उतारकर चश्मा आँखों का |
बीत जाए कुछ और साल यूँ ही
और आए महात्मा अगला
ख़ुद को ही हम निहारे दोबारा
उतारकर चश्मा आंखों का
(बाल सीताराम मर्ढेकर)
गांधी का कवित्व
बचपन से लेकर आज तक मेरी आंखों के सामने गांधी किसी न किसी बहाने, किसी न किसी जरिए, किसी न किसी रूप में आते रहे हैं. उनकी मूर्ति का मैं इतना अभ्यस्त था कि बीते कई सालों से मेरे मन में कभी यह ख़याल भी आया ही नहीं कि उनका व्यक्तित्व, उनकी पोशाक में कुछ ख़ास ग़ौर करने लायक है. अति परिचय के चलते मेरे हाथों उनकी जो अवज्ञा हुई है, प्रस्तुत लेख उसी का प्रायश्चित है.
मेरे इन विचारों का केंद्रबिंदु है- एक कवि के रूप में गांधी का विश्लेषण. उनके राजनीतिक, सामाजिक, सैद्धांतिक विचारों के सच-झूठ की जाँच-पड़ताल करना मेरा इरादा नहीं है और उसके लिए ज़रूरी अध्यवसाय भी मेरे पास नहीं है. लेकिन एक फिल्म निर्देशक द्वारा दूसरे लेकिन करीबी माध्यम के एक बहुत बड़े सर्जनशील कलाकार की कला को समझने का प्रयास अवश्य है.
मैं जानता हूँ कि गांधी को कवि कहने से कुछ लोगों की भवें ऊपर उठेंगी, माथे पर बल पड़ जाएंगे, कुछ के चेहरों पर आश्चर्य दिखाई देगा और कुछ होंठ हँसना भी शुरू कर देंगे. फिर भी गांधी एक महान कवि थे. न केवल महान कवि थे बल्कि एक महाकाव्य के कर्ता-रचयिता थे और पूरे विश्वास के साथ और कई सालों के सोच विचार के बाद मैं यह प्रतिपादन कर रहा हूँ.
गांधी द्वारा रचा गया महाकाव्य भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का महाकाव्य है. रामायण-महाभारत आदि दो प्रिय महाकाव्यों जैसा ही वह भव्य और विराट है. रामायण-महाभारत, दोनों महाकाव्यों के सर्जक अपनी-अपनी भूमिका अपनी रचना में निभाते हैं. लेकिन गांधी ने अपने महाकाव्य में उनसे भी बड़ी भूमिका निभाई है.
व्यास और वाल्मीकि शब्द-संसार के ईश्वर थे. उन्होंने व्यक्ति, घटना, धर्म, दर्शन, वर्तमान और भूत-भविष्य का अक्स दिखाने वाले महाकाव्यों की रचना की है. गांधी ने न केवल महाकाव्य रचा, बल्कि उसे प्रत्यक्ष साकार ही कर दिया. संगीत में गायक और नायक का भेद किया जाता है. महान और स्वतंत्र प्रतिभा वाला कलाकार नायक होता है. नायक पहले से बना हुआ रास्ता और विस्तृत, सुशोभित अवश्य करता है, लेकिन वह दर्रों-पहाड़ों से, महासागर से, पर्वत से नया रास्ता नहीं बना सकता. गांधी ने यही किया है. इसलिए गांधी महाकवि भी थे और नायक भी.
गांधी की सबसे महत्वपूर्ण निर्मिति स्वयं गांधी थे. भारत के स्वाधीनता संग्राम को यह गांधी नामक व्यक्तित्व हिंदू धर्म ने नहीं दिया, गुज़रात ने नहीं दिया, गांधी की जाति ने भी नहीं दिया. उसके बीज गांधी की भीतरी धधक में है. इस बीज के अस्तित्व की पहली बार अनुभूति गांधी के सत्य के प्रयोग में होती है, जिसमें भीतरी आग की धधक से अपने अंतरंग को पिघलाकर उसे नए सांचे में डाला जाता है.
सौभाग्य की बात है कि महादेव भाई जवेरी ने गांधी पर ‘महात्मा, लाइफ ऑफ गांधी 1869-1948’ फिल्म बनाई. पाँच घंटों से अधिक लंबी यह फिल्म गांधी की ज़िंदगी के चित्रण का एक आईना है. यह फिल्म (कई बार) गांधी के अपने शब्दों और महादेव भाई द्वारा अत्यंत परिश्रमपूर्वक संकलित प्रतिमाओं की मदद से समर्थ और संवेदनशील संकलन से आकारबद्ध हुआ गांधी का चलचित्र चरित्र है. यह फिल्म भारतीय जगत् की ही नहीं, बल्कि विश्व के फिल्म इतिहास की अत्युत्तम कलाकृतियों में से एक है. यह ऐसा यथार्थ है, जो कल्पित से भी अधिक भव्य है. एक ऐसा शोक नाट्य है, जो नवरसों में रंगा हुआ और कारुण्य में भीगा हुआ है. महानिर्वाण की खिन्नता और निराशा से धूमिल एक हंस गीत है. उसके आधार पर और सिने-विचारों से अनुभूत हुए गांधी के रूप को ही यहाँ रेखांकित करना है. उसमें चित्रित गांधी का व्यक्तित्व इतना समृद्ध और परस्पर विरोधी प्रेरणाओं से साकार हुआ है कि समुद्र के विराट हिमनग जैसे छोटे से हिस्से का धुंधला-सा भी दर्शन यदि करा पाऊँ तो भी मैं संतुष्ट हो जाऊँगा.
बढ़ते बीज और झड़ते प्रतीक (कोष)
सब जानते हैं कि गांधी के सामाजिक और राजनीतिक जीवन का प्रारंभ दक्षिण अफ़्रीका में हुआ, लेकिन उनके इस नए व्यक्तित्व में पोशाक का कितना महत्व है, इसका संज्ञान या इसके बारे में विचार बहुत कम हुआ है.
एमा तार्लो नामक अंग्रेजी विदुषी ने अपनी ‘क्लोदिंग मैटर्स’ पुस्तक में इस बात पर नए सिरे से और गहराई के साथ विचार किया है. उसका भी मुझे यहाँ आधार लेना है. क्योंकि उन्होंने अपने विचारों के प्रतिपादन के लिए तस्वीरें, गांधी और उनके समकालीनों का लेखन, पत्राचार आदि सभी का विचार किया है. लेकिन इसमें वे केवल ब्यौरे में फँसकर नहीं रहीं हैं, बल्कि उनकी प्रतिभा उन्हें इससे आगे ले जाती है. इसीलिए उनके विवेचन में सूक्ष्म निरीक्षण और वैचारिक विशालता, आदि दोनों गुण दिखाई देते हैं, जो आमतौर पर एकत्रित नहीं पाए जाते.
दक्षिण अफ़्रीका में गांधी जब कोर्ट में केस लड़ने के लिए गए, तब कोर्ट ने उन्हें पगड़ी पहनने के लिए मना किया था. इससे वे संतप्त हुए थे और कोर्ट से चले गए थे. इसके बाद वे पगडी पहनकर पुनः कोर्ट में आने का विचार कर रहे थे, लेकिन तभी उनके कुछ मुस्लिम व्यापारी मित्रों ने उन्हें यह सलाह दी कि यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं है और इसी घटना से वर्णद्वेष पर आधारित सरकार के अन्याय को दुनिया के सामने उजागर किया जा सकता है. इस घटना से गांधी की पोशाक की ओर देखने की भूमिका में एक क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ.
‘‘गांधीजी को उस पोशाक और कपड़े का महत्व महसूस हुआ जो समाज द्वारा स्वीकृत और सामाजिक रीति-रिवाज के अनुरूप होने के बजाय समाज के लिए नापसंद और चुनौती भरे हैं.’’ (एमा तार्लो, पृ. 67)
सन 1908 में गांधी को जोहान्सबर्ग में गिरफ़्तार करने के बाद उन्हें पूरी तरह से नग्न किया गया था. उन्हें कैदी की पोशाक दी गई थी. उस पोशाक के पैंट में पिछले हिस्से पर ‘एन’ अक्षर छपा हुआ था. ‘नेटिव’ इस अपमानजनक शब्द का वह आद्याक्षर था. गांधी ने इस सारे अपमान का स्वीकार किया और अपने बाल और मूछें काटने की विनती की. अपनी विनती अस्वीकृत होने के बाद गांधी ने दो घंटे खर्च कर अपने सहयोगियों के साथ अपना भी मुंडन कर लिया और मूँछें भी काटीं. और इस तरह सार्वजनिक अपमान चिह्नों का प्रयोग प्रारंभ किया.
सन 1914 तक अपने दक्षिण अफ़्रीका के निवास में उन्होंने अधिकाधिक साधारण कपड़े पहनना शुरू किया. यूरोपीय सूट पहनना कम किया. भारतीय पोशाक का इस्तेमाल शुरू किया. सन 1913 में दरबान के सरकार विरोधी संग्राम में मारे गए भारतीयों की मृत्यु को लेकर आयोजित एक शोक सभा में उन्होंने पूरा मुंडन किया और लुंगी और कुर्ते की पोशाक पहन कर उसमें हिस्सा लिया. इसके बारे में जब उनसे पूछा गया, तब उन्होंने कहा कि शोक व्यक्त करने की यह भारतीय पद्धति मुझे सबसे करीब प्रतीत होती है.
गांधी की बदलती पोशाकों का अध्ययन उद्बोधन और कलात्मक अनुभूति की परिधि को विस्तृत करता है. कोई कवि स्वयं द्वारा निर्मित किसी व्यक्तित्व की मनोदशा को व्यक्त करने के लिए उसकी पोशाक का सोद्देश्य प्रयोग करता है, उसी प्रकार गांधी ने अपने भीतर के बदलाव के चिह्न के रूप में बदलती पोशाक का जान-बूझकर इस्तेमाल किया है. जैसे-जैसे उनका मानसिक विकास होकर उनकी सहानुभूति अधिकाधिक विशाल होने लगी, वैसे-वैसे सामाजिक प्रतिष्ठा और औचित्य का प्रतीक बनने वाली पोशाकें झड़ने लगीं. उनके आंतरिक सत्य को नग्न ज्योति का स्वरूप प्राप्त होने लगा.
गांधी और कस्तूरबा की सन 1914 की एक तस्वीर में अभी-अभी दक्षिण अफ़्रीका से लौटे गांधी यूरोपियन सूट में नजर आते हैं. लेकिन उनकी दूसरी तस्वीर में यह दिखाई देता है कि जब वे भारत पहुँचते हैं, तब वे काठियावाड़ी किसान के भेस में हैं.
सन 1916 की लखनऊ कांग्रेस के लिए बड़ी शानो-शौकत के साथ पधारे दो जमींदार
गांधी की पोशाक के कारण उन्हें सचमुच का राह से भटका हुआ किसान समझ बैठे थे… तार्लो कहती हैं, गांधी की पोशाक पर चौंकने के लिए गांधी कौन है यह पहले से पता होना जरूरी होता है.
श्रीमती तार्लो का यह मुद्दा अत्यंत महत्वपूर्ण है. किसी कलाकार को किसी परंपरा के विरुद्ध जाना हो तो उसके दर्शक को यह पता होना चाहिए कि परंपरा में क्या उचित माना जाता है. कलाकार की नवीनता को समझने के लिए परंपरा को समझना जरूरी होता है. परंपरा का ज्ञान न हो तो अविष्कार पद्धति के आंतरिक तनाव की अनुभूति नहीं होती. ये गांधी हैं, यह पता होने के बाद ही उनके देहाती या किसान की पोशाक को पूरा आलंकारिक अविष्कार मूल्य प्राप्त होता है. मैं यहाँ अलंकार शब्द का प्रयोग भारतीय सौंदर्य विचार की एक प्रतिष्ठित संज्ञा के रूप में कर रहा हूँ, ऊपरी सजावट या चमकदमक के रूप में नहीं.
कला के इतिहास का एक प्रभावशाली उदाहरण देता हूँ. सन 1917 में मार्शेल द्युशां नामक कलाकार ने एक कला प्रदर्शनी में चीनी मिट्टी से बना पेशाब का बर्तन एक कला-वस्तु के रूप में रखा. वही पेशाब का बर्तन यदि सार्वजनिक पेशाबघर जैसी जगह पर रखा जाता तो कोई हंगामा या कोलाहल नहीं होता. लेकिन द्युशां ने चीनी मिट्टी के इस पेशाब बर्तन को न केवल प्रदर्शनी में रखा, बल्कि उसे रोमांटिक परंपरा की नाक काटने वाला ‘फौआरा’ यह नाम भी दिया.
सिनेमा के मोंताज परिकल्पना की नींव यही है. किस वस्तु के बगल में कौन सी वस्तु रखने से उसका अर्थ कैसे बदल जाता है, इसका एहसास यानी मोंताज. गांधी केवल एक अच्छे पोशाक नियोजक ही नहीं थे, वे मोंताज परंपरा के एक महत्वपूर्ण संकलक-निर्देशक भी थे.
गांधी टोपी और दरिद्र नारायण का राजमुकुट
गांधी ने गांधी टोपी की निर्मिति कैसे की, इसके बारे में अनेक मत प्रचलित हैं. इसके संबंध में अलग-अलग मतों में न पड़ते हुए मैं काका कालेलकर के निवेदन का, जिसका श्रीमती तोर्रो ने भी उल्लेख किया है, इस्तेमाल करता हूँ.
गांधी ऐसी डिजाइन वाली टोपी बनाना चाहते थे, जो भारत के सभी धर्मों, जातियों-जनजातियों, संप्रदायों के लोगों के लिए सुविधाजनक हो. इसके लिए उन्होंने अलग-अलग इलाकों से टोपिया मंगाईं. उनका अध्ययन किया और स्वयं प्रयोग करके देखा.
गांधी के बारे में यह बात बहुत महत्वपूर्ण है. वे केवल एक सैद्धांतिक चिंतक नहीं थे, प्रयोगशील कलाकार थे. लोगों को उपदेश करने से वे बचते थे. उनकी धारणा थी कि जिस बात का हमने अनुभव नहीं किया है, उसका उपदेश करने का नैतिक अधिकार हमारे पास नहीं है.
इन टोपियों पर प्रयोग कर उन्होंने गांधी टोपी बनाई. उन्होंने उसका दो साल इस्तेमाल किया. इस टोपी को उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम का एक प्रभावशाली हथियार बनाया. सन 1920 के आसपास ये टोपियाँ जगह-जगह दिखाई देने लगीं. इन टोपियों का ‘गांधी का अनुयायी’ होने का अर्थ ब्रिटिशों ने तुरंत समझ लिया. उन्हें पता था कि इस टोपी का अर्थ है – ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध और स्वाधीनता संग्राम का समर्थन. इन टोपियों के आधार पर ब्रिटिशों ने लोगों को नौकरियाँ देने से मना किया, उन्हें पहनने वालों पर लाठियाँ चलवाईं, हमले किए. सोल्जरों ने लोगों के सिर से ये टोपियाँ लाठियों से उड़ा कर अपमान करना शुरू किया. दरिद्र नारायण के राजमुकुट की यह सादगी एक मिनिलमिस्ट कलाकार की सर्जनशीलता का विजय बनती है.
सर्वस्वीकृत प्रतीक बनाना कवियों के लिए अक्सर बहुत मुश्किल हो जाता है. रसिकों तक वे पहुँच ही जाएँगे, ऐसा उन प्रतीकों के बारे में उन्हें यकीन नहीं होता. जिनके वे प्रतीत होते हैं और जो तो उन्हें प्रत्यक्ष में ला पाते हैं, वे ही होते हैं असली जनपद के कवि. ज्ञानेश्वर, तुकाराम आदि संतों ने ऐसे समर्थ प्रतीकों को महाराष्ट्र की जबान पर धर दिया, वारकरियों की डिंडी-पताका के जरिए सिर-कंधों पर नचाया. गांधी टोपी के साथ-साथ भारतीय जनता ने गांधी को भी सिर पर उठा लिया. उनकी सशक्त कवि शक्ति का उचित सम्मान किया.
गांधी के उदाहरण के बाद अंग्रेजी पोशाक का आदी नेहरू परिवार भारतीय पोशाक में नई राजनीति में उतरा. मोतीलाल नेहरू अपना बैरिस्टर का सूट फेंक कर भारतीय पोशाक में सामने आए. नेहरू ने गांधी टोपी का स्वीकार किया. जवाहरलाल, कमला और इंदिरा नेहरू; आदि तीनों की सन 1929 के आसपास की एक तस्वीर उपलब्ध है. इसमें तीनों ने भारतीय पोशाक पहनी है. षोड़शी इंदिरा तो पुरुष लिबास में है.
अहिंसक सत्याग्रहियों की वर्दी, दैनंदिन कर्म और पहिए का अवतार
आधुनिक सेना में सैनिकों की वर्दी उनकी निष्ठा और सेना में उनके स्थान की परिचायक होती है. वही अधिकारियों की श्रेणी घोषित करती है. अहिंसक सत्याग्रहियों को एकत्रित बांधने वाली वर्दी का क्या डिजाइन बनाए? सभी एक समान और हर कोई अलग. इस यक्ष प्रश्न का गांधी ने जो उत्तर ढूंढ निकाला, इसके लिए महाकवि की प्रतिभा की ही दरकार थी. इसका उत्तर था खद्दर. इसमें पुरुष धोती पहन सकता है, जैकेट पहन सकता है. स्त्रियाँ साड़ियाँ सकती हैं, लहँगा पहन सकती हैं. फिर भी सभी का कपड़ा एक ही है- खद्दर. अनेकों में एकता लाने वाली और एक-एक की विशेषता को बनाए रखने वाली, सभी श्रेणियों को एक ही सीढ़ी पर लाने वाली वर्दी यानी खद्दर.
यह खद्दर बनता है चरखे से. इस चरखे को सभी छोटे-बड़े अपने अपने सुविधाजनक समय के अनुसार, सुविधाजनक जगह पर चला सकते हैं. घर से बाहर न निकलने वाली स्त्री इस पहिए का उपयोग कर स्वाधीनता के मोर्चे में हिस्सा ले सकती है.
चरखे का पहिया अति प्राचीन चक्र वाले स्वतंत्रता आंदोलन का अवतार है. यही पहिया एक अलग संस्कृति में, अलग दौर में सूर्य का प्रतीक था, जीवन चैतन्य का केंद्र था. वह दिन-रात का चक्र, ऋतुचक्र और नित्य कर्म से बदलते नक्षत्रों का वैश्विक चक्र आदि सभी को समाहित कर लेता है. महादेव भाई की फिल्म में आदिवासी स्त्रियों से लेकर उच्च वर्णीय स्त्रियों तक सैकड़ों स्त्रियों के एकसाथ चरखा चलाने के दृश्य हैं. इन दृश्यों से यह महसूस होता है कि चरखे के माध्यम से गांधी ने देश में विद्युल्लता को कैसे संचारित किया. पर्दे पर ये दृश्य देखते समय आज भी हमारा शरीर सुख के रोमांचित हो जाता है, चैतन्य से प्रवाहित होकर बहने लगता है. सोचिए, उस दौर में इन सभी घटनाओं का प्रत्यक्ष हिस्सा बनने वालों की मनोदशा क्या होती होगी?
चुटकीभर नमक की शक्ति और सत्याग्रह की फिल्म
गांधी ने जिस प्रकार चक्र को एक नए रूप में पेश किया, उसी तरह उन्होंने अति प्राचीन संस्कारों के साथ जुड़े हुए एक पदार्थ को भी नए सिरे से प्रतिष्ठा दी. वह पदार्थ था- ‘नमक’. लोकव्यवहार में हम ‘मैंने आपका नमक खाया है’, ‘नमक हराम’, ‘नमक हलाल’ जैसे मुहावरों का प्रयोग करते हैं. ईसाई धर्म का सार जिस ग्रंथ में है, उस ‘सिरमन ऑन दी माउंट’ में ईसा कहता है,
‘You are the salt of the earth.’
(Matthew 5: 13-16)
समुद्र तट पर प्रकृति मुक्त हस्त से यह नमक इंसान को प्रदान करती है. ग़रीब से ग़रीब के लिए वह जरूरी होता है. उसका स्वास्थ्य उसी पर निर्भर होता है. वह उसकी ज़िंदगी का आस्वाद है. उस पर कर लगाना नीचता का लक्षण है, जो गांधी ने ब्रिटिश सरकार को अपने नैतिक संग्राम से दिखा दिया. यही नहीं, बल्कि सत्याग्रह और संचार माध्यमों का इस्तेमाल करके भी दिखा दिया.
महादेव भाई की फिल्म के जो अत्यंत नाट्यमयी प्रसंग हैं, उनमें बिल्कुल ऊपरी श्रेणी का प्रसंग यानी डांडी यात्रा. तेज और लंबे-लंबे डग भरने वाले गांधी, उनके कदमों का यह चैतन्य, उनकी बिल्कुल आखिरी नौआखाली की पदयात्रा तक कायम था. गांधी की चाल में सेनानी का ध्यान खींचने की शक्ति थी. सुपरस्टार-अति तेज पुंज तारा! उनके साथ चलने वाले अन्य सत्याग्रही. पगडंडियों, सड़कों और अंतिमतः रेत और पानी तक उनकी पीछा न छोड़ने वाले, कौतुक से अभिमंत्रित दर्शक- यह सब युद्ध प्रसंग की बराबरी के या उनसे तनिक अधिक उत्कृष्ट हैं.
गांधी के सत्याग्रह की पहली शाम, जब वे समुद्र में स्नान करते हैं, तब वे लगभग नग्न हैं. सत्य का ऐसा नग्न दर्शन फिल्म के पर्दे पर अमूमन देखने को नहीं मिलता.
गांधी में आदि रूप तक पहुँचने की जो शक्ति है, वही उन्हें महाकवि बनाती है. यह उन्हें प्रकृति द्वारा प्रदत्त देन है, फिर भी उसे बढ़ाने के लिए उन्होंने ज़िंदगी भर सत्य के प्रयोग किए हैं. सत्य का रियाज़ किया, शब्दों, हावभावों, पोशाक, विचारों की सभी अतिरिक्त टहनियाँ काट डालीं और सत्य का आधार बनने वाली सीधी-सरल छड़ी बनाई. देखने के लिए सुंदर चश्मा बनाया. स्वराज्य चाहिए तो सबसे पहले अपने आप पर राज्य करना आना चाहिए- यही उनके स्वराज्य आंदोलन के भूकंप का केंद्र बिंदु था. उसके भीतर छिपी शक्ति जितनी ज़्यादा होगी, आंदोलन की साम्राज्य को डगमगाने की शक्ति भी उतनी ही ज़्यादा होगी, इसे उन्होंने पहचाना. यही उनकी ‘भीतरी’ आवाज थी.
सामान्यतः सिनेमा या नाटक में युद्ध प्रसंग का चित्रण करते समय एक सेना दाईं ओर बाईं ओर आती है और दूसरी सेना बाईं ओर से दाईं ओर. उनकी वर्दी में अंतर होता है. शस्त्रों में आधुनिकता होती है लेकिन उद्देश्य में नहीं होती. अश्मयुग से लेकर परमाणु युग तक शत्रु के संहार का उद्देश्य सभी में एक समान होता है.
सदियों से चलती आई इन परंपराओं को तोड़कर युद्ध का नए प्रकार का स्क्रिप्ट या नाटक लिखने वाला कवि उतना ही समर्थ, प्रतिभासंपन्न होना जरूरी होता है. गांधी ऐसे ही युगंधर पटकथाकार थे. उनके द्वारा लिखा गया सत्याग्रह का mise-en-scene देखिए. एक और से हिंसक सेना एक वर्दी में आती है, दूसरी ओर से सत्याग्रही खद्दर के कपड़े में आ रहे हैं. हिंसक सेना प्रहार करती है, गोलियाँ चलाती है. सत्याग्रही उसका प्रतिकार नहीं करते. वे मृत्यु का स्वीकार करते हैं. लाठियों के प्रहार से घायल होते हैं. उनकी सहनशक्ति और निर्धार- यही उनके शस्त्र हैं, जो आधुनिक हैं भी और नहीं भी. वे कुचले गए शस्त्रहीनों के युगो-युगों के शस्त्र हैं, जिन्हें गांधी ने प्रत्येक हाथ में दिए हैं. उन्हें नया रूप दिया है. उनका तेज प्रत्येक सत्याग्रही के चेहरे पर दमक रहा है.
मेरा वर्णन परंपरागत और अतिशयोक्तिपूर्ण लग रहा हो तो महादेव भाई की फिल्म देखिए. उसमें रियलिज्म नहीं है, निओ-रियलिज्म नहीं है, सोशालिस्ट रियलिज्म भी नहीं है. वह एक सत्यपट है. उसके प्रसंग में, प्रत्येक शॉट में और प्रत्येक फ्रेम में सत्य के खून के आंसू आज भी आपको दिखाई देंगे. आज के भारत में यह सत्य नाट्य प्रतीत हो, अनर्गल बौखलाहट वाला सत्य प्रतीत हो, इस तरह हम अपने सत्य के एहसास को भूल गए हैं.
गांधी का परफॉर्मेन्स आर्ट
The performance can be live or via media; the performer can be present or absent. It can be any situation that involves the four basic elements: time, space, performer’s body, or presence in a medium and the relationship between the performer and the audience. Performance can be happened anywhere, in any venue or setting and for any length of time.
गांधी के भूख-हड़ताल का राजनीतिक विचार यहाँ प्रस्तुत नहीं है. वह एक अलग विषय है. लेकिन उसके भीतर की कला का विचार मुझे यहाँ अत्यंत महत्वपूर्ण लगता है. गांधी से पहले उपवास का स्वरूप धार्मिक या निजी था. अपने शरीर का सार्वजनिक इस्तेमाल करना और वह भी ऐसे प्रभावशाली ढंग से कि पूरे देश के द्वारा डाले गए नैतिक दबाव के चलते उनके विरोधियों के सामने पीछे हटने की बिना और विकल्प ही नहीं होता था.
बीते पंद्रह-बीस सालों में और विशेषतः बीते दशक में परफारमेन्स आर्ट का प्रयोग करने वाले अनेक कलाकार उत्पन्न हुए हैं. जो विदेश में हुआ, कुछ समय के बाद भारतीय कलाकार भी वही करेंगे. आजकल तो उन्हीं की बहुतायत है. लेकिन जिनकी उपोषण कला की प्रस्तुतीकरण की ओर सारा देश नजरें लगाए बैठ जाता था, जिसकी दैहिक दशा के बारे में, उसके कमजोर होने पर हर घंटे बुलेटिन निकलते थे, केवल एक ही जगह पर वह सप्ताह के सप्ताह बिना अन्न के रहता था, और जिसका जीर्ण होता जाता, कभी मौन धारण करने वाला शरीर उसकी प्रबल इच्छा शक्ति का अत्यंत मुखर आविष्कार बनता था, वह दुनिया का पहला और अत्यंत लोकप्रिय प्रतिभाशाली परफॉर्मिंग कलाकार था- मोहनदास करमचंद गांधी.
आसानी से ध्यान में आता है कि ऊपर उद्धृत की गई इस कला की व्याख्या के सभी निकष गांधी के उपवास पर भी लागू होते हैं. अत्यंत महत्वपूर्ण बात, गांधी ने किसी बात का, उदाहरणार्थ, अन्न ग्रहण न करने की क्रिया का एक सशक्त कृति में रूपांतर किया. महान कलाकार एक साधारण, दैनंदिन क्रिया के न होने को कितना बड़ा अर्थ दे सकता है, इसी में गांधी का महाकवित्व छिपा हुआ है. लेकिन हमारा जीवन कला से इतना दूर हो गया है कि आसपास मेहराबी कोष्ठक न हो तो अत्यंत श्रेष्ठ कला की ओर कला के रूप में देखने की हमारी क्षमता ही चली गई है. या संपूर्ण संत साहित्य का यह सार हम भूल गए हैं कि श्रेष्ठ कला जीवन से कभी दूर नहीं हो सकती.
लोकतंत्र में या मूल्यों में उपवास आता है या नहीं, यह अलग मुद्दा है. लेकिन किसी व्यक्ति के शरीर में न होने वाली क्रिया को गांधी ने परमाणु अस्त्र जैसी विस्फोटक शक्ति प्रदान की, यह भी महादेव भाई के फिल्म के उपवास के चित्रण में महसूस होता है. लेकिन ये परमाणु अस्त्र केवल उसके निर्माता के प्राणों को ही खतरे में डालते थे. उसकी सशक्त लहरियाँ देशवासियों के अंग-अंग से कंपन के रूप में बाहर निकलती थीं. गांधीजी के उपवास खोलने तक उनके कंपन रुकते नहीं थे. गांधी के इर्दगिर्द सूखे-मुरझाए चेहरे, प्रसार माध्यमों के बड़े-बड़े शीर्षक, अनुयायियों के चक्रीय उपोषण आदि चैप्लिन की कला से किसी भी प्रकार कम नहीं थे.
महाकाव्य के रंग, भाषा और ध्वनि-निर्देशन
गांधी ने कला के बारे में जो मत व्यक्त किए हैं, उन पर ग़ौर करेंगे तो यह प्रतीत होगा कि वे एक संवेदनाहीन समाज सुधारक के मत हैं. तोलस्तोय के कला के बारे में विचार पढ़ेंगे तो ये दुनिया के सबसे श्रेष्ठ कलाकार के विचार हैं, ऐसा नहीं लगता. लेकिन उनकी महानता उनकी निर्मिति में है, उनके कला संबंधी विचारों में नहीं.
गांधी ने फैजपुर कांग्रेस अधिवेशन के लिए नंदलाल बोस को शांतिनिकेतन से ख़ासतौर से बुलाया था और बांस और अत्यंत सस्ती वस्तुओं के इस्तेमाल से मंडप बनाने के लिए कहा था. हरिपुर कांग्रेस के लिए उनके द्वारा बनाए ‘हरिपुर पोस्टर्स’ लोककला के साधारण और मुखर भाषा में आज भी संवाद करते हैं. तिरंगे के रंग और उस पर चरखा गांधी की ही परिकल्पना थी. आज हम जो देखते हैं, उस ध्वज की निर्मिति के पीछे भी गांधी ही थे.
जब तक किसी महाकाव्य का संगीत में रूपांतरण नहीं हो सकता तब तक वह रचना महाकाव्य नहीं बन सकती. अपने द्वारा दिए गए अभिशाप को मन ही मन याद करते हुए वाल्मीकि को भी महसूस हुआ कि यह अभिशाप भी श्लोकबद्ध है, छंद में बद्ध है और वह गायन के योग्य है. साथ ही उसका वैणिक संगीत में भी रूपांतरण किया जा सकता है. गांधी अपने आश्रम में भजन से संगीत ले आए.
गांधी की भाषा में जो सामर्थ्य था, वह अर्जित भाषा का सामर्थ्य था. अनेक धर्म ग्रंथों का अध्ययन करने के बाद उसके पीछे का सार उनकी समझ में आया था कि सत्य से सुंदर भाषा का कोई अलंकार नहीं है और कृति के बिना सत्य का कोई महत्व नहीं है. महाभारत के वाक्य का पुनरुच्चार कर गांधी की भाषा का बड़ा गुण कौन सा है? वह गुण यानी उनकी यह श्रद्धा कि जो छल-प्रपंच से बदल सकता है, वह सत्य होता ही नहीं.
गांधी की भाषा का मेरूदंड यानी उनकी सत्य के प्रति आस्था. यही मेरूदंड आज के सार्वजनिक जीवन में ढह गया है. इस कारण हम किसी पर भी आसानी से विश्वास नहीं कर सकते. उनके एक वाक्य ने एक साम्राज्य का अंत कर दिया. वह वाक्य था, ‘भारत छोड़ो.’ भाषा में यह शक्ति लाने के लिए कवि को आत्मसमर्पण करने जितना अपने शब्द पर भरोसा होना चाहिए. तभी वह शब्द भविष्य के पाषाण में अक्षर रुपी गुफा खोद सकता है.
सत्य और काव्य
गांधी पर आधारित महादेव भाई की फिल्म का समापन भी किसी महाकाव्य की तरह नायक की मृत्यु से होता है. एक ओर आज़ाद हो रहे दो देश, दूसरी ओर लाखों विस्थापित, लाखों हत्याएँ, आगजनी, क़त्ल, लूटमार, अराजकता, और इन सबके बीच गांधी सत्ता के नवनिर्मित केंद्र से दूर अकेले चल रहे थे. अहिंसा मंत्र की शक्ति अचानक चले जाने की तरह लावारिस हुए मंत्र को बार-बार दोहरा रहे थे. मनुष्य को मंत्रमुग्ध करने की उनकी कला का सामर्थ्य अचानक नष्ट हो गया था.
अवतार कार्य ख़त्म हुए महारथी कृष्ण को एक व्याध का निरर्थक बाण भी मार सकता है. राम की मृत्यु से भी कुछ साध्य नहीं होता. गांधी की मृत्यु से भी यही हुआ. उनका क़त्ल होने के बाद उनके खून से मुट्ठी भर जमीन भीग उठी. देश हताश हुआ. हिंसा कांड की बर्बर गर्जनाओं में अहिंसा का मधुर काव्य सुनाई देना बंद हो गया.
गोअट के आत्मचरित्र का नाम है ‘डिश्टुंग उंट वारहाइट’. यानी काव्य और सत्य. गांधी के आत्मचरित्र का नाम है ‘मेरे सत्य के प्रयोग’. मुझे कई बार लगता है कि नामों की अदल-बदल करने लायक समानता उनके सत्य में है. गांधी की ज़िंदगी से एक कलाकार यह सबक सीख सकता है कि जो सत्य नहीं वह सुंदर नहीं और जो सुंदर नहीं वह सत्य नहीं. इन दोनों के सामयिक प्रदेश का नाम है काव्य. इसीलिए मैं गांधी को महाकवि के रूप में प्रणाम करता हूँ.
When old age shall this generation waste
Thou shall remain in midst of other woe
Then ours, a friend to man to whom thou say’st,
“Beauty is truth, truth beauty,”- that is all
Ye know on earth and all ye need to know
Ode on a Gracian Urm, John keats
अरुण खोपकर मणि कौल निर्देशित ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास की प्रमुख भूमिका. सिने निर्देशक, सिने विद् और सिने अध्यापक. फिल्म निर्माण और निर्देशन के लिए तीन बार सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कारों के सहित पंद्रह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. होमी भाभा फेलोशिप से सन्मानित. सत्यजित राय जीवनगौरव पुरस्कार व पद्मपाणी जीवनगौरव पुरस्कार. चार भारतीय और छह यूरोपीय भाषाओं का अध्ययन. महाराष्ट्र सरकार द्वारा सम्मानित प्राक्-सिनेमा का सेतु द्वारा शीघ्र प्रकाशन arunkhopkar@gmail.com
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प्रत्येक व्यक्ति
अपनी रोशनी में
ईश्वर की प्रार्थना करता है।
गांधी (1930)
बहुत ही बढ़िया लेख है…
यह आलेख जैसे एक प्रदीर्घ कविता है। अनेक आयामों और शिखरों को छूती हुई। अन्य कलाओं के संदर्भों ने इसे और अधिक व्यंजक बना दिया है। सर्वथा नयी दृष्टि से गाँधी पर यह एक अन्वेषण है। जिसे आविष्कार की तरह भी देखा जा सकता है। सुविचारित, सुचिंतित।
(बस, मराठी से हिंदी अनुवाद की कुछ मुश्किलें पढ़ते समय खटकती हैं लेकिन यह आभार भी मन में आता है कि अनुवाद से ही यह हिंदी में समक्ष हुआ।)
अरुण खोपकर जी, द्वारा महात्मा गांधी के भीतर समाहित महाकवि को अदृष्ट मानस तल से लाकर अपने पाठक को साक्षात कराने का उनका ये प्रयास स्तुतय है । सत्य के बारे में कहा जाता है वह मनसा वाचा कर्मणा एक होता है । सत्य के प्रयोग के अनुक्रम में अरुण जी का ये आलेख पढ़ते हुए सहेज ही लगता है गांधी सत्य को जीने के लिए कितने आग्रही हैं । स्वयं के साथ साथ समाज के जीवन भी वो अवतरित हो, अपने उद्देश्यों
के प्रति एक निष्ठ भाव जागे उसके लिए अनेक बिंब अनेकों तरीके से उन्होंने गढ़े और उनका सामाजिक राजनीतिक जीवन में भली भांति प्रयोग किया जैसा कोई कवि अपने कवित्व द्वारा शब्दाबिंबो का प्रयोग कर अपने काव्य को एक दिशा एक धार देता है जिससे उसका काव्य वांछित भावपटल , निर्दिष्ट भाव तक पहुंचता है । यहां अरुण जी बखूबी गांधी के भीतर के महाकवि को हमारे सामने अपने शब्द चित्र से उकेरते हैं। गांधी जी पर महादेव भाई की फिल्म के वर्णन मात्र महादेव जी के कार्य की प्रशंसा ही है अपितु अपने आलेख के समर्थन उनकी फिल्म खड़ी कर दी गई । प्रशंसा का , नव्य प्रयोग है ।गांधी के प्रति और आस्था जाग्रत करता उनका आलेख पढ़कर आनंद आया ।
अरुण देव जी आभार । गांधी जी के प्रति सोशल मीडिया के इस दौर में जहां गांधी के लिए शायद कोई जगह नही बची है वहां पत्रिका में समुचित स्थान देने के लिए। अधिकाधिक पाठकवृन्द तक ये आलेख पहुंचाने के लिए
योगेश द्विवेदी।
अच्छा लिखा है अरुण खोपकर जी ने। एक फिल्म से प्रेरित लेख, जो गांधी की महाकाव्य के नायक के रूप पुनर्व्याख्या करता है. इसे पढ़ा जाना चाहिए, तब और भी जब एक पूरा हुजूम पुरातन नायकों की पुनर्स्थापना में मसरूफ है. जबकि हमारे पास हमारे समय का एक विराट नायक मौजूद है.
बहुत सुन्दर लेख है. जितनी ही तारीफ की जाए कम होगी. संग्रहणीय. गांधी जी पर इस कला-कोण से विचार शायद पहली बार किसी ने किया है. मंच और अरुण सर आपका शुक्रिया. लेखक को आभार.
बहुत नयी दृष्टि से लिखा हुआ आलेख | बहुत बढ़िया |
हमारी आंखों में जो धुंधलापन भरा जा रहा उसे भी इस अप्रतिम लेख ने दूर कर एक नये चश्मे से चीजों को देखने की दृष्टि दी है। निश्चय ही यह एक संवेदनशील कवितानुमा लेख है। परफोर्मर के रूप में गांधी की मानसिकता को और उनके जीवन के अन्य आयामों को बहुत खूबी से उभारा गया है। लेख पढ़ कर आनंद आया। लेखक अनुवादक और अरुण देव तीनों को इस लेख के लिए बधाई। – – हरिमोहन शर्मा
असाधारण परिकल्पना से लिखा गया नवोन्मेषी आलेख। महात्मा गांधी के विराट व्यक्तित्व को नए कोणों से समझने के द्वार खोलता हुआ। इस काव्यात्मक आलेख को उपलब्ध करवाने के लिए लेखक, अनुवादक और ‘समालोचन’ को हार्दिक धन्यवाद।
अद्भुत लेख ….. बिल्कुल नई दृष्टि से देखा गया । अब तक का पढ़ा , जिया गांधी आंखों के सामने चलचित्र की तरह गुजरता रहा पंक्ति दर पंक्ति… और एक नए गांधी को जानने समझने की था नई दृष्टि सम्मोहित करती रही । अनचाहे ही आंखों से झरते रहे आंसू । अभिनंदन