प्रिय शाह,
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वे अपने हंसते हुए अकेलेपन के लेखक थे जो कविता से साक्षात्कार सँवाद और एकालाप में करते थे. जिन्हें उन की डायरियों ने खुद में सहेज रखा. मुझे क्या पता था शाह साहब, एक दिन वे मलयज, आप के और मेरे बीच अपनी सम्पूर्ण जीवंतता में आगमन करेंगे, फिर स्थायी निवास करेंगे. हम अलग-अलग शहरों में अपने जीवन में मलयज को जी रहे थे, एक तरफ जहाँ मैं उनकी किताब ‘हँसते हुए मेरा अकेलापन’ में डूबता मलयज का संगी बनता जा रहा था वहीं दूसरी तरफ आप मलयज के संग बिताए अपने समय को याद करते उस समय को दर्ज कर रहे थे, तब पता नहीं था आप और मैं एक ही शहर में जीते हुए एक सपना देखेंगे और वह सपना मूर्त रूप ले लेगा और मलयज खुद को जीता हुआ पाएँगे.
अपने-अपने समय के मलयज को हम एक-दूसरे के मलयज से मिला कर देख रहे थे.
आप से मैं जब भी मिलता हर बार मलयज का जिक्र जरूर करता व आप से उन के बारे में कुछ न कुछ जानने की कोशिश में आप को कभी हैरान तो कभी बेहद गहरे व्यतीत जीवन को जीते हुए पाता. उस वक्त आप की आवाज़ कहीं और ही से आती लगती, उस वक्त आप की आँखें मेरे पार कहीं और देख रही होती थीं. मुझे लगता था भले मैं मलयज से न मिल पाया किन्तु उन के जीवन का काफी अंश जहाँ अपने स्पंदन में आज भी जीवित है, मैं उस जगह, उस व्यक्ति को ही पूरा जी लेना चाहता था. तब वह जीना आप, आप के अतिरिक्त मेरे लिए मलयज हो जाते थे.
अगली बार जब हम भोपाल आए तो जिन जरूरी कामों की हमारी लिस्ट थी उन में मलयज पर आप के साथ तसल्ली से बैठ कर बात करनी सबसे ऊपर थी. इस आकर्षण ने इस यात्रा को बेहद खास, उत्साहजनक बना दिया था. आप ने बताया था कि पूरे मैत्री काल में जितने भी पत्र मलयज ने आप को लिखे वे सुरक्षित थे. उन पत्रों में लिखी अधिकतर बातें आप को याद थीं जिन्हें आप मलयज की ही टोन में बोल कर हमें यदा कदा सुनाते रहते थे. उन पत्रों को, उन पत्रों को पाने वाले व्यक्ति को देखने की कल्पना मात्र से मैं एक अवर्णनीय मनःस्थिति में पहुँच गया था. मुझे यह पूरा यकीन होने लगा था व मेरा मन इस बात को पूरा मानने को तैयार था कि मैं असल में मलयज से ही मिलने वाला हूँ.
पहले पत्र से जो पुल बना, अंतिम पत्र तक पहुंच जो सामने आया वह एक पूरे जन्म की तरह था, दो लोगों का इसी दरमियान मिलनरूपी जन्म होता है और जीवन की सघनतम अनुभूतियों, रूपों, घटनाओं, बातों से गुजरते यह मैत्री सिर्फ मैत्री न रह कर दो लोगों का अपनी संवेदना में एक हो जाना होता है, यह होना पिछले जन्म के किसी अधूरे साथ का पूर्णता को पाना हो जाता है. परिवार, समाज के संग रहते समस्त क्रियाकलापों को निभाते वे कब परिवार, समाज में ही एक अदृश्य भूमि पर निज निवास में रहने लग जाते हैं किसी को पता नहीं चलता. हिन्दी में यह हुआ-जिया गया पूर्ण संवेदना-बौद्धिकता के साथ, इस होने में उन दो मित्रों का शेष रह जाना यह बताता है कि किस कदर एक दूसरे को अपना आप दिया, उसे जिया गया होगा.
घर पहुंचते ही मैंने सबसे पहले पूछा,’अपन कितने बजे बैठें?’ आप ने कहा,’नाश्ता करते ही, दस बजे टीमें नियत मैदान पर पहुँच जाएँ, बाकी ग्राउंडमैन ने सारी तैयारियाँ कर ली है!!!’
माहौल में गर्मास थी. उल्लास के साथ अजीब-सी घबराहट भी महसूस हो रही थी. मंच से पर्दा हटेगा रोशनी होगी तब के प्रथम दृश्य को आंखें किस तरह ग्रहण करेंगी यह बात तापमान को बीच के बिंदु पर ला कर कस रही थी.
आप के कमरे का दरवाजा उढका हुआ था, मैंने आप को आवाज़ लगाई, ‘शाह साहब….!!’
‘खुला है, आ जाओ!!!’
मैंने दरवाजा धीमे से भीतर सरकाया.
…….भीतर पलंग पर मलयज बैठे थे.
अधलेटे.
उनके सामने किनारे कुर्सी पर आप बैठे उन्हें यूँ देख रहे थे कि मलयज दरवाजे की तरफ किसे देखते चुप हो गए हैं!!!
वे मलयज ही तो थे, वे ही हो सकते थे अपने शाह के सामने, वे वहाँ नहीं होंगे तो कहाँ होंगे!!! बरसों से वे शाह के सामने ही तो मलयज हो जी पा रहे थे, इसे कैसे इनकार करें.
अपने इन पत्रों में वे खुद को शाह के पास छोड़ गए थे, वे पत्र अलग-अलग रंगों के, पुराने, धुंधले, कटे-फटे, वे जाने कितने पोस्ट-कॉर्ड, अंतर्देशीय, लिफाफों में रवाना हुए जाने कैसे-कैसे कागजों पर उनकी कलम की स्याही के तरह-तरह के रूप जो अब कहीं-कहीं लगभग ओझल भी हो जाती है.
इतने सारे मलयज को शाह साहब आप ने आपके कमरे में मेरे आने से पहले किस शिद्दत से, किस जतन से, किस मेहनत से वर्षवार एक के पास एक रखे थे, दूर से वह कोई घर का ढांचा लग रहा था. पत्रों के इस तरह व्यवस्थित रखे जाने में आप के मन ने किस कदर खुद को तृप्त होते, भीगते पाया होगा.
यही था हंसते हुए मेरा अकेलापन. ऐसा ही होता है.
आप शाह साहब, कुर्सी से उठ कर मेरे साथ आँगन में बैठ गए आप की बगल में पूरी खाट पर पत्र जँचाए हुए थे, एक घर जैसे दो मित्रजनो का. आप ने सबसे पहला पत्र उठाया जो मलयज ने आप को सबसे पहले लिखा था. आप ने कहा जिस तरह ये जिस सूत्र के साथ सिलसिला बना व आगे बढ़ा हम पत्र भी उसी अनुसार लेंगे. बीच में से कोई भी पत्र उठा लेना यहाँ किसी के दुख-सुख के धागों की श्वांस को तोड़ देने जैसा होता. पहले पत्र में मलयज आप को आप’, ‘शाह…. ‘ कहते हैं. घर मे प्रवेश से पहले के संकोच और औपचारिकता में वे काफी दुरुस्त लगने को बनाए रखने के जतन में खड़े बोल रहे थे. आपकी आवाज 11 बजे के दिन की धूप में कमरे में ….जैसे गर्मियों की सूनी दुपहर में कुँए के अंधियारे जल पर माटी का बर्तन पाँव रखने की जगह देख रहा हो….फिर वह उस की छाती में उतर जाएगा.
सुर लग चुका था. आप वहाँ जा चुके थे. मैं अपनी जगह बैठा था. मुझे सिर्फ बैठे रहना था, मेरा समूचा होना सुनना हो गया था. आप का एक-एक कर पत्र उठाना फिर पढ़ कर रख देना, जैसे यादों पर की सुहाती गर्द को जरा सरकाते भीतर झाँक फिर यथावत कर देना. दिन जाग रहे थे, बीत रहे थे. मलयज आप से तुम पर आने में देर नहीं करने वाले थे, उन्हें तो ऐसे ही भींच कर गले लगाने वाले की तलाश थी. आप की आवाज़ अब कमरे में चमकती दिखाई दे रही थी जिस में सारे उतार चढ़ाव, नाटकीयता पूरे निखार पर थी. बीच बीच में आप रुकते और कोई संदर्भ या किस्सा बताने लगते या फिर…’क्या लोग थे, क्या समय था’…कहते भीगी आवाज़ में थम जाते.
मध्य तक आते-आते लगने लगा जैसे मलयज ने देह को धूप में तपने देने के लिए वस्त्र हटा दिए हैं. वे उन के बढ़ते अकेलेपन के दिन, उदासी, थकान, निराशा के दिन चीन्थने लगे थे. अपने मित्र को वे अपना उधड़ते जाना बताने में झोंक चुके थे, शायद इसीलिए मित्र की तलाश थी. आप की आवाज़ उस सब कुछ को किसी पुरानी भरोसेमंद नाव की तरह खुद में लिए मुझ तक आती और खाली करती जाती.
‘ये अन्तिम पत्र था उन का…’, आप एक अंतर्देशीय पत्र को हाथ में लिए कह रहे थे, ‘…घर के दरवाजे के ऊपर की दरार में डाकिया इसे फंसा गया था…यह अन्तिम पत्र होगा नहीं पता था, जो मुझे आने के बाद भी देर से मिला…तब तक वे जा चुके थे.’
मैं उस पत्र को सुनने के बाद उदासी की थकान में उठा और चुपचाप अपने कमरे में चला गया…आप को अपने मित्र के पास छोड़. उस कमरे में जहाँ ढेरों पत्र थे और उन के बीच आप. जब सुबह आया था तब बहुत कुछ बोलने वाला था, इसकी उमंग थी. अब, बोले गए के
बाद का खालीपन.
२)
अगले दिन उसी समय मैं आप के कमरे में आया. आप ने एक क्षण भी न गँवाते एक बड़ा पीला लिफाफा दोनों हाथों से मेरी ओर बढाते कहा, ‘ये मैं अपने आप को तुम्हें दे रहा हूँ, और क्या कहूँ इससे ज्यादा इस के बारे में, बस काम हो जाए तो इसी तरह लौटा देना.’
मैंने अपने दोनों हाथ आगे पसार कृतज्ञता पूर्वक उस लिफाफे को ग्रहण किया और सीने से लगाते कहा, ‘ये ऐसे ही वापस लौटेंगे.’
पहली बार मुझे लगा मेरे जीवन मे पहली बार जीवन ने अपना आप सौंप मुझे यह बताया है कि मैं भी कुछ बड़ी पात्रता रखता हूँ. यह पहली बार फिर कभी भी कुछ और न हुआ न हो सकता था.
पूरे रास्ते उस लिफाफे को मुलायम छोने की तरह अपने से लगाए उसकी गर्मास महसूस करता रहा.
आगे अब उतने ही मलयज मेरे होने थे. वही बरस दर बरस की तरह.
मेरे पास एक कम्प्यूटर था मेरे पढ़ने लिखने के कमरे में. मैंने तय किया कि इन पत्रों को कोई अन्य टाइप नहीं कर पाएगा न ही इन्हें मैं किसी को दे सकता हूँ, एकमात्र रास्ता यही था कि मैं ही टाइप करूँ.
लिफाफे में पत्र बिल्कुल वैसे ही थे जिस तरह वर्षवार शाह साहब के कमरे में खाट पर रखे थे. वर्ष, माह… की निरन्तरतानुसार.
पहला पत्र जो आप को मिला जिसका वाचन भोपाल में आप से सुना था अब मेरी मेज पर था. टाइप करने के लिए जब उस पत्र को पढ़ने लगा तो जैसे पत्र ने अपने हर भेद को छिपाते मुझ से दूरी बना ली. बहुत देर तक मैं उस लिपि को उन शब्दों को पढ़ने के लिए खुद को बटोरता रहा, तब लगा हर याद, चीज अपने संग रहना, बसना मांगती है. आप की उस भोपाल में वाचन करती आवाज़ को अँधेरे में लाठी से रास्ता बनाने की तरह मैं बढ़ने लगा.
धीमे धीमे इबारत अपनी आवाज़ अपनी रोशनी में बोलने लगी.
उन शब्दों को समझना जिन्हें लिखने वाले का अपना अंदाज था, कई बार उसे समझने, अनुमान लगाने में बहुत देर तक बैठा सोचता रहता फिर पंक्ति के आरम्भ व अन्त के हिसाब से पढ़ते अनुमान लगाता. कुछ देर बाद वह पलकें खोलता हल्के उच्चारण में अपना भीतर जाहिर कर देता. उन पत्रों की दुनिया उन के भीतर के लोग मेरा एक संसार बन गए थे. कभी-कभी दिन में सात आठ पंक्तियां ही हो पातीं तो मैं थके मित्र की तरह उन के पास बैठ जाता कि चलो आज इतना ही. वे शायद इतना ही बोलना चाह रही हों. अगले दिन जब वहाँ से शुरू करता तो वे पंक्तियाँ आगे की पंक्तियों से जुड़ने को विकल पाई जाती.
इस प्रक्रिया की अपनी थकान, उमंग, प्रतीक्षा, खीज, ऊब, राहत, संशयावस्था होती है. किसी तरह जब कोई पत्र हो जाता तो उसका प्रिंट ले तुरन्त किरण को देता, वह इस पूरे काम में हमेशा साथ में रही व चुपचाप इंतजार करती कि कब अगला पत्र पढ़ने को मिलेगा. मुझे उसका यह इंतजार में रहना उत्साह देने लगा. ये सारी प्रक्रिया हमारी दिनचर्या बन गयी थी. जब मैं पत्र टाइप कर रहा होता तब वह हमेशा कमरे में बिछे गद्दे पर बैठी कम्प्यूटर की ओर देखती रहती या किसी पुराने पत्र के प्रिंट को पढ़ती रहती. जैसे ही कोई पत्र पूरा होता और प्रिन्टर से कागज निकलता मैं उस प्रिंट को किसी विजयी झंडे की तरह उसकी ओर बढा देता. पत्र टाइप करने की प्रक्रिया की सारी थकान किरण को पढ़ते देख गायब हो जाती. पत्र पढ़ने के बाद वह अपनी सनातन झिझक व घबराहट में कई देर तक कुछ न कुछ व्यक्त करती रहती. मैं समझता हूँ एक पाठक का अपनी भाषा व विचार को व्यक्त करने का यह सबसे अच्छा बुनियादी तरीका होता है.
करीब तीन महीने इस तरह मलयज हमारे साथ रहे. बाद के दिनों में तो अपने पत्रों में वे यूँ बोलने लगते थे कि धुंधली लिपि पर भी रेल धड़ाधड़ गुजर जाती. कभी-कभी तो मैं उनकी आधी बात पढ़ते ही आगे दौड़ता टाइप में पूरी कर जाता.
उन के परिवार जन माँ, पिता, पत्नी ज्योत्स्ना जी, उन के बच्चे, बहनें, मित्र, लेखक, उनकी फेफड़े की बीमारी, उनको तोड़ देने वाले मोड़, उनकी प्रतिभा द्वारा उत्साहतिरेक में देखे सपने, कल्पनाएँ, दफ्तर की ऊब व हिंसा, परिवार की घुटन भरी विवशताएँ….उन के मकान की हालत…ये सब मेरे में स्थानांतरित हो गए थे. उन की आवाज, खाँसी, हाँफनी, उन के भय, उनकी कातर रुलाई, उनकी जिजीविषा उनकी अथक मेहनत उनके विचार उनके तर्क… अपनी आवाजों में मुझ में बोलने लगे थे.
आप के पत्रों के इंतजार में वे …
अपने अन्तिम पत्र के रूप में मेरी मेज पर थे और मैं जो रोज तेज से तेज गति से टाईप करने के उत्साह में होता था उस शाम विदा के क्षणों की देहरी पर था. जानबूझकर धीमे टाईप करता हुआ ताकि थोड़ा और देर साथ रह लूँ फिर ये अंगुली दुनिया के मेले में जो छूटी तो कभी न मिलेगी. मगर एक संतोष खुद को ये भी दिया जा सकता था कि ये जो इस कमरे में अपने पत्रों के ढेरों में से टाईप होते हुए मलयज रूप ले रहे हैं ये सिर्फ मेरे मलयज हैं अब. इन्हें ही तो लेने भोपाल गया था मैं.
की बोर्ड पर मेरी अंगुलियों ने उस अव्याख्येय साथ के अन्तिम शब्द को टाईप किया….’तुम्हारा – मलयज’
३)
फिर वह किताब प्रकाशन के सिलसिले में लिए मैं फिर उसे जीने लगा जैसे कोई न कोई बहाने साथ रहा जा सके. किताब के पाँच नाम आप को भेजते मैंने पत्र में आप को लिखा कि वैसे मुझे ये नाम पसन्द है, तो आप के लौटते पत्र में आप ने कहा कि हां, ‘मुझे भी ‘रंग अभी गीले हैं’ नाम पसन्द है.’
इस के बाद आवरण की बात आई तो मैंने आप से निवेदन किया कि एक बार आप मेरे द्वारा डिजाइन किए आवरण देख लीजिए फिर अगर पसन्द न आया तो हम कोई और रास्ता देखेंगे. मुझे यह पता था कि मलयज के पत्रों के बारे में शमशेर जी ‘पूर्वग्रह’ के अंक में कुछ कहा था, मैंने उन के उस कथन को आवरण के पृष्ठ भाग में उद्धृत किया. आवरण आप को एक ही बार में पसन्द आ गया था.
इसी बीच शाह साहब आप को थोड़ा विषयांतर करते एक बात बताता हूँ, जो पूरा विषयांतर भी नहीं होगा क्योंकि बात इस पुस्तक से ही किसी तरह जुड़ी है. अभी कुछ साल पहले एक दोपहर ‘विश्व पुस्तक मेला’ दिल्ली से इस पुस्तक के प्रकाशक का फोन आया कि आप से कोई बात करना चाहते हैं. कुछ क्षण बाद आवाज़ आई, ‘नमस्कार मैं अनुपम मिश्र बोल रहा हूँ, मैंने मेले में खूब किताबें देखी हैं और इस स्टॉल पर आ कर रुक गया हूँ, मैंने प्रकाशक बन्धु से पूछा कि आप की किताबें किस की नजर से तैयार होती है तो इन्होंने आप का नाम बताया. अभी एक किताब मेरे हाथ में है ‘रंग अभी गीले हैं’…इस के समूचे होने ने मुझे सबसे अलग कर अपने पास बुला लिया है. आप को मैं भी एक किताब भेजना चाहता हूँ जिसे मैंने पूरे मन से तैयार किया है ‘अब भी खरे हैं तालाब’…आप उसे देख जरूर अपनी राय दें..कोई सुधार हो तो बताएँ…’. मैं बिल्कुल हक्का बक्का सा यह सब होते देख रहा था.
बहरहाल, इन तीन महीनों से भी अधिक समय में हमारे बीच के लगभग हर पत्र में इस किताब के बारे मे कोई न कोई जिक्र मेरी व आप की तरफ से चलता रहा. उसकी एक बानगी तो पाठकों हेतु बनती ही है न!!! आप. 08.05.08 के पत्र में कहते हैं,’तीन दिन -तीन रातों की काल कोठरी चक्की पीस के फलस्वरूप प्रेस कॉपी का पुलिन्दा-संशोधित कर तुम को सौंप रहा हूँ. टँकण की त्रुटियाँ सभी दूर हो गई होंगी–ऐसा विश्वास है कि वे फिर अपना कटा सर नहीं उठाएंगी ऐसी प्रार्थना और मनोकामना भी. बहरहाल दो रतजगों में काम बन गया–मैं इसे भोपाल छोड़ने के पूर्व हर हालत में पोस्ट कर देना चाहता हूँ…..टाइटिल के बारे में तुमसे बात हो गयी है–सभी आवरण बढ़िया लगे. चयन चार से दो के बीच लटका हुआ है. दोनों मनभावन है. अंतर्देशीय वाला कुछ ज्यादा फब रहा है, पर उस में चौखटे को बदलना, खिसकाना पड़ेगा, लेटरिंग भी चेंज करनी होगी. तो, ऐसा करो जो दूसरा है ‘मलयज’ दस्तखत वाला- उसी को फाइनल कर लेते हैं. कौनसा? समझ गए न?…. बाकी ये है कि काटा-पीटी कुछ नहीं की है. सिर्फ एक जगह जहाँ मलयज से ‘निर्मल’ (यानी निर्मला–मलयज की बहन) की किसी बात से मेरा दिल दुखने का जिक्र किया, वह पैराग्राफ कैंसल करना पड़ा है. यूँ तो वह चला जाता तो कुछ बुरा न था किन्तु भावनात्मक तर्क से वह उचित न होगा, क्योंकि उस में दूधनाथ सिंह पर भी प्रतिकूल टिप्पणी हो जाती है और बहन को भी बुरा लगेगा….इसलिए क्यों ऐसी टिप्पणी रखी जाए. घर का मामला है, साहित्य का नहीं. इसलिए उसे काट दिया है. देख लेना. कहीं पिछले दरवाजे से फिर भीतर न घुस जाए.’
अगर मलयज की डायरी अनुपलब्ध या महंगी न होती तो निश्चय ही ‘रंग अभी गीले हैं’, किताब न बनती. ये मेरा स्वभाव था कि चलो ऐसे नहीं तो हम ही अपनी ओर से कोई जतन करें कुछ अपने मन से ही रच लें. और मुझे ‘पूर्वग्रह’ के मलयज अंक से पता चल चुका था कि आप के पास पत्र हैं और हमारे सँवाद में भी आप ने यह अवगत कराया था. इन पत्रों से गुजरते हम काफी हद तक मलयज की डायरी न पढ़ पाने केे अभाव से बच सकते हैं. साथ ही यह भी पता चलता है कि उन डायरियों के संपादक नामवर सिंह ने क्या और किन चीजों पर अपना संपादन कौशल दिखाया होगा. बाद में जब मैंने उन डायरियो के तीनो खंडों को पढा तो पता चला कि मलयज की रचनाओं के प्रति संपादन करते नामवर सिंह कितने अकुंठ, मुक्त, निर्मल रहे होंगे व मलयज की आत्मा से छल नहीं किया होगा. जो मलयज इन पत्रों में छलछल करते आप से मिलते हैं, आप से एकाकार होते अपने जीवन के सबसे कठिन व गहन समय जीते हुए हर कुछ को साझा करने को विकल रहते हैं उन्हीं मलयज की डायरियो से उन के शाह लगभग लुप्त पाए जाते हैं या फिर आप की कोई सरसरी उड़ान जिक्र में पाई जाती है. ऐसा नहीं है कि मलयज नामवर सिंह के व्यक्तित्व से परिचित न थे अपने पत्रों में वे इस परिचित होने को खूब जाहिर भी करते हैं.
इस सब के दरमियान ही जब हम सब कुछ कर गुजरने के बाद अपने घरों में सुकून से रह रहे थे तभी एक दिन वरिष्ठ कवि विष्णु खरे का फोन आया. मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ कि मेरे नम्बर उन्हें कहाँ से मिले होंगे. बाद में उन्होंने ही बताया कि कवि मित्र संजय चतुर्वेदी से उन्होंने मेरे नम्बर हासिल कर फोन किया है. पहले तो वे एक दो मिनिट सामान्य लहजे में बात करते रहे मेरी कविताओं का भी जिक्र कर शुभकामनाएं दीं फिर अचानक उनकी आवाज़ में नमक बढ़ने लगा, और वे आप को कोसने लगे कि शाह ने एक-तरफा पत्र छपा लिए हैं, उन्होंने मलयज की पत्नी को सूचित नहीं किया कि वे सहानुभूति ले रहे हैं….’ तब मैंने उन्हें यह बताया कि किस तरह आप ने हरसंभव प्रयास किया कि मलयज की पत्नी ज्योत्स्ना मलयज आप को आप के वे पत्र दे दें जो आप ने मलयज को लिखे थे ताकि दोनों के पत्र साथ छपें. किन्तु कई बार प्रयास के बाद भी उन्होंने वे पत्र देने से इनकार कर दिया था.
ऐसे में हमने मलयज को आप द्वारा लिखे वे कुछ पत्र जो ‘पूर्वग्रह’ छपे थे (और आप के पत्रों के बारे में मलयज की राय भी) उन्हें ही शामिल करना उचित समझा ताकि पाठक को पूरा नहीं तो इन कुछ पत्रों से ही कुछ आस्वाद मिल सके. विष्णु खरे ने इस के बाद भी इसी लहजे में एक दो फोन और मुझे किये जिसका लब्बोलुआब आप को कोसने का होता था. तब उनकी बातों व उन बातों को कहने के लहजे से मेरा मन सोचता था कि यह व्यक्ति इन्हीं बातों, हरकतों से अधिक जाना जाता है जबकि पहचान इनकी कवि के रूप में है, किन्तु वह कवि रूप हमेशा ऐसी अहंकारी बातों के पीछे ही रहा. और खुद मलयज उन्हें किस तरह आंकते थे किस गम्भीरता या गहराई का अभाव उनकी कविताओं और उनके व्यक्तित्व में पाते थे व उनकी उपस्थिति से खिन्न होते थे यह सब भी उन के पत्रों में दर्ज है, जिसे संभव है खरे ने भी पढ़ा हो.
इस के कुछ एक दिन बाद ज्योत्स्ना मलयज का फोन आया उनकी आवाज़ सुन मैं एकदम से उन पत्रों में उन के नाम के जिक्र के पास पहुँच गया और बेहद भावुक हो गया. उन्होंने बहुत स्नेह से बातें की बताया कि अब उनका बेटा क्या करता है, परिवार कैसा है…वे चाहती थीं कि पुस्तक की कुछ प्रतियाँ उन्हें भी मिलें. मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि उन्हें जितनी प्रतियाँ चाहिये होंगी उतनी प्रकाशक से जरूर भिजवाऊंगा. मगर इस के अतिरिक्त उन की आवाज़ में विष्णु खरे के फोन का नमक भी अपना असर दिखा रहा था (इसके कुछ समय बाद उन के एक पत्र के आने का जिक्र आप के 25.12.08 के पत्र में मिलता है,’वह मलयज की पत्नी ज्योत्स्ना मलयज का पत्र तुम्हारे पास ही रह गया, वह भी भेज देना, जवाब तो देना ही है) यदि यह अप्रिय प्रसंग न होता तो ज्योत्स्ना जी से उन के उस समय की यादों पर बतियाना और भी स्थायी होता.
अंततः इस प्रसंग के अंत मे आप की वह प्रसन्नता हमेशा याद आती है जब किताब प्रकाशन के अन्तिम चरण में तैयार हो गयी थी, ‘मलयज के पत्रों के साथ तुम ने जो श्रम किया– वह तुम्हें गहरा परितोष दे गया–यह प्रकट है. गुणकारी होगा औषध की तरह यह अनुभव भी तुम्हारे लेखक के लिए–इस में शक नहीं…..जानता हूँ तुम्हें भी कोई कम खटना और तपना नहीं पड़ा. मलयज की हाथ की लिखावट को यह रूप अंततः देने और सुव्यवस्थित करने में. बहुत पुण्य मिलेगा तुम्हें, इस में सन्देह नहीं.’
एक फांस हमेशा मन में रहेगी प्रकाशक की उदासीनता के चलते ये किताब पाठकों तक उस तरह नहीं पहुंच पाई जिसकी ये हकदार थीं.
(शीघ्र प्रकाश्य संस्मरण पुस्तक ‘शाह संगत’ से)
अनिरुद्ध उमट 28 अगस्त 1964 को बीकानेर (राजस्थान) में जन्मे अनिरुद्ध उमट के अब तक दो उपन्यास ‘अँधेरी खिड़कियाँ’, ‘पीठ पीछे का आँगन’ दो कविता-संग्रह ‘कह गया जो आता हूँ अभी’, ‘तस्वीरों से जा चुके चेहरे’, कहानी संग्रह ‘आहटों के सपने’, एवं निबन्ध-संग्रह ‘अन्य का अभिज्ञान’ प्रकाशित. राजस्थानी कवि वासु आचार्य के साहित्य अकादमी से सम्मानित कविता संग्रह ‘सीर रो घर’ का हिंदी में अनुवाद. ‘अँधेरी खिड़कियाँ’ पर राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर का ‘रांगेय राघव स्मृति सम्मान’. संस्कृति विभाग (भारत सरकार) की ‘जूनियर फेलोशिप’, तथा ‘कृष्ण बलदेव वैद फेलोशिप’ प्रदत्त. मोबाइल 9251413060 |
संवाद की स्थिति और उपस्थिति,दोनों दुर्लभ होती जा रही हैं आज के समय में।न कोई अपना मन खोलता है न स्वयं खुलता है।इस ताला जड़े समय में शाह-संगत के कुछ पन्ने राहत रूह की तरह हैं।पुस्तक का इंतज़ार रहेगा कि इसमें तीन चुप्पे रचनाकार बोलेंगे
बहुत सुंदर। एक सांस में पढ़ गई। कमाल की भाषा है और सुंदर संस्मरण
पुस्तक होती तो कुछ पंक्तियों के दोनों पर 3 मिलिमीटर के विकर्ण के निशान लगा देता । यह भी उतना सत्य है कि सभी पंक्तियाँ और संवाद महत्वपूर्ण हैं । दरवाज़ों के उढाने को हमारी बोली में वलावना कहते हैं । एक-दो जगहों पर वर्तनियों की ग़लती है । रमेशचन्द्र शाह और अनिरुद्ध उमट के बीच बातचीत जीवंत है ।