लिटररी कल्चर्स इन अर्ली मॉडर्न नॉर्थ इंडिया करेंट रिसर्च उत्तर भारतीय साहित्यिक-सांस्कृतिक विविधता का एकत्र समुच्चय योगेश प्रताप शेखर |
शाहजहाँ के दरबार में समादृत संस्कृत कवि-आचार्य पंडितराज जगन्नाथ की रचना ‘भामिनीविलास’ में एक छंद है :
अन्या जगद्धितमयी मनस: प्रवृत्ति:
अन्यैव काऽपि रचना वचनावलीनाम् I
लोकोत्तरा च कृतिराकृतिरार्त्तहृद्या
विद्यावतां सकलमेव गिरान्दवीय: II
अर्थात्
“विद्वानों की जगत्-उपकारिणी मनोवृत्ति दूसरी ही होती है, उन के वचनों का विन्यास दूसरा ही होता है और कार्य अलौकिक होता है, आकृति दुखियों की मनोहारिणी होती है, अधिक क्या कहें सभी कुछ वाणी की पहुँच के बाहर है.”
इसमें ‘जगत्-उपकारिणी’ और ‘अलौकिक’ शब्द ध्यान देने योग्य हैं. ये दोनों शब्द इस बात की याद दिलाते हैं कि ज्ञान की कोई सरहद नहीं होती और ज्ञान पर किसी एक देश का एकाधिकार भी नहीं होता. तात्पर्य किसी एक देश का साहित्य भले ही वहाँ की ‘जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब’ हो लेकिन यह समझना भूल है कि उस साहित्य का गंभीरतापूर्वक अनुशीलन तथा उस पर शोध केवल उस देश के निवासी ही कर सकते हैं!
आज यह बात बिना किसी संदेह के कही जा सकती है कि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिंदी-उर्दू क्षेत्र के प्राचीन एवं मध्यकालीन साहित्य पर बहुत सारा श्रेष्ठ कार्य भारत के बाहर ही ज़्यादा हो रहा है. इस बात का एहसास ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, इंगलैंड में हिंदी के प्राध्यापक इमरे बंघा तथा वारसा विश्वविद्यालय,पोलैंड में हिंदी की शिक्षिका दानूता स्तासिक द्वारा संपादित एवं ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से छपी किताब ‘लिटररी कल्चर्स इन अर्ली मॉडर्न नॉर्थ इंडिया करेंट रिसर्च’ पढ़ते हुए बड़ी शिद्दत से होता है. इस का भारतीय संस्करण भी उपलब्ध है.
उपर्युक्त किताब के बारे में एक बात तो यही है कि यह 2018 ई. वारसा (पोलैंड) में हुए एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में प्रस्तुत शोध-पत्रों का संकलन है. निश्चित ही इस सूचना में कोई विलक्षण बात नहीं है. सम्मेलन, संगोष्ठियों और कार्यशालाओं के बाद उन से जुड़ी पुस्तकें प्रकाशित होती ही रहती हैं. विलक्षण बात यह है कि उक्त अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन (इंटरनेशनल कॉन्फेरेन्स ऑन अर्ली मॉडर्न लिटरेचर्स इन नॉर्थ इंडिया जिसे संक्षेप में ICEMLNI कहा जाता है.) हर तीसरे वर्ष पर आयोजित होता है और यह सिलसिला पिछले चालीस वर्षों से लगातार जारी है.
2025 ई. में भी इस सम्मलेन का पंद्रहवाँ संस्करण ऑस्ट्रेलिया के ‘ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी’ द्वारा आयोजित हो रहा है. भारत में ख़ासकर हिंदी-उर्दू से जुड़े किसी सम्मलेन, संगोष्ठी या कार्यशाला की याद नहीं आती जो इतने वर्षों से लगातार चल रही हो. निश्चय ही व्यापक हिंदी-उर्दू क्षेत्र के लिए यह एक प्रेरक तथा आत्मालोचन के योग्य बात है.
‘लिटररी कल्चर्स इन अर्ली मॉडर्न नॉर्थ इंडिया करेंट रिसर्च’ किताब पाँच हिस्सों में बँटी है. पहले हिस्से का शीर्षक ‘अर्ली मॉडर्न टेक्सचुअलिटिज’ है. दरअसल पिछले पच्चीस-तीस वर्षों में ‘मध्यकालीन’ शब्द के स्थान पर ‘आरंभिक आधुनिकता’ का प्रयोग बढ़ा है. इस के पीछे यह अवधारणा है कि आधुनिकता का केवल ‘यूरोप-केंद्रित’ रूप भारत या दूसरे एशियाई-अफ्रीकी देशों के संदर्भ में विश्वसनीय नहीं है. उपनिवेशवादी दौर में इन देशों का जो बड़े पैमाने पर ‘यूरोपीयकरण’ हुआ उसे ही ‘आधुनिकता’ की कसौटी मान लेना यथोचित नहीं है. किताब के पहले हिस्से में इस से संबंधित दो लेख हैं.
पहला डेनिसन विश्वविद्यालय, ओहियो, अमेरिका में ‘प्रोफेसर ऐमरिटस’ जॉन ई. कॉर्ट का “व्हेन इज द ‘अर्ली मॉडर्न’? : नॉर्थ इंडियन दिगम्बर जैन लिटररी कल्चर” शीर्षक लेख है. इसमें श्री कॉर्ट ने ‘आरंभिक आधुनिकता’ के सैद्धांतिक पक्ष पर विस्तार से विवेचना की है. इस संदर्भ में उन्होंने प्रसिद्ध इतिहासकार दीपेश चक्रवर्ती के हवाले से यह ध्यान दिलाया है कि ‘आरंभिक आधुनिकता’ को ले कर यूरोपीय और दक्षिण एशियाई विद्वानों में अंतर है.
यूरोपीय विद्वान पहले ‘मध्यकालीन’ कहे गए ‘ऐतिहासिक जीवन’ के विस्तार पर बल देते हैं. दूसरी तरफ़ दक्षिण एशियाई विद्वान विपरीत दिशा में चलते हुए तथाकथित आधुनिक दौर को लम्बा तथा स्वदेशी अतीत देना चाहते हैं जो ब्रिटिश शासन से पहले की शताब्दियों तक फैला हुआ था.
इसके साथ-साथ जॉन ई. कॉर्ट यह भी लक्ष्य करते हैं कि ‘आरंभिक आधुनिकता’ कहते ही आधुनिकता की संकल्पनाएँ सामने आ जाती हैं जिस से यह अवधारणा किंचित् समस्यामूलक होने लगती है और ‘आरंभिक आधुनिकता’ की चर्चा में सांस्कृतिक पहलू अनुपस्थित हो जाते हैं. आरंभिक आधुनिकता की सैद्धांतिक चर्चा के साथ-साथ कॉर्ट तीन जैन लेखकों (बनारसीदास, पारसदास निगोत्य और नाथूराम प्रेमी ) के कार्यों की विशद विवेचना करते हैं. इस विवेचन से यह पता चलता है कि सोलहवीं शताब्दी से ले कर उन्नीसवीं शताब्दी तक साहित्यिक तथा सांस्कृतिक परिदृश्य में कैसी हलचल होती है एवं इनमें परिवर्तन के कारक कौन-कौन से हैं ? इन सब का शिक्षा, अनुवाद और प्रकाशन से कैसा संबंध बन रहा होता है ?
इसी क्रम में बहुत ही दिलचस्प तथ्य सामने आता है कि उत्तर भारत में काग़ज़ दिल्ली सल्तनत के काल में आता है. इस तथ्य की रोशनी में कबीर के यहाँ बार-बार आनेवाला ‘कागद’ शब्द बिलकुल ही अलग अर्थवत्ता से उद्भासित होने लगता है. पहले हिस्से का दूसरा लेख इमरे बंघा का ‘हिस्ट्री ऑफ ए टेक्स्ट : द मेजर मैन्यूस्क्रिप्ट्स ऐंड क्रिटिकल एडिशनन्स ऑफ द रामचरित-मानस’ शीर्षक से है. इस लेख में इमरे बंघा यह बताते हैं कि रामचरितमानस की पांडुलिपियों और उन पर आधारित उस के प्रकाशित रूपों का ‘इतिहास’ क्या है ?
किस भौगोलिक क्षेत्र में किन सामाजिक संदर्भों में कौन-सा पाठ या ‘काण्ड’ की एकल या बहुल पांडुलिपियाँ मिलती हैं, इनका अत्यंत प्रामाणिक स्रोतों का सहारा ले कर विश्लेषण किया गया है. इस लेख से अंत:सलिला रूप में रामचरितमानस की व्यापक ‘जन-व्याप्ति’ की प्रक्रिया को भी समझा जा सकता है. उदाहरण के लिए यह तथ्य कि रामचरितमानस की तुलसीदास की हस्ताक्षरित प्रति का पहला दस्तावेज़ी दावा 1805 ई. के आसपास मिलने लगता है.
इसी प्रकार अठारहवीं शती के पहले दशक से रामचरितमानस की पांडुलिपियाँ जयपुर, आम्बेर और बीकानेर के राजदरबारों में मिलने लगती हैं. 1889 ई. आते-आते रामचरितमानस के 126 संस्करण प्राप्त होने लगते हैं. इतना ही नहीं रामचरितमानस की पांडुलिपियाँ फ़ारसी एवं तेलुगु लिपि में भी मिलने लगती हैं. इन सब से स्पष्ट है कि रामचरितमानस की लोकप्रियता ऐतिहासिक परिस्थितियों में घटित होती है न कि किसी ईश्वरीय कृपा से.
किताब के दूसरे हिस्से का शीर्षक ‘संत ट्रेडिशन्स’ है. इस में तीन लेख संकलित हैं. पहला लेख हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय, जर्मनी में ‘प्रोफेसर ऐमरिटस’ मोनिका हॉर्ट्समैन का ‘योग ऐंड भक्ति : पृथीनाथ – ए सिक्सटीन्थ-सेंचुरी नाथ सिद्ध’ शीर्षक है. यहाँ यह स्मरणीय है कि ‘नाथ-सिद्ध’ पदबंध में ‘सिद्ध’ का मतलब बिलकुल ही अलग रूप में बौद्धों से जुड़े ‘वज्रयानी सिद्ध’ की जगह योग मार्ग से जुड़े नाथपंथी सिद्धों से है. इस पर अधिक जानकारी के लिए हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित ‘नाथ-सम्प्रदाय’ और उन्हीं द्वारा संपादित किताब ‘नाथ सिद्धों की बानियाँ’ देखी जा सकती है.
मोनिका हॉर्ट्समैन योग और भक्ति के अंतर्संबंधों पर लगभग पूरे जीवन शोध करती रही हैं. इस लेख में भी उन्होंने सोलहवीं शती के नाथ-सिद्ध पृथीनाथ (जिन्हें पृथ्वीनाथ भी कहा जाता है ) की रचनाओं के आधार पर भक्ति तथा योग के रिश्ते का विश्लेषण किया है. नाथ-सिद्धों का बहुत गहरा संबंध दादूपंथ से रहा है. मोनिका हॉर्ट्समैन ने पृथीनाथ की रचना ‘मन-स्तम्भ-शरीरसाधार-ग्रन्थ’ के आधार पर योग परंपरा में ‘मन’ और शरीर के द्वैत तथा द्वैध का पाठ के साथ विवेचन किया है.
अपने लेख के अंत में उन्होंने देवनागरी लिपि में उक्त ग्रन्थ और उस के ‘सबदी’ का अंग्रेजी अनुवाद भी दिया है. इस प्रकार उन का लेख मूल रचना तथा उस के विश्लेषण की दृष्टि से बहुत उपयोगी है. इस लेख से यह भी पता चलता है कि वेदांत से जुड़ा संस्कृत ग्रन्थ ‘योगवशिष्ठ’ किस प्रकार नाथ पंथ में स्वीकृत होता है और उस के अनेक भावानुवाद नाथ-सिद्धों की परंपरा में मिलता है.
इस खण्ड में दूसरा लेख कॉर्नेल विश्वविद्यालय, न्यूयॉर्क में ‘प्रोफेसर ऐमरिटस’ डेनियल गोल्ड का ‘सेंट्स स्वीट योग इन द एटीन्थ सेंचुरी’ शीर्षक है. यह लेख अपने विषय के हिसाब से बहुत रोचक है. आमतौर पर हिंदी में यह सामान्य समझ है कि निर्गुण धारा से जुड़े कवि पढ़े-लिखे नहीं थे और उनका अधिकतर साहित्य मौखिक रूप से जनता में फैला.
एक हद तक यह बात सही भी है पर डेनियल गोल्ड के लेख से पता चलता है कि अठारहवीं शती तक इस परंपरा में लिपिकार और साक्षर समूह भी शामिल होने लगता है. जो परंपरा मौखिक थी वह अब लिखित की ओर झुकने लगती है. डेनियल गोल्ड ने अयोध्या के पलटू साहिब, दिल्ली के चरणदास (दोनों अठारहवीं शती के ) और हाथरस के तुलसी साहिब (उन्नीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में) के साहित्य की परीक्षा करते हुए यह स्पष्ट किया है कि ‘सबद’ शब्द पहले जिन अर्थों में इस्तेमाल किया जाता था उन में काफ़ी विस्तार आ जाता है. जो ‘सबद’ पहले अनुभव की वाणी से जुड़ा था अब वही ‘सबद’ स्वयं चरम उद्देश्य बन जाता है.
इस खण्ड का तीसरा लेख पीकिंग विश्वविद्यालय, पीकिंग में शिक्षक मिन्यु झांग का ‘कहाई कमाल कबीर का : चेंजिंग इमेजेज ऑफ कबीर्स सन इन द संत ट्रेडीशन’ शीर्षक है. कबीर के संदर्भ में ‘कमाल’ एक मिथकीय चरित्र के रूप में हिंदी साहित्य की सामान्य समझ का हिस्सा है. कहीं कमाल का नाम कबीर के पुत्र के रूप में तो कहीं शिष्य के रूप में वर्णित होता रहा है. मिन्यु झांग ने पांडुलिपियों, विशेषज्ञ विद्वानों और पाठ की सामग्री का सहारा ले कर बहुत ही सरस तरीक़े से सत्रहवीं शती से ले कर शुरुआती बीसवीं शती के बीच कमाल की बदलती हुई छवियों का विवेचन किया है. चार रूपों में कमाल की छवियाँ मिलती हैं. वैष्णव भक्त के रूप में, सिद्ध योगी के रूप में, कबीर के उपदेशक के रूप में और सूफ़ी के रूप में. इस पूरी प्रक्रिया को प्राथमिक और द्वितीयक स्रोतों के आधार पर जिस तरह से मिन्यु झांग ने प्रस्तुत किया है वह रोचक होने के साथ-साथ ज्ञानवर्धक, नए शोध के लिए पथ-प्रदर्शक और कबीर के अध्ययन से जुड़ी चीज़ों का विस्तार करता है.
किताब के तीसरे हिस्से का शीर्षक ‘रिजनल फॉर्मुलेशन्स’ है. इस में दो लेख संकलित हैं. पहला दिल्ली स्थित स्वतंत्र अध्येता तथा अनुवादक मारिया पुरी का ‘अवलि अलह नूर उपाइया : कबीर बानी इन द अर्ली मॉडर्न डिवोशनल प्रैक्टिसेज ऑफ द सिख्स’ शीर्षक लेख है. मारिया पुरी ने अपने लेख में ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ में राग प्रभाती में संकलित कबीर के पाँच पदों (सबद) का विश्लेषण किया है. ध्यातव्य है कि कबीर के इन पाँच पदों की भाषा पर अरबी-फ़ारसी शब्दावली का गहरा प्रभाव दिखाई देता है. उदाहरण के लिए ‘अवलि अलह नूर उपाइया’ पद में’ हुकमु’ शब्द आता है जो कबीर के ‘बीजक’ के संस्करणों में नहीं पाया जाता. इससे यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि ‘बीजक’ का निर्माण ब्राह्मण परंपरा में हुआ होगा जिसमें इसलाम से जुड़ी शब्दावली को सायास नज़रअंदाज़ किया गया होगा.
मारिया पुरी के लेख से यह बात भी समझ में आती है कि मध्यकालीन कवियों की रचनाओं में पाठ का जो भेद दिखाई देता है वह कई बार अपने ‘सम्प्रदाय’ के वैचारिक आग्रहों के कारण भी लिपिकारों-संपादकों द्वारा उपस्थित होता है. किताब के तीसरे हिस्से में दूसरा लेख वारसा विश्वविद्यालय में ‘सहायक प्राध्यापक’ अलेक्जेंडरा ट्युरेक का ‘ओल्ड पैटर्न विथ न्यू हीरोज : डिंगल गीत इन द फर्स्ट हाफ ऑफ द नाइन्टीन्थ सेंचुरी’ शीर्षक से है. अलेक्जेंडरा ट्युरेक राजस्थानी साहित्य की विशेषज्ञ हैं. डिंगल गीत राजस्थानी साहित्य की पुरानी और लोकप्रिय विधा है. हालाँकि नाम में भले ‘गीत’ शब्द है लेकिन ये गाने से अधिक पढ़े जाते थे. लगभग हर कवि ने डिंगल गीतों की रचना की है. ‘डिंगल’ शब्द के अर्थ को ले कर एक अनिश्चितता हिंदी में बनी रही है. अलग-अलग विद्वानों के अलग-अलग मत इस से संबंधित हैं.
सारांश के रूप में यह कहा जा सकता है कि डिंगल गीत नए प्रकार की छंद-संरचना में राजस्थान के स्थानीय प्रमुख व्यक्तित्वों के सामरिक जीवन के बारे में प्रशस्तिपरक रचनाएँ हैं. अलेक्जेंडरा ट्युरेक ने अपने लेख में यह ध्यान दिलाया है कि डिंगल गीत एक तरह से वास्तविक इतिहास पर की गई काव्यात्मक टिप्पणियाँ हैं. अलेक्जेंडरा ट्युरेक के इस लेख की एक और विशेषता है कि वे इस बात का भी विवेचन करती हैं कि उन्नीसवीं शती में उपनिवेशवादी आधुनिकता के आगमन के कारण इन डिंगल गीतों पर क्या प्रभाव पड़ा ?
आमतौर ब्रिटिश शासन से राजस्थानी राजे-रजवाड़ों के मैत्रीपूर्ण संबंध रहे. 1857 ई. के विद्रोह का राजस्थान के रियासतों में बहुत कम प्रभाव देखने को मिलता है. इन सब की गूँज भी डिंगल गीतों में सुनाई पड़ती है. इस प्रकार यह लेख हिंदी साहित्य के पाठकों के लिए एक अलक्षित क्षेत्र से गंभीरतापूर्वक परिचय कराता है.
‘लिटररी कल्चर्स इन अर्ली मॉडर्न नॉर्थ इंडिया करेंट रिसर्च’ किताब के चौथे खण्ड का शीर्षक ‘नॉलेज सिस्टम्स’ है. इस में चार लेख संकलित हैं. पहला लेख ओसाका विश्वविद्यालय, जापान में प्रोफेसर हिरोको नागासाकी का ‘द रिद्म ऑफ अर्ली हिंदी पोएट्री ऐज रिफ्लेक्टेड इन द पिंगल लिटरेचर’ शीर्षक से है. हिरोको नागासाकी छंद-शास्त्र की आधिकारिक विद्वान हैं. अपने इस लेख में उन्होंने दोहा और कवित्त छंद की प्रकृति का विश्लेषण किया है. साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि हिंदी में जिन छंदों का व्यवहार हुआ उसकी तीन परम्पराएँ लक्ष्य की जा सकती हैं. पहली संस्कृत की, दूसरी प्राकृत-अपभ्रंश की और तीसरी फ़ारसी-अरबी छंदों की परंपरा जो मुग़ल दरबार के दौर में सम्मिश्रित होती है. यह भी ज्ञान-उत्पादन का ही हिस्सा था जो उस समय घटित हो रहा था.
हिंदी की अकादमिक दुनिया से छंदों पर विचार लगभग गायब है. छंद को एक पुरानी ही नहीं निरर्थक चीज़ शायद मान लिया गया है. हिरोको नागासाकी का यह लेख हमें छंद की दुनिया में वापस दाख़िल होने का निमंत्रण भी है और प्रेरणा भी. चौथे खंड का दूसरा लेख ल्यूजान विश्वविद्यालय, स्वीटजरलैंड में ‘सहायक प्राध्यापक’ नादिया कैटोनी का ‘द कोकसार बाइ आनंद कवि : ए पोपुलर इरोटिक बुक’ शीर्षक है.
आनंद कवि का ‘कोकसार’ सत्तरहवीं शती की रचना मानी जाती है. नादिया कैटोनी ने चार पांडुलिपियों के आधार पर इस का विवेचन किया है. इस लेख को पढ़ने से पता चलता है कि मध्यकालीन समय में संस्कृत की ज्ञान-सरणियों को स्थानीय भाषाओं में उतारा जा रहा था. यह केवल भद्दी नकल नहीं थी बल्कि यह पुनर्रचना थी. इस से कामशास्त्र भी अछूता नहीं रहा. यह धारणा कि रीतिकालीन समय में ‘संस्कृत साहित्य के विकासक्रम की एक संक्षिप्त उद्धरणी हो गई’, सही नहीं है. कामशास्त्र के संदर्भ में भी यह समझा ज सकता है कि ‘कोक’ शब्द ब्रजभाषा आदि की पांडुलिपियों में अनेक बार आता है और ‘कोक’ संबंधी ग्रंथों की अच्छी संख्या हमें मिलती है.
नादिया कैटोनी ने तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट किया है कि आनंद कवि का ‘कोकसार’ संस्कृत की कामशास्त्रीय परंपरा का अनुकरण नहीं बल्कि उसमें कुछ नया भी जोड़ता है. अकारण नहीं है कि यह ग्रन्थ काफ़ी लोकप्रिय हुआ.
कामशास्त्र और यौनिकता से ही जुड़ा हुआ इस खंड का तीसरा लेख कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में ‘पोस्ट-डॉक्टोरल फेलो’ सोनिया विघ का ‘कॉन्ट्योर ऐंड क्लासीफाइ : सेक्सुअल कैटेगोराइजेशन्स इन अर्ली मॉडर्न साउथ एशिया’ शीर्षक से है. सोनिया विघ ने अपने लेख में संस्कृत कोकशास्त्र/रतिशास्त्र, ब्रजभाषा की ‘कोकमंजरी’ (जिस पर ऊपर नदिया कैटोनी के लेख की चर्चा की गई है.) और फ़ारसी की ‘लज्ज़त अल-निसा’ के आधार पर गहन विश्लेषण किया है. ‘निसा’ शब्द का अरबी में अर्थ ‘औरतें’ होता है. इस लेख से एक महत्त्वपूर्ण बात यह पता चलती है कि इन तीनों स्रोतों में स्त्रियों के वर्गीकरण में तबदीली न के बराबर है जब कि पुरुषों के वर्गीकरण में यह तबदीली बढ़ती गई है. दरअसल कामशास्त्र में किस प्रकार की स्त्री का किस प्रकार के पुरुष के साथ संयोग उचित है इस पर कई तरह के वर्गीकरण मिलते हैं.
पुरुषों के संदर्भ में ज़्यादातर ऐसे वर्गीकरण ‘पशु आधारित’ (शश, वृष, अश्व और मृग) हुए हैं और स्त्रियों को पद्मिनी, शंखिणी, चित्रिणी और हस्तिनी की कोटियों में बाँटा गया है. इतना ही नहीं पुरुष-स्त्री जननांगों की क्रमशः लम्बाई और गहराई को भी वर्गीकरण का आधार बनाया गया है.
सोनिया विघ ने इन वर्गीकरणों के सामाजिक, पारिस्थितिक और राजनीतिक संदर्भों को स्पष्ट करने का सफल प्रयास किया है. अकारण नहीं है कि हस्तिनी पद्मिनी की तुलना में हीन मानी जाती है. यह गूढ़ सामाजिक निहितार्थ को प्रकट करता है. पद्मिनी अधिकतर राजकुमारियाँ होती हैं और हस्तिनी अधिकतर सामान्य स्त्री. इस एक उदाहरण से स्पष्ट है कि कामशास्त्र का भी प्रमुख समाजशास्त्रीय पहलू है. इस लेख से यह पहलू बखूबी उजागर होता है.
चौथे खंड का आख़िरी लेख ‘स्कूल ऑफ ओरिएंटल ऐंड अफ्रीकन स्टडीज’ (सोआस SOAS), लंदन विश्वविद्यालय में संगीत के व्याख्याता रिचर्ड डेविड विलियम्स का ‘म्यूजिक फॉर हंटिंग : एनिमल्स, एस्थेटिक्स, ऐंड आदिवासिज इन राजपूत कल्चर’ शीर्षक से है. रिचर्ड विलियम्स ने साहित्य और चित्रों के माध्यम से शिकार करने तथा संगीत के संबंध को व्याख्यायित किया है. रागमाला चित्रावली मध्यकालीन परिवेश की प्रमुख विशेषता रही है. रिचर्ड विलियम्स ने आसावरी रागिनी-चित्रों को अपने अध्ययन का विषय इस लेख में बनाया है. रागिनी आसावरी का चित्रण संगीतकारों और चित्रकारों ने एक सुंदर एवं ताक़तवर स्त्री के रूप में किया है जिसके विवरण से समझा जा सकता है कि इस का संबंध जंगल में रहने वाली जातियों या फिर आदिवासी समूहों से रहा होगा. राजपूत चित्रों में आदिवासी स्त्रियों का चित्रण जिस प्रकार किया गया है उस से दरबारी संगीत तथा दरबारी चित्रकला का सामाजिक और सौन्दर्यात्मक पक्ष स्पष्ट होता है. इस पक्ष पर भी हिंदी में सामग्री नगण्य ही है.
किताब के पाँचवें खण्ड का शीर्षक ‘इंटरटेक्सचुअलिटिज’ है. इस में छह लेख संकलित हैं. आरंभिक चार लेख श्रीकृष्ण मिश्र रचित संस्कृत नाटक ‘प्रबोधचंद्रोदय’ (ग्यारहवीं शती का उत्तरार्ध) से संबद्ध हैं.
पहला लेख ला ओरिएंटल यूनिवर्सिटी ऑफ नेपल्स में ‘सह-प्राध्यापक’ स्तेफानिया कावलियेरे का ‘ट्रांसलेटिंग द ट्रुथ ऑफ ट्रुथ्स : क्रॉस-एनालिसिस ऑफ थ्री वर्सन्स ऑफ द प्रबोधचंद्रोदय ड्रामा’ शीर्षक से है. इस में उन्होंने मध्यकालीन मुग़ल दौर में अनुवाद की संस्कृति के संदर्भ में ‘प्रबोधचंद्रोदय’ के हुए अनुवादों या भावानुवादों की चर्चा की है.
अगले तीन लेखों के लिए यह लेख एक पूर्वपीठिका की तरह है. इसीलिए यह सूचनात्मक अधिक है. स्तेफानिया कावलियेरे का ही दूसरा लेख ‘सम प्रीलिमिनरी रिमार्क्स ऑन द प्रबोधचंद्रोदय नाटक बाइ नन्ददास’ शीर्षक से है. हिंदी का अकादमिक जगत इसे नंददास की रचना के रूप में स्वीकृत नहीं कर पाया है. उदाहरण के लिए नंददास पर आधिकारिक कार्य करनेवाले उमाशंकर शुक्ल ने अपनी किताब ‘नंददास’ में यह लिखा था कि इसका नाम ही सुना गया है.
हिंदी के अकादमिक जगत के साथ एक और विडंबनापूर्ण स्थिति यह हुई है कि पाठालोचन तथा पांडुलिपि-अध्ययन मृत अनुशासन बन गए हैं. इस का फल यह हुआ है कि कई बार मध्यकालीन रचनाकारों की रचनाओं के बारे में हमारी जानकारी अद्यतन नहीं हो पाती है.
स्तेफानिया कावलियेरे ने अपने इस लेख में उक्त रचना की कई पांडुलिपियों का संदर्भ दिया है और यह भी सुखद सूचना दी है कि इस का संपादन कार्य जारी है. इसी लेख में उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि किस प्रकार शुद्धाद्वैतवादी नंददास इस रचना का अनुकूलन अपने अनुवाद में अपनी वैचारिकता के साथ करते हैं. मूल संस्कृत रचना में जहाँ विष्णु की भक्ति पर बल है वहीं नंददास की रचना में कृष्ण भक्ति पर ज़ोर है.
इस खण्ड का तीसरा लेख ला ओरिएंटल यूनिवर्सिटी ऑफ नेपल्स में ‘पोस्ट-डॉक्टोरल फेलो’ ज्यूसेप कपेलो का ‘द गुलज़ार-इ-हाल बाइ बनवालीदास : टू पॉसिबल प्रेफिसेज ऑफ ऐन इंडो-पर्शियन टेक्स्ट’ शीर्षक है. बनवालीदास मुग़ल शहज़ादा दाराशुकोह से जुड़े हुए व्यक्ति थे. कुछ लोगों का कहना है कि ‘गुलज़ार-इ-हाल’ का फ़ारसी अनुवाद दारा ने बनवालीदास से अपने ज्योतिषी भवानीदास की सहायता से कराया था. इस का भी आधार भी नन्ददास की ही उक्त पुस्तक है जिस के बारे में स्तेफानिया कावलियेरे ने लेख लिखा है.
ज्यूसेप कपेलो ने अपने लेख में अनेक मूल संदर्भों के साथ अद्वैत वेदांत तथा वहादत अल वजूद के सम्मिश्रण की गहन विवेचना की है. बनवालीदास का जीवन ही इसका प्रमाण है. वे एक कायस्थ परिवार में पैदा हुए थे और बाद में वे कश्मीर जाते हैं जहाँ वे सूफ़ी सम्प्रदाय के कादिरी सिलसिले के मुल्ला शाह बदख़्सी के शिष्य बनते हैं. उसी दौरान वे दारा के संपर्क में भी आते हैं क्योंकि मुल्ला शाह बदख़्सी से मिलने दारा और उस की बहन जहाँआरा जाते हैं. इस से स्पष्ट है कि मुग़ल काल में सांस्कृतिक मिश्रण के बहुआयामी रूप ध्यातव्य हैं.
इस खण्ड का चौथा लेख घेंट विश्वविद्यालय, बेल्जियम में ‘पोस्ट-डॉक्टोरल फेलो’ रोजीना पैस्टोरे का ‘एक्सप्लोरिंग द रिलेशनशिप बिटवीन भक्ति, भक्त, ऐंड योग इन द प्रबोधचंद्रोदय नाटक बाइ ब्रजवासीदास’ शीर्षक से है. इस लेख में रोजीना पैस्टोरे ने अठारहवीं शती के ब्रजभाषा लेखक ब्रजवासीदास के द्वारा उन के अनुवाद या भावानुवाद में किए गए परिवर्तनों तथा उस के कारणों का अत्यंत प्रामाणिकता के साथ विवेचन किया है. रोजीना ने स्पष्ट किया है कि जहाँ भागवतपुराण में उद्धव-गोपी संवाद में निर्गुण प्रतीकों का तनिक भी स्वीकार नहीं है (ख़ासकर बाद में सूरदास के भ्रमरगीत में) वहीं ब्रजवासीदास के यहाँ बाकायदा ‘अष्टांग योग’ का वर्णन है. इसी प्रसंग में रोजीना ने एक महत्त्वपूर्ण बात ध्यान दिलाई है कि ब्रजवासीदास ने अपनी रचना में पतंजलि के योग के साथ हठयोग और भक्ति के भावनात्मक तथा बौद्धिक पहलुओं का सम्मिश्रण किया है जबकि वे ख़ुद वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित थे. इस से यह भी पता चलता है कि मध्यकालीन समय में सम्प्रदायों के बीच गहन संवाद होता रहा और वे एक-दूसरे के साथ अपनी ज़रूरतों के अनुसार एक-दूसरे का स्वीकार भी करते रहे. इसलिए इस काल को ठहरा हुआ या ‘जबदी हुई मनोवृत्ति का काल’ नहीं माना जा सकता.
इस खंड का पाँचवाँ लेख शिकागो विश्वविद्यालय, अमेरिका में शोधार्थी ईशान चक्रवर्ती का ‘बिल्वमंगल इन बंगाल : बायोग्राफिकल थॉट, इनएक्सप्रेसिबिलिटी, ऐंड अदर मिस्ट्रीज’ शीर्षक से है. बिल्वमंगल के बारे में संस्कृत साहित्य में मान्यता है कि इन का असली नाम कृष्णलीलाशुक था. जब उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया तब वे बिल्वमंगल के नाम से प्रसिद्ध हुए. जब चैतन्य महाप्रभु दक्षिण की ओर गए तब उन्होंने उड़ीसा के ब्राह्मणों से बिल्वमंगल की रचना ‘कृष्णकर्णामृत’ के कुछ श्लोक सुने. चैतन्य महाप्रभु ने उन श्लोकों की प्रतिलिपि तैयार की और फिर इस प्रकार बंगाल में ‘कृष्णकर्णामृत’ का फैलाव हुआ. ईशान चक्रवर्ती ने बहुत विस्तार से यह स्पष्ट किया है कि किस प्रकार बंगाल में जाने के बाद इस रचना की टीकाओं में बिल्वमंगल के जीवन के बारे में कथाएँ रची जानी शुरू होती हैं.
ईशान चक्रवर्ती ने कुछ श्लोकों की व्याख्या भी इस प्रकार की है कि इसमें निहित या छिपा जीवनीपरक अर्थ प्रकट हो गया है. ‘लिटररी कल्चर्स इन अर्ली मॉडर्न नॉर्थ इंडिया करेंट रिसर्च’ किताब का आख़िरी लेख कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयार्क में शोधार्थी अन्वेषा सेनगुप्ता का ‘द इंट्रोडक्शन ऑफ सिमेट्री इन ऐन इंट्रोडक्शन : ए क्लोज रीडिंग ऑफ द प्रोलॉग ऑफ जायसीस पद्मावत’ शीर्षक है. इस लेख में अन्वेषा सेनगुप्ता ने मलिक मुहम्मद जायसी के ‘पद्मावत’ के स्तुति खण्ड की मीमांसा की है. इस में उन्होंने अनेक तरीकों से यह स्पष्ट किया है कि जायसी मसनवी शैली का ज़रूर इस्तेमाल करते हैं लेकिन ईरान की मसनवी शैली की जो परंपरा है उसमें वे कुछ नया जोड़ते हैं. अन्वेषा सेनगुप्ता यह भी ध्यान दिलाती हैं कि हिंदी क्षेत्र में जो सूफ़ी प्रेमाख्यान रचे गए उनमें वैचारिक रूप से काफ़ी अंतर है. उदाहरण के लिए मंझन रचित ‘मधुमालती’ में प्रेम और विरह की व्यंजना है जबकि ‘पद्मावत’ के स्तुति खण्ड में विरह शब्द बस एक बार आया है.
‘लिटररी कल्चर्स इन अर्ली मॉडर्न नॉर्थ इंडिया करेंट रिसर्च’ किताब हिंदी के मध्यकालीन साहित्य के अध्ययन में न केवल बहुत कुछ जोड़ती है बल्कि नई शोध-संभावनाओं की ओर संकेत भी करती है. क्या ही अच्छा होता कि ऐसी किताबें हिंदी में भी लिखी या संपादित की जातीं ! उत्तर भारतीय साहित्यिक और सांस्कृतिक परिदृश्य की विविधता तथा बहुलता का एक समेकित दस्तावेज़ यह किताब है.
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Danuta Stasik is Professor of South Asian Studies at the University of Warsaw where she studied Indology and earned her doctoral degree. Her research focuses mainly on the history of Hindi literature and literary criticism, the Ramayana tradition in North India, as well as on the Indian diaspora in the West with a particular emphasis on Hindi writing. Her publications include books and research papers in English, Hindi, and Polish, devoted to these subjects. She was awarded with Vishva Hindi Samman (1999 and 2003) and Dr George Grierson Puraskar 2007 by the President of India. |
यो ypshekhar000@gmail.com |
योगेश प्रताप को इस पुस्तक से परिचय कराने के लिए धन्यवाद!पटना विश्वविद्यालय के छात्र योगेश का एक जनपक्षधर मुकम्मल एकेडमीशियन में तब्दीली का साक्षी रहा हूं। जानकारियों और सूझों से भरी प्रत्येक आलेख पर टिप्पणी से सजी यह समीक्षा हासिल है ।
कुछ हफ्तों के बाद यह अंक पढ़ा है । घर की ज़िम्मेदारियों के इतर कुछ पढ़ना है तो समालोचन वेब-पत्रिका पढ़नी चाहिए । शोधकर्ताओं का धन्यवाद ।
बहुत कुछ पढ़ने के बाद भी, बहुत कुछ पढ़ने से रह जाता है। बहुत से ऐसे जरूरी सवाल और बिंदु होते हैं जिनपर सतत मनन की आवश्यकता होती है। यह आलेख इस बिंदु की ओर ले जाता है। मुझ जैसे पाठक की इस आलेख के माध्यम से जानकारी में वृद्धि हुई है। धन्यवाद।