अदालत में साहित्यकार कृष्णा सोबती, अमृता प्रीतम और मन्नू भंडारी शुभनीत कौशिक |
साहित्य की दुनिया में जब-तब विवाद होते रहते हैं. मगर कभी-कभी ये विवाद साहित्यिक दुनिया की सीमा लांघकर अदालत के कठघरे में पहुँच जाते हैं. ऐसे में यह जानना-समझना दिलचस्प होगा कि साहित्यिक दुनिया से जुड़े इन विवादों को, जिसमें कॉपीराइट, अश्लीलता या किसी साहित्यिक कृति पर बन रही फ़िल्म से जुड़े सवाल शामिल हों, अदालतों ने कैसे लिया, वादी-प्रतिवादी पक्षों ने अदालत के सामने क्या दलील और तर्क पेश किए और उन सारी दलीलों को सुनने के बाद दिए अपने फ़ैसलों में न्यायाधीशों ने क्या निर्णय सुनाया, वे कैसे उन नतीजों तक पहुँचे.
बीते कुछ दशकों में दुनिया भर की अदालतों में साहित्यिक विवादों को लेकर चले प्रसिद्ध मुक़दमों पर अकादमिक काम और शोध हुए हैं.[1] यही नहीं कुछ विद्वानों ने ऐसे साहित्यिक विवादों और उनसे जुड़े मुक़दमों को एक अलग श्रेणी- ‘क़ानून में साहित्य’ (लिट्रेचर इन लॉ) – का दर्जा दिया है. ये विद्वान ‘क़ानून में साहित्य’ की इस श्रेणी को ‘साहित्य में क़ानून’ और ‘क़ानून बतौर साहित्य’ जैसी श्रेणियों से अलग करके देखते हैं.[2] यहाँ ‘क़ानून में साहित्य’ से तात्पर्य यह समझने से है कि ‘क़ानून अपने संस्थागत आधार से परे जाकर- वह चाहे कॉपीराइट क़ानून हो या फिर ईशनिंदा, मानहानि, अश्लीलता से जुड़ी दंड संहिता या दीवानी क़ानूनों के ज़रिए हो- साहित्य से कैसे व्यवहार करता है.’[3]
इन स्थापनाओं से सहमति-असहमति अपनी जगह, पर इतना ज़रूर है कि साहित्यिक विवादों को लेकर चले मुक़दमों को एक टेक्स्ट (text) के रूप में पढ़ना बेहद दिलचस्प है. यहाँ हम ऐसे ही दो मुक़दमों की पड़ताल करेंगे. इनमें से एक मुक़दमा तो दो प्रख्यात लेखिकाओं के बीच उनके उपन्यासों के शीर्षक को लेकर चला था, वहीं दूसरा मुक़दमा एक अन्य प्रसिद्ध लेखिका और उनके उपन्यास पर फ़िल्म बनाने वाले निर्माताओं से जुड़ा हुआ है.
अदालत में ‘ज़िंदगीनामा’ : कृष्णा सोबती बनाम अमृता प्रीतम
वह नवम्बर 1983 का कोई ख़ुशनुमा दिन था, हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका कृष्णा सोबती किसी आयोजन से भोपाल से दिल्ली लौटी थीं. उन्होंने घर पर आई एक फ़िल्मी पत्रिका ‘मूवी स्टार’ उठाई, जिसमें छपे एक इश्तिहार ने उनका ध्यान खींचा. वह इश्तिहार एक किताब का था, जो पंजाबी, उर्दू और हिंदी में छपी थी और उस किताब की लेखिका थीं पंजाबी और हिंदी की मशहूर रचनाकार अमृता प्रीतम. इश्तिहार में किताब का नाम पढ़कर कृष्णा सोबती चौंकी क्योंकि उस किताब का नाम ख़ुद उनकी किताब ‘ज़िंदगीनामा’ से मिलता-जुलता था, जोकि चार बरस पहले जनवरी 1979 में छपी थी. कृष्णा सोबती अमृता प्रीतम की जिस किताब का इश्तिहार देख चौंक पड़ी थीं, उसका नाम था ‘हरदत्त का ज़िंदगीनामा’.
कृष्णा सोबती को यह लगा कि अमृता प्रीतम की किताब के शीर्षक में ‘ज़िंदगीनामा’ शब्द इसलिए इस्तेमाल किया गया है, ताकि उनकी चर्चित किताब ‘ज़िंदगीनामा’ की लोकप्रियता को भुनाया जा सके और पाठकों को भ्रम में डालकर किताब बेची जा सके. फ़रवरी 1984 में कृष्णा सोबती ने दिल्ली के ज़िला न्यायालय में अमृता प्रीतम, स्टार पब्लिकेशंस (नई दिल्ली), राजपाल एंड संस (दिल्ली) और लौ प्रकाशन (अमृतसर) के विरुद्ध एक मुक़दमा दायर किया. उल्लेखनीय है कि अमृता प्रीतम ‘हरदत्त का ज़िंदगीनामा’ की लेखिका थीं, इसलिए जहाँ वे इस मुक़दमे की मुख्य प्रतिवादी थीं. वहीं स्टार पब्लिकेशंस, राजपाल एंड संस और लौ प्रकाशन ने अमृता प्रीतम की लिखी इस किताब को क्रमशः उर्दू, हिंदी और पंजाबी में छापा था, इसलिए उन्हें भी मुक़दमे में प्रतिवादी बनाया गया था.
1984 में दायर किए गए इस मुक़दमे का फ़ैसला आने में कुल 27 बरस लग गए. इससे भारतीय अदालतों के काम करने की बेहद सुस्त रफ़्तार का भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है. ख़ैर, 4 जनवरी 2011 को जस्टिस राजेंदर कुमार शास्त्री (एडिशनल डिस्ट्रिक्ट जज) ने एक-चौथाई सदी से भी ज़्यादे वक़्त गुजर जाने इस मुक़दमे पर अपना फ़ैसला सुनाया. उल्लेखनीय है कि अदालत का यह फ़ैसला आने से कुछ बरस पहले अक्टूबर 2005 में ही अमृता प्रीतम दिवंगत हो चुकी थीं.
फ़ैसले पर आने से पूर्व जस्टिस राजेंदर शास्त्री ने दोनों पक्षों द्वारा अदालत में कही गई बातों और उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए साक्ष्यों और गवाहों के बयानों को संक्षिप्त रूप में रखा था. कृष्णा सोबती के वकील (मोहम्मद अनीस) ने उनका पक्ष रखते हुए कहा था कि कृष्णा सोबती हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका हैं और उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं. ‘ज़िंदगीनामा’ के बारे में कहा गया कि यह उपन्यास 1979 में छपा और कृष्णा सोबती के पास उसका कॉपीराइट है. उपन्यास की विषयवस्तु के बारे में कहा गया कि इस उपन्यास में बीसवीं सदी के शुरुआती बरसों में अविभाजित पंजाब के ग्रामीण जीवन की दास्ताँ कही गई है. साथ ही इस उपन्यास को 1980 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा ‘साहित्य शिरोमणि सम्मान’ दिए जाने का ज़िक्र भी अदालत में हुआ.
ख़ुद ‘ज़िंदगीनामा’ शब्द के बारे में कृष्णा सोबती के पक्ष की दलील थी कि ‘ज़िंदगीनामा’ शब्द उर्दू/फ़ारसी के दो स्वतंत्र शब्दों ‘ज़िंदगी’ और ‘नामा’ से मिलकर बना है. उनका कहना था कि संयुक्त शब्द के रूप में ‘ज़िंदगीनामा’ शब्द हिंदी, उर्दू या फ़ारसी के शब्दकोशों में नहीं मिलता और इसका प्रयोग भाषावैज्ञानिक नियमों का अतिक्रमण है. ऐसा इसलिए भी कि ‘ज़िंदगी’ स्त्रीलिंग है और ‘नामा’ पुल्लिंग. कृष्णा सोबती के पक्ष का कहना था कि ‘हरदत्त का ज़िंदगीनामा’ लिखकर अमृता प्रीतम और उस किताब को प्रकाशित और विज्ञापित कर उसके हिंदी, उर्दू और पंजाबी के प्रकाशकों ने उनके अधिकारों का ग़ैरक़ानूनी ढंग से हनन किया है.
उन्होंने अदालत से माँग की कि अदालत स्थायी निषेधाज्ञा जारी कर ‘हरदत्त का ज़िंदगीनामा’ के मुद्रण, बिक्री, विज्ञापन पर पूरी तरह से रोक लगा दे और उस किताब की लेखिका और प्रकाशकों को निर्देश दे कि वे ‘हरदत्त का ज़िंदगीनामा’ किताब के शीर्षक से ‘ज़िंदगीनामा’ शब्द हटाएँ क्योंकि वह वादी (कृष्णा सोबती) की किताब ‘ज़िंदगीनामा’ के शीर्षक की नक़ल है. इसके साथ ही वादी ने प्रतिवादियों से हर्जाने के रूप में एक लाख पचास हज़ार रुपए और मुक़दमे के खर्च की राशि की भी माँग की.
मुक़दमे के प्रतिवादी यानी अमृता प्रीतम और उनकी किताब के तीनों प्रकाशकों ने अपने पक्ष में दलील पेश करते हुए कहा कि साल 1983 में अमृता प्रीतम ने ‘हरदत्त का ज़िंदगीनामा’ पंजाबी में लिखी, जिसका बाद में हिंदी और उर्दू में अनुवाद हुआ. उनका कहना था कि इस किताब के प्रकाशन से उन्होंने किसी को धोखा नहीं दिया है, इसलिए यह मुक़दमा ख़ारिज कर दिया जाना चाहिए.
शब्दों का जीवन और अदालत : ‘ज़िंदगीनामा’ को लेकर बहस
शीर्षक में आए ‘ज़िंदगीनामा’ शब्द को लेकर कृष्णा सोबती के पक्ष द्वारा दी गई दलील का जवाब देते हुए प्रतिवादियों ने कहा कि ‘ज़िंदगीनामा’ शब्द का इस्तेमाल कम-से-कम तीन सदी पुराना है. उदाहरण के रूप में प्रतिवादियों ने सत्रहवीं सदी के फ़ारसी और अरबी के विद्वान भाई नंद लाल जी की पुस्तक प्रस्तुत की. अदालत में बताया गया कि 1697 ई. में सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह ने ख़ुद अपने हाथों से भाई नंद लाल की पुस्तक की पांडुलिपि पर ‘ज़िंदगीनामा’ शीर्षक लिखा था. इसके प्रमाण में सितम्बर 1932 में प्रकाशित भाई नंद लाल की उस किताब की मुद्रित प्रति प्रस्तुत की गई. प्रतिवादियों की दलील थी कि संयुक्त शब्द होने की वजह से ‘ज़िंदगीनामा’ शब्द फ़ारसी या उर्दू के शब्दकोशों में नहीं मिलता.
वादी और प्रतिवादियों ने अपने पक्ष में अपने गवाह भी अदालत में पेश किए. जहाँ वादी के पक्ष से ख़ुद कृष्णा सोबती, निर्मला जैन और अशोक वाजपेयी ने अदालत में गवाही दी. वहीं बचाव पक्ष से ख़ुद अमृता प्रीतम, ख़ुशवंत सिंह, जगजीत सिंह आनंद और प्रो. अब्दुल वदूद अज़हर ने गवाही दी.[4]
अदालत में दिए अपने बयान में कृष्णा सोबती ने कहा कि अपनी पहली कहानी ‘सिक्का बदल गया’ लिखने के दौरान ही ‘ज़िंदगीनामा’ लिखने का विचार उनके मन में आया था, जो जनवरी 1979 में जाकर छपा. कृष्णा जी का ज़ोर इस बात पर था कि ‘ज़िंदगीनामा’ शब्द उन्हें हिंदी के किसी शब्दकोश में नहीं मिला है. वादी पक्ष के दो अन्य गवाहों निर्मला जैन और अशोक वाजपेयी ने भी इस बात की ताईद की कि ‘ज़िंदगीनामा’ शब्द उन्हें भी किसी भी हिंदी शब्दकोश में देखने को नहीं मिला. अशोक वाजपेयी ने अपने बयान में यह भी कहा कि उन्होंने ‘ज़िंदगी’ और ‘नामा’ शब्द अलग-अलग तो सुने हैं, पर दोनों शब्दों को एक साथ उन्होंने कृष्णा सोबती के इस उपन्यास में ही पहली बार देखा.
इसके उलट बचाव पक्ष की दलील थी कि ‘ज़िंदगीनामा’ शब्द कई सदियों से प्रचलन में है. बचाव पक्ष के गवाह के रूप में नामचीन लेखक खुशवंत सिंह ने ब्रिटिश विद्वान मैक्स आर्थर मैककालिफ़ द्वारा 1909 में सिख धर्म पर लिखी गई किताब से एक उद्धरण दिया. जिसके अनुसार, भाई नंद लाल ने फ़ारसी में लिखी अपनी एक किताब ‘बंदगीनामा’ की पांडुलिपि गुरु गोविंद सिंह को दी, गुरु गोविंद सिंह ने किताब की पांडुलिपि के पहले पन्ने पर लिखे शीर्षक को ‘बंदगीनामा’ से बदलकर ‘ज़िंदगीनामा’ कर दिया था. यही नहीं खुशवंत सिंह ने सिख धर्म के इतिहास पर लिखी गई ख़ुद अपनी किताब ‘ए हिस्ट्री ऑफ़ सिख्स’ में भी भाई नंद लाल गोया की रचनाओं के संदर्भ में ‘ज़िंदगीनामा’ का ज़िक्र आने की बात कही. नंद लाल गोया की आठ अन्य रचनाएँ थीं, जिनमें गंज नामा, दीवान-ए-गोया, इंशा दस्तूर प्रमुख हैं.
बचाव पक्ष के एक अन्य गवाह जगजीत सिंह आनंद ने भाई नंद लाल की किताब ‘ज़िंदगीनामा’ के 1932 के संस्करण, भाई नंद लाल गोया के कुल्लियात और सिख साहित्य के विश्वकोश के हवाले से कहा कि ‘ज़िंदगीनामा’ शब्द सदियों पुराना है. अमृता प्रीतम ने भी अपने बयान में भाई नंद लाल गोया की कृतियों और मैककालिफ़ की किताब का हवाला दिया.
वादी और प्रतिवादी पक्ष के गवाहों को सुनने के बाद अदालत ने जिन महत्त्वपूर्ण सवालों तक ख़ुद को सीमित किया, वे थे : क्या वादी (कृष्णा सोबती) ‘ज़िंदगीनामा’ शब्द इस्तेमाल करने वाली पहली लेखक हैं? क्या बचाव पक्ष ने ‘हरदत्त का ज़िंदगीनामा’ छापकर और उसके विज्ञापन व बिक्री से ‘ज़िंदगीनामा’ उपन्यास से जुड़े कृष्णा सोबती के कॉपीराइट का उल्लंघन किया है? क्या बचाव पक्ष ने वादी के उपन्यास के शीर्षक का अनाधिकारिक और असंगत इस्तेमाल किया? क्या वादी को हर्जाना मिलना चाहिए, अगर हाँ, तो उसकी राशि क्या होगी?
इन तमाम सवालों और गवाहों के बयान पर विचार करने के बाद जस्टिस राजेंदर शास्त्री ने जो फ़ैसला लिखा, उसमें वे स्पष्ट तौर पर बचाव पक्ष द्वारा प्रस्तुत किए गए साक्ष्यों, गवाहों के बयानात और दलीलों से सहमत दिखते हैं. उन्होंने अपने फ़ैसले में कृष्णा सोबती की इस दलील को मानने से इंकार किया कि ‘ज़िंदगीनामा’ शब्द उनके द्वारा गढ़ा गया शब्द है. न उन्होंने यह माना कि ‘ज़िंदगीनामा’ शब्द भाषावैज्ञानिक रूढ़ियों का अतिक्रमण करता है. उन्होंने इस संदर्भ में ख़ुशवंत सिंह और बचाव पक्ष के दूसरे गवाहों द्वारा उद्धृत की गई भाई नंद लाल गोया की किताब ‘ज़िंदगीनामा’ का हवाला दिया. उन्होंने यह भी मानने से इंकार किया कि बचाव पक्ष ने ‘हरदत्त का ज़िंदगीनामा’ छापकर और उसके विज्ञापन व बिक्री से ‘ज़िंदगीनामा’ उपन्यास से जुड़े कृष्णा सोबती के कॉपीराइट का उल्लंघन किया है. चूँकि कॉपीराइट के उल्लंघन का कोई मामला जस्टिस राजेंदर शास्त्री ने बनता नहीं पाया था, इसलिए उन्होंने यह फ़ैसला दिया कि वादी को कोई हर्जाना नहीं मिलना चाहिए और आख़िर में वादी (कृष्णा सोबती) द्वारा दिए गए मुक़दमे को जस्टिस राजेंदर शास्त्री ने ख़ारिज कर दिया और फ़ैसले में ये भी लिखा कि दोनों पक्ष मुक़दमे का सारा ख़र्च स्वयं वहन करेंगे.
दिल्ली हाईकोर्ट में ‘ज़िंदगीनामा’
जब दिल्ली की ज़िला अदालत में ‘ज़िंदगीनामा’ को लेकर मामला लम्बित था, उसी समय कृष्णा सोबती ने एक और अपील दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर की थी. उनकी यह अपील सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत ‘हरदत्त का ज़िंदगीनामा’ के प्रकाशन, प्रचार, बिक्री पर रोक के लिए हाईकोर्ट से अस्थायी निषेधाज्ञा जारी कराने के लिए दायर की गई थी. इस मामले में भी बचाव पक्ष में अमृता प्रीतम के अलावा उनकी किताब को पंजाबी, उर्दू और हिंदी में छापने वाले प्रकाशक शामिल थे. यहाँ भी वादी कृष्णा सोबती के पक्ष द्वारा वही दलीलें दी गईं, जो ज़िला अदालत में दायर मुक़दमे में दी गई थीं. इस मामले की सुनवाई दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस हुकुम चंद गोयल की एकल पीठ द्वारा की गई थी.[5]
दिल्ली हाईकोर्ट में जब वादी के पक्ष ने कृष्णा सोबती और ‘ज़िंदगीनामा’ को मिले पुरस्कारों का उल्लेख किया, तो जवाब में बचाव पक्ष ने भी अमृता प्रीतम को मिले सम्मानों की चर्चा की. बताया गया कि अमृता प्रीतम को को 1956 में साहित्य अकादेमी और 1980 में ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया. बचाव पक्ष के मुताबिक़ अमृता प्रीतम की किताब 1983 में पंजाबी भाषा में ‘हरदत्त का ज़िंदगीनामा’ शीर्षक से अमृतसर के लौ प्रकाशन से छपी. यह उपन्यास पंजाब के एक क्रांतिकारी हरदत्त के जीवन पर आधारित था, जिन्होंने साइबेरिया में कुछ साल क़ैद में बिताए थे.
इस मुक़दमे में जस्टिस एच.सी. गोयल ने कुछ महत्त्वपूर्ण फ़ैसलों को उद्धृत किया, वे थे : फ़्रांसिस डे एंड हंटर बनाम ट्वेंटीएथ सेंचुरी फ़ॉक्स कॉर्पोरेशन लिमिटेड व अन्य (1940), डिक बनाम वोट्स (1881), वेल्डन बनाम डिक्स (1879) आदि. इन फ़ैसलों में किताब के शीर्षक के कॉपीराइट को लेकर दिए गए निर्णयों पर भी उन्होंने विचार किया. उन्होंने इतना ज़रूर माना कि जहाँ ‘ज़िंदगी’ और ‘नामा’ आमफ़हम शब्द हैं, वहीं ‘ज़िंदगीनामा’ शब्द उतना आमफ़हम नहीं है. लेकिन बचाव पक्ष द्वारा अदालत में पेश किए गए साक्ष्यों को ध्यान में रखकर जस्टिस गोयल ने कहा कि यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि ‘ज़िंदगीनामा’ शब्द कृष्णा सोबती की ईजाद है. अपने फ़ैसले में जस्टिस गोयल ने आगे लिखा कि उनका विचार है कि अमृता प्रीतम की किताब का शीर्षक ‘हरदत्त का ज़िंदगीनामा’, वादी (कृष्णा सोबती) की किताब ‘ज़िंदगीनामा’ से जुड़े कॉपीराइट का हनन नहीं करता. ये दोनों ही शीर्षक अलग-अलग हैं, उनके विषय भिन्न हैं. यहाँ तक कि किताबों के आकार में भी फ़र्क़ है. जहाँ ‘हरदत्त का ज़िंदगीनामा’ के हिंदी, पंजाबी और उर्दू संस्करण में क्रमशः 143, 199 और 205 पन्ने हैं. वहीं ‘ज़िंदगीनामा’ 424 पन्नों की किताब है. दोनों किताब के आवरण पृष्ठों का संयोजन और आवरण पर लिखे शीर्षक की शैली भी जुदा है.
वादी पक्ष द्वारा दी गई इस दलील, कि ‘अमृता प्रीतम के किताब का शीर्षक पाठकों के मन में भ्रम पैदा कर सकता है’, को मानने से भी जस्टिस गोयल ने इंकार किया. उन्होंने अपने फ़ैसले में कहा कि ‘हरदत्त का ज़िंदगीनामा’ में क्रांतिकारी हरदत्त के जीवन की कहानी गई है, जो उपन्यास के शीर्षक के मुताबिक़ ही है. इसलिए वे इसे वादी की किताब ‘ज़िंदगीनामा’ की नक़ल नहीं मानते. इस तरह सारे सबूतों की पड़ताल और दोनों पक्षों द्वारा पेश की गई दलीलों को सुनने के बाद जस्टिस गोयल ने 13 नवम्बर 1984 को दिए अपने फ़ैसले में वादी (कृष्णा सोबती) द्वारा ‘हरदत्त का ज़िंदगीनामा’ के प्रकाशन, विज्ञापन व बिक्री पर अस्थायी निषेधाज्ञा लगाने के लिए दायर की गई अर्ज़ी को ख़ारिज कर दिया.
अदालत में ‘आपका बंटी’ : मन्नू भंडारी बनाम कला विकास पिक्चर्स व अन्य
अस्सी के दशक में जब कृष्णा सोबती और अमृता प्रीतम के बीच मुक़दमा चल रहा था, उसी समय हिंदी की एक अन्य प्रख्यात लेखिका मन्नू भंडारी ने उनके उपन्यास ‘आपका बंटी’ पर बन रही फ़िल्म की निर्माता कम्पनी कला विकास पिक्चर्स प्राइवेट लिमिटेड के निर्माता-निर्देशक पर एक मुक़दमा दायर किया. 19 अगस्त 1985 को उन्होंने दिल्ली के ट्रायल कोर्ट में फ़िल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने के लिए मुक़दमा दायर किया. लेकिन जब ट्रायल कोर्ट में एडिशनल डिस्ट्रिक्ट जज ने फ़िल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने की उनकी अपील ख़ारिज कर दी. तो उन्होंने ट्रायल कोर्ट के इस फ़ैसले के विरुद्ध दिल्ली हाईकोर्ट में अपील की. यह मुक़दमा जस्टिस शंकर बालकृष्ण वाड की एकल पीठ द्वारा सुना गया.
दिल्ली हाईकोर्ट के समक्ष अपना पक्ष रखते हुए मन्नू भंडारी ने कहा कि कला विकास पिक्चर्स ने उनके उपन्यास ‘आपका बंटी’ पर आधारित ‘समय की धारा’ नामक फ़िल्म बनाते हुए उनके उपन्यास को तोड़-मरोड़ कर पेश किया है. इसलिए उन्होंने हाईकोर्ट से अपील की कि हाईकोर्ट इस फ़िल्म के प्रदर्शन पर स्थायी रूप से रोक लगा दे.
उस मुक़दमे पर दिए अपने फ़ैसले में जस्टिस एस.बी. वाड ने दिल्ली ट्रायल कोर्ट के फ़ैसले की भी गहन पड़ताल की थी और जहाँ ट्रायल कोर्ट के जज के दिए फ़ैसले के कुछ बिंदुओं से उनकी सहमति थी, वहीं कुछ से अपनी असहमति जाहिर की. उन्होंने एडिशनल डिस्ट्रिक्ट जज द्वारा बग़ैर फ़िल्म देखे फ़ैसला देने को अनुचित माना. फ़ैसले पर पहुँचने से पहले जस्टिस एस.बी. वाड ने ख़ुद फ़िल्म देखी और उपन्यास को भी गहराई से पढ़ा. यह उनके दिए फ़ैसले में आए विवरणों से साफ़ झलकता है.
जस्टिस एस.बी. वाड ने अगस्त 1986 में दिए गए अपने फ़ैसले में जिन अहम सवालों पर विचार किया, वे थे : किसी कलाकार/रचनाकार की सौंदर्यशास्त्रीय अभिव्यक्तियों की रक्षा क़ानून किस सीमा तक कर सकता है? क्या किसी कलाकार/रचनाकार की बौद्धिक सम्पदा को लेकर वे ही नियम लागू होते हैं, जो व्यावसायिक सम्पत्ति पर लागू होते हैं? लेखक और निर्देशक की अभिव्यक्ति की आज़ादी की सीमाएँ क्या हैं? क्या अपनी किसी रचना पर फ़िल्म बनाने का अधिकार देने भर से लेखक के अधिकार ख़त्म हो जाते हैं? क्या इसका मतलब यह है कि निर्देशक को कथानक और पात्रों में कोई भी बदलाव करने की पूरी छूट मिल जाती है? और यह बुनियादी सवाल भी कि फ़िल्म जैसी प्रदर्शनकारी कला के क्षेत्र में लेखक और निर्देशक की अभिव्यक्ति की आज़ादी का संतुलन कैसे स्थापित हो?[6]
ऊपर उठाए गए अहम सवालों पर विचार करते हुए जस्टिस एस.बी. वाड ने अपने फ़ैसले में लिखा कि किसी उपन्यास पर फ़िल्म बनाते समय माध्यम में बदलाव होता है और उपन्यास की विषय-वस्तु को दृश्य-श्रव्य माध्यम के ज़रिए दिखाया जाता है. उन्होंने कहा कि जब फ़िल्म बनाने या नाटक बनाने के लिए किसी उपन्यास या साहित्यिक कृति के अधिकार बेचे या दिए जाते हैं तो वह उपन्यास या कृति साहित्य के दायरे से प्रदर्शनकारी कलाओं के दायरे में प्रवेश कर जाता है. जस्टिस एस.बी. वाड ने इस मुक़दमे की जटिलताओं को देखते हुए इसमें फ़िल्म-उद्योग से जुड़े अन्य पटकथा लेखकों, निर्माता-निर्देशकों की राय लेने का भी सुझाव दिया था. किंतु मुक़दमे से जुड़ा एक पक्ष इसके लिए तैयार नहीं था.
अपने फ़ैसले में जस्टिस वाड ने 1957 के कॉपीराइट क़ानून, विशेषकर इस क़ानून की धारा 57 के प्रावधानों को आधार बनाया. उन्होंने इस प्रावधान की व्याख्या करते हुए कहा कि कॉपीराइट क़ानून की धारा 57 लेखक को विशेषाधिकार देती है. यह प्रावधान लेखक के सम्मान व प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचने की दशा में या उसकी कृतियों में बदलाव, छेड़-छाड़ के विरुद्ध उसे क़ानूनी उपायों का सहारा देता है. उनके अनुसार, धारा 57 के प्रावधान महज़ साहित्यिक कृतियों पर ही लागू नहीं होते, बल्कि वे दृश्य-श्रव्य माध्यम पर भी लागू होते हैं. यह प्रावधान लेखक को एक सामान्य कॉपीराइट स्वामित्व रखने वाले व्यक्ति से कुछ अधिक अधिकार देता है. कहना न होगा कि यहाँ जस्टिस वाड बग़ैर नाम लिए हुए एक्सेप्शियो आर्टिस के उस सिद्धांत को स्वीकार कर रहे थे, जो साहित्यिक रचनाओं या कला को क़ानून की दृष्टि में विशेष दर्जा देता है.
अदालत में मन्नू भंडारी और कला विकास पिक्चर्स के बीच हुए अनुबंध की भी चर्चा हुई. बता दें कि अप्रैल 1983 में हुए इस अनुबंध में ‘आपका बंटी’ उपन्यास पर फ़िल्म बनाने का अधिकार मन्नू भंडारी ने कला विकास पिक्चर्स को दिया था. जिसके एवज़ में उन्हें पंद्रह हज़ार रुपए मिलने थे. जिसमें पाँच हज़ार रुपए उन्हें अनुबंध पर हस्ताक्षर के समय ही मिलने थे तथा शेष दस हज़ार रुपए किस्तों में फ़िल्म का निर्माण पूरा होने से पहले दिए जाने थे. अनुबंध में यह भी ज़िक्र था कि फ़िल्म के निर्देशक शिशिर मिश्रा फ़िल्म की पटकथा तैयार करेंगे और उपन्यास के फ़िल्मी रूपांतरण के लिए कथानक में कुछ बदलाव करने की सहमति मन्नू भंडारी देंगी. यह भी कि कला विकास पिक्चर्स के पास ‘आपका बंटी’ पर आधारित फ़िल्म को सिनेमा, थिएटर, रेडियो, टीवी, वीडियो टेप, ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड पर रिलीज़ करने और उसकी डबिंग व सबटाइटल से जुड़े सारे अधिकार होंगे. सिवाय ‘आपका बंटी’ के पुस्तक रूप में प्रकाशन के अधिकार के, जो लेखिका यानी मन्नू भंडारी के पास ही रहेगा. अनुबंध में यह भी कहा गया था कि फ़िल्म के प्रचार-प्रसार के दौरान लेखिका को पूरा श्रेय दिया जाएगा.
इस अनुबंध की विवेचना करते हुए जस्टिस वाड ने कहा कि अनुबंध उपन्यास के फ़िल्मी रूपांतरण के लिए कुछ ‘निश्चित बदलाव’ करने की बात कहता है, लेकिन ये बदलाव लेखिका की अनुमति से ही किए जाने थे. ये बदलाव इस तरह भी नहीं होने थे कि वे मूल उपन्यास की कहानी को तोड़-मरोड़ दें या उसके कथानक को विकृत कर दें. अदालत में अपना पक्ष रखते हुए मन्नू भंडारी ने यह तथ्य सामने रखा कि जब उन्होंने एक फ़िल्मी पत्रिका में यह पढ़ा कि ‘आपका बंटी’ पर बन रही फ़िल्म का निर्माण पूरा हो चुका है तो सितम्बर 1984 और जनवरी 1985 में उन्होंने फ़िल्म के निर्देशक शिशिर मिश्रा को दो ख़त लिखे और फ़िल्म के निर्माण की प्रगति के बारे में जानना चाहा.
पहले ख़त के जवाब में शिशिर मिश्रा ने कहा कि व्यस्तता के कारण वे मन्नू भंडारी से बात नहीं कर सके, और पत्रिका में छपी ख़बर को उन्होंने महज़ ‘पब्लिसिटी स्टंट’ कहा और बताया कि फ़िल्म का निर्माण अभी पूरा नहीं हुआ है. मन्नू भंडारी के दूसरे ख़त का कोई जवाब कभी उन्हें मिला ही नहीं. मार्च 1985 में उन्होंने पुनः शिशिर मिश्रा को ख़त लिखा और उनके ख़तों का जवाब न देने की शिकायत की. और यह भी लिखा कि फ़िल्म-निर्माता से हुई बातचीत से उन्हें मालूम हुआ है कि फ़िल्म की शूटिंग पूरी हो चुकी है और डबिंग की जा रही है. लेकिन उनके इस ख़त का भी कोई जवाब उन्हें नहीं मिला.
हाईकोर्ट को मन्नू भंडारी ने अपने साहित्यिक कृतित्व के बारे में बताया कि उन्होंने कई उपन्यास, कहानियाँ और नाटक भी लिखे हैं. फ़िल्म माध्यम से अपने जुड़ाव के बारे में उन्होंने अदालत में कहा कि उनकी एक कहानी (‘यही सच है’) पर पूर्व में ‘रजनीगंधा’ फ़िल्म का निर्माण हो चुका है. मन्नू भंडारी ने आगे बताया कि उन्होंने पटकथा लेखन का भी काम किया है. ‘रजनी’ नामक सीरियल के कुछ एपिसोड्स उन्होंने लिखे हैं और शरत चंद्र की एक कहानी पर आधारित उनके द्वारा लिखी पटकथा पर बनी फ़िल्म ‘स्वामी’ पुरस्कृत भी हो चुकी है.
उन्होंने ‘महाभोज’ उपन्यास की रंगमंचीय प्रस्तुतियों की लोकप्रियता का भी ज़िक्र किया. ‘आपका बंटी’ के बारे में उन्होंने बताया कि यह उपन्यास ‘धर्मयुग’ पत्रिका में वर्ष 1970 में धारावाहिक रूप से छपा और 1971 में पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ. इस उपन्यास के देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुए और केवल हिंदी में उसकी अस्सी हज़ार प्रतियाँ तब तक बिक चुकी थीं. उन्होंने फ़िल्म-निर्माता द्वारा ‘आपका बंटी’ के व्यवसायीकरण को लेकर आपत्ति जताई. साथ ही, उन्होंने फ़िल्म के संवादों को लेकर आपत्ति जाहिर की और कहा कि ये संवाद एक लेखक के रूप में उनकी प्रतिष्ठा और लेखकीय गरिमा को अपूरणीय क्षति पहुँचाएँगे. जस्टिस वाड ने कहा कि लेखिका का भय वास्तविक है और प्रतिष्ठा को आघात पहुँचने की उनकी चिंता भी स्वाभाविक है.
इसके अलावा मन्नू भंडारी ने उपन्यास के पात्रों को तोड़ने-मरोड़ने, उनकी पृष्ठभूमि या पेशे को बदलने को लेकर भी आपत्ति जताई थी. उपन्यास के फ़िल्मी रूपांतरण के संदर्भ में जस्टिस वाड ने दर्ज़ किया कि जब कोई उपन्यास फ़िल्म माध्यम में रूपांतरित होता है तो उसमें कुछ बदलाव स्वाभाविक हैं, आउटडोर शूटिंग के लिए जगहों का चुनाव, गाने और फ़िल्म माध्यम के अनुरूप कुछ सौंदर्यशास्त्रीय बदलाव तो होंगे ही. उपन्यास से दृश्यों के चुनाव और उनके संयोजन-सम्पादन में निर्देशक का अपना विवेक काम करता है. मगर इसके साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि ये बदलाव ऐसे नहीं होने चाहिए कि मूल कथा और पात्रों को तोड़-मरोड़कर, विकृत कर या पूरी तरह बदलकर प्रस्तुत करें.
कहानी में बदलाव के अतिरिक्त मन्नू भंडारी ने फ़िल्म के नाम (‘समय की धारा’) को लेकर भी आपत्ति जताई थी और कहा था कि फ़िल्म के इस टाइटल से उसका ‘आपका बंटी’ उपन्यास से कोई जुड़ाव नहीं प्रकट होता. इसके साथ ही उन्होंने फ़िल्म में अश्लील संवादों और अश्लीलता को लेकर भी आपत्ति जताई थी. इस मुद्दे पर जस्टिस वाड ने कहा कि वे इससे सहमति नहीं रखते. उन्होंने यह नोट किया कि ख़ुद उपन्यास में ऐसे अवसर आए हैं, जहाँ नग्नता के दृश्य वर्णित हैं और यदि निर्देशक चाहता तो वह उन दृश्यों का इस्तेमाल कर सकता था. पर ऐसा नहीं किया गया और निर्देशक ने समझदारी के साथ उपन्यास में आए उस पूरे प्रसंग को छोड़ दिया है. इसके साथ ही उन्होंने कहा कि न्यायालय किसी ‘सुपर सेंसर’ या ‘सार्वजनिक नैतिकता के पहरेदार’ की भूमिका नहीं निभाना चाहता और न अदालत कला में सेक्स के प्रदर्शन या सेक्स से जुड़े अपने दृष्टिकोण को किसी अन्य पर थोप सकता है.
मुक़दमे में अंतिम फ़ैसला सुनाए जाने से एक दिन पहले 7 अगस्त 1986 को जस्टिस वाड को बताया गया कि दोनों पक्षों के बीच एक समझौता हुआ है, जिसके मुताबिक़ निर्माताओं ने फ़िल्म में हुए बदलावों को लेकर खेद जताया और लेखिका से माफ़ी माँगी. साथ ही, मन्नू भंडारी की राय के मुताबिक़ फ़िल्म ‘समय की धारा’ की क्रेडिट में या उसके पोस्टर और प्रचार में ‘आपका बंटी’ या मन्नू भंडारी का ज़िक्र न करने का वादा निर्माताओं द्वारा किया गया. साथ ही, ‘आपका बंटी’ के सारे कॉपीराइट मन्नू भंडारी के पास होने की बात भी उन लोगों ने स्वीकार की. वहीं दूसरी ओर, मन्नू भंडारी ने भी इस बात पर सहमति जताई कि जब तक फ़िल्म में उनका या ‘आपका बंटी’ का उल्लेख न हो, उन्हें ‘समय की धारा’ फ़िल्म के प्रदर्शन से कोई आपत्ति नहीं होगी और न ही वे इस फ़िल्म से जुड़े किसी अधिकार का दावा करेंगी. दोनों पक्षों में हुए इस समझौते के बाद जस्टिस वाड ने हाईकोर्ट में मन्नू भंडारी की इस अपील को ख़ारिज कर दिया.
अदालत में अदब
साहित्यिक कृतियों से जुड़े विवादों को लेकर चले जिन दो मुक़दमों की चर्चा हमने ऊपर की, उनमें अभिव्यक्ति की आज़ादी, कॉपीराइट से जुड़े अधिकार, लेखक के अधिकार, साहित्यिक कृतियों के सिनेमाई या दूसरे दृश्य-श्रव्य माध्यमों में रूपांतरण और उसकी जटिलताओं से जुड़े सवाल गुँथे हुए हैं. अदालत में दिए गए फ़ैसलों को लेकर यह सवाल भी उठ सकता है कि क्या इन निर्णयों के ज़रिए न्यायालय साहित्य की दुनिया के दायरे का अतिक्रमण कर रहा था या फिर वह महज़ न्याय देने की अपनी भूमिका निभा रहा था. कुछ प्रसंगों में न्यायालयों ने अपनी सीमा भी साफ़ तौर पर इंगित की और ‘सुपर सेंसर’ या ऐसी किसी दूसरी भूमिका में जाने से ख़ुद को स्पष्टतः रोका. साथ ही, इन विवादों की जटिलताओं को देखते हुए उस क्षेत्र के विशेषज्ञों की राय सुनने को भी तरजीह दी. ट्रायल कोर्ट से लेकर हाईकोर्ट तक चले इन मुक़दमों से जुड़ी बहसों, उनमें दोनों पक्षों द्वारा दी गई दलीलों और न्यायाधीशों द्वारा दिए गए फ़ैसले से गुजरते हुए इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि ‘क़ानून में साहित्य’ की इस अंतर्गुम्फित श्रेणी की पड़ताल साहित्य और क़ानून दोनों से जुड़ी हमारी समझ को समृद्ध बनाती है.
सन्दर्भ
[1] देखें, एलिज़ाबेथ लेडेंसन, डर्ट फ़ॉर आर्ट्स सेक : बुक्स ऑन ट्रायल फ़्राम मदाम बोवारी टु लोलिता (इथाका : कॉर्नेल यूनिवर्सिटी प्रेस, 2007); डॉमिनिक लकाप्रा, ‘मदाम बोवारी’ ऑन ट्रायल (इथाका : कॉर्नेल यूनिवर्सिटी प्रेस, 1982).
[2] राल्फ ग्रतमियर (संपा.), लिटरेरी ट्रायल्स : एक्सेप्शियो आर्टिस एंड थियरीज़ ऑफ़ लिट्रेचर इन कोर्ट (न्यूयॉर्क : ब्लूम्सबरी, 2016), देखें भूमिका.
[3] ‘क़ानून में साहित्य’ की इस अवधारणा पर विस्तृत चर्चा के लिए देखें, राल्फ ग्रतमियर व टेड लरोस, “लिट्रेचर इन लॉ : एक्सेप्शियो आर्टिस एंड द इमरजेंस ऑफ़ लिटरेरी फ़ील्ड्स”, लॉ एंड ह्यूमेनिटीज़, 7(2) (2013), पृ. 204-217.
[4] कृष्णा सोबती बनाम अमृता प्रीतम व अन्य, मुक़दमा दायर होने की तारीख़ : 3 फ़रवरी, 1984, फ़ैसले की तारीख़ : 4 जनवरी 2011, दिल्ली डिस्ट्रिक्ट कोर्ट, कोर्ट ऑफ़ श्री राजेंदर कुमार शास्त्री, एडीजे-06 (सेंट्रल), दिल्ली.
[5] कृष्णा सोबती बनाम अमृता प्रीतम व अन्य, 13 नवम्बर, 1984, जस्टिस एच.सी. गोयल, 27 (1985) डीएलटी 279.
[6] मन्नू भंडारी बनाम कला विकास पिक्चर्स प्राइवेट लिमिटेड व अन्य, 8 अगस्त 1986, जस्टिस एस.बी. वाड, एआईआर 1987 दिल्ली 13, आईएलआर 1986 दिल्ली 191.
![]() युवा इतिहासकारों में उलेखनीय शुभनीत कौशिक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास के शिक्षक हैं. जवाहरलाल नेहरू और उनके अवदान पर केंद्रित पुस्तक ‘नेहरू का भारत: राज्य, संस्कृति और राष्ट्र-निर्माण’ (संवाद प्रकाशन, 2024) का सह-सम्पादन किया है. पत्र पत्रिकाओं में हिंदी अंग्रेजी में लेख आदि प्रकाशित हैं. ईमेल : kaushikshubhneet@gmail.com |
बड़ा दिलचस्प आलेख है…. दोनों मुक़द्दमों से थोड़ा बहुत वाक़िफ़ तो सभी होंगे, लेकिन डिटेल्स और घटनाक्रम की प्रस्तुति एकदम बाँध लेती है
ज़िंदगीनामा शब्द अगर कृष्णा जी ने गढ़ा भी होता तो अन्य लेखकों द्वारा उसका उपयोग, उसकी स्वीकार्यता appreciation ही दर्शाता। शब्दों की साहित्य की यही ताकत है कि लंबे समय में वे खुद को लेखक की पहचान से भी मुक्त कर लेते हैं। मूवी नहीं देखी इसलिए उस केस पर कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूं लेकिन साहित्य और सिनेमा के परस्पर संबंध और संघर्षों के लिए इसे विस्तार से समझा जाना चाहिए।
विस्तृत-रोचक आकलन है…लेखक के इस श्रम एवं समझदारी को सलाम… हाईकोर्ट के जज की भूमिका सराहनीय तथा अनुकरणीय है। मन्नूजी के प्रयत्न भी श्लाघ्य हैं और अंत भी लेखिका, कला व समाज… सबके प्रति सापेक्ष्य सिद्ध होता है – ऐसे विचार-आलेख स्वागत योग्य हैं…