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समालोचन

Home » अविनाश मिश्र : नवरास

अविनाश मिश्र : नवरास

12 वीं शती के महाकवि जयदेव विरचित ‘गीतगोविन्द’ ऐसी कृति है जिसकी अनुकृति का आकर्षण अभी समाप्त नहीं हुआ है. केवल भारतीय भाषाओँ में इसके २०० से अधिक अनुवाद हुए हैं. हिन्दी के भीष्म पितामह भारतेंदु ने १८७७ – १८७८ के बीच ‘गीत- गोविन्दानंद’ शीर्षक से इसका अनुवाद किया था. शब्द और स्वर के इस महाकृति को इस लिए भी जाना जाता है कि इसमें पहली बार राधा अपने पूरे व्यक्तित्व के साथ उपस्थित होती हैं.     युवा कवि  अविनाश मिश्र  ने नव रास नाम से ये जो ९ कविताएँ लिखी हैं, गीतगोविंद से प्रेरित हैं. अनुवाद नहीं हैं इसलिए समकालीन हैं. प्रेम में श्रृंगार और चाह के  साथ यातना और वेदना का भी संग –साथ रहता है. आज ख़ास आपके लिए.

by arun dev
August 25, 2016
in कविता
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अविनाश मिश्र : नवरास
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नव रास
(जयदेव कृत ‘गीतगोविंद’ से प्रेरित)

अविनाश मिश्र

ll कृष्ण ll
[ संध्या ]

मैं महत्वाकांक्षा के अरण्य में था
जब तुम मुझे लेने आईं
आवेगों से भरा हुआ था तुम्हारा आगमन
सारा संघर्ष तुम्हारा मेरी बांहों में समा जाने के लिए था

अब देखती हो तुम मुझे
महत्वाकांक्षाओं के संग रासरत

मैं भूल गया हूं तुम्हारा आना
मैं भूल गया हूं तुम्हें
मैं भूल गया हूं आवास

 

ll राधिका ll
[ निशा ]

मैंने कानों में कभी कुछ नहीं पहना
मैंने नाक में कभी कुछ नहीं पहना
मैंने गले में कभी कुछ नहीं पहना
मैंने कलाइयों में भी कभी कुछ नहीं पहना
और न ही पैरों में

मैंने अदा को
अलंकार से ज्यादा जरूरी माना

अलंकार कलह की वजह थे
और प्रेम परतंत्रता का प्रमाण-पत्र

 

ll सखी ll
[ ऊषा ]

अतिरिक्त चाहने से
किंचित भी नहीं मिलता

उसने चाहा चांद को
और पाया :
‘विरह का जलजात जीवन’

कोई स्त्री पहाड़ नहीं चढ़ सकती
कोई पुरुष नहीं लिख सकता कविता

तुम रोको स्त्रियों को पहाड़ चढ़ने से
और पुरुषों को कविता लिखने से

 

ll कृष्ण ll
[ संध्या ]

चुनौतियों में उत्साह नहीं है
समादृतों में बिंबग्राहकता
देखना ही पाना है
बेतरह गर्म हो रहा है भूमंडल
आपदाओं में फंसी है मनुष्यता
दूतावासों में रिक्त नियुक्तियां
तवायफें अब भी सेवा में तत्पर
प्रेम कर सकता है कभी भी अपमानित
रोजगार कभी भी बाहर

 

ll सखी ll
[ निशा ]

तुझे पाकर भी तुझे भूलता है वह
तू नहीं हो पाती उसकी तरह
कि याद आए उसे

वह भयभीत है महत्वाकांक्षाओं के भविष्य से
तू अभय दे उसे
उसे आकार दे तू

गीली मिट्टी की तरह
तेरे प्यार के चाक पर घू म ता हुआ
अब तेरे हाथ में है वह जो चाहे बना दे

 

ll राधिका ll
[ ऊषा ]

मेरी महत्वाकांक्षाओं में कोई दिलचस्पी नहीं
एक बड़ी झाड़ू है मेरे पास
इससे मैं बुहारा करती हूं आस-पास की महत्वाकांक्षाएं
इस बुहारने में ही मिलती हैं मुझे तुम्हारी महत्वाकांक्षाएं
इन्हें न मैं जांचती हूं
न बुहारती हूं
मैं बस इन्हें उठाकर रख देती हूं
किसी ऐसे स्थान पर
रहे जो स्मृति में

 

ll कृष्ण ll
[ संध्या ]

मैं उजाले का हारा-थका
अंधेरे में तुम्हारे बगल में लेटकर कहता हूं
कि न जाने कहां खो दीं
मैंने अपनी महत्वाकांक्षाएं

तुम अपने बालों को
मेरे चेहरे पर गिरा
अपने होंठों से
बंद करती हो
मेरा बोलना

 

ll राधिका ll
[ निशा ]

तुम्हारी स्मृति बहुत कमजोर हो गई है
मैं देती हूं तुम्हें तुम्हारी स्मृति
तुम्हारा स्थान—
जहां मिलेंगी तुम्हें
तुम्हारी महत्वाकांक्षाएं
जो न मेरे लिए अर्थपूर्ण हैं
न अर्थवंचित
लेकिन जिन्हें मैं बचाती आई हूं
अपनी बड़ी झाड़ू से

 

ll कृष्ण ll
[ ऊषा ]

सब नींद में हैं
सब बेफिक्र हैं
सब स्वयं के ही दुःख और दर्द से
व्यथित और विचलित हैं

इस दृश्य में मैं खुद को इस प्रकार अभिव्यक्त करना चाहता हूं
कि लगे मैं इस ब्रहमांड का सबसे पीड़ित व्यक्ति हूं
लेकिन तुम यूं होने नहीं देतीं

तुम जिनकी जिंदगी में नहीं हो

उन्हें नहीं पता कि उनकी जिंदगी में क्या नहीं है
_______________________
संदर्भ : ‘विरह का जलजात जीवन’ महादेवी वर्मा के एक गीत की पंक्ति है.

 

चित्र द्वारा सुघोष मिश्र

 

अविनाश मिश्र
युवा कवि-आलोचक

darasaldelhi@gmail.com
 
 

Tags: अविनाश मिश्रनयी सदी की हिंदी कविता
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