मंगलेश की मंगलेशियतरविभूषण |
कुछ-कुछ शमशेर की शमशेरियत की तरह मंगलेश की मंगलेशियत है. मंगलेश की इस मंगलेशियत को समझने के लिए फिलहाल छह कविता-संग्रहों- ‘पहाड़ पर लालटेन’, ‘घर का रास्ता’, ‘हम जो देखते हैं’, ‘आवाज़ भी एक जगह है’, ‘नये युग में शत्रु’ और ‘स्मृति एक दूसरा समय’ है की कविताओं को पढ़ना नहीं, समझना जरूरी है, जो अब मंगलेश के कविता-समग्र (सेतु प्रकाशन 2021) में एक साथ इकट्ठी है या प्रकाश्य कविता-संग्रह ‘मुझे एक दिखा मनुष्य’ की भी प्रतीक्षा करनी चाहिए या काव्य-संसार से अलग इन गद्य-कृतियों- ‘एक बार आयोवा’, ‘एक सड़क, एक जगह’ ‘लेखक की रोटी’, ‘कवि का अकेलापन’ और ‘उपकथन के साथ प्रकाश्य गद्य-कृति ‘सिर्फ यही थी मेरी उम्मीद’ की भी प्रतीक्षा करनी चाहिए?
एक वर्ष पहले, इसी तिथि (9 दिसम्बर) को अपने मित्रों, आत्मीय जनों, पारिवारिक सदस्यों और अनगिनत पाठकों से दूर विष्णुचन्द्र शर्मा, चन्द्रकान्त देवताले, कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, विष्णु खरे एवं वीरेन के पास मंगलेश चले गये. रिक्त स्थान, जीवन में हो या साहित्य में कभी नहीं भरते, भरे जा सकते और हमारे पास केवल स्मृतियाँ रह जाती हैं- ‘स्मृति एक दूसरा समय है.’ मंगलेश को याद करना इसी दूसरे समय में प्रवेश करना है. यह ‘भूलने का युग’ (2019) है-
‘‘याद रखने पर हमला है और भूल जाने की छूट है… नौजवान भूलते हैं अपने माताओं-पिताओं को…. बाजार कहता है याद मत करो
अपनी पिछली चीजों को पिछले घर को
पीछे मुड़ कर देखना भूल जाओ
… हमारे समय का एक दरिंदा कहता है
मेरा दरिंदा होना भूल जाओ.’’
मंगलेश की कविता स्मृति और स्वप्न के साथ उस समय की कविता है, जो केवल उनका ही समय नहीं था, हमारा भी समय है. ग्राम्शी ने जिस ‘विकृतियों और राक्षसों के समय’ की बात कही है, वह बाद में नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में, विशेषतः इक्कीसवीं सदी में कहीं अधिक फैल गया. भेड़िये और सियार बढ़ते गये, फैलते गये.’ 1 जुलाई 2004 की डायरी में मंगलेश ने लिखा-
‘‘भेड़ियों ने कोट-पैंट सिलवा लिये. सियारों ने घर बनवा लिये और बिच्छुओं का वंश-वृक्ष फूलने-फलने लगा.”
साठ-सत्तर के दशक में ये भेड़िये, सियार और बिच्छू कम थे, जिन्हें देखना कठिन था क्योंकि मुक्तिबोध ने फैल रहे अंधेरे को देख-समझ लिया था. ‘अंधेरे में’ कविता को मंगलेश ने ‘भविष्य की ओर जाती कविता’ कहा है. मंगलेश की कविता पढ़ने के लिए नहीं, समझने और समझकर सार्थक दिशा में कुछ कर गुजरने के लिए है. यह सच है कि साठ के दशक के मध्य- 1967 में पहली बार उनकी कुछ कविताएँ जबलपुर से प्रकाशित पत्रिका ‘शताब्दी’ में एक साथ प्रकाशित हुई थी और अकविता की बाढ़ में कुछ समय के लिए वे भी बहे, पर डूबे नहीं-
‘‘मुझे भी झेंप होती है कि दो-चार ऐसी कविताएँ मैंने भी लिखी हैं. अकविता एक हल्ले की तरह आयी और उतनी तेजी से साफ हो गयी. बिना किसी प्रयास के वह मर गयी.’’
1968-69 में ‘आलोचना’ में जब मंगलेश की कविताएँ छपी थीं, मेरा उन पर ध्यान गया था. यह दूसरी बात है कि उनसे मिलना और मैत्री-संबंध बीसवीं सदी के अंतिम दशक में हुआ. मंगलेश जगूड़ी से अपनी मुलाकात को इसलिए प्रमुख मानते थे कि अगर वे न मिलते
‘‘तो आज मैं अपने गाँव के स्कूल में मास्टरी करते हुए गीत लिख रहा होता. जगूड़ी ने जो मेरे लिए दरवाजा खोला, वह आधुनिक कविता की तरफ खुलता था.’’
टिहरी गढ़वाल जिला के गाँव काफलपानी का घर उनसे छूटता गया और उन्होंने कविता का जो घर बनाया, वह हम सबके सामने हैं. दैहिक-कायिक उपस्थिति उनकी नहीं रही, पर कविता में उनकी जो शाश्वत उपस्थिति है, वह बार-बार अपने पास हमें बुलाती है- ‘इतने पास अपने.’
मंगलेश की कविताओं को पढ़ना सरल है, पर समझना कठिन है. उस पर लिखना तो और कठिन. हिन्दी आलोचना से उनकी शिकायत रही है-
‘‘हिन्दी की आलोचना का रचना से कोई रिश्ता नहीं है. वह रचना के इधर-उधर से, अगल-बगल से झाँक-झूँक कर न्याय कर देती है. रचना के भीतर जाने से कतराती है.’’
वे ‘कैननाइजेशन’ को ‘कोई लोकतांत्रिक काम’ नहीं मानते थे. कविता के आलोचकों में उन्होंने मुक्तिबोध, मलयज, शमशेर, रघुवीर सहाय, विष्णु खरे को अधिक महत्व दिया और मंगलेशीय अन्दाज में यह कहा–
‘‘हिन्दी आलोचना जैसे एक सरकार है, जिसके राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हैं और बाकी तमाम आलोचक उनके मंत्रिमण्डल के सदस्य हैं’’
और रामचन्द्र शुक्ल की ‘लोकमंगल की मूल्य-स्थापना’ ‘आदिम समाज से आगे विकास की सामंतवादी अवधारणा’ है. यह समय और स्थान मंगलेश द्वारा समय-समय पर व्यक्त रचना-आलोचना-संबंधी समस्त विचारों, दृष्टियों एवं धारणाओं पर विचार करने का न होकर केवल यह कहने का है कि मंगलेश की चिंताएँ बड़ी थीं. उनकी चिंता में केवल कविता ही नहीं थी, हिन्दी भाषा, हिन्दी भाषी समाज और उसकी संस्कृति के साथ वह लफंगी राजनीति भी थी, जिसने प्रायः सभी क्षेत्रों में प्रवेश कर बहुत कुछ को गंदा-धुँधला कर दिया है.
‘‘उत्तर भारत में लम्बे अर्से से सारी राजनीति का इस्तेमाल घटिया, भ्रष्ट और अमानवीकृत मनुष्य को पैदा करने के लिए है.’’
उन्हें ताकत की दुनिया से वितृष्णा थी –
‘‘ताकत की दुनिया में जाकर मैं क्या करूँगा
मैं सैकड़ों हजारों जूते चप्पल लेकर क्या करूँगा
मेरे लिए एक जोड़ी जूते ही ठीक से रखना कठिन है
… यह दुनिया घर है कोई होटल नहीं….
मैं मनुष्य हूँ
तेल पीते और खून चूसते हुए मैं क्यों बिता दूँगा अपना जीवन.’’
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मंगलेश ने जब लिखना आरंभ किया, केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी और इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री थी. जब उन्होंने इस दुनिया से विदा ली, केन्द्र में भाजपा-संघ की सरकार है और नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री हैं. ‘सम्राज्ञी’ 1974 की कविता है और ताकतवर आदमी’ (2018), ‘हिटलर’ (2019) ‘हत्यारों का घोषणापत्र’ (2019) एवं ‘तानाशाह’ (2016) चालीस-पैंतालीस वर्ष बाद की कविताएँ हैं. मंगलेश की कविताएँ पढ़कर हम इन्दिरा गांधी के शासन-काल से नरेन्द्र मोदी के शासन-काल को अच्छी तरह समझ सकते हैं. यह वह समय है, जब शब्द के वास्तविक अर्थ खो गये हैं और ‘वर्णमाला’ भी पहले जैसी नहीं रही-
‘‘आततायी छीन लेते हैं हमारी पूर्ण वर्णमाला
वे भाषा की हिंसा को बना देते हैं
एक समाज की हिंसा
ह को हत्या के लिए सुरक्षित कर दिया गया है
हम कितना ही हल और हिरन लिखे रहे
वे ह से हत्या लिखते रहते हैं हर समय.’’
नसीररूद्दीन शाह ने इस वर्ष 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस पर जिस तरह यह कविता पढ़ी, लाखों श्रोताओं ने कविता समझ ली. यह वह आवाज थी, जिसके लिए इस कवि ने बहुत पहले यह लिखा था- ‘आवाज़ भी एक जगह है’. –
‘‘आवाज और दृश्य मेरे लिए लगभग एक रूप हैं. इसलिए मैंने नये संग्रह को ‘आवाज भी एक जगह है’ नाम दिया है. इस संग्रह में इस शीर्षक से कोई कविता नहीं है, पर ‘गुणानंद पथिक’, ‘केशव अनुरागी’, ‘अमीर खाँ’ और ‘राग दुर्गा’ जैसी कविताएँ हमें आवाज़ की एक अलग दुनिया में ले जाती हैं. जिस प्रकार अमीर खाँ को ‘अंतिम संघर्ष अपने ही संगीत से था”
‘अपनी ही आवाज से’, क्या मंगलेश का अंतिम संघर्ष अपनी ही कविता से नहीं था?
‘‘विडम्बना है कि मैं अपने एक खास तरह के कवि होने को नहीं लाँघ पाता’’
उनकी बेचैनी, विकलता और छटपटाहट केवल कविताओं में ही नहीं है. उसे उनकी गद्य-रचनाओं में हम लक्षित कर सकते हैं. उनकी कविताओं पर काफी विचार किया गया है- कुछ-कुछ गद्य-रचनाओं में हम लक्षित कर सकते हैं. उनकी कविताओं पर काफी विचार किया गया है- कुछ-कुछ गद्य-रनचनाओं पर भी, पर उन्हें सम्पूर्णता में देखने की कम कोशिशें हुई हैं. शायद नहीं हुई हैं. उन्होंने लिखा है-
‘‘गंभीर सिनेमा, चित्रकला, रंगमंच और संगीत पर छिटपुट समीक्षाएँ भी लिखी हैं… कुल मिला कर इस प्रयत्न को थोड़ा-सा संस्कृति की समीक्षा कहना बेहतर होगा क्योंकि इन तमाम विधाओं का आपस में गहरा संबंध है.’’
मंगलेश ने केवल फिल्मकारों पर ही नहीं, उनकी फिल्मों पर भी कम नहीं लिखा है. हंगरी के फिल्म निर्देशक इश्तवान साबो (18.2.1938) की फिल्में-
मैफिस्टो’ और ‘कंडक्टर’,
रूसी फिल्म निदेशक आंद्रेइ तारकोव्स्की (4.4.1932-29.12.1986) की फिल्म ‘स्टॉकर’,
जापानी फिल्म निदेशक अकीरा कुरोसावा (23.3.1910-6.9.1998) के सात छोटे-छोटे हिस्सों की फिल्म ड्रीम्स’,
स्वीडिश फिल्म निदेशक इंगमार बर्गमैन (14.7.1918-30.7.2007) की 1957 की दो फिल्मों- ‘द सेवेंथ सील’ और ‘वाइल्ड स्ट्रॉबेरीज’,
इटली के फिल्मकार ‘फैदेरीको फेल्लीनी (20.1.1920-31.10.1993) की क्लासिक कृति ‘ला स्त्रादा’ (1954), ‘ला दोल्येवीता’ (1960) और ‘अमारकोर्द’ (1973),
पोलैंड के प्रसिद्ध फिल्मकार आंशेइ वायदा (6.3.1926-9.10.2016) की फिल्म ‘डबल विजन’,
अमेरिकी अभिनेता पीटर पोंडा (23.2.1940-16.8.2019) की लगभग डेढ़ घंटे की फिल्म ‘द इजी राइडर’ पर भी उन्होंने जितना कुछ लिखा है, उसे देखने की इसलिए जरूरत है कि मंगलेश की कविता में जहाँ दृश्य हैं, वहाँ वे संसार के महान सिनेमा को भी दृश्य विम्बों से भरा देखते हैं-
‘‘इस कदर कि कभी-कभी सिर्फ एक दृश्य के कारण ही पूरी फिल्म को याद रखा जा सकता है.’’
ऋत्विक घटक (4.11.1925-6.2.1976) के साथ तो उनका कुछ समय भी बीता था, जिनकी दो फिल्मों- ‘बंगलार बंग-दर्शन’ (1964) और ‘रंगेर गुलाम’ (1968) की वे बात करते हैं. मंगलेश को केवल दुनिया के महान फिल्मकारों की फिल्में ही नहीं पसंद थी, उनकी पसंद में उनकी आत्मकथाएँ और इण्टरव्यू भी हैं. 24 जून 2004 की डायरी में उन्होंने लिखा-
‘‘दुनिया के बड़े फिल्मकारों- बुनुएल (स्पैनिश फिल्मकार, 22.2.1900-29.7.1983) फेल्लीनी, बर्गमैन, चैप्लिन, (16.4.1880-25.12.1977) आंशेइ वायदा, कीत्सोव्सकी, तारकोव्स्की, कुरोसावा, गोदार (फ्रेंच-स्विस फिल्म निदेशक, 3.12.1930) आदि की किताबें, आत्मकथाएँ या लम्बे इण्टरव्यू मुझे इसलिए प्रिय है कि उनकी भाषा और अन्दाने-याँ पेशेवर लेखकों से बहुत भिन्न, एक अलग तरह का आस्वाद लिये होता है. वे ‘पेशेवर साहित्यकार’ नहीं हैं, इसलिए अच्छा लिखते हैं और अपनी मौलिकता से कुछ कहते हैं.”
अकीरा कुरोसावा की आत्मकथा ‘समथिंग लाइक ऐन ऑटोबायोग्राफी’ (1981) मंगलेश की प्रिय पुस्तक थी. कुरोसावा की फिल्म ‘राशोमन’ (1950) को मंगलेश ने ‘मानव व्यवहारों का चित्रण’ कहा है और यह लिखा है कि ‘‘क्या भारतीय राजनीति और भारतीय हिन्दी साहित्य में भी ऐसा ही कुछ है- कम या ज्यादा.’’
ऋत्विक घटक की यह बात उन्हें याद रही-
‘‘मनुष्य को अपने बचपन का एक टुकड़ा हमेशा के लिए अपनी जेब में रख लेना चाहिए.”
उन्होंने स्वीकारा है-
‘‘मेरी कविता पर शायद सिनेमा का बहुत असर पड़ा होगा. मैं दृश्य की भाषा में सोचता हूँ या सोचना चाहता हूँ.’’
सिनेमा की तरह वे कविता को भी ‘मैजिक लैंटर्न’ मानते थे, जो अंधेरे और प्रकाश के तरह-तरह के खेल खेलती है. ‘पहल’ में प्रकाशित ललित कार्तिकेय की उनसे बातचीत का शीर्षक है – ‘दृश्य के भीतर कविता.’
मंगलेश की मंगलेशियत अन्य समकालीन कवियों से उनकी भिन्नता में है. यह उनकी मौलिकता है और अनन्यता भी. उनके यहाँ कई कलाएँ-फिल्म, संगीत, चित्र एक दूसरे से अलग-थलग न होकर एक दूसरे के साथ हैं. उनकी कविताओं में सांगीतिकता उनकी कविता में रची-बसी है. ‘अमीर खाँ’ कविता में हम देखते हैं –
‘‘महान अमूर्तनों का समय खत्म हुआ आया व्यापार का युग’
‘लेकिन तुम गाते रहे बागे श्री पूरिया चंद्रकोंस
जनसम्मोहिनी अहीर भैरव कोमल ऋषभ आसावरी
और उत्तर दक्षिण हिन्दी फारसी ईश्वर अल्लाह सबको एक करती
ज्ञान और गुण माँगती हंस ध्वनि
इत्तिहादे मियाने मनो तो नेस्त मियाने मनो तो’’
(तुम और मैं इस तरह एक हैं कि तुम्हारे और मेरे ‘बीच’ कोई ‘बीच’ नहीं है.)
भीमसेन जोशी (4.2.1922-24.1.2011) के जीवन-काल में ही मंगलेश ने उनके द्वारा गाये राग दुर्गा को सुनने की स्मृति में इसी शीर्षक से कविता 1999 में लिखी. उन्हें यह राग जो उनके पिता युवावस्था में गाते थे- ‘सखि मोरी रूम-झूम’ को याद कर अब ‘सभ्यता के अवशेष की तरह तैरता हुआ’ सुनाई प़ता है –
‘‘उसका आरोह घास की तरह उठता जाता था
अवरोह बहता आता था पानी की तरह.’’
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ग्राम्शी (22.1.1891-27.4.1937) ने द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले कहा था कि पुराना नष्ट हो रहा है, पर नया कुछ जन्म नहीं ले रहा है, इसीलिए यह विकृति का समय है. उन्होंने बुद्धि के निराशावाद और हृदय के आशावाद की भी बात कही थी. मंगलेश की छटपटाहट उन्हें एक बड़ा कवि बनाती है. ब्रेश्ट (10.2.1898-14.8.1956) उनके प्रिय कवि थे, जिनकी यह काव्य-पंक्ति उन्होंने कई बार कही-लिखी है कि मेरे पीछे पहाड़ों की यातनाएँ हैं और आगे मैदानों की यातनाएँ. मंगलेश इन दो यातनाओं के और उसके बीच के भी कवि हैं. ज्ञानरंजन की ‘घंटा’ कहानी पढ़ कर उन्होंने यह तय कर लिया था कि- ‘‘न कभी किसी का घंटा बनूँगा और न बनाऊँगा. हालाँकि इसकी नौबत कई बार आयी.’’
उनकी कविताओं को समझने के लिए कविताओं से बाहर जाना भी होगा- अपने समय के क्रूर भयावह यथार्थ में, फिल्म, चित्र, संगीत के साथ ही हिन्दी के ही नहीं कई अन्य भारतीय और विदेशी कवियों के पास भी.
‘‘मैं कविता लिखने का कोई तर्क या तार्किकता खोजता रहता हूँ, लेकिन मुझे कविता लिखने का पागलपन खोजना चाहिए. एक बुखार, एक तकलीफ, एक उन्माद या फिर तार्किकता और पागलपन के बीच की कोई जगह… कभी लगता है, हमारी तमाम कविता बहुत-सा तर्क, सावधान और वकीलाना बहसों से भर गयी है और अपने प्रत्यक्ष शब्दों में सबकुछ प्रकट किये दे रही है.’’
मंगलेश की मंगलेशियत यह है कि वे केवल कवि और विरल गद्यकार ही नहीं हैं, उनके भीतर एक स्त्री रहती थी, एक गायक और फिल्मकार भी. ये सब मिलकर मंगलेश को मंगलेश बनाते हैं. वे केवल वर्तमान में नहीं थे, स्मृति और कल्पना में भी थे, इस प्रकार समय उनके यहाँ खंडित रूप में कालबद्ध भर नहीं था. यूटोपिया को भी उन्होंने एक बड़ी मौलिक उपस्थिति माना- ‘‘मैं इसके बिना कविता की कल्पना नहीं कर सकता.’’ शुद्ध शारीरिक उनके यहाँ माँस का ढेर था और शुद्ध आत्मिक निराकार सी चीज थी.
मंगलेश की कविता का अपना एक रसोईघर है और कारखाना भी, जहाँ संभल कर जाने की जरूरत है. उनकी कविता को हम संगीत और फिल्म से अलग कर नहीं देख सकते.
‘‘अगर किसी प्राचीनतम विधा से कविता का रिश्ता है तो संगीत से ही है और किसी आधुनिकतम विधा से है तो सिनेमा से है.’’
संगीत और कविता के ‘विरोधाभासी रिश्ते’ के बाद भी दोनों के उद्देश्य एक हैं- एक मानवीय संवेदन की रचना… कविता का रास्ता संघर्ष, मुठभेड़ या पाठक को विचलित करके उस संवेदना की पहचान की ओर ले जाता है, जबकि संगीत यह काम शुरू से ही करता है. मंगलेश की कविता में ही नहीं, उनके गद्य में भी एक धुन, संगीत और लय है. शमशेर की कविता ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ पर उनकी टिप्पणी है.
‘‘इस महान कविता को अगर संगीतबद्ध किया जा सकता, जिसमें जरा भी कोई गायन न होता, बल्कि सिर्फ अलग-अलग पंक्तियों के साथ विलम्बित और द्रुत, मन्द्र, मध्यम और तार सप्तकों में उमड़ कर बजता हुआ धीमा साज होता और अन्त में कवि की भावनात्मक विकलता और उद्वेलन को व्यंजित करते-द्रुत-सुर होते तो शायद इसके अर्थ और भी उभरकर आते.’’
आरंभ में उनके यहां ‘कविता’ (1978)
‘‘दिन भर थकान जैसी थी
और रात में नींद की तरह
सुबह पूछती हुईः क्या तुमने खाना खाया रात को?”
कविता की विषय-वस्तु के चयन और कवि की विश्व-दृष्टि के साथ वे उन तमाम चीजों को ध्यान में रखते हैं, जिनसे कविता संभव हो पाती है. कविता की ताकत तानाशाह की ताकत से कहीं बड़ी है. निकारागुआ के मार्क्सवादी कवि एर्नेस्तो कार्देनाल (20.1.1925-1.3.2020) की एक छोटी-सी कविता वे याद करते हैं, जिसमें एक तानाशाह और कविता की तुलना की गयी है कि तानाशाह एक दिन खत्म हो जायेगा, लेकिन उसके खिलाफ लिखी गयी कविता पढ़ी जाती रहेगी. मंगलेश का प्रतिरोध मुखर नहीं है. जिस समय आलोक धन्वा हल चलाने और कलम चलाने वालों को जोड़ रहे थे और कविता में गोली दागने की बात हो रही थी, उस समय भी मंगलेश के यहाँ ऐसा काव्य-स्वर नहीं था. एक जमीन पर खड़े होने के बाद भी उनकी कविता आलोक धन्वा, धूमिल, कुमारेन्द्र पारस नाथ सिंह, वेणु गोपाल, कुमार विकल और अपने लाडले दोस्त कवि वीरेन डंगवाल की कविताओं से भिन्न है. काव्य भूमि लगभग समान है, पर काव्य-स्वर अलग है. ‘प्यार’ उस समय 1976 में उनके लिए ‘लडडुओं का थाल’, ‘लाल रूमाल’, ‘एक पेड़’, ‘एक झील’ और ‘पूरा गाँव’ था. वे शहर को देखकर (शहर-1) मुस्करा रहे थे-
मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कराया
वहाँ कोई कैसे रह सकता है
यह जानने मैं गया
और वापस न आया.’’
उनके यहाँ संवेदना का दबाव प्रमुख है.
अतिकथन के दौर में मंगलेश मितकथन के कवि हैं. हम उनकी कविताओं से गुजर नहीं सकते. वहाँ हमें ठहरना पड़ता है. जितनी देर रूकें, ठहरें, उनकी मंगलेशियत को समझ पायेंगे. मंगलेश की मंगलेशियत उनके ‘अन्दाज-ए-बयाँ’ में है. कहने का ढंग और तरीका ही किसी कवि को दूसरे कवि से अलग कर उसे विशिष्ट बनाता है. शब्दों के इकहरे पाठ से कविता नहीं समझी जा सकती. उनकी काव्य रचना और चिन्तन-प्रक्रिया में ‘नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’ की एक भूमिका है. मुक्तिबोध ने बने-बनाये साँचों से निकलने की बात कही थी. वे निराला, मुक्तिबोध, शमशेर और रघुवीर सहाय से प्रभावित हैं, पर कविता का उन्होंने अपना एक अलग मार्ग निर्मित किया. शब्दार्थ उनके लिए कविता नहीं है. शब्दों का अर्थ कविता का पूरा अर्थ नहीं होता.
“शब्द कविता में व्यक्त संसार के संकेतक हैं, जो हमें उसके भीतर ले जाते हैं. वे उस संसार में ले जाने के दरवाजे या पर्दे हैं.’’
कविता के अर्थ से अधिक महत्वपूर्ण कविता का मर्म है. उन्होंने कवियों की दो कोटियाँ बनायी हैं- काव्यात्मक और गैर काव्यात्मक या साहित्यिक और गैर साहित्यिक. मंगलेश ने ही शमशेर और नागार्जुन में समानता देखी.
‘‘दोनों कवियों का दुनिया को देखने का तरीका एक है, उनका संवेदन-तंत्र और विवेक-दृष्टि समान है… क्या नागार्जुन और शमशेर एक ही काव्य-व्यक्तित्व के दो पहलू हैं? एक दूसरे के ऑल्टर ईगो?’’
उनका ध्यान कविता के ‘कैचमेंट एरिया’ (जलागम क्षेत्र) पर है.
मंगलेश प्रेम और यातना के, स्मृति और स्वप्न के कवि हैं. आधुनिक हिन्दी कविता के इतिहास में वे प्रस्थापना-परिवर्तन और बदलाव करने वाले कवियों में निराला, शमशेर, नागार्जुन, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, धूमिल, विष्णु खरे, विनोद कुमार शुक्ल को रखते हैं. वे स्वयं इस अर्थ में इन सबके साथ हैं. कविता समझने की जो पद्धतियाँ और साँचे बने हुए हैं, उनसे हम न तो शमशेर को समझ सकते है, न रघुवीर सहाय, विषणु खरे और विनोद कुमार शुक्ल को. मंगलेश को भी नहीं समझ सकते. ‘सबसे अच्छी तारीख’ कविता में शब्द स्वाद में, नाम चेहरों में और रंग संगीत में बदलते हैं. ‘दूसरा सप्तक’ में शमशेर ने कहा था-
‘‘सारी कलाएँ एक दूसरे में समोयी हुई हैं, हर कलाकृति, दूसरी कलाकृति के अंदर से झाँकती हैं.’’
मंगलेश की कविता के भीतर दूसरी कई कलाओं का निवास है. वहाँ शब्द केवल शब्द नहीं है. वे रंग, गंध, स्वाद, दृश्य और स्पर्श भी है. उनके साथी कवियों में यह सब नहीं है. उनके यहाँ मृतक मृतक नहीं है. वहाँ ‘गुजरात के मृतक का बयान’ (2002) है.
‘‘मेरे जीवित होने का कोई बड़ा मकसद नहीं था
लेकिन मुझे इस तरह मारा गया
जैसे मुझे मारना कोई बड़ा मकसद हो
..क्या तुम मुझमें अपने किसी स्वजन को खोजते हो
किसी मित्र-परिचित को या खुद अपने को
अपने चेहरे में लौटते देखते हो किसी चेहरे को.’’
मृतकों के बारे में इस कविता के बाद मंगलेश ने कई कविताएँ लिखीं- करूणानिधान, मोहन थपलियाल, गोरख पाण्डेय, मुक्तिबोध, शमशेर, माँ पर. मंगलेश ने इन मृतकों को जिनमें केशव अनुरागी, गुणानन्द पथिक और अमीर खाँ भी हैं, अपना ‘कंसायंस-कीपर’ कहा है, यह लिखा है–
‘‘क्या जीवितों की तुलना में मृतकों से संवाद आज ज्यादा संभव और ज्यादा सार्थक हो गया है?’’
उनके यहाँ जिस समय में हम जी रहे हैं, वह समय या यथार्थ ही सब कुछ नहीं है –
‘‘कवि को कविता के भीतर और बाहर एक साथ रहना होता है. यथार्थ और कल्पना में एक साथ. शरीर और आत्मा में एक साथ. दो दुनियाओं में एक साथ उसके पैर हैं. उसका समूचा अस्तित्व एक का चूकना दूसरे का ओझल होना है.’’
उनके यहाँ ‘मरना भी रहना है’. जो शरीर से मृत हैं, वह अपने मानवीय कार्यों के कारण सदैव जीवित हैं. बड़ा कवि-रचनाकार कभी मृत नहीं होता. कहने को आज मंगलेश की पहली पुण्य तिथि है, पर उनकी एक जीवंत उपस्थिति भी है. ‘मैथड्स’ के समय में उनमें एक ‘मैडनेस’ था. हमेशा हड़बड़ी में रहने के बाद भी उन्होंने कभी एक वाक्य भी हड़बड़ी में नहीं लिखा. अपनी एक बेतरतीब डायरी’ में उन्होंने अपना ‘रुदन’ लिखा है. मंगलेश के रुदन में उनके समय और समाज का रुदन है. लोर्का (स्पैनिश कवि; 5.6.1898-18.8.1936) उनके प्रिय कवि थे, जो अपनी एक कविता में गिटार का विलाप सुनते हैं. काशी नागरी प्रारिणी सभा के पुस्तकालय में जाकर मंगलेश ने ‘पुस्तक का रुदन’ देखा-सुना.
मंगलेश जो देखते हैं, कई कवि वह नहीं देखते. देखना महज क्रिया नहीं है. तस्वीर पर शायद कई कविताएँ उन्होंने ही लिखीं – ‘दादा की तस्वीर’, ‘पिता की तस्वीर’ ‘माँ की तस्वीर’ ‘अपनी तस्वीर’. ये तीन पीढ़ियों की तस्वीरें हैं इन सभी कविताओं का रचना वर्ष आस-पास है. घर में माँ की कोई तस्वीर नहीं है. माँ के पास तस्वीर खिंचाने का कोई समय नहीं है. यह है परिवार में स्त्री की उपस्थिति. उसका जीवन. उन्होंने कागज, सपने, नींद, चाँद, बचपन, निराशा, हाशिये और आँसुओं की कविता लिखी. सपने वहाँ ‘अर्धजीवन’ को पूर्णता देने के लिए आते हैं, सपना या कोई यथार्थ बार-बार नींद तोड़ता है. ‘हाशिये की कविता’ में ‘‘एक कवि अपने लिए हाशिये खोजता है… वहाँ स्मृति है छोटी-सी एक बच्ची की तरह’’ वे और उनकी पीढ़ी के कवि, जैसा कि उन्होंने लिखा है ‘‘छायावादियों को प्रायः नहीं पढ़ती थी और यह मानती थी कि बाले तेरें बाल जाल वाली इस पलायनवादी कविता का समय पूरा हो चुका है.’’ यहाँ उनके कथन से असहमत होते हुए कि छायावादी काव्य पलायन का काव्य है, यह कहना जरूरी है कि छायावादी कवियों के समय और मंगलेश की पीढ़ी के समय में काफी अन्तर है. ‘2017-18 के बीच लिखे गये कुछ डायरी अंश (प्रकाश्य पुस्तक ‘सिर्फ यही थी मेरी उम्मीद’) में उनके समय की चिंता देखी-पढ़ी जा सकती है-
‘‘क्या बात है कि हमारे दौर में कालाकार व्यापारी की तरह दिखता है, बुद्धिजीवी दलाल की तरह, आलोचक जन सम्पर्क अधिकरी की तरह, चापलूस स्वाभिमानी की तरह, ताकतवर शिकार की तरह, आततायी उत्पीड़ित की तरह? एक भ्रष्टाचारी दूसरे भ्रष्टाचारी को अच्छा मनुष्य मानता हैं भ्रष्टाचार उनके बीच एक मानवीय मूल्य है.’’
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स्वाधीन भारत के आरंभिक दो दशक के बाद, विशेषतः इन्दिरा गाँधी के आगमन के बाद क्रमशः ही सही, हम सबकुछ बदलते देखते हैं, जो नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के साथ बाद में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सिंहासनारूढ़ हो जाने के बाद जैसा हो गया है, उसे हम जानते हैं. ‘आँसुओं की कविता’ (1989) को प्रसाद के ‘आँसू’ के साथ पढ़ना अपराध होगा. इस कविता में मंगलेश पुराने जमाने की बात करते हैं, न कि उस जमाने की कविता की–
‘‘पुराने जमाने में आँसुओं की बहुत कीमत थी. वे मोतियों के बराबर थे और उन्हें बहता देखकर सबके दिल काँप उठते थे.’’
मंगलेश के यहाँ यथार्थ उस रूप में नहीं है, जिस रूप में वह अन्य कवियों में है. उनका स्वभाव अंतर्मुखी था और उन्हें बाहरी दुनिया विकट लगती थी.
‘‘मेरी रूचि यथार्थ से ज्यादा अनुभव में है, जिसे आप छू सकते हैं. गंध, स्वाद और मौसम, उसकी सिहरनों को देह आत्मा के स्पन्दनों में महसूस कर सकते हैं.’’
मंगलेश की मंगलेशियत यह है कि वहाँ सतह पर कुछ भी नहीं हैं उनकी कविता में विस्थापन, स्मृति, पहाड़, पत्थर, घास, पत्ते, चिड़िया, घर, पानी, बर्फ, शब्द, रक्त, ऋतुएँ, संगीत, आहटें, समय, प्रेम, स्त्री, यातना, अवसाद, बच्चा, चश्मा, पेड़, चट्टान, दृश्य उस रूप में नहीं हैं, जिस रूप में हम इन सबको अन्य कवियों के यहाँ देखते हैं. उनकी एक कविता ‘थरथर’ में अंधकार से संगीत आता है. मंगलेश ने लिखा है
“संगीत के बिना रहना मेरे लिए कठिन है”.
विष्णु खरे उनकी कुछ कविताओं को ऐसी मानते थे.
‘‘जिनमें कोई सुई भी नहीं चुभोई जा सकती.’’ कवि-रूप में उनका सबसे ज्यादा अनुभव ‘विचलित विस्थापन’ का है. यह विस्थापन केवल भौगोलिक नहीं, सामाजिक-सांस्कृतिक भी है, मानसिक और संवेदनात्मक विस्थापन.’ उनक अवसाद हमें दीखता है, पर जरूरी है इसके भीतर मौजूद उस करुणा को देखना और समझना, जिसे हम सामान्यतः नहीं देखते. कविता में कथ्य और शिल्प देनों ही स्तरों पर वे विखंडन और समझना, जिसे हमे सामान्यतः नहीं देखते. कविता में कथ्य और शिल्प दोनों ही स्तरों पर वे विखंडन और तोड़ फोड़ जरूरी मानते थे. ‘‘जिसके बिना कविता टस से मस नहीं होगी.’’
निराला उनके प्रिय कवि हैं, पर मंगलेश का काव्य-शिल्प तोड़ फोड़ से अलग रहा है. उनकी बेचैनी और छटपटाहट को हम बिना बेचैन और छटपटाते हुए नहीं समझ सकते. मंगलेश प्रेम के कवि हैं और हमारे समय में प्रेम का लोप हो चुका है- ‘‘प्रेम ही मनुष्य को इंसान बनाता है… आदमी नाम का जीव शायद प्रेम करने में अक्षम है.”
मंगलेश की कविता किसी फिल्मकार और उसकी फिल्म की हमें याद दिलाती है, जिस तरह उन्हें मुक्तिबोध और शमशेर की कविता रूसी फिल्मकार आंद्रेई तारकोव्स्की की फिल्म ‘स्टॉकर’ की याद दिलाती है. उनके यहाँ भाषा प्रमुख है क्योंकि जीवनानुभव को काव्यानुभव में बदलने के लिए भाषा में ही जाना होता है– ‘‘भाषा में जरा-सी अटकी रहती है कविता”
हिन्दी कविता की आलोचना लम्बे समय तक रूपवादी एवं जनवादी जैसे विभाजन में फँसी रही है. मंगलेश की कविता इस प्रकार के विभाजन से समझी नहीं जा सकती. उनकी दृष्टि में ऐसा विभाजन सही नहीं है. वे ऐसे विभाजन को महत्व न देकर सच्ची और नकली कविता को अलग करने पर बल देते थे. उनके प्रशंसकों में कई ऐसे हैं, जो ‘मार-मार’ लगातार कविताएँ लिख रहे हैं. मंगलेश के लिए लिखना तभी संभव हो पाता था ‘‘जब विचारधारा और संवेदना एकाकार हो गयी हो.’’
वे मुखर कवि नहीं हैं. अतिकथन का वहाँ एक भी उदाहरण नहीं है–
‘‘मुखरता मेरी कविता का स्वभाव नहीं है… अति कथन से मैं ज्यादा सार्थक चीज निकलते नहीं देखता.’’
कविता उनकी ‘आत्मिक जरूरत’ थी. निकृष्ट समय में उन्होंने उत्कृष्ट कविताएँ लिखी हैं. कविता का एक बड़ा संकट यह है कि वह संकट की कविता पूरी तरह लिख नहीं पाती. ‘संगतकार’ कविता की एक बड़ी खूबी यह है कि वह संगीत के द्वारा ‘सत्ता-संरचना में हाशिये के महत्व को रेखांकित’ करती है.
“उसकी आवाज में जो एक हिचक साफ सुनाई देती है या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है. उसे विफलता नहीं/उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए.’’
मंगलेश हमारी समझ को विकसित करते हैं उन्होंने अपने समय को, समकालीनता को कहीं अधिक सघनता से देखा और महसूस किया है. उनके यहाँ कविता का जन्म, जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है, शायद एक मानसिक अकेलेपन, एक निर्जन या फिर कोई दृश्य या कभी अपने भीतर किसी संगीत का दुहराव या बाहर हवा या तेज बारिश, जिससे किसी एक पंक्ति का जन्म होता है.
‘कवि का अकेलापन’ को समझने के लिए हमें इस धूर्त और छली समय को समझना होगा. मंगलेश में छटपटाहट और बेचैनी उनके अपने समय के किसी भी कवि की तुलना में कहीं अधिक हैं. वे गहरे अर्थों में एक राजनीतिक कवि हैं. नागार्जुन उनके प्रिय कवि हैं. एस राजेन रोडरिया की बातचीत में उन्होंने कहा था.
‘‘कवियों को शिकार की तरह नहीं घूमना चाहिए. उन्हें इस समय ज्यादा बड़ा हस्तक्षेप करना चाहिए. उन्हें ज्यादा गहरे सामाजिक सरोकारों की ओर जाना चाहिए. उन्हें अपने समाज और उसके संघर्षों से ज्यादा गहराई से जुड़ना चाहिए…. कविता जन-संघर्षों को पैदा नहीं करती, वह उनकी सच्चाइयों को सामने रखती है…. वह समाज से बड़ी नहीं है… सत्ता-राजनीति ने हमारे हिन्दी भाषी समाज को जंगल में बिल्कुल अकेला छोड़ दिया है, जहाँ कोई भी बाघ या भेड़िया आकर उसे अपना शिकार बना सकता है… ऐसे समय में कविता एक अरण्य रोदन ही है.’’
मंगलेश ने अपनी कविताओं और अन्य रचनाओं के जरिये अपने समय में हस्तक्षेप किया. उनकी कविताओं में केवल पहाड़ और मैदान का ही द्वन्द्व नहीं है, जो बीत गया है, उस कल का और आज का समय भी है. बाहर जो कुछ है, उसे अपने भीतर बनाकर उन्होंने रचनाएँ की हैं. ढोलवादक केशव अनुरागी और लोक कवि गुणानन्द पथिक कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे, पर केशव अनुरागी कलाकार न कहला कर अछूत ही बने रहे –
‘‘लेकिन मैं हूँ एक अछूत कौन मुझे कहे कलाकार
मुझे ही करना होगा आजीवन पायलागन महाराज जय हो सरकार’’
और गुणानन्द पथिक के बारे में
“बचे-खुचे कम्युनिस्ट सोचते ही रहे
एक दिन हो पथिक जी का बड़ा सा सार्वजनिक अभिनंदन
तब तक गुणानंद पथिक छोड़ चुके थे अपना हारमोनियम
भूल गये थे उन्हें लोग एक लोकगीत की तरह.’’
5
मंगलेश की कविता पर जितना विचार होता है, उससे बहुत-बहुत कम उनके गद्य पर ध्यान दिया जाता है. उनके यात्रा-संस्मरण ‘एक बार आयोवा’ और ‘एक सड़क एक जगह’ के अलावा ‘लेखक की रोटी’ और ‘कवि का अकेलापन’ जो गद्य-संग्रह है, उन सब पर अगर एक साथ विचार किया जाय, तो उनका कवि-रूप कुछ और अधिक निखर कर हमारे सामने आएगा. उनका गद्य सुन्दर, सुगठित, पारदर्शी, चमकीला, स्वच्छ, ‘अंतस्थल से उपजा हुआ गद्य’ है, जिसे अक्सर ‘काव्यात्मक’ कह कर गंभीर विचार न कर छोड़ दिया जाता है. यह सर्जनात्मक गद्य है- रूप-रंग-रस-ध्वनियुक्त गद्य, जीवंत, खनकता, बजता-गूंजता गद्य. उनके गद्य-शिल्प में काव्य-शिल्प एवं संगीत-तत्व को देखना जागरूक पाठक के लिए कठिन नहीं है. उनके गद्य पर उनका नाम न भी हो, तो हम कहेंगे यह मंगलेश का गद्य है, जिसे पढ़कर निर्मल वर्मा, शमशेर, ज्ञानरंजन और विनोद कुमार शुक्ल के गद्य की याद स्वाभाविक है.
यह ‘पोयटिक’ गद्य है, आत्मीय, जिसमें संवेदना और विचार का सहमेल है. यह न कठोर है, न कोमल. यह मौलिक है, जिसमें एक साथ झरने का सौन्दर्य, बहती हवाओं की खुशबू और फैले मैदान का सौन्दर्य है. यह कविता, संगीत, पेंटिंग, फिल्म के कई गुणों से समन्वित पकी रोटी की गंध और बिजली की चमक का गद्य है- धुंध-गुबार से रहित. एक बजता-बहता, सरस, जीवंत, गर्म साँसों से युक्त गद्य. मंगलेश का गद्य तरल-विरल हैं. अपने को उन्होंने गद्यकार, समीक्षक और आलोचक नहीं कहा है. उनका कवि ‘गद्य की संरचना और शक्ति’ से प्रभावित है. ‘अच्छा सुगठित और सोचता हुआ गद्य’ लिखना उनके लिए स्वप्न था, जिसे उन्होंने साकार कर दिया है. मंगलेश की साहित्यिक-सांस्कृतिक टिप्पणियों पर उनके प्रिय कवि-मित्रों ने भी अधिक ध्यान नहीं दिया है. उनकी कविताओं को समझने में इन टिप्पणियों का विशेष महत्व है. उनकी कई टिप्पणियाँ ‘आधुनिक बौद्धिक जीवन, संस्कृति, कला और फिल्म से संबंधित’ है, जिसमें वे अपने समय की कविता के सरोकार देखते थे.
वे शमशेर की अविस्मरणीय कविता ‘टूटी हुई, बिखरी हुई’ को अमीर खाँ (15.8.1912-13.2.1974) या मोत्सार्ट (27.1.1756-5.12.1791) को सिंफनी की तरह सुनने या कलाकृतियों की एक श्रृंखला की तरह देखने की बात कहते हैं. ऋतुराज की मुक्तिबोध पर लिखी कविता की उन्होंने याद दिलायी, जिस पर किसी का ध्यान नहीं गया था. रघुवीर सहाय की लगभग बीस कविताओं में मनुष्य पर आने वाले संकटों के बारे में वे एक प्रोफेटिक विजन देखते हैं हिन्दी में ‘प्रोफेटिक विजन’ वाली कविताओं पर अलग से विचार नहीं हुआ है. काव्य-रचना और आलोचना में जो एक खास किस्म की कदम ताल हम लम्बे समय से देख-सुन रहे हैं, वह कहीं से भी मंगलेश के यहाँ नहीं है. कई कवियों पर उन्होंने काफी गंभीर विचार किया है. चंद्रकिशोर वर्त्वाल, रघुवीर सहाय, शमशेर, नागार्जुन, कुँवर नारायण, मुक्तिबोध, लीलाधर जगूड़ी, ऋतुराज, आलोकधन्वा, वीरेन डंगवाल, फैज, केदारनाथ सिंह, पाश, देवताले, नवारूण भट्टाचार्य, गिर्दा आदि पर जो उन्होंने लिखा है, वह कम महत्वपूर्ण नहीं है.
मंगलेश तेज भागते यथार्थ को रूक कर, ठहर कर देखने वाले कवि हैं. 2000 में ही अपने एक लेख ‘पवित्र जगह से वंचित’ में उन्होंने लिखा था-
‘‘जो स्वाधीनता-संघर्ष के विरोधी थे, वे इस देश में बची-खुची आजादी को भी नष्ट कर देना चाहते हैं.’’
उनकी चिंता यह थी कि ‘‘हम ऐसी अपसांस्कृतिक शक्तियों का साथ देकर एक बड़ी सांस्कृतिक विपत्ति का दरवाजा खोल रहे हैं’’. वे सदैव तंत्र और सत्ता-विरोधी हरे- मूर्तिपूजा और मुद्रा पूजा के खिलाफ उन्होंने एडम स्मिथ (5.6.1729-17.7.1790) के फिल्टर-सिद्धान्त की भी चर्चा की. उनकी चिंताएँ बड़ी थीं.
‘‘हिन्द की सारी बौद्धिकता कोरा साहित्य लिखने में ही खर्च हो रही हैं’’
वे हिन्दी में उत्कृष्ट शब्दकोश, जटिल समाजशास्त्रीय स्थितियों की सुव्यवस्थित व्याख्याएँ, सत्ता-संस्था जाति के प्रमाणिक और विशद अध्ययन का अभाव देख कर चिंतित थे. आजादी मिलने के साथ धीरे-धीरे जो एक नयी दासता बढ़ी, उनके लिए परेशानी की बात थी. हिन्दी में बुद्धिजीवी को उन्होंने ‘सम्भावना’ माना है –
‘‘हिन्दी में स्वतंत्र, स्वाधीन, बुद्धिजीवी मिलना दूभर है.’’
उनमें लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने की चिंता, अन्याय के प्रति गुस्सा, वर्चस्ववादी प्रवृत्तियों, सांस्कृतिक तानाशाही, साम्प्रदायिकता और विद्वेषता का विरोध है. ‘‘उपलब्ध यथार्थ की आलोचना और संभावित यथार्थ का स्वप्न और कल्पना’ है. उनकी चिंता यह थी कि
‘‘मूर्ति पूजा और मुद्रा पूजा हाथ में हाथ डाले चल रही है.’’
अन्तरराष्ट्रीय बाजारवाद और साम्प्रदायिकता के कुत्सित, घिनौने मेल से वे चिंतित थे.
‘‘इस देश में दो घटनाएँ लगभग एक साथ हुई. बाजारवाद और उदारवाद तथा साम्प्रदायिकता.’’
हिन्दी समाज की घोर सांस्कृतिक दरिद्रता उन्हें परेशान करती थी. शहरों में लिखी जा रही कविताओं में वे प्रतिरोध और विरोध के सतह पर देखते थे, ‘‘जो ‘होरिजोंटल’ है, ‘वर्टिकल’ नहीं है.’’
वर्षों पहले ललित कार्तिकेय को एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था-
‘‘अमेरिकीकरण, ग्लोबलाइजेशन, ग्लोबल विलेज, सूचना-क्रान्ति, अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सैनिक तानाशाही और राष्ट्रीय स्तर पर संघ परिवार का सांस्कृतिक फासीवाद इस हद तक नहीं था.’’
‘प्रसिद्धि उद्योग’ को उन्होंने ‘समतावादी’ उद्योग कहा है, जहाँ हर ‘प्रसिद्ध’ को समान व्यवहार मिलता है.
मंगलेश की ‘‘कविताओं का कथ्य हमेशा शोषित, पीड़ित और निम्नवर्गीय अवस्थिति रहा है.’’ उन्हें ‘सामाजिक कलावादी’ और ‘कविता का गाँधी’ कहा गया. उनकी कविता में अहिंसक प्रतिरोध देखा गया. उनमें आशावादी किस्म का निराशावाद था. उन्होंने अपने को ‘स्वतंत्र मार्क्सवादी’ कहा है. उनमें ‘ऑप्टिमिस्टिक पैस्मिज्म’ है. भविष्य के प्रति उनमें चिन्ताकुलता है.
‘‘कविता का संताप तभी समाप्त होगा जब व्यक्तिगत सम्पत्ति का अन्त हो, एक वर्गहीन समाज का यूटोपिया चरितार्थ हो.’’
प्रतिबद्धता का सवाल उनके लिए ‘एथिक्स’ का सवाल था. ‘एंड ऑफ आइडियोलॉजी’ के विरोध में वे ‘बैक टु आइडियोलॉजी’ का नारा देना चाहते थे. उनके काव्यानुभव अपने जीवन से, आस-पास से, स्वप्नों से प्राप्त हुए हैं. सांस्कृतिक स्वरूप को बचाये रखने के लिए उन्होंने हिन्दी समाज को नवजागरण की जरूरत’ माना था क्योंकि ‘‘उत्तर भारत में लम्बे अरसे से सारी राजनीति का इस्तेमाल घटिया, भ्रष्ट और अमानवीकृत मनुष्य को पैदा करने के लिए है.’’ मंगलेश की चिंता में केवल कविता और साहित्य नहीं है, सभ्यता और संस्कृति है, हिन्दी भाषा और हिन्दी समाज है. विकृति के समय में उनकी बड़ी चिंता संस्कृति और जीवन को बचाने की रही है.
मंगलेश की अनेक कविताएँ याद आ रही हैं- ‘पहाड़ पर लालटेन’, ‘शहर-1’, ‘गिरना’, ‘पहाड़’, ‘मुक्ति’, ‘तानाशाह कहता है’, ‘प्रेम करती स्त्री’, ‘पैदल बच्चे स्कूल’, ‘पिता’, ‘बारिश’, ‘कालातीत कवि’, ‘पिता की स्मृति में’, ‘सभ्यता’, ‘हारमोनियम’ ‘संगतकार’, ‘ब्रेश्ट और निराला’, ‘गुणानंद पथिक’, ‘केशव अनुरागी’, ‘अमीर खाँ’, ‘गाता हुआ लड़का’, ‘राग दुर्गा’, ‘मत्र्योश्का’, ‘मरणोपरांत कवि’, ‘घटती हुई ऑक्सीजन’, ‘नये युग में शत्रु’, ‘आदिवासी’, ‘गुजराज के मृतक का बयान’, ‘हमारे शासक’, ‘भूमंडलीकरण’, ‘कुशल प्रबंधन’, ‘पशु पक्षी कीट पतंग’, ‘दो कवियों की कथा’, स्मृति-संबंधी कविताएँ, ‘वर्णमाला’, ‘तानाशाह’ आदि. यह सूची और लम्बी हो सकती है.
मंगलेश कवि के लिए लोकप्रियता को अच्छी नहीं मानते थे. उन्हें ताकत की दुनिया से वितृष्णा थी. कविता की नैतिक शक्ति में उनका विश्वास था. ‘तानाशाह कहता है’ 1980 की कविता है और ‘तानाशाह’ 2016 की कविता है, जिसमें
‘‘तानाशाह मुस्कराते हैं भाषण देते हैं और भरोसा दिलाने की कोशिश करते हैं कि वे मनुष्य है लेकिन इस कोशिश में उनकी भंगिमाएँ जिन प्राणियों से मिलती-जुलती है वे मनुष्य नहीं होते.’’
जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने सब कुछ को बदला हुआ देखा.
‘‘हत्यारे से मिलो
तो वह कहता है किसने कहा मैं हूँ हत्यारा
मैं सदा चाहता हूँ सबमें भाईचारा.’’
इस डरावने, धूर्त, मक्कार एवं पाखंडी समय में कविता का घर ही हमारा अपना विश्वसनीय घर हैं अब हममें से अधिक अपने-अपने घरों में रहते हुए बेघर हैं, विस्थापित भी. मंगलेश ने ‘कविता के रसोईघर’ और ‘कारखाने’ की भी बात कही है. मंगलेश की कविता के घर में प्रवेश करना, वहाँ रुकना-टिकना जरूरी है. ‘घर हमेशा दूर होता है’ में उन्होंने लिखा है –
‘‘जितनी बार मैं घर लौटा हूँ
उससे कहीं अधिक बार घर से निकला हूँ.’’
आततायी व्यवस्था ने हमसे घर छीना और अब वे स्मृतियाँ भी गायब कर रही हैं. मंगलेश इस कमीनी व्यवस्था के खिलाफ रहे. अपनी कविताओं में अपने अन्दाज में जो कुछ कहा है, उसमें हम ‘मंगलेश की मंगलेशियत’ पहचान सकते हैं.
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रविभूषण
१७ दिसम्बर 1946, मुजफ्फ़रपुर (बिहार)
वरिष्ठ आलोचक-विचारक
रामविलास शर्मा का महत्व’ तथा ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’ किताबें आदि प्रकाशित.
साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर प्रचुर लेखन
राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवा-निवृत्त.
ravibhushan1408@gmail.com
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संपूर्णता लिए हुए बहुत सुंदर आलेख। रविभूषण जी के अच्छे स्वास्थ्य और लम्बी आयु की दुआ है। आपसे सीखने को बहुत कुछ है।
कहन में मंगलेश जी जितने अद्भुत और अदम्य रहे असल में उतने ही सरल। भोपाल में उनसे मुलाक़ातें रहीं जब भी वे आए। सिनेमा और संगीत पर अक्सर बात करते। मैंने पहली बार मिलने पर जब ज़िक्र किया था कि उनकी कविता ‘गुमशुदा’ मैंने इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी में पढ़ी तो चौंके थे. तब internet पर इतनी आसानी से सामग्री उपलब्ध नहीं थी। तब मैंने बताया कि पुराने अंक घर पर रखे हैं। वे प्रभावित थे कि नई पीढ़ी इस तरह लेखक कवियों को ढूँढ कर पढ़ती है। इस आलेख ने उन्हें फिर से याद करने का मौक़ा दिया। सहेज कर रखने वाला आलेख जिसमें एक लेखक अपने इतिहास और विवेचना के साथ दर्ज है। किसी किताब के लिए ‘पहाड़ पर लालटेन’ मेरे पसंदीदा शीर्षक में से एक है।
‘मुझे दिखा एक मनुष्य’ कविता-संग्रह का ही नाम बदलकर ‘नये युग में शत्रु’ रखा गया था । शमशेरियत की तर्ज़ पर वीरेनियत या मंगलेशियत कहना क्या उचित है ? मंगलेशजी की कविता और गद्य का अच्छा विश्लेषण किया रविभूषणजी जी ने । समालोचन का आभार ।
कवि मंगलेश डबराल को समझने में उनकी कविता तथा उनके गद्य के साथ-साथ उनकी बातचीत, उनकी चाल-ढाल, उनके बोलने के अंदाज भी को मददगार साबित हो सकते हैं, उनकी ओर भी देखा जाना चाहिए।
रविभूषण जी ने सभी ओर देखा है , इसलिए उनकेे बारे में कुछ चीजें खुलती हैं।
रविभूषण जी का आभार और समालोचन को बधाई कि उन्होंने प्रिय कवि की स्मृतियों को ताज़ा किया।
Ravi ji ne samagra rachnaon ko dhyan mein rakhte huye Manglesh ji par bahut achha likha hai.
इस विस्तृत स्मृति-आलेख के लिए आदरणीय रविभूषण जी को साधुवाद और इसके प्रकाशन हेतु अरुण जी को धन्यवाद।
बावजूद इसके निवेदन है कि मंगलेश जी को आलोचकों से शिकायत थी,यह बात तो समझ में आ सकती है जिसके वाजिब कारण भी हो सकते हैं,पर कवि द्वारा आचार्य रामचंद्र शुक्ल को आलोचना का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री कहा जाना और अन्य आलोचकों को उनकी मंत्रिमंडल का सदस्य बताना अस्वीकार्य है।
‘संगतकार’ कविता को मंगलेश जी के कवि की अगर मूल प्रकृति मानें तो उनके कृतित्व पर लिखते हुए इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी की चर्चा भी गैरज़रूरी प्रतीत होती है।
इसके साथ ही ‘शमशेरियत’ की तर्ज़ पर ‘मंगलेशियत’ का प्रयोग भी असहज है।
मूल्यवान स्मृति अंकन और आख्या।
समकालीन हिंदी कविता के प्रतिनिधि कवि मंगलेश डबराल जी पर बहुत उम्दा आलेख। उनके समग्र लेखन की समसामयिक प्रस्तुति। मंगलेश जी सबसे पहले अपने पाँचवे काव्य संग्रह ‘नये युग में शत्रु’ का नाम ‘मुझे दिखा एक मनुष्य’ रखना चाहते थे। अब उस काव्य संग्रह का नाम ‘नये युग में शत्रु’ है। रवि भूषण सर को शानदार लेख के लिए बधाई और मंगलेश दा को नमन…🙏
दिल्ली एक हृदयविदारक नगर है
(नौ दिसम्बर रघुवीर सहाय का जन्मदिन है। काफ़ी झिझकते हुए मैं उनकी एक खोई हुई रचना यहाँ दे रहा हूँ। यह ‘प्रतिपक्ष’ पत्रिका के सितम्बर 1988 अंक में प्रकाशित हुई थी, लेकिन उनके देहान्त के बरसों बाद जब उनकी रचनावली प्रकाशित हुई तो यह रचना वहाँ से ग़ायब थी। यह मेरे दूसरे कविता संग्रह ‘कविता का जीवन’ की समीक्षा थी।
रविभूषण जी द्वारा मंगलेश जी के समग्र कृतित्व पर विश्लेषणात्मक लेख के रूप याद किया जाना बहुत अच्छा लगा | स्मृति नमन मंगलेश जी को 🙏🙏
अब तो साहित्यकारों और उनकी रचनाओं में एक तरह से प्रतिरोध ही खत्म हो गया है। यह ऐसा समय है जब जनता, नेता और कवियों पर सवाल उठने चाहिए।
ऐसे में ‘रघुवीर सहाय-मंगलेश डबराल स्मृति दिवस’ को प्रतिरोध दिवस के रूप में मनाना मन में उजास भरता है।
रविभूषण जी ने बढ़िया लिखा है, यह सच है दिल्ली हृदयविदारक शहर है, मैं भी उसका शिकार रहा हूँ. मंगलेशजी के सहृदयता का कायल हूँ. वे बड़े कवि के साथ मनुष्य भी बड़े थे…मैं उनकी तरह सहज रहनेवाला दूसरा कवि नहीं देखा. उन्हें कवि होने के प्रदर्शन से हमेशा मुक्त देखा, यह बड़ी बात है….
मंगलेश डबराल पर रविभूषण जी का आलेख सचमुच बहुत अच्छा लगा। उन्होंने मंगलेश डबराल पर समग्रता से विचार किया है।
मंगलेश जी पर एक ऐसा लेख जो सभी को पढ़ना चाहिए ।रविभूषण जी
ने हम जैसे साधारण पाठक को बताया है कि मंगलेश जी का काम इतना
बड़ा और इतना सार्थक है कि निश्चय ही समय का अतिक्रमण कर जाएगा ।मधुसूदन आनन्द