ऐसे भी तो सम्भव है रंगकर्म
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महान व्यक्तियों के पद चिन्हों पर मत चलो,
वह खोजो जो वे खोज रहे थे.
-बाशो
देवों को मानसी सृष्टि होती है, उनके सोचने या संकल्प करने से ही सृष्टि हो जाया करती है. पर मनुष्यों को संकल्प से सृष्टि या रचना नहीं होती, उन्हें रचना के लिए कर्म और उसकी प्रक्रिया से गुज़रना ही पड़ता है. यही कारण है कि नाट्यकला मनुष्यों को मिली, देवलोक उसे करने में असमर्थ ही रहा.
नाट्यशास्त्र की इस कथा में यह संकेत है कि रचना में प्रक्रिया का महत्त्व केन्द्रीय होता है. हमारा अधिकांश रंगकर्म केवल प्रदर्शन को ध्यान में रखकर ही उससे जुड़ी गतिविधियों को पूरा करने का प्रयास करता है. जिसका अर्थ है, एक लगभग तयशुदा स्क्रिप्ट (नाट्य पाठ) का होना, जिसका मंचन करने के लिए अभिनेताओं को तरह-तरह के प्रशिक्षण देने का प्रयास निर्देशक या संस्थाएँ करते हैं. रंगकर्मी राजेन्द्र पांचाल का ध्यान नाटक के प्रदर्शन से अधिक उन प्रक्रियाओं पर है, जिनसे गुज़रते हुए विद्यार्थी-रंगकर्मियों को ठहराव महसूस हो सके. इस ठहराव में वे ख़ुद को जानने का प्रयास कर सकें और अपने काम को देखने- परखने की क्षमता उनमें विकसित हो सके.
वे कहते हैं, ‘मुझे नयी पीढ़ी की विशेष फ़िक्र होती है. चाहे निर्देशक हों या अभिनेता वे काम पर काम किए जा रहे हैं लेकिन न तो उनके काम की गुणवत्ता में सुधार होता है, न हीं उनके व्यक्तित्व में.’
पैराफ़िन आश्रम में प्रयास किया जाता है कि युवाओं को सहज, सरल और निष्प्रयास जीवन जीने का अवसर उपलब्ध हो, जो उन्हें मौलिक अभिनेता बनने या बने रहने में मदद कर सके. रंगकर्मी अपनी रुचियों, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, जिज्ञासाओं पर यहाँ विमर्श करते हैं. एक-दूसरे को सुनना-समझना सीखते हैं. पैराफ़िन आश्रम में राजेन्द्र पांचाल चरित्र और अभिनेता या स्वभाव जैसे विषयों पर अनौपचारिक ढंग से बातचीत करते रहते हैं इससे रंगकर्मियों में स्वाभाविक सोच की प्रवृत्ति का विकास होता है. कई बार विद्यार्थियों को किसी विषय या व्यक्ति पर शोध करने का काम सौंप दिया जाता है और इस पर ध्यान दिया जाता है कि यह शोध धीरे-धीरे आत्मानुसंधान का रूप ले सके.
अपनी प्रयोगशील प्रस्तुतियों के लिए सुपरिचित ‘पैराफ़िन आश्रम’ रोटेदा में है, यह राजस्थान के कोटा शहर के निकट पड़ता है. देश भर से यहाँ पहुँचे युवा, रंगकर्म से संबंधित अपने अनुभवों का पहले अवलोकन कर लेते हैं फिर यहाँ रहने की अवधि वे ख़ुद ही तय करते हैं. पैराफ़िन के तीन ओर खेत हैं, जिनमें धान और गेहूँ आदि की फ़सलें होती हैं और चौथी तरफ रोटेदा गाँव हैं. यहाँ से थोड़ी-सी दूरी पर एक पुरानी बावड़ी है, जिसमें झाँकने पर नीचे की ओर पानी दिखता है. थोड़ा आगे जाने पर रेल की पटरी बिछी हुई दिखाई देती है, जहाँ से कभी-कभी गुज़रती रेल की ध्वनि पैराफ़िन आश्रम तक सुनायी दे जाती है. पैराफ़िन के वातावरण में ही ऐसी ऊर्जा है कि रंगकर्मी सामूहिक कार्यों जैसे भोजन बनाना, घास उखाड़ना, पौधों को पानी देना, कपड़े धोना आदि को करते हुए खूब प्रसन्न रहते हैं. प्रसन्नता यहाँ का स्थायी भाव है. सुबह-सुबह संगीत का अभ्यास, विभिन्न कलाओं और कलाकारों पर कुछ देखने, सुनने, पढ़ने का अवसर विद्यार्थियों की चेतना का विस्तार करता है. वे ख़ुद के प्रति और अपने आसपास घट रहे जीवन के प्रति अधिक संवेदनशील और सजग हो पाते हैं.
राजेन्द्र पांचाल राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नयी दिल्ली से औपचारिक शिक्षा लेने के बाद अपने शहर कोटा लौट कर आ गये. यहाँ सन् 2004 में उन्होंने ‘ब्लैक एण्ड व्हाईट आर्टिस्ट ग्रुप’ की स्थापना की और इसे सन् 2009 में श्रीमती कृष्णा महावर के साथ ‘स्टूडियो पैराफ़िन’ के रूप में पुर्नस्थापित किया l फिर जीवन और कला में अनुभव को शामिल करने के विचार से वर्ष 2016 में वे रोटेदा गाँव आ गये, जहाँ सन् 2019 से ‘स्टूडियो पैराफ़िन’ ‘आश्रम पैराफ़िन’ कहलाने लगा. इन दिनों राजेन्द्र पांचाल प्रदर्शन से अधिक प्रक्रिया को महत्व देते हुए युवा रंगकर्मियों के साथ कार्य कर रहे हैं. फरवरी 2022 में वे मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय के छात्रों की कक्षाएँ ले रहे थे. उन्हीं कक्षाओं के दौरान राजेन्द्र जी ने नाट्य विद्यालय के ड्राइवर राशिद जी और वहाँ चाय आदि तैयार करने वाली छाया जी को कक्षा में बुलाकर छात्रों से मिलवाया. इन दोनों के पास तथाकथित कोई उपलब्धियाँ नहीं हैं लेकिन वे सरल और अनुभवी हैं. जब उनसे अनौपचारिक होकर बहुत सम्मान से बात की गयी, उन्होंने अपने जीवन के बहुत महत्वपूर्ण अनुभव साझा किये. राजेन्द्र जी ने छात्रों से कहा कि हम इनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं. जीवन विराट् है, उसमें कितना कुछ बिखरा हुआ है, रंगमंच पर हम उसका कोई अंश ही तो प्रस्तुत कर पाते हैं. प्रदर्शन को जीवन में मिले अनुभवों और प्रक्रिया का अंश मानकर ही वे अपने रंगकर्मियों के साथ प्रस्तुत होते हैं. ‘विनोबा स्मरण’ पैराफ़िन समूह की ऐसी ही प्रस्तुति है.
पैराफ़िन आश्रम में रहकर विभिन्न प्रक्रियाओं से गुज़रे हुए और कुछ अपेक्षाकृत नये रंगकर्मियों ने राजेन्द्र पांचाल के सान्निध्य में हाल ही में भोपाल में रज़ा फ़ाउण्डेशन के आयोजन ‘रज़ा पर्व’ में ‘विनोबा स्मरण’ की प्रस्तुति की. यह इस समूह की इस नाटक की अन्तिम प्रस्तुति थी. क्योंकि राजेंद्र जी और उनके रंगकर्मी यह नहीं चाहते कि प्रदर्शन करते हुए वे किसी मेनरिज़्म में बँध जाएँ और उनके काम से उर्जा समाप्त हो जाए. भोपाल में यह प्रस्तुति मुझे तीसरी बार देखने का अवसर मिल रहा था.
पहली बार इसे राजेन्द्र जी के आमन्त्रण पर नवम्बर 2021 में टोंक, राजस्थान में देखा था, जिसका आयोजन चिन्तनशील रंगकर्मी राजकुमार रजक ने अज़ीम प्रेमजी फ़ाउण्डेशन में किया था और दूसरी बार मार्च 2022 में जयपुर के जवाहर कला केंद्र में युवा रंगकर्मी अभिषेक मुद्गल आयोजित नाट्य उत्सव में.
टोंक में यह प्रस्तुति देखने जाने से पहले मैं भोपाल से रेल में कोटा और वहाँ से रोटेदा चली गयी थी. कोटा पहुँचकर मुझे ‘करेला और नीम चढ़ा’ कहावत याद आयी क्योंकि सर्दी के दिन थे, तिस पर तेज़ बारिश हो रही थी, जिसे मालवी में मावठा कहा जाता है. पैराफ़िन की एक युवा रंगकर्मी ट्विंकल कोटा स्टेशन के बाहर ऑटो रिक्शा में मेरा इन्तज़ार कर रही थीं, मेरे पहुँचते ही हम लोग थोड़ा-थोड़ा भीगते हुए रोटेदा की ओर बढ़ चले. रोटेदा से कुछ पहले एक नहर साथ चलना शुरू कर देती है. नहर के खत्म होते ही दायीं ओर मुड़ने पर गाँव शुरू हो जाता है. रोटेदा में प्रवेश का एक सिंह द्वार बना हुआ है, इस द्वार से गुज़र जाने पर ज्वाला माँ का मन्दिर आता है, जिसमें ठण्ड की चिन्ता किये बिना कोई अलस्सुबह उठकर टेप रिकॉर्डर का बटन दबा देता है, अचानक लाउडस्पीकर पर धार्मिक गाने बजना शुरू हो जाते हैं, जिनकी धुनें अमूमन फ़िल्मी होती हैं. राजेन्द्र जी ने बताया कि मन्दिर के पास सम्भवतः यह अकेली कैसेट है, जो उनके बाजे में स्थायी रूप से अटकी हुई है.
बारिश, रह-रहकर होती चली जा रही थी. उसके बावजूद खरगोन ज़िले के पंधानिया ग्राम (मध्यप्रदेश) के मौलिक अभिनेता विजय पाटीदार ने अन्यों के साथ मिलकर सुकून से सबके लिए दाल बाटी बनायी. मैंने दाल की विशेष तारीफ़ की, उसमें न ज़्यादा तीखापन था न तेल-मसाले, उसके स्वाद में विजय के सात्विक स्वभाव की झलक थी. अगली बार जब मैं तीन दिन के लिए फिर से रोटेदा जाकर रही. उन्होंने मुझे तीनों दिन भात के साथ केवल वही दाल लेकिन अलग-अलग लोगों से बनवाकर खिलवायी. मुझे लगा कि विजय ने शायद मेरा लेख ‘नाट्यशास्त्र के उसूल’ पढ़ रक्खा है, जिसमें उस्ताद फैयाज़ खाँ कश्मीर की महारानी के बुलावे पर भातखण्डे जी को अपने साथ लेकर जाते हैं. क्योंकि भातखण्डे जी संगीत पुस्तक माला के लिए रागों की स्वरलिपि तैयार कर रहे थे. वहाँ उस्ताद फैयाज़ खाँ ने उन्हें 18 दिनों तक केवल यमन कल्याण सुनाया लेकिन हर रोज़ राग का चेहरा थोड़ा बदल जाता था. इस पर मैंने कहने का प्रयास किया कि राग का नॉर्म यानि उसूल एक हो सकता है, फ़ार्म नहीं. यह तो भला हुआ कि मैं रोटेदा में अठारह नहीं केवल तीन दिन तक ही रही. विजय ने बातचीत के दौरान बताया कि सामान्यतः यह समझा जाता है कि हमें दूसरों के किरदार निभाने होते हैं, पर ‘विनोबा स्मरण’ करते हुए यह बात समझ में आयी कि हम दूसरों का किरदार निभा ही नहीं सकते, हम अपना ही स्वभाव निभा रहे होते हैं. फिर इस समझ के साथ विनोबा की प्रस्तुति में यह प्रयोग कर पाया कि मैं विनोबा का किरदार नहीं कर रहा हूँ, अपने ही स्वभाव को समझ रहा हूँ.
दो दिन बाद टोंक में विनोबा की प्रस्तुति होने वाली थी, लेकिन किसी भी रंगकर्मी के चेहरे पर इस बात को लेकर कोई उद्विग्नता नहीं दिखायी दी. सभी शान्त थे. दोपहर में गोल घेरे में बैठकर सबके साथ दाल-बाटी खाते हुए मैं अपनी उत्सुकता के वशीभूत बातें करती चली जा रही थी. राजेन्द्र जी समेत सभी मुझे शालीनता से जवाब दे रहे थे. बाद में यह जानकर मुझे दुःख हुआ कि प्रस्तुति के दिनों में सब अक्सर मौन हो जाते हैं और भोजन के समय तो ख़ास तौर पर.
रोटेदा में रहने के बाद तीसरे दिन सुबह जब पूरा गाँव कोहरे से ढँका हुआ था, हम लोग एक छोटी बस में बैठकर टोंक की ओर चल पड़े. बस की खिड़की के मोटे शीशे से पेड़ों और मकानों पर छाया धुँधलका कुछ ज़्यादा सघन दिखायी देता था. धीरे-धीरे वह हटने लगा, जैसे श्वेत पंखों का कोई विशाल पक्षी पेड़ों और मकानों से आहिस्ता-आहिस्ता अपने पंख उठाकर उड़ा जा रहा हो. थोड़ी ही देर में ड्राइवर साहब ने बस में बज रहे गानों की आवाज़ कुछ बढ़ा दी. वे लगभग वही गाने थे, जो हिन्दी प्रदेशों की रोड़ पर चलने वाली निजि बसों में अक्सर बजा करते हैं. इन गानों को सुनकर मैंने बस के बाजे में अपना पेन ड्राइव लगाने की इच्छा ज़ाहिर की. इस पर राजेन्द्र जी थोड़े संकोच से बोले, ‘इन्हे भी चलने दीजिए, इनके जीवन की लय इन गानों से मिली हुई है.’ मुझे अनुभव हुआ कि अपनी प्रस्तुतियों में भी वे जीवन की लय खोजने का प्रयास करते हैं, घटनाओं को नहीं. ‘विनोबा स्मरण’ में विनोबा भावे के जीवन की घटनाओं जैसे भूदान आन्दोलन या चम्बल के बागियों का समर्पण या इसी तरह की घटनाओं का विस्तार करने के स्थान पर विनोबा के जीवन की लय को जिन मूल्यों ने गति दी, उन मूल्यों और लय को खोजने का प्रयास किया गया. विनोबा भावे के जीवन पर कालिन्दी जी की पुस्तक ‘अहिंसा की तलाश या उनसे सम्बन्धित अन्य साहित्य से पता चलता है कि विनोबा का पूरा जीवन अपनी माँ के ‘भक्ति से प्रेरित’ मूल्यों का ही विस्तार है. प्रस्तुति में एक दृश्य है, जहाँ बचपन में विन्या (विनोबा) भोजन के साथ माँ की बातों को भी मानो खाता जा रहा है.
गाँधी जी ने ‘सत्याग्रह’ के लिए सबसे पहले विनोबा का ही चुनाव किया था. विनोबा ने ‘सत्याग्रह’ के विचार को यह कह कर ‘सत्यग्राही’ में बदल दिया कि सत्य का आग्रह रखने से पहले सत्य को ग्रहण करना आना चाहिए. प्रस्तुति में रंगकर्मी इन्हीं मूल्यों की खोज को अभिव्यक्ति देने का प्रयास करते हुए लग रहे थे, जिनकी खोज स्वयं गाँधी और विनोबा भावे भी जीवन पर्यन्त करते रहे. जिनके कारण विनोबा भूदान आन्दोलन जैसी घटनाओं के प्रेरक बन सके. चूँकि इस प्रस्तुति के केंद्र में व्यक्ति नहीं, सत्य, अहिंसा, भक्ति और आज के समय में बेहद प्रासंगिक, सभी धर्मों के प्रति प्रेम और सहिष्णुता, जैसे मूल्य थे, इसलिए लुई पाश्चर, बाईबिल, कुरान, उपनिषद्, मैथिलीशरण गुप्त की कविता, नज़ीर अक़बराबादी की नज़्म आदि से उद्धरण और गाने लिए गये थे, जो रंगकर्मियों पर निर्देशक ने आरोपित नहीं किए थे बल्कि जिनका चुनाव स्वयं उन्हीं ने किया था. इन सभ्यतागत मूल्यों का विस्तार करती हुई यह प्रस्तुति सहज ही महाकाव्यात्मक अन्तश्चेतना से नैरन्तर्य पाती हुई जान पड़ी.
‘विनोबा स्मरण’ की भोपाल प्रस्तुति में ‘प्रोसिनीयम थियेटर’ हो या जयपुर प्रस्तुति में ‘ब्लैक बॉक्स’ दोनों को सफ़ेद चादरों से ढँक कर अनौपचारिक बना दिया गया था. पात्रों की न कोई एण्ट्री (प्रवेश) थी, न एग्ज़िट (निष्क्रमण), न आपस में बोले जाने वाले संवाद थे. संगीतकारों सहित सभी रंगकर्मी पूरे समय दर्शकों के सामने उपस्थित थे. उनकी कोई वेशभूषा भी नहीं थी, सभी ने श्वेत वस्त्र पहन रखे थे. कुल मिलाकर प्रस्तुति को मंचन के औपचारिक तत्वों जैसे रंगमंच, वेशभूषा, सेट, डिज़ाईन आदि से मुक्त रखा गया था. यह देखकर हबीब तनवीर के ‘नया थिएटर’ के नाचा के अभिनेताओं की सहसा याद हो आयी. फ़िदाबाई से लेकर गोविन्दराम, उदयराम, दीपक, पूनम, अगेश आदि का अभिनय इतना ऊर्जामय और खुला होता था कि वे प्रोसीनियम थिएटर को भी चौपाल में बदल लेते थे. दर्शकों को लगता था कि वे गाँव की चौपाल पर बैठकर ही नाटक देख रहे हैं.
एक ग्रामीण महिला टोंक में इस प्रस्तुति को देखते हुए बहुत आनन्दित हो रही थीं, वे अपने आठ-नो बरस के पोते को साथ लेकर आयी थीं. उनके व्यवहार से ऐसा बिल्कुल नहीं लग रहा था कि वे असहज महसूस कर रही हैं. इसका कारण शायद यह था कि प्रस्तुति के लिए बने परिवेश में कोई औपचारिकता नहीं थी. प्रोसिनीयम थियेटर से इतर एक बड़े- से हॉल में सफ़ेद चादरें बिछाकर संगीत की महफ़िल की तरह बैठक व्यवस्था की गयी थी, जिसने दर्शकों और कलाकारों के बीच का अन्तराल समाप्त कर दिया था.
इस प्रस्तुति का विशिष्ट आयाम इसका संगीत है. राजेन्द्र पांचाल संगीत को लेकर बहुत संवेदनशील हैं. वे रागों के नाम जानना नहीं चाहते, अपने भीतर उनका विस्तार होने देते हैं. उनकी गहन भावों में लिपटी हुई धुनों को रंगकर्मी गायक- गायिकाएँ अपने मुक्त कण्ठों से रंजक बना दिया करते हैं. यह भाव और अधिक गहन और रसमय हो गया था, जब टोंक में राजेन्द्र पांचाल स्वयं समूह के साथ गायन में सम्मिलित हुए थे. लग रहा था कि इस प्रस्तुति का असल भाव इसके संगीत में है.
चाहे टोंक हो जयपुर हो या भोपाल हर बार विनोबा की प्रस्तुति में मुझे किसी राग को सुनने की भाँति अलग-अलग भावों से गुज़रने की अनुभूति होती रही. मुक्त रूप से विचरण करते रंगकर्मी उन स्वरों की तरह जान पड़े, जो किसी राग का हिस्सा होते हुए भी, विस्तार की सम्भावना खुली होने के कारण हर बार नया जादू रचने में समर्थ होते हैं. पैराफ़िन आश्रम का ‘विनोबा स्मरण’ को प्रस्तुत करने का यह निराला ढंग अनुभव करते हुए मुझे हिन्दी के विलक्षण कवि जितेन्द्र कुमार की कविता पँक्ति कुछ बदली हुई-सी याद आती रही-
ऐसे भी तो सम्भव है रंगकर्म
‘विनोबा स्मरण’ प्रस्तुति में शामिल रंगकर्मी-कलाकार अभिनय – तबला- दीपक सिंह
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संगीता गुन्देचा
हिन्दी कवि, कथाकार, निबन्धकार, अनुवादक और सम्पादक संगीता गुन्देचा भारतीय रंगमंच की गम्भीर अध्येता हैं.
संगीता गुन्देचा की कई पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें कविता एवं कहानी का संयुक्त संग्रह ‘एकान्त का मानचित्र’ का द्वितीय संस्करण शीघ्र प्रकाश्य है. साथ ही नया काव्य संग्रह ‘पडिक्कमा’ भी शीघ्र प्रकाश्य है. समकालीन रंगकर्म में नाट्यशास्त्र की उपस्थिति को रेखांकित करते हुए आपने अपने समय के तीन सर्वश्रेष्ठ रंगनिर्देशकों सर्वश्री कावालम नारायण पणिक्कर, हबीब तनवीर और रतन थियाम से महत्वपूर्ण संवाद किया है, जिसकी पुस्तक राष्ट्रीय संगीत नाटक अकादमी से ‘नाट्यदर्शन’ नाम से प्रकाशित हुई है . आपकी अन्य पुस्तकें हैं, भास का रंगमंच, कावालम नारायण पणिक्कर: परम्परा एवं समकालीनता, समकालीन रंगकर्म में नाट्यशास्त्र की उपस्थिति.
संगीता गुंदेचा ने बहुतेरे अनुवाद भी किये हैं, जिनमें ‘उदाहरण काव्य’ प्राकृत-संस्कृत कविताओं के हिन्दी अनुवाद और ‘मटमैली स्मृति में प्रशान्त समुद्र’ जापानी कवि शुन्तारो तानीकावा की कविताओं के हिन्दी अनुवाद की पुस्तकें सम्मिलित हैं. आपने उर्दू लेखक सूफ़ी तबस्सुम की नज़्मों का सम्पादन ‘टोट-बटोट’ नाम से किया है.
आपकी कविता-कहानियों और पुस्तकों के अनुवाद उर्दू, बांग्ला, मलयालम, अंग्रेज़ी और इतालवी भाषाओं में हुए हैं.
संगीता गुंदेचा को कृष्ण बलदेव वैद अध्येतावृत्ति, भारत सरकार के संस्कृति मन्त्रालय की साहित्य की अध्येतावृत्ति और उच्च अध्ययन केन्द्र नान्त (फ्राँस) की अध्येतावृत्तियाँ मिली हैं.
कई पुरस्कार मिले हैं, जिनमें भोज पुरस्कार, भास सम्मान, प्रथम कावालाम नारायण पणिक्कर कला-साधना सम्मान, संस्कृतभूषण, कृष्ण बलदेव वैद फैलोशिप सम्मान, विशिष्ट महिला सम्मान आदि शामिल हैं.
इन दिनों कला, साहित्य और सभ्यता पर केन्द्रित पत्रिका ‘समास’ (सम्पादक- उदयन वाजपेयी) की सम्पादन सहयोगी हैं. केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक आचार्या हैं, जहाँ आप नाट्यशास्त्र अनुसंधान केन्द्र की संस्थापक संयोजक रही हैं.
ई-मेल: sangeeta.g74@gmail.com
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राजेन्द्र पांचाल के रंगकर्म पर यह लेख यह भी कह ही रहा है कि इस तरह के रंगकर्म में लिखित पाठ की आवश्यकता ख़त्म हो गयी है। इस दृष्टि से भी यह रैडिकल रंगकर्म है और यहाँ अभिनेताओं को अपना स्वभाव अनुभव करने का अवकाश भी कहीं अधिक उत्पन्न हो गया है।
सकल प्रस्तुति में अपनत्व का व्यवहार पाकर प्रसन्न 🙂 हूँ । संगीता जी ने राजेंद्र जी के ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ से पढ़ने के बाद राजस्थान में कोटा और बाद में अपने गाँव रोटेदा में ‘पैराफ़ीन आश्रम’ की स्थापना की है । इस आलेख की आरंभिक पंक्तियों में देवों और मनुष्यों में मौलिक अंतर को स्पष्ट किया गया है । देव सृष्टि रच सकते होंगे, किन्तु मनुष्य अपने व्यवहार से संसार का निर्माण करता है । एक व्यक्ति के साथ लोग जुड़ने लगते हैं और क़ाफ़िला बन जाता है । पैराफ़ीन आश्रम इसका साक्षात उदाहरण है ।
व्यक्ति जब किसी पात्र को निभा रहा होता है तो सच यह है कि वह स्वयं को ढूँढ रहा होता है । हमारा जन्म ख़ुद को ढूँढने के लिये हुआ है । राजेंद्र जी के नाटक में ‘ब्लैक बॉक्स’ पर सफ़ेद पर्दे लगा दिये गये हैं । पात्रों के वस्त्र भी धवल हैं । राजेंद्र जी पांचाल मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय में जाकर प्रस्तुति देते हैं । फिर कलाकारों को वहाँ के ड्राइवर राशिद और चाय आदि बनाने वाली छाया जी से मुलाक़ात कराते हैं । ड्राइवर राशिद और छाया जी के अनुभवों से कलाकार सीखते हैं । यह गुण हम सभी में हो तो जगत में अंधेरा न रहे । उज्ज्वल संसार बन जाये । बस में सवार होकर पेन ड्राइव से अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ गीत बजवाना राजेंद्र जी मना करते हैं और कहते हैं कि यही इनकी दुनिया है । कभी मैं भी अपनी पसंद की कैसेट थैले में रखकर सफ़र करता था ।
संयोग से संगीता जी गुंदेचा ने मुझे फ़्रेंड रिक्वेस्ट भेजी थी । मेरी ख़ुशनसीबी है । और आज यह आलेख पढ़ने के लिये मिल गया । बापू का आश्रम और उनके प्रिय अनुयायी विनोबा भावे का स्मरण किया गया है । विनोबा जी भूदान आंदोलन के पुरस्कर्ता थे । जगत में कहीं ऐसा आंदोलन नहीं हुआ होगा ।
अंत में जोड़ रहा हूँ कि मेरी प्रोफ़ेसर अरुण देव जी से मीठी नोक-झोंक होती रहती है । लेकिन तटस्थ और खरेपन के साथ । मतभेद हैं मन के भेद नहीं । प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है । अरुण जी ने कल रात लिखा था कि हम भी शांति के प्रयास में लगे हुए हैं । यदि संदर्भ यूक्रेन से रशियन फ़ौज की वापसी है तो इनके विचारों का ख़ैरमक्दम करता हूँ । हो सकता है कि ख़ैरमक्दम ग़लत तरीक़े से लिख दिया हो । मेरे नज़दीक उर्दू-हिन्दी शब्दकोश नहीं रखा हुआ ।
रमते राम की डायरी
कोशिश कर के सहज होना भी – मुश्किल तो है ही |
सुबह बाग़ में घूमते हुए जेब में रखे मोबाइल फोन की घंटी बजी | सोचा घूमने वाले साथियों में से किसी का होगा | निकाल कर देखा – कवि मित्र विनोद पदरज | कह रहे थे – समालोचन में राजेन्द्र पांचाल के नाट्यकर्म पर संगीता (गुंदेचा ) जी का आलेख छपा है |
अपूर्व कुमार जी की गाड़ी के पहिये की हवा निकल गई थी | पंक्चर सुधरवाने बैठे वहीं से –राजेन्द्र जी से बात की | वे कहने लगे “आप कुछ टिप्पणी करिएगा |” अब मैं भला…. | बहरहाल |
घर आकर रोजनामचा खोलकर बैठे – दो कविताएँ हुईं |
१.
होना , कुछ नहीं का
चीजों को होने देते हैं
उनके साथ हो लेते हैं
जैसे हों ही नहीं
न होना कुछ
तब होता हो शायद वहीँ कहीँ
जैसे पत्तियाँ खिर रही होती हैं पेड़ से बेलौस
य़ह एक पुराना मुहावरा है
२.
कविताओं ने – मनुष्य होने की तरफ बढ़ने में मदद की
अभिभावक करते हैं जैसे किसी डगमगाते चलना सीखते बच्चे की
और जब होने लगा कुछ कुछ
तो वे हट गईं दूर थोड़ी उसी तरह
उन्होंने कहा – इशारे से – हमारा काम पूरा हुआ.
——
पिछले दिनों संगीता जी आई थीं रोटेदा | राजेन्द्र पान्चाल के रंगकर्म को लेकर किताब लिख रही हैं | तब मिलना हुआ संगीता जी से |
मिल कर अच्छा लगा | यह ‘अच्छा’ सिर्फ कहने के लिए कहने कहना – जैसा नहीं है | वैसे अगर कहने को जायें तो – अपने आप को एक और मुश्किल से दरपेश करने जैसा होगा | वह फिर कभी |
इसमें क्या शक है कि – संगीता जी लेखन में सिद्धहस्त हैं , राजेन्द्र अपने काम के माहिर |
संगीता जी ने जो लिखा है – वह बहुत शिद्दत से लिखा है | समालोचन ने उसे प्रकाशित कर बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया है |
मैं कोई रंगकर्मी नहीं | फिर भी लगता है हम एक बड़े जहाज में हैं – समय के सहयात्री – इसलिए कुछ कहता हूँ |
राजेन्द्र पांचाल से मेरी मुलाकात हुई – तब , जब वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से आ गये थे | वे कुछ नाटक कर चुके थे _ सूर्यमल्ल कर रहे थे |
वह मुलाकात -एक रचनात्मक मित्रता में फलित हो गई है | (हम अब भी मिलते रहते हैं | बातें करते हैं | प्रायः बिना किसी सांसारिक प्रयोजन के |) उसके बाद उनके साथ कई रंग यात्राओं में सहयात्री होने का सुयोग हुआ | फूल केसूला , राग दरबारी,और दो या तीन विदेशी नाटक |
वे एक अनूठा तरीका अपनाना चाहते हैं हर बार अपने अभ्यास में | वे शायद कुछ भी दोहराना नहीं चाहते – किसी और का किया ही नहीं , खुद का किया भी | पूर्व का अनुभव उनके लिए अवलम्ब या प्रतिछाया न हो जो उनकी अधुनातन रचना में दिखे –मिले |
वह खाद हो जाए , जो उनकी नई रचना में नये रूप में खिले |
रंगकर्म उनके लिए जीवन , और जीवन उनके लिए – जैसे रचनात्मकता ,सत्य आनन्द की तलाश है | रचना,जीवन और जीवन का सत्य गुंथे हुए हैं | अलग भी और एकमेक भी | कोई भी निष्कर्ष एकान्तिक और आत्यन्तिक नहीं | परस्पर | सापेक्ष | और अनूठा | नैसर्गिक | प्राकृतिक रचना की तरह |
संकल्प,दृढ़ता , जैसे जिद हो | सक्रियता जैसे जूनून | रचनात्मकता जैसे उड़ान | और यह सब कुछ बादलों में बनने वाले आकारों रंगों की तरह | जैसे अभी था अभी कहीं नहीं | बिलकुल स्वाभाविक | प्रकृति में बनते मिटते रूपों स्वरूपों की तरह |
उन्होंने इन्हीं सभी गुणों ,लक्षणों को देखा चुना – अपने लोक , अपनी परम्परा की रचनाओं ,रचनाकारों में |
हाडी रानी ,संत पीपा जी ,सूर्यमल्ल , अपने आस-पास के आंचलिक कवि –रघुराज सिंह हाडा, दुर्गादान सिंह ,मुकुट मणिराज , विदेशी भाषा की रचनाओं ,राग दरबारी में भी वे शायद इसी प्रकृतिक राग को साधने का अभ्यास करते हैं | विनोबा ने उनकी इस उमंग को परवान चढ़ाया मानो |
सही कहा है संगीता जी ने अपने आलेख में उनकी जीवन यात्रा और रचना यात्रा अभिन्न है |
वे जीवन में जो कर रहे होते हैं वही अपने जीवन की कला साधना में साध रहे होते हैं | वे जो रचना मे करना चाहते हैं वही वैसा ही जीवन में करना चाहते हैं , कर रहे होते हैं |
उनकी जीवन संगिनी ,उनका घर ,आश्रम, गायें ,उनके रंगकर्म के साथी, कलाकार ,अभिनेता , कथा पटकथा,संगीत –सब कुछ जैसे उनकी इस यात्रा के सहयात्री हों |
इसी सब की अनवरत यात्रा में वे अपने इर्द-गिर्द बहुत कुछ रचते मिटाते रहते हैं |
यह बहुत शुभ है – संगीता जी ने और समालोचन ने इस कठिन और घोर अरचनात्मक होते जाते समय में एक खिड़की रचना के उस आकाश की तरफ खोली है – जिसके बारे में हम ज्यादा कुछ नहीं जानते | शायद स्वयं राजेन्द्र पांचाल भी |
दिनांक ०५.०५.२०२२
संगीता जी ने रंगकर्म प्रस्तुति की पूरी प्रक्रिया को जिस हृदयग्राही ढंग से रच दिया है, वह काबिल-ए-तारीफ़ है।
साधुवाद।
रंगकर्म पर आपके लेख को पढ़कर बहुत अच्छा लगा। ऐसा लगा कि निर्देशक देवलोक (शहरों ) से दूर भरत मुनि बनकर तपस्वियों की टोली का निर्माण कर फिर से नाट्य शास्त्र का एक नया संस्करण तैयार कर रहे हैं। – महेंद्र प्रसाद सिंह
‘विनोबा स्मरण’ की हाल ही में भोपाल में रज़ा फाउंडेशन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में हुई ’प्रस्तुति’ का हिस्सा होने का सुयोग मुझे भी मिला। हर कला रूप किस क़दर संभावनाओं से भरा होता है और एक ’नई आँख’ कैसे उस प्राचीन कला रूप ( यहां नाट्य) को फिर नया, ताज़ा कर देती है इसका प्रफ्फुलित करने वाला अनुभव हुआ इस प्रस्तुति को देख कर।
हर समय हम घटनाओं के घटाटोप से घिरे रहते हैं–विनोबा और गांधी जी वाला वह समय तो और भी अधिक उथल पुथल से भरा समय था। ऐसे में स्वयं में ’स्थित’ हो ’अंतर्रात्मा की आवाज़’ सुनने को दोनों ने साधा था। ख़ुद में अवस्थित हो पाने के इस कठिन काम को ही जैसे यह प्रस्तुति साध रही थी। ऐसा वह ख़ुद को घटनाओं के तेज़ बहाव वाली गति से काट कर करती है। जैसे सांस पर ध्यान लगा उसकी गति को बहुत कम किया जा सकता है, ठीक उसी तरह यह प्रस्तुति एक ख़ास भावबोध पर ख़ुद को केंद्रित कर समूचे घटनाक्रम की गति को मंथर कर देती है। यह समय की गति का इस तरह से मंथर होते चले जाना और उसका बोध दर्शकों को भी करा पाना इस प्रस्तुति की मुझे सबसे विलक्षण बात लगी थी। धवल बैकग्राउंड, अभिनेताओं के धवल वस्त्र, उनका एंट्री एक्सिट न करना, एक ही स्थान पर खड़े हो, की जाने वाली शारीरिक लय गतियां, संगीत सब कुछ इसी अनुभूति को सघन करने में सहायक होते हैं। राजेंद्र पांचाल जी और समूचे पैराफिन ग्रुप को इसे संभव कर पाने, या उस ओर प्रयासरत होने के लिए बधाई।
संगीता जी के इस सुंदर आलेख के लिए उन्हें भी बहुत बहुत बधाई। शुरुवात में दी गई कथा भी कमाल है☘️
बहुत रचनात्मक आलेख। आपकी लेखनी को सादर प्रणाम 🙏
मैं नाट्यशास्त्र का विद्यार्थी हूँ। यह लेख पढ़कर अद्भुत अन्तर्दृष्टि मिली। मैं राजेन्द्र सर से मिलना चाहता हूँ, संगीता मैम आपसे सम्पर्क करता हूँ।
बहुत आत्मीयता से लिखा है संगीता जी ने, किसी शख्सियत और उसके कर्म को इस सूक्ष्मता से परखना अद्भुत है।
“ऐसे भी तो संभव है रंगकर्म” पढ़ कर बहुत अच्छा लगा। याद आ गई प्रोसेस की, आश्रम की।
सच में, जितना विनोबा process सरल लग रहा था उतना ही कठिन था, क्योंकि खुदके विचारों पर काम करना था। बहुत ही सुंदर experience रहा।
मैं शब्दों में नहीं बता सकती की मुझे आश्रम में क्या मिलता है । सुकून, प्यार, सीख तो मुझे वहां मिली ही है उसके अलावा मैं वहां खुदको पहचान पाती हूं, जीने का ढंग सीख पाती हूं । हर छोटी चीज जो हम भूल गए है या भूल रहे है वो वहां पाती है।
– नम्रता
नमस्कार संगीता ma’am,
लेख पढ़कर आत्मा प्रसन्न हो गई । वैसे तो पांचाल सर के रंगकर्म को एक लेख में समेट पाना बहुत मुश्किल है लेकीन फिर भी आपने एक एक शब्द बहुत तोलकर रखा है । उनके मुताबिक रंगमंच और उनकी निरंतर चरेवैती रंगमंच यात्रा का मिश्रण है ये लेख। सभी बच्चो को भेजा है सबको फायदा मिले
अभिषेक मुद्गल
जयपुर
आपने बहुत बारीक़ी से नाट्यकर्म की मूल आंतरिक संवेदनाओं को रेखांकित किया है। प्रदर्शन के बरक्स प्रक्रिया को समझने के जिस विवेक को आपके लेख में महत्ता मिली है वह सर्वथा विचारणीय है। इसके अलावा आपकी प्रांजल भाषा में यह लेख एक ख़ूबसूरत गद्य का आनंद दे रहा है। रंगकर्म में नवाचार की भूमिका को गंभीरता से आपने देखा है। इस सारगर्भित लेख को लिखने और साझा करने के निमित्त आपका आभार।
— उत्पल
संगीता गुन्देचा का आलेख “ऐसे भी तो सम्भव है रंगकर्म” पढ़कर मुझे ऐसा लगा कि मैं, रंगकर्म की नयी रचनात्मक परिकल्पना पर कोई ललित निबंध पढ़ रही हूँ। पैराफ़िन आश्रम के वातावरण का चित्रण इस पंक्ति से अपना ध्यान आकर्षित करता है कि ‘प्रसन्नता यहाँ का स्थायी भाव है।’ दोबारा पढ़ना ही पड़ा ये आलेख। ‘विनोबा स्मरण’ की सफल और सार्थक प्रस्तुति से ये बात साफ़ दिखाई दे रही है कि मूल्यों की खोज को अभिव्यक्ति देने का प्रयास, रचनात्मक ऊर्जा से लबरेज़ रंगकर्म द्वारा ही सम्भव है।
मंजु वेंकट
बंगलूरू
बढ़िया👌🏽 नाटक के सहयोगी साधन जो ना केवल कथ्य या मूल विषय को गति देते हैं वरन् दर्शको में अनेक भावो का संचार करते हुए दर्शक को बांधकर भी रखते हैं ये साधन वास्तव मे किसी सुंदरी के आभूषण की तरह है लेकिन आभूषणों के बग़ैर भी स्वाभाविक सुन्दरता होती है। राजेंद्र पांचाल की नाट्य सस्था उसी स्वाभाविकता की और लौटकर नाट्य सौंदर्य को अलग आयाम पर ले जाते है। आपकी transparent लेखनी को प्रणाम। पढ़कर लगा जैसे हम पैराफिन आश्रम मे है👏🏻
पूरे आलेख को पढ़कर बहुत अच्छा लग रहा है , प्रस्तुति नहीं देख पाने का मलाल तो रहेगा , दिन प्रतिदिन कुछ न कुछ छूट ही रहा है | आपका बहुत बहुत आभार संगीता जी
可愛い ラブドール これは本当に興味深いです、あなたは非常に熟練したブロガーです。