हिन्दनामा: महाकाव्यात्मक ऐतिहासिकता
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यद्यपि साहित्य में नयी-नयी विधाओं का उन्मेष हो रहा है और गद्य के विकास ने कविता को काफी पीछे छोड़ दिया है, तथापि आज भी सबसे अधिक कविता ही लिखी जा रही है. प्रयोग भी सबसे अधिक कविता के क्षेत्र में ही हो रहे हैं. जब कोई बड़ी रचना कविता विधा में आती है तो वह सहज ही साहित्य मनीषियों और सामान्य पाठकों का ध्यान आकृष्ट कर लेती है. कविता के क्षेत्र में परम्परागत काव्य रूपों का विलोपन होता जा रहा है. शायद कवियों को यह लगने लगा है कि वर्तमान समय की संवेदना को परम्परागत काव्य रूपों में से किसी रूप में अभिव्यक्त कर पाना संभव नहीं रहा है.
हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में गद्य के उन्मेष ने साहित्य के स्वरूप को काफी कुछ बदला इस सीमा तक कि कविता भी गद्य के निकट आने लगी. फिर भी कविता परम्परागत काव्य रूपों में लिखी जाती रही है. भले ही परम्परागत काव्य रूपों का ढांचा बदल गया पर काव्य रूपों का अस्तित्व बना रहा. साकेत, कामायनी, अंधा युग, उर्वशी, कुरुक्षेत्र, शम्बूक, शुककंठ विषपायी जैसे काव्य सारी नवीनताओं के बावजूद प्रबन्ध काव्य की श्रेणी में चर्चित होते रहे हैं. भले ही कामायनी का महाकाव्यात्मक स्वरूप बना रहा लेकिन उसने महाकाव्य के परम्परागत ढांचे को तोड़कर महाकाव्य विधा को नया रूप प्रदान किया. वस्तुत: महाकाव्य किसी ढांचे का नाम नहीं है, महाकाव्य तो उस काव्य गरिमा का नाम है जो किसी कविता को महाकाव्य बनाती है. राम की शक्ति पूजा, तुलसीदास (निराला), हरिजन गाथा (नागार्जुन), अंधेरे में (मुक्तिबोध), असाध्य वीणा (अज्ञेय) जैसी कविताएं भले ही महाकाव्य ना मानी जायें, लेकिन अपनी संरचनात्मक गुणवत्ता में और अभिव्यक्ति-भंगिमा में ये कविताएं महाकाव्यात्मक उदात्तता से मंडित हैं. जब-जब भी कोई बड़ी कविता जन्म लेती है तो उसका विश्लेषण अनेक दृष्टियों से होता है और मनीषी उस कविता में ऐसे तत्व खोजते हैं जो उसे एक बड़ी रचना सिद्ध करते हैं.
पिछले दिनों राजस्थान के प्रसिद्ध कवि तथा अपनी मौलिक प्रतिपत्तियों के लिए ख्यात कृष्ण कल्पित की ‘हिन्दनामा’ नाम से एक ऐसी काव्यकृति सामने आई जो अपने समय का जीवंत साक्ष्य बनती है, अतीत की बनावटों की विसंगतियों को उधेड़ती है तो भविष्य के लिए नयी कल्पनाओं का वितान खड़ा करती है. स्वयं कृष्ण कल्पित ने माना है कि उन्होंने ‘हिन्दनामा’ की रचना फिरदौसी के ‘शाहनामा’ से प्रेरित होकर मसनवी शैली में की है. किन्तु क्या हम ‘हिन्दनामा’ को एक मसनवी मान सकते हैं? शायद नहीं, क्योंकि कृष्ण कल्पित ने ‘हिन्दनामा’ की रचना न किसी महमूद गजनवी के आग्रह पर की है और न उन्हें इसकी रचना के लिए स्वर्ण दीनार (अर्थ लाभ) मिलने का कोई आश्वासन है. उन्हें इसका लालच भी नहीं है, क्योंकि यह रचना लालच देकर लिखवाने और लिखने वाले वर्ग का ही मुखर विरोध करती है.
मुझे लगता है कि कृष्ण कल्पित की ‘हिन्दनामा’ 21वीं सदी में लिखा गया एक ऐसा महाकाव्य है, जो परम्परागत काव्य की सभी अवधारणाओं का अतिक्रमण कर एक नये काव्य रूप की स्थापना करता है. अपनी प्रतिपत्ति और अपने संरचनात्मक कौशल की दृष्टि से यह रचना किसी भी सांचे में फिट नहीं की जा सकती क्योंकि कृष्ण कल्पित ने जिस सुचिंत्तित अनगढ़ता के साथ इस काव्य को रचा है, उसे किसी भी परम्परागत ढांचे में फिट करना असंभव है. कथ्य और शिल्प दोनों ही स्तरों पर यह रचना कविता के सभी मानकों को ध्वस्त करती है. इसकी गुणवत्ता के कारण ही मैं इसे महाकाव्य की संज्ञा से अभिहित कर रहा हूं, परम्परागत दृष्टि से यह महाकाव्य नहीं है.
संस्कृत काव्यशास्त्र के अनुसार महाकाव्य के ढांचे को साधे रखने का काम उसके नायक का होता है जबकि ‘हिन्दनामा’ का नायक कोई एक व्यक्ति नहीं है. बल्कि एक देश है, जिसे हम भारत, हिन्द, हिन्दुस्तान, इण्डिया जैसे अनेक नामों से पुकारते हैं, इस नायक के अतीत और वर्तमान धीरोदात्त गुणों (आध्यात्मिक और भौतिक) से युक्त हैं तथा इस नायक के पास कला के अनेक रूपों का भरपूर लालित्य है तो इसके पास सागर की गहराई में बैठी स्थिरता की शांति है और वह सबके लिए शांति की कामना भी करता है. इसके पास उद्धतता भी ऐसी है कि वह एक पूरे देश को आग लगाकर ध्वस्त करते हुए सुरक्षित लौट सकता है. यह नायक विचित्र किन्तु सत्य का ऐसा समुच्चय है कि अपने सैकड़ों भाइयों की हत्या तथा भीषण नरसंहार कर राज्य प्राप्त करने वाला तथागत का अनुकरण कर खुद शांति का प्रतीक बन जाता है और अपनी सारी राज्य शक्ति को मानव कल्याण के लिए समर्पित कर बौद्ध धर्म का प्रचार करने निकल पड़ता है. यह नायक स्वर्ण और नारी के लिए रक्तपात करने में संकोच नहीं करता तो यही नायक संसार के लिए शांति, सुरक्षा, सम्पदा और सम्पन्नता की व्यवस्था की कामना भी करता है.
दरअसल यह नायक भारत नामक महादेश है जिसकी तामीर में कुछ खामियां जरूर रह गयीं, जिसे सैकड़ों बार मिटा के बनाया गया और मिट-मिट कर यह महादेश बराबर बनता रहा. तभी तो उर्दू के कवि आशी ने कहा कि- ‘सारे संसार में इस महादेश की धूल उड़ती थी.’ इतिहासकार जॉन मार्शल ने कहा- इस महादेश की सभ्यता मैसोपोटमिया और मिस्र की उन्नत सभ्यता से कहीं आगे थी-
‘आर्यो ने एक जीती जागती सभ्यता को
मुर्दे के टीलों में बदल दिया
जिसे आज दुनियां
मोहनजोदड़ों के नाम से जानती है.’ (पृष्ठ 103)
मैक्समूलर जैसे मनीषी (ज्ञानी) ने यह स्वीकार किया है कि इस महादेश के शिल्पियों, गड़रियों, बनजारों और चरवाहों ने ऋग्वेद की ऋचाएं रचीं है, जिनको आज भी लोग याद करते हैं. यह बात अलग है कि कीथ जैसे इतिहासकारों ने यह स्थापित किया कि ‘वैदिक यज्ञ जादुई तत्त्वों से भरपूर थे. सारे वैश्विक यज्ञ-याग जादुई कर्मकाण्ड हैं.’ और जॉर्ज थामस का कहना है कि ‘जादू का सिद्धान्त भ्रम पर आधारित है.’ इसलिए उसने यह भी जोड़ दिया-
‘ज्ञान जहां समाप्त होता है
जादू वहीं से शुरू होता है
यह देश जादूगरों का देश है.’ (पृष्ठ 109)
इसीलिए इस महादेश को अंग्रेजी उपन्यासकार नायपॉल ने ‘एरिया ऑफ डार्कनेस’ कहा. इन सब विपरीत अवधारणाओं के बावजूद ऋग्वेद का ज्ञान आज भी मनीषियों के लिए पहेली बना हुआ है. असल दिक्कत उन लोगों की वजह से है जो इस ज्ञान को संकीर्ण राष्ट्रवाद की नली में डालकर इसे एक असंगत रूढ़ि में तबदील करने पर तुले हैं. यही तो इस नायक की त्रासदी रही है कि इसने अपने हर उदात्त वैशिष्टय को एक रूढ़ि में तबदील कर उसे अप्रासंगिक बना दिया है, जो इसके पिछड़ेपन की पहचान बन जाता है. जैसे- भारत में जौहर या सत्ती प्रथा कब और क्यों आरंभ हुई, इस बारे में प्रामाणिक रूप से कुछ कहना कठिन है, किन्तु इब्नबतूता लिखता है कि ‘फारसी का महाकवि शेखसादी जलती हुई स्त्री को देखकर मूर्छित नहीं हुआ बल्कि इसमें उसे एक उदात्त भावना और सौन्दर्य नजर आया, जिसका भाव है प्रेम के मामले में हिन्द की औरतों के बराबर कोई नहीं. बुझी हुई शमा पर जल मरने का सामर्थ्य हर परवाने में नहीं होता.’ (पृष्ठ 146-147)
इस नायक की सबसे बड़ी त्रासदी यही रही कि इस नायक ने स्वयं ही अपने आपको खलनायक बनकर अपनी सारी उदात्तताओं को स्वयं ही अंधविश्वास में तबदील कर दिया. इसी ने स्वयं आध्यात्मिकता के क्षेत्र में जो उपलब्धियां हासिल कीं उन्हें खुद ही एक रूढि़ में तबदील कर दिया. ‘जर्मन दार्शनिक हाईनरिक जिम्मर का मानना है कि सांख्य दर्शन-विश्व का प्रथम वैज्ञानिक दर्शन है.’ (पृष्ठ 115) लेकिन यह भूल गया ‘इतिहास प्रसिद्ध बौद्ध नगर कपिलवस्तु सांख्य दार्शनिक कपिल को बौद्धों की श्रद्धांजलि थी.’ (पृष्ठ 115) इसने अपने उन दर्शनों की मान्यताओं को हास्यास्पद बना दिया जो अनीश्वरवादी थे, लोकायत की श्रेणी में आते थे और केवल मानव कल्याण की चिंता करते थे. लेकिन इसने मानव कल्याण के लिए किये गये मनुष्यों के प्रयासों का मूल्य नहीं समझा. इस बात को ‘हिन्दनामा’ के कवि ने इस प्रकार रेखांकित किया है-
‘इस देश के कथित बुद्धिजीवी
इस देश को नहीं पहचानते
वे इस महादेश की मिट्टी की तासीर को
नहीं जानते हैं
जहाँ कोई ग्वाला, कोई गोपालक
कोई कृषक, कोई श्रमिक, कोई कामगार
किसी भी चक्रवती के रथ को
रोककर खड़ा हो जाता है.
यह महादेश दुनिया का प्रथम गणतंत्र था
और कदाचित अंतिम भी.’ (पृष्ठ 118)
कवि की दृष्टि में इस महादेश की महागाथाएं किसी को भी गर्वोन्नत कर सकती है, लेकिन हमने स्वयं ही इन महागाथाओं को सतही पहेलियों या चुटकुलों में तबदील कर दिया. इसीलिए इस देश पर बर्बर आक्रमण होते रहे इसके सारे उदात्त प्रतीकों का ध्वंस होता रहा, यहां की ज्ञान सम्पदा को विदेशों की ओर भेजा जाता रहा, मोहनजोदड़ों के खुदाई में मिले नगर और जानबूझकर नष्ट किए गए नालन्दा के भग्न अवशेष आज भी उसके उदात्त वैभव की गवाही देते हैं. लेकिन इस महादेश के लोगों ने आत्मा-परमात्मा के चक्कर में स्वयं को कर्मकाण्ड में फंसाए रखा. उदात्तता के स्थान पर कर्मकाण्ड को स्थापित किया. जिसके कारण यह उपहास का पात्र बना रहा और आज भी हमारे राष्ट्रभक्त इसी कर्मकाण्ड को ज़िन्दा रखने के लिए प्रयासरत हैं, वरना प्रधानमंत्री की सुरक्षा में हुई चूक के कारण संभावित खतरे को टालने के लिए महामृत्युजंय का जाप और हवनयज्ञ करने का क्या औचित्य था?
फिर भी इस महादेश की तासीर ही ऐसी रही कि बर्बर नरसंहार, गौरवमयी प्रतीकों के ध्वंस, दुर्दम आक्रमण भी इसको मिटा नहीं सके, इसने अपने शत्रुओं को गले लगाया, यह अलग बात है कि यहां अपनों से ही घृणा करने का व्यापार फलता-फूलता रहा. शत्रुओं को अपना बनाया, यहां तक तो ठीक था किन्तु शत्रुओं से मिलकर अपनों को मरवाया और लुटवाया, यह इसकी फितरत बन गयी. इसलिए इस महादेश की गाथा जटिल, उलझनभरी और चकित करने वाली बनती चली गयी. इस महादेश के लोगों ने स्वयं ही अपने आपको नष्ट किया अपने वैभव को लुटने दिया, अपने ज्ञान को दूसरों के हाथों में जाने दिया और आज पश्चिम अपने जिस ज्ञान पर गर्व करता है यह तो हमारे पास पहले से था, जैसी गर्वोक्ति के अहंकार में जीते रहे, हम भूल गए-
बौद्ध और जैन धर्म नहीं होते
अगर मक्खलि गोशाल नहीं होता
मक्खलि गोशाल बुद्ध और महावीर का समकालीन था
लेकिन उनसे अधिक प्रसिद्ध
वेदों का प्रथम निदंक
प्रथम आजीवक
प्रथम नास्तिक
एक कुम्हार-पुत्र मक्खलि ईश्वर का प्रथम हत्यारा था
नीत्शे तो अभी इधर का आविष्कार है. (पृष्ठ 242)
कृष्ण कल्पित ने ऐसी तमाम विसंगतियों को ‘हिन्दनामा’ में कविता बनाकर बड़े रोचक ढंग से प्रस्तुत कर दिया है. मूलत: यह ग्रंथ कविता की एक किताब है किन्तु अगर हम पढ़ना चाहें तो धर्मशास्त्र, समाजशास्त्र, इतिहास, नृशास्त्र, भूगोल, भूगर्भ-शास्त्र आदि की तरह पढ़ सकते हैं. उसका यही विस्तार इस महाकाव्य को 21वीं सदी की एक श्रेष्ठ रचना के रूप में प्रस्तुत करता है, किन्तु मूल रूप से यह कविता है और कविता मूलत: शब्दों का खेल हे. इस खेल में कृष्ण कल्पित का कवि निष्णात है और इस महादेश की कथा कहने के लिए उसने जिस भाषा का आविष्कार किया है उसे हम हिन्दी ही कहेंगे, पर उसमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, अरबी-फारसी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के शब्दों का ही नहीं उक्तियों का भी सार्थक प्रयोग किया है. ये शब्द और उक्तियां लगता है सोने में हीरे की तरह जड़ दी गयी हें. और उनकी चमक पाठकों को भीतर तक उद्भासित करती है. पृष्ठ 165 पर 151वीं कविता जैसे- इस काव्य की भाषा का उद्घोष करती है जिसके अंत में कवि कहता है-
इस महादेश की सभी भाषाएं
हर अच्छे बुरे समय सन्नद्ध खड़ी रहती थी.
निश्चय ही यह काव्य यह प्रमाणित करता है कि कृष्ण कल्पित के पास अपार ज्ञान और अनुभव सम्पदा है तो अनेक भाषाओं पर उनका पूर्ण अधिकार है, इसलिए ‘हिन्दनामा’ की भाषा गद्य-पद्य, तुकान्त-अतुकान्त, छन्दमुक्त-छंदयुक्त के भेद की परवाह किए बिना एक पर्वतीय नदी की तरह नया संगीत उत्पन्न करती हुई बहती है. बीच-बीच में संस्कृत के श्लोक अरबी-फारसी के शेर, सन्तों की बानियां, अंग्रेजी की उक्तियां, कहावतें और मुहावरे इन कविताओं के अपरिहार्य अंग बन गये हैं. भाषा की दृष्टि से ‘हिन्दनामा’ अलग तरह से पढ़े जाने की मांग करता है.
‘हिन्दनामा’ नामक काव्य कृष्ण कल्पित की काव्य प्रतिभा का जीवन्त प्रमाण प्रस्तुत करता है, साथ ही उनके गंभीर ज्ञान का प्रमाण देता है.
‘हिन्दनामा’ हिन्दी की एक ऐसी काव्य कृति है जो कभी-कभी लिखी जाती है. इस कृति में कल्पित की काव्य साधना का उत्कर्ष देखने को मिलता है. ‘हिन्दनामा’ की कविताओं में ‘बाग-ए-बेदिल’ की कविताओं जैसे व्यक्तिगत व्यंग्य नहीं हैं, ‘कविता रहस्य’ की कविताओं जैसे शास्त्रगढ़ने की बनावटी कोशिश भी नहीं है. कल्पित ने संस्कृत, उर्दू, हिन्दी के कवियों को खूब समझकर पढ़ा है, उन्होंने राजशेखर को अपनी ध्यानमूर्ति बनाया है, और मीर-गालिब की कथन भंगिमा को पचाया है. इस सब कुछ का प्रभाव ‘हिन्दनामा’ की कविताओं में देखा जा सकता है. किन्तु मुझे अफसोस है कि इस कृति की हिन्दी में उतनी चर्चा नहीं हुई जितनी की यह हकदार थी. यह एक प्रबंध काव्य भी है तो मुक्तक काव्य भी. भारत नामक देश की उन सभी श्रेष्ठताओं का जिक्र इन कविताओं में है तो उन विसंगतियों का भी चित्रण है जिन्होंने भारत की श्रेष्ठाताओं को उपहासात्मक त्रासदियों में बदल दिया है. महानताओं को तुच्छताओं में बदलने वाले विचित्र खेला के जो बिम्ब उन्होंने उकेरे हैं उन पर हम गर्व भी कर सकते हैं तो शर्मिन्दा भी हो सकते हैं. यह देश तथा यहाँ के नागरिक अपने इतिहास पर गर्व करने का अवसर प्रदान करते हैं तो शर्म के मारे डूब मरने के लिए विवश भी करते हैं. ज्ञान के क्षेत्र में इस भूभाग ने जितना विश्व को दिया उसका लाभ पश्चिम ने उठाने में कोताही नहीं बरती किन्तु हम अपने ही हास्यास्पद क्रियाकलापों से दूसरों के मनोरंजन का पात्र बनते रहे. विश्वगुरु बनने की कामना की अभिव्यक्ति इस स्तर तक होने लगी जैसे ‘विश्वगुरु’ का कोई पद खाली पड़ा हो और हमारे अलावा उस पद पर आसीन होने लायक कोई भी देश नहीं है.
इस महादेश की सभी प्रकार की त्रासदियों की भव्यता और तुच्छताभरी कथाएँ ‘हिन्दनामा’ की कविताएँ कहती हैं. एक साथ ही वे हमें उत्कर्ष की भावना से भर देती हैं और लज्जित होने पर विवश भी कर देती हैं. ये कविताएँ लगभग पांच हजार वर्ष पुरानी और उन्नत संस्कृति के इतिहास के सारे विपर्ययों तथा उलटबाँसियों की करुण कथा कहती हैं, जय और पराजय की कहानियों से पाठक को रूलाती और हँसाती हैं. इस देश ने संघर्ष का कितना अमृतपान किया है और कितना विषपान, यह इन कविताओं को पढ़कर ही समझा जा सकता है. इसमें ‘साकेत’, ‘कामायनी’, ‘उर्वशी’ आदि काव्यों जैसी नियोजित कथा भले ही नहीं है, किन्तु अगर ‘हिन्दनामा’ की कविताओं के बीच बिखरे रिक्तस्थानों को भरने का प्रयास किया जाए तो एक त्रासद महागाथा का वितान बन सकता है. मूलत: यह काव्य है और उच्च कोटि का काव्य है. ‘हिन्दनामा’ पर चर्चा करते हुए मुझे मधुलिमये की ‘इण्डियन मूवमेंट’ नामक पुस्तक का यह उद्धरण याद आता है- ‘हर तरह के अनुमान से बाहर, मुसलमान और हिन्दू भी आलसी, अय्याश, अज्ञानी और कायर हैं. देश में बड़ी और जहाज चलाने लायक नदियाँ बहुत हैं, जंगल बहुत हैं, संकरे रास्तों वाले पहाड़ों से घिरा है. संक्षेप में पैदल सिपाही बहुत होने का दिखावा करते हैं और घुड़सवार सेना (जिसमें हिन्दुस्तान की असली ताकत है) सिर्फ झूठ मूठ का डर है. सिपाही, यदि सचमुच वे यह कहलाने लायक हैं, अपने राजाओं से जरा सा भी लगाव नहीं रखते. वही उनसे सिर्फ सेवा की उम्मीद रख सकता है, जो उन्हें सबसे अच्छा पैसा देता है. उनके लिए इससे बिलकुल फर्क नहीं पड़ता कि वे किसकी नौकरी कर रहे हैं. मुझे पूरा विश्वास है कि प्लासी की लड़ाई के बाद में पूरे देश को कम्पनी के अधीन कर सकता था और जिस तरह अभी सूबे को मीरजाफर संभालता है, उतनी ही आसानी से अंग्रेजी हथियारों और उनके असर को डर के द्वारा संभाल सकता था.’ (पृष्ठ 63)
भारत के बारे में यह आकलन, दावा और आत्मविश्वास भले हैरान करे किन्तु यह सब लार्ड क्लाइव ने इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री को तब लिखा था जब वह दक्षिण में जीत हासिल करके बंगाल पहुँचा था. ‘हिन्दनामा’ में कल्पित ने ऐसे ही अनेक प्रसंगों को कविता में ढाला है, जिन्हें पढ़कर भारत की महानता पर हमें शर्म अधिक आती है.
सम्भव है निराला, मुक्तिबोध की तरह कल्पित के महत्व को भी भविष्य स्वीकार करे. पर ‘हिन्दनामा’ का प्रकाशन बिना ढंग से चर्चित हुए गुजर जाएगा, यह आश्चर्य की कम पीड़ा की बात ज्यादा है. यह कृति हिन्दी के एक बड़े प्रकाशन घराने से प्रकाशित हुई, जिससे छपने की कामना हिन्दी के सभी रचनाकार करते हैं पर प्रकाशक ने इस कृति को छाप भर दिया, इसको सारस्वत जगत में उस उत्साह के साथ प्रक्षेपित नहीं किया, जिसकी यह कृति हकदार थी. ऐसी शक्तियाँ हैं, जो प्रकाशक को आर्थिक लाभ पहुँचाने में अधिक सक्षम हैं, जो नहीं चाहेंगी कि कृष्ण कल्पित को रचनात्मक अहमियत मिले. इसके लिए स्वयं कृष्ण कल्पित के क्रियाकलाप भी जिम्मेदार हो सकते हैं. कई बार कल्पित व्यर्थ के और सारहीन विवादों में उलझ जाते हैं जिनसे उन्हें कोई लाभ नहीं हो पाता.
अंत में मैं ‘हिन्दनामा’ के महत्व को दर्शाने के लिए कृष्ण कल्पित की लिखी ‘हिन्दनामा’ की अंतिम कविता को उद्धत करना चाहूंगा-
मांग के खाइबो मसीत को सोइबो
यह रामचरितमानस रचयिता तुलसीदास का हाल था और जब काशी के बिरहमनों के गिरोह ने गरीब ब्राह्मण तुलसीदास के खिलाफ मुहिम छेड़ी तो तुलसी भागते फिरते थे और जब अयोध्या में होते थे तो बाबरी मस्जिद में शरण पाते थे और यह भी किंवदन्ती चलती आती है कि तुलसीदास ने रामचरितमानस के कई कांड बाबरी मस्जिद में रचे-लिखे बाबरी मस्जिद राम जन्मभूमि थी या नहीं इस पर इतिहासकारों में विवाद था लेकिन रामकथा को जन-जन तक पहुंचाने वाली कालजयी-काव्य रामचरितमानस की जन्मभूमि यह जरूर थी जिसे बीसवीं सदी के आखिरी दशक में हमने ढहा दिया खंडहर हमारे स्मारक थे.
कवि की कामना इन खण्डहर बने स्मारकों को पुन: प्रतिष्ठा दिलाने की है. कल्पित का कवि नहीं चाहता कि इस महादेश में खण्डहरों की संख्या बढ़ती जाए और हम कर्मकाण्डों की अंधियारी में निष्क्रियता का लिबास ओढ़े सोते रहें.
हेतु भारद्वाज |
इस संग्रह से गुजरा हूँ, इसलिए कह सकता हूँ कि यह एक बेहतरीन पाठकीय समीक्षा है। हेतु जी को बधाई।
हिन्दनामा का कैनवास इतना बड़ा है कि इस पर कितना ही लिखें कुछ छूट जाने की गुंजाइश रहेगी। लेकिन हमारे बुजुर्ग साहित्यकार ने इस महासागर में क्या गोते लगाए हैं कि वाह वाह क्या कहना। बड़ी किताब पर हेतु जी जैसा बड़ा लेखक ही लिखकर न्याय कर सकता है। इस किताब पर बहुत लिखा जाना चाहिए। हेतु जी ने इसकी महत्ता का जिक्र किया है। कल्पित जी और समालोचन का आभार और हेतु जी के लिए कहूंगा कि हे अग्रज हमें आप पर मान है। साधो साधो।
सचमुच यह सोचकर एक सुखद आश्चर्य होता है कि इतने झंझावतों और रक्तपात के बाद भी भारतीय सभ्यता साबूत बची रही।जबकि विश्व की कई महान सभ्यताओ का अंत हो गया।शायद इसका एक कारण यह रहा कि इस सभ्यता में कई धर्मों,कई संप्रदायों, उनकी जीवन शैली और दार्शनिक विचारों का एक समन्वित रूप था। इसमें नास्तिक दर्शन की भी एक अलग समृद्ध धारा प्राचीन काल से बहती रही है और जिसके कई महत्वपूर्ण दार्शनिक भी हुए । कृष्ण कल्पित की हिंदनामा शायद इस महान भारतीय सभ्यता के उन प्राण तत्वों का काव्यात्मक संधान है।समीक्षा अच्छी लगी।
हिन्दनामा पठनीय और विचारणीय पुस्तक है । कहीं कहीं असंगत है और असमंजस में या पशोपश में डालती है । यहाँ ऋग्वेद का उल्लेख किया गया है कि इसका उद्भव खींचकर 5 हज़ार वर्ष पीछे तक है । इस संबंध में विकिपीडिया मदद नहीं करेगा । विकिपीडिया पश्चिम की देन है । विकिपीडिया पर उल्लेख नहीं है कि इसको लिखने में बनजारों, चरवाहों और गडरियों का योगदान है । ऋग्वेद का काल खंड ईसा के जन्म से पूर्व 2 हज़ार वर्ष पहले तक ले जाया गया है । नहीं तो पश्चिम का प्रभुत्व धराशायी हो जायेगा । चारों वेद, उपलब्ध 12 उपनिषद, 18 पुराण और रामचरितमानस सभी काव्य कृतियाँ हैं । लेकिन आधुनिक छंदरहित कविता ने पद्य को गद्य के निकट ला दिया है । मैं अकेला जद्दोजहद नहीं कर सकता कि आर्य बाहर से आये थे और उन्होंने भारत की जीती जागती सभ्यता को नष्ट कर दिया । (ओम थानवी ने मुअनजोदड़ो शीर्षक से पुस्तक लिखी थी । वे वहाँ गये थे और उस टीले का यही नाम बताया था) को इसका प्रमाण बताया । कृष्ण कल्पित नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेषों को जानकार ताकीद करते हैं कि यह विश्वविद्यालय सचमुच ज्ञान का केंद्र था । मैं नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष देखने के लिये गया था । संयोग से एक सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर मुझे गाइड के रूप में मिल गये । अफ़सोस है कि बड़ी आयु में भी वे फटेहाल थे और ऐसे ही उनकी छतरी । सड़क की दूसरी ओर म्यूज़ियम बना हुआ था । वह भी भारतीय विद्या के प्रतीक अवशेषों से युक्त था । अब ऋग्वेद पर । हिन्दनामा में ऋग्वेद को शिल्पियों, गडरियों, चरवाहों और बनजारों द्वारा लिखा गया है । यदि जन्मजात प्रतिभा थी तभी ऋग्वेद लिख सके । विकिपीडिया यह नहीं कहता । सत्य तो आकाश जैसा है । शब्द वृक्षों जैसे हैं । लगते हैं, अंकुरित होते हैं, पल्लवित होते हैं, खिलते जाते हैं, मुरझाते हैं, मरते हैं और ज़मीन में खो जाते हैं । आकाश अपनी जगह ही खड़ा रह जाता है । सत्य शाश्वत है । हम कुछ भी कहें और कुछ भी करें, हम उसे न नया करते हैं, न उसे पुराना करते हैं । सत्य अपनी जगह खड़ा रहेगा । लीलाधर जगूड़ी के अमृत महोत्सव पर कृष्ण कल्पित को दिल्ली के एक सभागार में देखा था । मंच संचालन लीलाधर मंडलोई कर रहे थे । मंगलेश डबराल थे । अशोक वाजपेयी बोलने लगे तो कृष्ण कल्पित सभागार से चले गये । मैं उनसे मिलना चाहता था । वक़्त मिला तो राजकमल प्रकाशन से पुस्तक मँगवाकर पढ़ूँगा । आरंभ में लिखा हुआ था कि राजकमल से छपना गौरव की बात है । लेकिन राजकमल ने प्रतिगामी कुमार विश्वास की पुस्तक को छापा था । साथ ही सेवानिवृत्त पुलिस प्रशासनिक अधिकारी ध्रुव गुप्त की ग़ज़लों को भी । ये जनाब अच्छे कामों को लिये नहीं जाने जाते ।