आज के समय में मैनेजर पाण्डेय
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आज मैनेजर पाण्डेय अस्सी वर्ष के हो रहे हैं. उन्हें हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं. हम सब जिस समय में पढ़-लिख रहे हैं, जीवित और कार्यरत हैं, वह समय साधारण समय नहीं है. यह मानना और समझना भी सही नहीं है कि हम सबको अपने समय की अच्छी-खासी पहचान है. अफगानिस्तान में अमेरिका लगभग बीस वर्ष तक रहा और लौट गया. अफगानिस्तान गुह-युद्ध में फँस चुका है. अब वहाँ सत्ता और ताकत को लेकर तालिबान और हक्कानी नेटवर्क में मार-धाड़ बढ़ सकती है. हम कह सकते हैं कि हमें अफगानिस्तान से क्या लेना-देना? भारत की स्थिति कल क्या होगी, हम नहीं जानते, पर अनुमान तो कर सकते हैं. अनुमान सच भी हो सकता है और गलत भी. सुधी पाठक शायद यह सवाल करें कि इस सब का मैनेजर पाण्डेय और उनके आलोचना-संसार से क्या संबंध है?
फिलहाल केवल एक किताब की उनकी भूमिका और कुछ व्याख्यानों और निबंधों पर नजर डालें जिनमें वे अपने समय को लेकर बेहद चिंतित हैं और उसे अपने पाठकों और श्रोताओं के साथ साझा करते हैं. साहित्य को सही अर्थों में समझने के लिए रचना और रचनाकार के समय को भी समझना आवश्यक है. निश्चित रूप से मैनेजर पाण्डेय का अकादमिक महत्व बहुत बड़ा है, पर उनके लेखन-वाचन का सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. उनके अस्सीवें वर्ष पर कई अच्छे-खासे कार्यक्रम हो रहे हैं, आगामी दिनों में बहुत कुछ लिखा भी जाएगा, जिसका निस्सन्देह महत्व होगा, पर हमें उन्हें समझने और उनके वैचारिक पक्ष से अवगत होने के लिए अपने समय की उनकी पहचान को भी रेखांकित करना होगा. साहित्य का संबंध समय और समाज से है और जहाँ तक हिन्दी भाषा, साहित्य और समाज का सवाल है, वह बीसवीं सदी के अस्सी के दशक के बाद बहुत बदल चुका है. इस बदलाव को हमें जानना होगा. अपने एक लेख ‘आज का समय और मार्क्सवाद’ में उन्होंने कहा है –
‘‘आजकल बहुत सारे शब्दों के अर्थ बदल गए हैं. पहले जिसे प्रगतिशील कहा जाता था उसे आजकल रूढ़िवादी कहा जाता है. आजकल प्रगतिशील और रेडिकल वह है जो पूंजीवाद के बेरोकटोक विस्तार का समर्थन करता है. भारत में जो आर्थिक उदारीकरण है, वह बुनियादी तौर पर उधारीकरण है और निजीकरण का अर्थ है विदेशीकरण’’ (पल-प्रतिफल-80, जुलाई-दिसम्बर 2016)
हिन्दी में मार्क्सवादी लेखक, पत्रकार, विचारक, आलोचक, बुद्धिजीवी कम नहीं हैं. मैनेजर पाण्डेय हमारे समय के सबसे बड़े भारतीय मार्क्सवादी ओलोचक हैं- केवल साहित्यालोचक नहीं, संस्कृति-सभ्यता समीक्षक भी. जो लोग यह समझते हैं कि वे इस दुनिया को, आज के समय को पूरी तरह समझ चुके हैं, उनकी बात कुछ और है. जो समाज को बदलना चाहते हैं, उनके लिए अपने समय की पहचान बहुत जरूरी है क्योंकि आज झूठ को सच में और सच को झूठ में बदला जा रहा है. यह ‘पोस्ट ट्रुथ’ का समय है. देश में लोकतंत्र और संविधान की आज जो स्थिति है, उसे देखकर अनेक लोगों को फासिज्म की आहट सुनाई पड़ रही है. हिन्दी के कवि, लेखक, कथाकार, पत्रकार, आलोचक, बुद्धिजीवी और संस्कृति कर्मी में इस समय भी कुछ आग और ताप, ज्वाला और चिनगारियाँ बची हैं, जिससे विशेष रूप से हमारा ध्यान मैनेजर पाण्डेय की ओर जाता है.
सखाराम गणेश देउस्कर (17.12.1869-23.11.1912) क्रांतिकारी लेखक, इतिहासकार और पत्रकार थे, जिनका महत्वपूर्ण योगदान समाज, साहित्य और इतिहास के क्षेत्र में हैं. उन्हें ‘बंगाल और महाराष्ट्र के नवजागरण के बीच एक सेतु’ कहा गया है. उनकी पुस्तक ‘देशेर कथा’ (1904) का महत्व सबसे अधिक है. पुस्तक की प्रकाशन-शती के अवसर पर ‘देशेर कथा’ का बाबूराव विष्णु पराड़कर (16.11.1883-12.1.1955) द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद नेशनल बुक ट्रस्ट ने 2005 में पुनर्प्रकाशित किया, जिसकी ‘भूमिका एवं पुनर्प्रस्तुति’ मैनेजर पाण्डेय की है. छब्बीस पृष्ठों की इस भूमिका (‘एक आन्दोलनकारी किताब की कहानी’) के जरिये हम अपने समय से जुड़ी पाण्डेय जी की कुछ चिंताओं से अवगत होना नहीं चाहेंगे?
‘‘आज के दौर में देउस्कर के विश्लेषण को याद करना इसलिए जरूरी है कि भारत जैसे देशों की जनता वर्तमान समय में साम्राज्यवाद द्वारा चित्त-विजय’ के दूसरे अभियान का शिकार हो रही है. उसी अभियान का हिस्सा है वह भाषिक छद्म जो आजकल विचारों की दुनिया में फैला हुआ है… शब्दों के अर्थ बदल गए हैं’’ (वही, पृष्ठ 280)
2004 में जब मैनेजर पाण्डेय ‘देशेर कथा’ पढ़ रहे थे, तब उस समय के साथ अपने समय की जैसी चिंता उन्हें थी, क्या उसका संबंध साहित्य से नहीं है? साहित्य की रचना जिस भाषा में होती है, कविता जिन शब्दों में लिखी जाती है, वे सब अब खतरे में हैं. क्या यह मात्र संयोग है कि उनकी पहली पुस्तक ‘शब्द और कर्म’ है और अद्यतन पुस्तक ‘शब्द और साधना’. शब्द और भाषा हम सबके लिए महत्वपूर्ण है.
‘‘मनुष्य का जीवन जीना, जानना, सोचना, अनुभव करना और रचना करना भाषा में ही संभव होता है.’’
(‘शब्द और साधना’ की भूमिका, 2019)
पाण्डेय जी ने केन्याई लेखक न्गुगी वा थ्योंगो (5.1.1983) को उद्धृत किया है कि भाषा केवल सम्प्रेषण का माध्यम ही नहीं, संस्कृति की वाहक भी है. रामविलास शर्मा ने भी अपने अंतिम दिनों में न्गुगी को याद किया था. समय को केवल पहचानना ही सब कुछ नहीं हैं. अगर समय विपरीत और ध्वंसात्मक है तो उसे बदलने के लिए भी हमें सक्रिय होना पड़ेगा. कवि, लेखक, आलोचक, विचारक और संस्कृतिकर्मियों की इसमें बड़ी भूमिका है.
24 दिसम्बर 2008 को मैनेजर पाण्डेय ने ‘वैश्वीकरण के दौर में प्रगतिवाद’ पर एक व्याख्यान दिया था, जिसमें उन्होंने भूमंडलीकरण का भारत से और साहित्य के संकट से संबंध पर भी प्रकाश डाला है. इन पंक्तियों का लेखक बीसवीं शताब्दी के अंत से लगातार ‘उनिभू’ (उदारीकरण, निजीकरण, भूमंडलीकरण) और ‘अविवि’ (अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन) को ‘दुष्टत्रयी’ कह-लिख रहा है. नयी विश्व अर्थ-व्यवस्था और भूमंडलीकरण के आरंभ में ही ‘बाबरी मस्जिद’ का ध्वंस हुआ था (6 दिसम्बर 1992).
‘‘हम जिस समय और संसार में जी रहे हैं या कि मर रहे हैं, वह पूंजीवाद की विजय का, विश्वव्यापी विजय का समय है, बल्कि पूंजीवाद की विजय के उन्माद का समय है. यही नहीं, यह उस विजय के उन्माद से उपजे शोर का भी समय है. साथ ही उस शोर में विवेक के डूबने का समय भी है.’’ (‘पल-प्रतिपल’, वही पृष्ठ 279)
भूमंडलीकरण के लगभग तीस वर्ष हो चुके. इसने जो कोहराम मचाया है, जैसी तोड़-फोड़ की है, क्या अब भी हम उसे नहीं समझ पा रहे हैं? वास्तविक अर्थ में भूमंडलीकरण भूमंडीकरण है. भूमंडीकरण और बाजार पूंजी के दौर में लगभग सारे संबंध मतलब के हो चुके हैं. प्रेमचन्द ने ‘महाजनी सभ्यता’ (1936) में यह कहा था ‘बिजनेस इज़ बिजनेस’. उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ नहीं हुआ था. वे भावी खतरों को पहचान चुके थे, हमें सावधान कर रहे थे. क्या हम उन खतरों से बच सके? सावधान रह सके? मैनेजर पाण्डेय के पहले रामविलास शर्मा ने भी अपने अंतिम दिनों में अमेरिकी साम्राज्यवाद और भूमंडलीय खतरों से हमें सावधान किया था. क्या हमने उन्हें सुना? इक्कीसवीं सदी में उनके बाद मैनेजर पाण्डेय ने इनके बारे में हमें बताया. क्या हम इन्हें सुन रहे हैं? आज का समय भूमंडलोत्तर समय नहीं, भूमंडलीकृत समय है. हम सब जिस क्रूर, नृशंस, भुतहे, भयावह, उन्मादी, आत्मघाती समय में एक साथ जीवित और मृत हैं, लिख-पढ़ रहे हैं, बोल-सुन रहे हैं, क्या इस समय को और इसकी निर्मात्री शक्तियों को हम पहचान रहे हैं और अगर सचमुच हमने उन्हें पहचान लिया है, तो उसका विरोध कर, यथाशक्ति, यथासंभव उससे मुठभेड़ कर एक दूसरे समय की रचनाकांक्षा में हम हैं? हत्यारा गद्दियों पर बैठकर भाषण दे रहा है और हम खामोश होते जा रहे हैं. यह आज का समय है.
अस्सी और नब्बे के दशक पर हमें समग्रता में विचार करना चाहिए था- विशेषतः भारत में मंडल-कमंडल की, राजनीति और अस्मिताओं के उभार के साथ-साथ सोवियत रूस के ध्वंस और समाजवादी देशों से समाजवाद की समाप्ति के साथ बदलने वाली एक नई अर्थव्यवस्था आदि पर क्या सचमुच हमने ध्यान दिया- भाषा, संस्कृति, साहित्य, राजनीति, संस्था, शिक्षा, राजनीतिक दल सब पर? पाण्डेय जी ने साफ शब्दों में कहा है कि हमारा ‘राज्य’ ‘कल्याणकारी’ नहीं ‘दमनकारी’ है. हैरी एस ट्रूमैन (8.5.1884-26.12.1972) अमेरिका का तैंतीसवाँ राष्ट्रपति था- 12 अप्रैल 1945 से 20 जनवरी 1953 तक. मैनेजर पाण्डेय ने उसका एक कथन उद्धृत किया है कि अमेरिकी व्यवस्था अमेरिका में तभी मौजूद रहेगी, जब ये विश्व-व्यवस्था होगी. पाण्डेय जी ने अमेरिका के पूर्व विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर (27.5.1923), जो 98 वर्ष की अवस्था में अभी जीवित हैं, कि 1999 में लंदन में दिये उनके एक भाषण का यह अंश उद्धृत किया है कि
‘भूमंडलीकरण का दूसरा नाम अमेरिकी प्रभुत्व का विस्तार’ है.
(‘शब्द और साधना’ वही, पृष्ठ 128)
उन्होंने यह भी याद दिलाया कि किसिंजर ने ‘‘चिली में एलेंदे की हत्या करवा कर वहाँ की चुनी हुई सरकार को गिराया था.’’ (वही)
‘भूमंडलीकरण’ केवल अर्थशास्त्र का विषय नहीं है. मैनेजर पाण्डेय भूमंडलीकरण के तीन स्तरों- आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक की बात करते हैं. सांस्कृतिक प्रक्रिया की अभिव्यक्ति उन्होंने ‘उत्तर-आधुनिकतावाद’ में देखी है.
उत्तर आधुनिकतावादियों ने ही ‘इतिहास के अंत’ की बात की. ल्योतार (10.8.1924-21.5.1998) ने सबसे पहले महाआख्यान या महावृत्तान्त (ग्रैन्ड नैरेटिव) के अंत की बात कही थी. इतिहास के अंत की घोषणा अमेरिका से आई, उस अमेरिका से, जिसका अपना कोई इतिहास नहीं है. कीट्स (31.10.1795-23.2.1821) ने 1818-19 में अपने भाई को लिखे एक पत्र में अमेरिका के बारे में जो लिखा था उससे, हम शायद अवगत हों. उसने यह लिखा था कि अमेरिका में कोई बौद्धिक नहीं है. यह उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक की बात है. 1996 में सैमुअल पी. हटिंगटन (18.4.1927-24.12.2008) की पुस्तक ‘दि क्लैश ऑफ सिविलाइजेशंस एण्ड दि रीमेकिंग ऑफ वर्ल्ड ऑर्डर’ आई. मैनेजर पाण्डेय इस सब का हवाला देते हैं. 24 दिसम्बर 2008 के उनके व्याख्यान में मात्र सूचनाएँ नहीं हैं, गहरी चिंताएँ हैं कि हम इस धूर्त और छलिया समय को सही अर्थों में पहचानें.
उन्होंने समय की केवल सुसंगत पहचान ही नहीं की, हमें भी उसकी पहचान कराई और हमें क्या करना चाहिए, यह हमारे ऊपर छोड़ दिया. इसी व्याख्यान में उन्होंने सार्वजनिक सम्पत्ति बेचे जाने और अटल बिहारी वाजपेयी के समय एक नये मंत्रालय ‘निवेश मंत्रालय’ के खोले जाने की बात कही थी. आज जो लोग हल्ला कर रहे हैं कि सब कुछ बिक रहा है, देश बिक रहा है, क्या वे तब ‘निजीकरण’ का अर्थ नहीं समझ रहे थे? वे भूमंडलीकरण का वास्तविक विरोध किसी भी राजनीतिक दल ने नहीं किया था और इसके विरोध में किसी ‘संयुक्त मोर्चे’ का गठन नहीं किया गया था. उस समय पश्चिम बंगाल में माकपा और वामदलीय मोर्चे की सरकार के मुख्यमंत्री बुद्धदेव बसु (1 मार्च 1944) ने जो 2000 से 2011 तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे, कलकत्ता में अपने एक बयान में कहा था कि वे वहाँ व्यवहार में पूंजीवाद को ला रहे हैं. सिद्धांत में मार्क्सवाद और व्यवहार में पूंजीवाद! यह वह चीनी लाईन थी, जिस पर मधु कांकरिया ने ‘नन्दीग्राम के चूहे’ कहानी लिखी है. क्या इस कहानी पर कथालोचकों ने अधिक ध्यान दिया?
पाण्डेय जी ने ‘सेज’ (स्पेशल इकॉनॉमिक जोन) की आलोचना की और ‘इकॉनॉमिक’ के स्थान पर ‘एक्सप्लॉइटेशन’ शब्द रखा. अपने इसी भाषण में उन्होंने अमेरिका के उस ‘कोडवर्ड’ की ओर भी ध्यान दिलाया, जो इराक और अफगानिस्तान पर हमला करते समय उसने इस्तेमाल किया था. इराक पर हमले का उसका ‘कोड वर्ड’ था- ‘लिबरेशन इराक’ और अफगानिस्तान पर हमले का कोडवर्ड ‘इनड्यूरिंग फ्रीडम’ था. अमेरिका ने यह शब्द धोखा देने के लिए गढ़े थे. जहाँ तक अपने देश भारत का सवाल है,
‘‘इस देश में विरोध अपराध हो, उसको लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता, और ‘ये सरकारें संविधान विरोधी’ हैं”(‘शब्द और साधना’, वही, पृ. 131-32)
अगर मैनेजर पाण्डेय के इन विचारों से किसी को आपत्ति और असुविधा है, तो उनको बहस करनी चाहिए और अगर नहीं है तो साथ देना चाहिए. आलोचना केवल कृति, कृतिकार और विधा विशेष की समीक्षा भर नहीं है. उसकी अपनी ‘सामाजिकता’ भी है. साहित्य को उन्होंने ‘सामाजिक संवेदनशीलता का क्रिया-व्यापार’ कहा है.
“साहित्य का काम है सामाजिक संवेदनशीलता पैदा करना और सामाजिक संवेदनशीलता से ही साहित्य की रचना संभव होती है.’’
(वही, पृष्ठ 134-35)
कोई आलोचक ‘प्रगतिवादी’ अथवा ‘प्रगतिशील’ है, इसका निर्णय हम कैसे करेंगे? प्रगतिशील होने के पहले या उसके साथ-साथ उसे ‘मानवीय’ भी होना होगा और ‘मानवीय’ होने का अर्थ है मानवीय प्रश्नों और समस्याओं को समझना तथा उसके निदान के लिए प्रयत्नशील होना. वे ‘पूंजीवाद’ को समझने के लिए ‘मार्क्सवाद की मदद’ लेना जरूरी समझते हैं और मार्क्स की ओर लौटने को ‘आज के समय की जरूरत और मांग’ कहते हैं. भूमंडलीकरण ने संस्कृति के क्षेत्र में जो विध्वंसक कार्य किये हैं, उसे कई संस्कृतिकर्मी भी कम समझ रहे हैं. क्या सच में हमने मैनेजर पाण्डेय की आवाज सुनी? क्या सचमुच उनकी चिन्ताएँ जो सामाजिक-सांस्कृतिक और वैश्विक भी हैं, उसे हमने अपनी चिंताओं में शामिल किया? ये सब आज के समय से जुड़ी चिंताएं हैं.
रामविलास शर्मा के बाद वे हिन्दी के अकेले अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरोधी, आलोचक हैं. भूमंडलीकरण और नव उदारवादी अर्थ-व्यवस्था के दौर में भारत-अमेरिकी मैत्री जितनी बढ़ी है उसे समझने की जरूरत है. अमेरिकी साम्राज्यवाद की चर्चा अब कम मार्क्सवादी, आलोचक-विचारक भी करते हैं. नोम चोम्स्की ने वर्षों पहले अमेरिका को थोक आतंकवादी और अन्य को खुदरा आतंकवादी कहा था. मैनेजर पाण्डेय ने अपने 2008 के इसी व्याख्यान में अमेरिका के 36वें राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉनसन (27.8.1908-22.1.1973) के वहाँ की सीनेट में दिये भाषण का एक अंश हमारे सामने रखा. जानसन 22 नवम्बर 1963 से 20 जनवरी 1969 तक अमेरिका के राष्ट्रपति थे. लादेन के पाँच लोगों के साथ अमेरिका जाने का जिक्र पाण्डेय जी ने किया है. अमेरिकी राष्ट्रपति डेमोक्रेटिक पार्टी का हो या रिपब्लिकन, अमेरिका की नीतियों में मूलभूत अंतर नहीं होता. जॉनसन ने लादेन और उसके साथियों के बारे में यह कहा था कि वे ‘फाउंडिंग फादर्स ऑफ अमेरिका’ हैं. (वही, पृष्ठ 132) यहाँ यह लिखना जरूरी लग रहा है कि ‘फाउंडिंग फादर्स’ पद 1916 में अमेरिकी सीनेटर वारेन जी. हार्डिंग (2.11.1815-2.8.1923) ने ईजाद किया था. बाद में वे अमेरिका के 29वें राष्ट्रपति हुए और राष्ट्रपति पद को 1921 से 1923 तक सुशोभित किया.
यहाँ अमेरिकी इतिहासकार रिचर्ड बी मौरिस (24.7.1904-3.3.1989) का उल्लेख इसलिए जरूरी लग रहा है कि 1973 में उन्होंने सात प्रमुख ‘फाउंडिंग फादर्स’ की चर्चा की थी-
- जॉन एडम्स जूनियर (10.1735-4.7.1826),
- बेंजामिन फ्रैंकलिन(1.1706-17.4.1790),
- अलेक्जेंडर हैमिल्टन (1.1755 या 1757 -12.7.1804),
- जॉन जे (12.1745-17.5.1829),
- थॉमस जेफर्सन (4.1743-4.7.1826)
- जेम्स मैडिसन (3.1751-28.6.1836) और
- जॉर्ज वाशिंगटन (2.1732-14.12.1799).
जिस ओसामा बिन लादेन (10.3.1957-2.5.2011) को अमेरिका ने मार डाला, उसे ही वहाँ कभी फाउंडिंग फादर्स’ के रूप में भी देखा गया था. इतना ही नहीं, मैनेजर पाण्डेय ने यह भी बताया है कि जॉर्ज बुश (6.7.1946) दुबारा राष्ट्रपति ‘इवांजिलिस्ट क्रिश्चियन’ के वोट से बने थे. वे 20 जनवरी 2001 से 20 जनवरी 2009 तक अमेरिका के 43वें राष्ट्रपति थे. बुश ने अपने चुनाव में ‘धर्म’ का इस्तेमाल किया था. पाण्डेय जी ने ‘इंटेलीजेंट डिजाइन’ की भी बात कही है, जो ईश्वर के अस्तित्व का छद्म वैज्ञानिक तर्क’ (स्यूडो साइंटिफिक आर्गूमेंट) है. वैज्ञानिक अरबों रूपये की इस योजना में कार्यरत हैं, जिसका मतलब ‘इंटेलीजेंट डिजाइन के डिजाइनर’ को सिद्ध करना है.
‘‘इस बेवकूफी का परिणाम यह है कि अमेरिका के स्कूलों में डार्विन के विकासवाद के बदले सृष्टिवाद को पढ़ाया जा रहा है.’’
(‘शब्द और साधना’, पृष्ठ 133)
रामविलास शर्मा के बाद मैनेजर पाण्डेय को छोड़कर अमेरिका का इतना बड़ा आलोचक हिन्दी में ही नहीं, किसी भी भारतीय भाषा में शायद ही कोई दूसरा होगा. पाण्डेय जी को केवल ‘साहित्यालोचक’ कहना उनके साथ नाइंसाफी भर नहीं है, यह हिन्दी आलोचना को अपने समय से काटना भी है. उनका अवदान साहित्य संस्कृति के क्षेत्र में इतना बड़ा है कि उन्हें केवल एक क्षेत्र-विशेष में सीमित कर देना अन्यायपूर्ण है. ‘क्लाड इथरली’ में मुक्तिबोध ने भारत के प्रत्येक शहर में एक अमेरिका होने की बात कही थी. उनकी जन्मशती बीत चुकी, पर अमेरिका-मुक्तिबोध की दृष्टि या विचार-दृष्टि पर कितना विचार हुआ?
मैनेजर पाण्डेय का मार्क्सवाद कहीं से भी जड़, यांत्रिक और स्थिर नहीं है वे मार्क्सवादियों और मार्क्सवादी दलों के विचारों में मार्क्स के विचारों की गतिशीलता का अभाव देखते हैं. उन्होंने हिन्दी आलोचना में मार्क्सवाद को विकसित किया है, उसे समकालीन बनाया है. ये यह नहीं मानते कि
‘‘मार्क्सवाद पूंजीवाद के आतंक या अमेरिका की साजिश से नष्ट हुआ है. ये स्वयं मार्क्सवादियों की अपनी करतूतों का परिणाम है.’’
(वही)
वे प्रसिद्ध जर्मन कवि हंस माग्नुस एंत्सेंसबर्गर (11.11.1929), जो अभी जीवित हैं, की मार्क्स पर लिखी कविता को दो बार 2008 और 2016 में उद्धृत करते हैं. क्यों करते हैं? हिन्दी में हांस माग्नुस एंत्सेंसबर्गर की कविताओं के कम अनुवाद नहीं हुए हैं, पर पता नहीं उनकी कविता ‘कार्ल मार्क्स’ की इन पंक्तियों को कब-कहाँ किसने उद्धृत किया है? सुरेश सलिल ने ‘रोशनी की खिड़कियां’ में इनकी कविताओं के जो अनुवाद किए हैं, उनमें ‘कार्ल मार्क्स’ वाली कविता का अनुवाद नहीं है. मैनेजर पाण्डेय कवि नहीं हैं, पर उन्होंने इन पंक्तियों को उद्धृत किया है –
‘‘मैं देख रहा हूँ
तुम्हारे अनुयायियों ने
तुम्हें धोखा दिया है
और तुम्हारे दुश्मन
वे जैसे पहले थे
वैसे ही आज भी हैं.’’(‘पल प्रतिपल’, वही, पृष्ठ 287)
मैनेजर पाण्डेय की चिन्ताएँ बड़ी हैं. वे वर्तमान समय की चिन्ताएँ हैं. हमारा वर्तमान अनेक मुसीबतों से घिरा है. फेसबुक पर सक्रिय कितने कवियों-लेखकों में सचमुच अपने समय की चिन्ताएँ हैं? फेसबुक से अलग भी आलोचना कर्म में हमारी चिन्ताएँ कितनी गहरी, सामाजिक और वास्तविक हैं? पाण्डेय जी जैसी चिन्ता कहीं दिखाई नहीं देती. उनका प्रत्येक निबंध जिस गहन अध्ययन, शोध-अन्वेषण से लिखा गया है, वह हमें चकित करता है. आलोचना-कर्म एक बड़ा ‘सामाजिक-सांस्कृतिक कर्म भी है. सखाराम देउस्कर और उनकी पुस्तक ‘देशेर कथा’ की चर्चा इस निबंध के आरंभ में की गयी है. अब अगर हम थोड़ा विस्तार से पाण्डेय जी द्वारा लिखी गयी इसकी भूमिका को देखें, तो बहुत चीजें हमारे सामने स्पष्ट होंगी. देउस्कर ने अपनी पुस्तक में ‘अंग्रेजी शासन के गुण दोष’, देश की अवस्था, मानसिक अवनति, किसानों का सर्वनाश, रेल और नहर, कारीगरों का सर्वनाश, देशी कारीगरी का नाश, स्वदेशी आंदोलन, आय और व्यय, पादरियों की युक्ति, प्रतिकार का उपाय, सम्मोहन-चित्त विजय, बट्टे से हानि, बंग विभाग, सन 1901 की आदिम सुपारी पर विचार किया है.
जिस प्रकार रामविलास शर्मा प्रचलित अर्थों में इतिहासकार और अर्थशास्त्री नहीं थे, उसी प्रकार मैनेजर पाण्डेय भी समाजशास्त्री, इतिहासकार और अर्थशास्त्री नहीं हैं, पर इन तीनों का उनका गहरा अध्ययन है. अक्सर मार्क्स के ‘पॉलिटिकल इकॉनोमी’ की बात कही जाती है, पर बहुत कम मार्क्सवादी आलोचकों का ध्यान आज की ‘पालिटिकल इकॉनोमी’ की ओर जाता है. देउस्कर की पुस्तक की भूमिका ‘एक आंदोलनकारी किताब की कहानी’ में मैनेजर पाण्डेय ने केवल पुस्तक के संबंध में नहीं, उस पर विचार करते हुए अपने समय से जुड़ी जो कई बातें कही हैं, वे बेहद महत्वपूर्ण है. छब्बीस पृष्ठों की इस असाधारण भूमिका में उन्होंने सत्रह पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं के रेफरेंस दिये हैं. पहले उन्हें देखें.
यह पुस्तक 2005 में प्रकाशित हुई थी, इसलिए यह अनुमान किया जा सकता है की भूमिका 2004 के अंत या 2005 के आरंभ में लिखी गयी है. वे इस भूमिका में-
श्री अरबिन्दो (15.8.1872-5.12.1950) की पुस्तक ‘ऑन हिमसेल्फ एण्ड ऑन दि मदर’ (1953),
सत्यभक्त (2.4.1897-1985) की ‘भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना’,
श्री नारायण चतुर्वेदी (1895-18.8.1990) की पुस्तक ‘आधुनिक हिन्दी का आदिकाल’,
रामविलास शर्मा (10.10.1912-30.5.2000) की पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश खण्ड 2’,
कार्ल मार्क्स (5.5.1818-14.3.1883) की ‘ऑन द नेशनल एण्ड कॉलोनियल क्वेश्चनिंग’,
जोसेफ कोनराड (3.12.1857-3.8.1924) की पुस्तक ‘हार्ट आफॅ डार्कनेस’ (1899),
अमेरिकी – कनाडियन इतिहासकार एलेन मेकसिंस वुड (12.4.1912-14.1.2016) की पुस्तक ‘द एम्पायर ऑफ कैपिटल’ (2003),
मार्क्स-एंगेल्स की ‘बेसिक राइटिंग’ (1984),
अमेरिकी समाजवादी टीकाकार हैरी सैमुएल मैगडौफ (21.8.1913-1.1.2006) की ‘इम्पीरियलिज्म एंड ग्लोबलाइजेशन’ (2002)
अरून्धति राय (24.11.1961) की ‘द अलजेब्रा ऑफ इनफिनीट जस्टिस’ (2001),
शशि थरूर (9.3.1956) की ‘नेहरू’ (2003) और
1982 से प्रकाशित समाजशास्त्र, संस्कृति और सामाजिक सिद्धान्तों के अकादमिक जर्नल ‘थ्योरी, कल्चर एंड सोसाइटी’ (सेज से प्रकाशित द्वैमासिक),
1949 से न्यूयार्क से प्रकाशित एक स्वतंत्र समाजवादी, राजनीतिक अर्थशास्त्र, अर्थशास्त्र और समाजिक विज्ञान की मासिक पत्रिका ‘मंथली रिव्यू’, 1949 से प्रकाशित साप्ताहिक अकादमिक पत्रिका ‘ईपीडब्ल्यू (इकॉनामिक एण्ड पालिटिकल वीकली’ और
1977 से प्रकाशित हिन्दी पत्रिका ‘फिलहाल’ में प्रकाशित कतिपय लेखों के जरिये अपनी बात सम्पुष्ट करते हैं.
‘देशेर कथा’ पर लिखते हुए इतने गहन अध्ययन और विस्तार में जाने की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि
‘‘19वीं सदी और 21वीं सदी के साम्राज्यवाद के व्यवहारों में अनेक समानताएँ है.’’
(‘देश की बात’, 2005 पृष्ठ 26)
ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर बहुत अधिक लिखा गया है, पर अमेरिकी साम्राज्यवाद पर हम अधिक ध्यान नहीं देते. कमाल की बात यह है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद से हमने लड़ाई लड़ी और अब अमेरिकी साम्राज्यवाद के संग-साथ भारत है. पाण्डेय जी साम्राज्यवाद के उस ‘मूल चरित्र’ की ओर हमारा ध्यान दिलाते हैं.
“जिसमें स्वदेश में लोकतंत्र और उपनिवेश में तानाशाही चलती दिखाई देती है’’
अपने निबंध में वे एकदम नयी सामग्री शामिल करते हैं. भूमिका 2004 के अंत या 2005 के आरंभ में लिखी गयी होगी, जिसमें उन्होंने इतिहासकार पार्थ चटर्जी (5.11.1947) के कुछ महीने प्रकाशित एक लेख का अंश उद्धृत किया है, जिसमें
‘19वीं सदी के ब्रिटिश साम्राज्यवाद से 21वीं सदी के अमेरिकी साम्राज्यवाद की तुलनात्मक समालोचना’ है.
पार्थ चटर्जी का यह निबंध ‘भूमंडलीकरण के बाद साम्राज्य’ ई.पी.डब्ल्यू के सितम्बर 11.17.2004 में प्रकाशित हुआ था.
पाण्डेय जी ने दो-तीन महीने बाद अपनी भूमिका लिखी. विविध अनुशासनों में हो रहे अद्यतन कार्यों की उन्हें जितनी जानकारी है उतनी अन्य अनुशासनों में कार्यरत शायद ही कुछ को होगी. पार्थ चटर्जी को उन्होंने विस्तार से उद्धृत किया है. पार्थ चटर्जी ने ‘साम्राज्यवाद के विचार धारात्मक इतिहास’ पर ध्यान दिया था और अपने निबंध में ‘नैतिक औचित्य की स्थापना’ की बात कहीं थी. साम्राज्यवाद अपनी सुविधा और रक्षा के लिए जिन तर्कों को गढ़ता है, उसे पाण्डेय जी पार्थ चटर्जी के जरिये अधिक स्पष्ट करते हैं. एक लेख या भूमिका लिखने में कितने श्रम और व्यापक अध्ययन की जरूरत होनी चाहिए, इस दृष्टि से भी यह भूमिका अवश्य पढ़ी जानी चाहिए. तर्क और तथ्य से पाण्डेय जी के लेखादि इतने सम्पुष्ट होते हैं कि शायद ही उससे कोई असहमत हो. मजबूत नींव से वे आलोचना को कहीं अधिक प्रामाणिक, उपयोगी और आवश्यक बनाते हैं. हिन्दी में अभी तक ऐसा कोई अध्ययन नहीं हुआ है, जिससे हम कवियों, लेखकों और आलोचकों के अध्ययन-संसार को समझ सकें.
रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, नामवर सिंह, मैनेजर पाण्डेय ने किन पुस्तकों और पत्रिकाओं का अध्ययन किया है, हम नहीं जानते.
‘बरीसाल के वीर स्वदेश हितैषी बाबू अश्विनी कुमार दत्त ने ‘देशेर कथा’ के बारे में एक वक्तता में बंगालियों को इसे पढ़ने को कहा था –
‘‘बंगालियों, इस ग्रन्थ को पढ़ो और अपने देश की अवस्था और निज कर्तव्य पर विचार करो’’.(वही पृष्ठ 7 पर उद्धृत)
कुछ उसी तर्ज पर मैं यह कहना चाहूँगा कि हिन्दी भाषा के कवियों, लेखकों, पत्रकारों, संस्कृतिकर्मियों और आलोचकों, कृपया ‘देशेर कथा’ की मैनेजर पाण्डेय की भूमिका पढ़िए और ‘अपने देश की अवस्था और निज कर्तव्य पर विचार’ कीजिए.
मैनेजर पाण्डेय ने अपनी आलोचनाओं में अनेक स्थलों पर देश की अवस्था पर विचार किया है और अपना नागरिक-सामाजिक-सांस्कृतिक बौद्धिक कर्तव्य पूरा किया है. उन्होंने बीसवीं सदी के आरंभ में जन्मे-फैले ‘स्वदेशी आन्दोलन की प्रज्वलित अग्नि में घृताहुति का-सा काम’ का श्रेय ‘देशेर कथा’ को दिया है.
भूमिका में उन्होंने देउस्कर के ‘सम्पूर्ण चिंतन और लेखन की बुनियादी चिन्ता देश की पूर्ण स्वाधीनता’ मानी है. इस वर्ष स्वतंत्रता के 75वें वर्ष के आयोजन में हमें अपने से यह प्रश्न करना चाहिए कि क्या हमने ‘पूर्ण स्वाधीनता’ प्राप्त की है? ‘नेशन फर्स्ट एंड आलवेज फर्स्ट’ में हमें यह भी बताना होगा कि किसका ‘नेशन’? अनुवाद पर पुस्तकों की कमी नहीं है, पर स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान राष्ट्र की कल्पना और धारणा के विकास में अनुवादों की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका’ पर शायद केवल पाण्डेय जी ने ही ध्यान दिया है, जिससे उनके आन्दोलन-संबंधी रूख का भी पता चलता है.
अनेक बार उन्होंने मार्क्स का यह कथन उद्धृत किया है कि बुर्जुआ (पूंजीवादी) सभ्यता का पाखंड अथाह है और उसकी बर्बरता जन्मजात है. आज की पूंजीवादी अर्थ-व्यवस्था में यह कई गुना बढ़ी हुई है. देउस्कर पर लिखते हुए मैनेजर पाण्डेय केवल भारत में अंग्रेजी राज पर ही बात नहीं करते, वे वर्तमान में उस समय ‘इराक में अमेरिका के व्यवहार’ पर भी दृष्टि डालते हैं. बहुत कम ऐसे इतिहासकार हैं, जो कल के इतिहास पर लिखते हुए अपने वर्तमान पर भी अधिक विचार करते हों. ब्रिटिश राज में जितना उसका पर्दाफाश किया गया था, उतना स्वदेशी शासकों के राज का नहीं हुआ है. साहित्यकारों के यहाँ यह विविध रूपों और स्तरों पर हमें दिखाई देगा, पर आलोचकों के यहाँ यह कम है.
‘‘आज के साम्प्रदायिक उभार के समय में ‘देश की बात’ साम्प्रदायिकता के स्रोतों और रूपों की जानकारी देकर पाठकों को साम्प्रदायिक सोच से बचने में मदद करेगी.’’ (वही, पृष्ठ 20)
जिस प्रकार रचना अपने समय से विच्छिन्न होकर नहीं लिखी जाती, उसी प्रकार आलोचना भी अपने समय से अलग और निरपेक्ष नहीं हो सकती. मैनेजर पाण्डेय के लिए उनका अपना समय, जिसमें वे सक्रिय और सृजनरत हैं, सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. हम सब अपने समय में कितना अधिक सक्रिय हैं? समय को समझ कर ही समय को बदलने की दिशा में प्रयत्नशील और सक्रिय हुआ जा सकता है. साम्राज्यवाद ने जो कार्य 18वीं-19वीं सदी में किया था,
‘‘वही सब कुछ आजकल अमेरिका कर रहा है.’’
देउस्कर ने उपनिवेशवाद द्वारा ‘भारतीय मानस को उपनिवेश बनाने की प्रक्रिया’ पर अपनी पुस्तक के एक अध्याय ‘सम्मोहन : चित्त विजय’ में विचार किया है. मैनेजर पाण्डेय सखाराम देउस्कर की पुस्तक ‘देशेर कथा’ पर लिखते हुए फ्रैंज फैनन (20.7.1925-6.12.1961), एडवर्ड सईद (1.11.1935-25.9.2003) और न्गुगी वा थ्योगो (5.1.1938) को इसलिए याद करते हैं कि इन्होंने ‘औपनिवेशिक शासन में रहने वाले लोगों की मानसिकता और उससे मुक्ति की प्रक्रिया का विवेचन’ किया है.
पाण्डेय जी ने शब्दाडम्बर को ‘पुराने साम्राज्यवाद की विचारधारा का अनिवार्य हिस्सा’ कहा है, जिसे वे ‘अमेरिकी साम्राज्यवाद की विचारधारा में भी मौजूद’ पाते हैं. एक मूलगामी आलोचक ही यह लिख सकता है कि ‘देउस्कर की राजनीतिक दृष्टि मूलगामी है.’ ‘देशेर कथा’ की भूमिका के अंतिम हिस्से में मैनेजर पाण्डेय ने अमेरिकी साम्राज्यवाद का वास्तविक चेहरा दिखाया है. अमेरिका सारी दुनिया का अमेरिकीकरण करना चाहता है. अमेरिकी साम्राज्यवाद पर पाण्डेय जी के विचार को रामविलास शर्मा के विचारों से मिलाकर देखें, तो अद्भुत समानता दिखाई देगी. आज का समय अमेरिकी साम्राज्यवाद का समय है.
‘‘असल में भूमंडलीकरण और आतंकवाद के विरूद्ध सैनिक अभियान अमेरिकी साम्राज्यवाद के ही दो पक्ष हैं’’.(वही, पृष्ठ 28)
अमेरिकी साम्राज्यवाद पर जो कुछ लिखा गया है, उनमें से बहुत का अध्ययन कर उन्होंने अपने विचारों को और तीव्र धार दी है. शशि थरूर ने नेहरू के 1927 के जिस कथन को उद्धृत किया था, उसे पाण्डेय जी भी उद्धृत करते हैं-
‘‘भविष्य में अमेरिकी साम्राज्यवाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद से भी बड़ी समस्या बनेगा. यह भी संभव है कि दुनिया पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए दोनों मिल कर एक ऐंग्लो-सेक्सन गुट का निर्माण करें.’’(वही, पृष्ठ 30-31)
‘देश की बात’ का अध्ययन वे इसलिए जरूरी समझते हैं, जिससे हम ‘नए साम्राज्यवाद के उद्देश्य, व्यवहार, विचारधारा और भाषा’ को भी समझें.
एक कृति-विशेष के सार्थक और समीचीन अध्ययन के लिए उसे व्यापक परिप्रेक्ष्य और संदर्भ में देखना आवश्यक है. ‘‘देश की बात’ को पढ़ने के बाद ‘भारत दुर्दशा’ और ‘अंधेर नगरी’ जैसे नाटकों तथा ‘प्रेमाश्रम’ ‘रंगभूमि’ और ‘गोदान’ जैसे उपन्यासों को बेहतर ढंग से समझना संभव होगा.’’ (वही, पृष्ठ 32)
भारतेन्दु देउस्कर के पहले के हैं और प्रेमचन्द वाद के (कुछ अर्थों में समकालीन भी)अर्थशास्त्र की पुस्तक पढ़ते और उस पर लिखते हुए अगर कोई बड़ा आलोचक हमें उसके पहले की नाट्यकृतियों और बाद की औपन्यासिक कृतियों का पुनः पाठ कर इन्हें ‘बेहतर ढंग से समझने’ की बात करता है, तो कृपया ध्यान दें यहाँ ज्ञानानुशासन का पृथक् विभाजन दूर होता है और अर्थशास्त्र, नाटक, उपन्यास सब एक साथ इसलिए इकट्ठे या एक हो जाते हैं कि इन सबमें अपने समय की धड़कनें और आवाजें हैं.
मैनेजर पाण्डेय के आलोचना कर्म में उनका समय अपने समस्त सवालों, रूपों, आवाजों के साथ उपस्थित है. इसी कारण किंचित् विस्तार में उनके एकाध लेखादि के माध्यम इसे समझने की कोशिश की गई है. हिन्दी आलोचक और विचारक के द्वारा अमेरिकी साम्राज्यवाद की असलियत को उद्घाटित करना आज कहीं अधिक महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में अमेरिका की उपस्थिति से कल क्या होगा, कोई नहीं कह सकता. 2002 के बाद भारत का अमेरिका से सैन्य गठबंधन बढ़ता गया है.
यहाँ यह लिखना आवश्यक लग रहा है कि जिस एक अन्तरराष्ट्रीय गैर लाभकारी संगठन- ‘एस्पेन इंस्टीट्यूट’ की स्थापना द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मानवतावादी अध्ययन के लिए की गयी थी, उसके स्ट्रेटेजी ग्रुप के निदेशक एवं हार्वड कैनेडी स्कूल, मैसाचुसेट्स में ‘प्रैक्टिस ऑफ डिप्लोमेसी एण्ड इंटरनेशनल पालिटिक्स’ के प्रोफेसर निकोलस बर्न्स और एस्पेन स्ट्रैटजी ग्रुप के उप निदेशक जोनाथन प्राइस की एक पुस्तक 2011 में आई- ‘अमेरिकन इंटरेस्ट्स इन साउथ एशिया: बिल्डिंग ए ग्रेंड स्ट्रैटेजी इन अफगानिस्तान, पाकिस्तान एंड इंडिया’ (प्रकाशक एस्पेन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमैनिस्टिक स्टडीज युनाइटेड स्टेट्स) यह पुस्तक एस्पेन स्ट्रेटेजी ग्रुप की वार्षिक ग्रीष्मकालीन कार्यशाला से उत्पन्न नीति-पुस्तकों की श्रृंखला की है.
भारत और अमेरिका के बीच कई रक्षा समझौते हो चुके हैं. अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी के बाद अब अफगानिस्तान में हवाई सर्वेलांस और ड्रोन हमलों के लिए अमेरिका को हवाई अड्डे की जरूरत है. अमेरिका भारत में एयर बेस की संभावनाएँ तलाश रहा है. कयास ही सही, क्या अमेरिका भारत में सैन्य हवाई अड्डा बनाएगा?
मैनेजर पाण्डेय हिन्दी के सार्थक आलोचक हैं और उनकी आलोचना आज के समय-संदर्भ में कहीं अधिक सार्थक है. एक इंटरव्यू में उन्होंने आज के समय को ‘व्यापक सामाजिक चिन्ताविहीन समय’ कहा है. वे अपने समय की व्यापक सामाजिक चिंता करने वाले आलोचक-विचारक हैं. उनके साथ इस संघर्ष पथ पर आज चलने वाले बहुत कम लोग हैं.
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रविभूषण
१७ दिसम्बर 1946, मुजफ्फ़रपुर (बिहार)
‘रामविलास शर्मा का महत्व’ तथा ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’ किताबें प्रकाशित.
साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर प्रचुर लेखन
राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवा-निवृत्त.
ravibhushan1408@gmail.com
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आपको साधुवाद कि आप गुरुवर को नयी शैली में जन्मदिन की शुभकामनाएँ दे रहे हैं और नवीन सामग्री भी. आदरणीय गुरुवर मैनेजर पांडेय को जन्मदिन की हार्दिक बधाई और अनंत शुभकामनाएँ.
समालोचन सम्पादक अरुण जी ने मैनेजर पांडेय समेत देश-विदेश के तमाम महत्त्वपूर्ण रचनाकारों एवं विचारकों पर केंद्रित स्तरीय सामग्री प्रकाशित की है,वह प्रशंसा के योग्य है।
आज पांडेय जी के जन्मदिन के अवसर पर छपे दोनों आलेख भी स्तरीय हैं।बावजूद इसके,पांडेय जी ने लेखन क्रम में जिन मुद्दों को उठाया है,उन पर बहस जारी रहेगी।
मैनेजर पांडेय जी को जन्मदिन मुबारक हो।
मैनेजर पांडेय के जन्मदिवस के अवसर पर रविभूषण तथा रणेन्द्र द्वारा लिखे गए आलेख महत्वपूर्ण हैं। मैनेजर पांडेय के रचनाकर्म को केंद्र में रखकर लिखे गए इन दोनों आलेखों में गंभीरतापूर्वक मैनेजर पांडेय के अवदान को रेखांकित किया है। रविभूषण और रणेन्द्र को बधाई। ‘ समालोचन ‘ का जन्म ही जैसे ऐसे ही महत्वपूर्ण और दुर्लभ सृजनात्मक लेखन के लिए हुआ है।
अपने ढंग के अनूठे और खरे आलोचक, निर्भीक चिंतक और मार्क्सवाद को भारतीय संदर्भों में
परिभाषित करने की चुनौती स्वीकार करने वाले विलक्षण सभ्यता-संस्कृति विचारक मैनेजर पांडेय जी का
आलोचना जगत में अन्यतम स्थान है। वे उन आलोचकों में से हैं जिनके शब्दों पर यकीन किया जा सकता है,
इसलिए कि वे विपरीत स्थितियों में भी बिना डिगे हिम्मत से अपनी बात कहते रहे और कह रहे हैं।
रामविलास जी की आलोचना, चिंतन पद्धति और साम्राज्यवाद विरोधी विचारों को पूरी शक्ति से आगे बढ़ाने
का काम जिन आलोचकों ने पूरी ईमानदारी के साथ किया है, उनमें मैनेजर पांडेय जी का कद सबसे ऊँचा है
और सोच सबसे निर्मल। भाई रविभूषण और रणेंद्र जी ने अपने सुंदर और विचारोत्तेजक आलेखों में
मैनेजर पांडेय जी की जो वैचारिक छवियाँ सामने रखी हैं, उनसे पता चलता है कि आज के वक्त में किसी आलोचक
के लिए साहित्यालोचक होना ही काफी नहीं है, बल्कि उसे तमाम विरोधों की परवाह न करते हुए, हिम्मत से अपनी बात
कहने वाला एक योद्धा भी होना होगा।
रामविलास जी के बाद आलोचना में ऐसे योद्धा मैनेजर पांडेय जी ही नजर आते हैं।
यह सब लिखते हुए पांडेय जी से हुई तमाम छोटी-बड़ी मुलाकातें याद आ रही हैं और मन में उनकी बहुत प्रिय छवियाँ
हैं। याद पड़ता है, एक बार भाई ज्योतिष जोशी के साथ वे ‘नंदन’ कार्यालय में भी आए थे। उनकी पुस्तक ‘अनभै साँचा’
और साक्षात्कारों पर मैंने खुलकर लिखा भी था। भाई रविभूषण जी और रणेंद्र जी के आलेख पढ़कर
वे पुरानी स्मृतियाँ ताजा हो गईं।
मैनेजर पांडेय जी के जन्मदिन पर ऐसी सुंदर और विचारोत्तेजक सामग्री देने के लिए समालोचन और भाई अरुण जी
को साधुवाद!
स्नेह,
प्रकाश मनु
गहन आत्मीयता और समग्रता के साथ मैनेजर पांडेय जी के आलोचकीय व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल विस्तार के साथ की है प्रखर आलोचक रविभूषण जी ने। श्रेष्ठ रचनात्मकता को पढ़वाने के लिए हार्दिक आभार