मंगलेश डबराल सिर्फ़ यही थी उसकी उम्मीद रविभूषण |
कवि-नाटककार बर्टोल्ट ब्रेश्ट (10.2.1898-14.8.1956) ने लेखक के रूप में अपनी भूमिका को रेखांकित करते हुए यह कहा था –
‘‘मेरे जमाने में सड़कें दलदलों तक जाती थीं
भाषा ने मुझे कातिलों के हवाले कर दिया
लेकिन मेरे बगैर शासक और भी चैन से रहते
इतनी ही थी मेरी उम्मीद.”
मंगलेश डबराल (16.5.1948-9.12.2020) ने अपने प्रिय कवि ब्रेश्ट की ये पंक्तियाँ मुक्तिबोध (13.11.1917-11.9.1964) को समर्पित ‘सत्ता और संस्कृति’ विषय पर दिये एक व्याख्यान में कही थीं. ‘सिर्फ़ यही थी मेरी उम्मीद’ (वाणी प्रकाशन, 2021) मरणोपरान्त प्रकाशित उनका एक गद्य-संचयन है. ‘मरणोपरान्त कवि’ में उन्होंने लिखा है –
“वक्त के साथ बढ़ती गई है
मरणोपरान्त हमारे कवि की जरूरत”
अपने इस व्याख्यान में वे ‘अंधेरे में’ कविता, ‘क्लॉड इथरली’ कहानी, एंटोनियो ग्राम्शी (22.1.1891-27.4.1937), ‘बाबरी मस्जिद ध्वंस, गुजरात नरसंहार, ग्वांतेनामो और अबु गरेब जेल की यातनाओं, दन्तेवाड़ा के सलवा जुडूम, कश्मीर के फौजी बूटों’, नोबेल पुरस्कार विजेता नाटककार हेराल्ड पिंटर (10.10.1930-24.12.2008), सर्वोच्च न्यायालय, ‘गैर-उत्पादक अन्तरराष्ट्रीय आवारा पूंजी’, ‘नव उदारवादी आर्थिक दर्शन’, ‘प्रतिक्रियावादी फासिस्ट एकीकरण’, सांस्कृतिक साम्राज्यवाद,’ ‘कोका-कोलाइजेशन’, ‘वैचारिक वर्चस्ववाद’, इराक, अफगानिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण, लियो तोल्सतोय (9.9.1828-20.11.1910), अडोर्नो (11.9.1903-6.8.1969), और हाँर्खाइमर (14.2.1895-7.7.1973) का ‘सांस्कृतिक उद्योग’ (कल्चरल इंडस्ट्री), सेज़ के खिलाफ संघर्ष, नियमगिरि के आदिवासी, पी. चिदम्बरम, मार्खेज (6.3.1927-17.4.2014) के उपन्यास ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉल्टि्यूड’ (1967) आदि की चर्चा करते हैं.
मंगलेश की चर्चा मुख्य रूप से कवि, पत्रकार और गद्यकार के रूप में की जाती रही है, पर इन सबमें उनमें अपने समय और समाज को लेकर जो गहरी चिंताएँ और बेचैनियाँ हैं, उन पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है.
‘‘हमारे दौर में कलाकार व्यापारी की तरह दिखता है, बुद्धिजीवी दलाल की तरह, आलोचक जन सम्पर्क अधिकारी की तरह, विद्वान प्रचारक की तरह, हत्यारा मासूम की तरह, रिश्वतखोर इज्जतदार की तरह, चापलूस स्वाभिमानी की तरह, ताकतवर शिकार की तरह, आततायी उत्पीड़ित की तरह.’’
इस समय प्रेम ‘दो व्यक्तियों के बीच का लेन देन’ है. ग्राम्शी ने अपने समय को ‘विकृतियों’ और ‘राक्षसों का समय’ कहा था. 1937 से अब तक विकृतियां कहीं अधिक बढ़ी है और राक्षसों की वंश-परम्परा फल-फूल रही है. मंगलेश ग्राम्शी का यह कथन उद्धृत कर अमेरिका के 43वें राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश (6.7.1946) द्वारा एशिया, इराक और अफगानिस्तान पर गिराये गये बमों में विकृति और राक्षसपने को देखते हैं. बुश आठ वर्ष तक (20 जनवरी 2001-20 जनवरी 2009) अमेरिका का राष्ट्रपति था. मंगलेश की चिन्ता मं देश के वे 83 करोड़ लोग थे, जिनकी दैनिक आय मात्र 20 रुपये प्रति दिन थी और एक लखपति बनने की प्रक्रिया में पैदा हो रहे एक हजार गरीब लोग थे. अब भी सरकार 80 करोड़ से अधिक लोगों को भोजन के लिए 5 किलो अनाज दे रही है. हिलाल अहमद ने ‘चैरिटेबल स्टेट’ की बात कही है.
‘क्लॉड इथरली’ में इथरली में जो ‘भयानक ग्लानि-बोध’ है, मंगलेश वैसा ग्लानि-बोध वर्तमान समय में दुष्कर्मियां के भीतर नहीं देखते थे. ग्राम्शी इस ग्लानि-बोध को ‘एक क्रान्तिकारी भावना’ के रूप में देखते थे क्योंकि इस भावना के जन्म लेने पर ही परिवर्तन का विचार उत्पन्न होता है.
मंगलेश की चिन्ता व्यापक थी. वह किसी दायरे या सीमा में आबद्ध नहीं थी. वह एक साथ सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक थी. उनका दिल महसूस करता था और दिमाग सोचता था. एक संवेदनशील मन और सुचिन्तित, बौद्धिक मस्तिष्क. अब बहुत कम कवियों-लेखकों का दिल-दिमाग ऐसा है. वे यह देखकर परेशान थे कि साहित्य कुल मिलाकर मध्यवर्ग को ही सम्बोधित है और साहित्य का पाठक भी इसी वर्ग का है. अब हिन्दी के कई कवि-लेखक सुविधा-सम्पन्न जीवन जीते हुए गहरी बेचैनियों से दूर हो चुके हैं. कवि-कर्म सर्वोत्तम सृजन कर्म है. कवि को संवेदनशील दृष्टि से, जिस समय और समाज में वह सृजनरत है, उसे देखना और उसमें यथाशक्ति हस्तक्षेप करना भी है. मंगलेश ने राज्य, पूंजी, बाजार और मनुष्य विरोधी राजनीति की सत्ता की मुखालफत की है.
समकालीन सत्ताओं से साहित्य और साहित्यकार के रिश्ते कैसे होंगे, यह साहित्यकार पर निर्भर करता है. ‘संस्कृति, अपसंस्कृति, विकृति’ लेख में उनकी चिन्ता संस्कृति से अपसंस्कृति और विकृति तक की यात्रा पर है. मीडिया, अखबार, टीवी चैनल, संचार-माध्यम-सर्वत्र वे संस्कृति से गहरे सरोकारों को गायब होता देख रहे थे. एक कवि होने के कारण उनकी चिन्ता में ‘सहिष्णुता, सद्भावना, सामासिकता, बहुलता, धर्मनिरेपक्षता’ आदि अनेक शब्द थे, जो ‘बहुसंख्यक आक्रामकता’ के शिकार हुए हैं. हम शब्द-विशेष को कैसे देखते-समझते हैं, वह बहुत कुछ हमारे सरोकार आदि पर भी निर्भर करता है. मंगलेश के लिए ये सभी शब्द ‘निरे शब्द’ न होकर वे ‘‘बुनियादें हैं, जिन पर आजादी, लोकतंत्र और मनुष्यता टिके होते हैं.’’ आज ये बुनियादें हिल रही हैं.
2014 के बाद का भारत पहले के भारत से भिन्न ही नहीं, विपरीत भी है. संस्थाओं की स्वायत्तता समाप्त हो चुकी है और सभी लोकतांत्रिक-संवैधानिक संस्थाएँ अब जिनके हवाले हैं, वे उन्हें मटियामेट करने में लगे हुए हैं. मंगलेश इस दृश्य-परिदृश्य को देखकर कहीं अधिक चिंतित थे, जिसे हम केवल उनकी कविताओं में ही नहीं, उनके इस गद्य-संचयन में भी देखते हैं- निबंध व्याख्यान, टिप्पणियाँ और डायरी में उनकी चिन्ता में साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी, नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, नेशनल बुक ट्रस्ट, इन्दिरा गाँधी नेशनल सेंटर फॉर आर्टस एण्ड कल्चर, नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट, फिल्म सर्टिफिकेशन बोर्ड, चिल्ड्रन्स फिल्म सोसाइटी जैसे संस्थान थे, जिनके भीतरी ढाँचों की तोड़-फोड़ की गयी थी और शीर्ष पदों पर अयोग्य व्यक्तियों को बिठा दिया गया था.
मंगलेश ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ के खिलाफ थे. पत्रकारिता में उनका अधिक समय बीता था और वे यह जानते थे कि मीडिया और संचार-माध्यमों की एक बड़ी भूमिका ‘सहमति के निर्माण’ की है. उनके सामने बहुराष्ट्रीय निगम के उत्पादों और मीडिया के बीच एक भयंकर किस्म का गठजोड़ था. बेहतर समाज से न तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को कोई मतलब था और न ही टीवी चैनलों को. वहाँ बेहतर समाज की कोई कल्पना तक नहीं थी. बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में फ्रांसिस फुकुयामा (27.10.1952) की पुस्तक ‘द एंड ऑफ हिस्ट्री एण्ड द लास्ट मैन’ (1992) और सैमुअल फिलिप्स हटिंगटन (18.4.1927-24.12.2008) की ‘द क्लैशेज ऑफ सिविलाइजेशन एण्ड द रिमेकिंग ऑफ वर्ल्ड ऑर्डर’ (1996) ने बौद्धिक तबके में जो हंगामा खड़ा किया था उसे मंगलेश ने ठीक ही ‘अमेरिकी बहुराष्ट्रीय तंत्र द्वारा विजय हेतु जारी’ माना है. भारत के विस्थापितों, किसानों की जमीन के अधिग्रहण, पूंजीपतियों की परियोजनाओं के लेकर वे कहीं अधिक चिंतित थे. वे ताकत की दुनिया के खिलाफ थे –
“ताकत की दुनिया में जाकर मैं क्या करूँगा
मैं सैकड़ों हजारों जूते चप्पल लेकर क्या करूँगा
यह दुनिया घर है, कोई होटल नहीं.”
‘सिर्फ़ यही थी मेरी उम्मीद’ गद्य-संचयन में कुल 33 लेख, व्याख्यान, टिप्पणियाँ और डायरी है. कवियों की उन्होंने दो श्रेणियाँ बनाईं हैं – ‘काव्यात्मक’ और ‘गैर काव्यात्मक’ या ‘साहित्यिक’ और ‘गैर-साहित्यिक’ कवि. शमशेर (13.1.1911-12.5.1993) और नागार्जुन (30.6.1911-5.11.1998) को उन्होंने गैर साहित्यिक कवि की श्रेणी में रखा है और ‘‘अज्ञेय (7.3.1911-4.4.1987) एवं केदारनाथ अग्रवाल (1.4.1911-22.6.2000) ‘वैचारिक भिन्नता और घोषित मतभेदों के बावजूद ‘साहित्यिक कवि’ माने जायेंगे.
नागार्जुन और शमशेर उनके अनुसार
‘‘सौन्दर्य की कविता को भी भी रफ़ तरीके से लिखते हैं और उनके शिल्प में एक ढीलाढालापन, एक अनगढ़ स्थापत्य साफ दिखाई देता है.’’
मंगलेश ने अब तक विस्तार पूर्वक या संक्षेप में ही जिन कवियों पर लिखा है, वह एक स्वतंत्र अध्ययन-विवेचन की माँग करता है. इस पुस्तक में उनके लेख निराला (21.2.1897-15.10.1961), शमशेर, मुक्तिबोध (13.11.1917-11.9.1964), विष्णु खरे, (9.2.1940-19.9.2018), चन्द्रकान्त देवताले, (7.11.1936-14.8.2017), नबारूण भट्टाचार्य (23.6.1948-31.7.2014) कश्मीरी कवि रहमान राही (6.5.1925-9.1.2023), हिन्दी – कुमाऊँनी कवि गिरीश तिवारी गिर्दा (10.9.1945-22.8.2010), सुदीप बनर्जी (16.10.1946-10.2.2009), केदारनाथ सिंह (7.7.1934-19.3.2018), फैज (13.2.1911-20.11.1984), गुजराती कवि राजेन्द्र शाह (28.1.1913-2.1.2010) विनोद कुमार शुक्ल (1.1.1937), मराठी कवि- अनुवादक चन्द्रकान्त पाटील, आलोक धन्वा (2.7.1948) और वीरेन डंगवाल (5.8.1947-28.9.2015) पर है. मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ और श्रीकान्त वर्मा की ‘बुखार में कविता’ पर स्वतंत्र लेख है. मंगलेश कविता के घोषित या मान्य आलोचक नहीं हैं, पर कवियों और कविताओं पर लिखी गयी उनकी एक प्रखर आलोचनात्मक दृष्टि है.
यह जानना जरूरी है कि समकालीन हिन्दी कवियों के कविता-संबंधी विचार क्या हैं? उनमें कितना साम्य-वैषम्य है? अभी तक संभवतः किसी एक कवि की काव्य-संबंधी दृष्टि और मान्यताओं पर समग्रता में गंभीरतापूर्वक विचार नहीं किया गया है. मंगलेश कविता लिखने के लिए पागलपन जरूरी मानते हैं.
‘‘एक बुखार, एक तकलीफ, एक उन्माद या फिर तार्किकता और पागलपन के बीच की कोई जगह’’.
उनके अनुसार आनंद की अनुभूति से कविता जन्म नहीं लेती है- ‘‘ज्यादातर अच्छी कविताएँ यातना या पीड़ा और ग्लानि के बोध से लिखी गयी हैं.
“वे प्रतिबद्धता और प्रतिरोध की कविता को ‘हमेशा राजनीतिक’ मानते हैं शायद क्रान्तिकारी नहीं. कवि क्रान्ति का स्वप्न देखता है. ‘क्रान्तिकारी तो राजनीतिक दलों को होना होता है, जो कि आज चिराग लेकर खोजने से भी नहीं मिलते.’’
कविता को मंगलेश ‘संवेदना, माननीय आवेग, और सघनता तथा गहराई और विचलित करने वाली कोई वैचारिक भावना’ से जोड़ते हैं. कविता का यह एक बड़ा लक्षण है, जिससे ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’, बाइबल, मोनालिसा, वान गॉग का ‘तारों भरी रात’, तोल्सतोय का ‘पुनरूत्थान’ और माइकेल एंजेलो का ‘डेविड’ उन्हें कविता की तरह लगते हैं. मंगलेश कविता, फिल्म, संगीत, चित्र को अलग-अलग रख कर नहीं देखते. वे उन कवियों में हैं, जो रंगों को सुनते हैं, संगीत को देखते हैं और शब्दों को जीवित वस्तुओं में बदलते हैं. वे तमाम शब्दों को बारिश में भींगते देखते हैं. एक कवि की उक्ति को बदल कर उन्होंने यह कहा है कि ‘‘भाषा के तमाम शब्द जैसे किसी बारिश में भींगते हुए खड़े रहते हैं और कुछ शब्द होते हैं, जिन पर बिजली गिरती है और वे कविता बन जाते हैं. शायद बिजली से वंचित शब्द गद्य ही बने रहते हैं.’’ इस रूपक को थोड़ा बढ़ाकर अशोक वाजपेयी ने पुस्तक की भूमिका में मंगलेश के गद्य को शायद ‘बिजली से वंचित’ न मानकर ‘‘बिजली गिरने के ठीक पड़ोस का गद्य” कहा है, ‘‘जिसमें असाधारण स्पन्दन और द्युति है.’’ मंगलेश का गद्य अरूण कमल और राजेश जोशी के गद्य से भिन्न है. उनके गद्य-सौन्दर्य पर कम विचार हुआ है. यह गद्य कोमल, तरल, ‘गरमाहट’ से भरा गद्य है- सम्प्रेषणीय, पारदर्शी और भाव-संगीत एवं विचार-संगीत से भरपूर भी.
‘स्त्रीवाची निराला’, ‘कविता में गाँधी’, ‘सौ वर्ष : दस कवि’ भिन्न किस्म के लेख हैं. मंगलेश अपनी पीढ़ी के कवियों के निराला से रिश्ते पर भी प्रकाश डालते हैं. अभी तक उनके किसी समकालीन कवि ‘निराला की कविताओं का अपनी रुचि का एक संचयन’ तैयार नहीं किया है. निराला की विलक्षणता जिन कई कारणों से है, वे ‘अपूर्व विषय वस्तु’, ‘सघन दृश्यात्मकता’ ‘गहरी प्रतिबद्ध दृष्टि’, ‘अकल्पनीय प्रयोगशीलता’ ‘समृद्ध ध्वन्यात्मक गुण’, ‘दलित जन के लिए अपार करूणा’, ‘पारम्परिक शैली की तत्सम पदावली’, ‘शब्द-योजना’, ‘कम शब्दों में क्रियाशील बिम्ब भरना’, ‘प्रत्येक शब्द और अक्षर की हलचल’, आदि हैं. मंगलेश निराला के काव्य-गुण एवं काव्य-सौन्दर्य को स्पष्ट करते हैं. ‘‘निराला किसी अनुभव को उसकी आवयविकता में, उसकी तात्विकता-ऑर्गेनिकैलिटी में देखते हैं और उस अनुभव का एक नया आकार निर्मित कर देते हैं.” मंगलेश के लिए ही नहीं उनके अन्य समकालीन कवियों- वीरेन डंगवाल, राजेश जोशी और अरूण कमल के लिए भी निराला के पन्ने सदैव खुले रहे हैं.
इन चारो कवियों ने निराला को कैसे देखा, पढ़ा, समझा और गुना है, इसे देखा जाना चाहिए. मंगलेश निराला की कविताओं में ‘आवेगों के आद्यरूपों के दृश्यालेख’ को प्रस्तुत होते देखते हैं. निराला में नवीनता के प्रति जो आग्रह है, ‘बार-बार नये जन्म, नये आरंभ की जो बेचैनी’ है, उसे वे उस सांस्कृतिक संकट से जोड़ते हैं, जिधर ग्राम्शी ने ध्यान खींचा था- ‘‘पुराना नष्ट होने को है और नया जन्म नहीं ले पा रहा है.’’ ‘स्त्री-छवि’ को मंगलेश ने ‘निराला की कविता का बेहद आकर्षक पहलू‘ कहा है. वे उनमें स्त्री-संवेदना देखते हैं, मातृ शक्ति के प्रति पुकार और गुहार सुनते हैं. ‘‘दरअसल यह हिन्दी पट्टी की नहीं, बल्कि बंगाल की माँ है.’’
निराला से कई कवियों ने काव्य-पंक्ति ली. विष्णु खरे की कविता ‘जो मार खा रोयी नहीं’, ‘तोड़ती पत्थर’ से ली गयी है. हिन्दी कविता के आलोचकों ने ही नहीं, निराला के आलोचकों ने भी इस ओर दृष्टि नहीं डाली है कि हिन्दी के अनेक कवियों ने उनसे कहाँ-कैसे प्रेरणा ग्रहण की है. मंगलेश ‘राम की शक्ति-पूजा’ को भी स्त्री वाची स्वर से मुक्त नहीं देखते. वे ‘सरोज-स्मृति’ में ‘निराला की कविताओं की तमाम विशेषताएँ’, देखते हैं. ‘अन्याय जिधर है, उधर शक्ति’ की ‘विकट विडम्बना’ को उन्होंने ‘सार्वभौमिक, सार्वकलिक’ मानकर शिम्बोर्स्का की कविता ‘यह सदी’ में इसी को ध्वन्ति होते देखा है-
“उम्मीद थी कि सौन्दर्य और ताकत
एक ही मनुष्य में होंगे
लेकिन सुन्दर और ताकतवर
आज भी दो अलग-अलग मनुष्य हैं.”
मंगलेश ने इलाहाबाद में ‘निराला स्मृति व्याख्यान माला’ के तहत जो निबंध पढ़ा था, वही ‘स्त्री वाची निराला’ है. उन्होंने यह सही रेखांकित किया है कि ‘‘महँगू, झींगुर, कुल्ली भाट, चतुरी चमार, बिल्लेसुर बकरिहा और कई जाति वाचक सर्वनाम धोबी, पासी, तेली, चमार भी हिन्दी कविता में पहली बार निराला के यहाँ प्रकट हुए… निराला की कविता के लोगों के बगैर परवर्ती कवियों की रचनाओं में लोगों का आना शायद संभव नहीं था.’’ मंगलेश ने अपनी पीढ़ी को ‘निराला के विवेक और जीवन से अनुप्राणित’ होना स्वीकारा है.
‘कविता में गाँधी’ लेख में सियाराम शरण गुप्त, सुमित्रानन्दन पंत, रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन, नागार्जुन, निराला, मराठी कवि वसन्त दत्तात्रेय गुर्जर, भवानी प्रसाद मिश्र, मलयाली कवि के. सच्चिदानन्दन की कई कविताओं का मात्र उल्लेख नहीं, उस पर संक्षेप में विचार भी है. इस लेख के अंत में वे ‘गाँधी विचारधारा से प्रभावित महिला कल्पना पालीवाला का जिक्र करना नहीं भूलते, जो ‘सूचना-प्रसारण मन्त्रालय से अवकाश प्राप्त एक अधिकारी’ थीं और गाँधी से जुड़ी कविताओं और उनके गायन की एक परियोजना उन्होंने ‘बापू गीतिका’ आरंभ की थी, जिसमें 14 भाषाओं की 108 कविताएँ और कई गीत शामिल हैं. कविताओं की सांगीतिक संरचना संगीतकार उमाशंकर चन्दोला ने निर्मित की. यह जानकरी महत्वपूर्ण है. ‘सौ वर्ष दस कविताएँ’ लेख में वे सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ‘मेरा नया बचपन’, निराला की ‘सरोज-स्मृति’, शमशेर की ‘टूटी हुई बिखरी हुई’, अज्ञेय की ‘कलगी बाजरे की’, नागार्जुन की ‘अकाल और उसके बाद’, त्रिलोचन की ‘चम्पा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती’, रघुवीर सहाय की ‘रामदास’, धूमिल की ‘बीस साल बाद’ और राजकमल चौधरी की ‘मुक्ति-प्रसंग’ पर विचार करते हैं.
“हिन्दी कविता की लगभग एक सदी के इस सिरे से देखने पर” ये कविताएँ उन्हें सहज ही याद आती हैं. मंगलेश ‘हिन्दी की सामूहिक स्मृति’ पर ध्यान देते हैं, जो इस स्मृति-विहीन समय में आवश्यक है. उनके यहाँ स्मृति की प्रमुखता है. वे उस समय को याद करते हैं ‘‘
जब प्रेम एक निर्वात था और करूणा एक अमूर्तन. जब स्मृति एक अंधकार थी और विस्मरण दूर चाँद की तरह चमकता था. जब पूर्वज अदृश्य थे और मैं उनसे बात करना चाहता था.” 2017-18 के बीच तिथिविहीन उनके दो दर्जन डायरी अंश ‘सिर्फ़ यही थी मेरी उम्मीद’ में है. घर में जमा बहुत-सा कबाड़ जो अनुपयोगी था, उसमें मंगलेश अपने पिता और दादा का वह समय देखते हैं, जो पहले गुजर चुका है. वे अपने भीतर एक बड़ा-सा उपन्यास देखते हैं, जो ‘‘कभी-कभी हलचल करता है, लेकिन ज्यादातर किसी प्रागैतिहासिक आदिम जन्तु की तरह कहीं पड़ा रहता है.’’ आरंभ में उन्होंने कुछ कहानियाँ लिखी थीं, जो सराही भी गयी थीं. अब वे सोचते हैं
‘‘कोई भी सच्ची कहानी तब कही जानी चाहिए, जब वह एक अफवाह और गप्प बनकर रह जाये. उस कहानी का यथार्थ इसी के बाद शुरू होगा.’’
दो |
कवि केवल कविता ही नहीं लिखता, वह कविता के साथ सदैव खड़ा भी रहता है. मंगलेश अपने समय में कविता की भूमिका और उसकी शक्ति को केवल पहचानते ही नहीं, उसकी पहचान भी कराते हैं. अपने लेख ‘खतरे में कविता’ में वे कविता की मृत्यु की घोषणा को नयी नहीं कहते. वे यह सवाल करते हैं कि
‘‘कविता की मृत्यु की यह घोषणा बार-बार क्यों करनी पड़ती है’’, जबकि मृत्यु एक ही बार आती है. उदारीकरण और भूमंडलीकरण का समय कविता का समय नहीं है, पर कवि ही इस समय से मुठभेड़ भी करता है. ‘‘विलक्षण चीजों के गुणों को बतलाने के लिए ‘काव्यात्मक’ से बेहतर विशेषण अभी तक ईजाद नहीं हो पाया है.”
लाखों लड़कियों का नाम ‘कविता’ क्यों है? मंगलेश कविता और मास मीडिया को ‘कतई अलग और अक्सर विपरीत विधाओं’ में रखते हैं.‘‘ कविता मास मीडिया या कल्चर नहीं है. वह जिसे जनक्षेत्र या पब्लिक स्फीयर कहते हैं, वहाँ नहीं रहती. यह बहुत संभव है कि कोई कविता उड़ कर मास मीडिया और मास कल्चर में चली जाये, लेकिन वह उसकी एक तात्कालिक जरूरी भूमिका ही होगी.
“कविता इस समय पहले से कहीं अधिक लोकतान्त्रिक है. वह काव्यात्मकत से बहुत हद तक मुक्त हो चुकी है. उसमें बहुत अधिक गद्य का प्रवेश हो गया है, वह अपने उदात्त, वैभवपूर्ण और अति विशिष्ट स्तर से नीचे गिर पड़ी है.’’ शुष्क एवं गद्यात्मक विवरणों से भरी कविताएँ कविता इसलिए है कि ‘‘वे किसी मानवीय अनुभव को एक रहस्य और एक अज्ञात की तरह खोजकर ले आती है और उसे एक ऐसी निर्मिति बनाती हैं, जिससे हम परिचित नहीं थे- चाहे वह अनुभव सुखद हो, आनन्ददायी या डरावना.’’
मंगलेश ‘अनेकता में एकता’ को ‘एक अखिलतावादी धारणा’ मानते हैं और ‘एकता में अनेकता को एक बहुलतावादी धारणा.’ इस कारण वे पैन इंडियन या अखिल भारतीय कविता जैसी अवधारणा के पक्ष में नहीं हैं. अब तक अखिल भारतीय कविता की कोई वैसी सैद्धान्तिकी नहीं बनी है, जैसी बहुत हद तक ‘भारतीय उपन्यास’ की है. उनके अनुसार अगर हिन्दी के निराला, मुक्तिबोध और नागार्जुन को, बांग्ला के जीवनानन्द दास, मराठी के विंदा करंदीकर, मलयालम के अयप्पा पणिक्कर, कन्नड़ के गोपाल कृष्ण अडिगा, कश्मीरी के दीनानाथ नादिम की कविता मिलकर’ शायद ‘ऐसा कोई राष्ट्रीय विमर्श’ बनाये, ‘जिसे हम पैन इंडियन पोएट्री या नेशनल पोएट्री डिस्कोर्स कह सके. शायद नहीं, क्योंकि कविता हमेशा समाज की केन्द्रीय संरचनाओं का नहीं, बल्कि हाशियों का वर्णन करती है.’’
मंगलेश कविता के ‘वेध्य और नश्वर’ होने के पक्ष में हैं. ‘वेध्य और नश्वर कविता : कुछ अधूरी बातें’ में वे कविता की पतली त्वचा की बात करते हैं. ग्राम्शी का यह कथन ‘बुद्धि का निराशावाद और हृदय का आशावाद’ कविता का भी सूत्र वाक्य होना चाहिए. ‘‘कवियों को अपने को तमाम भारतीय भाषाओं और विश्व की भाषाओं का कवि मानना चाहिए और अपनी कविता को विश्व कविता के बीच, उसके एक हिस्से के रूप में देखना चाहिए.’’ वे शमशेर की कविता ‘अमन का राग’ की याद दिलाते हैं, ‘‘जिसमें दुनिया में तमाम लेखकों-कवियों-कलाकारों की घनिष्ठ बिरादरी की सुन्दर परिकल्पना की गयी है.’’ दुःखद यह है कि अब कवि ही अपनी बिरादरी को सीमित-संकुचित कर रहा है. इतिहास में सबसे अधिक संख्या में कवि दर्ज हैं, जिन्होंने सर्वाधिक यातनाएँ झेली हैं. सबसे अधिक अपमानित कवियों को ही किया गया है. हिन्दी में जिस समय कवियो को न केवल सत्ता-विमुख होना चाहिए था, अपितु उन्हें सत्ता को चुनौती भी देनी थी, उस समय कवि अपनी दुनिया में प्रसन्न और मस्त है. मंगलेश ने ठीक लिखा है –
‘‘समीक्षा के नाम पर जो कुछ उपलब्ध है, वह परस्पर वार्तालाप या बिरादराना उत्साहवर्धन की मानिन्द ज्यादा है.’’
आज की तो बात ही कुछ और है. नामवर सिंह के हाथ में भी सदैव सूप नहीं रहा. आलोचक के हाथ में सूप होना जरूरी है.
कविता जिस जबान में लिखी जाती है, वह जबान यानि हिन्दी मंगलेश की चिन्ता में है, जिसे ‘यह अपनी जबान है’ लेख में देखा जा सकता है. वे हिन्दी और उर्दू को ‘जुड़वाँ बच्चों-सियामीज ट्विंस की तरह’ देखते हैं, ‘‘जिसकी गर्भ नाल एक ही है, पेट भी एक है, रक्त-संचार की एक प्रणाली है, जिन्हें अलग करने की कोशिश उन्हें फिर से घायल कर देती है.’’ वे मोहम्मद हुसेन आजाद की किताब ‘आबे हयात’ का जिक्र करते हैं, जहाँ उर्दू को ब्रजभाषा से निकली भाषा माना गया है. उर्दू को रेख्ता भी कहा गया था, जिसे मीर ने ‘हमारी जबान है प्यारे’ कहा है. यह अठारहवीं सदी की वह जबान थी, जिसे उस समय भी हिन्दी ही कहा जाता था. खड़ी बोली हिन्दी का जन्म ‘‘उन्नीसवीं सदी के हिन्दी नवजागरण, भारतेन्दु मण्डल और आर्य समाज क प्रयत्नों से हुआ.’’ खड़ी बोली इस दौर में सुस्थिर और खड़ी हुई, पर उसके उदाहरण बहुत पहले के भी हैं, जिधर मंगलेश कम ध्यान देते हैं. हिन्दी-उर्दू का यह मामला आधिकारिक रूप से मंगलेश का है भी नहीं, पर यह प्रशंसा की जानी चाहिए कि इस कवि की नजर इधर भी है. वे हिन्दी कविता के कई उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जिसमें ये दोनों भाषाएँ ‘घुल-मिल गयी हैं’’. वे शमशेर पर गालिब और इकबाल का गहरा असर देखते हैं और नागार्जुन की कई कविताएँ पढ़ते हुए नजीर अकबराबादी को याद करते हैं, जो बड़ी बात है. बड़ी बात यह है कि कवि ही सबसे अधिक फर्क और विभेद को मिटाता है.
विष्णु खरे से मंगलेश की गहरी मैत्री थी. मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय की तरह वे विष्णु जी को कविता में नयी जमीन तोड़ते देखते हैं. उन पर उनके तीन लेख हैं – ‘कितनी दूर तक भटक सकते हैं’, ‘सत्य का पीछा कविता’ और ‘चार आयामों का एक कवि विष्णु खरे’. मंगलेश इस पर अधिक विचार नहीं करते कि विष्णु की कविता क्यों ‘लम्बी और निबन्धात्मक’ है, विवरण और सपाट गद्य से भरी हुई है. आरंभिक कविताओं से लेकर बाद की कई कविताओं का उन्होंने अर्थ-विवेचन किया है. मंगलेश की काव्य-आलोचना प्रचलित आलोचना से भिन्न है. उसमें एक साथ गहरी संवेदना और विचार-दृष्टि है. उनके सामने कवि का पूरा काव्य-विकास है. ‘वर्ष-राग’, ‘एकान्त’, ‘स्मरण’ आदि से लेकर ‘टेबल’, ‘दोस्त’ और ‘लालटेन जलाना’ तक. मंगलेश कई कवियों की कविताओं को पढ़ते हुए कुछ फिल्मों को भी याद करते हैं.
कविता और फिल्म को चंद सादृश्य, दृश्य, बिम्ब आदि के आधार पर एक दूसरे को देखना उनके यहाँ अन्य कवि-आलोचकों से कुछ अधिक है. मंगलेश ने विष्णु खरे को ‘मूर्ति भंजक कवि’ कहा है. उनकी कविता को वे ‘अनवरत सत्य का पीछा करती हुई कविता’ कहते हैं. हिन्दी कविता में जिस ‘प्रस्थापना-परिवर्तन’ की बात उन्होंने कही है, उस परम्परा में (कबीर, निराला, शमशेर, नागार्जुन, मुक्तिबोध आदि) वे विष्णु खरे को रखते हैं. ‘‘विष्णु खरे एक तत्कालीन मुहावरे में कहें तो, एक नयी जमीन तोड़ते दिखायी देते हैं और फिर उनकी कविता लगातार बदलती पूर्ववर्ती काव्य-संवेदना में तोड़-फोड़ करती जाती है.’’
उनकी कई कविताएँ उन्हें ‘एक अनहद का स्पर्श करती हुई’ दिखाई देती हैं. मंगलेश का ध्यान उनके संवेदन-तन्त्र और उसके विस्तार पर है. वे उनके मिथकीय प्रकरणों की अधिक कविताओं को ‘समकालीनता के रूपकों जैसी’ देखते हैं. समकालीन कवियों के यहाँ समकालीनता जिन विविध रूपों-रंगों एवं वैशिष्ट्यों में दिखाई देती है, वह अलग से गंभीर विवेचन की माँग करती है. विष्णु खरे समकालीन कवियों में अकेले कवि हैं, जो ‘महाभारत के मुरीद’ हैं.
“दरअसल विष्णु खरे हमारे समकाल के महाभारत का, बीसवीं-इक्कीसवीं सदी में भारत के भीतर चल रहे एक और महाभारत का तरह-तरह से पीछा करते हैं और एक तकलीफदेह तस्वीर डकेरते हैं.’’
वे अकेले कवि हैं, जिन्होंने अपनी कविता में नरसिम्हा राव को कठघरे में एक मुलजिम की तरह खड़ा किया है. मंगलेश ने ऐसी कविताओं को ‘कुछ स्थूलता की शिकार’ कहा है. विष्णु खरे की कविताओं के शीर्षक कविता के सामान्य पाठकों को चैंकाते हैं – ‘‘कानून और व्यवस्था का उप-मुख्य सलाहकार चिन्तित प्रमुख मंत्री को परामर्श दे रहा है.’’
मंगलेश महान कविता और गद्य में एक आपसी रिश्ता देखते हैं उन्हें यह देखकर आश्चर्य होता है कि ‘‘विष्णु खरे गद्य को ज्यादा सपाट, शुष्क और निबन्धात्मक बनाते हैं… इसी से वे सघन, मर्म स्पर्शी अनुभवों को संभव करते हैं.’’ चन्द्रकान्त देवताले की एक प्रमुख कवि के रूप में पहचान विष्णु जी ने ही की थी. उनका काव्य-शिल्प एक दम नया और ‘गैर-पारम्परिक’ है. देवताले पर उनके काम को मंगलेश ने शमशेर पर मलयज के काम की तरह कहा है. उनके चार काम मंगलेश के लिए महत्वपूर्ण है.’ उन्हें उन्होंने ‘चार आयामों का कवि’ भी कहा है.
इस पुस्तक में ही नहीं, अन्य पुस्तकों में भी मंगलेश ने कवियों पर जो लेख लिखे हैं, उन्हें एक साथ रखकर देखने-परखने की जरूरत है. हिन्दी कवियों के अलावा उन्होंने कई हिन्दीतर कवियों, अन्य भारतीय कवियों पर भी लिखा है. जिस मात्रा में उन्होंने विदेशी कवियों के अनुवाद किये हैं, उस मात्रा में उन विदेशी कवियों पर लिखा नहीं है. ‘सिर्फ़ यही थी मेरी उम्मीद’ में उन्होंने छह-सात गैर हिन्दी कवियों पर विचार किया है. भाषा और भूगोल की वहाँ सीमा नहीं है. पंजाबी कवि पाश, बांग्ला कवि नबारूण भट्टाचार्य, कश्मीरी कवि रहमान राही, उर्दू कवि फैज, गुजराती कवि राजेन्द्र शाह, मराठी कवि चन्द्रकानत पाटील और कुमाऊँनी कवि गिर्दा पर लिखे गये लेख इसका प्रमाण है कि मंगलेश के काव्य-चिंतन का संसार कहीं अधिक व्यापक था. नबारूण उनके आत्मीय मित्र-कवि थे. उन्होंने उनकी कविता का हिन्दी अनुवाद भी किया है- ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’. नवारूण पर उनके दो लेख हैं- ‘ज्वालामुखी के मुहाने पर’ और ‘विलक्षण कवि और बुद्धिजीवी’.
नवारूण के यहाँ क्रान्ति का स्वप्न है. क्रान्ति का यह स्वप्न उन तमाम भारतीय कवियों में हैं, जो नक्सलबाड़ी आन्दोलन और विचारधारा से प्रभावित थे. ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ कविता की ऐतिहासिक भूमिका इस अर्थ में है कि इसने ‘‘दूसरी भाषाओं में भी क्रान्तिधर्मी और जनपक्षीय कविताओं की संभावना के दरवाजे खोलने का काम किया.’’ मंगलेश उन्हें ‘आवयविक बुद्धिजीवी’ की कैटेगरी में रखते हैं. नवारूण को उन्होंने ‘ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे हुए व्यक्ति और लेखक’ की तरह देखा है. पिता बिजेन्द्र भट्टाचार्य से नबारूण को ‘‘अन्याय के आगे घुटने न टेकने और व्यावसायिकता की शर्तों पर काम न करने के संस्कार मिले.’’
भारत में ही नहीं, विश्व में भी ऐसे उदाहरण बहुत कम मिलेंगे, जहाँ माँ-पिता और पुत्र तीनों क्रान्ति के समर्थक हों और अपने-अपने क्षेत्र में विशिस्ट हों. पिता बिजन भट्टाचार्य और माँ महाश्वेता देवी की गौरवशाली संतान थे नबारूण. उनके ऊपर माँ-पिता के जीवन और कर्म का बड़ा प्रभाव था. ऐसा ‘एक्टिविस्ट परिवार’ और कहाँ है? ऋत्विक घटक नबारूण के मामा थे. नबारूण ने ‘क्रान्तिकारी माक्र्सवादी विकल्प की तलाश’ की बात की. उनका व्यक्तित्व हमें केवल मोहता ही नहीं, प्रेरित भी करता था.
तीन |
नक्सलबाड़ी आन्दोलन ने भारतीय कविता को बदल डाला. यह एक बड़ी ऐतिहासिक परिघटना थी. इस विचारधारा से मंगलेश भी प्रभावित थे. आलोक धन्वा को उन्होंने ‘क्रान्तिकारी वर्ग-चेतना का प्रमुख कवि’ कहा है. वे आलोक की कविताओं में नाटक देखते हैं, ‘संवेदन, आवेग और आवेश की भंगिमाएँ’ भी. उनके इस कथन से सहमत होना कठिन है कि नागार्जुन के बाद आलोक ऐसे कवि हैं, जिन्होंने अपनी कविताओं से आन्दोलन को जन्म दिया. हिन्दी में ही नहीं, किसी भी अन्य भारतीय भाषा में भी आधुनिक काल में किसी भी कवि ने अपनी कविताओं से आन्दोलन को जन्म नहीं दिया है. तेलुगु के श्री श्री और बरबर राव ने भी नहीं. कवि ने या तो आन्दोलनों का साथ दिया हे या उसके समर्थन में काव्य-रचना की है.
आलोक धन्वा की कविता आन्दोलन पैदा करने का आभास दे सकती है, पर आभास और यथार्थ में अंतर है. कुमार विकल और गोरख पांडेय की कविताओं को भी मंगलेश इसी श्रेणी में रखते हैं, पर गोरखपाण्डेय की कविताओं से अन्य कवियों की कविताओं में अंतर है. भोजपुरी के नौ गीतों का प्रकाशन एक बड़ी घटना थी. भोजपुर के किसान-आन्दोलन में गोरख के गीत गूंजते थे. आन्दोलनकारी और संघर्षरत समूह उनके गीत गाते थे. हिन्दी के अन्य किसी भी कवि के साथ ऐसा नहीं घटा था. नागार्जुन के साथ भी नहीं. आलोक धन्वा की राष्ट्रीय चर्चा और ख्याति जिन दो कविताओं – ‘जनता का आदमी’ और ‘गोली दागो पोस्टर’ से हुई थी, वे नितान्त भिन्न किस्म की कविताएँ थीं. उनका ‘रेटारिक’ जबर्दस्त और प्रभावशाली था. नये तेज, धारदार मुहावरे थे. काव्य-भाषा भिन्न थी. काव्य-शिल्प भी.
मंगलेश इन कविताओं में ‘फुल ब्लडेडनेस’ और ‘समग्र अखण्डित अनुभव’ देखते हैं. आलोक के ‘रेटारिक’ का प्रभाव ‘भव्य और पुरअसर’ था. वे आलोक की ‘‘कविता की प्रेरणाएँ या उत्स हिन्दी कविता में बहुत कम’’ देखते हैं. इस पर उन्होंने ध्यान दिया है कि आलोक ने किन विदेशी कवियों से प्रेरणा प्राप्त की. केदारनाथ सिंह, मंगलेश डबराल सहित हिन्दी के कई समकालीन कवियों के यहाँ हम जो बिम्ब, मुहावरे, भंगिमा आदि दिखाई देती हैं, उनमें से कई में विदेश के कई कवियों की छायाएँ दिख सकती हैं. इस पर अधिक विचार आवश्यक नहीं है क्योंकि समर्थ-सशक्त कवि भी अन्य कवियों से बहुत कुछ ग्रहण करता चलता है. उसकी इस ग्रहणशीलता का अपना महत्व है. शब्द और बिम्ब किसी भी कवि के यहाँ से उड़ कर किसी भी कवि के पास पहुँच सकते हैं. यह उन कवियों के यहाँ ही संभव है, जिन्होंने अपने समय के महत्वपूर्ण कवियों को पढ़ा और समझा हो. सत्तर के दशक से ऐसे कई बहुपठित कवि हिन्दी में हैं, जिनमें महत्वपूर्ण ढंग से मंगलेश भी हैं. आलोक धन्वा की कविता का उत्स हिन्दी कवियों में नहीं है.
“उसकी कविता के उत्स बांग्ला कवि जीवनानन्द दास, तुर्की के कवि नाजिम हिकमत, लातिन अमेरिका के कवि पाब्लो नेरूदा और स्पेन के कवि लोर्का में’’
मंगलेश अधिक देखते हैं. वे ‘‘बांग्ला की भूखी पीढ़ी के कवि मलय राय चैधरी, क्रान्तिकारी कवि नबारूण भट्टाचार्य की कविता से उसका कुछ साम्य” देखते हैं. इसमें एक नाम राजकमल चौधरी का जोड़ा जा सकता है. राजकमल चैधरी, मलय राय चौधरी और आलोक धन्वा तीनों पटना में रहते थे. मलय राय चौधरी से इन दोनों के संबंधों पर संभवतः विचार नहीं हुआ है. मंगलेश ने नबारूण की कविता ‘यह मृत्यु उपत्यका आमार देश नाय’ और आलोक की कविता ‘जनता का आदमी’ में काफी ‘संरचनात्मक समानताएँ’ देखी हैं. काव्य की संरचना और कवियों में संरचनात्मक समानताओं का एक रिश्ता कहीं-न-कहीं, सामाजिक संरचना में बहुत भीतर से हो रहे बदलावों से भी जुड़ा हो सकता है. ‘‘दोनों कविताओं के लिखे जाने का समय एक ही है.’’
मंगलेश ने आलोक धन्वा की कविता को ‘सफर कर रहे, निरन्तर सक्रिय और गतिशील चित्रों की कविता’ कहा है, जिसका एक सहज रिश्ता नक्सलबाड़ी आन्दोलन की सक्रियता और गतिशीलता से जुड़ सकता है. मंगलेश आलोक के यहाँ ‘सकर्मक क्रियाओं की बहुतायत’ देखते हैं. त्रिलोचन ने ‘ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है’ लिखा है. यह क्रिया-प्रयोग छायावादी कवियों में सर्वाधिक मात्रा में निराला में है. मंगलेश संभवतः हिन्दी के अकेले कवि हैं, जिन्होंने अपने समकालीन कवि-मित्रों पर काफी लिखा है. कवियों के ‘सेलेक्शन’ के पीछे उनकी अपनी काव्याभिरूचि भी है. आलोक की कविता के ‘अन्तःस्थल’ में उन्होंने ‘मार्क्सवाद का महावृत्तान्त’ देखा है, जिसके ढहने के बाद सिर्फ़ तकलीफ जैसी उम्मीद बची रहती है. ‘दुनिया रोज बनती है’ के साथ अब यह भी सच है कि दुनिया रोज बिगड़ती है. घोर निराशा के माहौल में भी कवि आशा की मोमबत्तियाँ जलाये रहता है. हिन्दी के प्रगतिशील, माक्र्सवादी कवियों के यहाँ यह आशावाद अब भी कायम है और उसे सदैव कायम रहना चाहिए भी.
मंगलेश के लिए मित्रताएँ ‘कसौटियों, आईनों और प्रकाश-स्तंभों की तरह’ हैं. ‘‘हम उनमें खुद को देखते हैं, खुद को उन पर कसते-परखते हैं ताकि पता चल सके कि हम सही हैं या नहीं और कहीं भटक तो नहीं गये.’’ वीरेन डंगवाल से उनकी मैत्री इसी तरह की थी. ‘‘एक-दूसरे के भीतर कोई राह ढूँढते हुए, एक-दूसरे के लिए ‘साउंडिंग्स बोर्ड’ का काम करते हुए.’’ वीरेन अपने सभी समकालीन कवियों में सबसे अधिक ‘मस्तमौला’ थे. मंगलेश के लिए उनका महत्व इस अर्थ में था कि जिस समय में हमारी संवेदनाएँ कम या नष्ट हो रही हैं, उस समय में ‘‘वीरेन की शख्सियत में एक शाश्वत आत्मीयता’ थी. मंगलेश कवियों के जीवन और व्यक्तित्व के साथ उनकी कृतियों पर विचार करते हैं, जिससे उनकी आलोचना एक नया आस्वाद उत्पन्न करती है.
आलोचक और कवि-आलोचक के अंतर पर अब भी विचार की आवश्यकता है, जिससे यह पता चले कि आलोचना में फूल और रंग भी खिलते हैं और वह एक रचनात्मक सौन्दर्य से दीप्त हो उठती है. शमशेर की प्रसिद्ध पंक्ति ‘दोस्तो, तुम कि जिनसे जिन्दगी में मानी पैदा होते हैं’, वीरेन के जीवन पर पूरी तरह लागू होती थी. वीरेन पर लिखे गये मंगलेश के लेख का शीर्षक है ‘मानी पैदा करता जीवन’. वीरेन के दोस्त और प्रशंसक किसी भी समकालीन कवि से कहीं अधिक थे और अब भी हैं, जिसे इस ‘वीरेनियत’ के सालाना आयोजनों में देख सकते हैं. इसकी मुख्य वजह शायद यह है कि वीरेन के लिए कविता से कहीं अधिक महत्व जीवन और इंसानियत का था, जिस ओर मंगलेश ध्यान दिलाते हैं –
‘‘कविता वीरेन की पहली प्राथमिकता नहीं थी, बल्कि उसकी संवेदनशीलता और इन्सानियत के भविष्य के प्रति अटूट आस्था का ही एक विस्तार, एक आयाम थी, उसकी अच्छाई की एक अभिव्यक्ति और पगचिह्न थी.’’
मंगलेश वीरेन के साथ के पुराने दिनों- विशेषतः इलाहाबाद के दिनों की याद करते हैं. इलाहाबाद में इन दोनों की मैत्री तीन वर्ष के लगभग थी. वे सत्तर के दशक के उन आरंभिक वर्षों को याद करते हैं, जहाँ जीवन सामूहिक था. मंगलेश के लेखों को पढ़ते हुए हम उनके व्यक्तित्व और जीवन-संसार के विविध अनुभवों, पक्षों से भी अवगत होते हैं. नये कवियों के लिए इन निबंधों को पढ़ना जरूरी है, जिससे वे अपने मित्रों के बीच एक आत्मीयता, सहजता, अनौपचारिकता बनाये रहें क्योंकि इस समय बाजार सब कुछ लील रहा है. वह पुराना दौर बीत चुका है. दिल्ली के टी-हाऊस को मंगलेश और उनके मित्र ‘संभ्रान्तों’ की जगह कहते थे. एक यथास्थितिवादी जगह, जिसकी तुलना में मोहन सिंह प्लेस कहीं अधिक बेहतर जगह थी, जहाँ कई बेयरों से भी दोस्ती थी. वह समय वर्ग-भेद मिटाने का था.
मंगलेश और वीरेन दोनों के लिए कविता ‘एक पवित्र मानवेतर काम’ की तरह था – ‘प्रेम करने की ही तरह’. ज्ञानरंजन तब वीरेन-मंगलेश को ‘कफ़न’ का ‘घीसू-माधव’ कहते थे. मंगलेश वीरेन की कविताओं में एक तोड़-फोड़ देखते हैं. विरेन के लिए ‘‘कविता और उसके ढाँचे में बड़ी तोड़ फोड़ जरूरी थी… वीरेन की संवेदना में निराला-शमशेर सरीखा क्लासिकी तत्त्व और तोड़फोड़ करने वाला एक अवांगार्द एक साथ सक्रिय रहते थे.’’ वीरेन अपनी पीढ़ी के ‘सबसे चहेता कवि’ थे और यह केवल कविता के कारण नहीं, उनके व्यक्तित्व और खुलेपन के कारण भी था. वे पहली भेंट में ही दूसरों को अपने में लपेट लेते थे.
हिन्दी के बाहर के कवियों में पाश अकेले ऐसे कवि हैं, जिनकी काव्य-पंक्तियाँ आज भी सबसे अधिक गूंजती हैं – ‘‘सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना.’’ यह एक अमर वाक्य है, जिसे पढ़कर हम कभी स्वप्न विमुख नहीं हो सकते. नक्सलबाड़ी की वसन्त-गर्जना को भारत के जिन कवियों ने अपनी साँसों में समो लिया था, उन सबमें पाश अग्रणी थे. मंगलेश ने उन्हें ‘क्रान्ति के स्वप्न को जीवित रखने वाले सबसे बड़े आधुनिक कवि’ के रूप में याद किया है. नक्सलबाड़ी आन्दोलन से प्रभावित पंजाबी कवि कम नहीं थे. मंगलेश अमरजीत चन्दन, लाल सिंह दिल, हरभजन हलवारवी, जगतार, सुखचैन मिस्त्री और दर्शन खटकड़ का नामोल्लेख करते हैं, पर इन सभी कवियों में से किसी एक पर भी उन्होंने नहीं लिखा है. वे ‘पाश की याद का अर्थ’ बताते हैं.
पाश को याद करना क्रान्ति के स्वप्न को जीवित रखना है. वे पाश के समय के पंजाबी कवियों की जिस पीढ़ी को ‘अनोखी पीढ़ी’ कहते हैं, वह अनोखी पीढ़ी केवल पंजाबी कवियों की न होकर हिन्दी, बांग्ला, तेलुगु, मलयाली आदि भाषाओं के कवियों की भी थी, जिनकी अब केवल स्मृति भर है. पाश के पाँचों काव्य-संग्रहों को मंगलेश ‘‘उनके लगातार जनता के साथ चलने और अपने मोर्चे से न डिगने की गवाही’ के रूप में देखते हैं. पाश की ‘‘तमाम कविताएँ मृत्यु का निषेध करती हैं, मनुष्य को सपनों के मरने के खिलाफ चेतावनी देती रहती हैं.’’ मंगलेश जिस समय पाश पर लिख रहे थे, उस समय में पाश की कविता ‘सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना’ को सीबीएसई की दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में पढ़ाने पर सरकार ने ‘एक अघोषित-सा प्रतिबन्ध लगा दिया’ था.
हिन्दी के सभी प्रगतिशील-मार्क्सवादी कवियों के अपने कवि रहे हैं- फैज अहमद फैज. उनकी काव्य-पंक्तियाँ आज भी हवा में लहराती हैं, हजारों की भीड़ सामूहिक स्वरों में पाठ कर उससे शक्ति प्राप्त करती है. फैज की अमरता सदैव कायम रहेगी. उनकी आवाज दुनिया की आवाज बन चुकी है. सत्ता उनसे आज भी खौफ खाती है, कल भी खौफ खाएगी. जीने के लिए ख्वाब देखना जरूरी है. मंगलेश ने फैज को ‘ख्वाब का शायर’ कहा है. उन्होंने फैज को दिल्ली और इलाहाबाद में देखा और सुना था. वे उनसे मिले थे. फैज ‘एशिया की काव्यात्मक आवाज’ थे. ‘‘हमारी पीढ़ी जिस तहजीबी सामान के साथ बड़ी हुई, उसमें बहुत-सी दूसरी चीजों के अलावा फैज की शायरी भी थी.’’ फैज और नाजिम हिकमत दोनों समकालीन थे. फैज पर लिखते हुए मंगलेश नाजिम हिकमत को भी याद करते हैं. फैज की नज्म ‘तेरे होटों की चाहत में’ को वे ‘एक विलक्षण नज्म’ के रूप में देखते हैं और इसकी लय और मनोदशा को शमशेर की ‘टूटी हुई-बिखरी हुई’ के संगीत से मिलती-जुलती देखते हैं और रकीब के मिलते-जुलते अनुभव को बटोलट ब्रेश्ट की कविता ‘अगली पीढ़ी से’ में पाते हैं.
मंगलेश की यह खूबी है कि एक कविता पर विचार के क्रम में वे देश के ही नहीं, महाद्वीप के बाहर के भी कवियों को सामने रखकर जिस अनुभव-साम्य, विचार-साम्य आदि को प्रस्तुत करते हैं, वह कविता की आलोचना के मार्ग को कहीं अधिक विस्तृत करती है. फैज की ‘सबसे बड़ी खूबी’ उनके लिए यह है कि ‘‘वे व्यक्तिगत को सामाजिक अनुभव तक पहुँचा देते हैं और उर्दू शायरी के अति परिचित और लगभग तैयारशुदा इश्क को एक उदात्तता तक ले जाते हैं.’’ उर्दू शायरी में जो ‘जबान की अहमियत’ है, उसके संबंध में मंगलेश का कथन है कि फैज ने ‘कोई नयी जबान ईजाद नहीं की… फैज का कारनामा यह है कि उन्होंने इन पुराने शब्दों, बिम्बों और प्रतीकों को एकदम नयी व्यंजनाओं से भर दिया और उनमें अर्थों के कई स्तर और विस्तार पैदा कर दिये.’’ फैज पर लिखते हुए मंगलेश ‘उत्तर-संरचनावादी दार्शनिक’ जॉक देरिदा की एक उक्ति की याद दिलाते हैं कि ‘‘शब्द सिर्फ़ अर्थ नहीं होते, बल्कि वे वही वस्तु होते हैं, जिसे वे अभिव्यक्त करते हैं.’’ वे बड़े कवि का काम यह मानते हैं कि ‘‘वह अपने दर्द और अपने ख्वाब को सबका दर्द और ख्वाब’ बना दे.’’
चार |
मंगलेश उन कवियों पर अधिक विचार करते हैं, जिनमें पक्षधरता और प्रतिबद्धता है. शमशेर के लिए ऑक्सीजन की तरह मार्क्सवाद का भी महत्व था. रघुवीर सहाय ने ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ को ‘आजादी की कविता’ के साथ ही ‘अपूर्णता की बेचैनी और पूर्ण होने की बेचैनी की कविता’ कहा था. मंगलेश इसे एक भरी-पूरी समग्र कविता’ कहते हैं- ‘‘प्रेम के माध्यम से मनुष्य और उसकी चेतना की मुक्ति की कविता’. वे ‘शमशेर के संगीत’ पर बात करते हैं, जिससे कविता का अर्थ और उभरता है. वे ‘शब्दों के पीछे के अनुभव पर विचार करते हैं, इस प्रश्न से टकराते हैं कि कविता की समकालीनता और प्रासंगिकता के बने रहने का राज क्या है?
शमशेर पर लिखते हुए वे निकारागुआ के मार्क्सवादी पादरी और कवि एर्नेस्तो कार्देनाल की तानाशाह और कविता की तुलना करने वाली उस छोटी-सी कविता को याद करते हैं, जिसमें तानाशाह के एक दिन खत्म होने और उसके खिलाफ लिखी छोटी-सी कविता की याद करते हैं, जिसमें तानाशाह के एक दिन खत्म होने और उसके खिलाफ लिखी गयी कविता के पढ़े जाते रहने की बात कही गयी है. कविता के विवेचन में मंगलेश की विचार-यात्रा बहुत दूर तक जाती है. शमशेर को लेकर जो बहसें हुई हैं, उन सब पर उनका ध्यान है और वे शमशेर की
‘‘कविता और उनकी वैचारिक दृष्टि को एक-दूसरे से विच्छिन्न करने’ के पक्ष में नहीं हैं. इसे उन्होंने ‘षडयन्त्र’ कहा है और इस ‘द्विभाजिता, द्वैत, फाँक, दुचित्तापन’ की आलोना की है. वे मार्क्सवादी और रूपवादी आलोचकों द्वारा शमशेर के किये गये मूल्यांकन से असहमत हैं. उन्होंने मुक्तिबोध और शमशेर पर कविता लिखी है और एक को ‘यातना’ और दूसरे को ‘प्रेम’ का कवि कहा है. ‘‘शमशेर प्रेम की कविता को जन-कविता की तरह लिखते हैं और जन-संघर्ष की कविता को प्रेम की तरह. इसीलिए शमशेर एक साथ जनवादी और सौन्दर्यवादी कवि के मर्मस्पर्शी उदाहरण के रूप में बचे रहेंगे.’’
मंगलेश के कई लेख कवियों के निधन के बाद लिखे गये हैं, जिनका अपना एक महत्व है. वे केदारनाथ सिंह की संवेदना में उत्पन्न नये प्रस्थान-बिन्दुओं को देखते हैं. उनके आठ संग्रहों में ‘जड़ों की तलाश’ पाते हैं. प्रकृति को मंगलेश ने उनकी कविता में ‘एक जैविक उपस्थिति’ के रूप में देखा है और उनके उन बिम्बों और दृश्यों का उल्लेख करते हैं, जिसे कवि ने ‘पूरा वक्तव्य’ बना दिया है. ‘यहीं कहीं रहेंगे केदारनाथ सिंह’ में कवि-जीवन भी है. केदारनाथ सिंह की कविता का ‘अपना स्वर, मुहावरा और शिल्प’ है, जिसे मंगलेश ने रेखांकित किया है. विनोद कुमार शुक्ल का छोटी जगहों पर रहना मंगलेश के लिए बड़ी बात है – ‘मर्मस्पर्शी बात’. वे उन्हें ‘साहित्य का निवासी’ नहीं मानते और उनकी संवेदना पर मुक्तिबोध का ‘गहरा प्रभाव’ देखते हैं विनोद कुमार शुक्ल के भाषा-वैचित्र्य की बात कहना कोई नयी बात नहीं है. नयी बात यह है कि ‘‘देशज और स्थानीय भूगोल से बंधे हुए जो ‘माइक्रो-अनुभव’ उनके यहाँ हैं, वे एक अति आधुनिक या कहें उत्तर-आधुनिक शिल्प और भाषा में व्यक्त हुए हैं.’’ ‘अनोखी बात’ यह है कि ‘‘वे अन्तर्विरोधी अनुभवों को एक-दूसरे के पास रख कर मार्मिकता पैदा करते हैं.’’
संभवतः मंगलेश ने ही ‘शमशेरियत’ की तर्ज पर’ ‘विनोदियत’ कहा है, पर इसकी चर्चा कहीं भी सुनाई नहीं देती. वे उनमें एक साथ ‘‘विडम्बना, विस्मय और वक्तव्य’, देखते हैं. विनोद कुमार शुक्ल के लिए पृथ्वी ही घर है. मंगलेश नेरूदा के कविता-संग्रह ‘रेजिडेंस ऑन अर्थ’ को याद करते हैं. बड़े कवियों के ‘कंसर्न’ सदैव समान होते है. यह ‘कंसर्न’ ही है, जो एक भाषा और एक देश के कवि को दूसरी भाषा और दूसरे देश के कवि से जोड़ता है. मंगलेश ने विनोद जी पर लिखते हुए आदिवासी जीवन की उस मूल संवेदना की बात कही है, जिसमें अतिरिक्त कुछ भी नहीं है’ – ‘नथिंग इज़ सरप्लस’. उनका यह अनुमान सही है कि विनोद जी की कविता में जो ‘अतिरिक्त का निषेध’ है वह उनकी कविता में ‘‘आदिवासी जीवन-संवेदना से उनकी निकटता के कारण आया होगा.’’ उनकी कविता में मंगलेश ‘गहन लगाव और गहन मानवीयता’ को दो प्रमुख तत्त्व मानते हैं, जिनके बिना ‘‘कोई बड़ी कविता संभव नहीं हो सकती.’’
‘आग’ देवताले की कविता में अधिक है. देवताले के व्यक्तित्व की विशेषता यह थी कि हिन्दी के कई समकालीन कवियों से दस-बारह वर्ष बड़े होने के बाद भी उनमें ‘‘जरा भी वरिष्ठता की गंध नहीं थी.’’ हिन्दी में देवताले अकेले कवि हैं, जिन्होंने ‘मराठी से तुकाराम के अभंगों और दिलीप चित्रे की कविताओं के अनुवाद’ किये. मंगलेश उनकी मराठी पृष्ठभूमि के कारण उनमें ‘‘विद्रोही संत कवियों तुकाराम, नामदेव आदि की छाया’ देखते हैं. उनके यहाँ आग की विविध छवियाँ और अर्थ स्तर हैं. केदारनाथ अग्रवाल के बाद मंगलेश ने उनके यहाँ दाम्पत्य की अधिक कविताएँ देखी हैं, जो ‘‘अपनी पत्नी कमला-संबोधन का नाम ‘कमा’ से मुखातिब हैं.’’ देवताले की कई अभिव्यक्तियों में मंगलेश अति यथार्थ’ देखते हैं.
मंगलेश की विशेषता एक कवि-विशेष पर लिखते हुए किसी विदेशी कवि-कथाकार, फिल्मकार-चित्रकार-संगीतकार को याद करने की हैं वे विधाओं की दूरी पाटते हैं. देवताले पर लिखते हुए उन्हें रूसी कथाकार निकोलाई गोगोल की याद आती है. चेखव ने तमाम रूसी कहानियों के गोगोल के ‘ओवरकोट’ से निकलने की बात कही थी. ‘‘इसी तर्ज पर कह सकते हें कि महिलाओं पर लिखी गयी ज्यादातर हिन्दी कविताएँ देवताले की ‘औरत’ की कोख से पैदा हुई है.’’ इतना ही नहीं, मंगलेश देवताले की कविता के रूपक, बिम्ब और व्यवहार से ‘‘बीसवीं सदी में रूस के दो साहित्य समालोचकों विक्टर स्कालोव्स्की और मिखाई बाख्तिन द्वारा प्रचलित की गयी ‘अपरिचयीकरण’ की अवधारणा को याद करते हैं.
गिर्दा को हिन्दी के केवल दो कवियों-वीरेन डंगवाल और मंगलेश डबराल ने याद किया है. इन दोनों ने उन पर लिखा भी है. पहाड़ के कवियों को केवल पहाड़ के कवि ही याद करें, यह बहुत शुभ लक्षण नहीं है. गिरीश तिवारी गिर्दा की प्रसिद्ध कुमाऊँ और उत्तराखण्ड में एक प्रमुख जन कवि और लोक गायक के रूप में हैं. वे अभिनेता, नाटककार, रंगकर्मी और सांस्कृतिक सक्रियतावादी थे. उनके कई गीत अलग से अपनी एक स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर चुके हैं. उनके गीतों के कालजयी स्वरूप को देख कर मंगलेश को रवीन्द्रनाथ ठाकुर याद आते हैं, जिन्होंने अपने गीतों के बचे रहने की बात कही थी. गिर्दा के गीत आंदोलनों से जुड़ रहे हैं. जागर शैली में लिखी कविताओं के कारण उन पर लिखे लेख का शीर्षक ‘मनुष्य की मुक्ति का जागर’ है.
तात्कालिक घटनाओं पर हिन्दी में सर्वाधिक कविताएँ नागार्जुन ने लिखी हैं. गिर्दा ने भी अनेक कविताएँ लिखी हैं. मंगलेश गिर्दा को फैज की आवाज में बोलते देखते हैं. उन्होंने गिर्दा के ‘मखदूम के सुर में सुर मिलाने’ की भी बात कही है. गिर्दा ‘क्रान्ति और मनुष्य की मुक्ति का आधुनिक जागर लगाने वाले गायक’ हैं.
चन्द्रकान्त पाटील से जितनी घनिष्ठता देवताले और विष्णु खरे की थी, उतनी मंगलेश की नहीं, पर दोनों में एक अच्छी-खासी मैत्री रही है. पाटील मराठी कवि हैं, पर मंगलेश उन्हें ‘‘हिन्दी का ही कवि मानकर चलते हैं.’’ क्योंकि ‘‘पाटील हिन्दी समाज और उसकी संस्कृति में घुले-मिले हैं.’’
चन्द्रकान्त पाटील की एक बड़ी भूमिका मराठी और हिन्दी कवियों को एक साथ लाने की है. वे इन दो भाषाओं के बीच एक पुल हैं- निशिकान्त ठकार के बाद. मराठी में उन्होंने समकालीन हिन्दी कविता का संकलन प्रकाशित किया था. उनकी मित्रता हिन्दी के कई कवियों से रही है. ‘अंधेरे में’ कविता का उन्होंने मराठी में अनुवाद किया है. दस समकालीन महिला कवियों की प्रतिनिधि कविताओं का उन्होंने अनुवाद किया, जो ‘संगिनी’ शीर्षक से प्रकाशित है.
मंगलेश ने उनकी कविताओं पर भी विचार किया है. उनका ध्यान उनकी 1973 से 2003 तक की कविताओं पर है. तैंतीस कविताओं का यह संकलन ‘अपनी भाषा के समीप’ है. मंगलेश इस संग्रह की सबसे मार्मिक कविताओं में ‘मर्सिये में महफूज’ को रखते हैं, जो वली दकनी को सम्बोधित है. यह कविता गुजरात नरसंहार के सोलह वर्ष पहले लिखी गयी थी, जिसमें ‘‘कवि ने उन क्रूर परिस्थितियों, देश भर में किये जा रहे साम्प्रदायिक विभाजन और उन्माद को पहले ही देख लिया था.’’ ‘अपनी भाषा के समीप’ को मंगलेश केवल ‘मराठी कवि की हिन्दी कविताओं का संग्रह’ न कह कर ‘‘हिन्दी कविता की परम्परा में नया कुछ जोड़नेवाली किताब’ भी कहते हैं. वे चन्द्रकान्त पाटील के माँ-मौसी (मराठी-हिन्दी) प्रेम को ‘एक जैसा’ मान कर यह लिखना जरूरी समझते हैं कि ‘‘कभी-कभी लगता है, जैसे वे मौसी को ज्यादा सम्मान देते हैं.’’ क्या हिन्दी के किसी कवि ने दूसरी भाषा को ऐसा सम्मान दिया है?
मंगलेश ने केवल कवियों पर ही नहीं लिखा है, कुछ कविताओं पर स्वतंत्र रूप से विचार भी किया है. ‘अंधेरे में’ पर उनके दो लेख हैं – ‘एक समय अंधेरे में’ और ‘भविष्य की ओर जाती कविता’. उनका मानना है कि ‘‘नक्सलवाद से प्रभावित कवियों ने अपने वक्त के लिए इस कविता का पुनराविष्कार किया, उसे फिर से व्याख्यायित किया.’’ समय के बढ़ते जाने और सत्ता-तंत्र के कहीं अधिक खौफनाक होते जाने से यह कविता हमारी अपनी कविता हो गयी है. यह 1964 में जितनी प्रासंगिक थी, उससे कई गुना अधिक 2023 में प्रासंगिक है. विष्णु खरे ने मुक्ति-बोध को ‘सृजन-पिता’ कहा है और असद जैदी अपने को ‘मुक्तिबोध की काव्य सन्तान’ मानते हैं. यह कविता अपने विवेचन के लिए बार-बार आलोचकों को आमंत्रित करती है. ‘मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम’! केवल एक काव्य-पंक्ति भर नहीं है.
मुक्तिबोध हिन्दी के ही नहीं, भारत और संभवतः विश्व के भी अकेले कवि हैं, जिन्होंने यह तय करने को कहा है – ‘किस ओर हो तुम?’ अंधेरे में ‘हमारे समय का महाकाव्य’ है. मंगलेश ने जिस एक और कविता पर स्वतंत्र रूप से इस संचयन में विचार किया है, वह श्रीकान्त वर्मा की ‘बुखार में कविता’ है. ‘मगध’ की कविता पर वे विचार करते, तो अच्छा था. वे उनकी तीन कविताओं – ‘बुखार में कविता’, ‘माया दर्पण’ और ‘समाधि लेख’ को उनकी ‘संवेदना की त्रयी निर्मित’ करते देखते हैं. और ‘बुखार में कविता’ को उनके ‘शायद सबसे महत्वपूर्ण दौर की आत्मकथा की तरह, पढ़े जाने की बात करते हैं.
मंगलेश ने दिविक रमेश द्वारा अनुदित-सम्पादित कोरियाई कविता-संगह को पढ़कर अधिकांश को ‘हमारी संवेदना के निकट’ रखा है. वे इन कोरियाई कविताओं को केवल ‘हिन्दुस्तानी कविताएँ न कहकर ‘पूर्वी संवेदना की कविताएँ’ कहते हैं. अपने किसी लेख मे या अन्यत्र उन्होंने पूर्वी और पश्चिमी संवेदना के अंतर पर अधिक विचार नहीं किया है, पर संक्षेप में ही सही, यह अंतर बताया है कि ‘‘आधुनिक पश्चिमी संवेदना वहाँ के यथार्थ की ही तरह कुछ सिंथेटिक किस्म की है, उसमें करते हुए मनुष्य ही है, उनकी गहरी वेदना नहीं है.’’ मंगलेश की चिन्ता व्यापक थी, उनका अध्ययन भी व्यापक था. उनके लेखों, डायरियों, वक्तव्यों, भाषणों आदि को एक साथ रखकर, यात्रा-वृतान्त को, समस्त गद्य-रचनाओं को एक साथ रखकर विचार करने की जरूरत है. तभी हमें उनके सोच-विचार, चिन्ताओं और बेचैनियों का पता लगेगा. ऐसा अध्ययन अभी बाकी है. उन्होंने मार्खेज से क्लाडिया डाइकस की बातचीत का अनुवाद ‘लैटिन अमेरिकी रूपक’ शीर्षक से किया है. अक्सर उनके गद्य की, गद्य-भाषा की बात की गयी है, पर उनके यहाँ रूप-शिल्प से कहीं अधिक विषय, थीम महत्वपूर्ण है. उनकी उम्मीद अधिक नहीं थी. जो थी, उसे हम उनके गद्य-संचयन ‘सिर्फ़ यही थी मेरी उम्मीद’ में देखते हैं. उम्मीद ही सब कुछ है. पंक्ति ब्रेख़्त की है, पर हम थोड़ा बदल कर यह कह सकते हैं – सिर्फ़ यही थी उसी उम्मीद. उसकी उम्मीद यानी मंगलेश की उम्मीद.
17 दिसम्बर 1946 को बिहार प्रान्त के मुज़फ्फ़रपुर जिले के गाँव चैनपुर-धरहरवा के एक सामान्य परिवार में जन्मे रविभूषण की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के आसपास हुई. बिहार विश्वविद्यालय के लंगट सिंह कॉलेज से हिन्दी ऑनर्स (1965) और हिन्दी भाषा-साहित्य में एम.ए. (1967-68) किया. भागलपुर विश्वविद्यालय से डॉ. बच्चन सिंह के निर्देशन में छायावाद में रंग-तत्व पर पी-एच.डी. (1985) की. नवम्बर अक्टूबर 2008 में राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन. समय और समाज को केन्द्र में रखकर साहित्य एवं साहित्येतर विषयों पर विपुल लेखन. ‘बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी’ ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’, ‘कहाँ आ गये हम ओट देते-देते’ और ‘रामविलास शर्मा का महत्व’ पुस्तकें प्रकाशित. |
जिस गहरी बेचैनी और लगाव के साथ रविभूषण जी लिखते हैं, वो हिंदी समाज में विरल होता जा रहा है. साहित्य के परिसर में संवेदनाओं के क्षरण के समय में यह आश्वस्तकारी लेख है.
रवि भूषण जी जो भी लिखते हैं ,वह डूब कर लिखते हैं. अदभुत हैं मंगलेश के जीवन और साहित्य की पड़ताल . रवि जी हमारे समय सहज और बौद्धिक आलोचक हैं .
रविभूषण सिंह हिन्दी के श्रेष्ठ आलोचक हैं उनकी आलोचना रचना की वास्तविकता तक प्रविष्ट हो अपना निकष प्रस्तुत करती है जैसे परसाई विशेषांक में उन्होंने देश की परिस्थितियों को वाजपेयी से आज तक अपनी आलोचना में प्रस्तुति दी है..
कितना विस्तृत…कितना गूढ़ लिखा है…रविभूषण सर ने…! थोड़ा इत्मीनान थोड़ा वक़्त चाहिए…इस आलेख में डूबने के लिए…!
मंगलेश की कविता और गद्य पर विचार करते हुए रविभूषण सिंह जी ने दो हजार चौदह के बाद मटियामेट किए जा रहे स्वायत्त संस्थाओं में गुम होती मानवीय अभीप्सा और उसको गहरे से पहचानते मंगलेश को बड़ी मजबूती दी है .जहां अवमूल्यित होती मानवीयता राशन की कतार में खड़ी कर दी गई .मंगलेश बड़ी सक्षमता से अंधेरे में और बुखार में कविता को नयी तरह पहचानने की कोशिश में थे.यह अकारण नहीं कि उनका न रहना छीजती हुई स्थितियों को और घना कर जाता है…..
Hiralal Nagar
मंगलेश डबराल के न होने से प्रगतिशील कविता का चेहरा हमेशा संजीदा बना रहेगा। वह हिन्दी की समकालीन कविता की ऐसी टेर थे जिसे दूर तक सुना जा सकता था। फिर भी एक बड़ी उम्मीद की तरह वे हमारे साथ तो हैं ही।
उन्हें सादर नमन।
मंगलेश डबराल को इस तरह याद करना सर्वोपयुक्त है। रविभूषण जी और समालोचन के युग्म ने यह संभव किया। पिछले कुछ वर्षों में जिनके अवसान से गंभीर क्षति हुई, उनमें से मेरे लिए विष्णु खरे और मंगलेश डबराल हैं। इन्हें पढ़ते हुए इसका अहसास सबसे ज़्यादा होता है।