‘मूल बात संगत है’ |
‘उस समय उस संगत को कैसे लिखा जाए’
(शाह संगत)
किताब का नाम है ‘शाह संगत’ लिखा है अनिरुद्ध उमट ने.
शीर्षक में एक और बंद जड़ा हुआ है कि ‘तुम हो, तुम में है’. कवि संगत है यह मूलतः मगर इसकी समाई बड़ी है. विलक्षण कौटुंबिक संरचना है कि ऐसा रचा बसा समय कौन न पाना चाहे. किताब में बीकानेर से भोपाल और भोपाल से बीकानेर इन दोनों के आने-जाने की यादें तमाम रेल, रेलवे स्टेशन और ऐसी दूभर यात्राओं की तमाम दुश्वारियां सब चली आई हैं. पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जैसे उत्कट प्रतीक्षाएँ इधर से उधर और उधर से इधर आ जा रही हों. यह तो सबसे अधिक लगा है कि यह एक कवि की किताब है.
तो उमट कवि हैं. कृतिकार हैं. दुनिया को गहरे लगाव की आँख से देखते हैं. यह देखना किसी स्तर पर परखना भी होगा ही मगर यह कतई दुनियादारी वाली चौकसी से परखना नहीं है बल्कि यह महसूस करना है कि इस दुनिया में आत्मिक का उजाला कहाँ है और कितना है. उसमें कितनी लय है, कितनी तरलता है और कितना अमर्त्य भी है.
संगत तो लय की कला है. लय की कलाकारी की सोहबत है यह. तो यह शब्द सीधे वहीं से उठ कर आया है. वैसे इन दिनों सभी साझापन वाले विधान इस शब्द में बड़ी संभावनाएँ और मौलिकता देख रहे हैं मगर अनिरुद्ध उमट की किताब का यह शीर्षक शाह से आलोकित है. शाह यानी रमेशचंद्र शाह. कविता आलोचना और साहित्य के समकाल की एक गहन उपस्थिति रमेशचंद्र शाह. यहाँ कला भीतरी रंग में गाढ़ी है और वहाँ से जीवन का सार हासिल करती है. रमेशचन्द्र शाह गहन आंतरिकता के रचयिता हैं. दर्शन उनकी कला का रस है. यह किताब उनसे साहचर्य के सरल गूढ़ और विस्तृत में घूमती दिखाई देती है. संगत यह इसलिए भी है कि इस किताब का विधान अन्तर्लयी किस्म का है. जो यहाँ दाखिल होगा, उसका मन यहाँ रमेगा मगर सरपट नहीं बल्कि बहुत ठहर कर. किताब के भीतर आत्मिक आभा वाले किरदारों का जीना है. यह जीवन पत्रों में है और उसके अलावा भी है.
मेरे पास यह किताब आई तो कब की है मगर बहुत मद्धिम गति से पढ़ने के लिए विवश करती गई. इसकी भाषा में भी एक यात्रा चलती है. स्मृतियों की कई पोटलियाँ हैं, निर्भार सी. वे अधखुली सी हैं. इसके अलावा किताब में साहित्य समय में रचे-बसे लोगों का जीवन है. ये सब एक अभिन्न संगतकारी में रहते दिखाई देते हैं. जीवन एक रंगी नहीं होता इसलिए यह किताब भी एकरंगी नहीं है. इसमें नजदीकियाँ हैं तो अनायास ठिठका देने वाली दूरियों के हवाले भी हैं. उल्लास है. मेलजोल है तो दुःख और उदासियाँ भी हैं. एकदम जीवन के रंग वाली. नवीन सागर का स्वरूप तो जैसे कोई हलचल से भरा नायक हो, अप्रत्याशित-सा. जीवन के रंगमंच को पूरा घेर कर दिखाई देने वाला और उतने ही क्षिप्र ढ़ंग से विदा ले लेने वाला. नवीन सागर से जुड़े प्रसंगों में आत्मीयता से बढ़ कर प्रेम की उष्मा है. इन सब पन्नों पर अनिरुद्ध उमट एक जिज्ञासु, मोही और भरोसा करने वाला संवेदनशील व्यक्तित्व होकर आते हैं जो क्रमशः अपनी बुनावट में विस्तृत होता दिखाई देता है. अनिरुद्ध उमट की इस बस्ती में आकर टिकते लोग सभी इतने विश्वसनीय, यथार्थ और पोयटिक हैं कि हमें एक अलग कौटुंबिक समृद्धि दिखती है. बड़ी रेयर-सी पारिवारिकता. यहाँ सबसे अच्छा मुझे यह लगा कि हम उन्हें उनकी सहज अर्जित महानता में जान रहे हैं जिन्हें प्रचलित हिंदी समाज के साहित्यिक कुनबे ने समझे बूझे तरीके से ओझल रखा है.
उमट ने इसे दो कलाकारों के मध्य संवाद कहा तो है मगर धीरे-धीरे इसमें ज्योत्स्ना मिलन, शंपा शाह, राजुला शाह, कृष्ण बलदेव वैद, नवीन सागर और निर्मल वर्मा, ध्रुव शुक्ल, मदन सोनी, उदयन वाजपेई, नवीन सागर की पत्नी छाया जी सहित और उमट की पत्नी किरण लक्ष्मी और आत्मीय परिवारी जन तथा संगी साथी भी हैं. इनके मध्य साहित्यिक बैठकियों के आत्मीय अभिनव रूप हैं. कविता है, रंगमंच है, लिखने के लिए बाकी चीजों की परिकल्पनाएँ हैं और बहुत मददगार होने वाली बेबाक आलोचनाएँ भी हैं.
यहाँ यह भी है कि सबका स्वभाव एक जैसा नहीं होता.
तो ये उपस्थितियाँ जिसने सहेजी हैं वह भी अपने आप में एक गहन संवेदनशील उपस्थिति है जिसके भीतर शहर बीकानेर का प्रकृत और संस्कृत जादुई अक्स जुटाता गया है. तब बीकानेर एक धूमिल-सा और भूला हुआ-सा शहर नहीं रह जाता उसके दर दरीचे अपने जीवन रव सहित साकार होते चले जाते हैं और भोपाल तो भोपाल है ही. भोपाल से बीकानेर गए वे यात्री सब बीकानेर में मिले आत्मीयों के उजले मन मिजाज़ के साथ-साथ उनके घरों के आंगन ओसारे का पूरा स्थापत्य तरल कर अपने साथ बांध ले आए हैं. एक ग़ज़ब तफसील की तरह यह बात अलग ज्योत्स्ना मिलन की चिट्ठी में आई है तो रमेशचंद्र शाह के पत्र में भी यह दर्ज है और बहुत थोड़े से अंतर के साथ दर्ज है यह. अनिरुद्ध उमट का राजस्थान के बीकानेर में बसा घर उनके मन में बस गया है, यानी ज्योत्स्ना जी के और रमेशचंद्र शाह के भी मन में गहरी प्रतीति हो कर दाखिल है वह घर, जो घर से अधिक एक भारतीय परिवार की प्रेमिल छवि सा उभरता है.
अब ज्योत्स्ना जी के लिए अनिरुद्ध की छवि उस प्रांतर में स्थित गढ़ी जैसे मकान से आबद्ध हुई सी है कि
‘अब तुम्हारे बारे में सोचते हुए शहर बीकानेर, तुम्हारा घर, नीचे का कमरा, सहन, तुम्हारी प्रिय ससुराल, छत वाला कमरा, चोपड़ सब याद आया करेगा. वह सब हमेशा के लिए साथ हो लिया है.’
आश्चर्य-सा लगता है कि घर की छवि ऐसे ही उमगती हुई शाह जी की चिट्ठी में भी बाकायदा दर्ज हुई है.
यह आंतरिकता कहन और स्वभाव के अंतर के साथ सहज ही खुली दिखाई देती है.
बाकायदा किताब के बारह अध्याय हैं. खूब खिले अधमुंदे से ही शीर्षक हैं इनके. ‘जैसे पीठ पीछे का आंगन’, या ‘रंग अभी गीले हैं’.
एक शीर्षक यह भी है कि ‘यह तुमने क्या कर डाला’.
‘कह गया जो आता हूँ अभी’ यह भी है यहाँ. कई अधूरी- सी विदाइयाँ हैं, पुनर्मिलन है तो हर बार अधिक जुड़ जाना और उतना ही छूट जाना है. एक गहराते त्रास की तरह किसी-किसी का हमेशा के लिए छूट जाना भी है जैसे नवीन सागर और ज्योत्स्ना मिलन की चिर विदाई का आघात. नवीन सागर की शख्सियत का अनोखापन जिस मानवीय संपूर्णता के साथ इस किताब में खुला है उतना और कहीं नहीं. कम से कम मेरे पढ़े में तो और कहीं नहीं. यह एक उदारतम रचनाकार का वह किरदार है जो अन्य कवियों की कविताएँ डूब कर सुनाता चला जाता है और अपनी सुनाने के अनुरोध के जवाब में कहता है कि ये सब मेरी ही तो हैं. जो अपने दिल को ऐसा ग़ज़ब विस्तार दे चुका है, उसका कभी अनमना उदास या मद्धिम होना असह्य होकर आता है किताब में.
इस किताब को पढ़ते हुए नवीन सागर से जुड़े प्रसंगों को नोट करने से ख़ुद को रोक नहीं पाई. जैसे मनुष्यता की विरल आभा को बचाने की बात हो. ऐसी कई शख्सियतें एक फकीर विराग में बाद में जानी जाती हैं यानी अपने जाने के बाद. यह हमारे लिए सचमुच एक समझाइश है कि जिसे जानो उसे उसकी पीड़ा समेत जानों तो बात है. इस जगह से कितनी ही अनजाने में हुई निष्ठुरताएँ दिख जाती हैं. सरापा जो रचने वाले हुए, वे और उनकी सच्चाई दुनिया की दुनियादारी का आईना हो जाती है. ऐसे लोग स्थापित लोगों की मौज का सामान हो जाते हैं मगर किसको फ़िक्र है?
नवीन सागर सबके थे तो इस तरह कि वे सब उनके ही तो थे. इस संबंध में सीधा कुछ नहीं था. सबसे कठिन रही होगी आत्माभिमानी की टेक. इसे जिसने समझा उसने ज़िंदगी का द्वंद्व समझ लिया. नवीन उमट को पूरा भोपाल जैसे किसी भावावेग में लपेट कर थमा देना चाहते थे. सुंदरताओं पर यकीन वाले उनके मन का बहुत- सा कांपता हुआ पल, एक क्षमा मांगती-सी उदासी और अवरुद्ध भी उमट के पास ही सबसे अधिक पहुंचा है, ऐसा लगता है.
मगर वे ही जो शाह परिवार में सबके भिन्न से नवीन सागर थे, उनका शाह परिवार से जब वैसे मिलना कम हुआ था. हम ज्योत्स्ना जी का लिखा पढ़ते हैं यहाँ कि
‘… उसकी अपनी परेशानियाँ हैं हमारी अपनी, हर कोई अपने ढ़ंग से जूझता रहता है’.
हमें दिखता है कि यह कोई निस्पृह कथन नहीं है. अनिरुद्ध ने लिखा कि
‘हम याद और भूलने के बीच आधे भीगे आधे सूखे व्यतीत होते हैं!’
नवीन सागर को सहेजने के कई जतन किताब में दिखाई देते हैं. यह जैसे एक देय से बंधे होने की कोमलता है.
कैसा संयोग कि नवीन के दूसरे कविता संग्रह का नाम है ‘ हर घर से गायब’
और इस संग्रह के विषय में जो मिलता है उसे पढ़ कर लगता है जैसे कि मित्र राग की अमरता का आख्यान है यह.
नवीन सागर की उपस्थिति के आयाम बताने वाले जीवन प्रसंग एक कीमती अनुभव की तरह आए हैं. उन सबमें कहीं उनके जीवन संघर्ष का वह ताप है जो सचमुच ऐसा लगता कि किसी उपन्यास का उदास नायक उठ कर चला आया हो. ऐसा कोई जिसके भीतर अपना सब कुछ छिपा कर रखने का कठिन आत्मसंघर्ष जारी है.
इन तफसीलों के साथ कथेतर विधा के विन्यास में आई इस गझिन किताब में शख्सियतें अपने समय और संघर्ष सहित सब कह जाती हैं और वहाँ हमें भाषा अपनी शक्ति में दिखाई देती है. इस विलक्षण-सी स्मृति कथा में कविता बहुत है. इसलिए इसे पढ़ना हमारा भी कहीं जुड़ना साबित होता है. इस तरह जहां हम कहीं जुड़े हैं वहीं जीवन के वृहत्तर स्पंदनों के हवाले हो गए हैं.
उमट के लिए यादों की एक कुंजी रेलवे स्टेशन के पास है. रेलगाड़ी और पटरियों के संदर्भ से मुझे हमेशा ही टॉल्स्टॉय याद आते हैं. एक बिंब की तरह और याद आती है अन्ना कारेनिना. उसमें यह रेलगाड़ी और उसकी पटरियां मिलने और बिछुड़ने का जो रूपक रचती हैं उसमें अन्ना के जीवन के निशान बनने और खत्म हो जाने तक की यात्रा करते हैं.
टॉल्स्टॉय के लिए इस रेलगाड़ी का अर्थ औद्योगीकरण के आरंभ में मौजूद यांत्रिकी की निरंकुशता से उभरता जो आतंक था, उसका एक वहाँ दिखाई देता है. मगर यहाँ, इस किताब में रेलगाड़ी यात्राओं को भीतरी यात्राओं के निहितार्थ तक लिए आई है. पढ़ते हुए प्रतीति तक ले आती है वह तफसील.
सखा अग्रज हैं शाह साहब. अहेतुक ढ़ंग से नेही. उनमें भी जुड़ जाने की विकलता है. वे अल्मोड़ा के प्यास के साहचर्य से इस मैत्री तक आते गए हैं. अल्मोड़ा भी उमट के लिए शाह को ही खोजने का एक प्रसंग होकर आया है. यादों में यादों की पदचाप दूर तक है कि
‘जब बीकानेर में मिलना हो तो कोई अल्मोड़ा में कैसे मिल लेगा भला!’
किताब के पन्नों में जादुई निर्मल, अपनापे और जिज्ञासा से भरे जीवन का रस है. महत्वाकांक्षाएँ अकुंठ होकर हैं यहाँ. कला के उर्वर की खोज है, बेचैनी है. उमट के कच्चे लेखक के पकने का समय भी अपनी गति में है और कई पत्रों में उसके निमित्त से कुछ अमूल्य रचना प्रक्रियाओं का प्रवेश है. वे सब हिस्से भीतर झांकने की धज में हैं और रचने वालों के काम के हैं. इस तरह साहित्य कला संगीत और संस्कृति का ताना-बाना अपने भीतर इस भिन्न-सी पारिवारिकता को बसा लेता है. पत्र लंबे होते जाते हैं. एक दूसरे के स्वभाव की विशिष्टता पत्रों में उभर उठी है. एक साहित्य संस्कृति समय भी अपनी गुत्थियों प्रवृत्तियों सहित जहां तहां दाखिल हो उठा है.
पाठकों का ध्यान चिट्ठियों पर दर्ज तारीखों से आते आरंभ पर जाता ही है. तो यह साल नब्बे के दशक का है. यह उमट की युवता का स्पंदित समय है. गीली मिट्टी-सा. सारे अक्स उस पर छपते चले गए हैं. वहाँ से छन कर और निखर कर जो जीवन संवरा है, उसकी तफसील यहाँ मिलती है. यह सारा संग पसारा भला हमारे किस काम का है. आखिर पूछना तो चाहिए न.
हमारे से आशय यह कि मेरे और मेरे ही जैसे कई लोगों के काम का क्योंकर है यह कि हम इसे पढ़ें और पढ़ कर उसकी थाह लें और ज़ाहिर भी करें. यहीं यह उल्लेख जरूरी है कि अनिरुद्ध के लिए संबोधन कैसे कहां बदलते गए हैं और कितने ही पत्रों पर तारीख अंकित नहीं है. मन: स्थितियों के हवाले झांकते हैं वहाँ से. इसलिए जरूरी हो गया है कि किताब ठहरते हुए पढ़ी जाए. प्रिय भाई अनिरुद्ध, प्रिय अनिरुद्ध, अनिरुद्ध और अ नि रु द्ध तक का संबोधन है.
चिट्ठियों में प्रकाशित, अप्रकाशित, संभावित रचनाओं पर मंथन मनन जैसी लगती बातें हैं, संवादों के छोर और अछोर हैं, बाकी ज़माना तो है ही. और ज़माना, उसमें भरे छद्म से विरक्ति का मिलजुल वाला संवाद है.
दरअसल इसमें हमारे सौंदर्यबोध को नए आयामों से जोड़ देने वाले कई संदर्भ हैं. कला की दुनिया के लोग हैं और दुनिया को देखने समझने का उनका नज़रिया है. खासकर रमेशचंद्र शाह की निजता अपने समय की व्यापक समाई लिए यहाँ आई है. उनके जरिए उस समय की कई तफसीलें भी आई हैं. साहित्य की दुनिया में जारी बंटवारों के प्रति कुछ इशारे भी हैं. बेबुनियादी किस्म की पॉलिमिक्स की थाह लेती एक परिपक्व नज़र है वहाँ. तो साहित्य की दुनिया में तालमेली रवायतों को पहचान लेने का शऊर भी किताब दे जाती है. खासकर वह दौर जो अज्ञेय, निर्मल वर्मा और उनसे जुड़े साहित्य समाज को संदिग्ध बनाने वालों से पटा चला जा रहा था. एक नकली संकट उफान था तब और वह साहित्य की पूरी ज़मीन हथियाने पर आमादा था. उसके पास हर तरह के रथी और महारथी भी थे. मगर इस ठेलठाल से असंपृक्त अप्रभावित रहने के विधान में रहते आए रमेशचंद्र शाह ज्योत्स्ना मिलन, कृष्ण बलदेव वैद, नवीन सागर सहित कई अकुंठ लेखक अपनी ही धज में थे. रमेशचन्द्र शाह के पत्र के एक उल्लेख से इस संदर्भ को स्पष्ट करना अच्छा होगा. उन्होंने पत्र में लिखा है कि – ‘कविता के मर्म की अक्षय ताजगी..’
इस अक्षय उन्मेष की ज़मीन अपनी उर्वरता के भिन्न संघर्ष में थी. इसका पूरा पता शाह और मिलन के लेखन से मिल जाता है. अपने रचने के संसार को वायवीय आपाधापी से अप्रभावित रखना भी इस यत्न का हिस्सा रहा होगा. इस आशय की कई ध्वनियां इस किताब में हैं.
किताब का जो आरंभ है, स्मृतियों के कोठार से आता हुआ, वह अनिरुद्ध उमट का भी जैसे आरंभ है. एक जिज्ञासु स्पंदित नेही कवि का भी आरंभ है यह जो अपनी तमाम विकलता लिए दिए अग्रज कवि से मिल रहा है और वह मिलन उसे बहुत बदल गया है. उसके पास अपनी कविताओं के आशय, उनकी ज़मीन और उनमें बसी हरारते अधिक साफ होकर आने को हैं. दोनों तरफ के पत्र देखिएगा आप, धीरे धीरे यह पत्राचार एक बराबर वाली जुगलबंदी होता गया है. रमेशचन्द्र शाह के लिए उमट के पत्रों का जवाब देना एक प्रीतिकर प्रतीति हुआ है. उनके मन में इस युवा मित्र को अपना लिखा पढ़ाने और बताने का उल्लास जागता गया है. क्रमशः इस कवि की संभावनाएं गंभीरता पूर्वक परखने के दायित्व का भी एक ढ़ंग है यहाँ और इससे जुड़े कितने ही उल्लेख भी हैं. उमट की कविताएं उन्हें पसंद आने लगी हैं मगर जिन कविताओं में बात बनते बनते रह गई है उन्हें भी रेखांकित किया गया है. आगे चल कर कहानियों उपन्यासों के विन्यास में कविता की समाई से बनती बातों की भी पड़ताल है . एक जगह इसी संदर्भ से आया यह लिखा मिलता है कि ‘ तुम्हारा भावयंत्र कविता के उपकरणों से ही यथार्थ को पकड़ना चाहता है.’
संदर्भ संभवतः अनिरुद्ध उमट के उपन्यास ‘पीठ पीछे का आंगन ‘ के विन्यास पर बात करने का है. और बहुत समृद्ध और संभावना पूर्ण भाषा का आगाज़ है यह .
कई जगह पत्र भाषा में ऐसे स्पेस रचते हैं कि लगता है इन्हें इस संवाद को निरंतरता के सूक्ष्म में रखना है. अनिरुद्ध उमट रमेशचंद्र शाह को पढ़ते हैं तो एक सघनतर होता संबंध बस चल पड़ता है. यह जो ‘बस तो’ है न, यह तो जैसे उसी नैरन्तर्य की कुंजी है कि जैसे जाते हुए कहा जाए कि आते हैं!
लिखने में यह भी आया है कि शाह जी अपनी हैंडराइटिंग सुधारना चाहते हैं. कि उन्हें लगता है, बहुत मुश्किल है उन्हें पढ़ लेना. सारी मुश्किलों का अनुमान है उन्हें. लिखते हैं ‘तुम मेरी इस भद्दी लिखावट को पढ़ पा रहे हो तो आगे बढ़ूं ‘
शाह जी के घर में लिखने की कई मेजें थीं. हर मेज से अनिरुद्ध उमट को चिट्ठी भेजी गई.
इस किताब में अनुभव और अहसास अपना नाम लिए ऐसे चले आए हैं जैसे हमारी ही गुत्थियों को कोई सही
नाम मिल गया हो.
एक जगह शाह साहब कहते हैं ‘समानधर्माओं की उपस्थिति का कोई अहसास ही नहीं हो पाता . जैसे इस समाज को लेखक की कोई जरूरत ही नहीं.’
इस तरह मूल संगत शाह की है यह जैसे वही प्रधान रागिनी है जिसमें जीवन गंभीर अनुराग में बहता है. यह मृत्यु को भी बरत लेने वाला जीवन है जो कैसी भी रिक्तता का सामना कर ले जाता है. नवीन और फिर ज्योत्स्ना जी की मृत्यु को भी ऐसे ही संभालता है यह. स्मृतियाँ सघन होती हैं और उनकी उपस्थिति भी.
रमेशचन्द्र शाह पत्र में लिखते हैं –
‘मृत्यु न होती तो कला, दर्शन, सभ्यता, संस्कृति कुछ भी न होता’
बहुत सारे कोट्स हैं किताब में जीवन को, मृत्यु को, यातना और क्लेश को तथा इस दुनिया को समझना दे जाते हैं वे. अज्ञेय हैं, गांधी हैं,कीट्स हैं तो कहीं शाह, नवीन ज्योत्स्ना और उमट भी मर्मपूर्ण जीवन निष्कर्षों वाली भाषा में हैं. जैसे एकांत, अकेलापन, यातना, दुनियादारी और न जाने कितने आलोक रचे जीवन क्षण हमें ठिठका देते हैं.
एक जगह अनिरुद्ध उमट ने लिखा है –
‘अकेला रहना सच में, अकेले रहने से बचा रहा था’
एक जगह अज्ञेय की ऐसी ही सारभरी पंक्ति है कि
‘क्या यह सच नहीं कि कि जीवन सदा ही वह अंतिम कलेवा है जो जीवन देकर खरीदा जाता है ‘.
किताब उत्कट रुप में जीवन को महसूस करती दिखाई देती है. सिर्फ कवि को ही नहीं, मनुष्य को भी. यह थोड़ा घपला भरा वाक्य है, शायद सामान्य मनुष्य लिखना यहाँ ज़रुरी हो.
‘शाह संगत’ शीर्षक इस किताब के निकट पाठ को कहीं तो समेटना है. कैसे भी अंत से मुठभेड़ करते हुए शाह साहब की एक कहानी का शीर्षक बता रही हूं, ‘भूलने के विरुद्ध ‘
हमारे समय की सबसे बड़ी कारवाई यही है, भूलने के विरुद्ध होना.
स्मृति भी एक सच्चा संगसाथ है, अगर मयस्सर हो.
चंद्रकला त्रिपाठी अज्ञेय और नई कविता (आलोचना), वसंत के चुपचाप गुज़र जाने पर शायद किसी दिन (कविता संग्रह), इस उस मोड़ पर (कथा डायरी), चन्ना तुम उगिहो (उपन्यास) तथा प्रेतबाधा, बरस के मौसम चार’ (कहानी संग्रह) आदि प्रकाशित. |
एक शांत , स्थिर और संयत पुस्तक का उतना ही शानदार , मर्मस्पर्शी और सजल करने वाला मूल्यांकन।साधु साधु।लेखक,समीक्षक और प्रकाशक के साथ संपादक के लिए शुभकामनाएं।
शाह संगत : चंद्रकला त्रिपाठी
ऐसी आत्मीयता से लिखी गई आलोचना
– -मानो कोई लंबी आख्यात्मक कविता पढ़ी जा रही हो । मूल पुस्तक के किरदारों को पाठक के अंतरंग में पैंठ कराती हुई रचनाकृत्री बधाई की अधिकारी हैं ।
“समालोचन “के संपादक को धन्यवाद ।
चंद्रकला त्रिपाठी का शाह संगत पर लेख तीन कवियन की वार्ता समझो।अगर नवीन सागर और ज्योत्स्ना और मलयज को मिला लो तो छह कवि हो गए।छह कवियों के मुख से गद्य छन छन कर निकल रहा है।उस तरलता को पकड़ने की कोशिश भी एक कवि ही कर रहा है।रेल यात्राओं को अन्तर्यात्राओं से जोड़ने का विचार भी अद्भुत लगा।चंद्रकला तुमने अपने अध्ययन से शाह संगत की एक और बैठकी कर डाली
ममता जी
शुक्रिया। बहुत सुंदर सेंध लगाई आपने। पारदर्शी।
आलेख पड़कर अद्भुत आनंद का अनुभव हुआ। पढ़ना शुरू किया, कि नींद आ जायेगी, पढ़ लेती हूं लेकिन मन साहित्य सुगंध और लेखक के लिखे में अटक अटक सुख लेने लगा। किताब तो सुंदर और पठनीय होगी ही, चंद्रकाल जी ने भी कमाल कलम की संगत की है। अनेक शुभकामनाएं