम से सम्पादित हैं.

गिरिजा’ और ‘विभास’ का अंग्रेज़ी, ‘यार जुलाहे’ का उर्दू तथा अयोध्या श्रृंखला कविताओं का जर्मन अनुवाद प्रकाशित हुआ है. इनके अतिरिक्त वरिष्ठ रचनाकारों पर कई सम्पादित पुस्तकें भी प्रकाशित हैं.  

भारतीय ज्ञानपीठ फैलोशिप, रज़ा सम्मान, भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद युवा पुरस्कार, हेमन्त स्मृति कविता सम्मान आदि मिले हैं. पुस्तक ‘लता सुर-गाथा’ को ‘स्वर्ण कमल’ से सम्मानित किया गया है.   

अयोध्या में रहते हैं तथा  ‘विमला देवी फाउण्डेशन न्यास’ के माध्यम से सांस्कृतिक गतिविधियाँ संचालित करते हैं.
yatindrapost@gmail.com

 

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Comments 15

  1. आशुतोष दूबे says:
    3 years ago

    अद्भुत। ऐसा यतीन्द्र ही लिख सकते हैं. सुरों के इस विपुल में से जो भी जैसा भी चयन करेगा, वह हमेशा एक अपर्याप्तता से जूझेगा।

    Reply
  2. इंद्रजीत सिंह says:
    3 years ago

    यतीन्द्र जी ने बहुत सुंदर लेख द्वारा लता जी की सुरीली अवाज़ का बेहतरीन विश्लेषण किया है l साहित्य के साथ साथ यतीन्द्र जी संगीत के भी गहन अध्येता है इसलिए उन्होंने लता जी के इन दस गीतों का शास्त्रीय मानकों और रागों की कसौटी पर परखा है l लता जी 20 वीं सदी की महानतम सुरीली आवाज़ है और आने वाली सदियों में भी लता जी के 25 हजार से ज्यादा गाए गए गीत उन्हें संगीत प्रेमियों के दिलों में जिंदा रखेंगे l इस धरती की सरस्वती लता जी के गीत पूरी दुनिया में , दसों दिशाओं में गूंजते रहेंगे l यतीन्द्र जी को इस मानीखेज लेख के लिए बहुत बहुत आभार आपको साधुवाद l

    Reply
  3. कृष्ण कल्पित says:
    3 years ago

    लता के 10 श्रेष्ठ गीतों का चयन आसान नहीं । यह चयन यतीन्द्र मिश्र का है । सबके अपने अपने चयन होंगे । इस पर एकमत होना सम्भव नहीं । यतीन्द्र ने अपने चयन को विश्लेषित भी किया है जो पढ़ने योग्य है । 9 नम्बर के गाने को यतीन्द्र मिश्र ने ग़ज़ल बताया है । यह कैफ़ भोपाली की लिखी नज़्म या गीत है, ग़ज़ल नहीं । भले ही इसे संगीत ग़ज़लनुमा दिया गया हो । यतीन्द्र मिश्र को संगीत का जानकार बताया जा रहा है तो ज़रूर होंगे लेकिन उन्हें ग़ज़ल और नज़्म और गीत के अंतर को भी समझना चाहिए ।
    समालोचन का आभार सुर-सम्राज्ञी को याद करने के लिए ।

    Reply
  4. राहुल झा says:
    3 years ago

    लताजी की करिश्माई गायिकी पर इस तरह इतनी महीनी…और बारीक़ी से लिखना…

    किसी कठिन साधना से कम नहीं…!

    यतीन्द्रजी के लिए बस एक ही शब्द निकलता है भीतर से…

    अद्भुत…अद्भुत… अद्भुत…!!!

    Reply
  5. कुमार अम्बुज says:
    3 years ago

    यतींद्र जी का लेख अपनी पसंद का एक अच्छा उदाहरण है। हालाँकि, सबकी पसंद की सूची अलग-अलग होगी। शताधिक गीत निकलेंगे।

    सभी बड़े गायकों को दस-बीस गीतों की श्रेष्ठता में सीमित करना किसी के लिए मुमकिन नहीं। लेकिन यह उपक्रम दिलचस्प है। ‘और अधिक’ के लिए प्रेरित करता है।

    Reply
  6. M P Haridev says:
    3 years ago

    यतींद्र मिश्रा का लेख जहाँ भावनाप्रधान है वहीं दूसरी ओर इनकी संगीत की जटिलता और जानकारी की पकड़ भी विस्मित कर जाती है । इनकी एक पंक्ति का टुकड़ा ‘धुन की ज्यामिति और गायिकी का तेवर’ मस्तिष्क में छप गया है । संगीतकार सी. रामचंद्र एक गीत में कई रागों का प्रयोग करते थे । लता मंगेशकर के निधन के बाद एनडीटीवी कवर कर रहा था । उस समय भी सी. रामचंद्र की इस ख़ूबी का उल्लेख कर गया था । यतींद्र मिश्र ने लिखा है कि लता मंगेशकर द्वारा गाया गया गीत ‘मुहब्बत ऐसी धड़कन है’ शास्त्रीय संगीत पर आधारित होने के बावजूद एक अलग तरह की श्रेणी सुगम-संगीत में आता है । गीतों में या शुद्ध शास्त्रीय संगीत मेरी समझ से परे है । परंतु इस लेख ने मुझे बाँधकर रखा । संगीत से संबंध रखने वाले 2-4 अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों को यतींद्र जी ने हिन्दी में शब्द लिखे हैं । यह इनकी दीवानगी है । पिच के लिये स्वरमान, इंटरल्यूड्स के लिये मध्यवर्ती-संगीत और पर्कशन के लिये ताल-वाद्य या आघात से उत्पन्न यतींद्र जी की शब्दावली की ऊँचाई का प्रमाण है ।

    Reply
  7. सीमा गुप्ता says:
    3 years ago

    बहुत अच्छा लिखा है, इन दिनों लता जी पर बहुत कुछ पढ़ने को मिला लेकिन मुझे आशुतोष सर और यतींद्र मिश्र जी का लिखा बहुत अच्छा लगा , इसे समझने के लिए एक बार फिर इन गीतों को सुनना होगा.. धन्यवाद समालोचन

    Reply
  8. Ammber Pandey says:
    3 years ago

    यतीन्द्र जी हिंदी के संगीत पर ऐसी अथॉरिटी से लिखनेवाले एकमात्र लेखक है। उनके बताए दस सर्वोत्तम गीत हम जैसे कच्चे सुननेवालों के लिए गाइडलाइन की तरह है।
    AP Dhillon से लता मंगेशकर की ओर यात्रा में मानचित्र की तरह है।

    Reply
  9. Harish Bhatia says:
    3 years ago

    Bahut khoobsoorat vivechanatmak lekh.Kam sa kam ek geet Madan Mohan ke sangeet mein[‘Yun Hasraton Ke Daag’] hota to bahut achchha lagta!!

    Reply
  10. Daya Shanker Sharan says:
    3 years ago

    यतीन्द्र मिश्र का यह सुंदर आलेख लता जी की गायिकी को शास्त्रीय संगीत के धरातल पर समझने की दृष्टि देता है। विशेषकर हम जैसे पाठकों के लिए जिनकी संगीत में गति कम है,यह आलेख अत्यंत मूल्यवान है।

    Reply
  11. Hari mridul says:
    3 years ago

    बधाई यतींद्र। सिने गीत-संगीत पर आपका काम अनूठा है। लता जी से मेरी भी चार-पांच अच्छी मुलाकातें रहीं। उन पर लिखी एक कहानी समालोचन ने ही छापी है। बहरहाल, मेरे पास कई संस्मरण हैं। एक अभी ‘नवभारत टाइम्स, मुंबई’ के एडिट पेज पर छपा है। आपके दस गीतों चुनाव तो ठीक है। सबकी अपनी सूची होगी।लेकिन जो इन गीतों पर लिखा है, वह मूल्यवान है।

    Reply
  12. Prayag Shukla says:
    3 years ago

    बहुत सुन्दर
    परतें पंखुड़ियों सी खुलती जाती हैं

    Reply
  13. रवि रंजन says:
    3 years ago

    यतीन्द्र जी भारतीय शास्त्रीय संगीत के साथ ही लोकप्रिय गायकी की बारीकियों को गहराई से समझने-समझाने वाले दुर्लभ कला प्रेमी हैं।
    गिरिजा, लता सुरगाथा और बिस्मिल्लाह खान पर केंद्रित इनकी पुस्तकों के साथ ही संगीत के विभिन्न घरानों पर इनके लिखे से हिंदी क्षेत्र में सांस्कृतिक चेतना के प्रसार हुआ है।
    साधुवाद।

    Reply
  14. Anonymous says:
    3 years ago

    9 नंबर का गीत न ग़ज़ल है न नज़्म वो मर्सिया है

    Reply
  15. डा संतोष चौधरी says:
    3 years ago

    जब मैं पैदा हुआ लगता है लता जी की आवाज ही सुन रहा हूं जन्म से ही और ऐसा लगता है मेरा पूरा जीवन उनके सुरीले कर्णप्रिय गीतों से ओतप्रोत रहा प्रशंसा क्या कर रहा प्रशंसा हृदय से हो कोई शब्द ना हो बस वही लता जी है मैंने तो अपने परिवार से कह दिया है जब मेरी मृत्यु हो तो बाजू में पास ही लता जी की एक पुराने गानों की सीडी मुझे सुना देना बस मुझे फिर स्वर्ग जाने से कोई नहीं रोक सकता आपने जो उनके गानों की विवेचना की है क्या बात है पढ़ने के बाद श्रद्धा और भाव दोनों हजार गुना बढ़कर भी असीम ऊंचाई तक पहुंच गए

    Reply

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