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समालोचन

Home » स्मृतिशेष: मन्नू भंडारी: गरिमा श्रीवास्तव

स्मृतिशेष: मन्नू भंडारी: गरिमा श्रीवास्तव

मन्नू भंडारी (3 अप्रैल, 1931-15 नवम्बर, 2021) को देखिये तो महादेवी वर्मा की याद आती थी, वैसी ही सादगी और गरिमा. जीवन-वृत्त और सृजित साहित्य में भी समानताएं तलाशी जा सकती हैं. अब जब वे स्मृतिशेष हो चुकी हैं, उनका साहित्य शेष है, और वह बचा रहेगा. आलोचक गरिमा श्रीवास्तव ने इस अवसर पर उन्हें गहरी आत्मीयता से याद किया है. उनके जीवन-प्रसंगों को समझते हुए उन्हें समझा है.

by arun dev
November 16, 2021
in आलेख
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स्मृतिशेष: मन्नू भंडारी: गरिमा श्रीवास्तव
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बिछड़े सभी बारी-बारी

गरिमा श्रीवास्तव

मेघ घिरे हैं और दिल्ली का प्रदूषित आसमान स्तब्ध है, अजीब समय है- महाश्वेता जी गयीं, कृष्णा सोबती गयीं और अब मन्नू जी चली गयीं. मन्नू भंडारी जिनकी लिखी कहानियां और उपन्यास पढ़ कर न जाने कितने जन संस्कारित हुए,  न जाने कितनों ने उनके शब्दों में अपने अक्स देखे थे. शब्दों के माध्यम से मनुष्य की व्यथा-कथा कह देने वाली दो वर्ष पहले मुझे ऐसे मिलेंगी सोचा भी न था.

सन नब्बे में हिन्दू कालेज में पढ़ाते हुए डॉ. विजया  सती कहतीं– “मिरांडा में ही तो हैं मन्नू जी, मिल आओ.” मिली उनसे, लेकिन वो मिलना, मिलना नहीं था देखना भर था. सांवली-सलोनी, बड़ा टीप माथे पर, चश्मे के भीतर से सब कुछ पल में पढ़ लेने वाली ओजस्वी आँखें. उनका लिखा बहुत पढ़ा था पर उनसे किसी मुद्दे पर बात करने का साहस बी.ए. की हुई विद्यार्थिनी क्या ही तो जुटा पाती.

बाद में कई मंचों पर देखा धीर-गंभीर और शालीन स्त्री को जो अपने ढंग से स्त्री मुद्दों पर सोचती-विचारती थी. कोई हल्ला नहीं, किसी पर अपने को थोपने की ज़बरदस्ती नहीं. कुछ वर्षों बाद उन्होंने स्नायु सम्बन्धी रोगों के कारण बहुत जगह आना-जाना छोड़ दिया, हाँ लिखती ज़रूर रहीं निरंतर. दस वर्षों के अंतराल में जीवन-जगत बहुत बदल गया, मैंने कई विश्विद्यालय बदले. यूरोप प्रवास के दौरान वरिष्ठ लेखिका सुधा अरोड़ा का फ़ोन आया- “किताब सम्पादित कर रही हूँ मन्नू दी पर, लेख भेजो”.

आदेश था सो उनकी आत्मकथा पर लेख भेज दिया. जे.एन.यू. आने के बाद सुधा जी ने कहा- “दिल्ली आ रही हूँ, मन्नू जी के घर ठहरूंगी, आना ज़रूर मिलने”.

गर्मियों के दिन थे. कई दिनों से आकाश मेघला-मेघला था, गज़ब की उमस. हौज़खास गयी, मन्नू जी निचले तल्ले पर रहती थीं. घर में ढेर किताबें, किताबें ही सज्जा हों ज्यों. सुधा जी ने स्वागत किया. मन्नू जी का हाथ थामे सेविका ले आई. बैठीं, मैंने प्रणाम किया तो हाथ पकड़ बोलीं- मुझे लिखना सिखा दोगी ?

वे स्मृति-भ्रंश का शिकार हो रही थीं. बरसों-बरस कलम पकड़ धाराप्रवाह लिखने वाली सांवली-हडीली उंगलियाँ लिखने को व्याकुल थीं लेकिन मस्तिष्क उनतक कोई सन्देश पहुंचा सकने में अब अक्षम. वे मेरा हाथ थाम एक, दो, तीन, चार की गिनती गिनती हैं, सुधा जी को अपनी बेटी टिंकू समझने का भ्रम कर बैठती हैं. चाय में मेरीगोल्ड बिस्कुट डुबा कर हौले से कुतर लेती हैं. आँख आधी बंद कर लेती हैं फिर पूछती हैं कौन हो तुम ?

सुधा जी ऊँची आवाज़ में मेरा परिचय दे रही हैं. मन्नू जी मुसकुरा दे रही हैं. कहती हैं लिखना चाहती हूँ- मुझे लिखना सिखा दोगी? मैंने उनकी उंगली पकड़ कर हथेली पर ही अक्षर बनाने शुरू कर दिये हैं, उनकी उँगलियाँ स्लेट पर पहली बार खड़िया से लिखते बच्चे की तरह अपरिचय के भाव से भरी हुई हैं. कुछ ही देर में मालती जोशी आती हैं, हरी साड़ी में खूब सजी-संवरी, पुस्तकों से भरे घर में रेशमी साड़ी में लिपटी केवड़े के सेंट की खुशबू लहरा गयी है, वे अपनी बहू के साथ मन्नू जी से मिलने आई हैं, बैठक में गहमागहमी हो गयी है, मन्नू जी इस शोर से बेचैन हैं. उनकी आंतरिक शान्ति में ख़लल पड़ गया है. वे असुविधा में हैं, चिल्लाने लगती हैं, वे एकांत चाहती हैं. मैंने उनकी हालत देख कर जाने का मन बना लिया है बाहर मूसलाधार वर्षा शुरू हो गयी है देखते न देखते सड़क घुटने-घुटने पानी से भर गयी है. गली का मुहाना नहीं सूझ रहा है. ये मन्नू जी को मेरा अंतिम बार देखना है. जानती हूँ अट्ठासी वर्ष की अवस्था वाली स्त्री फिर चैतन्य नहीं हो पाएगी कभी पहले सी. तो ठीक है, उनकी बोलने-बतियाने वाली छवि ही मेरे लिए अंतिम छवि हो, उनसे हुए लम्बे दूरभाषीय वार्तालाप ही मेरा  पाथेय बनें, उनकी ओजस्वी आवाज़ ही मेरे कानों में गूंजे.

उनकी आत्मकथा को ही याद रखूं जो उनके द्वारा आत्मकथा न मानने के दावे के बावजूद आत्मकथा ही है. हालांकि शीर्षक रखा गया है– ‘एक कहानी यह भी’, जो आत्मकथा की लोकप्रिय विधा उपन्यास से अलग कहानी होने का दावा करती है. शायद इसके पीछे यह कारण रहा है कि कहानी छोटे-छोटे दृश्य-बंधों से मुद्दे उठाती चलती है, जबकि उपन्यास के लिए एक विशिष्ट व्यापकता और रचनात्मक फैलाव की जरूरत होती है. आत्मकथ्य में कोई सिलसिलेवार व्यापक कथानक का अभाव ही लेखिका को इसे कहानी की संज्ञा देने को प्रेरित करता है. आत्मकथा के लिए कल्पना के अभाव के महत्व को रेखांकित करते हुए प्रेमचंद ने कहा था,

“साहित्य में कल्पना भी होती है और आत्मानुभव भी. जहाँ जितना आत्मानुभव अधिक होता है, वह साहित्य उतना ही चिरस्थायी होता है. आत्मकथा का आशय यह है कि केवल आत्मानुभव लिखे जाएँ उनमें कल्पना का लेश भी न हो.”

मन्नू भंडारी ने ‘स्पष्टीकरण’ में लिखा है कि उन्होंने कल्पना का सहारा बिलकुल नहीं लिया. “अपनी कहानी लिखते समय सबसे पहले तो मुझे अपनी कल्पनाओं के पर ही कतर एक ओर सरका देने पड़े, क्योंकि यहाँ तो निमित्त भी मैं ही थी और लक्ष्य भी मैं ही…. यह शुद्ध मेरी ही कहानी है और इसे मेरा ही रहना था, इसलिए न कुछ बदलने-बढ़ाने की आवश्यकता थी, न काटने छाँटने की. यहाँ मुझे केवल उन्हीं स्थितियों का ब्योरा प्रस्तुत करना था, वो भी जस का तस, जिनसे मैं गुजरी… दूसरे शब्दों में कहूँ तो जो कुछ मैंने देखा, जाना, अनुभव किया, शब्दशः उसी का लेखा-जोखा है यह कहानी.”

तो क्या इसका अभिप्राय यह निकाला जाए कि आत्मकथा सिर्फ ब्योरा या निजी अनुभवों का लेखा-जोखा है, यदि ऐसा है तो पाठक या श्रोता की दिलचस्पी उसमें क्यों होगी! प्रत्येक जीवन ढेरों छोटी-बड़ी, कटु-मधुर कहानियां अपने में समेटे चलता है. बहुत-सी बातें अनकही-अनसुनी रह जाती हैं और जीवन अंततः समाप्त हो जाता है. रचनाकार की आत्मकथा के प्रकाशन की क्या उपादेयता है– सिर्फ ब्योरे देना या और भी कुछ.

‘आत्मकथा’ लेखक का न सिर्फ विरेचन करती है बल्कि जिस समाज में वह रह रहा है, उसकी उत्थान-पतन के लिए उत्तरदायी परिस्थितियों का विश्लेषण भी उसमें स्थान पाता है. आत्मकथा रचनाकार के साथ-साथ उसके परिवेश को परिवर्तित-निर्मित करने का प्रयास होती है. इसके साथ शर्त इतनी-सी है कि उसके लेखन में ईमानदारी बरती जाए. आत्मकथा की पुकार सच की पुकार होती है, लेकिन सच बोलकर हमारी सामाजिक संरचना में रचनाकार की छवि निष्कलंक रह पाएगी इसमें संदेह है, और जब प्रश्न एक स्त्री रचनाकार के मन-जीवन के छुपे कोने-अंतरों का हो. सदियों की दबी-कुचली न जाने कब, क्या कितना बक दे. अपने आप को ज्यादा से ज्यादा सुनाए जाने की हड़बड़ाहट में कितनों के अंतरंग खोल-खंगालकर रख दे. भारतीय साहित्य में आत्मकथा लेखन पर्याप्त न होने के कारणों पर आलोचक मैनेजर पांडेय ने बड़ी चोटिल टिप्पणी की थी–

“स्त्रियों की आत्मकथाएँ तो इसलिए नहीं हैं कि उन्हें हमारे सामाजिक ढाँचे में सच बोलने की स्वतंत्रता नहीं है, लेकिन पुरुषों की आत्मकथाएँ इसलिए बहुत नहीं हैं कि स्वतंत्रता तो है, पर आदत नहीं.”

मन्नू भंडारी जैसी प्रतिष्ठित लेखिका का आत्मकथ्य स्त्री–चेतना का पुरुषवादी चेहरा प्रस्तुत करता है, स्त्रियों के हक में किए जाने वाले संघर्षों में अंतर्विरोधों के विमर्श को समझने में यह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. स्त्री रचनाकार के संघर्ष, महत्वाकांक्षा, अंतर्विरोध, पितृसत्तात्मक मानसिकता का वर्चस्व, सामाजिक असुरक्षा का भय–इन सबसे मिलकर जो चेहरा बनता है वह स्त्री-विमर्श का भारतीय चेहरा है, जो अभी भी अपने प्रारंभिक चरण में है, जहाँ स्त्री पुरुष की मानसिकता को बदलने के प्रयास में अपने को खो-खपा देती है. आर्थिक रूप से सशक्त और रचनाकार का सम्मान पाने के बावजूद अपनी शर्तों पर पुरुष से संबंध नहीं बना पाती. वह स्वयं लैंगिक वैषम्य से लदी हुई मानसिकता, पुरुष-वर्चस्ववादी आग्रहों को ढो रही है, यहाँ तक कि उसे ‘जस्टिफाई’ भी कर रही है कभी ‘संतान’ के नाम पर, कभी परिवार के नाम पर तो कभी ‘प्रेम’ के नाम पर वह अभी भी पुरुष के समानांतर अपनी स्वतंत्र, भिन्न व्यक्तित्व निर्मित करने के बारे में सोचती नहीं. रोगी, वृद्ध, जड़हीना, पति के साथ जीने में ही जो अपनी भलाई मानती है. पर-पुरुष से या किसी विवाहेतर संबंध पर सोच भी नहीं सकती.

एक नजर में मन्नू जी के आत्मकथ्य को पढ़कर लगता है कि  संवेदनशील होने की सजा ही 35 वर्षों के वैवाहिक जीवन में उन्होंने भुगती. जीवन में पिता से विद्रोह करके, बिरादरी के बाहर लेखक से इस महत्वाकांक्षा से विवाह करना.

“सब लोग सोचते थे और मुझे भी लगता था कि एक ही रुचि…एक ही पेशा…कितना सुगम रहेगा जीवन! मुझे अपने लिखने के लिए तो जैसे राजमार्ग मिल जाएगा, लेकिन एक ही पेशे के दो लोगों का साथ जहाँ कई सुविधाएँ जुटाता है, वहीं दिक्कतों का अंबार भी लगा देता है– कम से कम मेरा यही अनुभव रहा.”

(एक कहानी यह भी पृ. 48)

जहाँ कार्यक्षेत्र अलग-अलग होते हैं वहाँ दखलंदाजी की भी एक सीमा होती है, लेकिन मन्नू भंडारी को साहित्यिक वातावरण तो मिला, जो उनका अभीष्ट था, लेकिन उस वातावरण का भरपूर फायदा वह उठा सकें, वैसी सुविधा बिलकुल नहीं. शायद यही वह बिंदु था जहाँ उनकी अपेक्षाओं पर घड़ों पानी पड़ गया. राजेन्द्र यादव जैसे लेखक का संग-साथ पाना सिर्फ रोमानी ही नहीं था, बल्कि इसके भीतर छिपी थी, खूब लिखने, अच्छा लिखने और फलतः प्रशस्ति पाने की चाह. इसीलिए तो विवाह के ठीक पहले मोहन राकेश द्वारा दी गई चेतावनी पर मन्नू भंडारी ने कोई ध्यान नहीं दिया. वह लिखती हैं–

“घंटे-डेढ़ घंटे तक राकेश जी जाने क्या-क्या समझाते रहे, पर उनकी हर बात का तोड़ एक ही जगह होता–

‘मन्नू, तुमको लेखक से शादी करने की बात दिमाग से निकाल देनी चाहिए…. निहायत अनिश्चित, अस्थिर जिंदगी के साथ बँधकर तुम कभी सुखी नहीं रह सकोगी.’

पर मुझे तो इस तरह की सारी बातें अपने लिए चुनौती लगतीं, जो मेरे संकल्प पर एक परत और चढ़ा देतीं. राकेश जी से मैंने यही कहा कि “रोमांटिक दुनिया में रहने वाली सोलह साल की उम्र, मैं बहुत पीछे छोड़ चुकी हूँ. ठेठ यथार्थ की भूमि पर खड़े होकर ही मैंने यह निर्णय लिया है, क्योंकि अब मुझे जिंदगी से जो चाहिए, वह एक लेखक के साथ ही मिल सकता है.”

पूरी आत्मकथा मन्नू भंडारी के वैवाहिक जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है, बचपन के दिनों का वर्णन बहुत संक्षेप में है. अपनी रचनात्मकता से आत्मतुष्ट न होने की बेचैनी पूरी रचना में आद्योपांत व्याप्त है. घर-परिवार, नौकरी और बेटी की जिम्मेदारियों के बीच चलती रचना-यात्रा पर उनका कहना है,

“बेटी और घर (जिसकी पूरी-पूरी जिम्मेदारी मेरे ऊपर थी) के साथ नौकरी (जो अपनी जिम्मेदारियों को निभाने के लिए अनिवार्य थी) के बीच में से ही लिखने के लिए समय और सुविधा जुटानी पड़ती थी और मैंने जो कुछ भी लिखा, इन सबके बीच ही लिखा, इनकी कीमत पर कभी नहीं लिखा. लेकिन पहले हर स्तर पर संकट थे, कष्ट थे, समस्याएँ थीं, नसों को चटका देने वाले आघात थे, पर उनके साथ लगातार लिखना भी था…जो भी जैसा भी. आज ये सारी समस्याएँ-संकट समाप्तप्राय हैं, पर लिखना तो बिलकुल ही समाप्त है. तो क्या संघर्षपूर्ण और समस्याग्रस्त जीवन ही लिखने की अनिवार्य शर्त है.”

(एक कहानी यह भी;पृ. 13 )

संघर्षपूर्ण समस्याग्रस्त जीवन, हारी–बीमारी में अकेलापन, मानसिक तनाव मन्नू भंडारी के भीतर के रचनाकार को ‘अगेंस्ट द करेंट’ तैरने के लिए प्रेरित करते हैं. पूरी शक्ति के साथ धारा के विपरीत तैरने की चुनौती उनके भीतर के रचनाकार को कथा लेखन, पटकथा और फिल्म लेखन से लेकर रंगमंच के लिए नाट्य रूपांतरण की विस्तृत भावभूमि, कार्यभूमि देती है. व्यस्तता में ही लेखन का ‘स्पेस’ तलाशती हैं. कभी एकांत के लिए छात्रावास में महीने भर रहती हैं तो कभी लिख न पाने की झुंझलाहट और अतृप्ति का बोध उनकी रचनाओं को पैना और धारदार बनाता है. एक स्त्री लेखिका अपने तय सामाजिक दायरे में किस तरह अपनी रचनात्मकता को बचाए रखने की जद्दोजहद करती है- ‘एक कहानी यह भी’ को पढ़ कर समझा जा सकता है.

इतिहास साक्षी है कि पुरुष से बौद्धिक स्पर्धा स्त्री को हमेशा महँगी पड़ती है. वेदों में गार्गी और याज्ञवल्क्य का प्रसंग हो या वराहमिहिर और उनकी पत्नी रवना का, जहाँ भास्कराचार्य की पुत्री रवना ने उस प्रश्न का उत्तर बता दिया, जिसे पति वराहमिहिर हल नहीं कर पाए थे. राजा ने विदुषी को भरी राजसभा में सम्मानित किया, लेकिन घर के भीतर तो रवना की जीभ काट ली गई- पति से अधिक मेधावी होने का खामियाजा रवना को प्राण देकर चुकाना पड़ा. युग बदला, परिस्थितियाँ बदलीं, स्त्री अधिक सक्षम और स्वतंत्र हुई, बहुत सी स्त्रियाँ आर्थिक रूप से बदलीं. स्त्री-पुरुष का खंडित अहम् सहलाती रहे, हर जगह स्वयं को दीन-हीन साबित करे, पति के समानांतर प्रेम संबंधों को ‘लेखकीय स्वतंत्रता’ के नाम पर उदार भाव से ग्रहण करे तो विवाह जैसी संस्था चल सकती है?

मन्नू भंडारी ने भी यह किया ही होगा, इसके प्रमाण आत्मकथ्य में जगह-जगह मिलते हैं. लेखिका से यह पूछा भी जा सकता था या जैसा कि निर्मला जैन ने पूछा भी था कि कौन-सी विवशता के तहत उनके जैसी आत्मनिर्भर स्त्री विवाह को तोड़कर बाहर नहीं आ सकी. इसका कोई ठोस उत्तर मन्नू जी देती नहीं. यह हर उस स्त्री का अंतर्विरोध है, जो कहता है-

“पर अपने प्रति हजार धिक्कार उठने के बावजूद मैं ऐसा कोई निर्णय नहीं ले पाई. क्या मेरी जिन रगों में एक समय खून की जगह लावा बहा करता था, अब पानी बहने लगा है? या कि दो वर्ष की मित्रता में मैं राजेन्द्र से इतने गहरे तक जुड़ गई थी कि उनको नकार देना मुझे अपने आप को नकार देना जैसा लगने लगा था…या कि पिताजी की इच्छा के विरुद्ध अपनी इच्छा से की हुई शादी को मैं किसी कीमत पर असफल नहीं होने देना चाहती थी….”

(एक कहानी यह भी ; पृ.52)

हेलेन सिक्सू  ने स्त्री के बोलने पर जोर दिया था, उसका कहना था कि स्त्रियाँ सिर्फ श्रोता न बनें, बल्कि वक्ता बनें. स्त्री को बोलने का साहस करना चाहिए. मन्नू भंडारी की कथा को पढ़कर ऐसा लगता है कि उन्होंने टुकड़ों-टुकड़ों में भले अपनी छात्राओं, सहेलियों, मित्रों से अपने विघटनप्राय वैवाहिक जीवन का दुःख बाँटा हो, लेकिन बोलने में उन्होंने पर्याप्त देर कर दी. यह देर इतनी थी कि जब उन्हें उज्जैन में एकांत मिल गया तो वह अकेलेपन में बदल गया और वह उन दो वर्षों का कोई विशेष सार्थक या रचनात्मक उपयोग नहीं कर पाई.

आत्मकथ्य में मन्नू भंडारी अपनी रचना-यात्रा के पड़ावों के साथ-साथ ही जीवन के विविध प्रसंगों का उल्लेख करती चलती हैं. कई बार पाठक को भ्रम भी होता है कि वस्तुतः वे केवल अपनी रचना कहानी रच रही हैं, शेष प्रसंग तो गौण हैं. लेकिन गौर से देखने पर पता चलता है कि कैसे एक स्त्री रचनाकार अपने लेखन के जरिए उभयलिंगी तर्कों का अतिक्रमण करती है, हमारी मौजूदा व्यवस्था को सूचित करती है साथ ही नई भाषा एवं संस्कृति का स्वरूप भी निर्मित करती है. मन्नू जी कई बार प्रसंगों को दुहराती भी हैं, जिससे कृति की सघनता टूटती है. सन् 1961 में छपे ‘एक इंच मुस्कान’ उपन्यास का पति राजेन्द्र यादव के साथ सहयोगी लेखन और थीम का राजेन्द्र यादव द्वारा हड़प लेना उन्हें 2002 में भी वैसा ही तड़पाता है, कचोटता है. अपनी प्रतिभा पर बार-बार उनकी आस्था टूटती-बनती है. पाठकों की प्रशंसा और स्वीकृति उन्हें बार-बार आत्मविश्वास देती है,  लेकिन इस दौरान वह लौट-लौटकर अपनी ‘थीम’ के धोखे से हड़पे जाने का जिक्र करती हैं. प्रेम के विश्वासघात को स्त्री आजीवन नहीं भूलती. मन्नू भंडारी के साथ भी कुछ वैसा ही है.

उनके भीतर एक पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पली-बढ़ी संस्कारित स्त्री बैठी है, जो पुरुष के अभाव की कल्पना से भी डरती है. कभी बच्ची टिंकू के लिए, तो कभी दुनिया क्या कहेगी और सबसे ज्यादा अपने लिए जो पति की ज्यादतियों पर जितना चाहे रो-गा ले, लौट आती है फिर उसी खूंटे पर. न लिख पाने के कारणों में वह घरेलू व्यस्तताओं, स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं, पति की उपेक्षा और संकट के समय पत्नी को छोड़कर अपने सुख-मनोरंजन की तरफ ध्यान देने को प्रमुख मानती हैं. जबकि  आत्मोत्सर्ग के पीछे सामंती मूल्य संरचना वाले समाज में पोषित उनकी मानसिकता को देखा जाना चाहिए. स्त्री की भारतीय परंपरागत छवि सकारात्मक ही रही है, इस छवि को वह स्वयं भी तोड़ना नहीं चाहतीं. यह पुरुषसत्तात्मक दृष्टिकोण ही है कि वह अपने जीवन के पैंतीस वर्ष कलपते हुए काट देती हैं, लेकिन अपने को इस बंधन से मुक्त नहीं कर पातीं.

वैवाहिक जीवन की यंत्रणा और संत्रास, पति की उपेक्षा, संवेदनहीनता, जिसमें फँसकर उनकी प्रतिभा और अस्मिता कराहती रही, लेकिन उनके भावबोध को यह गवारा नहीं हुआ कि वह इन श्रृंखलाओं को तोड़कर फेंक दें (हालाँकि पैंतीस वर्षों बाद उन्होंने यह किया भी). इसके पीछे एक स्त्री रचनाकार की जीवन-दृष्टि, चेतना और संवेदना को देखा जाना चाहिए. जिस समाज से उनका संबंध रहा है वह पितृसत्तात्मक समाज है, जो लिंगभेद का पक्षधर है, जो जीवन भर प्रत्येक क्षण स्त्री को स्त्री होने का अहसास, पहचान कराता ही रहता है. बचपन से ही साँवले रंग के कारण मन्नू जी कुंठित रही हैं, उन्होंने इसे स्वीकार भी किया है. पढ़ने-लिखने ने उन्हें एक अलग स्वतंत्र पहचान दी, पिता की इच्छा के विरुद्ध जाकर प्रेम विवाह करना उनके लिए एक ‘थ्रिल’ ही रहा है. पिता को चुनौती देने का रोमांच जो उन्हें आगामी जीवन के कटु यथार्थ को तटस्थ एवं व्यावहारिक दृष्टि से देखने में बाधा उपस्थित करता  है, आगे चलकर एक असुरक्षा-बोध से उन्हें घेर लेता है. पिता की बात नहीं मानी तो बुरे फंसे….यदि यहाँ भी पति की बात से बाहर हुई तो? इसी ‘तो’ का भय उन्हें मथता रहता है. वह कई जगहों पर पति द्वारा दिए जाने वाले प्रोत्साहन को स्वीकार भी करती हैं. कुछ अंतराल के बाद बाहर से घर लौटने पर पति का उन्मुक्त आह्वान उन्हें उद्वेलित भी करता है और आशा भी देता है कि अब भी सुधार की कुछ गुंजाइश है. मन्नू भंडारी के भीतर छिपी वफ़ादार औरत का चोटिल होना इस आत्मकथ्य का मूल अंतर्वर्ती सुर है-

मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी
वो झूट बोलेगा और ला-जवाब कर देगा 

(परवीन शाकिर)

इसका भान उन्हें हमेशा है. एलेन शोवाल्टर ने कहा था कि स्त्री-साहित्य को जब भी पढ़ा जाना चाहिए, उसमें सामाजिकता की खोज की जानी चाहिए. साथ ही, लेखिकाओं की आत्मचेतना का साहित्य रूपों में किस तरह रूपांतरण होता है, खास स्थान और निश्चित समय के बीच यह प्रक्रिया किस तरह घटित होती है और इससे स्त्री की आत्मचेतना में किस तरह के बदलाव आते हैं, और विकास होता है, उसकी दिशा क्या है, इसे देखना ज़रूरी है. हिंदी स्त्री रचनाकारों की स्वातंत्र्योत्तर पीढ़ी जो अब उस पार  जा रही है, जिनकी रचनात्मकता अपनी परिपूर्णता की उद्घोषणा भी कर रही है, या कर चुकी है, जिसमें कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा, राजी सेठ, मृदुला गर्ग, निर्मला जैन  आदि कई नाम हैं, जिनके  आत्मकथ्यों के बरअक्स मन्नू भंडारी की इस आत्मकहानी को रखकर देखा जाना चाहिए. स्त्रीवाद के दूसरे चरण को छूती लेखिकाएँ अपनी रचनात्मकता, अस्मिता और समाज में अपनी अभिव्यक्ति और उपस्थिति को लेकर अत्यधिक सचेत हैं- जिनमें सुधा अरोड़ा, अनामिका, सविता सिंह,  सुशीला टाकभौरे, सूर्यबाला, रोहिणी अग्रवाल, सुधा सिंह, रेखा सेठी,  अनीता भारती, सुमित्रा महरोल, कौशल्या पंवार  रचनारत हैं. जिनसे अगली पीढ़ी में नीलिमा चौहान,अनुराधा सिंह, बाबुषा कोहली, रश्मि भारद्वाज, रश्मि रावत, अणुशक्ति सिंह, अनुराधा गुप्ता, सुजाता, विपिन चौधरी, रजनी दिसोदिया, रजतरानी मीनू, जसिंता केरकट्टा अपनी शर्तों पर लेखन और पितृसत्ता की प्रखर आलोचना कर रही हैं. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि एक ही समय में, समाज में कितनी वैचारिक चिंताएँ समानांतर गति से प्रवाहित होती हैं.

साथ ही उनकी अभिव्यक्ति के लिए किन विधाओं को अपनाया जा रहा है. सामाजिक समस्याओं और प्रक्रियाओं के भीतर से गुजरते हुए इन स्त्री रचनाकारों की रचनात्मकता, दृष्टि का साक्ष्य उनकी रचनाओं, विशेषकर आत्मकथाओं में मिलेगा. इस दृष्टि से यह अपेक्षित है कि ज्यादा से ज्यादा स्त्रियाँ अपनी आत्मकथाओं के साथ बेबाकी से पाठकों, समीक्षकों के सामने आएँ, जिससे बदलते सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिदृश्य के प्रामाणिक साहित्यिक साक्ष्य मिल सकें.

यह बात भी महत्वपूर्ण है कि रचनात्मक लेखन ने ही  मन्नू जी को जीवन की सार्थकता भी प्रदान की. ‘आपका बंटी’, ‘एक इंच मुस्कान’ जैसे उपन्यास के साथ ‘महाभोज’ जैसे राजनीतिक पृष्ठभूमि के उपन्यास की रचना, नाटक, पटकथाएँ और प्रेमचंद की कहानियों के पुनर्लेखन से लेकर समाजसेवा और कई कहानी-संग्रह उनकी निरंतर रचनाशीलता के साक्ष्य हैं. पति से उन्हें उपेक्षा और मानसिक प्रताड़नाएँ मिलीं तो उसकी भरपाई करने के लिए टिंकू-दिनेश (पुत्री- दामाद), रंजन, मित्र और सहेलियाँ, मोहन राकेश जैसा मित्र, जैनेंद्र का सान्निध्य, निर्मला जैन जैसी प्रबुद्ध स्त्रियों की संवेदना, सख्यतत्त्व भी उनके हिस्से में आया. आत्मकथ्य में इन सबका स्मरण वह करती चलती हैं. एक दिन अपने माली को देखा जो मुरझाए पौधे को नवजीवन देने के लिए उसकी परिचर्चा उनके शब्दों में इस प्रकार करता है-

“और, उसने गमले की मिट्टी उलट दी. गमले की निचली गहराई से निकला जड़ों का गुच्छा…मिट्टी में लिथड़े एक- दूसरे से उलझे अनेक रेशे, जो सड़े-गले रेशे थे और जिन्होंने पौधे की जीवन शक्ति को कुंद कर दिया था, उन्हें बड़ी निर्ममता से उसने तोड़ फेंका. जो स्वस्थ थे उन्हें साफ करके सहेजा, सँवारा. इन्हीं से अब नया पौधा रस ग्रहण करेगा, फल देगा, फलेगा-वह पूरी तरह से आश्वस्त था. तो क्या अपने को पुनर्जीवित करने के लिए मैं भी अपनी जड़ों की ओर लौटूं. कौन जाने इन ठूंठ जैसी टहनियों में भी कुछ अंकुरित होने की प्रक्रिया शुरू हो जाए.”

 

गरिमा श्रीवास्तव
प्रोफ़ेसर,भारतीय भाषा केंद्र

जे एन यू, नई दिल्ली.
drsgarima@gmail.com

Tags: गरिमा श्रीवास्तवमन्नू भंडारी
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Comments 22

  1. मनोज मोहन says:
    4 years ago

    मन्नू भंडारी के बारे में समाजविज्ञानी अभय कुमार दुबे लिखते हैं कि उनके पास एक नैसर्गिक क़िस्म की सार्वदेशिकता है जिसके लिए न विदेश यात्राओं की आवश्यकता होती है, न ही समतामूलक और अति आधुनिक मुहावरे में सोचने की। बचपन में घर के भीतर पाए गए माहौल (राजनीतिक बहसों, समाज सुधार और पिता की बौद्धिकता) ने संभवतः उनके व्यक्तित्व में यह खूबी पैदा की होगी।
    मन्नू भंडारी जी का जाना नयी कहानी की एक और कड़ी का टूट जाना है। बहुत दिनों से वह लिख नहीं रही थीं, कुछ दिनों से वे बातचीत में स्मृतिभ्रंश का शिकार हो रहती थीं। इस सबके बावजूद उनका रहना यह भरोसा देता था कि हमारे समय में मन्नू भंडारी की उपस्थिति है।
    गरिमाजी ने जल्दी में बेहतरीन विश्लेषण किया, उनको धन्यवाद

    Reply
  2. Dr.chaitali sinha says:
    4 years ago

    बिछड़े सभी बारी–बारी…शीर्षक ने ही मन को भावुक कर दिया। मन्नू भंडारी के जीवन में व्याप्त आशा निराशा का भाव इतना सटीक और स्वाभाविक है कि हर स्त्री अपने को उससे विलगा नहीं पाती। जीवन में बहुत कुछ अपूर्ण रह जाने का दुख शायद उन्हें ताउम्र रही होगी। एक ऐसी रचनाकार जिन्होंने बिना अधिकशोर मचाए, मौन रहकर भी अपनी एक अलग छवि स्थापित की साहित्यिक संसार में। आपका आलेख पढ़कर मन बहुत भावुक हो गया, जैसे कि मन्नू भंडारी का सारा जीवन संघर्ष चित्र पट्ट पर अंकित किया हो और पाठक उससे एकाकार हो रहे हों। बहुत धन्यवाद मैम इस बेहतरीन और संवेदनापरक लेख के लिए। मन्नू जी के जीवनानुभवों से अनभिज्ञ लोग इससे अवश्य लाभान्वित होंगे। उस पवित्र आत्मा के लिए यह एक सच्ची श्रद्धांजलि है।
    ॐ शांति…!

    Reply
    • गरिमा श्रीवास्तव says:
      4 years ago

      शुक्रिया चैताली

      Reply
  3. नरेश गोस्वामी says:
    4 years ago

    स्मरण का अनुकरणीय प्रारूप! मन्नू जी पर केंद्रित होते हुए भी यहाँ एक व्यापक सामाजिक इतिहास उपस्थित है। यह संतुलन ज़रा भी इधर-उधर होता तो स्मरण प्रशस्ति-लेख या फिर डॉक्यूमेंटेशन में विसर्जित हो जाता। शायद यही वजह है कि इसमें मन्नूजी के कृतित्व/व्यक्तित्व के साथ पितृसत्ता का अंधेरा भी चमकता है। यहाँ बहस भी है, प्रश्न- प्रति-प्रश्न हैं, पड़ताल भी है― और यह सब मन्नूजी के गिर्द संरचित है। यह व्यक्ति की जटिलताओं, उसके अवदान, साहस और संशयों को अनबीते इतिहास में रखकर देखना है।

    Reply
    • गरिमा श्रीवास्तव says:
      4 years ago

      नरेश जी ,आपका बहुत आभार इस आलेख को पढ़ने और टिप्पणी करने के लिए.आपकी वैचारिक प्रतिक्रिया से राह मिलती है .

      Reply
  4. अमरेंद्र कुमार शर्मा says:
    4 years ago

    ‘लिखना चाहती हूँ , लिखना सिखा दोगी’ – एक प्रतिष्ठित लेखिका मन्नू भंडारी के कहे का क्षण कितना मार्मिक होगा , आज उनके न रहने के बाद , यह सोचते हुए मन आद्र हो जाता है । गरिमा जी का यह भावपूर्ण आत्मीय लेख , मन्नू भंडारी की आत्मकथा के सहारे स्त्री के जीवन-क्षण की आंतरिक यात्रा कराती है । इस लेख में उतना ही नहीं है , जितना कहा गया है , बल्कि लेख की सतह के नीचे पितृसत्तात्मक दुनिया की एक अदृश्य प्रणाली है, जिसमें स्त्री के ‘होने’ का आत्मसंघर्ष है । गरिमा जी को इस लेख के लिए बधाई और इस लेख तक पहुंचाने के लिए अरुण जी का आत्मीय आभार । 🌹

    Reply
    • Prof Garima Srivastava says:
      4 years ago

      आभारी हूं कि आपने इतनी आत्मीयता से लेख पढ़ा।मन्नू जी जब ठीक थीं ,मैने हैदराबाद से फोन पर उनसे घंटों बातें की,वे समय नियत करती थीं, मैं फोन।साहित्य के अंतरंग को समझने में ,जीवन को समझने में वे बातें मददगार थीं।बाद के दिनों में,वे कुछ कुछ भूल जाने लगी थीं।

      Reply
  5. Dr sumitra Mehrol says:
    4 years ago

    हौज खास में गरिमा जी की मन्नू जी से मुलाकात का प्रसंग आंखों को नम कर गया…. मनु जी के कई साक्षात्कारो को मैंने youtube पर देखा, वहां भी उन्होंने जिक्र किया है कि स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण वह लिख नहीं पा रही हैं ,और ना लिख पाने के कारण बेहद बेचैन और विकल हैं… “एक कहानी यह भी” के विविध पक्षों पर गरिमा श्रीवास्तव जी ने विस्तार और गहराई से प्रस्तुत आलेख में चर्चा की है…. मन्नू जी के जीवन के विविध प्रसंगों और तत्कालीन समसामयिक परिवेश और साहित्यकारों का जिक्र पर्याप्त रोचक और सारगर्भित बन पड़ा है… गरिमा जी को बधाई

    Reply
  6. कविता मल्होत्रा says:
    4 years ago

    मन्नू भंडारी जी का जाना साहित्य की दुनिया में एक बड़ा शून्य छोड़ गया । प्रो. गरिमा जी का आलेख विदुषी लेखिका की बौद्धिकता के उन पहलुओं को उजागर करता है, जिसका मूल्य उसे स्त्री और लेखक की पत्नी होने के कारण चुकाना पड़ता है । आजीवन वह संतुलन साधने का प्रयास करती हैं और एक आम स्त्री की तरह ही संबंध विच्छेद करने को अंतिम विकल्प के रूप में रखती हैं । आलेख मन्नू जी के जीवन की विभिन्न चुनौतियों की तरफ़ पाठक को ले जाता है, मसलन पति से अधिक बौद्धिक होने की चुनौती, वृद्धावस्था के कष्ट, शोहरत के पीछे छिपा खालीपन । स्थापित लेखक से जिस संवेदनशीलता की आशा उसकी पत्नी ने की होगी, उसके अनुरूप अपेक्षाओं के पूरा न होने पर वह कितनी चकनाचूर हुई होगी । विश्लेषणात्मक संस्मरण के रूप में भावुक श्रद्धांजलि ।

    Reply
  7. स्वप्निल श्रीवास्तव says:
    4 years ago

    मन्नू भंडारी पर इससे बेहतर स्मृति क्या हो सकती है । स्त्री विमर्श के पुरोधा राजेन्द्र यादव ने मन्नू जी के साथ कम अन्याय नही किया है । जहां राजेन्द्र यादव अपनी मानसिक संरचना में जटिल थे ,वहां मन्नू भंडारी बेहद सहज । उनका लेखन इसका उदाहरण है ।

    Reply
  8. Anonymous says:
    4 years ago

    गरिमा जी ने मन्नू जी के बहाने हमारे समय समाज की ऐसी सच्चाई को अंतर्स्पर्शी ढंग से उपस्थित किया है कि उससे एक कसक और कचोट पैदा होती है। पर है यह सोलहों आने सच। साथ ही युवा लेखिकाओं की अनेक पीढ़ियों की चर्चा कर आश्वस्ति भी दी है। मुझे विश्वास है कि धीमे ही सही पर बदलाव आएगा। इस अच्छे आलेख के लिए गरिमा का आभार । – – हरिमोहन शर्मा

    Reply
    • ललन चतुर्वेदी says:
      4 years ago

      मन्नू जी के विपुल लेखन में उनका पूरा जीवन पढ़ा जा सकता है। आपने अल्प समय में गंभीरता से विश्लेषण किया है और वर्तमान युवा लेखिकाओं पर सटीक टिप्पणी भी।

      -ललन चतुर्वेदी

      Reply
    • Garima Srivastava says:
      4 years ago

      बहुत बहुत आभार

      Reply
  9. ललन चतुर्वेदी says:
    4 years ago

    आपने बड़ी खूबसूरती से मन्नू जी के बारे में लिखा। मन्नू जी का जीवन उनके साहित्य में ही बिखरा पड़ा हुआ है। और अंत में,इधर का महिला लेखन तो वाकई कमाल का है।

    Reply
  10. अशोक अग्रवाल says:
    4 years ago

    गरिमा जी को धन्यवाद। उन्होंने मन्नू भंडारी के आंतरिक जगत का बेहद सटीक और मार्मिक आख्यान रचा है।

    Reply
    • Garima Srivastava says:
      4 years ago

      आपका बहुत बहुत आभार

      Reply
  11. डॉ. सुमीता says:
    4 years ago

    बहुत आत्मीयता और सचेतनता के साथ लिखा गया संस्मरण है। गरिमा जी को बहुत धन्यवाद।

    Reply
    • गरिमा श्रीवास्तव says:
      4 years ago

      आभार सुमीता जी

      Reply
  12. दया शंकर शरण says:
    4 years ago

    इस आलेख के संदर्भ में बहुत पहले की पढ़ी एक बात याद आ गयी ।राजेंद्र यादव ने एकबार कहा था कि एक स्त्री अपनी देह से जब तक मुक्त नहीं होगी तब तक स्त्री-मुक्ति संभव नहीं है। हंस में स्त्री-विमर्श का एक लंबा दौर भी एक रचनाधर्मी आंदोलन की तरह उन्होंने चलाया । काफी बहस-मुबाहिसे भी हुए। उसका प्रभाव भी उस दौर के कथा साहित्य पर पड़ा। नयी लेखिकाओं की अच्छी खासी जमात उभरकर सामने आयी।उसी दौर में जब किसी पत्रकार ने पूछा कि अगर आपको पता चले कि आपकी पत्नी के शारीरिक संबंध किसी और से हैं तो क्या आप इसे एक स्त्री की देह से मुक्ति के रूप में स्वीकार करेंगे? उनका जवाब था कि वह इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे।

    Reply
  13. अनुराधा गुप्ता says:
    4 years ago

    हमेशा की तरह बेहद गहरा व तटस्थ। आप का लेख, मन्नू जी के व्यक्तिगत जीवन को लेकर अक्सर महिलाओं/पुरुषों में होती आपस की बातचीत /जिज्ञासाओं/गॉसिप का बेहद सख़्त, ठोस व सूक्ष्म विश्लेषण है। आपने उस मुद्दे पर बात की जिस पर लोग कभी दया दिखाकर या संकोच खाकर रह जाते हैं। आपने तथ्यपरक और साथ ही स्त्री के मनोवैज्ञानिक पक्ष पर बड़ी साहस के साथ बात की। उम्मीद है मन्नू भंडारी पर आमने-सामने की किसी गोष्ठी में आपको सुनूं। इस लेख के लिए आपको हार्दिक बधाई।

    Reply
    • Garima Srivastava says:
      4 years ago

      आभार अनुराधा जी।

      Reply
  14. Sunita Pradhan says:
    3 years ago

    Bahut hi achchi jankari mili aapke article ko padhke thanks

    Reply

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