उत्तराखण्ड में नवलेखन: 5पहाड़ का खल-पुराण
|
जिन दो कथाकारों को आज मैंने चुना है उनमें से एक नवीन नैथानी की तरह का, अपनी जड़ों को लेकर स्मृति और भाषा का खिलंदड़ापन इससे पहले आपने शायद ही किसी लेखक में देखा होगा. मैं यह बात उत्तराखंड के सन्दर्भ में कह रहा हूँ. यहाँ के लेखकों ने भाषा, शिल्प और किस्सागोई के एक-से-एक प्रयोग किए हैं, फसक-फराव, आण-किस्से और लटरम-सटरम बयानबाजी खूब हुई है, जमीन खोदकर किस्सों के असंख्य बीज उघाड़े गए हैं, हिंदी लेखन में उनकी चर्चा भी हुई है; एक विशाल पाठक-वर्ग सामने आया है, मगर इस बीच कुछ खल-पुराण भी लिखे गए जिन पर अभी पाठकों का ध्यान ठीक से जा नहीं पाया है, हालाँकि उन्हें कुछ दूसरे कारणों से थोड़ा-बहुत पढ़ा गया है.
हमारे ये दोनों कथाकार अपनी स्मृति और परम्परा की जड़ों से अंकुरित ऐसे किस्सागो हैं जो अपनी जड़ों को ऐसे घुमावदार रास्तों की ओर ले जाते हैं कि यह देखकर हैरानी होती है, इन रास्तों पर से तो हम रोज ही यात्रा करते रहे हैं, हमारी नज़रों से ये पगडंडियाँ ओझल कैसे रह गई?
प्रख्यात विदुषी और अनुवादक मधु बी. जोशी ने मुझे कभी यह नाम सुझाया था. अलबत्ता यह नाम उन्होंने इन रचनाओं के लिए नहीं दिया था, मगर जिन दो किताबों को मैंने आज चुना है, उन्हें रेखांकित करने के लिए इससे बेहतर नाम मेरे पास दूसरा नहीं है.
क्या होता है खल-पुराण? हमारे ऋषि-मुनियों ने अनगिनत पुराण लिखे, एक सौ आठ की आध्यात्मिक संख्या से हम सब लोग परिचित हैं. मगर वे सारे पवित्र पुराण हैं. हमारी स्मृति में जो पुराना है, उसे ही हमने ‘पुराण’ मान लिया, लेकिन स्मृति कोई ठहरी हुई अवधारणा तो है नहीं, वक़्त के साथ उसमें बदलाव और जटिलता आती-जाती रहती है. ये किस्से, जिनकी मैं चर्चा करने जा रहा हूँ, एकदम आज के हैं, हमारे समकालीन. मधुजी के अनुसार अनेक बार लेखक का काम न इतिहास की गवाही से चल पाता, न कोरी स्मृति से; न अतीत और कल्पना से, न फैंटेसी से, न बिम्बों-प्रतीकों से, न पुरखों के अनुभवों से और न शताब्दियों की मेहनत से अर्जित ज्ञान के अकूत भंडार से.
जानकारियों के बोझ तले हम आज इतने दब चुके हैं कि सब कुछ धुंधलाता चला गया है इसलिए उन्हें सहेजना अब पहले की तरह आसान नहीं रहा. आज के लेखक को इसी लाचारी के बरक्स फिर से एक नए पुराण की शरण में जाना पड़ा है जिसे आज का ज्ञान-संपन्न नया रचनाकार ही रच सकता है. खल पुराण. हमारे पुराने ऋषियों ने उनकी तपस्या भंग करने वाले जिन खलों का ज़िक्र किया है, उस तरह का कलयुगी पुराण नहीं है यह. मनुष्य की अनंत यात्रा के दौरान ज्ञानियों के द्वारा फालतू कचरा समझकर हाशिये में डाल दिये गए शब्दों और स्मृतियों का जो शब्द-संसार हमारे चारों ओर इकट्ठा कर दिया है; जिसका निर्माता शब्द-ब्रह्म नहीं, जानकारी के बोझ तले घुटन महसूस कर रहा आज का आम आदमी है. यही आज का पवित्र पुराण है. खल पुराण.
नवीन कुमार नैथानी
2009 में भारतीय ज्ञानपीठ की लोकोदय ग्रंथमाला में प्रकाशित नवीन कुमार नैथानी के पहले कहानी-संग्रह ‘सौरी की कहानियाँ’ के प्रकाशन से पहले ही उनकी कहानियाँ हिंदी कथा-चर्चा के केंद्र में आ चुकी थीं. 1962 में भोगपुर, जिला देहरादून में जन्मे नवीन की आरंभिक शिक्षा भोगपुर और नैनीताल में हुई, भौतिकी में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के दौरान से ही वह कथा लेखन, शोध और शिक्षण के क्षेत्र में सक्रिय हैं. उन्होंने कम लिखा है लेकिन हिंदी कहानी में सामने आया अलग तरह का कथ्य, कथन-भंगिमा और अपनी जड़ों से सीधे अंकुरित चैतन्य भाषा-प्रवाह उनकी कहानियों को अपने समकालीनों से अलग रेखांकित करता है.
‘सौरी की कहानियां’ सीरीज की पहली कहानी ‘चढ़ाई’ दिसंबर, 1988 के ‘हंस’ में प्रकाशित हुई थी जिसका पहला ड्राफ्ट लेखक के अनुसार 1982 में लिखा गया था जब वह देहरादून में बी.एससी. के छात्र थे.
नवीन का रचना-संसार अपनी धरती और जड़ों को एक समानांतर संसार के रूप में प्रस्तुत करने वाली एक अनोखी पहल है. वहाँ सीधे प्रकृति के संगीत की तरह उभरती स्मृति की किस्सागोई है. आदमी उसका उत्पाद है जो स्मृति के रूप में चारों ओर फैले ब्रह्माण्ड से रूपाकार ग्रहण करता और किस्से रचता है. किस्सों की यह दुनिया यथार्थ का आभास देती हुई न छायाभास है, न मिथक और न फंतासी. एकदम यथार्थ है सब कुछ. वैसे ही लोग, वैसे ही जंगल, आकाश-पाताल, रोती हुई औरतें, बतियाते पेड़, हवेलियाँ, दरवाजे, सीढ़ियाँ; जचगी के लिए पुरना दाई के दरवाजे पर लाइन में खड़ी गर्भवती औरतें, नब्बे डिग्री की सीधी चढ़ाई चढ़ते नब्बे पार के बूढ़े, उनसे अपने घर का रास्ता पूछते जवान मर्द और औरतें, एक-दूसरे का इलाज करते बीमार और वैद्य और अपने ठहर गए वंश के विस्तार के लिए भटकते बेचारे मर्द.
इन किस्सों में स्थान, किरदारों और जगहों के जो नाम हैं वे किसी खास देश-प्रदेश के नहीं हैं फिर भी सभी उत्तराखंड के हैं और वहां के मानव-भूगोल की कहानी बयान करते हैं. किस्से उनकी स्मृति और इतिहास के नहीं, यथार्थ के भरपूर प्रामाणिक किस्से हैं.
मगर ये कहानियां किस्से की तरह मनगढ़ंत नहीं हैं. सदियों से पहाड़ी लोक जीवन में सुनी-गढ़ी-गाई जाती रही आँचरियों (असमय मर गई स्त्रियों की प्रेतात्मा) से जुड़ी दंत-कथाओं के कथा-स्पर्श, प्रकृति के साथ आदि-मानव की बतकहियों की याद दिलाते स्मृति-स्पर्श और एकदम आज के दिन वैज्ञानिकों की खोजों से जुड़ी नए-अछूते आयामों की जानकारी देती ये कहानियां एकदम हमारी समकालीन हैं. अतीत और वर्तमान एक साथ ‘कालपात्र’ और ‘टाइममशीन’ के साथ कदमताल करते हुए हमें अपनी जड़ों का स्पर्श कराते हुए सीधे भविष्य के मोड़ पर ले जाकर खड़ा कर देते हैं.
‘एक हत्यारे की आत्मस्वीकृति’ कहानी क्लोन की वंश-परम्परा को लेकर मानव-शास्त्रियों और वैज्ञानिकों के सामने अनेक उलझन-भरे सवाल छोड़ जाती है. ‘शुतुरमुर्ग’ कहानी में बारिश, खूंटी और छाता आपस में बतियाते और गुस्सा करते हैं और खिडकियों से अपनी जिज्ञासाओं से जुड़े सवाल पूछते हैं. ‘मुँदरी बुढ़िया के दरवाजे’ में नब्बे पार की मुँदरी वर्षों से अपनी खंडहर हवेली में खुद के मायके सौरी गाँव से आते-जाते लोगों को अँधेरी रात में शरण देती है और ‘चढ़ाई’ का नब्बे साल की उम्र का बूढ़ा तीस साल पहले रिटायर हो जाने के बावजूद अपने जंगल की चौकीदारी करता हुआ चौकस अपनी ड्यूटी निभा रहा है.
संग्रह की केन्द्रीय कहानी ‘पारस’ खोजराम नामक ऐसे बच्चे की है जिसके गाँव सौरी में कई पीढ़ियों के बाद जीवित लड़के का जन्म हुआ है. इससे पहले जो भी गर्भवती स्त्री पुरना दाई के पास जचगी के लिए जाती थी, पुरना की लाख कोशिशों के बाद भी रोते हुए वापस लौट आती थी कि लड़की पैदा हुई थी जिसे छीनकर आंचरियाँ आकाश में उड़ गई हैं. हर बार जच्चा-बच्चा की मृत्यु हो जाती और सारा गाँव अपनी वंश परम्परा थमने की वजह से उदास हो जाता.
कई पुश्तों के बाद पैदा होता है खोजराम जिसके पैरों में एड़ियों की जगह बकरियों के जैसे खुर हैं. वह अपनी खोई बहनों को खोजने आंचरियों के पास आकाश-पथ की सीधी चढ़ाई चढ़ता है जहाँ उसे बताया गया था कि घने जंगल वाले आकाश पथ पर कहीं पारस पत्थर है जिससे सोना बनाया जा सकता है. चूंकि खोजराम के पाँव पहाड़ी बकरी के खुर-जैसे हैं इसलिए वह कैसी भी ढलान या चढ़ाई में दौड़ते हुए जा सकता है. लोग उससे पूछते हैं कि वह आंचरियों को क्यों खोज रहा है, वह बताता कि उनके पास पारस-पत्थर है. ‘पारस से वह क्या करेगा?’, इस सवाल के जवाब में वह बताता कि उससे सोना बनाएगा. ‘सोने से क्या करेगा?’ ‘उससे शादी रचाऊँगा’. सौरी में कोई लड़की-जात नहीं है इसलिए वह लड़की माँगने आंचरियों के पास जा रहा है.
‘चोर-घटड़ा’ में बाप-बेटे, नदी-पहाड़ और सदियों पहले अपनी जड़ों से कटकर बिखर गए लोग एक दूसरे के अस्तित्व की चिंता को लेकर भटक रहे हैं. नदी की तेज़ धार के बीच ठहर गई शिलाओं के साथ छोटे-छोटे गड़लोड़ (गोल पत्थर के टुकड़े) जिज्ञासु बच्चों की तरह सवाल पूछते हैं और पथरीली राह में ठहर गए अपने पिता का कुर्ता पकड़कर अपने साथ तेज भागने की ज़िद करते हैं. ‘चाँद-पत्थर’ की कमला रानी मणिधर सर्प बनकर वैद्य लीलाधर को इस तरह डस देती है कि वह अपनी स्मृति ही खो बैठते हैं और मरीज से ही अपना इलाज करने की गुहार लगाते उसके पीछे भागने लगते हैं.
पहले उनकी इन्हीं दो आरंभिक कहानियों ‘चोर-घटड़ा’ और ‘चाँद-पत्थर’ की चर्चा.
‘चोर-घटड़ा’ है तो एकदम वर्तमान और अपने लिए जगह तलाशती नई पीढ़ी की अपने पिताओं से सवाल करती कहानी; मगर इसके किरदार एक बच्चा और उसे जन्म देने वाला बाप ही नहीं, एक सूख चुकी नदी ‘जाखन’ (जिससे जुड़ी कहानी इस संग्रह में नहीं है), नदी के प्रवाह में बह गईं विशाल वृक्षों की जड़ें, पुरखों और मरे जानवरों की हड्डियों के फासफोरस, सड़े पानी में रहने वाली मछलियाँ और इन सभी के पीढ़ी-दर-पीढ़ी पनपते-इस्तेमाल किये जाते रहे असंख्य कुनबे हैं जो जड़-चेतन सभी लोग हैं.
देवकीनंदन खत्री, प्रेमचंद, गुलेरी, प्रसाद, अज्ञेय से शुरू होकर आज दिन तक आते-आते कहानी की भाषा और अंदाजे-बयाँ इतना बदल गया है कि आप शिकायत करते रहिये कि ये कैसी कहानी आई है जिसमें न कोई कौतूहल है, न मनोविश्लेषण, न सन्देश है और न कोई अंत. पाठक आधी कहानी छोड़कर भाग खड़ा होता है और वक्त बर्बाद हो जाने का रोना रोने लगता है. ऐसे लोगों को पढ़ना छोड़ देना चाहिए, उसी तरह जैसे जो लोग वक्त के साथ बहना नहीं जानते, बीच रास्ते में अकेलेपन, अवसाद और अकाल-मृत्यु के शिकार हो जाते हैं. उन्हें कितना भी कुशल माँझी पार नहीं लगा सकता. किस्सों का माँझी तो कतई नहीं. नवीन कुमार नैथानी की कहानियों की सैर करने के लिए जिजीविषा से लैस व्यक्ति का धैर्य चाहिए. जिन्दा रहने के लिए यह आज के मनुष्य की विवशता है. अंततः उसे जीना तो अपने बूते ही है, और उसी किश्ती के सहारे जो समय-प्रवाह ने उसके हाथों सौंपी है. उन्हीं शब्दों, संकेतों और आशयों के सहारे.
नवीन की एक शुरुआती माइलस्टोन कहानी है ‘चाँद-पत्थर’. उनकी बाकी कहानियों की तरह इसमें किसी खास जगह या किरदार का नाम नहीं है. कहानी एक बेहद कुशल पुरुष वैद्य की है जो किसी भी मरीज़ को देखने बाहर नहीं जाता मगर उसके घर में पहुँचा कोई मरीज बिना स्वस्थ हुए नहीं लौटता. पुश्त-दर-पुश्त वैद्यकी के उस्ताद लीलाधर जी से सौरी से सात कोस उत्तर सीधी चढ़ाई चढ़ने के बाद आने वाले गाँव कमालकोट की कमला रानी उन्हें अपने महल में आमंत्रित करती है जिसे वह नियमानुसार मना कर देते हैं.
कुछ ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है कि कि वैद्य लीलाधर अपना वादा तोड़कर कमला रानी को देखने कमालकोट चल देते हैं लेकिन बीच रास्ते में ‘आप तक’ शब्द का जाप करते हुए भीषण ताप से दहके रास्ता भूल जाते हैं. कमला रानी ‘वैद्यजी, कानों से देखिये’ कहती हुई उन्हें बार-बार अपने घर का रास्ता सुझाती है लेकिन वैद्यजी कमला रानी के घर ‘चाँद-पत्थर’ पर पहुँचते ही अपनी स्मृति खो बैठते हैं और एक बीमार स्त्री के सामने घुटने टेक देते हैं. पौरुष के अहंकार से जलते पुरुष का एक बीमार स्त्री कायाकल्प कर देती है.
“वैद्यजी पंद्रह कदम वापस उसी दिशा में बढ़े जिस दिशा से आए थे. वहां चाँद-पत्थर के पास चाँदनी की जगमगाहट थी और एक स्त्री वहाँ उस चाँदनी के स्रोत की जगह बैठी वैद्यजी को देख रही थी. वैद्यजी उस दिशा में और आगे बढ़े. वे लगभग स्थिर थे. उनका बायाँ पैर स्थिर था, आँखें अपलक चाँदनी के स्रोत पर टिकी थीं और दवाओं से भरा थैला जिस बायें हाथ में था, वह बायाँ हाथ भी स्थिर था. सिर्फ उनका दाहिना पैर जमीन से थोड़ा उठता और जब वापस जमीन पर आता तो वैद्यजी उस जगह से थोड़ा-सा आगे खड़े होते जिस जगह वे दो क्षण पहले खड़े थे.
“सौरी का रास्ता कौन-सा है?’ उस अँधेरी रात में वैद्यजी को लगा कि चाँदनी झिलमिलाई. “कैसे झिलमिलाई थी चाँदनी? “हाँ, सौरी का रास्ता यही है.’ वैद्यजी ने कहा. “यही कौन-सा?’ स्त्री ने फिर प्रश्न किया. “वैद्यजी इस प्रश्न से चौंके. जहाँ सौ-पचास रास्ते होते होंगे उस मुहाने पर यह प्रश्न ठीक है, पर जहाँ एक ही रास्ता हो और वह रास्ता सिर्फ सौरी की तरफ जाता हो तो इस प्रश्न का क्या जवाब दें. “यहाँ तो एक ही रास्ता है.’ वैद्यजी ने तनिक रूखे स्वर में कहा. “कौन-सी दिशा है?’ “अब वैद्यजी समझ सके. ‘जिधर मैं जा रहा हूँ.’ “आप?’ “फिर प्रश्न हुआ और वैद्यजी फिर चौंक गए. कौन है जो इतने प्रश्न पूछे जा रही है? वैद्यजी ने चुपचाप मुड़ने का फैसला किया और वापस मुड़े. “मुझे नहीं देखेंगे?’ वैद्य के कान में फिर वही आवाज पड़ी. झुंझला कर फिर पीछे से वापस मुड़े और बोले, ‘मैं मरीजों को देखता हूँ.’ “और वह भी सौरी में?’ “मैं मरीज नहीं हूँ. बिना नब्ज देखे कैसे कहते हैं वैद्यजी आप?’ वह मुस्कराई और खिलखिलाकर हँसी. उस हँसी की झनझनाहट में वैद्यजी के हाथ से थैला छूटकर जमीन पर आ गिरा. “इस पत्थर के नीचे खजाना है.’ बीस बरस बाद इकलौती मछली को हवा में उछालते सौरी के बच्चे पत्थर तक लौटेंगे और अजनवी व्यक्ति को अब भी वहां खड़ा पाकर कहेंगे, ‘एक मणि साँप इस खजाने की रक्षा करता है और वह पत्थर पहले उतना ऊँचा था जितना ऊँचा आपका कद है.’ “सौरी से पहले वैद्यजी गायब हुए. “आइए, आपकी नब्ज देखते हैं.’ वैद्यजी ने कहा. “वह तो आप सौरी में देखेंगे. सौरी कहाँ है?’ वह मुस्कराई. “जहाँ आप हैं, वैद्यजी ने कहा. “तो यह रास्ता कहाँ जाता है?’ “आप तक.’ वैद्यजी ने कहा ‘आप तक’ और उधर बढ़ गए.” (‘चाँद पत्थर’ : सौरी की कहानियां, पृष्ठ 36-43) |
‘जाखन’ कहानी किसी संकलन में अभी संकलित नहीं है हालाँकि इसका जिक्र उनकी कई कहानियों में आया है. कहानी ‘हिंदी समय’ में प्रकाशित है और खूब चर्चित हुई है. यह सूखी नदी सौरी के बसने और उजड़ने की भयानक त्रासदी बयान करती है जो एक तरह से उत्तराखंड की स्मृति, इतिहास और मिथक का जीवंत दस्तावेज है. कहानी न इतिहास की बात करती, न उसके गौरव और दर्द की; सिर्फ उसके वर्तमान का बयान करती है इसीलिए विदुषी और वरिष्ठ अनुवादक मधुबाला जोशी ने ऐसी रचनाओं को ‘खल पुराण’ कहा है; जहाँ इतिहास, स्मृति, फैंटेसी, अतीत, पुरखे और परिवेश सब मिलकर नया आख्यान रचते हैं. यही है सही अर्थों में आधुनिक पुराण.
मुझे लगता है, पहाड़ के नए कथाकारों के लिए नवीन नैथानी की कहानियों की सीढ़ी चढ़े बगैर हिंदी कथा-यात्रा का हिस्सा बन पाना मुश्किल होगा. अभी उन्हें ठीक से पढ़ा ही नहीं गया है. नए लोग ही इसकी शुरुआत कर सकते हैं.
अशोक पाण्डे
‘लपूझन्ना’ के अशोक पाण्डे को शायद ही कोई पाठक न जानता हो. जिन दिनों मैं इस श्रृंखला के लिए लेखकों का चुनाव कर रहा था, किसी नयी लेखिका ने मुझसे अशोक की उम्र पूछी थी. उसका आशय मैं समझ गया था कि अशोक को मैंने नवलेखन के अंतर्गत क्यों शामिल किया है? मैंने उस युवा लेखिका से पूछा कि क्या वह साठ साल के नवीन नैथानी की किसी कहानी से परिचित है? उसने फिर अशोक पाण्डे की उम्र नहीं पूछी.
जरूर नवलेखन का सम्बन्ध नयी उम्र के रचनाकारों के साथ है, मगर आज के दिन हमारे युवाओं को जो लोग रचनात्मक ताकत दे रहे हैं, उनकी उम्र क्या हम जानते हैं? अनुवाद के जरिए हम कितने ही लेखकों से प्रभावित होते हैं, इन्हें नक़ल करने की कोशिश करते हैं. पता नहीं वे रचनाकार किस देश, किस काल-खंड के हैं और उम्र के किस दौर में वह रचना लिखी गई थी. फिर हम अपने परिचितों को लेकर ही इतने आग्रही क्यों दिखाई देते हैं? दोनों ओर से अपने तर्क हो सकते हैं, मगर मेरे दिमाग में नवलेखन की छवि उस लेखन की है जिसके जरिए नयी उम्र के किसी रचनाकार ने चली आ रही भाषा और मुहावरे की छवि से अलग अपने पाठकों को समझाने की सिक्स-बाई-सिक्स की आँख सौंपी हो. इस क़िस्त के दोनों रचनाकार मेरी नज़र में ऐसे ही हैं.
‘लपूझन्ना’ के भूमिका-लेखक संजय चतुर्वेदी ने इस किताब को ‘उड़ान के किस्से’ और ‘खूबसूरत तिलिस्म’ कहा है. मुझे ठीक याद नहीं है, दस-पंद्रह साल पहले जब अशोक ने इसे लिखा ही था, अनेक मित्रों के साथ मुझे भी इसकी पांडुलिपि मेल की थी. इस किताब के गद्य और स्थानीयता को मुख्यधारा की भाषा के साथ जिस तरह पिरोया गया है, उसे मैंने अपने क्षेत्र के किसी दूसरे रचनाकार में नहीं देखा था. पढ़कर मैं इतना प्रभावित रहा कि सोचता रहा कि बदले में उसे क्या तोहफ़ा दूँ? 2021 में मेरा कहानी-संग्रह ‘मोत्दा च्चा बड़बाज्यू’ तैयार हुआ तो मैंने उसे अशोक को ही समर्पित किया. हिंदी नवलेखन की इस अपूर्व भंगिमा के सम्मान में दिया गया मेरा यह उपहार था जिसे मैंने अशोक को नहीं, शायद उत्तराखंड की नयी सृजनात्मकता को भेंट किया था.
जिस किताब का छपते ही दूसरा संस्करण सामने आ गया हो और उसके दो महीने के बाद तीसरा, उसके बारे में कुछ भी टिप्पणी करना व्यर्थ का वाग्जाल होगा. यही तथ्य उसे पढ़े जाने और नए लेखकों से अपने लिए कथन-भंगिमा के गुर सीखने-समझने की सिफारिश के लिए पर्याप्त हैं.
अशोक ने हिंदी और अंग्रेजी में विपुल मात्रा में लिखा है, खूब यात्राएँ की हैं, संसार भर का साहित्य पढ़ा है, अनुवाद किये हैं, धुर उत्तरी इलाके के तिब्बती पठारों के लोक जीवन को लेकर बहुत लिखा है, सिर्फ परिचयात्मक नहीं, वहाँ की धरती का हिस्सा बनकर. हालाँकि उसकी मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है, वह ठेठ पहाड़ी है, मगर अपनी युवा पीढ़ी की तर्ज पर उनकी भाषा और मुहावरे में अंग्रेजियत का आतंक साफ झलकता है, सिवा लपूझन्ना के, इसीलिए वह उपन्यास इतनी तेजी से हिंदी पाठकों का आईना बन गया है. यही है जमीनी भाषा की ताकत. भाषा तो महज एक उपकरण है जिसे जैसे चाहो बरत लो. यह लेखक के कौशल पर ही तो निर्भर है कि वह उसके जरिए अपनी जड़ों को सींचता है या उन पराई जड़ों को जिनसे वह आतंकित है.
शायद इसीलिए बाकी तमाम दूसरे पाठकों की तरह मैं भी लफत्तू, लपूझन्ना, अशोक पाण्डे, लाल सिंह, बागड़बिल्ला और दूसरे किरदारों में कोई फर्क नहीं महसूस कर पाता. सभी उतने ही प्यारे हैं जितना वो शरारती बिंदास लेखक अशोक पाण्डे.
(क्रमशः)
अगली बार: युवा-विज्ञान-लेखन.
बटरोही पहली कहानी 1960 के दशक के आखिरी वर्षों में प्रकाशित, हाल में अपने शहर के बहाने एक समूची सभ्यता के उपनिवेश बन जाने की त्रासदी पर केन्द्रित आत्मकथात्मक उपन्यास ’गर्भगृह में नैनीताल’ का प्रकाशन, ‘हम तीन थोकदार’ प्रकाशित अब तक चार कहानी संग्रह, पांच उपन्यास. तीन आलोचना पुस्तकें और कुछ बच्चों के लिए किताबें आदि प्रकाशित. इन दिनों नैनीताल में रहना. |
अंचल विशेष की रचनात्मकता को अपनी विवेक संपन्न दृष्टि से मूल्यांकित करने का प्रयास जिस गंभीरता पूर्वक बटरोही जी कर रहे हैं,वह प्रशंसनीय है। यह हमारी जातीय अस्मिता के समग्र रचाव में अलग-अलग लोक संस्कृतियों के अवदान को रेखांकित करने जैसा है।बटरोही जी को साधुवाद !
बटरोही जी की कलम से यह श्रृंखला अपूर्व है.
जानकारी और संवेदनशीलता का अंबार
इस परिदृश्य को जानना एक सुखद अनुभव की तरह आता है, लेखनी का जादू अपनी भूमिका निभाता है.