लोकमानस के गाँधी
सुशोभित सक्तावत
गांधी को हमेशा किसी द्वैत के आलोक में देखने का हमारे यहां शगल रहा है. गांधी और नेहरू का द्वैत, गांधी और रबींद्रनाथ का द्वैत, गांधी और आंबेडकर का द्वैत, गांधी और मार्क्स का द्वैत, गांधी और भगत सिंह का द्वैत, यहां तक कि स्वयं गांधी और गांधी का द्वैत, ’गांधी बिफोर इंडिया’ और ’इंडिया आफ्टर गांधी’ की द्वैधा. इन तमाम द्वैतों को अगर हम किसी एक कथानक में सरलीकृत करना चाहें तो कह सकते हैं कि वह ’लोक’ और ’जन’ का द्वैत है. यही कारण है कि गांधी की प्रासंगिकता का परीक्षण करने के लिए हमें अपने निकट अतीत की उस परिघटना का जायजा लेना होगा, जिसमें हम पहले राष्ट्र-राज्य के नेहरूवादी प्रवर्तन की प्रक्रिया में ’लोक” से ’जन’ की चेतना में दाखिल हुए और फिर भूमंडलीकरण के बाद हमने उसको भी अपदस्थ कर एक ’छद्म-लोक’ की प्रतिष्ठा कर डाली.
’लोक’ एक बहुत व्यापक पद है. अंग्रेजी का folk उसका सटीक समानार्थी नहीं हो सकता. जर्मन भाषा का volk जरूर काफी हद तक उसके निकट है, जिसमें एक लोकवृत्त में बसे लोगों की साझा नियति होती है. इसकी तुलना में ’जन’ की अवधारणा आधुनिक नागरिक चेतना की उपज है. ’लोक’ के साथ मिथक जुड़ा है, स्मृति व संस्कृति जुड़ी है, आख्यान जुड़े हैं. ’जन’ की केवल ’गणना’ की जा सकती है. वह एक सांख्यिकी है. जनांकिकी है. अंग्रेज-बहादुर को इसमें महारत हासिल थी, जिन्होंने हमें जनगणना की तरकीब और आंकड़ों का महत्व सिखलाया. गांधी के परिप्रेक्ष्य में हमें ’जन’ और ’लोक’ के द्वैत को राष्ट्र-राज्य के बरक्स ’देश’, भारतीय गणराज्य के बरक्स ’हिंद स्वराज’, वैज्ञानिक चेतना के बरक्स सांस्कृतिक लोकवृत्त, ’आइडिया ऑफ इंडिया’ के बरक्स भारत-भावना और विश्व-नागरिकता (कॉस्मोपोलिटनिज्म) के बरक्स लोकचेतना के द्वंद्व में समझना होगा.
गांधी के पास भारतीय लोकमानस की गहरी और दुर्लभ समझ थी, जिसे उनके अधिकतर समकालीन औपनिवेशिक सांचे में ढली अपनी बुद्धिमत्ता से उलीच पाने में विफल रहते थे. आजादी के बाद जब गांधी का पुनर्मूल्यांकन करने की कोशिशें हुईं तो विभिन्न धाराओं ने अपने-अपने गांधी बांट लिए. गांधी-विचार को लेकर पिछले कुछ दशकों में जो अकादमिक दृष्टियां प्रचलित रही हैं, उनमें से एक उन्हें वेस्टमिंस्टर शैली के लोकतंत्र और राष्ट्र-रूप के समर्थक के रूप में देखती है, जिसके चलते ही उन्होंने इन मूल्यों के प्रतिमान पं. जवाहरलाल नेहरू को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी चुना था. ऐसा समझने वालों में रामचंद्र गुहा प्रमुख हैं.
एक दूसरी दृष्टि मार्क्सवादी इतिहासकारों की है, जो गांधी को लेकर कभी सहज नहीं हो सके. जैसा कि दर्ज किया जा चुका है कि गांधी के प्रति मार्क्सवादियों का प्रेम भी तभी उमड़ा था, जब हाल ही में दिवंगत इतिहासकार बिपन चंद्र ने तथ्यों के सहारे साबित किया कि गांधी अपने परवर्ती सालों में धर्म और राजनीति के औपचारिक अलगाव को ठीक-ठीक उसी तरह स्वीकार कर चुके थे, जैसे कि नेहरू. तब भी गांधी के भीतर का ’धर्मभीरु’ उन्हें कभी नहीं सुहाया. गांधी की प्रार्थना-सभाएं और उनका ’वैष्णवजन’ उनके ’सेकुलर’स्नायु-तंत्र को क्षति पहुंचाता था. इसके बावजूद जनसाधारण के प्रति हो रहे अन्यायों और अतिचारों के खिलाफ आत्मोत्सर्ग की जिस गहरी चेतना के साथ गांधी ने जमीन पर उतरकर संघर्ष किया था, उसका लेशमात्र भी किसी मार्क्सवादी चिंतक ने नहीं किया है. मार्क्सवादी यह कभी समझ नहीं सकते थे कि अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए किसी देश की जातीय स्मृति और लोकचेतना को तहस-नहस करना अनिवार्य शर्त नहीं है.
इसकी तुलना में गांधी के प्रति एक अधिक सदाशय दृष्टि सीएसडीएस स्कूल के चिंतकों की रही है, जिनमें आशीष नंदी अग्रगण्य हैं. गांधी बनाम नेहरू की बहस को आगे बढ़ाते हुए नंदी ने नेहरू की उस वैज्ञानिक चेतना को प्रश्नांकित किया था, जो कि ग्राम्य-भारत की ज्ञान-परंपरा को ही खारिज करती थी. वहीं मानवविज्ञानी टीएन मदान ने ’नेहरूवादी सेकुलरिज्म’ के बरक्स ’गांधीवादी सेकुलरिज्म’ की अभ्यर्थना की थी, जो कि धर्मनिरपेक्षता का निर्वाह करने के लिए धार्मिक-आस्था के लोकप्रतीकों को लांछित करना जरूरी नहीं समझता.
इसके बावजूद बार-बार यह लगता है कि बुद्ध और गांधी भारतीय परंपरा में एक ’क्षेपक’ की तरह थे. उन्हें एक अवांतर प्रसंग या एक विचलन की तरह ही देखा जाए. यह बुद्ध और गांधी की प्रखर नैतिक और आध्यात्मिक आभा थी, जिसे हमें स्वीकारने को बाध्य होना पड़ा था, जिसके समक्ष हम एक निश्चित कालखंड के लिए नतमस्तक भी हुए, किंतु आत्मत्याग का उनका आग्रह शायद कभी हमारे अनुकूल नहीं हो सकता था. एक समाज के रूप में हमारी मूल वृत्ति परिग्रह और उपभोग की रही है और हमें उसी के अनुरूप एक उपभोगवादी जीवन-दृष्टि भी चाहिए. बुद्ध और गांधी, भारतीय इतिहास पर अपने विराट प्रभाव के बावजूद, अंतत: इसलिए ’क्षेपक’ हैं, क्योंकि पहले नौवीं सदी में सनातन परंपरा के शांकरीय प्रवर्तन और फिर बीसवीं सदी के अंतिम चरण में भूमंडलीकरण की लहर में हमने जिस तरह सहर्ष इनकी प्रतिमाओं को विदा किया और फिर इनकी गंध से भी परहेज करने लगे, वह अकारण नहीं था. पर्वों-उत्सवों और जलसों की भोगमूलक परंपरा जहां जनमानस में गहरे पैठी हो, जहां देवता भी लोकप्रबोधक नहीं लोकरंजक हों, जहां हर आयोजन-प्रयोजन अंतत: आत्म-साक्षात् का नहीं, बल्कि आत्म-प्रवंचना का एक और अवसर बनकर रह जाए, उसमें बुद्ध और गांधी को तो अप्रासंगिक हो ही जाना था.
क्या गांधी आज भी हमारे लिए प्रासंगिक हो सकते हैं? यकीनन! बशर्ते हम अपने ’देश-काल” को पुनराविष्कृत कर लें.
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