मैं कविता क्यों लिखती हूँलवली गोस्वामी
मैं क्यों लिखती हूँ? यह कहना मुश्किल है. सीधा जवाब है कि क्योंकि मुझे लिखने की इच्छा होती है. लेकिन यह बस अभी-अभी की बात है, जब मैं दो किताबें लिख चुकी हूँ. इससे पहले की बात सोचती हूँ तो याद आता है कि मैंने कब लिखना शुरू किया. मुझे पांच वर्ष की उम्र में वाक्य बनाना सिखा दिया गया था. जब मेरे मन में जिज्ञासा आती मैं पूछने के लिए बड़ों के पास जाती थी, अक्सर जो जवाब मिलते उनपर विश्वास करना कठिन होता था. मैं पूछती \”मैं कौन हूँ\” जवाब मिलता तुम लड़की हो, हमारी बेटी हो. मुझे समझ नहीं आता इसे कितना सही मानूं. मैं लड़की हूँ यह तो इस संसार में आकर तय हुआ. किसी की रिश्तेदार या संतान हूँ यह इस देह में आकर. यह मेरी देह है, यह मेरी नाक है, मेरी आँख है, यह सब मेरे शरीर के अंग हैं, इनसे परे “कुछ” मेरी आत्मा है मेरा मन है. लेकिन मैं कौन हूँ. मैं अपने सवाल, मुझे मिले जवाब, उनपर मेरी कुढ़न. यह सब कॉपी में लिखती थी. मैं पांच वर्ष की उम्र से अपनी असंतुष्टि अपनी जिज्ञासा लिखती आ रही हूँ. कभी-कभी मुझे लगता है अगर मुझे यह असंतुष्टि लिखने से रोक दिया जाए तो न जाने मैं क्या लिखूंगी. लेकिन यह तो तय है मैं कुछ न कुछ लिखूंगी ही क्योंकि यह “लिखना” अब यह आदत और प्रेम दोनों बन चुका है.
भारतीय दर्शन का वह उदाहरण याद कीजिये जिसमे रथ का उदाहरण देते हुए दार्शनिक इस प्रसिद्द प्रश्न का उत्तर देता है कि वह कौन है. रथ का पहिया रथ नहीं है, रथ की ध्वजा रथ नहीं है उसका धुरी रथ नहीं है, उसका कोई हिस्सा अकेले रख दिया जाए तो वह रथ नहीं है. फिर रथ क्या है? रथ भी मेरी तरह एक प्रश्न है. जो कुछ मैं लिखती हूँ इसी प्रश्न का उत्तर है कि मैं कौन हूँ. और मन में मैं वही पांच साल की बच्ची हूँ जिसे अब तक कोई उत्तर संतुष्ट नहीं कर सका है. मैं सिर्फ इस बात का जवाब पाने के लिए पढ़ती रही. मैं खुद से इस सवाल के हर पहलू को जांच सकूं, मैं इसलिए भी लिखती हूँ. मैं एक पुत्री, एक बहन, एक पत्नी एक मित्र, एक माँ या कुछ और भी हो सकती हूँ लेकिन वह सिर्फ मेरा एक हिस्सा है. पूर्ण रूप से मेरी अंतिम साँस के पहले नहीं जाना जा सकेगा कि मैं कौन हूँ. मैं उस अंतिम सांस के इंतजार में लिखती हूँ.
मुझे बोलना पसंद नहीं है. लेकिन मुझे संवाद पसंद है. खुद से और अपने जैसे बहुत से लोगों से इस सवाल का जवाब जान और सुन सकूं मैं इसलिए लिखती हूँ. यह संवाद अन्य कला के ज़रिये भी संभव था लेकिन मेरा पारिवारिक माहौल इस तरह का नहीं था कि मुझे अन्य कलाओं के अभ्यास के लिए छूट दी जाती. पढना और लिखना ऐसी बातें थी जिसे रोज़ के काम के बीच एक बच्चा छिपा कर आसानी से कर सकता था. इसलिए मैंने साहित्य को चुना. अगर मुझे आज़ादी मिलती तो मैं नृत्य करती, फिल्मे बनाती, संगीत या चित्र रचती और इन सब में मैं उसी एक सवाल का जवाब खोजती कि मैं कौन हूँ. यह नहीं हो सका इसका मुझे अफ़सोस है भी और नहीं भी. मुझे लगता है अफ़सोस और निराशा जीवन के अभिन्न हिस्से हैं और वे भी हमारा जीवन उतने ही प्यार से बनाते हैं जितना की ख़ुशी और प्राप्तियां, मैं इस बात को समझने के लिए भी लिखती हूँ.
मेरा लिखना उसी एक सवाल से शुरू हुआ था जो आरम्भ में मैंने यहाँ लिखा, लेकिन अब इसमें कई बातें जुड़ गई है. अब मेरा दायरा, मेरी सोच के विषय बढे हैं और इसके साथ मेरे सवाल भी बढे हैं. उन सवालों के जवाब भी बढे हैं, और उनको हर कोण से व्याख्यायित करते विषय भी बढे हैं. मैं इन सब की जांच करने के लिए भी लिखती हूँ.
मुझे लिखने से ख़ुशी मिलती है मैं इसलिए लिखती हूँ. मुझे लगता है मैं जिन कष्टों से गुजरी उन्हें बाँट कर मेरा दुःख कम होगा, मैं इस स्वार्थ के कारण भी लिखती हूँ. जिन्होंने मुझे प्रेम किया उनके साथ मिले ख़ुशी के क्षण अमर (मेरा अंधविश्वास है कि लिखे हुए शब्द कभी मिटते नहीं हैं) हो जाएँ इस इच्छा में मैं इस ऋण से मुक्त होने के लिए भी लिखती हूँ. जिसने अपमान झेला, दुःख सहे उस मनुष्य को यह बताने के लिए लिखती हूँ कि तुम अकेले नहीं हो, मैंने भी अपमान और दुःख झेले हैं, आओ हम साथ मिलकर उनसे मुक्त हो जाएँ, यह सन्देश देने के लिए लिखती हूँ. मैंने जो महसूस किया वह बताने के लिए लिखती हूँ, जो न महसूस कर सकी उसकी पड़ताल करने को लिखती हूँ. बस इतनी ही बातों के लिए लिखती हूँ.
लवली गोस्वामी की कविताएँ
दूरफल
बकरियाँ, ऊंट जितनी लम्बी होती
तब बेरी की झाड़ी भी खजूर के पेड़ की जितनी ऊँची होती
भक्षक की क्षुधा को मात देने के लिए
उसके कद से बड़ा होना पड़ता है
सबसे अधिक
स्त्रियाँ ही जानती है ये बात.
जिंदा रहना जीव का सबसे बड़ा धर्म है
भले ही बढ़ते रहने के एवज में वह
छाया देने का वरदान खो दे
और सबकी पहुँच से दूर हो जाएं
उसके फल.
तुमसे पहले
अतियों से मेरे प्रेम के बीच
हमेशा तुम खड़े होते हो दीवार बनकर
मैं इतनी थकी हूँ कि तुम्हे देखकर
तुमसे पीठ टिका कर सो जाती हूँ.
प्रेम करना तो एक बात है लेकिन
कभी – कभी मुझे महसूस होता है
तुमसे मिलने से पहले मैं थी ही नहीं.
बेरोजगार ईश्वर
कवि और ईश्वर में नित होड़ चलती है. ईश्वर नए दुःख बुनता है. कवि उस दुःख को उसके बराबर सुन्दरता गढ़ कर जीत लेता है. ईश्वर मुस्कुराता है और फिर नया दुःख गढ़ देता है.
दुःख के बिना कवि और ईश्वर दोनों बेरोजगार हो जायेंगे.
उत्तराधिकार
अपने तमाम बच्चों को लेकर
एक दिन ईश्वर यात्रा पर निकला.
उसकी लापरवाही से
एक बच्चा स्टेशन पर छूट गया
वह छूट गया बच्चा कवि था.
बहुत दिन बीते इस बात को
ईश्वर को ज़रा भी भान नहीं
कि कविता में न्याय करना
अनुवांशिकता की ढिठाई है.
जिजीविषा
तमाम जुगनू
एक ठंढे सूरज की चिंगारियाँ हैं
जिसे हथौड़ा मारकर तोडता जा रहा है कोई
रात दर रात.
एक रात वे अपना बिखरा हुआ समुदाय एकत्र करेंगे
रौशनी जोड़कर सूरज जितना बड़ा मधुकोष बनायेंगे,
तब तक कोई कुछ भी कर ले
वे बुझेंगे नहीं.
सटीकता
गंध कभी धोखा नहीं देती
वे ठीक उसी चीज की याद दिलातीं हैं
जिससे वे उठ रहे होतीं हैं.
कुछ लोग भाषा से
दुःख पहुँचाने के मामले में
गंध जैसे ही सटीक होते हैं.
नहीं
चोंच काटकर बो देने से चहचहाहट के खेत नहीं उगते
जुगनुओं को निचोड़ने से रौशनी नहीं टपकती
ओस ओढ़कर चट्टानें कोमल नहीं होती
उदास गीत पानी में डूबते हुए बुलबुले नहीं बनाते
कविता में पंक्तियाँ चीटियों की कतार नहीं होती
इच्छा और दुःख में गहरा संबंध है लेकिन
अनिच्छा और सुख भी कोई सहोदर नहीं होते
काग़ज़ों पर अगर नहीं लिखे जाएँ सुन्दर शब्द
तो वे अजीर्ण और कुपोषण से मर जाते हैं.
मृत्यु से पहले
एक कथा में मैं ऐसा किरदार हूँगी
जिसे बाल सँवारने से नफ़रत है
तुम अपनी उँगलियों के पोर पर
केश–तैल की कटोरियाँ उगाना.
कड़ी धूप में चप्पल के नीचे रहने वाले
विनम्र अँधेरे की तरह
हरी पत्ती के नीचे
मासूम नींद सो रही तितली की तरह
हम कुछ वक्त छाया और सुख में रहेंगे.
आज के बाद पूरी ज़िन्दगी
हम एक गीत गुनगुनायेंगे
जिससे सब जान जाएं
यह रहस्य :
कगार पर खड़े वृक्ष हैं हम
सांझ की बेला हमारी छायाएं आगे बढेंगी
एक दूसरे से लिपट जायेंगी
राहत की एक साँस बनकर आएगी मृत्यु
जो कुछ हमने भोगा
हमें एक दूसरे से हमेशा के लिए जोड़ देगा.
जड़ों के बारे में
जड़ें ही जिंदा नहीं रखती पेड़ को
पेड़ भी जड़ों को जीवन देते हैं
बाज़ दफ़ा कट जाने के बाद शाखाएँ
नई जड़ें ऊगा कर खुद को बचा लेती हैं
बाज़ दफ़ा तना खोकर जड़ें पाताल के
अधेरों में लुप्त हो जाती हैं.
जड़ें हमेशा
रौशनी के विपरीत जाती हैं.
जड़ों से जुड़े रहने की वफ़ादारी
हमेशा बड़ा नहीं बनाती
बड़ी होती है मूल से कट कर
नई मिट्टी में पनप जाने की जिद.
मैं चाहती हूँ कहावत में
एक बार यह भी कहा जाए
कि जड़ों को
अपने पेड़ नहीं भूलने चाहिए.
शाखाओं को आना चाहिए
नया पेड़ हो जाने का हुनर.
कठबीज
कसैले- खट्टे आमले का *कठबीज है दिल
मरूं तो **गाड़ना नहीं, जला देना मुझे
कसैले फलों का पेड़ किसी के काम का नहीं होता.
फीका न रह जाए इसलिए मन को
अधिक ही पका दिया मैंने
देर तक पकी चाय कि तरह
तेज़ और कड़वे हो गये मन के बोल
किसी को परोसने से पहले
इसकी थोड़ी मात्रा में
बहुत सारा पानी मिलाती हूँ
त्वचा छोड़ कर मेरी पलकें अक्सर
सूदूर ब्रह्माण्ड में तैरती हैं, बिना पतवार
जितनी देर प्रेमी एक दूसरे को अपलक देखते हैं
मैं उनकी पलकें ओढ़कर सोती हूँ
देर तक देखती रही मैं अपनी हथेलियाँ
हाथों कि रेखाएं
झुर्रियां बनकर माथे पर ऊग आयीं
हीरा बनीं दिल में गहरे दबी आंसू की एक बूँद
उसी के बराबर का कोई दूसरा हीरा
तराश सकेगा उसे
जीवन के सागर में दुःख के सब भारी पत्थर डूबे
कविता की पंक्तियाँ लिखी थी जिनपर
तैरे केवल वे ही दुःख
उनपर पैर रखकर ही पार किया मैंने अथाह जल
कविता सेतु है मेरा
मेरे ईश्वर का नाम शब्द है.
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l.k.goswami@gmail.com