अवांछित बांग्ला कवि मलय रायचौधुरी कल्लोल चक्रवर्ती |
अक्तूबर मलय रायचौधुरी का महीना होता है. 29 अक्तूबर, 1939 को वह पटना में पैदा हुए थे, और 26 अक्तूबर, 2023 को मुंबई में उनका देहांत हो गया. मलय रायचौधुरी को विदा हुए एक साल हो रहा है. कोलकाता ने मलय के साथ जो व्यवहार किया, उसमें पश्चिम बंगाल के साहित्यकारों द्वारा उन्हें याद करने या उनका मूल्यांकन करने की उम्मीद ही नहीं है. लेकिन मलय रायचौधुरी को याद करना हिंदी का कर्तव्य है, क्योंकि बाँग्ला में लिखने, और एक आंदोलन खड़ा करने के बावजूद वह बंगाल से बाहर के व्यक्ति थे. उनका जन्म पटना में हुआ, उन्होंने नौकरी उत्तर प्रदेश और मुंबई में की, जहाँ उनका निधन भी हुआ. बीच में कुछ साल उन्होंने कोलकाता में बिताए जरूर थे, पर उनका वह अनुभव बहुत सुखद नहीं था.
यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बाँग्ला साहित्य ने जब मलय रायचौधुरी का बहिष्कार किया था, तब हिंदी के साहित्यकार उनके साथ खड़े थे.
मलय रायचौधुरी आजाद भारत के शुरुआती कवि थे, जिन्हें कथित अश्लीलता के आरोप में जेल जाना पड़ा. बंगाल में मलय से पहले काजी नजरुल इस्लाम को अपनी राजनीतिक कविता, ‘आनंदमोयीर आगमने’ के लिए जेल जाना पड़ा था. तब भारत गुलाम था. नजरुल की वह कविता सप्ताह में दो बार प्रकाशित होने वाली ‘धूमकेतु’ पत्रिका के 26 सितंबर, 1922 के अंक में छपी थी. तब कुल मिलाकर एक साल तीन सप्ताह तक नजरुल विभिन्न जेलों में रहे थे.
मलय रायचौधुरी के दादा कलकत्ते में फोटोग्राफर थे. उन्हें फोटोग्राफी की ट्रेनिंग लाहौर म्यूजियम के क्यूरेटर रुडयार्ड किपलिंग के पिता ने दी थी. पोर्ट्रेट बनाने के लिए एक से दूसरे राजदरबारों से उन्हें बुलावा आता था. दरभंगा महाराज के परिजनों के पोर्ट्रेट बनाने के लिए वह पटना गये थे. वहीं उनकी मृत्यु हो गयी, तो उनके परिवार के लोग पटना में रह गये. आर्थिक कठिनाइयों के बीच मलय के पिता ने बिहार नेशनल (बी.एन.) कॉलेज के सामने अपने पिता के साइनबोर्ड वाली दुकान ‘रायचौधुरी ऐंड कं’ खोली, जो बाद में दरियापुर में चली गई, और जो लंबे समय तक इस परिवार की पहचान रही.
मलय के दादा लक्ष्मीकांत रायचौधुरी ने नोबेल पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार रुडयार्ड किपलिंग के पिता जॉन लॉकउड किपलिंग से फोटोग्राफी की शिक्षा ली थी, तो मलय के नाना किशोरी मोहन बंद्योपाध्याय नोबेलजयी वैज्ञानिक रोनाल्ड रॉस के सहयोगी थे. रॉस के इंग्लैंड चले जाने के बाद किशोरी मोहन बनर्जी मलेरिया उन्मूलन के लक्ष्य में गाँव-गाँव में मैजिक लालटेन में स्लाइड दिखाकर प्रचार अभियान चलाते थे. संयोग से वे स्लाइड्स मलय के दादा लक्ष्मीकांत रायचौधुरी ने तैयार करके दी थी!
1934 के भूकंप के बाद आर्थिक मजबूरी में मलय के परिवार को पटना के इमलीतला में सस्ता मकान खरीदकर बस जाना पड़ा. पटना के बंगाली भद्रलोक उस गली में नहीं आते थे. मलय के पैदा होने के एक महीने के बाद ही द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो चुका था. इस कारण परिवार में उन्हें अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता था. बमबारी के डर से उनके रिश्तेदार कलकत्ते से भागकर पटना चले आये थे. मलय का बचपन इमलीतला में बीता, जहाँ दलितों और शिया मुस्लिमों का वर्चस्व था. इमलीतला के घर में बिजली नहीं थी, नल भी नहीं था. गली के नल से पानी भरना पड़ता था. आत्मकथा में मलय ने लिखा,
‘तीन साल की उम्र में महादलितों की बस्ती इमलीतला में मैं लट्टू चलाना सीख गया था और आठ साल की उम्र में शरीर की भाषा मुझे समझ में आ गई थी.’
कॉन्वेंट के बाद मलय पटना के ही राममोहन राय सेमिनरी में भर्ती हुए, जो वहाँ का इकलौता बाँग्ला माध्यम का स्कूल था. ब्रह्म समाज के स्कूल में पढ़ने के बावजूद ब्रह्म समाजी रवींद्रनाथ उनके घर-परिवार में प्रतिबंधित थे. ब्रह्म समाज के लोग जहाँ खुद को पृथक मानते थे, वहीं आलोचकों की राय थी कि ब्रहम समाजी रवींद्रनाथ ने शास्त्रीय संगीत को विकृत किया है. इसलिए तत्कालीन बंगाली समाज में रवींदनाथ और रवींद्र संगीत की वैसी स्वीकार्यता नहीं थी. ऐसे लोगों ने नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद भी रवींद्रनाथ का महत्व स्वीकार नहीं किया.
मलय ने लिखा है,
‘इमलीतला के घर में, पटना में, उत्तरपाड़ा में और अपने मामा के यहाँ पानिहाटी में रवि ठाकुर निषिद्ध थे. हमारे घर में उनकी कविताओं और गीतों का प्रवेशाधिकार नहीं था. रवि ठाकुर कौन हैं, और उनके नाम और काम का उल्लेख क्यों नहीं हो सकता, इस बारे में परिवार के बड़े भी नहीं बताते थे. रवि बाबू ही रवींद्रनाथ ठाकुर हैं, इस बारे में इमलीतला के घर में हमारे भाई-बहनों को मेरे ब्रह्म समाज के स्कूल में पढ़ने के कारण पता चल चुका था. रवि बाबू के संपर्क में ऊष्मा के बीज हमारे दादा-दादी रावलपिंडी, क्वेटा या लाहौर से ढोकर लाए थे….मेरे बचपन में पटना के ज्यादातर एलीट बंगाली परिवार ब्रह्म समाजी थे.’ 1.
पटना का बंगाली समाज इमलीतला को छोटे लोगों का टोला कहता था. इमलीतला में बालक मलय खेलते हुए उन लोगों के घर में अबाध घुस जाते थे, जो समाज-विरोधी माने जाते थे. खेलते हुए मसजिद के अंदर घुसने की भी मनाही नहीं थी. उनके घर के दो नौकरों को ‘रामचरितमानस’ कंठस्थ था. इन सबने मलय रायचौधुरी के व्यक्तित्व को गढ़ा था.
मलय के जीवन में कुल चार ठिकाने थे- इमलीतला (दलित आबादी), दरियापुर (मुस्लिम आबादी) नाकतला, कलकत्ता (कम्युनिस्ट) और मुंबई (कॉरपोरेट कल्चर). ये चारों जगहें अपने आप में अजीब थीं. इमलीतला में समाज के निचले तबके के लोग रहते थे, जिनमें से ज्यादातर अपराध से जुड़े थे. दरियापुर में इनका घर एक परित्यक्त कब्रगाह के बगल में था. नाकतला में मलय ने वामपंथियों को झेला. उन्होंने लिखा, ‘इस बंग समाज से मेरा कतई परिचय नहीं था’. मुंबई में मलय की दोस्ती एक ऐसे कवि से हुई, जो आजीविका के तौर पर दूसरों के कुत्तों को सुबह-शाम शौच कराने के लिए ले जाते थे!
इमलीतला की कुख्याति के कारण मलय के बड़े भाई समीर को कलकत्ते में पढ़ने के लिए भेज दिया गया था. समीर कलकत्ते के सिटी कॉलेज में पढ़ते थे और सुनील गंगोपाध्याय, दीपक मजूमदार व आनंद बागची के दोस्त थे. सुनील के पहले कविता संग्रह के लिए पैसे का इंतजाम समीर ने किया था, क्योंकि इन सबमें सिर्फ समीर ही नौकरी करते थे. सुनील की पत्रिका ‘कृत्तिबास’ के फणीश्वरनाथ रेणु अंक का संपादन भी समीर ने किया था.
पढ़ाई के बाद समीर को समुद्री मत्स्य पालन के क्षेत्र में नौकरी मिली. बाद में वह इनलैंड फिशरीज से जुड़ गये, जिससे वह देश के और तटीय क्षेत्रों के मछुआरों के संपर्क में आये. नये काम के सिलसिले में वह चाईबासा, दुमका, डाल्टनगंज, भागलपुर, मुजफ्फपुर और दरभंगा में घूमे. हंग्री आन्दोलन के कवि इन जगहों में मिलते थे. ओक्टोवियो पाज, एलेन गिन्सबर्ग, पीटर ओरियोव्स्की, गैरी सिन्डर, राजकमल चौधरी, रेणु, धर्मवीर भारती और अज्ञेय आदि से समीर की इस दौर में मुलाकात हुई.
भूखी पीढ़ी, जिसे बाँग्ला में ‘क्षुधार्थ प्रजन्म’ कहा गया, और मलय रायचौधुरी के उभार में समीर रायचौधुरी का योगदान सर्वाधिक था. सुनील गंगोपाध्याय और शक्ति चट्टोपाध्याय की मदद समीर ने की थी. पटना में प्रसिद्ध बीट कवि एलेन गिंसबर्ग समीर के आग्रह पर ही आए थे, हालाँकि समीर की गैरमौजूदगी में गिंसबर्ग और उनके समलैंगिक प्रेमी पीटर ओरियोव्स्की की मेजबानी मलय ने की थी. शक्ति चट्टोपाध्याय के प्रथम कविता संग्रह ‘हे प्रेम, हे नैशब्द’ की प्रेम कविताएँ समीर के सान्निध्य में चाईबासा में लिखी गई थीं.
डाल्टनगंज के एक प्रेस में रायचौधुरी बंधु ने अश्लीलता पर ‘इन डिफेंस ऑफ ऑब्सिनिटी’ नाम से मेनिफेस्टो छपवाया था, जिसका बाद में विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुआ. हंग्री आंदोलन पर ‘द हंग्रीयलिस्ट’ नाम से किताब लिख चुकीं मैत्रेयी भट्टाचार्जी चौधुरी का कहना है कि सुनील गंगोपाध्याय का उपन्यास ‘अरण्येर दिनरात्रि’ भी, जिस पर सत्यजित राय ने इसी नाम से फिल्म बनाई थी, चाईबासा में रहते हुए लिखा गया था. लेकिन सुनील ने अपनी किताब में बताया है कि ‘अरण्येर दिनरात्रि’ की पृष्ठभूमि झारखंड का धलभूमगढ़ गाँव था.
मलय ने एलेन गिंसबर्ग के पटना आगमन के बारे में लिखा,
‘गिंसबर्ग 1963 के अप्रैल की गर्मी में हमारे यहाँ आए थे. गंगा में नहाकर, कंधे पर गमछा रखे, और ललाट पर लाल टीका लगाए गिंसबर्ग ने हमारे घर में आकर पिता से हिंदी में पूछा था, मलय है? पिता ने एलेन को कोई संन्यासी समझा. गिंसबर्ग ने मुझे अपना परिचय दिया, तो मैं उन्हें ऊपर के अपने कमरे में ले गया. सच पूछिए, तो मैं तब तक बीट आंदोलन के बारे में कुछ नहीं जानता था. न ही मैंने उनकी ‘हाउल’ कविता पढ़ी थी….जब वह आए थे, तब हमारे घर में सिलिंग फैन नहीं था. मेरी माँ फर्श पर आसन बिछाकर उन्हें खाने के लिए देतीं और पंखा झलती रहती थीं. पटना दर्शन के लिए मैंने एक रिक्शा भाड़ा किया. गिंसबर्ग ने कहा, यह रिक्शा वाला मेरे पिता की उम्र का है, इसलिए मुझे अपराध बोध हो रहा है. फिर रिक्शेवाले को मेरे बगल में बिठाकर वह खुद रिक्शा खींचने लगे….हम गोलघर गए. केयरटेकर हमें अंदर घुसने ही नहीं दे रहा था. जब मैंने कहा कि यह विदेशी हैं, तो उसने अंदर घुसने दिया. गिंसबर्ग ने वहाँ ‘सनफ्लावर’ कविता का पाठ किया. मुझे भी उन्होंने अपनी कविता पढ़ने के लिए कहा. मुझे अपनी कविताएं याद नहीं रहतीं. लिहाजा मैंने ‘प्रचंड वैद्युतिक छुतार’ की आखिरी चार पंक्तियाँ पढ़ीं. गिंसबर्ग ने कहा, तुम्हारी आवाज़ अच्छी है, कविताएँ रेकॉर्ड क्यों नहीं करते? मैंने कहा, उसके लिए पैसे चाहिए, जो मेरे पास नहीं हैं. 2.
मलय के पिता सिद्धांतवादी और स्पष्टवादी थे. गिंसबर्ग जब उनके दरियापुर स्थित घर पर आए थे, तो उन्होंने कई शहरों में घूम-घूमकर खींची गई अपनी तस्वीरें उन्हें डेवलप करने के लिए दी थीं. उन्होंने देखा कि गिंसबर्ग ने केवल दिव्यांगों, भिखारियों, कुष्ठ रोगियों और रास्ते के किनारे पड़े असहाय लोगों की तस्वीरें खींची थी. इस पर क्षुब्ध रणजीत रायचौधुरी ने गिंसबर्ग को भला-बुरा कहा था कि आप कितने ही बड़े कवि-लेखक क्यों न हों, हमारे देश को देखने का आपका नजरिया सही नहीं है.
गिंसबर्ग जब कोलकाता आए, तब सुनील गंगोपाध्याय और शक्ति चट्टोपाध्याय उनके साथ घूमते थे. सुनील गंगोपाध्याय ने लिखा,
‘एलेन ने हम सबको गाँजा पीना सिखाया था. एलेन का खींचा गया एक चित्र ‘कृत्तिबास’ का कवर बना था. उनकी तीन कविताओं का अनुवाद भी ‘कृत्तिबास’ में छपा था. जबकि एलेन ने हम सबकी कुछ कविताओं का अनुवाद ‘सिटी लाइट जर्नल’ में छापा था.’ 3.
गिंसबर्ग के साथ अपने संबंधों के बारे में सुनील गंगोपाध्याय ने और भी बताया है,
‘…और एक नशे का उल्लेख यहाँ करना ही चाहिए. तब एल.एस.डी नाम के एक ड्रग की चारों ओर चर्चा थी. इसका पूरा नाम आज याद नहीं. पागलों के इलाज के लिए यह एक विलक्षण दवा साबित हुई थी. हमें बताया गया था कि इसके सेवन से मनुष्य की कोई भी स्मृति लुप्त नहीं होती. इस दवा का अभी तक परीक्षण ही चल रहा था, इसके साइड इफेक्ट्स के बारे में भी जानकारी नहीं थी. इस बीच नशे के रूप में यह बहुत आकर्षक वस्तु बन गई थी. लुप्त स्मृति भला कौन वापस नहीं पाना चाहता! यह दवा बाजार में नहीं आई थी, लेकिन अमेरिका में विज्ञान के छात्रों को किसी तरह इसकी एक-दो गोलियाँ मिलीं, तो उसके केमिकल एनालिसिस के बाद वे प्रयोगशाला में इसे खुद ही बनाने लगे. प्रतिबंधित दवा के रूप में उस समय इसकी व्यापक मांग थी. एलेन से एल.एस.डी. सेवन के लोमहर्षक विवरण सुनकर हममें भी इसके बारे में कौतूहल पैदा हुआ.
..अपने देश में एल.एस.डी. मिलने का सवाल ही नहीं उठता था. किंतु हिप्पी लोग इसे यहाँ ले आते थे. शक्ति (चट्टोपाध्याय) के अत्यंत आग्रह पर एलेन ने एल.एस.डी. की चार गोलियों का जुगाड़ कर दिया. साथ ही, इसके इस्तेमाल में अत्यंत सावधानी बतरने का बार-बार आग्रह भी किया. उन्होंने बताया कि यह गोली खाने के तुरंत बाद सोना जरूरी है और अगले चार-पाँच घंटे तक हिलना-डुलना मना है….चूँकि प्यास लग सकती है, इसलिए पास में पानी होना जरूरी है. साथ ही, एक आदमी भी जरूरी है, जो नजर रख सके और सीने में दर्द उठने पर तुरंत डॉक्टर के पास ले जाए. …शक्ति के साथ मैंने यह जोखिम उठाने का फैसला किया. …तारापद राय तब महिम हालदार स्ट्रीट में एक मकान में अकेला रहता था. मैं और शक्ति वहीं गोली मुँह में दबाकर एक पलंग पर अलग-बगल लेट गए. तारापद वहीं कुर्सी पर बैठा रहा. सचमुच वह अनुभव जीवन भर याद रखने लायक था.’ 4.
अपने कोलकाता प्रवास में गिंसबर्ग ने भारतीय संस्कृति को यथासंभव समझने की कोशिश की थी. शक्ति चट्टोपाध्याय के साथ वह वीरभूम गए थे, जहाँ उन्होंने बहुचर्चित नवनी दास बाउल से मुलाकात की थी. लालन फकीर के गीत गाने वाले नवनी दास के नेहरू और रवींद्रनाथ जैसे लोग मित्र थे. हालाँकि गिंसबर्ग जब नवनी दास से मिले, तब वह अपनी जर्जर झोपड़ी के अंदर लगे बिस्तर से उठने की स्थिति में भी नहीं थे. 5.
हंग्री आंदोलन की जरूरत क्यों पड़ी? मलय का मानना था समीर रायचौधुरी के तमाम साहित्यिक दोस्त दुनियादार और चालाक थे, जबकि वे दोनों भाई स्वतंत्र चिंतन करने वाले क्रांतिकारी स्वभाव के थे. दोनों भाइयों ने समझ लिया था कि कलकत्ते के दोस्तों पर निर्भर रहकर अपनी बात कह पाना कठिन है. इसलिए उन्होंने एक बुलेटिन निकालने की सोची, जिसके जरिये हंग्री आंदोलन का प्रचार-प्रसार किया जा सकता था.
मैत्रेयी भट्टाचार्जी चौधुरी का मानना है कि कोलकाता यात्रा ने मलय को एकदम बदल दिया, और वहीं से हंग्री आंदोलन की ठोस बुनियाद बनी. अक्तूबर, 1962 में मलय पटना से कोलकाता जाने के लिए नई-नई शुरू हुई ट्रेन जनता एक्सप्रेस पर सवार हुए थे, जो तब दिल्ली होकर कोलकाता जाती थी. मैत्रेयी ने हावड़ा स्टेशन पर मलय के उतरने के बाद समीर के दोस्त त्रिदिव मित्र की एक ऐसी घटना का जिक्र किया है, जिसने जीवन को देखने की मलय की धारणा ही पलट दी. मैत्रेयी के ही शब्दों में,
‘…स्टेशन से बाहर निकलते वक्त अचानक त्रिदिव एक बेंच पर खड़ा हो गया, और एक कागज लहराते हुए जोर-जोर से कहने लगा, आखिरी बार आपने कब ऐसा कविता पढ़ी थी, जो आपको सोचने पर मजबूर करे, जिसे सुनते हुए आप सहमति में सिर हिलाएँ और ऊर्जस्वित होकर अपने हाथ लहराएँ? मेरे पास एक कविता है, हत्याकांड. हर सुंदर चीज खत्म कर दी जा रही है, हर उस चीज की हत्या हो रही है, जो सही है. मुझे सुनिए दोस्तो. हर आदमी का सुनना जरूरी है, ताकि हत्याकांड पर हमेशा के लिए विराम लगाया जा सके….वर्षों बाद मलय पटना स्थित अपने घर पर बैठकर सोच रहे थे कि उससे बेहतर आंदोलन की शुरुआत नहीं हो सकती थी. उससे पहले किसी ने सार्वजनिक तौर पर इस तरह कविता नहीं पढ़ी थीं. 6.
पटना से आए मलय कोलकाता में श्रेष्ठता ग्रंथि से ग्रस्त बंगालियों को आश्चर्य से देख रहे थे. कोलकाता में मलय ने अपने चारों ओर भूख, विवशता और गुस्सा देखा. उन्हें अपने आसपास रोमांस नहीं दिखा, जिस पर तत्कालीन अनेक बाँग्ला कवि लिख रहे थे. 7.
हंग्री आंदोलन पर मलय कहते हैं,
‘भैया के साथ हम स्पेंगलर के दर्शन और अपने आंदोलन के नामकरण के बारे में सोच रहे थे. स्नातक के मेरे अंग्रेजी के पाठ्यक्रम में ज्योफ्रे चॉसर थे. उनकी लिखी गई एक पंक्ति, ‘इन द सावर हंग्री टाइम’ ने मुझे बहुत आकर्षित किया था. हाराधन धाड़ा और शक्ति चट्टोपाध्याय ने सुझाव दिया कि हमारे आंदोलन का नाम हंग्री जेनरेशन या हंग्री आंदोलन रखना चाहिए. तय हुआ कि भैया इसका खर्च देंगे और हाराधन धाड़ा के घर का पता दिया जाएगा. एक पन्ने का बुलेटिन निकालने की बात हुई. इसकी बिक्री नहीं होगी, हाराधन धाड़ा इसे वितरित करेंगे. शक्ति ने कहा कि फिलहाल सुनील (गंगोपाध्याय) को इस बारे में बताने की जरूरत नहीं है. वह भाँप चुके थे कि मेरी और सुनील की सोच में विरोध अनिवार्य है.’ 8.
हंग्री शब्द ज्योफ्री चॉसर की पंक्ति, ‘इन द सावर हंग्री टाइम’ से लिया गया, (व्हेन ए सिविलाइजेशन फॉल्स, पीपल टेन्ड टू ईट एवरीथिंग दैट कम्स देअर वे). जबकि इसका दर्शन ऑसवाल्ड स्पेंग्लर के ‘द डिक्लाइन ऑफ द वेस्ट’ से लिया गया. स्पेंग्लर का कहना था कि किसी संस्कृति का इतिहास सरल रेखा की तरह नहीं होता. उस संस्कृति का पतन तब शुरू होता है, जब उसकी अपनी सृजन क्षमता खत्म हो जाती है, और बाहर से उसे जो भी मिलता है, उसे वह आत्मसात करती जाती है, खाती जाती है. मलय को लगा था कि विभाजन के कारण पश्चिम बंगाल पतन की ओर जा रहा है, ऐसे में, यहाँ 19 वीं सदी के मनीषी बंगालियों का आर्विभाव अब संभव नहीं है. इस कारण बंगाली समाज-संस्कृति को हिला देने जैसा एक आंदोलन जरूरी है.
यह हाराधन धाड़ा कौन थे? मलय के ही शब्दों में,
वर्ष 1960 में एक लघु पत्रिका में मैंने हाराधन धाड़ा नामक एक युवा लेखक की रचना देखी. मैं समझ गया कि इस नाम की अपनी प्रतिभा है, अमूमन ऐसे नामों वाले कवि या लेखक को अब भी स्वीकृति नहीं मिलती. बाद में हावड़ा स्थित उनके घर जाकर, जो एक बस्ती में था, मैंने उन्हें पटना आने के लिए कहा. 9
मलय ने इनके बारे में और भी लिखा है,
‘हाराधन धाड़ा से (1960 में) परिचय हुआ. माँ-बाप का दिया नाम उन्हें पसंद नहीं था, इसलिए एफिडेविट कर उन्होंने अपना नाम बदलकर देवी राय रख लिया, क्योंकि बुद्धदेव बसु और सागरमय घोष जैसे लोग उनकी कविता कूड़ेदान में फेंक देते थे. 10
पटना के बांग्ला प्रेस चूंकि शादी, अन्नप्राशन, जनेऊ और श्राद्ध के कार्ड ही छापते थे, ऐसे में मलय ने अंग्रेजी में कविता का एक मेनिफेस्टो छपवाकर नवंबर, 1961 में हाराधन धाड़ा को भेजा. कलकत्ते में इसके वितरण के साथ ही तूफान मच गया. 1963 में यथास्थितिवादियों के साथ इनका विवाद और बढ़ गया, जब मलय और उनके साथियों ने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री और दूसरे मंत्रियों, सचिवों, डीएम, अखबार मालिकों, संपादकों आदि को राक्षसों, जानवरों, मिकी माउस, ईश्वर इत्यादि के कागज के मुखौटे भेजने शुरू किए और लिखा कि अपने मुखौटे उतार फेंकिए.
अनिल करंजई तथा करुणानिधान मुखोपाध्याय आंदोलन से जुड़े पोस्टर तैयार करते, जिन्हें कॉलेज स्ट्रीट में कॉफी हाउस और कलकत्ता विश्वविद्यालय की दीवारों पर चिपकाया जाता था. पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री तब प्रफुल्ल चंद्र सेन थे. फिर हंग्री आंदोलनकारी कोलकाता के नामचीन लोगों को शादी के कार्ड भेजने लगे, जिनमें दिग्गज बाँग्ला कवियों की आलोचना की जाती थी. मलय और उनके साथियों ने बाँग्ला अखबारों के दफ्तरों में छोटी कहानी के नाम पर कोरे कागज और पुस्तक समीक्षा के नाम पर जूते के बक्से भेजे, जिनसे कोलकाता का बाँग्ला मीडिया इन लोगों पर क्षुब्ध था. तत्कालीन बाँग्ला कविताओं का मजाक उड़ाते हुए शादी के कार्ड में ‘फक द बास्टार्ड्स ऑफ गांगशालिक स्कूल ऑफ पोएट्री’ लिखकर गण्यमान्य लोगों को भेजा गया. इसके बाद तो जैसे आग ही लग गई.
क्या भूखी पीढ़ी का संबंध भूख से था? मलय ने बार-बार कहा कि हंग्री आंदोलन शाब्दिक अर्थ में भूखी पीढ़ी नहीं है, जैसा कि इसे समझ लिया जाता है. हंग्री आंदोलन मूलत: एक खराब दौर की आवाज़ है. विभाजन के बाद की हिंसा, शरणार्थी समस्या और हिंसा के खिलाफ यह आंदोलन शुरू हुआ था. मलय ने स्पष्ट किया कि हंग्री जेनरेशन को पेट की भूख या यौन क्षुधा मान लिया गया, जो गलत है. असल में हंग्री कवि एक खराब दौर को हंग्री जेनरेशन कह रहे थे.
मलय ने एकाधिक इंटरव्यू में स्पष्ट किया था कि सियालदह स्टेशन पर शरणार्थियों की भीड़ देखकर उन्हें आंदोलन शुरू करने का ख्याल आया था. हजारों की संख्या में ये शरणार्थी दलित थे, जिन्हें बाँग्ला में नमोशूद्रो कहते हैं. सवर्ण शरणार्थियों को तो मदद मिल रही थी, लेकिन इन्हें कोई नहीं पूछ रहा था. मलय ने आत्मकथा में दोटूक कहा,
‘हम साहित्यिक नहीं, सामाजिक आंदोलन करना चाहते थे. पटना से अँग्रेजी में पहला बुलेटिन निकला, क्योंकि वहाँ बाँग्ला प्रेस नहीं था. फिर देवी राय यानी हाराधन धाड़ा ने जब यह जिम्मा लिया, तो कलकत्ते से बाँग्ला में बुलेटिन निकलने लगा. हमने शक्ति चट्टोपाध्याय के नाम का इस्तेमाल किया, क्योंकि वह जाने-माने कवि थे, जबकि हमें कोई जानता नहीं था. शक्ति भी तैयार थे. हंग्री आंदोलन सिर्फ साहित्य को लेकर नहीं था, बल्कि समाज, राजनीति, धर्म आदि मुद्दों पर केंद्रित था. शुरू में इन सबको महत्व भी मिला. बाँग्ला अखबार ‘युगांतर’ ने लगातार दो दिन इन मुद्दों पर संपादकीय लिखा था. लेकिन शक्ति चट्टोपाध्याय और मेरे भैया के कारण तथा कवियों की भीड़ बढ़ने के कारण इस आंदोलन को कविता के आंदोलन के तौर पर देखा जाने लगा.’
हंग्री आंदोलन का दौर पश्चिम बंगाल में शरणार्थी समस्या, गरीबी और भीषण बेरोजगारी का भी दौर था. हंग्री बुलेटिन इन समस्याओं पर केंद्रित होते थे. इस आंदोलन से जुड़े कवि भी बेहद गरीबी में जीवन बिताते थे. सरकारी शौचालयों में निवृत्त होना, महीनों तक एक ही कपड़े पहनना, सस्ते होटलों में खाना और मारवाड़ी सेठों की गद्दियों में रात बिताना आसान काम नहीं था. युवा पीढ़ी का एक हिस्सा इनके प्रति आकर्षित था, लेकिन मध्यवर्गीय बंगालियों का सौंदर्य बोध भूखी पीढ़ी के कवियों से नहीं मिलता था. मलय ने लिखा,
‘मैं इमलीतला का किशोर था, जहाँ डोम, चमार आदि रहते थे. वे सूअर, चूहा खाते थे. बांग्ला कविता की संस्कृति यह नहीं हो सकती थी.’
दलितों की उपस्थिति के कारण भी श्रेष्ठता ग्रंथि से ग्रस्त बंगाली मानस हंग्री आंदोलन को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं था,
‘हंग्री आंदोलन के सदस्य सुविमल (बसाक) और अवनी धर नीची जातियों से आते थे, जिससे लोग क्षुब्ध थे. जल्दी ही कुछ अखबारों और साहित्यिक पत्रिकाओं ने आंदोलन का मजाक उड़ाना शुरू किया’ 11
दलितों के साथ दोस्ती दिखाने के लिए हंग्री कवि खुलेआम गोमांस और सूअर का मांस खाते थे. गिंसबर्ग ने मलय से पूछा था कि निषिद्ध मांस का सेवन क्या वे हिंदू भावनाओं को आघात पहुँचाने के लिए करते हैं. इस पर मलय ठठाकर हँस पड़े थे. 12
शक्ति ने ‘कृत्तिबास’ ग्रुप के कवि विनय मजूमदार को हंग्री जेनरेशन से जोड़ा था. विनय का कविता संग्रह, ‘फिरे एसो चाका’ की बहुत प्रशंसा हुई थी. विनय ने वह संग्रह अपनी प्रेमिका गायत्री को (जो बाद में गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक के नाम से जानी गईं) समर्पित किया था.
अपने अभाव भरे जीवन के कारण जीवनानंद से तुलनीय विनय खुद को बांग्ला के पहले नमोशुद्रो (चांडाल) कवि मानते थे. उनकी चर्चित कविता ‘एकटि उज्ज्वल माछ’ हंग्री बुलेटिन में प्रकाशित हुई थी.
शरणार्थियों की समस्या पश्चिम बंगाल की सबसे बड़ी समस्या थी. लेकिन इस मुद्दे पर केंद्र का रवैया बहुत उदासीन था, जिससे राज्य के युवा क्षुब्ध थे. तब पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन था, और इंदिरा गांधी के मंत्री मेहरचंद खन्ना ने, जो नेहरू सरकार में पुनर्वास मंत्रालय संभाला करते थे, झूठ बोला था कि पूर्वी पाकिस्तान के शरणार्थियों को पश्चिम पाकिस्तान के शरणार्थियों से ज्यादा आर्थिक मदद दी गई.13.
मैत्रेयी भट्टाचार्जी चौधुरी ने लिखा है कि पचास के दशक में पूर्वी पाकिस्तान से हिंदू शरणार्थी आने लगे थे. उनमें दलितों की संख्या अधिक थी. पश्चिम बंगाल के बंगाली इन शरणार्थियों को नीची नजर से देखते थे. मलय भी, जिनकी पहचान प्रवासी बंगाली की थी, यहाँ एक किस्म के शरणार्थी ही थे. 14
हंग्री आंदोलन के कवियों में सुभाष घोष, शैलेश्वर घोष, प्रदीप चौधुरी और शुभो आचार्य-तत्कालीन पूर्व बंगाल से आए हुए शरणार्थी थे. आंदोलन से जुड़े दूसरे साथी भी कमजोर सामाजिक पृष्ठभूमि से थे. हावड़ा की झुग्गी में रहने वाले देवी राय स्कूल जाने से पहले चाय की दुकान पर काम करते थे. अवनि धर पहले जहाज में खलासी थे, बाद में कलकत्ते में सड़क किनारे कोयला बेचते थे. सुविमल बसाक के कर्ज में डूबे पिता ने आत्महत्या कर ली थी. पिता को कम उम्र में खो देने वाले शक्ति चट्टोपाध्याय का बचपन भी अभाव और संघर्षों में बीता था.
सब कुछ ध्वस्त कर देने से संबंधित भूखी पीढ़ी के कवियों का क्षोभ अकारण नहीं था. यह क्षोभ जितना पश्चिम बंगाल में व्याप्त यथास्थितिवाद पर था, उतना ही क्षोभ पश्चिम बंगाल के प्रति केंद्र सरकार के उदासीन रवैये पर भी था. वर्ष 1950 में पश्चिम बंगाल की प्रति व्यक्ति आय देश में सर्वाधिक थी. महाराष्ट्र दूसरे नंबर पर था. वर्ष 1966 तक आते-आते प्रति व्यक्ति आय के मामले में पश्चिम बंगाल आठवें नंबर पर खिसक गया. 15
और ऐसा किस तरह हुआ? बिहार और बंगाल सर्वाधिक कोयला उत्पादन करने वाले राज्य थे. लेकिन इनकी कीमत पर महाराष्ट्र को समृद्ध करने की राजनीति बनी. पश्चिम बंगाल से दूसरे राज्यों में कोयला काफी सस्ती दर पर ले जाया जाता था. रानीगंज से बॉम्बे तक कोयले की प्रति टन ढुलाई की दर 57.30 रुपये थी, लेकिन बॉम्बे से कलकत्ते तक नमक का किराया कहीं ज्यादा 73.90 रुपये प्रति टन था! 16
हंग्री आंदोलन के दौरान शक्ति ने एक बार कोलकाता के खलासीटोला में कविता पाठ का फैसला लिया था. खलासीटोले में सस्ती देसी शराब मिलती थी. प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक ऋत्विक घटक और प्रख्यात कथाकार कमल कुमार मजूमदार खलासीटोले में प्राय: पाए जाते थे. हाराधन धाड़ा, सुविमल बसाक और मलय रायचौधुरी वहाँ जाने लगे. इन्होंने खलासीटोले में हंग्री बुलेटिन की सैकड़ों प्रतियाँ बाँटीं. ये तीनों हंग्री आंदोलन की त्रिमूर्ति थे, और कोलकाता के अखबारों में आए दिन इन तीनों पर कार्टून छपते थे.
वर्ष 1961 के 1965 के बीच भूखी पीढ़ी के सौ से भी अधिक मेनिफेस्टो जारी किए गए. इन घोषणापत्रों में राजनीति और धर्म पर भी चर्चा होती थी. सुविमल बसाक बुलेटिन के लिए स्केच बनाते थे. एक बुलेटिन में ईश्वर के अस्तित्व को नकारा गया था. हंग्री बुलेटिन में जो कविताएँ चर्चित हुई थीं, उनमें शंभु रक्षित की कविता ‘आमि स्वेच्छाचारी’ भी थी. शक्ति चट्टोपाध्याय ने इसी शीर्षक से एक कविता बाद में लिखी थी. शक्ति की दो और चर्चित कविताएं, ‘जेते पारि किंतु कैनो जाबो’ (जा सकता हूँ पर क्यों जाऊँ) और ‘हेमंतेर अरण्ये आमि पोस्टमैन देखेछि’ (हेमंत में मैंने जंगल में पोस्टमैन देखा) तथा मलय की दो कविताएँ ‘जखम’ (जख्म) और ‘चाँदोवाए आगुन लागिए’ (शामियाने में आग लगाकर) हंग्री पीढ़ी की बुलेटिन्स में ही छपकर प्रसिद्ध हुई थीं. फाल्गुनी राय की कविताएँ भी युवाओं में लोकप्रिय हो रही थीं. मई, 1964 में 16 पेज का हंग्री बुलेटिन जारी हुआ था, जिसमें मलय की कविता, ‘प्रचंड वैद्युतिक छुतार’ छपी थी.
प्रचंड वैद्युतिक छुतार
‘शुभा मुझे अपने तरबूज अंगरखे में जाने दो
…माँ तुमने मुझे कंकाल के रूप में जन्म क्यों नहीं दिया
तब मैं दो करोड़ आलोकवर्ष ईश्वर के चूतड़ चूम सकता
…सब तोड़कर टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा साला
शुभा को खींचकर ले जाऊँगा अपनी भूख में.
मेरी स्मृति नष्ट हो रही है
अकेले मृत्यु की ओर जाने दो मुझे
बलात्कार और मृत्यु के बारे में मुझे सीखना नहीं पड़ा
अँधेरे में शुभा के बगल में जाकर सोना सीखना नहीं पड़ा
न ही सीखना पड़ा नन्दिता के सीने पर लेटकर फ्रेंच चमड़े का व्यवहार करने के बारे में
…समझ नहीं आ रहा कि मैं जिंदा क्यों रहना चाहता हूँ
अपने लंपट पूर्वजों सावर्ण रायचौधुरियों के बारे में मैं सोच रहा हूँ
मुझे कुछ नया और अलग करना होगा
मैं अपनी मृत्यु देख जाना चाहता हूँ
मलय रायचौधुरी की जरूरत इस दुनिया को नहीं थी
…सब कुछ तोड़-फोड़, तहस-नहस कर जाऊँगा
शिल्प के लिए सबके कर दूंगा टुकड़े-टुकड़े
कविता के लिए आत्महत्या के सिवा कुछ स्वाभाविक नहीं…’
शुभा उनकी साहसी, बल्कि दुस्साहसी प्रेमिका थी. मलय ने आत्मकथा में शुभा को रोमांटिक प्रेमिका कहा है.
मलय उस समृद्धशाली सावर्ण रायचौधुरी खानदान से थे, जिसकी आधुनिक कोलकाता के निर्माण में ऐतिहासिक भूमिका थी, लेकिन कोलकाता में मलय अवांछित और उपेक्षित थे. शायद ही कोई एक कविता किसी कवि की ऐसी खतरनाक पहचान रही होगी, जैसी कि ‘प्रचंड वैद्युतिक छुतार’ से मलय की पहचान बनी. इस कविता में मलय अपने सावर्ण रायचौधुरी खानदान पर व्यंग्य करते दिखते हैं.
इस बुलेटिन की प्रतियाँ महीनों तक कॉलेज कैंटीनों, यूनिवर्सिटी कैंपसों और दूसरी जगहों पर बाँटी गईं. तब मलय कोलकाता में ही थे. उन्होंने देवी से पूछा था कि क्या इस पर कोई प्रतिक्रिया हुई? लेकिन चारों ओर आश्चर्यजनक चुप्पी थी. हालाँकि अंदर ही अंदर प्रतिक्रियाएँ होने लगी थीं. शायद ही किसी ने ऐसी कविता पहले कभी पढ़ी थी, लिखने की तो बात ही छोड़ दें. मलय को सुनील (गंगोपाध्याय) की टिप्पणी सुनने को मिली कि यह कविता पढ़कर उल्टी करने का मन कर रहा है. अकेले आनंद बागची मलय की इस कविता के प्रशंसक पाए गए. मलय को यह भी पता चला कि इस कविता के विरोध में हावड़ा में एक विरोध सभा बुलाई जाएगी. 17.
पटना लौटने पर मलय को देवी ने चिट्ठी लिखकर बताया कि कुछ लोगों ने मलय की गिरफ्तारी की मांग की है, और पुलिस कार्रवाई हो सकती है. दो सितंबर, 1964 की सुबह मलय पटना में थे, जब उनके पास समीर का फोन आया. पुलिस उन्हें चाईबासा से गिरफ्तार कर कोलकाता ले आई थी. अब मलय की गिरफ्तारी की बारी थी. कुल ग्यारह लोगों के खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट था, और मलय मुख्य अभियुक्त थे. उसी दिन कोलकाता पुलिस ने मलय के घर पर धावा बोला. चार सितंबर, 1964 को पटना में मलय की गिरफ्तारी हुई. कोलकाता ले जाने से पहले मलय को पटना जेल के जिस सेल में रखा गया, उसमें दो डाकू, दो चोर, एक हत्यारा और एक पॉकेटमार थे.18.
मलय और उनके साथियों की गिरफ्तारियों पर ‘टाइम’ मैग्जीन ने 20 नवंबर, 1964 के अंक में लिखा:
‘एक हजार वर्ष पहले भारत वात्स्यायन के कामसूत्र की भूमि था, वह शास्त्रीय ग्रंथ, जिसमें प्रेम को इतना विस्तार दिया गया है कि इसके अनुवादक अब भी इसके कुछ संस्कृत शब्दों को वैसे ही छोड़ देते हैं. पिछले सप्ताह उसी भारत में पाँच मैले-कुचैले युवा कवियों को कलकत्ते के बैंकशाल कोर्ट परिसर में ऐसी रचनाएँ छापने के जुर्म में गिरफ्तार कर ले जाया गया, जिनकी रचना करते हुए संभवत: वात्स्यायन की कलम भी शरमा जाती. भूखी पीढ़ी का अंतत: आगमन हो चुका है.
कोलकाता की भूखी पीढ़ी में, जिन्हें अमेरिका से आए बीट कवि एलेन गिंसबर्ग से प्रेरणा मिली, युवा बंगाली बड़ी संख्या में हैं. भले यह उनकी मौलिक धारणा न हो, पर शारीरिक प्रेम में ही वे जीवन का अर्थ देखते हैं, और आधुनिक समाज को अपने जीवन में आए खालीपन का जिम्मेदार मानते हैं. सस्ते कागजों पर उन्होंने अपनी उत्तेजक काम भावनाएँ उड़ेल दी हैं. इन लेखनी में ज्यादातर या तो उनके अनुभव हैं, या फिर उनके सपनों के हिस्से हैं. छब्बीस साल के हंग्री कवि शैलेश्वर घोष, जो कि एक शिक्षक हैं, कहते हैं, मैं ही विषयवस्तु हूँ. जो मैं अनुभव करता हूँ, उन्हीं को अभिव्यक्त करता हूँ. मुझे हताशा का एहसास होता है. भूख तो मुझे बेचैन करती ही है, मैं प्रेम का भी भूखा हूँ.‘
28 दिसंबर, 1965 को मजिस्ट्रेट ने मलय की कविता ‘…छुतार’ को अश्लील बताते हुए दो सौ रुपये जुर्माना या एक महीना कैद की सजा दी. मलय ने इस फैसले के खिलाफ कलकत्ता उच्च न्यायालय में अपील की. मलय को सुनवाई के दौरान रोज अदालत पहुँचना पड़ता था, और कलकत्ते में उनके ठहरने की कोई जगह नहीं थी. गिरफ्तारी के बाद पत्रिकाओं ने उन्हें छापने से इनकार कर दिया था. उन्हें अपने दोस्त सुविमल के चाचा की दुकान में शरण मिली. शौच के लिए वह सियालदह स्टेशन जाते थे. उधर मलय की गिरफ्तारी पर स्तब्ध गिंसबर्ग भारत के बौद्धिकों को चिट्ठियाँ लिखे जा रहे थे. अशोक शहाणे, दिलीप चित्रे और अरुण कोलटकर ने मराठी साहित्य में हंग्री आंदोलन और मलय रायचौधुरी के महत्व को रेखांकित किया. यही काम गुजराती में उमाशंकर जोशी और उर्दू में अमीक हनफी कर रहे थे. बौद्धिकों के दबाव में निचली अदालत के फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी गई. उधर मलय की मदद करने के लिए न्यूयॉर्क के सेंट मार्क्स चर्च में हंग्री आंदोलन की कविताओं का पाठ किया गया.
पुलिस और अदालत की मार पड़ते ही हंग्री आंदोलन के ‘विद्रोहियों’ ने एक-एक कर रंग बदलना शुरू कर दिया. समीर, मलय और देवी ही पुलिस हिरासत में थे. प्रदीप चौधुरी के साथ शुभो आचार्य त्रिपुरा भाग गए, और बाद में वह देवघर में अनुकूल ठाकुर के शिष्य बन गए. वासुदेव दासगुप्त से पूछताछ नहीं हुई, क्योंकि उनका प्रकाशक पुलिस से मिला हुआ था. रामानंद कोलकाता से भाग गए. सुभाष और शैलेश्वर घोष ने कहा कि उनका हंग्री आंदोलन से लेना-देना नहीं. यही नहीं, इन दोनों की गवाही पर ही मलय को एक महीने की सजा हुई थी. त्रिदिव मित्र और उनकी पत्नी आलो अपने खिलाफ घृणा से ध्वस्त हो गए. इन दोनों ने कोलकाता में भूखी पीढ़ी के आंदोलन में काफी काम किया था. अनिल करंजय के पोस्टरों को गलियों में चिपकाने से लेकर पत्रिकाओं के दफ्तरों में मुखौटे और जूते के बक्से पहुँचाने का काम यही दोनों करते थे. उत्पल कुमार बसु की कॉलेज की नौकरी चली गई. हालांकि गिंसबर्ग की मदद से उत्पल को लंदन में नौकरी मिल गई थी. लेकिन जब पुलिस ने उन्हें जाने नहीं दिया, तो उन्होंने भी मलय के खिलाफ गवाही दी. 19.
मलय रायचौधुरी की माँ ने, जो बँगाल के एक प्रगतिशील परिवार की थी, यह कविता न सिर्फ पढ़ी थी, बल्कि अपनी सास और पति को पढ़कर सुनाई भी थी. उन्हें इस कविता में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा था. मलय के जीवन में महिलाओं की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही. पटना की बस्ती इमलीतला में उम्र में बड़ी कुलसुम ने शरीर के रिश्तों के साथ ग़ालिब और फैज़ की रचनाओं से उन्हें परिचित कराया था. राममोहन राय सेमिनरी में लाइब्रेरियन नमिता चक्रवर्ती ने उन्हें मार्क्सवाद और रवीन्द्रनाथ-जीवनानन्द की रचनाओं के वैविध्य के बारे में बताया. इस महिला के प्रति किशोर मलय आकर्षित हुए थे और उन्हें प्रेमपत्र लिखकर दिया था. ऐसे ही, प्रेमिका शुभा के साथ रिश्ते ने उन्हें प्रेम के नये आयाम तक पहुँचाया. ‘प्रचण्ड वैद्युतिक छुतार’ कविता के केंद्र में यही साहसी, बल्कि दुस्साहसी, शुभा हैं. और जब इस कविता पर हंगामा हुआ, तब खुद मलय की माँ इस कविता के समर्थन में खड़ी हुईं. ऐसे में, मलय की कविताओं को स्त्री-विरोधी, देहवादी या उच्छृंखल मान लेने का बहुत औचित्य नहीं है. मुकदमा चलने के दौरान पिता रणजीत रायचौधुरी भी बेटे का हौसला बढ़ाने कलकत्ता आये थे.
हंग्री आंदोलन में जो लोग मलय-समीर के साथी थे, उनमें से ज्यादातर ने अदालत में मलय के खिलाफ गवाही दी थी. केवल दीपक मजूमदार ने मलय के पक्ष में समर्थन जुटाने की विफल कोशिश की थी. अदालत में सुनवाई चलने के दौरान मलय को काफी मुसीबतों का सामना करना पड़ा, क्योंकि आंदोलन के साथी उनके विरुद्ध थे और कलकत्ते में उनका ठिकाना नहीं था. उस दौरान मलय ने कई रातें ‘नया ज्ञानोदय’ के संपादक शरद देवड़ा की मारवाड़ी गद्दी में सोकर बिताईं.
हालाँकि अमेरिका से भारत लौटे सुनील गंगोपाध्याय ने मलय के पक्ष में गवाही दी थी. लेकिन मलय का कहना है कि वह उनकी राजनीति थी और गवाही देते समय तक उन्होंने ‘छुतार’ कविता पढ़ी भी नहीं थी. मलय ने लिखा है,
‘सुनील शुरुआत में मेरे पक्ष में गवाही देने के लिए तैयार नहीं थे. लेकिन जैसे ही उन्हें पता चला कि शक्ति चट्टोपाध्याय, संदीपन चट्टोपाध्याय और उत्पल कुमार बसु ने मेरे खिलाफ गवाही दी है, तभी उन तीनों को सबक सिखाने के लिए सुनील ने मेरे पक्ष में गवाही देने का फैसला कर लिया.’
हंग्री आंदोलन और अपने ऊपर लगे आरोपों पर सुनील गंगोपाध्याय ने आत्मकथा, ‘अर्धेक जीवन’ (आधा जीवन) में अपना पक्ष विस्तार से रखा है,
‘मेरे स्वदेश लौटने (अमेरिका से) के एक-दो दिन बाद ही हंग्री पीढ़ी के समीर रायचौधुरी और मलय रायचौधुरी को पुलिस ने गिरफ्तार किया था. समीर कॉलेज के दिनों से ही मेरे दोस्त थे, चाईबासा और डाल्टनगंज के उसके घर में हमने न जाने कितने दिन, कितनी रातें गुजारी थीं. समीर मेरे पहले काव्य संग्रह के प्रकाशक भी थे. मलय को भी मैं उसकी छोटी उम्र से पहचानता था. कृत्तिबास में दोनों भाइयों की रचनाएँ प्रकाशित हुई थीं. हंग्री आंदोलन की शुरुआत मेरी अनुपस्थिति में और मेरी जानकारी के बगैर हुई थी. तब इंग्लैंड के एंग्री यंगमैन और अमेरिका के बीट जेनरेशन के मिले-जिले प्रभाव से शायद हंग्री आंदोलन ने आकार ग्रहण किया था. इसके पीछे संभवत: गिंसबर्ग की प्रेरणा भी काम कर रही थी. इस आंदोलन में मुख्य भूमिका मलय की थी. शक्ति, संदीपन, उत्पल कुमार बसु जैसे जो लोग कृत्तिबास का अभिन्न अंग थे, वे भी बिल्कुल शुरुआत से ही हंग्री आंदोलन से जुड़ गए थे. यानी कृत्तिबास के बड़े हिस्से के जरिये ही इस आंदोलन की शुरुआत हुई, लेकिन मुझे इसके बारे में कुछ भी बताया नहीं गया….साहित्य का एक नया आंदोलन सिर्फ इश्तहारों और नारों के जरिये संभव नहीं हो सकता. नया कुछ लिखना भी पड़ता है. हंग्री आंदोलन के कवि और गद्य लेखक नए तरह के लेखन में साहित्यिक मूल्य की तलाश कर रहे थे, जिसे मैं दूर से देख रहा था. हंग्री जेनरेशन नाम मुझे अरुचिकर लगा था. एलेन गिंसबर्ग को मैंने अपनी श्रेणी के दोस्त के रूप में देखा था. उनसे प्रेरणा लेने या उनका अनुसरण करने के बारे में मैंने सोचा नहीं था….लेखन के अलावा भी हंग्री जेनरेशन ने कुछ कांड किए. जैसे, कुछ व्यक्तियों को मुखौटा भेजकर कहा गया कि अब से यह मुखौटा लगाकर रखिए….इन्हें सिर्फ मजाक नहीं माना जा सकता. इनका समर्थन भी नहीं किया जा सकता. चूँकि हंग्री जेनरेशन के साथ कृत्तिवास समूह के अनेक लेखक जुड़े थे, इसलिए कृत्तिवास के एक अंक में मुझे सफाई देनी पड़ी कि हंग्री जेनरेशन के क्रियाकलापों से कृत्तिवास का कोई लेना-देना नहीं है.
…पुलिसिया तत्परता के कारण हंग्री आंदोलन के प्रमुख लोगों ने मुचलका देकर यह घोषित किया कि भविष्य में वे इस आंदोलन से कोई रिश्ता नहीं रखेंगे. समीर भी रिहा हो गए, लेकिन अश्लीलता के आरोप में मलय रायचौधुरी के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ. तब कुछ दिनों के लिए मलय अकेला पड़ गया था. मामले की सुनवाई से पहले मलय ने मेरे पास आकर मुझसे उसके पक्ष में गवाही देने के लिए कहा. मैंने तभी उसे बता दिया था कि दुनिया के किसी भी देश में साहित्य के मामले में पुलिस के हस्तक्षेप का मैं विरोध करूंगा. साहित्य से जुड़ा फैसला पाठक ही ले सकते हैं, इसमें सरकार द्वारा फैसला लेने का अधिकार नहीं है. मलय को अपना पूरा समर्थन देने के लिए मैं राजी था. लेकिन जिस कविता पर अश्लीलता का आरोप था, वह मुझे कतई सार्थक कविता नहीं लगी. मलय का कहना था कि इस तरह गवाही देने से काम नहीं चलेगा. कविता को परे हटाकर सिर्फ कवि को समर्थन देने को अदालत नहीं स्वीकारेगी.
पहली बार मैं कठघरे में खड़ा हुआ. सरकारी पक्ष के वकील ने कविता की कुछ अश्लील लगती पंक्तियाँ पढ़ते हुए मुझसे पूछा, आप इन पंक्तियों को जोर से पढ़िए.
मैंने वह हिस्सा पढ़ा. उन्होंने पूछा, क्या यह हिस्सा आपको अश्लील नहीं लगता? ऐसे लेखन से क्या समाज का नुकसान नहीं होता?
नहीं. महज कुछ शब्दों को अश्लीलता का आधार नहीं बनाया जा सकता. और मेरा मानना है कि ऐसी रचना से समाज का कोई नुकसान नहीं होता.
आपके मुताबिक क्या यह एक सार्थक कविता है?
थोड़ी दुविधा के बावजूद मैंने जोर देकर कहा, हाँ, यह एक सार्थक कविता है.
दोस्त के भाई के लिए इतना-सा झूठ बोलते हुए मुझे खराब नहीं लगा.’ 20.
आखिर 26 जुलाई, 1967 को कलकत्ता हाई कोर्ट ने मलय को बेकसूर बताकर रिहा कर दिया. रिहाई के बाद मलय बाहर तो आ गए, लेकिन कविता और साहित्य के प्रति उनका जुनून अब पहले जैसा नहीं था. यही नहीं, शक्ति समेत दूसरे बाँग्ला लेखक भी अब उनके निशाने पर थे. मलय के मुताबिक, शक्ति चट्टोपाध्याय इस आंदोलन से निकल गये, क्योंकि उन्हें ‘आनंदबाजार’ में नौकरी करनी थी. उनकी कविता पर इस आंदोलन का असर नहीं पड़ा, सुनील की कविताओं पर जरूर पड़ा. उनकी कविताओं में यौन भावनायें दिखीं. दरअसल नौकरी के सिलसिले में चाईबासा पहुँचने के बाद समीर को सुधीर चट्टोपाध्याय की बेटी बेला से प्रेम हुआ, फिर दोनों ने शादी की. बेकारी के दिनों में शक्ति समीर के पास चाईबासा में लंबे समय तक न सिर्फ रहे थे, बल्कि समीर की साली से उनका प्रेम हो गया था. लेकिन सुधीर चट्टोपाध्याय ने शराब पीने वाले बेरोजगार युवक शक्ति से अपनी बेटी की शादी को मंजूरी नहीं दी. मलय के मुताबिक इसी कारण समीर और उनसे नाराज शक्ति ने हंग्री आंदोलन से बाहर निकलने का फैसला किया था.
हंग्री ग्रुप के बिखरने के कारणों की मलय ने सही तसदीक की थी. शक्ति चट्टोपाध्याय के बारे में उन्होंने लिखा, ‘आनंदबाजार से नौकरी के ऑफर और चाईबासा में प्रेमिका के परिवार द्वारा खारिज कर दिए जाने के कारण शक्ति अब हंग्री आंदोलन से बाहर होना चाहते थे. इसी के तहत उन्होंने विनय मजूमदार की पुस्तक की समीक्षा करते हुए उन्हें हंग्री जेनरेशन का नेता घोषित कर दिया. हंग्री आंदोलन के सहभागी बेशक इससे खुश नहीं थे, लेकिन कुछ समय बाद शरद देवड़ा ने भी कॉलेज स्ट्रीट का नया मसीहा नाम की अपनी किताब में विनय मजूमदार को हंग्री ग्रुप का नेता बताया.’ 21.
यह अलग बात है कि विनय मजूमदार के शक्ति चट्टोपाध्याय से मतभेद हुए, फिर वह हंग्री आंदोलन से बाहर हो गए. मलय का कहना था कि सुनील गंगोपाध्याय और शंख घोष, दोनों हंग्री विरोधी थे,
‘हालाँकि सुनील ने मेरे पक्ष में गवाही दी थी. लेकिन वह उनकी राजनीति थी. वर्ष 1964 में एलेन गिंसबर्ग जब मेरी गिरफ्तारी के खिलाफ चारों ओर लिख रहे थे, तब अमेरिका में ही रह रहे सुनील ने उन्हें कहा था कि मलय की कविताएँ स्टिंकी हैं, कलकत्ते में उसकी कविताएँ कोई नहीं पढ़ता. इस पर गिंसबर्ग ने मेरे पक्ष में चलाई जा रही अपनी गतिविधियाँ रोक दीं.’ 22.
हंग्री आंदोलन के संदर्भ में मलय ने तमाम बांग्ला साहित्यकारों को कठघरे में खड़े किया है. शंख घोष के बारे में उन्होंने लिखा,
‘वर्ष 1971 में शंख घोष ने ‘शब्द और सत्य’ नामक अपने निबंध में लिखा था कि कविता लिखने के जुर्म में इसी शहर के कुछ युवाओं को एक दिन जेल में रहना पड़ा था, जो आज इतिहास है. 28 दिसंबर, 1965 को मुझे एक महीने की कैद की सजा का एलान हुआ था, जिसके बारे में शंख घोष को 1971 में भी पता नहीं था. क्या कहूँ? हंग्री आंदोलन का जिन्होंने सबसे अधिक नुकसान पहुँचाया, उनमें अबू सईद के बाद शंख घोष, और निश्चय ही सुनील गंगोपाध्याय का नाम लिया जाना चाहिए’. 23.
बंगाल के दूसरे साहित्यकारों पर उनकी एक टिप्पणी देखने लायक है :
‘वर्ष 1964 में कविता भवन का दरवाजा खोलकर बुद्धदेव बसु के सामने आते ही मैंने कहा था, मेरा नाम मलय रायचौधुरी है. उन्होंने तुरंत दरवाजा बंद कर दिया था. बंद दरवाजे के सामने खड़े होकर मैंने कहा था, हुर्रे, ताकि वह सुन सकें. बुद्धदेव बसु, सुनील गंगोपाध्याय, जय गोस्वामी, सुबोध सरकार, इनमें से किसी का भी नाली के पास बैठकर हगने का अनुभव नहीं है. इसीलिए ये अमर हैं.’ 24.
बांग्ला साहित्यकारों के विपरीत मलय ने आत्मकथा में जगह-जगह हिंदी साहित्यकारों के प्रति कृतज्ञता जताई है, वर्ष 1965 में बनारस में मेरी जख्म कविता के हिंदी अनुवाद को, जो कंचन कुमार ने किया था, छिपाकर सरकारी प्रेस से छपवाने की व्यवस्था हिंदी और मैथिली के साहित्यकार नागार्जुन ने की थी. 25.
‘…फणीश्वरनाथ रेणु को मैं 1950 से ही जानता था…. उन्हें पता नहीं था कि मैं लिखता हूँ. वर्ष 1964 में मेरी गिरफ्तारी के बाद जब उन्हें सच्चाई पता चली, तो उन्होंने हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में हमारे बारे में लिखा, जबकि तब बांग्ला पत्र-पत्रिकाएं हमारे………. में बाँस कर रही थीं. रेणु ने अपने लेख में अज्ञेय को उद्धत किया, तो उन्होंने भी हमारी मदद की. अपनी पुस्तक वनतुलसी की गंध में रामपाठक की डायरी लेख में उन्होंने हंग्री आन्दोलन पर विस्तार से लिखा था. …वर्ष 1965 में हिंदी कवि रामधारी सिंह दिनकर ने अपने घर पर बुलाया था. रेणु के यहाँ जाने के रास्ते में ही उनका विशाल भवन था. मिलते ही उन्होंने कहा, मैंने तुम लोगों के बारे में सुना है, और तुम्हारे विप्लव का समर्थन करता हूँ. विप्लव शब्द के इस्तेमाल पर हमें थोड़ा आश्चर्य हुआ था. यह भाँपने पर उन्होंने कहा था, मैं एक खराब गाँधीवादी हूँ, क्योंकि जहाँ विद्रोह की जरूरत है, वहाँ गाँधीवाद में खुद को बाँधे रखने से काम नहीं चलता. दिनकर ने यह भी कहा था कि जहाँ-जहाँ मुझे भाषण देने के लिए बुलाया जाएगा, वहाँ-वहाँ मैं तुम लोगों का जिक्र करूंगा. उनके भाषणों के फलस्वरूप अनेक हिंदी पत्रिकाओं में मेरी तस्वीर छपी और हंग्री आंदोलन के बारे में लिखा गया.
… बांग्ला लेखक और राज्यसभा सांसद ताराशंकर बंद्योपाध्याय के मामा पटना में रहते थे. उनके कहने पर कलकत्ते में ताराशंकर से मिलने गया था. उन्हें हमने हंग्री आंदोलन के बुलेटिन दिए थे. लेकिन मेदिनीपुर में भाषण देते हुए ताराशंकर ने हंग्री आंदोलन के खिलाफ टिप्पणी की थी. इस बारे में दिनकर जी को हमने बताया, तो उनका कहना था, वह पुराने खयालात के हैं, मैं उन्हें जानता हूँ.26.
मलय ने राजकमल चौधरी के बारे में भी विस्तार से लिखा है. राजकमल ने मलय की कविता ‘…छुतार’ का हिंदी अनुवाद किया था. राजकमल के साथ मलय उनके गाँव महिषी भी गए थे. राजकमल चौधरी भूखी पीढ़ी से न सिर्फ जुड़े थे, बल्कि एक समय सुविमल बसाक के साथ मिलकर उन्होंने बांग्ला, हिंदी और अंग्रेजी में हंग्री बुलेटिन निकालने का काम भी किया था.
मलय अंत-अंत तक यह मानने के लिए तैयार नहीं थे कि भूखी पीढ़ी अप्रासंगिक हो गई है. हंग्री आंदोलन ने हिंदी, तेलुगू और मराठी साहित्य को प्रभावित किया. उस दौर के लेखन का अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, स्पेनिश, रूसी और इतालवी भाषाओं में अनुवाद हुआ. जीत थायेल भूखी पीढ़ी पर ‘बीबीसी’ की तरफ से एक कार्यक्रम करने के सिलसिले में मलय से मिले थे. डोमिनिक बर्न 2014 में हंग्री आंदोलन पर बात करने मलय से मिले थे. फिर बी.बी.सी. ने, इंडिया’स बीट्स : द हंग्री जेनरेशन नाम से एक डॉक्यूमेंटरी बनाई. मृगांकशेखर गांगुली ने मलय की विवादास्पद कविता ‘प्रचंड वैद्युतिक छुतार’ पर एक फिल्म ही बना डाली.
पश्चिम बंगाल में बैरकपुर-खड़दह के कुछ उत्साही युवाओं ने भी इस कविता पर बारह मिनट की एक लघु फिल्म बनाई. बाँग्लादेश में मलय की इस कविता के पक्ष-विपक्ष में लंबे समय तक विमर्श हुआ था. देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में भूखी पीढ़ी पर शोध कार्य हुए. थेडेनियल लियोमेला ने इतालवी भाषा में हंग्री आंदोलन पर शोध किया. हंग्री आंदोलन का प्रचार विदेश में तेजी से हुआ-अमेरिका, यूरोप और बाँग्लादेश में यह लोकप्रिय रहा. मलय और भूखी पीढ़ी का उत्तर बंगाल में भारी स्वागत हुआ : वहीं बाद में चारु मजूमदार के नेतृत्व में नक्सल आंदोलन की शुरुआत हुई.
लेकिन आश्चर्यजनक रूप पश्चिम बंगाल और कोलकाता में-साहित्य की मुख्यधारा में- मलय रायचौधुरी अवांछित और उपेक्षित रहे. उच्च न्यायालय से बेकसूर रिहाई के बावजूद उनके प्रति लोगों की धारणा नहीं बदली. वर्ष 2011 में बाँग्ला फिल्म निर्देशक सुजित मुखोपाध्याय ने ‘बाईशे श्रावण’ (रवींद्रनाथ की मृत्यु तिथि होने के कारण बंगाल में यह एक उल्लेखनीय तारीख है, और इस नाम से मृणाल सेन बहुत पहले एक फिल्म बना चुके थे) नाम से एक फिल्म बनाई. इस फिल्म में उन्होंने गौतम घोष को भूखी पीढ़ी से जुड़े एक पागल कवि के रूप में चित्रित किया, जिसकी कविताएँ कोई नहीं छापना चाहता.
अलबत्ता इससे मलय रायचौधुरी का महत्व जरा भी कम नहीं होता. उनकी कविताओं और हंग्री आंदोलन के बुलेटिन्स ने बाँग्ला कविता और साहित्य को जमीनी यथार्थ से परिचित कराया. भले ही बाँग्ला कविता मलय या भूखी पीढ़ी को इसका श्रेय न दें, लेकिन बाद के दौर में एकाधिक बाँग्ला कवियों ने अपनी कविताओं को ज्यादा गद्यात्मक, रुखड़ा और प्रयोगशील बनाया, तो इसके पीछे निश्चित रूप से उस आंदोलन का योगदान था. हालाँकि 1980 के आसपास मलय ने सक्रिय लेखन भी फिर से शुरू कर दिया. बड़े भैया समीर की पत्रिका ‘हवा-49’ में वह नियमित रूप से लिखने लगे थे. कविताएँ, उपन्यास, भूखी पीढ़ी के बारे में लेख और आत्मकथा उन्होंने इसी दौर में लिखे. मलय ने धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ का बाँग्ला अनुवाद (सूर्येर सप्तम अश्व) भी किया. इस किताब पर साहित्य अकादेमी ने उन्हें अनुवाद पुरस्कार के लिए चुना. लेकिन व्यवस्था द्वारा दंडित मलय ने व्यवस्था का पुरस्कार लेने से इनकार कर दिया.
मलय रायचौधुरी की एक बहुचर्चित लंबी कविता है ‘जखम’ (ज़ख्म), जो जाने-अनजाने खुद उनका ही मूल्यांकन है-
‘बुद्ध के 2510 साल बाद गाँधी मैदान में बिखरे हैं
पुलिस और गैरपुलिस मारपीट के 1965 मॉडल के जूते-छाते
कोकीन और नकली नोटों के आढ़त में
आराम से 1 साथ सोये हैं भारत और चीन के नागरिक
अंधे भिखारी के हाथ से मैंने 5 पैसे का सिक्का उठा लिया था
धान के लावे से छीन-झपट कर निकाल लाया हूँ मृतक के लिए फेंका हुआ पैसा
तैराकी सीखे बगैर मृत्यु का भय लेकर मैंने नदी पार की है
मुझे धिक्कारा तो जा सकता है
उपेक्षित नहीं किया जा सकता.’
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संदर्भ :
1. छोटोलोकेर जीवन, मलय रायचौधुरी, पृष्ठ-61
2. छोटोलोकेर जीवन, मलय रायचौधुरी, पृष्ठ-95
3. अर्धेक जीवन, सुनील गंगोपाध्याय, पृष्ठ-211
4. अर्धेक जीवन-सुनील गंगोपाध्याय, पृष्ठ-211-12
5. द हंग्रीयलिस्ट-मैत्रेयी भट्टाचार्जी चौधुरी, पृष्ठ-53
6. द हंग्रीयलिस्ट, पृष्ठ-24.
7. द हंग्रीयलिस्ट, पृष्ठ-51.
8. छोटोलोकेर जीवन, पृष्ठ-78
9. छोटोलोकेर जीवन, पृष्ठ-77
10. छोटोलोकेर जीवन, पृष्ठ-71
11. द हंग्रीयलिस्ट, पृष्ठ-19.
12. द हंग्रीयलिस्ट, पृष्ठ-102
13. रिफ्यूजीज : द प्रिविलेज्ड ऐंड द डिप्राइव्ड, द एगॉनी ऑफ वेस्ट बेंगॉल-रणजीत राय. पृष्ठ-63-64.
14. द हंग्रीयलिस्ट, पृष्ठ- 29.
15. द एगॉनी ऑफ वेस्ट बेंगॉल, रणजीत राय, पृष्ठ-93.
16. द एगॉनी ऑफ वेस्ट बेंगॉल, रणजीत राय, पृष्ठ-96.
17. द हंग्रीयलिस्ट, पृष्ठ- 113.
18. द हंग्रीयलिस्ट, पृष्ठ- 125.
19. द हंग्रीयलिस्ट, पृष्ठ- 129
20. अर्धेक जीवन-पृष्ठ- 274-76.
21. द हंग्रीयलिस्ट, पृष्ठ-80.
22. छोटोलोकेर जीवन, पृष्ठ- 30
23. छोटोलोकेर जीवन, पृष्ठ-7
24. छोटोलोकेर जीवन, पृष्ठ-7
25. छोटोलोकेर जीवन-पृष्ठ-15.
26. छोटोलोकेर जीवन-पृष्ठ-26
कल्लोल चक्रवर्ती तसलीमा नसरीन के लेखों के अनुवाद की दो पुस्तक, ‘दूसरा पक्ष’ और ‘एकला चलो’. विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के उपन्यास ‘आरण्यक’ और साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत बांग्ला उपन्यास ‘सेई निखोंज मानुषटा’ का हिंदी अनुवाद, ‘वह लापता आदमी’ प्रकाशित. एक कविता संग्रह, ‘कतार में अंतिम’. संप्रति स्वतंत्र लेखन. |
कल्लोल ने विस्तार से मलय राय चौधरी के बारे में लिखा है.
हिंदी साहित्य जिन विभूतियों को भूलता जा रहा है. उन्हें याद करना आवश्यक है
एक बिल्कुल अछूते विषय, साहित्य की भिन्न धारा, भिन्न व्यक्तित्व पर अद्भुत लेख. मितभाषी और अमर उजाला के मेरे साथी कल्लोल जी की लेखन प्रतिभा से कभी इस तरह परिचित होने का मौका ही नहीं मिला.
यह विषय ऐतिहासिक महत्व का है. हिंदी में ‘अकविता’ और ‘भूखी पीढ़ी’ कविता से प्रभावित कवि, उस तत्कालीन बांग्ला और हिंदी साहित्य के बीच अंतर्संबंध, मलय रायचौधुरी और दूसरे कवियों की रचनायात्रा, उत्तर और पूर्वी भारत की कविता, समाज और राजनीति पर इसके असर को समझा जाना अभी बाकी है.
इस सबके बीच एलेन गिन्सबर्ग का उदित होना यानी उनकी भारत यात्रा. सब कुछ काफी रोमांचक है. यह एक किताब का विषय है. मुझे उम्मीद है कल्लोल जी ओर ध्यान देंगे.
अरुण देव जी का भी धन्यवाद कि इन दिनों जब हिंदी का साहित्य समाज फेसबुक पर अर्थहीन टिप्पणियों और वाद-प्रतिवाद में व्यस्त है, वे साहित्य से जुड़े इतने विचारोत्तेजक, दस्तावेजी विषयों को बहुत ही त्वरित और पूरे परफेक्शन के साथ सामने रखते हैं.
इस आलेख और मलय चौधरी की कविताओं में एंटी कल्चर प्रभाव को देखते हुए और दो कवियों का स्मरण आता है। एक तो एलेन गिंसबर्ग के समकालीन चार्ल्स बुकोवस्की और अपने महाराष्ट्र के नामदेव ढसाल जो मलय रायचौधरी के समकालीन रहे और एंटी कल्चर तथा कन्फेशनल पोएट्री की सीमाओं को विस्तृत करते रहे।
बेहद रोचक आलेख।
वाह।मलय काफ़ी समय पटना में लगभग मेरे पड़ोस में ही रहे। अभी भी उनके परिवार के लोग यहाँ रहते हैं। गिन्सबर्ग से लेकर राजकमल चौधरी तक इसलिए यहाँ आसपास एक समय घूमते पाये गए। अंग्रेज़ी में तो मैत्रेयी भट्टाचार्जी ने पूरी भूखी पीढ़ी पर एक बहुत सुंदर किताब लिखी है। यह देखना अच्छा लग रहा है कि हिंदी में भी इन कवियों पर बात हो रही है और समालोचन जैसी केंद्रीय जगह से लेख प्रकाशित हो रहे हैं। कुछ दिनों पहले कुमार अम्बुज सर ने भी गिन्सबर्ग पर शानदार लेख लिखा था। इसको उसी सीरीज़ में देख रहे। बधाई और धन्यवाद समालोचन।
मलयराय चौधुरी और भूखी पीढ़ी पर कल्लोल चक्रवर्ती का लेख बहुत महत्वपूर्ण है।दरियापुर में क़ब्रिस्तान के पास उनकी दुकान “ ….फोटोग्राफरस “ शुरू से देखता रहा और कई बार गया भी,पर उनसे भेंट न हुई।उनका स्कूल राजमोहन राय सेमिनरी भी मेरे आवास के क़रीब है जहाँ मेरे बेटे की भी पढ़ाई हुई।ब्रह्म समाज का मंदिर भी दरियापुर के पास था।बहुत बाद में हवा४९ में मुझे भी प्रकाशित होने का अवसर मिला।
हंग्री जेनरेशन नाम के मूल में ,जैसा कि लेख में बताया गया है, चौसर का पद “इन सीवर हंग्री टाइम्स” है जिसे ओझल कर दिया गया।यह एक क्रांतिकारी काव्य आंदोलन था जो सत्ता,व्यवस्था,आभिजात्य और रूढ़ियों का प्रतिरोधी था।हर समय की अग्रणी कविता बिना इन मूल्यों के संभव नहीं होती।कल्लोल का लेख एक बार फिर उन मूल्यों और मलय सरीखे मूल्य-नायकों का ध्यान दिलाता है।
बहुत-बहुत शुक्रिया
पूरा लेख एक ही सांस में पढ़ गया।यह दस्तावेजी रचना है।कल्लोल जी ने मेहनत कर पूर्ण मनोयोग से लिखा है।यह शोधकर्ताओं के लिए भी सन्दर्भ सामग्री के रूप में काम आएगा।
कल्लोल चक्रवर्ती ने निश्चय ही एक अद्भूत लेख लिख दिया है। इस से पहले मैं मलय को जानता था, भूखी पीढी को जानता था, दोनों के सम्बंध को भी जानता था, लेकिन इतना और ऐसे नहीं जानता था। दोनों को गोया नये सिरे से जाना और समझा। साथ ही बंगला कविता के उत्कृष्ट नामों के व्यक्तित्व के भी कूछ नये आयाम सामने आये। ऐसे अद्वेत लेख के लिये कल्लोल जी को बधाई और इसे हम तक पहुंचाने के लिये समालोचन का धन्यवाद।
मलय राय चौधुरी पर कल्लोल चक्रवर्ती ने विस्तार में लिखा गया यह आलेख विस्तृत जानकारी देता है। इसके लिए कल्लोल चक्रवर्ती तथा समालोचन का बहुत बहुत आभार।
इस ज्ञानवर्धक एवं रोचक आलेख के लिए कल्लोल चक्रवर्ती को धन्यवाद.
मुज़फ्फरपुर से प्रकाशित होने वाली ‘आइना’ और ‘अपरम्परा’ जैसी पत्रिकाओं के सम्पादक-प्रकाशक राजेंद्र प्रसाद सिंह के माध्यम से राजकमल चौधरी एवं मलयराय चौधुरी से परिचय हुआ. किंतु, इस आलेख से विस्तृत जानकारी प्राप्त हुई.
यहाँ हैदराबाद में ज्वालामुखी,नग्नमुनि, निखिलेश्वर आदि दिगंबर कविता आंदोलन के कवियों पर हंग्री जैनरेशन की रचनाशीलता का सीधा असर था. ज्वालामुखी जी बाद में इससे विमुख हुए और उनके पास इसके लिए ठोस तर्क थे.
समालोचन सम्पादक को साधुवाद.
वाह, अद्भुत जिंदा आलेख। हंग्री जेनरेशन और मलयराय चौधरी के बहाने उस आंदोलन के समूचे
इतिहास की पुख्ता और विश्वस्त जानकारी।यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि बंगाली भद्र लोक के सभी महत जन या तो पीठ दिखा गए या फिर मुखबिर हो गए।मलय ने उनकी अच्छे से ख़बर ली है।यह पढ़कर सुख हुआ कि हिंदी के मूर्धन्य कवियों ने न केवल उस आंदोलन के प्रति सहानुभूति दिखाई,बल्कि उसे लेकर लिखा भी।कंचन कुमार,नागार्जुन ,रेणु ,अज्ञेयदिनकर कितने नाम हैं।दिनकर जी का यह कहना- कि मैं जहाँ जहाँ मुझे भाषण देने बुलाया जाएगा मैं तुम्हारा ज़िक्र करूँगा बहुत मायने रखता है।,
इस विचारोत्तेजक और निकट ऐतिहासिक संदर्भों से भरे आलेख से गुज़रना एक अनुभव है। अनेक अजाने प्रसंगों से भी परिचय हुआ। सामाजिकता और व्यग्रता का गुस्सैल संस्करण कितना उचित, नवोन्मेषी अराजक और अपरिहार्य हो सकता है, इसका विवरण यहाँ उपलब्ध हुआ।
कल्लोल जी और अरुण,
दोनों को धन्यवाद।
बधाई।
विचारोत्तेजक के साथ बेहद ज़रूरी लेख।कई भ्रांतियों का निवारण और मलयराय चौधुरी का सही पर्सपेक्टिव में स्थापन करता हुआ।