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समालोचन

Home » महात्मा गांधी और वैश्विक मानववाद: ज्योतिष जोशी

महात्मा गांधी और वैश्विक मानववाद: ज्योतिष जोशी

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के व्यक्तित्व, संघर्ष और दर्शन के इतने आयाम हैं कि सम्यक रूप से अभी भी इन्हें समझा नहीं जा सका है. जटिल, बहुकोणीय समय में उनकी केन्द्रीय उपस्थिति स्वाभाविक है कि अंतर-विरोधों से भरी होगी. ये अंतर-विरोध ही उन्हें मनुष्य बनाते हैं. एक ऐसा मनुष्य जो हर जगह संकीर्णता से लड़ता है. वह ब्रिटिश उपनिवेश से लड़ते हैं पर हर जगह अंग्रेज उनके साथ हैं. उनके दर्शन में खुलापन है. गांधी इसलिए सम्पूर्ण विश्व के हैं. उनके वैश्विक मानवतावाद पर वरिष्ठ आलोचक-लेखक ज्योतिष जोशी का यह आलेख प्रस्तुत है.

by arun dev
October 6, 2023
in आलेख
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महात्मा गांधी और वैश्विक मानववाद: ज्योतिष जोशी
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महात्मा गांधी और वैश्विक मानववाद
ज्योतिष जोशी

महात्मा गांधी अपने जीवन और कर्म में जिस मानव की निर्मिति का स्वप्न देखते हैं, वह उनके द्वारा प्रवर्तित वैश्विक मानववाद ही है. उनका आधार निश्चय ही भारतीय धर्म-परम्परा और संस्कृति रहे हों, पर वैश्विक विचारों और मूल्य-मानकों का भी उसमें कम योगदान नहीं है. उनके जीवन-दर्शन का स्पष्ट ध्येय ऐसे मनुष्य को निर्मित करना है जो आधुनिक सभ्यता के भोगवादी लक्ष्य से निवृत्त होकर एक सत्यनिष्ठ, परमार्थी और सार्थक जीवन जी सके.

‘हिन्द स्वराज’ को आधुनिक सभ्यता की कटु आलोचना का माध्यम बनाकर वे भारत को जिस नैतिक प्रकर्ष की ओर ले जाना चाहते थे; उसी में वैश्विक संत्रास से मुक्ति का मानववाद भी है. बाद के वर्षों में उन्होंने अपने जीवन को ही कर्म का उपलक्ष्य बनाया और आदर्श को व्यवहार में बदलकर दिखाया. भारत के साथ-साथ समस्त विश्व की संत्रस्त जनता की व्यथा उनके संज्ञान में थी; इसीलिए वे लंदन में भारतीय छात्रों को सम्बोधित करते हुए 1931 में कह सकते थे कि ‘मुझे अपने देशवासियों की पीड़ाओं के निवारण से भी अधिक चिन्ता मानव-प्रकृति के बर्बरीकरण को रोकने की है.’

इस अनुष्ठान में वे समाज से पहले व्यक्ति को बदलना चाहते थे; क्योंकि व्यक्ति को बदले बिना सामाजिक परिवर्तन सम्भव नहीं होता. उनके इस अभियान को फ्रांसीसी लेखक रेने फुलो मिलर ने बड़े विस्तार में देखते हुए उन्हें ‘अनन्य सामाजिक क्रांतिकारी’ कहा था.1

जर्मन समाज विज्ञानी कार्ल मैनहीम की दृष्टि में भी वे सच्चे क्रांतिकारी थे; क्योंकि वे व्यक्ति की पुनर्रचना द्वारा ही समाज का पुनर्निर्माण करना चाहते थे. उनका विश्वास था कि केवल व्यक्ति की पुनर्रचना द्वारा ही समाज की पुनर्रचना संभव है.’2

रोम्याँ रोला ने भी महात्मा गांधी को मानव-राजनीति के पिछले दो हजार वर्षों के सर्वाधिक शक्तिमान धार्मिक संवेग के समावेश का माध्यम माना था. उन्हीं के शब्दों में-’वे मानव थे जिन्होंने तीस करोड़ जनता को विद्रोह करने के लिए आन्दोलन किया, जिन्होंने अंग्रेजी साम्राज्य की नींव हिला दी; और जिन्होंने मानव-राजनीति में पिछले दो हजार वर्षों के सर्वाधिक शक्तिमान धार्मिक संवेग का समावेश किया.’3

गांधीजी के समस्त जीवन का स्पष्ट लक्ष्य समाज का पुनर्गठन न था और न ही उसकी पुनर्रचना था. वे मनुष्य के अस्तित्व का निर्माण इस तरह करना चाहते थे कि वह परमार्थिक ध्येय के साथ जी सके. वे उन चिन्तकों में न थे जो मनुष्य की समस्याओं के निवारण तक की सीमित रहकर उसे भौतिक संतोष की हद में बाँधकर प्रसन्न हो रहते थे. यह दृष्टि निश्चित रूप से उन्हें सनातन चिन्तन से मिला था जिसमें ‘हिन्दू दर्शन’ की केन्द्रीय भूमिका थी. उनका दर्शन नैतिक बोध और विवेक पर आधारित था. उनका मन उसी मत से सहमत हो सका जो उनके विवेक को स्वीकार हो सका और उनकी अंतरात्मा को संतुष्ट कर सका. हालांकि वह बार-बार इस धारणा का खंडन करते हैं कि उन्होंने किसी विशेष सिद्धांत का प्रतिपादन किया है; पर अपने विशिष्ट संयोजनों में उनके विचार एक समग्र दर्शन का रूप ले लेते हैं.

इसको पुष्ट करते हुए जे. बी. कृपलानी का कथन है- ‘उनकी योजनाओं एवं परिकल्पनाओं में व्याप्त संश्लिष्टता गांधी-कार्यक्रम को एकक और समग्र बनाती है. वह अपने विशिष्ट के साथ ही अपने में पूर्णांग दर्शन का रूप धारण करता है.’4

यहाँ इस बात को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि उनके विचार, जो तत्वतः: सिद्धांत ही हैं, वे किसी समस्या के विश्लेषण और उसकी वास्तविकता की खोजबीन की अपेक्षा सत्य की उपलब्धि हैं, उसकी सतत चेष्टा हैं. इसको पुष्ट करते हुए बी. जी. राय ठीक ही कहते है कि-

‘गांधीजी अपने हिन्दूधर्म से आरम्भ करते हैं और हिन्दू दृष्टिकोण से ही शाश्वत समस्याओं के तात्विक समाधान का आधार लेते हैं. उन्होंने अनुभव या तर्क के स्वतंत्र परिप्रेक्ष्य से समस्याओं के समाधान या उत्तर देने की चेष्टा नहीं की है.’5

यह भी लक्षित किया जाता है कि  ‘भगवद्गीता’ में प्रतिपादित असत् से विरत रहने की नीति-शास्त्रीय परिपूर्णता, मीमांसा द्वारा समर्थित सामाजिक नियंत्रण तथा शंकराचार्य द्वारा अद्वैत दर्शन का सार-संकलन गांधी दर्शन में मिलता है.’6

उनके दर्शन का, जो प्रकारान्तर से सनातन चिन्तन का ही मूल आशय है; सत्य का अनुसंधान ही काम्य है. यह सत्य ही है जो ईश्वर की अनुभूति कराता है. यह अकारण नहीं है कि गांधीजी के प्रिय कवि तुलसीदास स्पष्ट रूप से कहते हैं- ‘धरम न दूसर सत्य समाना. आगम निगम पुरान बखाना..’ सत्य पर अटल रहना, सत्य कहना, सत्य कर्म करना और सत्य भाव या भावना का अनुभव करना वस्तुतः ईश्वर के अस्तित्व का अनुभव करना है; क्योंकि वही है जो सत्य है. स्पष्ट है कि गांधीजी के लिए ईश्वर और सत्य समरूप हैं, एक दूसरे के पूरक हैं. सत्य का सम्बन्ध चूंकि आत्मा के आन्तरिक स्वरूप से है और उसकी उपलब्धि करने से है इसलिए गांधीजी कला को भी इस गुरूतर दायित्व से जोड़ते हैं- ‘समस्त सच्ची कलाओं को आत्मा को अपने आन्तरिक स्वरूप की उपलब्धि कराने में सहायक होनी ही चाहिये. समस्त सत्य केवल सच्चे विचार ही नहीं, बल्कि सच्ची मुखाकृतियाँ, सच्चे चित्र या गीत भी सुन्दर होते हैं. साधारणतः लोग सत्य में सौन्दर्य नहीं देख पाते. जब लोग सत्य में सौन्दर्य देखना आरंभ करेंगे तभी सच्ची कला का उदय होगा.’7

गांधीजी के लिए सत्य चूँकि ईश्वर है, इसलिए उसे समझना उतना आसान नहीं है. वे स्वयं कहते हैं – ’यह सत्य स्थूल-वाचिक-सत्य नहीं है. यह तो वाणी की तरह विचार का भी है. यह सत्य केवल हमारा कल्पित सत्य नहीं है, बल्कि स्वतंत्र चिरस्थायी सत्य है; अर्थात् परमेश्वर ही है.’8 गांधीजी का ईश्वर सत्य है, यह सनातन मान्यता है; क्योंकि सब कुछ सत्य पर ही प्रतिष्ठित है और वह सत्य ही सनातन ब्रह्म है –

‘सत्यं ब्रह्म सनातनम् I
सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् II’9

गांधीजी के सत्य की प्रतीति को दर्शन की गुत्थियों से न सुलझाते हुए सहजता से जब हम समझने का प्रयत्न करते हैं तो पाते हैं कि वे अपनी अंतः प्रज्ञा द्वारा सत्य को पहले अनुभूत करते हैं तदनंतर तर्क द्वारा पुष्ट करते हैं. फिर भी चूंकि सत्य स्थिर और अपरिवर्तनीय है और विराट; क्योंकि वह ईश्वर के समरूप है इसलिए इस देह से हम उसकी धुँधली छवि ही देख सकते हैं. वे स्वयं कहते हैं–

‘हम इस क्षणभंगुर शरीर के माध्यम से शाश्वत सत्य का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं कर सकते.’10

स्पष्ट है कि नश्वर देह से जहाँ तक सम्भव हो, सात्विक कर्म किया जाना चाहिए. सत्य पर अडिग रहकर जीने का संकल्प लेना चाहिए. गांधीजी कहते हैं-

’पूर्ण सत्य को पाने के लिए हमें सापेक्ष सत्य यानी हम जिसे सत्य समझते हैं, उसका पालन करना चाहिये.’11

गांधीजी का ध्येय मुक्तिकामी है इसीलिए वे यह जोड़ते हैं कि अन्तर्वर्ती समय के लिए उस सापेक्ष सत्य को ही मेरा कवच और रक्षक होना चाहिये.’12

सत्याग्रह का प्रयोग और व्यवहार इसी सत्य को अधिकाधिक उपलब्ध करने का साधन है. यह सत्याग्रह अंतःप्रज्ञा द्वारा होना है, किया जाना है; क्योंकि वह आत्मबल है और आत्मबल को शक्ति उस आत्मा से मिलती है जो दया और करुणा से भरी हुई है. सत्य का सन्धान वस्तुतः ईश्वर का सन्धान है. ईश्वर है तो यह प्रक्रिया भी है; उसे संझान में रखते हुए गांधीजी आस्तिकता को प्रतिष्ठित करते हैं. वे अपने विचार और कर्म से नास्तिकता का उन्मूलन करना चाहते हैं; क्योंकि ईश्वर के होने पर उन्हें तनिक भी संदेह नहीं है. वे बल देकर कहते हैं कि-

’एक अपरिभाषेय, रहस्यमय शक्ति है जो सर्वव्यापी है. यद्यपि मैं उसे देख नहीं पाता किन्तु उसका अनुभव करता हूँ. वह अदृश्य शक्ति अपने को आभाषित तो करती है किन्तु समस्त प्रमाणों की अवज्ञा करती है क्योंकि अपनी इंद्रियों द्वारा मैं जिनका बोध प्राप्त करता हूँ उन सबसे वह अत्यन्त रूप से अदृश्य है. वह अदृश्य शक्ति है जो इंद्रियों का अतिक्रमण करती है पर एक सीमा तक यह सम्भव है कि हम ईश्वर के अस्तित्व को तर्क के द्वारा अनुमान कर सकें.’ 13

हम ईश्वर को नहीं जान पाते, उसका अनुभव हमें नहीं हो पाता; यद्यपि कि हम नित्य-प्रति एक पराशक्ति का आभास पाते रहते हैं, किंतु अज्ञानता के कारण या तो उसे हम अनदेखा करते हैं या अपने अहंकार के कारण उसकी शक्ति को व्यर्थ के तर्कों से तोलते रहते हैं. सी. एफ. एन्ड्रयूज के हवाले से ही गांधीजी के इस कथन को देखा जा सकता है जिसमें वे ईश्वर की अनुभूति का प्रसंग रखते हैं-

‘सामान्य प्रसंगों में भी हम जानते हैं कि जन-सामान्य को ज्ञात नहीं रहता कि कौन शासन करता है और यह भी कि वह क्यों और कैसे शासन करता है. बावजूद इसके वह जानते हैं कि कोई शक्ति है जो शासन करती है. गत वर्ष मैसूर की अपनी यात्रा पर मैं बहुत सामान्य-से ग्रामीणों से मिला और बात की, तो मालूम हुआ कि उन्हें नहीं मालूम कि मैसूर पर किसका शासन है. आश्चर्यजनक ढंग से उन्होंने यह कहा कि कोई देवता है जो शासन करता है. यदि अपने शासक के बारे में उनकी जानकारी इतनी कम थी तो मुझे आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि मैं राजाओं के राजा ईश्वर की सत्ता का अनुभव न कर सकूँ; क्योंकि अपने शासक की तुलना में वे जितने छोटे हैं, उससे ईश्वर की तुलना में मैं असंख्य गुना छोटा हूँ.’14

वे इस प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए ईश्वर को अपरिवर्तनीय धर्म से जोड़ देते हैं जो प्रत्येक जीवित प्राणी और प्रत्येक वस्तु का नियमन करता है. उन्हीं के शब्दों में-

’जैसे वे गरीब ग्रामवासी मैसूर के बारे में अनुभव करते थे वैसे ही मैं विश्व के बारे में अनुभव करता हूँ कि उसमें एक व्यवस्था है, एक अपरिवर्तनीय धर्म है जो सत्ताशील या प्रत्येक जीवित वस्तु और प्रत्येक प्राणी का नियमन करता है’ तो वही धर्म जो समस्त जीवन का नियमन करता है, ईश्वर है. धर्म और धर्म-प्रदाता एक ही हैं.’15

कहने की आवश्यकता नहीं कि गांधीजी सत्य को ईश्वर कहते हैं और सत्य-समन्वित ईश्वर को व्यवस्थित धर्म की संज्ञा देते हैं. इसे समझाते हुए वे कहते हैं-

’जिस तरह धरती पर आसीन राजा और उनके विधि-विधान भिन्न हैं उसी तरह ईश्वर और ईश्वर का धर्म भिन्न वस्तु या तथ्य नहीं है. ईश्वर सत्यमेव आदर्श धर्म है अतः यह सोच पाना असम्भव है कि ईश्वर धर्म की अवहेलना करता है.’16

यानी धर्म ही ईश्वर है; क्योंकि सत्य वही है. वह कभी प्रकृति के नियमों के विरुद्ध नहीं जाता. हम हैं जो उसके प्रकृत-रूप को समझ नहीं पाते. खोट हममें है, धर्म में नहीं. जो धर्म को अधिक जानते हैं, वे उसे अस्वीकार करते हैं और उसके प्रदाता ईश्वर को भी; क्योंकि गांधीजी कहते हैं कि- ’चूँकि मैं धर्म को और स्वयं ईश्वर को बहुत कम जान पाया हूँ इसलिए धर्म और धर्म-प्रदाता को अस्वीकार नहीं कर सकता.’17

वे पुनः ईश्वर के प्रति अपनी अगाध आस्था व्यक्त करते हुए उसे उन मूल्यों में देखते हैं जिनसे जीवन का नियमन होता है. वे कहते हैं-’मेरे लिए ईश्वर सत्य या धर्म है, ईश्वर सदाचार और नैतिकता है, ईश्वर निर्भयता है. ईश्वर ज्योति और जीवन का स्रोत है. फिर भी वह इन सबसे ऊपर और अदृश्य है. ईश्वर मनुष्य का अन्तर्विवेक है. नास्तिकों की नास्तिकता भी वही है.’18

इस तरह ईश्वर के प्रति अगाध आस्था रखते हुए गांधीजी जीवन-मूल्यों से उसे सम्बद्ध कर देते हैं, सत्य और धर्म को उसका प्रतिरूप कहते हैं तथा उसे जीवन की ज्योति और अन्तर के विवेक से जोड़ देते हैं. यह एक दृढ़ भक्त की श्रद्धा है जो सिवाय ईश्वर के कहीं कुछ और नहीं देखता. ईश्वर को नकारने वालों की निर्भयता में भी ईश्वर ही है, क्योंकि बिना उसकी उपस्थिति के यह दृढ़ता भी सम्भव नहीं हो सकती.

ईश्वर पर गांधीजी के दृढ़ विश्वास की स्थिति यह है कि अपने को वह उसके होने का अपने को वह एकमात्र साक्षी होने की घोषणा करते हैं-

’मैं आपसे कहता हूँ कि यदि सारा संसार ईश्वर को अस्वीकार करे तो भी मैं उसका अकेला साक्षी रहूँगा. यह मेरे लिए सतत् चमत्कार है.’19

यद्यपि गांधी जी ईश्वर के होने पर दृढ़ प्रतिज्ञ हैं और उसके अनन्य साक्षी भी; पर उसे वे विनीत होकर स्वीकार करने को कहते हैं. उसे पथ-प्रदर्शक मानकर उसे ईर्ष्यालु स्वामी भी कहते हैं- ‘ईश्वर को पथ-प्रदर्शक मानकर उसके हाथ मुझे चलना है. वह एक ईर्ष्यालु स्वामी है. वह अपने अधिकार में किसी को भागी नहीं बनाता. अतः उसके समक्ष सम्पूर्णता के साथ दीन और निजता का विसर्जन करके पूर्ण आत्म-समर्पण की भावना लेकर उपस्थित होना चाहिये. ऐसा होने पर ही वह तुमको सारे संसार के समक्ष खड़े होने में समर्थ बनाएगा और प्रत्येक अनिष्ट से तुम्हारी रक्षा करेगा.’20

और यह ईश्वर, जो कि सत्य है, केवल अहिंसा द्वारा ही खोजा और पाया जा सकता है. वे कहते हैं- ’अहिंसा के बिना सत्य को खोजना और पाना सम्भव नहीं है. सत्य और अहिंसा एक दूसरे से इस प्रकार गुंथे हुए हैं कि उन्हें छुड़ाकर एक-दूसरे से अलग करना व्यवहारतः असम्भव है. वे एक सिक्के के या यों कहा जाय कि एक चिकनी अचिन्हित धातु के चकती के दो पहलुओं के समान है. कौन कह सकता है कि कौन सीधा और कौन उल्टा है.’21

गांधीजी जब सत्य यानी ईश्वर को खोजने या पाने का एकमात्र साधन अहिंसा को बताते हैं तो उसका निर्दिष्ट अर्थ प्रेम करते हैं. यानी अहिंसा का अर्थ केवल हिंसा न करना ही नहीं है. वह समग्रता में प्रेम है. सभी जीवों के प्रति प्रेम, वनस्पतियों के प्रति प्रेम, समस्त जगत के प्रति प्रेम; और यह प्रेम ऐसा कि मनुष्य को सर्वात्म बना दे. वह अपने में जगत को देखे और जगत को ईश्वर का प्रतिरूप समझकर उसका भावन करे. अहिंसा को उसके वाच्यार्थ में लेते हुए अधिकतर लोग उसे सिर्फ हिंसा के विलोम के अर्थ के रूप में ही समझते हैं, पर ऐसा है नहीं. अहिंसा ही प्रेम है, भक्ति है, व्यक्ति के स्व का समग्र विसर्जन है; क्योंकि ईश्वर कण-कण में विद्यमान है. उस प्रत्येक कण के प्रति विनीत हुए बिना वह मिलेगा भी तो कैसे ? ’गीता’ में तो कृष्ण कहते ही हैं –

‘यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन I
न तदस्ति बिना यास्यान्मया भूतं चराचरम् II22

अर्थात् हे अर्जुन, जो इन समस्त प्राणियों का बीज है, वह मैं हूँ. चराचर में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मेरे बिना हो.

गांधीजी ने गीता को अपने जीवन का ध्येय बनाया था और उसे जिया था. उनके लिए गीता माता हैं. ठीक ही कहा गया है कि-

’जिस तरह गौतम की माता महामाया थीं और प्रज्ञा पारमिता को गौतम की माता कहा जाता है, उसी तरह मोहनदास करमचन्द गांधी की माता पुतली बाई हैं, लेकिन महात्मा गांधी गीता-माता के पुत्र हैं. गीता-माता के गर्भ से उत्पन्न महात्मा गांधी सब कुछ होने से पहले सनातन हैं और सनातन होकर अद्यतन हैं. सनातन और अद्यतन के मध्य गांधी एक ऐसी कड़ी हैं, जिनके होने से ही अन्य कड़ियाँ आपस में जुड़ी रहती हैं.’23

सत्य की सतत् खोज की अनवरत साधना गांधीजी का ध्येय है जिसका साधन है अहिंसा; और अहिंसा वस्तुतः ’आत्माओं में एकत्व की अनुभूति’ है, वह सबमें ईश्वर को देखना है, उसे अनुभूत करते हुए पाने का अनुभव करना है; क्योंकि यही मोक्ष का मार्ग है और इसी से सभी तरह के बन्धनों से मुक्ति सम्भव है –

‘घृतात्परं मण्डमिवातिसूक्ष्मं ज्ञात्वा शिवं सर्वभूतेषु गुढ़म् I
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः II24

अर्थात् कल्याण-स्वरूप एक परम देव को घृत के ऊपर रहने वाले सारभाग की भाँति अत्यंत सूक्ष्म और समस्त प्राणियों में छिपा हुआ जानकर तथा समस्त जगत को सब ओर से भेद कर स्थित हुआ जानकर व्यक्ति समस्त बन्धनों से छूट जाता है.

कहना न होगा कि गांधीजी का जीवन और दर्शन दुनिया को सत्य-संधान और प्रेम से संयुक्त कर सर्वात्म बनाने वाला तो है ही, स्वयं उनके लिए भी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाला था है जिसकी आकांक्षा ने उन्हें विदेह की परम्परा से जोड़ा था. उन्हीं के शब्दों में देखें –

’मुझे जो करना है, उपलब्धि पानी है, तीस वार्षों से मैं जिसकी आतुर भाव से रट लगाये हुए हूँ, वह तो आत्मदर्शन है, ईश्वर का साक्षात्कार है, मोक्ष है. मेरे सारे काम इसी दृष्टि से होते हैं. मेरा सब लेखन भी इसी दृष्टि से होता है; और राजनीति के क्षेत्र में मेरा पड़ना भी इसी वस्तु के अधीन है.’25

यह कहते हुए भी उन्हें इसका अभिमान नहीं कि वे कोई बड़ी बात कह रहे हैं. उनका तो यह मानना है कि जो एक के लिए सम्भव है, वह सबके लिए भी सम्भव है. यह कहते हुए वे आत्मा पर जा टिकते हैं; क्योंकि वही सब कुछ जानती है, उसे ही इसका पात्र बनाना होगा जो ईश्वर को देख सकने की क्षमता पा सके. वे कहते हैं –

‘…जो एक के लिए शक्य है, वह सबके लिए शक्य है. इस कारण मेरे प्रयोग खानगी नहीं हुए, नहीं रहे. उन्हें सब देख सकें तो मुझे नहीं लगता कि उससे उनकी आध्यात्मिकता कम होगी. अवश्य ही कुछ चीजें ऐसी हैं जिन्हें आत्मा ही जानती है, जो आत्मा में ही समा जाती हैं. परन्तु ऐसी वस्तु देना मेरी शक्ति से परे की बात है. मेरे प्रयोगों में तो आध्यात्मिक का मतलब है नैतिक, धर्म का अर्थ है नीति; आत्मा की दृष्टि से पाली गई नीति धर्म है.’26

कहा जा सकता है कि स्वयं गांधी जी का जीवन, उनके द्वारा किये गए प्रयोग आत्मा को परिष्कृत कर सत्य-संधान के अनुकूल बनाना है जो अपना साक्षात्कार कर सके. उनकी आध्यात्मिकता का आशय नैतिक है तो नीति, धर्म है जो आत्मा की दृष्टि से आचरित की गई है. अगर ऐसा होगा या हो सका, तो निश्चय ही ईश्वर का साक्षात्कार हो सकेगा. ईश्वर आत्यंतिक रूप से सबका हित ही करने वाला होता है, वह कभी किसी का अहित नहीं करता. अहित तो हम स्वयं ही अपना करते हैं. गांधीजी यहाँ तक आकर ईश्वर को सत्य, जीवन और प्रेम कहकर सम्बोधित करते हैं. वे कहते हैं- ‘मुझे लगता है कि ईश्वर विशुद्ध रूप से हितकारी है क्योंकि मैं देख पाता हूँ कि असत्य के मध्य सत्य अविचलित है, अंधकार के मध्य प्रकाश अविचलित है. अतः मेरा निष्कर्ष है कि ईश्वर जीवन है, सत्य है, प्रकाश है. यह प्रेम है-परम श्रेयस है.’27

यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि जब गांधीजी जीवन को सत्य कहते हैं, जब प्रकाश को सत्य कहते हैं, तो वे मृत्यु और अंधकार को झुठला नहीं रहे. वे तो मृत्यु और अंधकार को जीत लेने की युक्ति पर बात कर रहे हैं. जीवन को सत्य कहने का आशय यदि सत्य की सर्वोपरियता है, तो प्रकाश को अविचलित कहने का अर्थ सत्य-सन्धान की ज्योति है जो कभी धुँधली नहीं पड़ती. मृत्यु की शाश्वतता या अँधकार की प्रभुता की अजेयता से भला इन्कार किसे होगा. पर सत्य और प्रकाश को इसी नश्वर जीवन में पाना होगा, इसे ही अभीष्ट बनाना होगा. तम से ज्योति की यात्रा और मृत्यु से अमृत की ओर गमन यही तो है; जो भारतीय चिन्तन का आधार है –

‘तमसो मा ज्योतिर्गमय I
मृत्योर्मामृतं गमय II’

इस मायने में गांधीजी का ’अहिंसा’ समन्वित ’सत्याग्रह’ एक नैतिक समाज की स्थापना का बड़ा प्रयत्न है जिससे हर तरह के अप्रेम, अविश्वास और कल्मष का अन्त हो सके. प्रो० जी० बी० राय ठीक ही लक्ष्य करते हैं कि-’उनकी आकांक्षा नैतिक उत्कर्ष की थी. सत्याग्रह का लक्ष्य मनुष्य को सर्वोच्च नैतिक स्तर तक उठाना है. नैतिक स्तर के ऊपर धार्मिक और दार्शनिक स्तर हैं. गांधीजी का लक्ष्य विनम्र है और उनका आदर्श नैतिक स्तर पर ही प्रतिष्ठित है.’28

गांधीजी की चिन्ता का कारण देश का पराधीन होना उतना नहीं है जितना कि यहाँ के समाज का पथभ्रष्ट होना है. उनकी दृष्टि में पूरी मानवता है जो त्रास जीवन जी रही है. आधुनिक सभ्यता ने उसे कुचल डाला है. उनके लिए कही कोई त्राण नहीं है. ऐसे में समाज को उसकी व्यवस्था सहित बदल डालने के अलावा कोई चारा नहीं है. यही कारण है कि गांधीजी ने एक आस्थावान, नैतिक और निरन्तर सत्यान्वेषी समाज की संरचना का स्वप्न देखा और उसके लिए अपने सर्वतोमुखी जीवन-दर्शन को प्रस्तुत किया. वे जानते थे कि भारत ही नहीं, समस्त संसार का कल्याण तभी सम्भव है जब मनुष्य अपनी नास्तिकता त्यागकर ईश्वर की सत्ता के प्रति विनीत होगा और भौतिक लालसाओं से अनासक्त होकर प्रतिक्षण नेक कर्मों का कर्ता बनेगा. आस्थावान हुए बिना, ईश्वर के प्रति भय खाये बिना यह सम्भव ही नहीं है कि हम कुछ ऐसा हो सकें या कर सकें, जो हमारी आत्मा को संतोष दे सके. यह अकारण नहीं है कि गांधीजी ने एम. सेरसोल पियरे को सम्बोधित करते हुए कहा था-

’न केवल महान नेता को बल्कि उन सबको जो उनके अनुगामी हैं, ऐसे ईश्वर की उपलब्धि चौबीसों घण्टे, प्रति मिनट करनी चाहिये. ईश्वर की सत्ता नहीं भी हो सकती है, किन्तु उपर्युक्त कारण से कम से कम उसकी आवश्यकता तो निश्चय ही है.’29

गांधीजी जब यह कहते हैं तो उनके मन में यह दृढ़ विचार है कि किसी भी तरह के परिवर्तन के लिए हमारे सामने एक आदर्श अवश्य होना चाहिये. आदर्श के लिए आस्था और आस्था के लिए ईश्वर के अतिरिक्त कुछ और नहीं हो सकता. ईश्वर के प्रति आस्था का होना वस्तुतः अपने में अनन्त गुना विश्वास का होना है जिसके बारे में स्वयं गांधीजी के शब्द हैं-

‘अपने में अनन्त गुना विश्वास ही ईश्वर है.‘30

आधुनिक सभ्यता की कटु आलोचना करते हुए गांधीजी ने उसे निरीश्वरवादी करार देकर उसकी भर्त्सना की थी. इस भर्त्सना के पीछे उनका स्पष्ट मंतव्य यही था कि जो सभ्यता ईश्वर को नहीं मानती, वह आस्थावान नहीं हो सकती; और निरा तर्क को बढ़ावा देकर वह अधिक से अधिक मनुष्य को पुतले में बदल देने का ही काम कर सकती है जिसमें हृदय न होगा, चेतना न होगी. ऐसे में उन मनुष्यों से किसी भी प्रकार की आशा करना व्यर्थ ही है. यह अकारण नहीं है कि आधुनिक सभ्यता के समर्थकों की नास्तिकता पर नसीहत देते हुए रॉबर्ट फ्लिन्ट ने लिखा था-

‘ईश्वर पर विश्वास रखने वाले को अच्छे कर्मों की वह प्रेरणा प्राप्त होती है जो अविश्वासी बहुत कठिनाई से प्राप्त करके इतराता है. उसके साथ अतिरिक्त बल के रूप में वह विश्वास भी रहता है जो सर्वाधिक शक्तिशाली प्रेरणा है. प्रायः ईश्वर पर विश्वास करने वाले व्यक्ति के लिए भी अपनी वासना को जीतना, अवरोधों को उत्पन्न करने वाले भारों को सहना और अन्याय के विरुद्ध न्याय के लिए संघर्ष करना कठिन होता है, तो फिर नास्तिकों के लिए यह कितना कठिन होता होगा, इसे समझा जा सकता है. उसकी दुर्वासनाएँ इस बात से अधिक बल मारती हैं कि उन्हें कोई सर्वसत्तावान शक्ति नहीं देखती और न उसके कृत्य की भर्त्सना करती है, न ईश्वर के प्रति विश्वास से पैदा होने वाली चेतना ही उसे रोकती है. इसके विपरीत, एक आस्तिक व्यक्ति को जहाँ ईश्वर की प्रेरणा उसकी अनीति को रोकती है, वहीं उसे ईश्वर की क्षमाशीलता अनुगृहित कर उसके शुभ कर्मों की दिशा तय करती है.31

गांधीजी की ईश्वर पर आस्था अनेक अर्थों में अनोखी है. इस अनोखेपन का एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि वे संतों-भक्तों या संन्यासियों की तरह संसार को मिथ्या नहीं मानते. वे उसे सत्य ही कहते हैं. यह अद्वैतवादी गांधीजी का बहुत बड़ा विचार है जो एक साथ ही अनेकांतवाद और स्यादवादी भी हैं. इस प्रश्न के उत्तर में कि आप अद्वैतवाद में विश्वास करते हैं और यह भी कहते हैं कि संसार का न आदि है न अंत, और यह सत्य भी है. आप द्वैतवादी भी नहीं हैं क्योंकि आप आत्मा की वैयक्तिकता पर विश्वास करते हैं. ऐसे में क्या आप को अनेकांतवाद या स्यादवादी नहीं कहा जाना चाहिये; गांधीजी कहते हैं –

’मैं अद्वैतवादी हूँ और फिर भी द्वैतवादी का समर्थन कर सकता हूँ. संसार प्रतिक्षण बदल रहा है और इसलिए असत्य है, इसकी स्थायी सत्ता नहीं है. किन्तु यद्यपि वह निरन्तर बदल रहा है तो भी इसमें ऐसा कुछ है जो टिका रहता है और इसलिए यह उस हद तक सत्य है. अतः मुझे इसे सत्य और असत्य कहने में तथा इस प्रकार अनेकांतवादी या स्यादवादी कहे जाने में आपत्ति नहीं है. किन्तु मेरा स्यादवाद विद्वानों का स्यादवाद नहीं है, यह विशिष्ट रूप से मेरा अपना है… मैं वास्तविकता के सम्बन्ध मे स्यादवाद सिद्धांत को बहुत पसन्द करता हूँ. इसी सिद्धांत ने मुझे मुसलमान के बारे में उसकी अपनी दृष्टि से और ईसाई के बारे में उसकी अपनी दृष्टि से विचार करना सिखाया है. मेरा अनेकांतवाद सत्य और अहिंसा के युग्म सिद्धांत का परिणाम है.32

उनका जीवन-दर्शन जीव-सेवा, जगत-सेवा का दर्शन है. प्रत्येक जीव में वनस्पति-जगत में नाना जल, थल, नभ-चर प्राणियों में ईश्वर को देखना और उनकी सेवा के लिए सदा तत्पर रहना ही धर्म है जिसे वे नैतिक निर्देश के रूप में देखते रहे हैं. धर्म ईश्वर का उपदेश इस रूप में है, कि वह स्वयं ईश्वर को पाने का मार्ग बताता है. वह सदाचार है, सेवा है, कर्तव्य है, श्रद्धा है, आस्था है और नीति-सम्मत जीवन-व्यवहार है. मनुष्य की उपेक्षा कर, उसकी व्यथा को अनदेखा कर हम किसी भी प्रकार से ईश्वर के निकट होने का दावा नहीं कर सकते. इस सेवा को गांधीजी स्वयं अपने लिए धर्म कहते हैं, सच्चा धर्म, क्योंकि वही सत्य तक हमें ले जाता है और ईश्वर वहीं है जहाँ सेवाभाव है-

‘ऐसे धर्म के प्रति सच्चा होने के लिए व्यक्ति को सब जीवों की अविराम और अविरत सेवा में निमग्न होना पड़ेगा. जीवन के इस असीम समुद्र में अपने को सर्वथा निमग्न कर उससे तादात्म्य किये बिना सत्य की उपलब्धि असम्भव है. अतएव मेरे लिए समाज-सेवा से निस्तार है ही नहीं, इस पृथ्वी में, उसके परे या उसके अतिरिक्त मेरे लिए कोई सुख है ही नहीं. इस सन्दर्भ में समाज-सेवा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को अन्तर्मुक्त यानी अन्तर से मुक्त करती है. इस योजना में न कुछ नीचा है, न कुछ ऊँच्चा; क्योंकि सब एक ही है, यद्यपि लगता है कि हम अनेक हैं.33

गांधीजी के दर्शन का एक वैशिष्ट्य यह है कि वह आत्मा की शाश्वतता पर आधारित है. वे मानते हैं कि मनुष्य एक अस्थि-मज्जा का लोथड़ा भर नहीं है. उसमें जो आत्मा है, वह चैतन्य शक्ति है. वह अदृश्य भले हो, सर्वव्यापी और स्वयं प्रबुद्ध है. वह ईश्वर का अंश है. इस मायने में गांधीजी भारतीय चिन्तन के आशय को ग्रहण करते हुआ उसे ही मुख्य और स्थायी समझते हैं. इस विषय में भारतीय औपनिषदिक चिन्तन उनकी मान्यता का आधार है जिसमें कहा गया है कि-

‘स वा एष महानज आत्मा योऽयं विज्ञानमयः
प्राणेषु य एषोऽन्तर्हृदय आकाशः I’34

अर्थात् यह महान अजन्मा आत्मा वही है जो प्राणियों में विज्ञान है, जो हृदय में आकाश है.

आत्मा की अमरता के बारे में उन्हें कोई संदेह नहीं है इसीलिए वे सत्याग्रहियों को विजय की चिन्ता छोड़कर निरन्तर सत्य-सन्धान में लगे रहने को कहते हैं –

’आत्मा शरीर के उपरान्त भी विद्यमान रहती है, इस ज्ञान के कारण सत्याग्रही इसी जीवन में सत्य की विजय देखने के लिए अधीर नहीं होता. अपने द्वारा सामयिक रूप से अभिव्यक्त सत्य को विरोधी भी ग्रहण कर सकें, इसके प्रयास में मरण का भी वरण करने की क्षमता में ही वस्तुतः सत्याग्रही की विजय निहित है.35 कहना न होगा कि आत्मा की अमरता को मानने के कारण ही गांधीजी पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं और भारतीय सनातन चिन्तन के निष्कर्ष को स्वीकार करते हैं. उन्हें ’गीता’ के इस कथन पर पूर्णतः विश्वास है, जिसमें कहा गया है कि –

‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि I

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि
संयाति नवानि देही II’36

अर्थात् जिस प्रकार कोई मनुष्य फटे-पुराने वस्त्रों को त्यागकर नया वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा जीर्ण देह त्यागकर नई देह ग्रहण करती है.

निःसन्देह मानव-जीवन का लक्ष्य इसी आवागमन से मुक्ति है जिसे गांधीजी अपना ध्येय बनाते हैं. मुक्ति या मोक्ष पाने को ही गांधीजी आत्मोपलब्धि कहते हैं, वही उनके लिए जीवन की पूर्णता भी है- ’जीवन एक प्रेरणा है. इसका लक्ष्य पूर्णता के लिए प्रयासशील रहना है, जो आत्मोपलब्धि ही है.’37

किन्तु इससे यह न समझ लेना चाहिये कि उनकी ‘मुक्ति-कामना’ एकान्तिक सिद्धि है. उन्होंने तो अपने जीवन के उद्देश्य ’आत्मोपलब्धि’ को भी ’सर्वाेदय’ में ही देखा था. वे यह मानते थे कि जब तक सबका उदय या सबका अधिकतम कल्याण नहीं हो जाता, तब तक उनकी यह सिद्धि पूरी नहीं होती. इस दायित्व-निर्वाह की दिशा में धर्म उनका संबल था और वे उसे तजकर किसी भी तरह की सिद्धि में विश्वास नहीं करते थे. धर्म वह, जो नैतिक जीवन का मार्ग दिखाता है और एक वही है जो हमें विकारों से दूरकर उस एक ईश्वर की ओर ले जाता है. धर्म के साथ उसकी प्राप्ति का, सबमें ईश्वरत्व के सन्धान का वास्तविक साधन ’अहिंसा’ है जो व्यापकतम प्रेम है. वे कहते हैं – ’… व्यापक सत्य- नारायण के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए जीवमात्र के प्रति आत्मवत् प्रेम की परम आवश्यकता है. जो मनुष्य ऐसा करना चाहता है, वह जीवन के किसी भी क्षेत्र से बाहर नहीं रह सकता. यही कारण है कि सत्य की मेरी पूजा मुझे राजनीति में खींच लाई है.’38

वे इसी क्रम में धर्म और राजनीति के सम्बंध पर बात करते हैं तथा कहते हैं कि धर्म का राजनीति से सम्बंध है और होना चाहिए – ’जो मनुष्य यह कहता है कि धर्म का राजनीति के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, वह धर्म को नहीं जानता, ऐसा कहने में मुझे संकोच नहीं होता और न ऐसा कहने में मैं अविनय करता हूँ.’39

गांधीजी जब धर्म से राजनीति का सम्बंध आवश्यक मानते हैं तब उनके विचार में यह तथ्य रहता है कि धर्म को बिना राजनीति अनीति और असत्य का विषय बन जाती है. धर्म उसे नीति पर चलाने का माध्यम है. राजनीति का धर्म-विरत होना उसे अधर्मी बता देना है. यह अलग बात है कि बाद में स्वयं राजनीति राज मात्र होकर रह गई, फिर उसमें धर्म का काम ही क्या रह गया!

स्पष्टतः गांधीजी का सर्वोच्च लक्ष्य प्रेम के नियम पर संसार को चलते देखना है. यही उनका ईश्वर है जिसे वे ’जीवन्त नियम या अस्तित्व का नियम’ भी कहते हैं. प्रेम यानी अहिंसा ही विश्व मानवता को हर तरह के त्रास से मुक्त कर सकती है. ईश्वर का दिया यही एक मात्र वरदान है जो हमें पशु-सृष्टि से पृथक करता है – ’हम पशुबल के साथ पैदा हुए थे किन्तु हमारा जन्म हुआ था अपने भीतर निवास करने वाले ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिए. वस्तुतः यही मनुष्य का विशेषाधिकार है जो उसे पशु-सृष्टि से पृथक करता है.’40

गांधीजी का जीवन-दर्शन समस्त विश्व और पूरी मानवता के लिए एक वरदान है. प्रत्येक व्यक्ति से सत्य के अनुसंधान का आग्रह करना, भौतिक सुविधाओं से अनासक्त होकर जीने का व्रत लेना और प्रेम को ही एकमात्र जीवन-पथ मानकर चलने का संकल्प करना- वस्तुतः वैश्विक त्रासदी का एक मात्र गंतव्य-पथ है. यद्यपि कि पूंजीवादी समाज- व्यवस्था ‘अहिंसा’ के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है.41

फिर भी इससे बचने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है. गांधीजी का जीवन और उनका संदेश ही आधुनिक विश्व का कल्याण कर सकता है, यही उनका मानववाद भी है जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना पहले था.

सन्दर्भ:
1. ’लेनिन एण्ड गांधी’ – रेने फुलो मिलर, जी० पी० पुटना एम. एस, सन्स, लंदन, संस्करण-1927, पृ. 256. इसमें रेने यह स्पष्ट रूप से लिखते हैं – ’सदाशयता एवं अहिंसा की क्रांति के रूप में गांधी की क्रांति का इतिहास संसार में अन्यतम है, जो एक ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व में की गई जो समझदारी और बलिदान का पाठ पढ़ाता है और जिसका सिद्धांत-वाक्य है – ’अपने शत्रुओं से प्रेम करो’… महात्मा गांधी की विलक्षणता यह है कि मानव-इतिहास में पहली बार उन्होंने एक नैतिक सम्बोध को एक व्यावहारिक राजनीतिक संगठन में रूपांतरित किया.’
2. ‘मैन एण्ड सोसायटी’ – कार्ल मैनहीम, रूटलेज एण्ड केगन पॉल लि., ब्रॉड वे हाउस, 68-74, कार्टर लेन, लंदन, संस्करण – 1941, पृ. 15
3. ‘महात्मा गांधी’ – रोम्याँ रोलाँ, सृष्टि पब्लिशर एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली, पहला अंग्रेजी संस्करण-1924, भारतीय संस्करण-2002, पृ. 3
4. ‘द लेटेस्ट फैड’ – जे. बी. कृपलानी, जनवरी, 1946, पृ. 101
5. ‘गांधियन एथिक्स’ – जी० बी० राय, नवजीवन, अहमदाबाद, संस्करण – 1950, पृ. 3-4
6. गाँधियन एरा इन वल्र्ड पॉलिटिक्स’ – वाय. जी. कृष्णमूर्ति, द पॉपुलर बुक डिपो, मुम्बई, संस्करण-1943, पृ0 66
7. ’यंग इंडिया’, 13 नवम्बर, 1924
8. ’सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा’ – महात्मा गांधी, हिन्दी अकादमी, दिल्ली, संस्करण-2009, पृ. 9
9. ‘महाभारत’ शान्तिपर्व, 162/5
10. ‘फ्रॉम यरवदा मंदिर’ – महात्मा गांधी, नवजीवन, अहमदाबाद, संस्करण – 1931, पृ. 9
11. ’अनसीन पावर’ – सं. जगप्रवेश चन्द्र, इंडियन प्रिन्टिंग वक्र्स, दिल्ली, संस्करण – 1955, पृ. 42
12. ’हरिजन’, 25 मई, 1935
13. ’महात्मा गांधी ’ज’ आइंडियाज: इनक्लुडिंग सेलेक्शन्स फ्रॉम हिज राइटिंग’ सी० एफ० एन्ड्रयूज, मैकमिलन कम्पनी, न्यूयॉर्क, संस्करण – 1930, पृ. 43
14. वही, पृ0 43
15. वही
16. ‘सिलेक्शन्स फ्रॉम गांधी’ – निर्मल कुमार बोस, नवजीवन मुद्रणालय, अहमदाबाद, संस्करण-1960, पृ. 6
17. वही, पृ. 43
18. वही
19 ‘गाँधीः वल्र्ड सिटीजन’ – लेस्टर म्यूरियल, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण-1945, पृ. 27
20. ’यंग इंडिया’, 3 सितम्बर, 1931
21. ’फ्रॉम यरवदा मन्दिर’, पृ. 8-9
22. ’गीता’, अध्याय-10, श्लोक-39
23. ’सनातन गांधी: बापू से वैश्विक संवाद’ – अम्बिकादत वर्मा, विश्वनाथ मिश्र, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, संस्करण-2021, पृ. 31
24. श्वेताश्वतरोपनिषद्, 4/16
25. ‘सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा’ – महात्मा गांधी, हिन्दी अकादमी, दिल्ली, संस्करण – 2009, पृ. 8
26. वही, पृ. 8
27. ‘यंग इंडिया’, 11 अक्टूबर, 1928
28. ‘गांधियन एथिक्स’, पृ. 7
29. ’गाँधीः वल्र्ड सिटीजन’, पृ. 27
30. ‘हरिजन’, 3 जून, 1939
31. ’एन्टी थीइस्टिक थियरीज’ – रॉबर्ट फ्लीन्ट, विलियम ब्लैक एण्ड सन्स, एडिनबर्ग और लन्दन, मूल संस्करण- 1877, संशोधित संस्करण – 1894, पृ. 31.
32. ‘यंग इंडिया’, जनवरी, 1926
33. ’फेलोशिप्स ऑफ फेथ्स एन्ड यूनिटी ऑफ रिलीजन्स’- महात्मा गांधी, सर्वाेदय मंडल, मुम्बई, संस्करण 1953, पृ. 53
34. बृहदारण्यक उपनिषद्, 4/4/22
35. स्पीचेज एण्ड राइटिंग्स ऑफ महात्मा गांधी, मद्रास, 1934, पृ. 504
36. ’गीता’ अध्याय-2, श्लोक – 22
37. ’हरिजन’, 22 जून, 1935
38. ’सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा’, पृ. 408
39. वही, पृ. 408.
40 ‘हरिजन’, 1 फरवरी, 1935
41. ‘यंग इंडिया’, 6 फरवरी, 1930

साहित्य, कला और रंगमंच के प्रतिष्ठित आलोचक ज्योतिष जोशी का जन्म 6 अप्रैल, 1965 को बिहार के गोपालगंज जिले के धर्मगता गाँव में हुआ. उच्च शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय तथा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से प्राप्त हुई. अब तक उनकी 24 मौलिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें कला सम्बन्धी प्रमुख कृतियाँ हैं— ‘भारतीय कला के हस्ताक्षर’, ‘आधुनिक भारतीय कला’, ‘रूपंकर, कृति आकृति’, ‘दृश्यान्तर’, ‘बहुव्रीहि ‘ और ‘आधुनिक कला आन्दोलन’. उन्होंने रचनावली, संचयिता समेत कई और ग्रन्थों का सम्पादन भी किया है; जिनमें ‘कलाकार निर्देशिका’, ‘कला विचार’, ‘कला परम्परा’ तथा ‘कला पद्धति’ शामिल हैं. कई सम्मानों, पुरस्कारों एवं वरिष्ठ अध्येता वृत्तियों से नवाजे जा चुके श्री जोशी ललित कला अकादेमी, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार में सम्पादक पद पर स्थायी रूप से रहे. अकादेमी के कार्यकारी सचिव का दायित्व भी निभाया है. ये कलाओं के समवेत मंच ‘अन्तर्यात्रा’ के अध्यक्ष भी हैं. इन दिनों वे नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय (संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार), नई दिल्ली में सीनियर फेलो हैं.

ई-मेल : jyotishjoshi@gmail.com

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Comments 2

  1. रुबेल says:
    2 years ago

    जीवन के प्रति एक नैतिक दृष्टि रखते हुए गांधी परोपकारिता और नैतिकता को जैविक विशेषता के रूप में देखते हैं।यह विशेषता बेशक कई बार मानवतावाद में भी दिखाई देती है।

    ऐसे में सत्य को मानवतावाद से जोड़कर देखना थोड़ा गंभीर हो जाता है।गांधी जब सत्य को स्वीकार करते हैं तब वे खुद मानते दिखते हैं कि सत्य के लिए निष्ठा एक अमूल्य सद्गुण है या और बेहतर कह सकें तो यह एक ऐसा गुण है जो समाज और मनुष्य को आपस में जोड़ता है। अपनी इस बात के लिए वे बार बार भारतीय दर्शन की ओर मुड़ते हैं।

    ऐसे में अगर सोरेन किर्केगार्द के सत्य की अवधारणा को देखें तो उनके अनुसार सत्य आत्मपरक है या मैं खुद को हासिल कर सकता हूं,ऐसा कहा जा सकता है।

    अब ऐसे में क्या यह कहा जा सकता है कि गांधी भी सत्य की उस आत्मपरक अवधारणा से बाहर आते हुए वैश्विक स्तर तक पहुंच जाते है ,जहां यह आत्मपरकता ही शायद गांधी के लिए वो नैतिक मूल्य है जिन्हें उन्होंने पहले स्वयं से शुरू कर विश्व तक पहुंचाने की कोशिश की।

    यहां अस्तित्व का विघटन नहीं बल्कि उसका विस्तार विश्व और सम्पूर्ण तो नहीं लेकिन मनुष्य के व्यावहारिक सद्गुणों से निर्मित मनुष्यता तक होने की इच्छा है।

    Reply
  2. ध्रुव शुक्ल says:
    2 years ago

    महात्मा गांधी मनुष्यों के बर्बरीकरण के विरुद्ध असहयोग और सद्भाव के पक्ष में सहकार का मार्ग चुनते हैं। इस मार्ग को परखने के लिए हम हिंदियों का देश और उसकी जीवन दृष्टि उनके सत्याग्रह की प्रयोगशाला बनी। ज्योतिष जोशी का यह निबंध इसी मर्म को शोधपूर्वक रेखांकित कर रहा है।

    Reply

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