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समालोचन

Home » लीलाधर मंडलोई : कला डायरी

लीलाधर मंडलोई : कला डायरी

प्रसिद्ध कवि-लेखक लीलाधर मंडलोई का एक व्यक्तित्व कला-साधक का भी है, संगीत और रंगों में रमने वाला. इधर उनके चित्रों की कई प्रदर्शनियाँ आयोजित हुई हैं. प्रस्तुत अंक कलाओं के निज को प्रत्यक्ष करता है. इसमें कविता है, पेंटिंग है और संगीत की स्वर लहरियाँ भी. इस आवाजाही में कला का सम्मिलित रूप उभरता है. प्रस्तुत है.

by arun dev
June 25, 2023
in कला
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लीलाधर मंडलोई : कला डायरी
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लीलाधर मंडलोई
कला डायरी

1 / प्रकृत रंग लीला

रंग आत्मजगत के बाशिंदे हैं.  चेतना में पहले वे आते हैं.  उनके साथ कोई एक भूला हुआ दृश्य ध्वनियों के साथ

रोशन होता जाता है.  जैसे इस समय बंद पलकों में सतपुड़ा की तलहटी में बसंत की भोर हो रही है.  धूप अभी गुलाबी नम है. और वह हवा में हिलते गुलमोहर को

आग़ोश में भर रही है. कुछ फूल मुख आसमान की तरफ़

हैं कुछ धरती की सिम्त. गुलाबी धूप लाल में जज़्ब होती

दिख रही है. आँखों  का कैमरा क्लोज़ अप में फूल की रेखाओं को उजागर कर रहा है. फूलों को थामे हुए शाखा

गोया रक़्स में है. उसका परिधान कुछ गाढ़ा हरा है . धूप-छाँही प्रकाश से रंगों के मूड बदल रहे हैं. एक क्षण

में उन्हें बरामद करना मुश्किल है. मैं इस प्रकृत लीला में

एक चित्र की कल्पना में लगभग स्थिर मनोयोग में हूं. मुझे

वान गाग याद आ रहे हैं.

 

2 / ऐंद्रिक अनुभूति

चित्रकला में रंग जगत वह है जो मर्म को ऐंद्रिक अनुभूति में सक्रिय कर सके.  मन को उसमें एकाग्रचित्त कर सके.

उसके बिंब को अबेरकर स्मृति में सुरक्षित रख सके.

 

3 / ‘सा’

कलाओं में अमूर्तन अदृश्य रहस्य को जानने का माध्यम है. राग अपनी मूल प्रकृति में अमूर्त है. कलाकार सरगम के ‘सा’ को जिस तरह सिद्ध करने के लिए अथक रियाज

करता है उसी तरह सुनने का भी रियाज़ होता है और एक दिन श्रोता को ‘सा’ सिद्ध हो जाता है और राग की आनंद अनुभूति का द्वार खुल जाता है.

भीमसेन जोशी कहा करते थे जिसका ‘सा’ सही न लगता हो उससे दोस्ती वर्जित है.

 

4 / कला दास

कला माधवी लता के सदृश्य होती है. जिसे जन्म के लिए

आम्र वृक्ष की दरकार होती है. आम्र वृक्ष उसके विकास के

विरुद्ध नहीं होता लेकिन यह सच्चाई है कि वह उसकी सघन छाँह में पल्लवित होने से महरूम रह जाती है. कुछ

कला गुरु आम्र वृक्ष होते हैं. वे शिष्यों को अपनी सघन छाँह से मुक्त नहीं करते. वे ताज़िंदगी शिष्यों को कला दास बनाकर रखते हैं.

 

5 / मंजीरा

मंजीरा एक मधुर ताल वाद्य है. यह उत्तर में खो गया दक्षिण में बचा है. न जाने कितने दुर्लभ वाद्यों को हमने

खो दिया.  और कितने कोमल टोनल स्वरों को. मैं पुरानी

रिकार्डिंग सुनता हूं या दृश्य माध्यम में उन्हें खोजता हूं जो अब भी अवचेतन में गूंज रहे हैं.

 

6 / अंग-अंग मदराग

बसंत अपूर्व रंग सृष्टि करता है. झक्क सुफ़ेद पोशाक का केनवस. उस पर रंग किसिम-किसिम से उतरते. सूखे और

गीले. बहते हुए और  कहीं -कहीं जमे हुए रंग-बिरंगे गुलाल के सूखे रंग. कब तक होता है यह रंग संस्कार मालूम नहीं. कभी-कभी तो शाम तक. एक मद और दूसरा

काम मद भीतर से बाहर झांकता. अधर थिरकें तो फागुन, नयन झुकें तो फागुन, देह झूमे तो फागुन. बसंत की कोई सुगंध बहे तो फागुन. रंग के कोमल छींटे मुख पर गिरें तो झुरझुरी वक्षों पर. कसक से मसक का कथक

अनुभव. और लय और ताल. अब ऐसा जो लिखने में होकर भी नहीं हो रहा है वह नृत्य में हू-ब-हू आए तो

कैसे ? रंग-सुगंध में उतरा मादक बसंत और संग साथ होली का मदराग अंग-अंग में कैसे सजीव हो नृत्य या

चित्र में, सोचता हूं और ठिठक-ठिठक जाता हूं.  अमूर्त

के कला युग में मूर्त भाव अभिव्यक्ति को देख और पा लेने की यह उत्कंठा कितनी अजीब है.

 

Art work : liladhara-mandaloi

7/ रूह की आवाज़

 

कविता इबादत है और प्रतिकार. इसकी रूह में

दु:ख, सुख शामिल हैं और मस्ती के साथ सूफ़ियाना फक्कड़पन. कोई कलंदराना भाव. यह न हो तो वह जड़

होती हुई साँसे  गिनने लगती है. उसमें उपज नहीं होती.

कविता हो या दीगर कलाएं  बने-बनाये फ्रेम में पनपती नहीं. अतिक्रमण तो दूर की बात है. मैं कविता में विवेक

से पहले कविता की रूह को देखता हूं और मेरी एक आँख हंसती है दूसरी है रोती. मैं सोचता हूँ यह भाव कलाओं में क्यों नहीं आता ?

 

8/ कविता में संगीत

सुर और ताल के दाम्पत्य में जिस तरह संगीत कालजयी है और चिरनवीन, मैं कविता में सुर-ताल के लिए बैचेन हूँ. मेरी यह सोच आधुनिक दुनिया में हँसी-उपहास का सबब

होकर रह गयी है. आज कविता को कम संगीत को लोग अधिक सुनते हैं और कवि कविता में संगीत के रियाज़

को फिजूल मानते हैं.

 

9/ संगीत की नयी समझ

प्रसिद्ध गायिका और संगीत कंपोजर मधुरानी ने एक गहरी बात उस्ताद अमीर खां और उस्ताद बड़े ग़ुलाम

अली की गायकी के भेद को स्पष्ट करते हुए कहा  -अमीर खां साहब के गायन में मानो राम हैं धीर,गंभीर और मर्यादित और बड़े ग़ुलाम अली खां में कृष्ण हैं चंचल  नवाचारी, उदात्त और राग विन्यास में प्रयोगधर्मी. आज की भाषा में कहें तो एक मेहदी हसन और दूसरा ग़ुलाम अली. यह परिभाषा इस दौर में दोहराने का मन करता है, ठिठक जाता है.

 

10 / गर्भ में राग

राग गर्भ में दुख-सुख की तरह जन्म लेकर विस्तार

पाता और अपना अंतिम स्वरूप ग्रहण  करता है.

सिद्ध कलाकार नाभि में संगीत का रियाज़ करते हैं. उनके

ऐसे सिद्ध गायन में स्वर देह में राग आकार बनाता है. आप देह को छूकर समझ पाते हैं. अमीर खां साहब ऐसे ही साधक थे, ऐसा मैंने सुना.

कविता को लेकर मैं ऐसा ही सोचता हूं.

 

Art work : liladhara-mandaloi

11/ विभाजन

हवेली संगीत को शास्त्रीय संगीत से अलग करना दुर्भाग्यपूर्ण है.  इस विभाजन में दोनों दो अधूरे राग

होने को अभिशप्त हो गये हैं .

 

12/ उस्ताद अली अकबर खां का एक आत्मीय  स्मरण और  संगीत इतिहास 

अमर कथन है-उस्ताद अली अकबर खां सुर की निजी कल्पना और विस्तार के वादक हैं. इन दोनों गुणों से जो

मिठास उत्पन्न होती है वह अपूर्व है. कल्पना की निजता

से उन्होंने चंद्रनंदन, हिडोंल हेम, लाजवंती, भूप मांड, गौरी मंजरी, मिश्र शिवरंजनी और माधवी रागों की रचना की.

गौरी मंजरी उनकी प्रसिद्ध राग रचना है.

बाबा अलाउद्दीन भी कहा करते थे कि अली अकबर का जन्म सरोद के लिए हुआ है.

उनके सरोद वादन में मींड़ की ख़ूबसूरती, स्वर रचनाओं की नयी उपज, लयकारी और तान मौलिक हैं.

माँ अन्नपूर्णा कहती थीं कि उनसा कोमल गांधार कोई और नहीं लगा सका.

 

13 / रूबरु

किसी चित्र के सौंदर्य तक पहुंचना हो तो उसके स्व-भाव को समझो, ऐसा हो सका तो आप कथा से मुक्त होकर उस रहस्य तक आंतरिक सफ़र पर निकल सकते हो और

आप उसके सौंदर्य के  पक्ष से रूबरु हो सकोगे.

 

Art work : liladhara-mandaloi

14 / प्रार्थना

बिरजू महाराज जब नृत्य के लिए श्रृंगार कर लेते थे, उसके बाद भगवान कृष्ण से प्रार्थना करते थे- हे प्रभु

आओ और अब मंच पर नृत्य करो. उनकी यह प्रार्थना कृष्ण के प्रति अदम्य विश्वास था. यह भगवान और भक्त

के बीच की निजी आस्था है. वे नृत्य सार्वजनिक मंच पर

करते अवश्य थे लेकिन वह भगवान के नृत्य की अनुकीर्तन भाव अभिव्यक्ति थी.

 

15 / ख़ानम का कथक

यूं तो कथक में कई शीर्ष कलाकार हैं. रानी ख़ानम इसलिए जुदा हैं कि वे लीक से हटकर नवाचारी काम

का जोखिम उठाती हैं. सूफ़ी कथक को जहाँ उन्होंने

एक पहचान दी वहीं उन्होंने लखनऊ की तवायफ़ों के

कथक को मूल परंपरा में अन्वेषित करने का यत्न किया.

इलेक्ट्रानिक मीडिया पर लखनऊ का होकर भी लखनऊ घराने का कथक नहीं है, न ही फ़िल्म के मुजरे का वह पापुलर रूप जो मुजरे की मूल परंपरा से दूर है.    तवायफ़ों का कथक जो राज दरबारों या नवाबों के दौलतख़ानों में हुआ करता था, ख़ानम उसे सामने लाती हैं. बैठकी की महफ़िल का

स्वरूप और नृत्य का मर्यादित चलन, पलटे, तोड़े, परन और मूल के अनक़रीब गत निकास. साहित्य में पारंपरिक

कवित्त, ठुमरी और ग़ज़लों  का स्तरीय चयन. विलंबित में

नृत्य का भाव सौंदर्य. जब अधिकांश घराने भक्ति के राधा कृष्ण के प्रेम और श्रृंगार पर एकाग्र हैं तब ऐसा प्रयोग और आज के माहौल में एक साहस भरा काम है.

 

16 /कल्पना की अति

कला में कल्पना की जुगलबंदी होती है. उसे बेकाबू न होने देना चाहिए. कल्पना की अति लयकारी ख़तरनाक़

होती है. यथार्थ को कल्पना के साथ यथार्थ की रूह होना

लाज़िमी है. एक आईना सा जिसमें उजाले और अंधेरे को

वैसा होना चाहिए जैसे कुमार गंधर्व के गायन में. संगतकार की प्रदर्शन कामना की परवाज़ में इतना नहीं

कि मूल राग की अनवरतता को खरोंच भी लगे.

 

17 / चिल्ला और कला

एक रचनाकार को अपनी रचना को,रचना की रूह को हासिल करने के लिए ‘चिल्ला’ जैसी एकांत साधना

चाहिए.

भाषा और अभिव्यक्ति के लिये साधना. फ़ारसी में ‘चिल्ला’ एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है. जिसमें 40 दिन

एकांत साधना किसी विशिष्ट सिध्दि के लिये की जाती

है. संगीत और नृत्य में कला की सिध्दि के लिये यह परंपरा है. यह कई बार की जाती है ताकि कला के अदृश्य

और अलक्षित सौंदर्य से साक्षात्कार हो सके. भक्ति काल में साहित्य में, ऐसे उदाहरण मिलते हैं लेकिन इधर शायद ही कहीं कोई  लेखक, ऐसा सोचता और करता हो.

 

Art work : liladhara-mandaloi

18 / ध्वनि दृश्य का सृजन

सबसे कठिन होता है रेडियो प्रोग्राम में ध्वनि दृश्य का निर्माण करना, वैसा जैसा कि परिवेश में होता है. दिन के

घंटों में सुबह का दोपहर में और शाम का रात में कुछ और हो जाता है. मेरा एक काम हुआ करता था रिकार्डर लेकर ध्वनियाँ रिकार्ड करना. मैं कभी पेड़ पर परिंदों की ध्वनियों के लिए चढ़ता तो अमूमन शाम के वक़्त. अनेक चिड़ियों की समवेत ध्वनियाँ मधुर. साथ में

हवा के स्वर. अचानक किसी के पुकारने की आवाज़ तो

कभी गाय का रंभाना या बकरियों का मिमियाना भी रिकार्ड हो जाता. नाटक या रूपक में ध्वनि दृश्य का निर्माण बड़ी मेहनत मांगता. आलेख का मूड और उसमें

दृश्य की गति और लय को हम पार्श्व संगीत के प्रभाव से

सजाते. जब एक ध्वनि दृश्य कामयाब हो जाता तो आनंद

चौगुना हो जाता. कला की दृष्टि से ध्वनि दृश्य के निर्माण में शब्द, वाक्य, कथ्य के रंग और मूड और शेड को समझते-सीखते हुए शब्द, संगीत और अर्थ को समझने

लगते हैं. यह समझ संपादन की रीढ़ होती है. संपादक को

सेंकेंड की काया में अपनी कला का संतुलन और सौंदर्य

बरक़रार रखना होता है. संपादक का विज़न एक लंबे कालखंड में रियाज़ का हासिल होता है.

 

19 / त्वचा स्पंदन

कितने सालों उगे होंगे पौधे

जो आज दरख़्त हैं खिलते हुए

मौसम इन्हीं से गुज़रते हैं रात-दिन

शाम के दरख़्त

सुबह के नम रंग किरणीले

मानो चूमते परिंदों को

और दोपहर को सुर्ख़ मिज़ाज हो उठते हैं

धूप रह-रहकर तीव्र आकाश से बरसती है

छाया शाम की तिरछी होती हुए लहरती है

और रात की सुनहरी झिलमिल में

वेन गाग आसमान को

धरती की त्वचा पर स्पंदित करते हैं

 

20 / स्व-भाव

आनंद सदैव कला भाषा के राग में डूबकर लिया जा सकता है. दर्शक -श्रोता का स्व-भाव, कला विधा से

प्रेम में जुड़ता है.


लीलाधर मंडलोई
1953 (छिंदवाड़ा, मध्य प्रदेश)

प्रकाशन
कविता संग्रह – घर घर घूमा, रात बिरात, मगर एक आवाज़, काल बांका तिरछा, लिखे में दुक्ख, एक बहोत कोमल, तान, महज़ चेहरा नहीं पहन रखा था उसने, मनवा बेपरवाह, क्या बने बात.
संचयन-देखा अदेखा,कवि ने कहा, प्रतिनिधि कविताएं, हत्यारे उतर चुके हैं क्षीरसागर में, मेरी प्रिय कविताएं.
आलोचना-कविता का तिर्यक
डायरी– दाना पानी, दिनन दिनन के फेर, राग सतपुड़ा, ईश्वर कहीं नहीं
यात्रा वृत्तांत-काला पानी
निबंध-अर्थ जल, कवि का गद्य
अनुवाद -अनातोली पारपरा(रूसी), शकेब जलाली (उर्दू) सहित कई विश्व कवियों के अनुवाद,
संकलन- अंदमान निकोबार की लोक कथाएं, बुंदेली लोक गीतों का संग्रह -बुंदेली लोकरागिनी

चित्रकला प्रदर्शनी
At Bharat Kala Bhawan,Banaras (BHU),Bharat Bhawan  Bhopaland Expressio Jabalpur arranged Solo Exhibitioan of Digital Oaintings in 2019 आदि  
 
पता: ‘Akhar’ B 253,B Pocket, Sarita Vihar, New Delhi 76
Mail id -leeladharmandloi@mail.com

Tags: 20232023 पेंटिंगलीलाधर मंडलोई
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Comments 15

  1. Ajamil Vyas says:
    3 months ago

    बहुत अच्छी और उपयोगी सामग्री। मंडलोई जी ने बहुत कुछ सोचने को दिया। मैं इसे सहेज रहा हूँ अपने पास। ये रंगबाजी नही है, रंग शिक्षा है इसलिए ये चित्रकारों के बहुत काम की सामग्री है। आपका धन्यवाद इसे शेयर करने के लिए। मंडलोई जी को बधाई।

    Reply
  2. Sushila Puri says:
    3 months ago

    कितनी सुंदर टिप्पणियां❤️ एकबार में पढ़ गई। Leeladhar Mandloi ji की भाषा में नदी का प्रवाह और फूलों की महक है।

    Reply
  3. Dr Om Nishchal says:
    3 months ago

    सुललित आख्यान । मंडलोई का कला कर्म कविता के समानांतर ही कवि की रंग रुचियों का परिचायक है।

    Reply
  4. Meera gautam says:
    3 months ago

    इस पूरे परिवृत्त की परिक्रमा की।लीलाथर मंडलोई जी में साहित्य और कलाओं का संगुफन निःशब्द कर रहा है।संवेद्य आत्मचेतना कहीं ठहरना चाहती है। मंडलोई जी में जीवन और कला की गहरी समझ ने आश्चर्यचकित कर दिया है।
    बार- बार गहरे उतरना हमारी कोशिश है।उन गहराईयों तक पहुँचना ही हमारी सिद्धि होगी।नमन् इस कलाचेतना के साधक को💐💐

    Reply
  5. Uday Prakash says:
    3 months ago

    सब कुछ बहुत सुंदर। कविता भी और चित्र भी। बहुत अच्छा।

    Reply
  6. हीरालाल नागर says:
    3 months ago

    कला के लिए कला -यह बहुत जाना -पहचाना मुहावरा है। वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई की कला डायरी है कविता कला, दोनों में फर्क करना मुश्किल है। वैसे भी उनका गद्य रूटीन गद्य नहीं है। वह ऐसा गद्य है जिसका सिरा तो है, उसका अंत नहीं है। शब्द अहोध्वनि के साथ लंबी टेर में गुम हो जाते हैं और अर्थ की तलाश में गहराई में जाना पड़ता है। कुछ हाथ लग जाए तो बड़ी भाग्य , नहीं तो गोते लगाते रहिए।
    कला इसी का नाम है। वह गहन अध्ययन और मनन के बिना समझी नहीं जा सकती। कला डायरी कला की वस्तु है। मुझे तो यहां उनके कलात्मक गद्य के दर्शन हो रहे हैं। हो रहे हैं यह क्या कम है। बधाई और शुभकामनाएं मंडलोई जी को।

    Reply
  7. धनंजय वर्मा says:
    3 months ago

    लीलाधर मंडलोई की कविता हमेशा एक प्रीतिकर अनुभूति से समृद्ध करती है.वह विविध वर्णी, बहु आयामी, होती है.उस पर मैं एक लंबा लेख लिख चुका हूँ.इधर उनकी रचना शीलता ने कलाओं के अंतर अवलंबन और अंतर निर्भरता का समावेश किया है.रंग के दृश्य बिंब, संगीत के सुर ताल और नृत्य की लय- भंगिमा का अवतरण, उनकी अनेक स्तरीय रागत्मकता और समावेशी कल्पना का निर्विवाद प्रमाण है.

    Reply
    • Leeladhar Mandloi says:
      3 months ago

      आभार।आपकी टिप्पणी कलाओं में प्रवेश का हौसला देती है।

      Reply
  8. अरुण कमल says:
    3 months ago

    मंडलोई हमारे विरल अष्टधातु कवि हैं।हम धन्य हैं।

    Reply
    • Leeladhar Mandloi says:
      3 months ago

      आपने ऐसा देखा और कहा , यह सोचने-समझने को बाध्य करती है।

      Reply
    • अजेय says:
      2 months ago

      बहुत ही आनंदमय रहा इसे पढ़ना . फिर फिर पढूंगा . और कहूंगा, जब कहते बने . बहुत आभार सर इस अमूल्य लिखत के लिए

      Reply
  9. रामकुमार कृषक says:
    3 months ago

    कला को देखो
    और बात करो उससे
    सुनिए
    क्या कहती है आपसे
    बोलना
    वह भी जानती है
    लिखना रंगों से ।
    *
    हार्दिक बधाई आपको प्रिय भाई !

    Reply
  10. Yadvendra says:
    3 months ago

    कला विधाओं का अतिक्रमण करते इस आलेख में रस ही रस है – वहां तक पहुंचने के लिए अदब से झुकना पड़ेगा। यह अदबी ही अब विरल हो गई है भाई जी।
    यादवेन्द्र

    Reply
  11. Leeladhar Mandloi says:
    3 months ago

    आभार आपका।आनंद हुआ।

    Reply
  12. Hari Bhatnagar says:
    3 months ago

    बहुत शानदार डायरी। कहने को यह डायरी है , है कवित्त का खेल।

    Reply

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