• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » देहरी पर दीपक: नीरज

देहरी पर दीपक: नीरज

आलोचक माधव हाड़ा इधर विवेचना और अन्वेषण दोनों कार्य बड़े मनोयोग से कर रहें हैं. कई अप्रकाशित, अल्पप्रचलित और अनुपलब्ध पुरानी साहित्यिक पोथियों पर आधारित उनका शोध-कार्य सामने आया है. उनके आलोचनात्मक लेखों का संग्रह ‘देहरी पर दीपक’ सेतु प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. इसकी चर्चा कर रहें हैं शोधार्थी नीरज.

by arun dev
August 25, 2022
in समीक्षा
A A
देहरी पर दीपक: नीरज
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

अलक्ष्य का औदात्य

नीरज

साहित्य के आम पाठकों के बीच आलोचना और भाषा विज्ञान जैसे अनुशासनों की छवि हमेशा से एक गंभीर और जटिल विषय की रही है. साहित्यिक आलोचना के मामले में तो यह बात और भी अधिक सच मालूम होती है. आलोचना के गंभीर और दुसाध्य होने के पीछे एक वजह यह भी रही है कि यह पाठक से एक निश्चित पूर्व-ज्ञान की मांग करती है. लेकिन ऐसे आलोचक भी समय-समय पर होते रहे हैं जिन्होंने आलोचना के इस गंभीर और आतंकपूर्ण माहौल को कम करने का प्रयास किया है. दूसरे शब्दों में कहें तो उन्होने साहित्यिक आलोचना की दिशा को एक निश्चित और सीमित पाठक वर्ग से बदलकर लोक तथा वृहत्तर पाठक वर्ग की ओर मोड़ा है. ऐसे आलोचकों में हजारीप्रसाद द्विवेदी और विश्वनाथ  त्रिपाठी आदि के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं. किन्तु मेरी नजर में माधव हाड़ा भी इसी परंपरा के एक आलोचक हैं. यद्यपि माधव हाड़ा की पहचान हिन्दी में मीरा अध्येता की रही है. उन्होने जिस प्रकार मीरा और मीरा की कविता को सामान्य पाठकों तक पहुँचाने के प्रयास किये हैं ऐसे प्रयास आमतौर पर कम ही देखने को मिलते हैं. लेकिन इधर कुछ वर्षों से उनका दखल मीरा के इतर अन्य विषयों में भी देखने को मिल रहा है.

यहाँ अवसर है उनकी पुस्तक ‘देहरी पर दीपक’ पर विचार करने का. वस्तुत: यह पुस्तक उनके लेखों का एक संग्रह है जिसमें भाषा से लेकर संस्कृति तक, मीरा से लेकर सूर तक, कविता-नाटक से लेकर काथेतर तक, भक्ति आंदोलन से लेकर आलोचना तक अनेक विषयों पर लिखे गए लेख संकलित है. माधव हाड़ा जी के लेखन की यह विशेषता रही है वे गंभीर विषय को भी सरल (सामान्य नहीं) बनाकर प्रस्तुत करते हैं. यह पुस्तक भी इसका प्रमाण है.

मैंने जब इस पुस्तक को मैंने पढ़ना शुरू किया तो पाया कि इसमें लेखक की ओर से कोई भूमिका नहीं लिखी गयी है. जाहिर है कि मुझे यह बात थोड़ी अटपटी लगी. लेकिन जैसे ही मैंने पुस्तक का पहला अध्याय ‘देहरी पर दीपक: अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की भारतीय संस्कृति और परंपरा’ पढ़ा, तो मुझे लगा कि लेखक ने यदि भूमिका नहीं लिखी तो ठीक ही किया; क्योंकि इस पुस्तक का प्रत्येक अध्याय अपने आप में इस कदर आत्म-व्याख्यात्मक और सरल है कि उसे किसी भूमिका की आवश्यकता ही नहीं है. दरअसल, किसी भी पुस्तक में दी जाने वाली भूमिका की आवश्यकता उसे पाठक के लिए सहज और ग्राह्य बनाने भर की होती है. लेकिन यह बात इस पुस्तक पर लागू नहीं होती है.

बहरहाल, पहला अध्याय भारतीय संस्कृति और परंपरा में अभिव्यक्त स्वतंत्रता को लेकर है. जोकि बहुत नैसर्गिक सी चीज है. लेकिन दुनिया के तमाम देशों में इसे हासिल करने के लिए बड़ी-बड़ी कीमतें चुकायी गयी हैं. लेकिन भारत इस मामले में अन्य देशों से थोड़ा भिन्न रहा है. लेखक का अपना तर्क है कि- ‘भारतीय समाज आरंभ से ही वैविध्यपूर्ण रहा है यहाँ सदियों से कई समूह अपनी भिन्न संस्कृतियों के साथ रह रहे हैं, उन्होने एक-दूसरे को निरंतर लिया दिया भी है, इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को लेकर इस समाज का नजरिया विश्व के अन्य समाजों से अलग है.’

हमारे यहाँ एक-दूसरे की वैचारिक भिन्नता या असहमति के प्रति सम्मान का भाव रहा है और यही इस समाज का बुनियादी स्वभाव रहा है. हमारे यहाँ समाज में भिन्नता न केवल धर्म के आधार पर रही है बल्कि दर्शन, साहित्य, कला-रूप, संस्कार, खान-पान, पहनावे आदि के स्तर पर भी इसे देखा जा सकता है. वाद-विवाद और संवाद को हमारे यहाँ पर्याप्त महत्व दिया गया है. इस पूरी परंपरा को समझाने के लिए हाड़ा जी ने वेद से लेकर उपनिषद, दर्शन से लेकर साहित्य, जैन से लेकर बौद्ध, इस्लाम से लेकर भक्ति आंदोलन, अशोक से लेकर अकबर, कौटिल्य से लेकर जवाहरलाल नेहरू और गांधी से लेकर टैगोर तक अनेक उदाहरण दिये हैं और बताया है कि ‘देहरी-दीपक न्याय’ हमारी आदत में है. हमारे यहाँ दीपक देहरी पर, बीच में है और इसका उजाला अंदर बाहर सब जगह है.

पुस्तक का दूसरा अध्याय भारत के भाषाई वैविध्य को लेकर है. यहाँ भारतीय भाषाओं को लेकर प्रचलित उस औपनिवेशिक समझ पर विचार किया गया है जो मोटे तौर पर ग्रियर्सन द्वारा दिये गए निष्कर्षों के आधार पर निर्मित हुई है. ग्रियर्सन ने भारत के भाषाई परिदृश्य को देखते हुए जब व्यापक सर्वेक्षण करवाया तो वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ‘भारत सचमुच विरोधी तत्वों की भूमि है और भाषाओं पर विचार करते समय तो ये तत्व और भी दृष्टिगोचर होते हैं.’ इसके अलावा जार्ज ग्रियर्सन ने ‘खींच-खांच कर भारतीय भाषाओं का जो वर्गीकरण और विभाजन किया उससे पहली बार भाषाओं को एक-दूसरे से अलग पहचान मिली.’ विडम्बना यह है कि भारतीय भाषाओं के बारे में उनकी यह राय मान्य होकर अब हमारी समझ का हिस्सा भी हो गयी है. इतना ही नहीं हाड़ा जी इस बहस को और पीछे ले जाते हुए अमीर खुसरो तथा अबुल फ़जल तक पहुँच जाते हैं जिनके मत भी कुछ ग्रियर्सन की तरह के ही थे. ऐसी तमाम स्थापनाओं का खंडन करते हुए हाड़ा जी बताते हैं कि दरअसल इन तीनों लोगों का नजरिया भारत को लेकर विदेशी था. वे भारत की मूल आत्मा से परिचित नहीं थे. हाड़ा जी बताते हैं कि “हमारे यहाँ का परिदृश्य यूरोप से बहुत अलग है. यहाँ भाषाओं को ‘विभक्त’ या ‘वर्गीकृत’ करके नहीं समझा जा सकता, क्योंकि यहाँ ये एक-दूसरे से अलग होने की बजाय एक-दूसरे में ‘विलीन’ होती हैं.” साथ ही वे कहते हैं कि मीरा या कबीर जैसे मध्यकालीन कवियों की कविताओं के प्रचलित पाठों और इनके भाव-भाषाई वैविध्य को इस खास भारतीय नजरिए से समझने-पहचानने की जरूरत है.

दरअसल, पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी में आज की प्रांतीय इकाइयों राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, बिहार आदि में जो भाषा इस्तेमाल हो रही थी वह कुछ क्षेत्रीय विशेषताओं को छोड़कर लगभग एक थी. मीरां आदि के समय देशभाषों की पृथक पहचानें नहीं थी, लेकिन धीरे-धीरे ये बनती गईं. मीरां आदि के पद लोकप्रिय थे, इसलिए ये भी इनके अनुसार ब्रज, राजस्थानी और गुजराती होते गए. इस प्रकार लेखक यहाँ दो-तीन अध्यायों में विस्तारपूर्वक अनेक उदाहरणों के साथ भारतीय भाषाई परिदृश्य को समझने की एक कुंजी पाठक के हाथ में देते हैं और मध्यकालीन साहित्य को एक बार फिर से नए सिरे से देखने-समझने के लिए प्रेरित करते हैं.

पुस्तक के एक अध्याय में सूरदास के बहाने से हाड़ा जी ने हिन्दी आलोचना जगत में व्याप्त खंडन-मंडन की प्रवृत्ति की ओर भी इशारा किया है. वे बताते हैं कि हिन्दी के चार बड़े संत-भक्त कवियों—तुलसी, सुर, जायसी, और कबीर में से कबीर को छोड़कर बाकी तीन पर विचार का प्रस्थान रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना से हुआ. इसमें भी तुलसी और जायसी की पहचान तथा मूल्यांकन का कार्य उन्होने अधिक मनोयोग से तथा श्रम से किया. इसके बाद कबीर, जो उनकी निगाह में अधिक नहीं चढ़ सके उसके लिए आगे हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर की महिमा को प्रतिष्ठापित किया. लेकिन इस बीच हुआ यह कि लंबे समय तक हिन्दी में सूरदास पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया. शुक्ल जी ने तुलसी के साहित्य की कसौटी पर परखते हुए सूरदास को जिस शृंगार और वात्सल्य के सीमित सरोकार वाला कवि मान लिया था वह हिन्दी आलोचना में रूढ हो गया. लेकिन यहाँ इस अध्याय में हाड़ा जी सूरदास के भ्रमरगीतसार के हवाले से बताते हैं कि इसका महत्व सिर्फ विप्रलंभ शृंगार और वचनों की वक्रता तक ही सीमित नहीं है बल्कि लोकोत्तर पर लोक के महत्त्व की प्रतिष्ठा का दस्तावेज़ भी है. साथ ही यह भी बताया है कि सूरदास अपने समय की परिस्थितियों से अंजान या उससे तटस्थ नहीं थे जैसा कि रामचंद्र शुक्ल ने माना है.

‘अतिव्याप्ति में अलक्ष्य’ नामक एक स्वतंत्र अध्याय में हाड़ा जी ने भारतीय समाज के विकास में मध्यकालीन भक्ति आंदोलन की क्या भूमिका रही है इस पर विचार किया है. इसके साथ ही वे यह भी बताते हैं ‘भक्ति आंदोलन की फिलहाल एक देशव्यापी और एकरूप पहचान बन गयी है, जो गलत है. बल्कि सच तो यह है कि इस आंदोलन के देशव्यापी होने के कारण हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता के अनुरूप इसके कई रूप बने और बिगड़े.’ उदाहरण के तौर पर ‘उड़ीसा में भक्ति आंदोलन की शुरूआत पंद्रहवीं शताब्दी में ही हो गयी थी. बाद में वहाँ जगन्नाथ संप्रदाय अस्तित्व में आया. कालांतर में जब यह पंथ जब ब्राह्मण-राजा गठजोड़ के अधीन हो गया, तो हाशिये के समाजों में महिमा पंथ लोकप्रिय हुआ. इसी तरह पंजाब की ऐतिहासिक जरूरतों के हिसाब से भक्ति आंदोलन ने वहाँ गुरु नानक की प्रेरणा से सिक्ख पंथ का रूप ले लिया. इसके अलावा उत्तर-पश्चिमी भारत में ब्राह्मणों कर्मकांड और बाह्याचारों के विरुद्ध जाम्भोजी की शिक्षाओं के आधार पर बिशनोई संप्रदाय बना और बाद में यहा एक पृथक जाति ही बन गयी. इसी प्रकार आगे उन्होने भक्तिकाल के सकारात्मक योगदान और इसके सरलीकरण से हुए नुक़सानों की चर्चा करते हुए इसे एक सही परिप्रेक्ष्य में देखने का आग्रह किया है.

पुस्तक में एक बेहद महत्त्वपूर्ण और नवीन उद्भावनाओं से भरा अध्याय मुनि जिनविजय पर भी लिखा गया है. हाड़ा जी ने अध्याय में तमाम तथ्यों के माध्यम से यह बताने की कोशिश की है कि किस प्रकार एक बहुआयामी व्यक्तित्व को हिन्दी के लोगों ने विस्मृत कर दिया है. मुनि जिनविजय के व्यक्तित्व पर चर्चा करते हुए वे बताते हैं कि जिस तरह से मुनि जिनविजय ने अलग-अलग भूमिकाओं को निभाते हुए अपना जीवन जिया है वह अनेक अर्थों में असाधारण है. मुनि जिनविजय ने लेखन से लेकर संपादन, आलोचना, शोध, संरक्षण, प्रकाशन, जैन साधू, पाण्डुलिपियों के खोजकर्ता, स्वतन्त्रता सेनानी, अनेक देशों की यात्राएं आदि तक अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य अपने जीवन में किए थे. किन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है, कि पूर्ण समर्पण भाव से हिन्दी की इतनी सेवा करने वाले बहुआयामी विद्वान और साहित्यकार को हिन्दी में उतनी पहचान एवं सम्मान नहीं मिल सका जितने के वे हकदार थे. इस अनदेखी की एक वजह हाड़ा जी यह मानते हैं कि- “हिन्दी के आधुनिक माहौल में यह नाम संज्ञा उनके काम के मूल्यांकन में अवरोध बन गयी. उनके बहुत महत्त्वपूर्ण कार्यों को किसी साधु द्वारा किए गए धार्मिक-सांप्रदायिक कार्य की श्रेणी में डाल दिया गया.”

‘हिन्दी में कथेतर’ नाम से एक अध्याय भी पुस्तक में शामिल है. जिसमें हिन्दी की आधुनिक विधाओं- जीवनी, संस्मरण, आत्मकथा, यात्रा-वृत्तान्त- आदि पर चर्चा की गयी है. इन विधाओं पर की गयी चर्चा उनके संरचना, जरूरत, इतिहास और समकालीन संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में की गयी है. उदाहरण के तौर पर, जीवनी के संबंध में माधव हाड़ा जी लिखते हैं कि “पश्चिम में जीवनी लेखन और उसके स्वीकार्यता को लेकर हमेशा से माहौल उत्सव का रहा है, जबकि हमारे यहाँ उस संबंध में शुरू से ही गहरी उदासीनता है. विद्वान इसका कारण हमारी अलग संस्कृति को मानते हैं. दूसरों के व्यक्तिगत जीवन में दिलचस्पी अंग्रेजी समाज में पागलपन की हद तक है, जबकि भारतीय एक-दूसरे के निजी जीवन में ताक-झांक को गलत मानते हैं. इसके अलावा भारतीय समाज मिथक-विदग्ध समाज भी है. इतिहास में उसकी दिलचस्पी बहुत कम है और जीवनी मिथक नहीं, इतिहास है.”

पिछले कुछेक वर्षों से जिस प्रकार हिन्दी में कथेतर साहित्य के लिखने और पढ़ने वालों की संख्या में इजाफा हुआ है, उसके पीछे क्या वजह रही है इसे भी हाड़ा जी ने टटोलने की कोशिश की है. वे लिखते हैं कि

“एक समय यह शिकायत आम थी कि कहानी-उपन्यास के अलावा हिंदी में गद्य नहीं के बराबर है. अक्सर साहित्येतिहास की किताबों में जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण, यात्रा वृतांत आदि विधाओं  में स्वतंत्र रचनाओं के नाम गिनाने में लेखकों को मुश्किल होती थी. अब हालात बदल रहे हैं- कथाकार कथा की बजाय कथेतर गद्य में हाथ आजमा रहे हैं. कुछ हद तक यह सही है कि कलपनशीलता का पुराना युग समाप्त हो रहा है और अब इसकी आंशिक संभावना गद्य में दिखाई दे रही है. तथ्य के प्रति बढ़ रहा आकर्षण बताता है कि पाठक अब ठीक-ठीक जानना चाह रहा है.”

पुस्तक में दो अध्याय, हिन्दी की दो बेहद प्रसिद्ध रचनाओं पर भी हैं. एक गिरीश कार्नाड के तुगलक नाटक पर और दूसरा मुक्तिबोध की ब्रह्मराक्षस कविता पर. यह निर्विवाद है कि दोनों ही रचनाएँ हिन्दी पाठकों के लिये जानी पहचानी और प्रतिष्ठित रचनाएँ हैं. किन्तु यहाँ हाड़ा जी के समग्रतापूर्ण और सारगर्भित लेखन ने इन रचनाओं पर विचार-पुनर्विचार करने की प्रक्रिया को बेहद रोचक और ज्ञानवर्धक बना दिया है.

तथ्य हैं की तुग़लक़ एक अनूदित रचनाएँ है, जिसका अनुवाद हिंदी में भी कन्नड़ भाषा से किया गया है. इसके अनुवादक ब व कारंत थे. यह नाट्यनुवाद इस बात का जीता-जागता उदाहरण है कि यदि अनुवादक की टेक्स्ट और कांटेक्स्ट (पाठ और संदर्भ) दोनों पर अच्छी पकड़ हो तो अनूदित रचना मूल रचना से भी बेहतर बन सकती है. माधव हाड़ा जी बताते हैं कि भारत जैसे बहुभाषिक समाज में अनुवाद का बहुत महत्व है कि इससे भिन्न भाषा भाषी समाजों के बीच अंतर्क्रिया और सम्मान का बढ़ावा मिलता है तुग़लक़ नाटक इसका एक बेहतरीन नमूना है. नाटक पर चर्चा करते हुए हाड़ा जी ने सभी दृश्यों की विस्तारपूर्वक व्याख्या प्रस्तुत की है और साथ ही नाटक की मूल आत्मा तक पहुँचने की भी एक सफल कोशिश की गई है. इस कार्य के लिए नाटक के पाठ विश्लेषण से लेकर इतिहासकारों के उद्धरणों तक, सभी का सहारा लिया गया है. माधव हाड़ा जी, इस नाटक को तुग़लक के तत्कालीन जीवन के साथ-साथ नाटक के रचनाकाल और उसकी समकालीनता के संदर्भ में भी देखने-समझने की कोशिश की है. जहां वे आज़ाद भारत के लगभग दो-ढाई दशकों का संदर्भ लेकर बताते हैं कि किस प्रकार तुग़लक की तरह ही आधुनिक भारतीय नेताओं की महत्वकांक्षाएं भी बेहद आदर्शवादी थीं! जबकि परिस्थितियां इसके बिलकुल विपरीत थी. यही वजह है कि “आज़ादी के बाद के आरंभिक दो दशकों के आदर्शवाद और उससे मोहभंग का तुगलकी समय से गहरा साम्य है.” इस प्रकार यहाँ तुग़लक नाटक पर एक विस्तारपूर्वक और मुकम्मल चर्चा देखने को मिलती है, जिसमें नाटक की रचनाधर्मिता, अनुवाद, कथ्य, भाषा, चरित्र निर्माण, एतिहासिकता, समकालीनता, रंग-योजना, लेखकीय कल्पना, आदि पर विचार किया है.

‘ब्रह्मराक्षस’ मुक्तिबोध की दूसरी महत्त्वपूर्ण लंबी कविता है. पहले स्थान पर उनकी कविता ‘अंधेरे में’ को रखा जाता रहा है. मुक्तिबोध के लेखन की यह खासियत रही है कि उनकी प्रत्येक रचना द्वारा उनके व्यक्तित्व और आत्मसंघर्ष को किसी हद तक समझा जा सकता है. ब्रह्मराक्षस कविता इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि कविता में आया ब्रह्मराक्षस हमारे समाज के एक बड़े वर्ग यानी मध्यवर्गीय प्रगतिशील बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है. जो अपने उच्च आदर्शों के कारण अपने उद्देश्यों में लगातार असफल हो रहा है. इसलिए ब्रह्मराक्षस पर विचार करना आज के प्रगतिशील बुद्धिजीवी मध्यवर्ग और उनकी चिंताओं पर विचार करने के समान है. विचार-विमर्श की इस पूरी प्रक्रिया को मुक्तिबोध ने ब्रह्मराक्षस की मिथकीय अवधारणा का सहारा लेते हुए फैंटेसी के माध्यम से सफलतापूर्वक निभाया है. हाड़ा जी ब्रह्मराक्षस शब्द के ऐतिहासिक पक्ष पर विचार करते हुए खोजकर यह भी बताते हैं कि यह शब्द एक प्राचीन शब्द है. जिसकी अवधारणा का जिक्र भारतीय शास्त्रों में दो स्थानों आया है. पहला उल्लेख यज्ञवलक्य स्मृति और दूसरा मनुस्मृति में है. दोनों का आशय कमोबेश समान है. कहा गया है कि, मनुष्य योनि में दुराचरण करने वाला, धन का अपहरण करने वाला और परस्त्रीगामी ब्राह्मण ब्रह्मराक्षस के रूप में जन्म लेता है.

ब्रह्मराक्षस कविता में मुक्तिबोध ने नायक द्वारा किए जाने वाले सत्यान्वेषण और उसकी ट्रेजेडी के कारणों पर गंभीरतापूर्वक विचार किया हैं. साथ ही सत्यान्वेशी की कमजोरियों की ओर भी मुक्तिबोध ने संकेत करते हैं. जहां वे जीवन में आने वाले विचार और व्यवहार क्षेत्र के फर्क की बात करते हैं. माधव हाड़ा जी इस कविता के महत्व पर विचार करते हुए कहते है कि ” ब्रह्मराक्षस का आत्मसंघर्ष दरअसल, मुक्तिबोध का अपना निजी आत्म संघर्ष भी था. इसलिए वे ब्रह्मराक्षस में प्रगतिशील मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी के आत्मसंघर्ष की कमजोरियां गिनाने के बावजूद मानवीय सभ्यता और संस्कृति के लिए उसको जरूरी मानते हैं.” साथ ही बताते हैं कि इस तरह के द्वंद्व से मानवीय सभ्यता और संस्कृति आगे बढ़ती है.

पुस्तक में अंतिम, बेहद संक्षिप्त किंतु एक महत्त्वपूर्ण अध्याय छायावाद पर भी है. हाड़ा जी का मानना है कि ‘छायावाद’ हिंदी कविता का एक आंदोलन था और आंदोलन में जो अच्छा-बुरा होता है वह सब इसमें भी था. हड़बड़ी, खेमेबाजी, आरोप-प्रत्यारोप, खंडन-मंडन आदि जिस तरह से किसी आंदोलन में होते हैं, वे सब छायावाद में थे. इसकी प्रकृति और स्वभाव को लेकर अनेक आलोचकों से समय-समय पर विचार-विमर्श भी किया है. किन्तु हाड़ा जी के शब्दों में, “विडम्बना यह है कि बाद में इसके इसके मूल्यांकन के दौरान इस आंदोलन की बुनियादी अंतर्निहित चरित्रिक कमजोरियों को कमोबेश अनदेखा कर दिया गया.” छायावाद के विरोधी इस आंदोलन को हिन्दी कविता के विकास की एक सामान्य और स्वाभाविक अवस्था नहीं मानते हैं. यह अलग बात है कि स्वयं छायावादी कवियों की राय इसके उलट थी. लेकिन अंजाने में ही सही, किन्तु एक बार निराला ने छायावाद को ‘मियादी बुखार’ कह दिया था. इस प्रकार, छायावाद संबंधी इस अध्याय के माध्यम से हाड़ा जी हिन्दी के पहले और कुछ हद तक अंतिम काव्यान्दोलन पर करीब सौ वर्षों बाद समग्रतापूर्वक विचार किया है. हाड़ा जी ने विभिन्न छायावादी कवियों से लेकर अनेक आलोचकों की राय, छायावादी आंदोलन के स्वभाव तथा उसकी उपलब्धियों-कमजोरियों पर बात करते हुए अपनी मौलिक टिप्पणियों से इस अध्याय को गंभीर और रोचक बना दिया है.

यह पुस्तक आप यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं.

नीरज

शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय
neerajkr520@gmail.com

 

Tags: 20222022 समीक्षादेहरी पर दीपकनीरजमाधव हाड़ा
ShareTweetSend
Previous Post

उत्तराखण्ड में नवलेखन-5: बटरोही

Next Post

शचीन्द्र आर्य की कविताएँ

Related Posts

मीरां : माधव हाड़ा
आलेख

मीरां : माधव हाड़ा

आलवार संत परकाल : रचनाओं का भाव रूपांतर : माधव हाड़ा
कविता

आलवार संत परकाल : रचनाओं का भाव रूपांतर : माधव हाड़ा

विजयबहादुर सिंह और  माधव हाड़ा की बातचीत
बातचीत

विजयबहादुर सिंह और माधव हाड़ा की बातचीत

Comments 1

  1. दया शंकर शरण says:
    3 years ago

    अपने मूल विषय भक्तिकाल के साहित्य से आलोचनात्मक साहित्य में प्रवेश एक बिल्कुल अलग किस्म की यात्रा है।इस पुस्तक की समीक्षा में उन विषयों पर संक्षिप्त चर्चा भी हुई है।उम्मीद है इसे आलोचना की महत्वपूर्ण कृतियों में स्थान प्राप्त होगा।मेरी शुभकामनाएँ !

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक