आज भी याद आते हैं नंदन जीप्रकाश मनु |
जब से लेखन-कर्म की शुरुआत हुई और एक लेखक के रूप में मैंने दुनिया को देखना-जानना शुरू किया, नंदन जी को सर्वत्र अपने आस-पास महसूस किया. पहले ‘पराग’ के बड़े ही जिंदादिल और हरदिल अजीज संपादक के रूप में, फिर ‘सारिका’, ‘दिनमान’, ‘संडे मेल’- हर पत्रिका में अपने एक खास अंदाज में लेखकों और पाठकों को संबोधित करते हुए, और उनसे कुछ-कुछ घरेलू सा रिश्ता बनाते हुए सबके अपने, बिल्कुल अपने कन्हैयालाल नंदन. यानी ऐसे संपादक, जिनसे मन की हर बात कही जा सकती है, खुलकर बतियाया जा सकता है और कभी जी उखड़े तो बेशक झगड़ा भी जा सकता है. जैसे अपने बड़े भाई या उम्र में बड़े किसी दोस्त से.
सच कहूँ तो मुझे शुरू से ‘नंदन’ जी एक ठसकेदार पत्रकार के रूप में मोहते रहे हैं और एक लेखक-पत्रकार के रूप में उनका ठेठ हिंदी का ठाट मुझे हमेशा लुभाता रहा. हालत यह थी कि दूर बैठा उन्हें पढ़ता बड़े चौकन्नेपन के साथ, उनके लिखे पर भीतर ही भीतर बहसें और तेज लड़ाइयाँ छिड़ती रहतीं. कभी-कभी मुझे उन पर बेहद गुस्सा आता और कभी वे बहुत प्यारे लगते. लेकिन प्रेम और घृणा के तेज झंझावत के बीच उनसे इकतरफा संवाद साधता हुआ, मैं सचमुच नहीं जानता था कि कभी उनके इतने निकट भी आ पाऊँगा. और उनसे ऐसी प्यार भरी गुफ्तगू मेरी होगी कि ताजिंदगी उसे भुला पाना मेरे लिए असंभव हो जाएगा.
चलिए, उनसे हुई पहली मुलाकात से ही शुरू करते हैं, जिसके बाद दूसरी, तीसरी, चौथी कई मुलाकातें बहुत जल्दी-जल्दी हुईं. और मैं इस सम्मोहक शख्स के जादू की गिरफ्त में आ गया था. हालाँकि इस मुलाकात के लिए उकसाने वाले अभिन्न मित्र और बालसखा विजयकिशोर मानव के जिक्र के बिना तो इसका वर्णन करना बड़ा अटपटा लगेगा. यह तय है कि नंदन जी को उनके संपादक-कर्म, रचनाओं और उनके लेखन से जानता भले ही रहा होऊँ, पर उनसे हुई मेरी शुरुआती मुलाकातों का श्रेय पूरी तरह मानव जी को ही जाता है.
मानव जी उन दिनों ‘दैनिक हिंदुस्तान’ के साहित्य संपादक थे और खासकर रविवासरीय का काम देखते थे. मानव जी से मेरी मित्रता खासी सर्जनात्मक किस्म की मित्रता थी, जिसमें साहित्य पर लगातार गहरा संवाद भी शामिल था. कहीं-कहीं विचार-भिन्नता भी थी. पर मैं और मानव दोनों ही इसकी कद्र करते थे. इसी निरंतर साहित्यिक संवाद के बीच उन्हें मुझमें न जाने क्या दीख गया कि वे रविवासरीय के लिए मुझसे निरंतर लिखवाने लगे. मेरे लिए यह मित्र की मानरक्षा का भी प्रश्न था. इसलिए जो काम वे मुझे करने को देते, मैं उसमें जान उड़ेलता था. उन्होंने मुझसे काफी-कुछ लिखवाया. और कुछ चीजें तो बेतरह आग्रह और जिद करके लिखवाईं.
इन्हीं में के.के. बिरला न्यास का व्यास सम्मान मिलने पर रामविलास जी से लिया गया इंटरव्यू भी था. इसके लिए पंद्रह-बीस दिन मैंने नए सिरे से और बड़ी ही गंभीरता से उन्हें पढ़ने में लगाए. फिर उनसे जो यादगार और ऐतिहासिक महत्त्व की बातचीत हुई, उसकी खासी धूम मची. मानव जी ने अखबार के पूरे पन्ने पर बड़े आकर्षक कलेवर के साथ उसे छापा. और आश्चर्य, उस पर इतनी सुखद और उत्साहपूर्ण प्रतिक्रियाएँ आईं कि मैं चकित रह गया.
ऐसी प्यारी जिदें मानव जी की अकसर हुआ करतीं कि मैं उसके आगे लाचार हो जाता. और हर बार जब वह छपकर आता या उस पर उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाएँ मिलतीं, हम उसे खुश होकर ‘शेयर’ करते थे. वह दिन हमारे लिए किसी उत्सव से कम न होता था.
ऐसा ही काम मानव जी ने उन दिनों मेरे जिम्मे डाला था- नंदन जी का एक लंबा इंटरव्यू करना. सुनकर मैं थोड़ा बिदका था, भला नंदन जी का क्या इंटरव्यू होगा? ठीक है, वे पत्रकार हैं और जरा ऊँचे पाये के ठसके वाले पत्रकार हैं, मगर इंटरव्यू तो रामविलास शर्मा का हो सकता है, त्रिलोचन जी का हो सकता है, कमलेश्वर का हो सकता है- और भी बहुत से मूर्धन्य लेखकों का हो सकता है. भला नंदन जी से मैं क्या पूछूँगा और वे बताएँगे भी क्या? और उस इंटरव्यू में पढ़ने लायक क्या होगा? कोई गंभीर साहित्य-चर्चा तो होने से रही.
तो अपनी आदत के मुताबिक मैं टालता रहा और मानव जी अपनी आदत के मुताबिक ठकठकाते रहे. फिर एक दिन नंदन जी का फोन नंबर दिया. कहा, “बात करके चले जाओ.”
पर मैं थोड़ा झेंपू और थोड़ा अक्खड़ किस्म का ऐसा विचित्र जीव था कि मुझे फोन पर बात करने में भी हिचक हो रही थी. सो मानव जी ने ही बात करके समय ले लिया. बोले, “जाओ, वे इंतजार कर रहे हैं.”
‘तो चलो, ठीक है!’ के भाव से कुढ़ते-कुढ़ते मैं गया था—कोई भीतरी उत्साह से नहीं.
उन दिनों कस्तूरबा गाँधी मार्ग पर हिंदुस्तान टाइम्स भवन में तीसरे माले पर ‘नंदन’ पत्रिका का दफ्तर था, जहाँ मैं काम करता था. पहले माले पर ‘दैनिक हिंदुस्तान’ का दफ्तर था, जिसमें एक अलग कक्ष में मानव जी बैठते थे. संयोग से उन दिनों ‘संडे मेल’ का दफ्तर भी कस्तूरबा गाँधी मार्ग पर ही था. हिंदुस्तान टाइम्स भवन के लगभग सामने ही, सड़क के दूसरी ओर. मुश्किल से पैदल पाँच-सात मिनट में वहाँ पहुँचा जा सकता था.
मैं गया, पर कुछ इस तरह कि एक पैर आगे चल रहा था, एक पीछे. अनिच्छा मुझ पर हावी थी, पर मित्र का मन रखने के लिए जा रहा था. फिर जिस तरह का स्वभाव मेरा था, मैं रास्ता चलते सोच रहा था कि बहुत बदतमीजी के दो-चार सवाल मैं पूछूँगा और नंदन जी अपनी संपादकी अकड़ दिखाएँगे तो बस, झगड़ा-टंटा हो जाएगा. और किस्सा खत्म!
लेकिन बात खत्म नहीं हुई, बात चल पड़ी और एक ऐसा सिलसिला शुरू हुआ जो बरसोंबरस चला. आज नंदन जी नहीं हैं. उन्हें गुजरे हुए कोई ग्यारह साल बीत गए. पर उनके लिखे-पढ़े और पुरानी स्मृतियों के जरिए उनसे संवाद तो मेरा आज तक जारी है. और शायद जब तक मैं हूँ, वह जारी ही रहेगा.
अलबत्ता वह इंटरव्यू हुआ—और एक नहीं, कई किश्तों में हुआ. कई दिनों तक लगातार चला. यहाँ तक कि रात को ‘संडे मेल’ का दफ्तर खत्म होने तक हम बैठे रहते और वापसी में नंदन जी मुझे आश्रम चौक पर छोड़ देते, जहाँ से मुझे फरीदाबाद की बस मिल जाती. आखिरी एक-दो बैठकों में मानव भी इसमें शामिल हुए. कुछ सवाल जो मैं पूछने से कतरा रहा था, उन्होंने पूछे और इंटरव्यू की ‘वार्म्थ’ और अनौपचारिकता इससे और बढ़ गई.
वह इंटरव्यू थोड़े संपादित रूप में ‘दैनिक हिंदुस्तान’ के रविवासरीय में पूरे सफे पर छपा और मुझे उस पर ढेरों प्रतिक्रियाएँ मिलीं. आज भी उसकी चर्चा करने वाले मिल जाते हैं.
बाद में वह पूरा इंटरव्यू असंपादित रूप में मणिका मोहिनी की पत्रिका ‘वैचारिकी संकलन’ में छपा और उस पर ढेरों पत्र और प्रतिक्रियाएँ मिलीं. ज्यादातर लोगों ने पत्र लिखकर या फिर बातचीत में कहा कि नंदन जी का ऐसा जिंदादिली से भरपूर इंटरव्यू हमने नहीं पढ़ा. कुछ लोगों का तो यह भी कहना था कि नंदन जी को पहली बार उन्होंने इस इंटरव्यू के जरिए भीतर से जाना. यानी यह नंदन जी के भीतर के एक और नंदन से मुलाकात थी, जिसे वे अकसर सावधानी से भीतर तहाकर रखते हैं. कम से औरों की तरह छलकाते नहीं फिरते.
और मजे की बात यह है कि वह पूरा का पूरा इंटरव्यू ही नहीं, उस समय की समूची दृश्यावलि- नंदन जी के हँसने, बात करने और गंभीरता या कि गुस्से से प्रतिक्रिया व्यक्त करने का ढंग, सब कुछ ज्यों का त्यों अब भी मेरी आँखों में बसा है. जैसे वह इंटरव्यू न हो, कोई चलती-फिरती फिल्म हो, जिसमें नंदन जी की शख्सियत का एक-एक पहलू, एक-एक भावमुद्रा उभरकर सामने आ जाती है.
वह इंटरव्यू कुछ अरसे बाद मेरी पुस्तक ‘कुछ और मुलाकातें’ में छपकर पाठकों के आगे आएगा. फिर भी जिन्होंने उसे नहीं पढ़ा, उनके लिए नंदन जी के उन जवाबों और भंगिमाओं को प्रस्तुत करना चाहूँगा, जिन्होंने मेरे मन पर सचमुच गहरा असर डाला.
इंटरव्यू की शुरुआत में ही नंदन जी खुल गए. और पूरी बातचीत में उनका यही बेबाक और बेधक अंदाज बना रहा. मेरे इस सवाल पर कि पत्रकारिता में वे क्या करना चाहते थे, नंदन जी ने एकदम देसी लहजे में जवाब दिया कि “प्रकाश, मैं चाहता हूँ जिस काम को भी मैं करूँ, उसमें इस तल्लीनता से लग जाऊँ कि फिर उसमें किसी और के करने के लिए कुछ और न बचे.”
फिर उन्होंने एक उदाहरण भी दिया. बोले, “अगर मैं धोती निचोड़ने बैठूँ, तो मैं चाहूँगा कि मैं उसकी आखिरी बूँद तक निचोड़ डालूँ, ताकि अगर उसे कोई और निचोड़ने बैठने तो उसमें से एक बूँद भी पानी न निकाल सके. ऐसे ही अगर मैं तबला बजाने बैठूँ, तो मेरी कोशिश यह होगी कि उसमें इतनी कामयाबी प्राप्त करूँ कि अल्ला रक्खा खाँ की छुट्टी कर सकूँ.”
इसी तरह पत्रकारिता के बारे में उनका कहना था कि उनका आदर्श यह रहा कि पत्रकारिता की दुनिया में वे कोई हिमालय बना सकें.
अगर इस लिहाज से देखें तो बेशक ‘पराग’ और ‘सारिका’ के संपादन के जरिए नंदन जी ने साहित्यिक पत्रकारिता की ऊँचाइयों को छुआ, नए मयार कायम किए तथा काफी बड़े और अविस्मरणीय काम किए. संभवतः धर्मवीर भारती की तरह कोई हिमालय वे नहीं बना सके, पर पत्रकारिता की नब्ज पर उनका हाथ था और पत्रकारिता का कोई भी इतिहास उनके जिक्र के बिना पूरा नहीं हो सकता.
मैं समझता हूँ कि यह उपलब्धि भी कोई छोटी उपलब्धि नहीं है और बहुत से लेखकों, पत्रकारों के लिए यह आज भी स्पृहणीय जरूर होगी.
हम लोगों ने नंदन जी को लगभग भुला ही दिया है ।अच्छा लगा कि ’समालोचन’ ने प्रकाश मनु के बहाने उन्हें याद किया ।बधाई
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
मनु भाई, नंदन जी पर आपका संस्मरण पूरा पढ़ डाला। आप जब भी लिखते हो एक पूरा दौर आंखों से गुज़र जाता है। नंदन जी से मुझे इसलिए ज्यादा लगाव था कि उन्होंने पराग में मुझे लगातार छापा। उनके कई चिट्ठियां मेरे पास थें पर वह सारी निधि दिल्ली में ही नष्ट हो गई। यह अफसोस मुझे रहेगा। पराग से मेरी एक बाल कविता ” हुई छुट्टियां अब पहाड़ों पर जाएं,झरनों की कलकल के संग गुनगुनाएं, धरती को छाया दिए जो खड़ा है, चलो उस गगन से निगाहें मिलाएं ” को स्वीकृत करते हुए लिखा था – आजकल तुमपर गीतों की बहार आ गई है।।। फिर उन्होंने दरियागंज वाले आफिस में भी बुलाया था जहां संयोग वश मेरी मुलाकात स्व. योगराज थानी और स्व. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से हो गई थी। योगराज थानी खेल संपादक थे इसलिए उनसे तो नही सर्वेश्वर जी से मिलके बहुत ही खुशी हुई थी। पर सबकुछ वक़्त की धार में बह गया। मनु भाई, आपके उम्दा संस्मरण की बात कर रहा था, अपने पे आ गया।मेरा तो जो कुछ है वह कुल मिलाकर आपका ही है। बस,अब सिर में दर्द हो रहा है फिर नार्मल हुआ, संपर्क करूँगा। एक अलग काम भी शुरू करने को था फोकस ऑन चिल्ड्रन child issues पर पत्रिका है छोटी सी, पर अस्वस्थता के कारण आगे टाल दी एकदो महीने को। फिलहाल मैडिटेशन में लग गया हूँ। नंदन जी पर संस्मरण दोबारा पढूंगा मन नहीं भरा। सादर, रमेश
ग़ालिब छूटी शराब में रविन्द्र कालिया ने अपने संस्मरण में धर्मयुग के दमघोंटू माहौल और बतौर संपादक भारती जी के आतंक पर भी बहुत कुछ लिखा है। मसलन,अन्य पत्रिकाओ के स्टाफ धर्मयुग के दफ़्तर को कैंसर वार्ड कहा करते थे। उसी प्रसंग में एक बार भारती जी ने कालिया जी से कहा कि मैनेजमेंट नंदन जी के कार्य से खुश नहीं है। अगर एक प्रतिवेदन तैयार करो कि मातहतों से उनका व्यवहार अच्छा नहीं ,सबको षड़यंत्र के लिए उकसाते हैं एवं अयोग्य हैं, तो मैं इसे आगे बढ़ा सकता हूँ ।लेकिन कालिया जी इसके लिए तैयार नहीं हुए।उन्होंने लिखा है कि नंदन जी में और कोई ऐब भले ही रहा हो पर ये आरोप निराधार थे। मुझे लगता है कि नंदन जी अत्यंत गरीबी से आये थे और पत्रकारिता ही उनकी रोजी-रोटी थी इसलिए उनमें एक असुरक्षा की भावना थी। उनका तेवर कभी विद्रोही नहीं रहा।