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Home » स्मृतियों की स्मृतियाँ : कुमार अम्‍बुज

स्मृतियों की स्मृतियाँ : कुमार अम्‍बुज

20वीं शताब्दी के महानतम लेखकों में से एक मार्सेल प्रूस्‍त अपने अंतिम वर्षों की रुग्णता के एकांत में केवल काग़ज़ पर लिखने की आवाज़ भर सुनना चाहते थे. स्मृतियों का यह रचनाकार अपनी परिचारिका की स्मृतियों में सुरक्षित हो गया, और इस फ्रेंच लेखक पर एक जर्मन निर्देशक ने 1980 में एक फ़िल्म बनाई— Celeste, जिसे एक कला माध्यम द्वारा दूसरे कला माध्यम में दी गई सबसे गहन श्रद्धांजलि कहा जाता है. कुमार अम्बुज की यह श्रृंखला भी क्या एक कला माध्यम का दूसरे कला माध्यम से गहन और कलात्मक संवाद नहीं है? यह एक ऐसी समानांतर यात्रा है जो एक-दूसरे में खो नहीं जाती. यह दो माध्यमों की अपनी निजता की भी यात्रा है. और इसमें हमारे अपने समय की सड़कें, मोड़ और दुर्घटनाएं शामिल हैं. 'Time Regained' और 'Celeste ' से होता हुआ यह आलेख प्रस्तुत है. यह इस खास श्रृंखला की 21वीं कड़ी है.

by arun dev
June 5, 2025
in फ़िल्म
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स्मृतियों की स्मृतियाँ : कुमार अम्‍बुज
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स्मृतियों की स्मृतियाँ
कुमार अम्‍बुज

स्‍मृतियों की भाप पाताल से उठकर ऊपर आती है. कभी प्रशांत, कभी उग्र ज्वालामुखी की तरह. लावा बहता है. वह खनिजों से उर्वर है. जीवन स्‍मृतियों की ताप-भट्टी है. अब उसी के तापमान में रहना है और लिखना है. यह कोहरा क्षितिजों के किनारों से उठ रहा है. प्रूस्‍त, तुम अभी भी बच्चे हो. उतने ही संवेदनशील. नाज़ुक. भंगुर. भावुक. तुम क्रूर और असंवेदित शब्‍दों, भंगिमाओं, दृश्यों को सह नहीं पाते. बचपन और युवावस्‍था की स्‍मृतियों का घटाटोप तुम्‍हारे मन पर आच्छादित है- बीत गए प्रेम के इंद्रचापों और पहले विश्वयुद्ध के झंझावाती मेघों का. तुम्हें असीमित व्याकुल करता हुआ. प्रेम से बचोगे तो युद्ध काल की स्मृतियाँ तुम्‍हें घेर लेंगी. उनके पार जाओगे तो प्रेम की. स्‍मृतियों का चक्रव्यूह है. यही तुम्‍हारे जीवन का पथ है. तुम अभिजात्य वातावरण में विकसित हुए और यह कुछ विचित्र हुआ कि तुम अभिजात के प्रतिवाद में लिखने लगे? या उससे र‍िसती हुई रोज़ाना की ऊब से ऊबकर?

तुम अपने कमरे में अपनी बीमारी की वजह से नज़रबंद हो. बेशुमार स्‍मृतियाँ उथल-पुथल मचाती हुईं तुम्‍हारे साथ हैं, जिन्हें तुम अपनी मृत्यु से पहले लिख देना चाहते हो. नश्‍वरता को एक अनश्‍वरता के भ्रम में रख देना चाहते हो. इसलिए अनवरत उनका आव्‍हान करते हो. उनका कोई क्रम नहीं, तारतम्‍य नहीं. क्रमहीनता ही तारतम्‍य है. मार्सेल, तुम्‍हारे समक्ष चक्राकार को रैखिक बनाने की चुनौती है. वलयाकारों और वक्रताओं को, सरल रेखाओं और बिंदुओं में अलग करते हुए रखना है. यह मुश्किल है. लेखक को हमेशा उलझे हुए बारीक़ धागे मिलते हैं. बंद दरवाज़ों के घर. भुतहा महल. सुंदर भूदृश्‍यों में कहीं नहीं जाती हुईं पगडंडियाँ. और अपना ही पाताल. पाताल के नीचे पाताल. कितने पाताल?
पता नहीं.

Marcel Proust. artwork of Richard Lindner

(दो)

समय के साथ एक दिन सब कुछ बदलने लगता है. पसंद‍गियाँ नापसंदगियाँ बन जाती हैं. स्‍वाद बेस्‍वाद हो जाते हैं. अब नयी रुचियाँ हैं और नये आस्‍वाद. जो कभी वर्जित था, अब वर्जित नहीं रहा. श्‍लील-अश्‍लील की परिभाषाएँ संशोधित होती चली जाती हैं. समझ आने लगता है कि जो चीज़ ख़ुशी दे, वह पथ्य है. जो तकलीफ़ पहुँचाए, जिससे प्रसन्नता न मिले, वह अपथ्‍य. एक दिन अनुभव होता है कि मरते चले जाना कितना त्रासद है. और मुश्किल. क्योंकि अंतत: प्रेम थका देता है. युद्ध थका देता है. तानाशाही थका देती है. प्रतीक्षा थका देती है. सबसे ज्‍़यादा इनकी स्‍मृति थका देती है. उल्लास मिलता है लेकिन अंत में थकान. एक ऊर्जस्वित थकान. एक थकित ऊर्जा. मृत्यु की प्रतीक्षा करना पड़े तो उसकी थकान की तुलना किसी दूसरी थकान से नहीं की जा सकती. लिखने की कोशिश करते रहने में ही लेखक की सारी प्रतीक्षाएँ शामिल हैं. प्रेम की, मृत्‍यु की. प्रत्‍याशित की. अप्रत्‍याशित की. आशंकाओं और आशाओं की. और प्रायश्चित की.
प्रतीक्षा दिनचर्या है. जैसे लिखना भी.

स्‍मृतियों की यात्रा में कठिनाई यह है कि विस्‍मृति ने उसकी राह के अधिकांश पुल क्षत-विक्षत कर दिए हैं. रास्‍तों को खंडित कर दिया है. कई जगह बरबाद ही कर दिए हैं. इसलिए स्‍मृतियाँ हिचकोले खाते हुए, टूटी-फूटी और टुकड़ों में आती हैं. हर बार उनमें से कुछ झर जाता है, कुछ जुड़ जाता है. यह स्‍मृतियों का अँधेरा-उजाला है, उनकी अपनी सर्जनात्‍मकता है. मैं इस बंद कमरे में कोई वस्‍तु देखता हूँ, कोई विचार करता हूँ तो वह पिछली किसी याद से संबद्ध हो जाता है. कभी एकाकार, कभी प्रक्षिप्‍त. बिखरा हुआ. एकांगी नहीं रह पाता. उसके दो पहलू हमेशा एक साथ हैं. प्रेम और बिछोह. ख़ुशी और विकलता. मैं लेखक हूँ, बेचैनी और असंतोष मेरे लिए माध्यम बन जाते हैं. लेकिन मेरी यह देह असाध्‍य हो गई है. जीवन किसी की प्रतीक्षा नहीं करता. वह समय की न्‍यूनतम इकाइयों में बीतता चला जाता है. उसे थामा नहीं जा सकता. उसमें विचरते हुए उसका उपयोग किया जा सकता है.

कला सुंदर की कामना है. इस कमरे में और मेरे सिरहाने रखीं कलाकृतियाँ अपनी कलावासना में सुंदर हैं. प्रसन्‍न और उद्यत. सच्‍ची कला कृत्रिम है मगर कृत्रिमता से दूर. कला में द्वैत भी अद्वैत हो सकता है. निर्मिति है लेकिन जीवंत. पत्‍थर है और प्राणवान है. मैं बीमार हूँ और बहुत कमज़ोर हूँ मगर दिन-रात परिचारिका को अपने पास नहीं बैठा सकता. मैं किसी की उपस्थिति में नहीं लिख सकता. मुझे एकांत चाहिए. लिखने की समाधि. मुझे केवल काग़ज़ पर लिखने की आवाज़ चाहिए. इसलिए तुम दूसरे कमरे में, दूर जाकर बैठो. इतनी दूर कि मेरी एक पुकार पर मेरे पास आ सको. मेरे मुँह से निकलती आवाज़ पर या मेरी एक कराह पर. दूर रहो लेकिन बहुत दूरी न रहे. मुझे अपना काम करने का अवकाश चाहिए और तुम्हारी सेवाएँ भी. इसका संतुलन बनाना है. मैं रोगी हूँ. मृत्‍यु से पहले अपनी किताब पूरी करना चाहता हूँ. मेरा जीवन समाप्त हो उसके पहले मेरी पुस्तक समाप्‍त हो. या हम दोनों का अंत एक साथ हो. लेखक का और किताब का. यह काल के साथ होड़ नहीं है, संकल्‍प है. प्रतियोगिता नहीं है, संघर्षपूर्ण इच्छा है. मुझे स्‍मृतियों का अवतरण करना है.
यह स्‍मृतियों की किताब है.

ये पुरानी तस्‍वीरें स्‍मृतियों को व्‍याकुल कर रही हैं. यह प्रेमिका की, यह दादी की, पिता की. यह एक और प्रेमिका. यह एक और. और यह माँ की. ये छूट गईं और नष्‍ट हो गईं जगहों की. तमाम मित्र. वांछित. अवांछित. ये सब बीत गए किंतु स्‍मृति में हैं. जीवन में अप्राप्‍य हैं, स्‍वप्‍न में सुलभ हैं. इसलिए स्‍मृति का आव्‍हान करता हूँ. उनके पुनरागमन का. यह असंभव की साधना है. इनमें मेरी युवा दिनों की तस्‍वीर भी है. जिसे इतना तो पहचान सकता हूँ कि अब मैं ऐसा नहीं हूँ. एकदम अलग हो गया हूँ. बस, स्‍मृति याद दिलाती है कि यह मैं ही हूँ. ये श्‍वेत-श्‍याम तस्‍वीरें है मगर मेरी स्‍मृति में रंगों से भरी हैं. और यह तुम्‍हारे वादन की स्‍मृति है. एक सिम्‍फ़नी है. मादक. अपने लास्‍य में मग्‍न. गतिशील. शोपाँ नहीं हैं, बीथोवेन नहीं हैं, लेकिन उनका संगीत है. युवावस्‍था नहीं है. प्रेम विलीन हो गया है. युद्ध कब का ख़त्‍म हुआ. कामनाएँ छिटक गईं हैं. उनका अपना एक बिरहा है. संगीत है. पूरी सरगम.
स्‍मृति माइग्रेन है.

सोच रहा हूँ कि क्‍या हम जीवन भर
अपनी माँ की तस्वीर लिए भटकते हैं.

 

Celeste से एक दृश्य

(तीन)

कोई कुछ कहता है तो कुछ पुराने कहे गए की याद आती है. एक चुंबन से दूसरे व्यतीत चुंबन की, एक गली से दूसरी पुरानी गली, एक पेड़ से, दरवाज़े से, एक तारे से भी संगत-असंगत कुछ याद आता है. पहली बार छूने, पहली बार देखने और पहली बार मूर्छित होने की कोई विस्‍मृत-सी स्‍मृति. या कोई धुआँधार झरना, कुम्‍हलाया फूल, एक घुन खाई चौखट. वह सब जो बीत गया, किसी नये की तरह याद आता है. और यह जो पंखुरी अभी झरी है. नयी स्‍मृति की तरह पीली हरी है. कई बार स्‍मृतियों के धूल भरे अंधड़ उठते हैं. बगूले. अब बिना स्‍मृतियों के एक क़दम चलना भी दूभर है. स्‍मृति मेरे लिए साध्‍य है. विषय है. यह जो नया दिखता है लेकिन पुराने जैसा है. प्राचीन है लेकिन नवीन हो गया है. उतना ही ऊष्‍ण. उतना ही आत्‍मीय. और ताज़ा. इस काग़ज़ पर तुम्‍हारा हस्‍ताक्षर अमिट है. मानो यह पूरा शब्‍दकोष है. कोई संपूर्ण कलाकृति. समूचे संसार की मुखाकृति. एक असमाप्‍य कंपन.
एक ऋतु. एक ऋतुसंहार.

इस बंद विस्तृत कमरे में मुझ पर मनोरोग झपटते हैं. मैं बिस्‍तर पर हूँ. एक तरह से सुंदर दीवारें, वॉलपेपर की पत्तियाँ, फ़र्नीचर आदि कब तक देखे जा सकते हैं. हर कोना झूठी हरियाली से त्रस्‍त. कोने में रखा गुलदस्‍ता उद्यान की जगह नहीं ले सकता. उद्यान की याद दिला सकता है या उसकी स्‍मृति को आक्रांत कर सकता है. उधर खिड़की से दिखता वासंती पीला और उसके क़रीब कत्‍थई भूरे की आश्‍वस्ति पसरी हुई है. वृक्ष की छाया जैसे थमी हुई है और घनी है. उसके पीछे दिखता धर्मस्‍थल का नीला गुंबद. यह मुझे हरे की विपुलता से मुक्‍त करता है और अनेक स्‍मृ‍तियों से संयुक्‍त कर देता है. कई रंग, कई वस्‍तुएँ अपनी विचित्रता में मोहित करते हैं. उनकी सुंदरता में प्राचीनता के अवयव हैं. स्‍मृतियों को जगा देने की शक्ति से वे और ज्‍़यादा सुंदर हो गई हैं. क्‍या सबसे आत्‍मीय कला वह है जो स्‍मृतियों को पुकारने का यत्‍न करती है? जो बीत गए संगीत की स्‍वर-लहरियों पर बैठाकर विगत की यात्रा कराती है? जैसे उस वक्‍़त जो छूट गया था, जो रस अंजुरी से बह गए थे, जो स्‍पर्श अधूरे थे वे अब म‍िल रहे हैं, पूर्णता प्राप्‍त कर रहे हैं.

जो विचार तकलीफ़ देते हैं उनसे कैसे छुटकारा पाया जाए? अप्रिय और प्रिय स्‍मृति को बीनकर कैसे एक-दूसरे से अलग करें. एक दिन जीवन में ये ही सवाल प्राथमिक रह जाते हैं. और महत्वपूर्ण. क्‍या प्रेम की स्‍मृति ही बाक़ी स्‍मृतियों पर शासन करती है? क्‍या संसार में सबसे ज्‍़यादा दुख तब होता है जब तुम अपने प्रेम को किसी और के पाश में देखते हो. यही है जो आगामी जीवन में अनंत उदासी भर देता है. प्रेम‍िल ह्दय का भग्‍न हो जाना अप्रत्‍यक्ष मृत्‍यु है. यह भग्‍नता किसी जाँच में नहीं दिखती. ईसीजी या इको में भी नहीं. देह पर उसका प्रत्‍यक्ष निशान खोजना संभव नहीं. वह केवल घटित हो जाती है. इसे केवल तुम जानते हो. लेकिन तुमने प्रेम की स्‍मृतियों को सबसे ऊँचे स्‍थान पर रख दिया है, जैसे बाक़ी चीज़ों कोई कम महत्‍वपूर्ण हैं. जैसे बाक़ी विफलताएँ या सफलताएँ महत्‍वहीन हैं.
क्‍या तुम इस‍ीलिए मार्सेल प्रूस्‍त हो?

सपना, स्‍मृति और यथार्थ मिलकर जीवन का संशय रच रहे हैं. जीवन चला रहे हैं. या स्‍थगित कर रहे हैं. या मृत्‍यु के पक्ष में कोई षडयंत्र कर रहे हैं. मृत्‍यु जो इन तीनों की निदेशक है. ये तीनों कोई माया फैला रहे हैं. इनमें फ़र्क करना मुश्किल है. ये भ्रम हैं. ये सच हैं. ये विषमबाहु त्रिकोण हैं. हर पल अपना रूप, भुजाओं की लंबाई और कोण बदलते हुए. रेखागणि‍तीय नियमों का उल्‍लंघन करते हुए. प्राय: तीनों कोणों का योग 180 डिग्री से कम या ज्‍़यादा होता हुआ. इन्हें काग़ज़ पर उकेरना संभव नहीं. इन्‍हें ज्‍यामिति में सिद्ध नहीं किया जा सकता. उनके कोणों के योग की गणना जीवन में न्‍यूनाधिक ही बनी रहेगी. ये त्रिकोण अप्रमेय हैं.

 

Time Regained से एक दृश्य

(चार)

यह नींद में से जागना है या किसी नींद में चले जाना है. एक संभ्रम में से दूसरे संभ्रम में. एक स्‍वप्‍न के चौराहे से यूटोपिया की इमारत में. प्रेम की सफलता-असफलता, योग-वियोग, आकांक्षा-असंतोष, इच्‍छा-व्‍यग्रता के बीच यह अबाध और उदग्र आवागमन. इतना यातायात. पुतलियाँ हिलती रहती हैं, सपने वास्तविकताओं का उपहास करते चले जाते हैं. बुदबुदाहटें यथार्थ में शामिल हो जाती हैं और सपने जीवन को निश्‍चेतन करते हैं. यह स्‍मृतियों का यज्ञ है. तुम्‍हारा मस्तिष्‍क यज्ञकुंड है.

स्‍मृति कोई उजाड़ या वीरान शहर नहीं है. वह अनवरत आबाद है. दमकता हुआ. वह जीवित, स्‍पंदित इकाई है. हार्मोनों और आवेगों से पूरित. अनगिन पात्रों- वस्‍तुओं, पक्षियों, स्त्रियों, बच्‍चों, पुरुषों से चहल-पहल है. उसमें आप जी सकते है, उसे पा नहीं सकते. फिर पता चलता है कि जी भी नहीं सकते. क्‍या स्‍मृति एक सुवासित, आकर्षक दलदल है? या विशाल रेगिस्‍तान. अछोर अरण्‍य. तारों से दमकता अप्रतिम आकाश? क्‍या लिखना व्‍यतीत को रेखांकित करना है. उसे अलंकृत करना है. या सब कुछ को अवसाद में बदल देना है?
लगातार. अथक. मृत्‍युपर्यंत?

कथा वही हो सकती है जो घट चुकी है
उसे केवल अब लिखना शेष है.

प्रेम में झूठ थका देता है. सच उलझा देता है. कोई दोषी नहीं लेकिन सज़ा सबको मिलती है. कब तक किसी का पीछा किया जा सकता है. जैसे यह उस मृग का पीछा है जो कहीं नहीं है. यह अंतहीन है. पहले इच्छा में होता था, जीवन में होता था, अब सपनों में होता है. स्‍मृतियों में भी. एक समर्पित चुंबन कभी बीतता नहीं. उन भीगी आँखों की नमी कभी सूखती नहीं. एक स्मित हँसी अमावस्‍याओं में भी चमकती है. आदमी अपने ही मन की प्रागैतिहासिक गुफाओं में सुबकता, सोता-जागता रहता है. जैसे अपनी ही जीवंत क़ब्र में. जिसे प्रेमिल ह्दयों ने मिलकर खोदा था. या शायद अकेले ही. अब कुछ ठीक से याद नहीं आता. कई कामनाएँ इतनी शीतल होती हैं कि उन्‍हें चूमो तो लगता है बर्फ़ पर होंठ रख दि‍ए हैं. इसके उलट भी कि जैसे अंगारों को स्‍पर्श कर लिया है. स्‍पर्श का दंश. नीला और विषाक्‍त. या यही अमृत है जो जिलाये रखता है. स्‍मृति का अपना चुनाव है. उसकी अपनी विस्‍मृतियाँ हैं. क्‍या रखना है, क्‍या मिटा देना है. क्‍या फिर से पा लेना है. क्‍या पाकर भी खो देना है. किस को तलघर में आजीवन क़ैद रखना है. स्‍मृति की चाल, उसकी रणनीति को समझना मु‍मकिन नहीं.

फिर वही अजर, अमर, अनुत्तरित सवाल : तुम किसी और के प्रेम में तो नहीं हो? यह सवाल अनादि काल से है. उत्तर किसी के पास नहीं. जिससे पूछा जा रहा है उसे भी ठीक-ठीक पता नहीं. इसका शमन नहीं हो सकता. इसी दिवाकर प्रश्न के आसपास प्रतिज्ञाएँ, वचन, आश्‍वासन, नैतिकताएँ, अनाश्‍वस्तियाँ परिक्रमा करती रहती हैं. प्रेम के स्वच्छ आकाश में कभी भी काले बादल छा सकते हैं, बिजलियाँ कड़क सकती हैं. बारिश सब कुछ गला सकती है. हवा सुगंधियों को, आशाओं को उड़ाकर ले जा सकती है. तुम प्रेम में रहकर बहुत खुले में नहीं रह सकते. तुम्‍हें एक विश्‍वास से भरा आश्रय चाहिए. एक दिलासा. शरण. एक सुरक्षा. संपूर्ण समर्पण दुर्लभ है और अरक्षित होने की संभावना से भरा है. पत्‍थरों के टुकड़ों के बीच भरे बारिश के पानी में बस, स्‍मृति और परछाइयाँ झिलमिलाती रह जाएँगी. आँसू और समय उन्‍हें धुँधला करते रहेंगे.

एक उम्र में प्रेम रोमांचित करता है. शेष आयु की पूरी जगह घेर लेता है. प्रसन्‍न बना देता है. लेकिन फिर तुम सोचना शुरू कर देते हो. प्रेम विमर्श का विषय बन जाता है. चिंता का. आशंका का. विजय का. पराजय का. महत्‍वाकांक्षा का. प्रेमी जितने ख़ुद के प्रति झूठे होते हैं, उससे कहीं ज्‍़यादा अपने संसार के लोगों के प्रति. झूठ के प्रकार अलग हो सकते हैं. लेकिन वे झूठ बोलकर भी विश्‍वसनीय बने रहते हैं. वे प्रेमी हैं. उनके संदेह के बीच कोई आशा दबी रहती है. उम्‍मीद का सैंडविच. तुम्‍हें लगता है कि यह झूठ बोल रहा है लेकिन ठीक उसी वक्‍़त प्रेम की किंचित, अज्ञात कौंध आँखों में दिख जाती है. यह इत्‍ती सी रोशनी, इतनी सी आशा आगे के संपूर्ण विनाश के लिए काफ़ी है. विवेक कहता है विश्‍वास मत करो लेकिन कामनाओं के आगे विवेक एक पराजित योद्धा है. वासनाएँ शक्तिशाली होती हैं. वे अधिक प्रमाण या व्‍यवधान नहीं चाहतीं. वे बस अपनी पूर्णता चाहती हैं. यही ‘केच’ है. प्रेम पागलपन है.
दुर्निवार है.

प्रेम में निष्‍ठा एक नाज़ुक मामला है. वह किसी अन्‍य के चुंबन से नष्‍ट हो सकती है. और एक मुस्‍कराहट से, लंबे समर्पित चुंबन से वापस स्‍थापित हो सकती है. फिर पीठ फेरते ही कुछ का कुछ हो सकता है. प्रेम में तमाम हिंसाएँ आधिपत्‍य, संशय और धोखे की आशंका से संचालित है. प्रेम में एकनिष्‍ठता की माँग भी हिंसा की जगह बना सकती है. व्‍यर्थ सुख की तलाश में आयोजित, अमीरों की पार्टियाँ इसकी सबसे अधिक विश्‍वसनीय गवाहियाँ देती हैं. उन रात्रि भोजों की स्‍मृतियाँ उबाऊ और हास्‍यास्‍पद हैं. सिम्‍फ़नियों से भरी मदहोश रातें घबराहट और व्‍यर्थता की सुंदर स्‍मृतियाँ हैं. कामनाओं की रतौंधियाँ हैं.

 

मार्सेल प्रूस्‍त : गूगल से आभार सहित

 

(पाँच)

कला में चित्रित गुलाब कुछ रक्‍त-अल्‍पता के शिकार लग रहे हैं ले‍किन वे धीरे-धीरे बैंगनी रंग का वैभव रच रहे हैं. ये चित्र हमारी क्षुधाओं को संतुष्ट कर सकते हैं. सही जगह तक पहुँचें तो पेट की और हृदय की, दोनों तरह की भूख शांत कर सकते हैं. लेकिन यहाँ अधिकांश अमीर इतने धनकेंद्रित हैं कि कलाएँ उन्हें ग़लती से भी आकर्षित नहीं करतीं. वे हर चीज़ को पैसे से पाना चाहते हैं. स्‍त्री से प्रेम का सुख भी. बिना यह समझे कि एक कलाकार जिस तरह स्‍त्री के अंतरतम में पैठ कर सकता है, वेध सकता है उस तरह संसार की कोई दूसरी चीज़ नहीं. फिर प्रेम हमें फूलों को, दृश्‍यों को, सुंदरताओं को नाम और सुगंध, दोनों से एक साथ पहचानना सिखा सकता है. उस परिचय के बिना तुम न तो फूल का चित्र बना सकते हो और न ही उसका विवरण लिख सकते हो. इस अंतरंग पहचान के बिना वह एक निरा फूल होगा. भौतिक लेकिन वायवीय. यही बात ये अत‍िसंपन्‍न लोग नहीं समझ सकते. आज उनकी लिजलिजी स्‍मृति भी दयनीय भाव जगा देती है.

आदमी जब बदलना शुरू करता है तो उसकी रुचियाँ, हस्‍तलिपि, चाल और विचार सब एक साथ बदलने लगते हैं. अब वह स्वयं की एक भूली हुई स्‍मृति है.

अभ‍िजात लोगों के साथ रहना मेरी विवशता है. मैं उन्हीं के बीच जन्‍मा हूँ. वहीं पोषित हूँ. लेकिन उनके अजीब किस्‍म के वार्तालापों और क्रियाकलापों में मुझे अपनी जगह बनाना पड़ती है. अश्‍लीलताओं के झुरमुट से बचकर निकलना पड़ता है. उनकी हरकतों की सूची अंतहीन है. हास्‍यास्‍पद ऐश्‍वर्य से सज्जित. उनका प्‍यार बग्‍घ‍ियों में बैठकर, टापों के बीच कोई औपचारिक क्रिया है. मुझे बाहरी दमकती चमकीली सुंदरताओं के पार भीतरी सुंदरताओं की आकांक्षा रहती है. कई लोगों को बाहर से ही देखकर उनकी भीतरी कुरूपताएँ दिखने लगती हैं. चिकित्‍सक त्‍वचा के चकत्‍तों से अंदरूनी बीमारी का अनुमान लगा सकता है. उसी तरह मैं एक लेखक हूँ, अपने निरीक्षण के एक्‍स-रे से लोगों को देखता, समझता हुआ.

मदिराओं के नाना प्रकार. स्त्रियों के नाना प्रकार. उनकी पोशाकों के अनंत प्रकार. इच्‍छाओं, लिप्‍साओं के विविध रूप. प्रेम और काम के अनंत पर्यावाची जो वासना के ही पर्यायवाची हो सकते हैं. उच्‍चवर्गीय जीवनशैली से प्रसूत और उसकी वसा में लिथड़े हुए लोग. उन्‍हीं में अनेक औसत और दोयम लेखक, कलाकार. वस्‍त्रों, भोजन, फ़र्नीचर के अनगिन प्रकार. परदों के और आभूषणों के. हँसी के नाना प्रकार. कृत्रिम आँसुओं के कारख़ाने. लेकिन छिपी हुई अनुपचारित तकलीफ़ सच्‍ची. अब असमाधेय. एक अमीर की अपने से अधिक अमीर की सगाई. विवाह. बेधक परगमन की दिनचर्या. इसी में उजाड़. इसी में खिलखिलाहट. यही स्‍थापत्‍य. उत्‍सव कर्फ़्यू में भी जारी रहना चाहिए. युद्ध के दौरान भी सीत्‍कारें ज़ारी रहें. हर दुख का इलाज है- रात्रिपर्यंत जश्‍न. हर सवाल का जवाब है- छोड़ो, जाम उठाओ. बीयर पियो. संगीत सुनो. हर कला को एक ऐयाशी में बदला जा सकता है. बीथोवेन और मोज़ार्ट पेज तीन की ख़बरों का हिस्‍सा होने के लिए अभिशप्त हो गए हैं. लेकिन किसी भी तरह की ऐयाशी, कितने भी तरह के ये नाना प्रकार भीतर की शून्यता और अशांति को ढाँप नहीं पाते. अनेक देहों से संसर्ग सुख आंतरिक दुखों को कतई कम नहीं कर पाते. प्रतिदान में सच्‍चा प्रेम न पा सकने या प्रेम न कर सकने का भय पीछा करता रहता है. बाक़ी कोई दूसरा भौतिक भय नहीं. सुविधाओं का अभाव नहीं. लेकिन जो जीवन में संभव होता नहीं दिखता, वह प्रेम है. उसी की कमी से ल्‍यूकीमिया है. मदिरा में, नृत्‍य में, चमक में अपने को और अधिक उजागर करता हुआ. अनैतिक संक्रमणों से लड़ने की क्षमता कम हो गई है. चुगली और व्‍यर्थ डींगे मारना इन पार्टियों में प्रमुख व्यंजन हैं. मुझे इन सबसे घृणा होती है. सभी लोग अपनी नाख़ुशी में ख़ुश दिखने के अभिनय में पारंगत हैं. एक मैं हूँ जो एक संपूर्ण अप्रसन्‍न की तरह इधर से उधर उनके बीच भटकता हूँ.
मेरी स्‍मृतियों से यह सब जाता नहीं.

मैं बहुत क्रमबद्ध ढंग से अपनी बात नहीं कह सकता. स्‍मृतियों के साथ ऐसा अचूक क्रम चाहो तब भी हो नहीं सकता. उनकी अपनी गति है. स्‍मृति की कहन में, बीत गए को याद करने में, उसकी कला में, उसके शब्‍दों में स्‍वाभाविक अंतराल हैं. अपनी उलझनें हैं, गठानें हैं और टूटते हुए धागे. कहीं ताना छूटता है, कहीं बाना. यह स्‍मृति की चादर है. स्‍मृति का वस्‍त्र. पुराने ऐसे हथकरघे पर बुना हुआ, जिसके पुरजे घिसे हुए हैं. अनुमान और कल्‍पना भी स्‍मृतियों के खेल में शामिल हैं. कुल मिलाकर जैसे ये बिना संकेतों की वर्ग पहेलि‍याँ हैं. जहाँ ख़ाली स्‍थान में किसी दूसरी स्‍मृति को रखना पड़ता है. उन सबके बीच विचरण करना है.  यह यातायात भी एक आफ़त है लेकिन यह सर्जना को आमंत्रित करता है और अभिमंत्रित.
इसकी अनुपक्षेणीय पुकार है.

 

Celeste से एक दृश्य का AI द्वारा रूपांतरण

(छह)

प्रूस्‍त बीमार है. लगातार लिख रहा है. बीमारी में भी. अपने शानदार बंद लेकिन अकेले अवसादग्रस्‍त कमरे में वह छोटे-छोटे पुरज़ों पर लिखता चला जाता है. परिचारिका उन्हें व्यवस्थित करती है. वह अपने अंत के क़रीब है. वह भला और क्‍या कर सकता है. वह लेखक है, लेखन उसका जीवन है. उसकी साँस है. एक सैनिक अपनी खंदक में क्‍या सोचता है. कैसे सपने देखता है. सुंदरता और सभ्‍यता के बारे में क्‍या विचार करता है. अपने परिवार, घर-बार के बारे में किस तरह याद करता है. छोटी-छोटी बातें. मामूली सपनों के प्रति आशा हमारे उदास दिनों को पार करने में औज़ार की तरह काम आती है. झंझावात में आशा भी पतवार है. कभी-कभी हथियार भी. युद्ध के दिनों में साइरन को संगीत की तरह सुनना पड़ता है. इसी बीच मैं सोचता हूँ कि तथाकथित पवित्र और ताक़तवर लोगों से भला कैसे प्‍यार किया जा सकता है क्‍योंकि वे तो पवित्रता को मनमानी नैतिकता और बंधन में तब्‍दील करने की लगातार कोशिश करते हैं. यह पलंग, बिस्‍तर और यह अकेला कमरा मेरे लिए एक सैनिक की खंदक की तरह है. मैं स्‍मृतियों के कुरुक्षेत्र में हूँ और लिखना चाहता हूँ. और प्‍यार करना चाहता हूँ.
दोनों का मतलब एक है. और मक़सद भी.

प्‍लैटफाॅर्म पार करती हुई ट्रेन के बंद पारदर्शी काँच में से लोगों को देखना, ट्रेन की गति से उनका पीछे छूटते जाना. जीवंत, रंगों से भरे जीवन का चित्रावली की तरह खिसकना, गुज़र गए जीवन का ही रूपक है. यह जीवन ऐसी गुज़रती कलाकृतियों, कलावीथिकाओं, छूटती चली जातीं चीज़ों और लोगों के अलावा और क्‍या है. जीवन यानी विलोपित होते जाना. अब जो शेष है, वह बहुत कम रह गया है, और अनवरत कम होता हुआ शेष है. ऑवर ग्‍लास के ऊपरी हिस्‍से से रेत झर रही है. अविराम. स्‍मृतियाँ ख़ाली जगह में रह जाती हैं. पारदर्शी हवा की तरह. मैं ही उन्‍हें देख सकता हूँ. वे ही मेरी संपत्ति हैं. और मेरा उपजीव्‍य. किन्‍हीं अँधेरों में गुम हो जाना छोटी बात है, बड़ी बात है उन अँधेरों से निकलकर ख़ुद को खोजना और प्रकाशित करना.

युद्ध आता है तो सबसे सुरक्षित, सबसे संपन्‍न और सबसे शक्तिशाली आदमी चिंता करने लगते हैं कि युद्ध की वजह से उनकी मौज़-मस्‍ती भरी दिनचर्या में कहीं कोई व्यवधान न आ जाए. उनकी आमोद-प्रमोद भरी जीवन शैली प्रभावित हो गई तो वे सचमुच ही मर जाएँगे क्‍योंकि नकली जीवन ज़रा-सी मुश्किल में कुम्‍हला जाता है. दूर कहीं एक धमाके से अनिद्रा रोग हो जाता है. उनका नारा है, हमारी सेनाएँ अमर रहें! आज की शाम उनके लिए प्‍याला उठाओ! अमीरों को सबसे ज्‍़यादा लुटने का ख़तरा है. उनके पास खोने के लिए अनंत संपत्ति है. आज पूरी रात उद्योगपतियों का, धनाढ्यों का, उनके सहयोगी पत्रकारों का, कलाकारों का, अमृत कन्‍याओं का, विष कन्‍याओं का, सबका यही नारा है, चीयर्स! जैसे यह भयग्रस्‍त लोगों का नारा है- चीयर्स!! इन आवाज़ों के बीच मैं सोचता हूँ कि यदि आप कायर नहीं हैं तो जीवन ख़ूबसूरती से जी सकते हैं.

 

(सात)

इस तस्‍वीर में देखो, यह अँधेरा कितना उज्ज्वल है, जिसमें तुम्‍हारे दो-तीन अवयव चमकते हैं और तुम्‍हारे दोनों हाथों के अग्रभाग. एक टूटा कप स्‍मृति चिह्न की तरह सँजोया जा सकता है, वह तुम्हारे हाथ से छूटकर टूटा था. समय की लघुतम इकाई और प्रेम की टूटन उसमें शामिल है. टूटने की स्‍मृति. इसे जोड़ने की कोशिश उस स्‍मृति को तोड़ने की तरह होगी. यानी स्‍मृति में कोई विक्षेप. आक्षेप. या हस्‍तक्षेप.

क्‍या तुमने गोनकूर के चिट्ठों की किताब पढ़ी है. रोज़नामचों की. वह मुझे चुनौती देती है. और मोह लेती है. बाँधती है और मुक्‍त करती है. अच्‍छा साहित्‍य पढ़ने से पता चलता रहता है कि तुम्‍हारे अपने भीतर कितनी कमियाँ हैं. तुम सोचने के लिए विवश होते हो कि तुम्‍हारे पास कल्‍पनाशीलता का कितना अभाव है. यह संज्ञान पीड़ादायक है लेकिन किस क़दर प्रेरक है. अब तुम्‍हें और अधिक तैयारी करना होगी.

मैं इस शहर में और युद्धकाल में स्‍वयं को बचा पाई तो तुम्‍हारी स्‍मृति के सहारे ही. हर रास्‍ते में, प्रत्‍येक पुल और सड़क को पार करते हुए, जिन पर कभी मैं तुम्‍हारे साथ चली थी, उन सबको और उन मुश्किलों को याद करते हुए अपनी तमाम धरोहरें भी बचाने में कामयाब हुई. स्‍मृतियाँ वास्‍तविक सहारा हैं. जैसे प्रियजन के बढ़े हुए हाथ. उजड़ते भूदृश्‍यों और भग्‍न जीवनावशेषों में वत्‍सल चमक की याद दिलाते हुए. जिन चीज़ों से, जिन भावनाओं, जिन दृश्‍यों से तुमने प्‍यार किया, उन्‍हीं से मैंने भी किया और पार निकल आई. उन्‍हें अपनी याद में सँजोया और सोचा कि विनाशकाल में इन्‍हें बचाना मेरा युद्ध है. मेरा संग्राम. तुम समझ सकते हो कि बचपन में किसी के प्रेम में पड़ जाना जीवन को सदैव के लिए व्‍यग्रता से भर लेना है.

स्‍मृति एक विशाल, अंतहीन चित्रों-चलचित्रों से भरा बाइस्‍कोप है. रीलें घूमती रहती हैं. इन्‍हीं में मेरे सीम‍ित, प्रगल्‍भ समाज की सामाजिक स्‍मृतियाँ भी हैं. जैसे व्‍यक्तिगत. वे पुराने होते, और अधिक प्राचीन लगते मकान, ओस और बर्फ़ की नमी से भीगे साँवले, स्‍लेटी, नीले पत्‍थर. गाढ़े रंग. चहारदीवारियाँ जिनके बीच की जगहों से दृश्‍य और रोशिनियाँ झाँकती थीं. रेशमी परिधानों की सरसराहट- उनसे मेरा आकर्षण और विकर्षण!

बहरहाल, युद्ध की स्‍मृतियाँ मेरे पास भी हैं जिनमें घायल लोग मुझे मारे जा चुके लोगों से अधिक दुर्भाग्‍यशाली लगते हैं. अख़बारों में तो तमाम झूठी ख़बरें हैं, उन्‍हें इसी काम के लिए पैसा दिया जा चुका है. यह युद्धकाल है. सच्‍चाई कहीं नहीं. शांति कहीं नहीं. भरोसा किसी पर नहीं. जो कहा जा रहा है वह झूठ है लेकिन इसका अभी पता नहीं चलेगा. यह आपातकाल है. कभी बाद में सच का पता चलेगा. या शायद नहीं भी. हर युद्ध एक राजनीति है. एक असफल कूटनीति. युद्ध एक क़साईख़ाना है. अंधा क़साईख़ाना. इसी तरह हवाई आक्रमण होते रहे तो सारे संपन्‍न लोग और अधिक शराबी हो जाएँगे. एक कहता है मेरे सारे परिजन मर गए. मेरे लिए युद्ध ख़त्‍म है. अब युद्ध मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता. अमीर पुकार लगा रहे हैं कि अमीरों को नहीं मरना चाहिए. उन्‍हें युद्ध के मौसम का शिकार होने से बचाओ. वरना ग़रीबों को रोज़गार कौन देगा. यदि अमीर मर गए तो बेचारे ग़रीब भी मर जाएँगे.

लेकिन युद्ध ख़त्‍म होकर भी पीछा नहीं छोड़ता. उसके अवशेष रेडिएशन की तरह बने रहते हैं. अदृश्‍य लेकिन व्‍यवहार में दृश्‍यमान. नींद और स्‍वप्‍न में धमकाते हुए. हर सुंदरता पर गिरती हुई राख. युद्धोपरांत की वीरानी अनुपमेय है. सब एक सार्वजनिक चुप्‍पी में, एक उजाड़ में चुपचाप दुख उठाते हैं. कोई बदनसीब सोचता है कि अमीर विधवा ही मिल जाए तो शेष जीवन सुखमय हो, हालाँकि वह जानता है कि यह एक और असमाप्‍य युद्ध में धँसना है. युद्ध कई लोगों का नसीब बदल देता है. अनेक आदरणीय आदरहीन हो जाते हैं. कुछ काँटे फूल बनकर खिल जाते हैं. दोनों में पुरानी पहचान खोजना कठिन है.
जिस तरह जीवन का कोई एक तरीक़ा नहीं है,
मृत्‍यु का भी कोई एक तरीक़ा नहीं है.

क़ब्रिस्‍तान में भी अमीरों की दुनियादारी ज़ारी रहती है. कुछ देर के लिए वह भी एक छोटी-सी, भीड़ भरी आबाद जगह है. जैसे अस्‍थायी विचारकों, दार्शनिकों का सम्‍मेलन. वहाँ मुनष्‍यों के सुख-दुख की चर्चा, चिंताएँ और योजनाएँ दिनचर्या की तरह संपन्‍न हो रही हैं. गंभीरता हास्‍य का विषय है. शोक-सभा के बाद लोग अपना शोक सुस्‍वादु भोजन और वान में भुला देते हैं. मैं भीड़ से घबराता हूँ. संपन्‍न लोगों की भीड़ से तो और भी ज्‍़यादा. सोने के सिक्‍के के ये दो पहलू हैं- पहला वैभव. दूसरा भद्दा. मैंने ये सिक्‍के देखे हैं.

 

मार्सेल प्रूस्‍त : गूगल से आभार सहित

 

(आठ)

स्‍मृति में से स्‍मृति फूटती हैं. कई बार कोंपल की तरह. कई बार भरी-पूरी डाली की तरह. बचपन की स्‍मृतियाँ और फिर प्रेम की स्‍मृतियाँ मिलकर नियंत्रक हो जाती हैं. वे सर्वसत्‍तावादी हैं. उनके लिए तुम एक छोटा-सा प्रदेश हो. एक स्‍मृति-शासित द्वीप हो. अवसादी भावनाओं को काबू में रखना शायद सबसे कठिन है. स्‍मृतियाँ सदैव रहस्‍यमयी ढंग से अपनी प्रबल उपस्थिति बनाये रखती हैं. आत्‍मीय बनकर दुख देती हैं. लेकिन प्राणवायु भी. विश्‍वाास दिलाती हैं कि जो छूट गया वही स्‍वर्ग था, नंदनवन था. और अब सब कुछ धुँधलके में है. किसी अतल के अंधकार में है. टटोलकर देखना पड़ता है. कुछ पकड़ में आता है, ज़्यादादातर कुछ नहीं. कई बार कोमल संवेदनाओं की गूढ़ता को समझने में ही दिन बीत जाते हैं. उनकी छायाओं में लंबी यात्राएँ करना पड़ती हैं. इन यात्राओं को लिखना जीवन के संस्‍मरणों की तरह हो जाता है. कहानी और कविता की तरह. मैं ऐसी ही किताब लिख रहा हूँ. चाँदनी रात में सुनसान रास्‍तों की धूल दूधिया होकर सुस्‍ताती है. दृश्‍यों की एक भाषा है जो तुम नहीं जानते और एक भाषा वह है जो तुम जानते हो, इन दो भाषाओं के बीच पुल बनाना मेरा अभीष्ट है. मेरा कार्यभार.

मैं सैनेटोरियम से स्‍वास्‍थ्‍य लाभ लेकर वापस आया हूँ तो लग रहा है कि बाहर का यह संसार भी विशाल अजीब सैनेटोरियम है. स्‍मृतियाँ मेरी श्‍वासों से होकर फेफड़ों में भर गईं हैं. मुझे स्‍मृतियों का निमोनिया हो गया है. मेरे प्‍यारे बचपन के शहर में मुझे एक ऐसी स्‍त्री मिली थी जो कुछ भी भूल नहीं सकती थी. स्‍मृति की अमरता बेचैन और संलग्‍न बनाये रखती है. स्‍मृति इतने सुंदर तरीक़े से उदास करती है कि उदासी वरदान की तरह प्रतीत होती है. अवसाद की सुंदरता का वशीकरण अतुल्‍य है. मेरे लिए तो प्रेरक भी. प्रेम को लेकर मैं बार-बार और अनेक आयामों में विचारमग्‍न हो जाता हूँ. सोचता हूँ कि यदि प्रेम में ईर्ष्‍या नहीं तो प्रेम संदिग्‍ध है. याद करता हूँ कि प्राय: प्रेमातुर स्त्रियों की केवल दो बाँहें नहीं होतीं बल्कि स्‍टारफिश की तरह पाँच भुजाएँ होती हैं जिनके पाश में हम बँध जाते हैं. उनकी गठानों में गठरी की तरह. कुछ ऐसी भी जिनकी आठ बाँहें होती हैं, ऑक्‍टोपस की तरह. और सभी अजानबाहु. प्रेम में त्रिकोण ही नहीं, चतुष्‍कोण, षटकोण भी दिख सकते हैं. प्रेम और ध्‍वंस. मेरे लिए इनके बीच जो कुछ है, वही जीवन है. इनके बीच में ही सारी कथाएँ संपन्‍न होती हैं. सारी कलाएँ. मैं इसी का भोक्‍ता हूँ. इसी का रचयिता.

प्रिय, मैंने तुम्‍हें कुछ अँधेरे में देखा था, उस में तुम्‍हारे होने का इतना उजाला तो था ही कि आज भी मैं तुम्‍हारी प्रशंसा में कई पृष्‍ठ लिख सकता हूँ. समय के साथ दुख बढ़ता जाता है क्‍योंकि गुज़रे जीवन की स्‍मृतियाँ भी उसी अनुपात में, आकार और भार में बढ़ती चली जाती हैं. इन स्‍मृतियों का कोई निवारण नहीं. मैं चाहता भी नहीं कि‍ इनका निवारण हो. मैं तो इन्‍हें पुनर्नवा करता हूँ. चाहता हूँ मेरे भीतर इनका पुनरुत्‍थान हो.

ओ मेरी परिचारिका, प्रिय सेलेस्‍ट तुम न होतीं तो यह किताब न होती. जैसे यह किताब तुमने ही बना दी है. एक रुग्‍ण आदमी और उसकी रुग्‍णता को, लेखक को तुमने जैसे सँभाला है, आठ बरस तक, उसके प्रति कोई आभार प्रकटीकरण मु‍मकिन नहीं. घड़ी की टिक-टिक अकेले कमरे में गूँज रही है. समय बीत रहा है और स्‍मृति में जमा हो रहा है. स्‍मृति चमकदार थी मगर अब क्षीण हो रही है. लेकिन जो भी है, जितनी भी है, वह अपना काम कर रही है- जीवन को संश्‍लिष्‍ट और सुंदर बनाकर चोटिल कर रही है.

क्‍या जीवन एक अंत्‍याक्षरी है? एक उच्‍चारे गए वाक्‍य या शब्‍द के आख़‍िरी अक्षर से फिर नया गीत गाना है. एक नयी जगह, नये काम, नये नाम को अभिव्‍यक्‍त करना है. मैं इसी व्‍यतीत की ताक़त और प्रसन्‍नता की पुस्‍तक लिख रहा हूँ. मेरे लिए सबसे आकर्षक कला वह है जो स्‍मृतियों का आव्‍हान करे, उनको जाग्रत करे. स्‍मृतियों का अपना विरल संगीत है जो उस यात्रा पर लिवाये जाता है जहाँ वे सारे स्‍वर मिल सकते हैं जो विलग हो गए थे. यह बीत गए के पुनराविष्‍कार की यात्रा है. अपनी तरह का एक पुनर्मिलन. यह जीवन स्‍मृतियों का नगर है. स्‍मृतियों का अरण्‍य. स्‍मृतियों का समुद्र. स्‍मृतियों का मरुस्‍थल.
मैं स्‍मृतियों की आकाशगंगा में रहता हूँ.
अ‍लविदा.

सन्दर्भ
Movies :
1. Time Regained, 1999, Director- Raul Ruiz.
2. Celeste, 1980, Director- Percy Adlon.

लोकतांत्रिकता, स्वतंत्रता, समानता, धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों और वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न समाज के पक्षधर कुमार अम्बुज का जन्म 13 अप्रैल 1957 को जिला गुना, मध्य प्रदेश में हुआ. संप्रति वे भोपाल में रहते हैं.  किवाड़, क्रूरता, अनंतिम, अतिक्रमण, अमीरी रेखा और उपशीर्षक उनके छह प्रकाशित कविता संग्रह है. ‘इच्छाएँ और ‘मज़ाक़’ दो कहानी संकलन हैं. ‘थलचर’ शीर्षक से सर्जनात्मक वैचारिक डायरी है और ‘मनुष्य का अवकाश’ श्रम और धर्म विषयक निबंध संग्रह. ‘प्रतिनिधि कविताएँ’, ‘कवि ने कहा’, ‘75 कविताएँ’ श्रृंखला में कविता संचयन है. उन्होंने गुजरात दंगों पर केंद्रित पुस्तक ‘क्या हमें चुप रहना चाहिए’ और ‘वसुधा’ के कवितांक सहित अनेक वैचारिक पुस्तिकाओं का संपादन किया है. विश्व सिनेमा से चयनित फिल्मों पर निबंधों की पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य. कविता के लिए ‘भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार’, ‘माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार’, ‘श्रीकांत वर्मा पुरस्कार’, ‘गिरिजा कुमार माथुर सम्मान’, ‘केदार सम्मान’ और वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित.

ई-मेल : kumarambujbpl@gmail.com

Tags: CelesteTime Regainedकुमार अम्बुजमार्सेल प्रूस्‍तविश्व सिनेमा से कुमार अम्बुज
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Comments 16

  1. Oma Sharma says:
    1 day ago

    झनझना देने वाला गद्य,देर तक किसी विलंबित राग को अपने भीतर उतारता, सहेजता हुआ। एक उपलब्धि की तरह। इस पर तत्काल में लिखना अन्याय होगा । इसे बार-बार,कई बार पढ़ना होगा ।और उन फिल्मों को भी देखना होगा जिनकी प्रेरणा से बन गया है । लेकिन यह तय है कि यह फिल्म आधारित नहीं है । उससे कहीं आगे और परे की उपलब्धि है। एक मास्टर की मानस में उतरकर ऐसी तल्लीनता को रचना वाकई अद्भुत है। कुमार अंबुज को बहुत-बहुत शुक्रिया

    Reply
  2. आदित्य शुक्ला says:
    1 day ago

    वक़्त जो गुज़रा है – क्या उसकी सिर्फ़ तलाश है या वक़्त जो गुजरा है उसके आलोक में इतिहास और समाज को देखना है – यही शायद सूत्र है प्रूस्त की रचनात्मकता का। Time Regained फ़िल्म से तो परिचय था मगर Celeste से नहीं। कुमार अम्बुज जी ने हिंदी में सिनेमा लेखन को एक नई ऊँचाई दी है। ऐसी भाषा और दृष्टि युवा लेखकों के लिए ख़ासकर प्रेरणादायी होगी। ये दोनों फ़िल्में देखना फ़िलहाल स्थगित रहेगा जब तक In Search of Lost Time के सभी खंड पढ़ ना लिए जायें। इस गद्य को पढ़ना एक ताज़ा हवा के झोंके से गुजरना है। प्रूस्त को हिंदी में देखना है। प्रूस्त के महाकाव्यात्मक जीवन और उपन्यास पर कुछ हिंदी कविताएँ भी तो बनती हैं जिसकी पूर्ति के लिए ऐसे लेखों की महती जरूरत है। कुमार अम्बुज जी और समालोचन का आभार।

    Reply
  3. मदन केशरी says:
    1 day ago

    स्कूल के दिनों में कमलेश्वर-सम्पादित ‘सारिका’ में गणेश मंत्री का एक श्रृंखलाबद्ध लेख पढ़ता था, जिसका शीर्षक आज भी स्मृति में ताजा है – ‘औरतें, औरतें, औरतें और मौपासां’। उस लेख में मार्सेल प्रूस्त का उल्लेख बार-बार आता था। प्रूस्त ने मौपासां की भाषा की सहजता और अभिव्यंजना की प्रशंसा की, किंतु उनके यथार्थ को सतही और सीमित अनुभव-बोध पर आधारित माना। एमिल ज़ोला की कृतियों में अंतर्निहित सामाजिक प्रतिबद्धता के प्रति उनमें सम्मान का भाव था, परंतु उनके नैसर्गिक यथार्थवाद को विवेचनात्मक गहराई से शून्य माना। इसके विपरीत, बाल्ज़ाक की रचनात्मक दृष्टि, उनके लेखन में सामाजिक धरातल की व्यापकता और चरित्रों की गहनता ने प्रूस्त को गहरे प्रभावित किया। यह प्रभाव उनके ‘इन सर्च ऑफ लॉस्ट टाइम’ में स्पष्टत रूप से लक्षित होता है।

    Reply
  4. विनय कुमार says:
    1 day ago

    हर बार चकित करते है Kumar Ambuj! लेखक और फ़िल्म निर्माता के साथ वे एक त्रिभुज बना रहे यहाँ।
    अब तो किताब की प्रतीक्षा।

    Reply
  5. निशांत कौशिक says:
    1 day ago

    लालित्यपूर्ण गद्य! इसका स्वागत है।
    कुमार अम्बुज को शुभकामनाएँ।

    पिछले लगभग डेढ़ साल में प्रूस्त के “इन सर्च ऑफ लास्ट टाइम” की जिल्दें पढ़ीं।
    लेकिन फ़िल्म कभी नहीं देखी थी।

    प्रूस्त के यहाँ स्मृति, नॉस्टेलजिया नहीं है।

    बेन्यामिन और अन्य समीक्षकों ने प्रूस्त के गद्य की तरह-तरह से व्याख्या की है। बेन्यामिन बताते हैं कि प्रूस्त ने बुद्धि और प्रयासजन्य स्मृति के बरक्स एक अनिच्छा स्मृति पर अपना यह महा-उपन्यास तैयार किया है जहाँ वस्तुएँ, चित्र और घटनाएँ स्मृति का उद्दीपन हो सकती हैं, शर्त नहीं।

    गिने-चुने लेखकों ने प्रूस्त पर बोला है, हवाला दिया है, चर्चा छेड़ी है।
    उनपर और अधिक बातें होनी चाहिए।

    समालोचन का धन्यवाद।

    Reply
  6. रोहिणी अग्रवाल says:
    1 day ago

    भाषा जब सांस की नर्म छुअन के साथ अंतर के तलघर में उतरती चलती है, और ठीक उसी पल सांस को साध कर बाहर की ओर खुलने वाली खिड़की का पल्ला जरा सा खोल देती है, तब संवाद की उत्कंठा से भर कर अंतरिक्ष चला आता है वहां। यह अनहद नाद है। प्रूस्त ने इसे सुना और रचा। अंधेरों में उजालों के समंदर भर कर । विस्मृति की खोह में विलीन होती स्मृति की बांह गह कर। स्मृति को मुक्त करना जीवन का सृजन करना है। जीवन का सृजन करना अनायास आकाशदीप बन जाना है।
    विराटता को साक्षी भाव से देखना रचने जैसा ही आह्लादकारी अनुभव है। कुमार अंबुज देखने के दौरान सिर्फ देखते नहीं, सुनते भी हैं। प्राउस्त को! समय को! काल के बंधनों को अस्वीकारती वर्तमानता को! और अपने को! यह अपने को ‘सुनना‘ ही उन्हें विशिष्ट बनाता है। आलोचना को सृजन का औदात्य देकर। भाषा में अपने होने की गंध बसा कर। तरलता में दर्शन की ओर मुडती वैचारिकता की प्रकाश-उर्मियां भर कर।
    शोर और उन्माद से भरे इस विश्व-समय में ऐसी ही भाषा की जरूरत है। आत्मालोचन करती हुई। आत्म का पुनर्सृजन करती हुई।
    कुमार अंबुज जी और अरुण देव का आभार।

    Reply
  7. अमिता शीरीं says:
    1 day ago

    कमाल है मैं भी स्मृतियों में उलझ रही हूं इन दिनों! इसे पढ़ना एक इनसाइट दे गया! एक बार पढ़ना पर्याप्त नहीं है, कई बार पढ़ना होगा! फिल्म देखने की कोशिश करती हूं 🌼

    Reply
  8. नरेश गोस्वामी says:
    1 day ago

    कुमार अंबुज का यह गद्य एक ऐसे महीन हिमपात की तरह है जो अलग से दिखाई नहीं देता‌। लेकिन, जब हम वापस लौटते हैं तो अंदर तक भीगे हुए होते हैं।
    अंबुज जी ने यह एक नई विधा विकसित की है जो फ़िल्म का विश्लेषण/पुनर्पाठ/या समीक्षा आदि न होकर बाक़ी वह सब कुछ है जिससे कला-चिंतन और रचनाशीलता का एक स्वायत्त अनुशासन आकार ग्रहण करता है।

    Reply
  9. अंचित says:
    1 day ago

    क्या अद्भुत गद्य! प्रूस्त को पढ़ना और समग्रता में पढ़ना हर पढ़ने वाले का सपना होता है। स्मृतियों का वह सबसे बड़ा लेखक है और पढ़ने में बेहद कठिन और धैर्य की मांग करता हुआ। कुमार अंबुज की लिखत में सबसे पहले तो प्रूस्त को पढ़ने के सूत्र हैं, उनको पहचानने के सूत्र हैं। फिर यह भी कि मुझे यह लिखत भले प्रूस्त के बहाने लिखी गई है, मुक्त कविताओं की तरह लग रही है। फिल्म तो है ही पर उससे भी आगे। कवि और समालोचन दोनों का धन्यवाद।

    Reply
  10. नरगिस फ़ातिमा says:
    1 day ago

    “लेकिन किसी भी तरह की ऐयाशी, कितने भी तरह के ये नाना प्रकार भीतर की शून्यता और अशांति को ढाँप नहीं पाते. अनेक देहों से संसर्ग सुख आंतरिक दुखों को कतई कम नहीं कर पाते. प्रतिदान में सच्‍चा प्रेम न पा सकने या प्रेम न कर सकने का भय पीछा करता रहता है. बाक़ी कोई दूसरा भौतिक भय नहीं. सुविधाओं का अभाव नहीं. लेकिन जो जीवन में संभव होता नहीं दिखता, वह प्रेम है”

    ये नस्र भी नज़्म की मानिंद है। कुमार अम्बुज जी और अरुण देव साहेब का बहुत शुक्रिया!🌸

    Reply
  11. दीप्ति कुशवाहा says:
    23 hours ago

    अंबुज जी का यह गद्य प्रूस्त की स्मृति-केंद्रित गहराइयों के समानान्तर चलता हुआ एक आंतरिक यात्रा-वृत्तांत है, जहाँ आलोचना और सृजन एकमेक हो जाते हैं। यह न तो परंपरागत आलोचना है, न ही सामान्य पाठकीय व्याख्या—बल्कि यह स्वयं भाषा में घटित होता हुआ ‘प्रूस्त-संवाद’ है। यहाँ अनुभव की सूक्ष्मता, समय की पारगम्यता और स्मृति की तरल संरचना एक ऐसी शैली रचती हैं, जो आत्मालोचन के माध्यम से आत्म की पुनर्रचना करती है। यह लेखन विधा की नहीं, संवेदना की नई संरचना है—जिसमें शोर के विरुद्ध एक मौन लेकिन जीवंत आह्वान गूंजता है।

    Reply
  12. Anonymous says:
    22 hours ago

    बहुत सुंदर। गद्य को कविता की तरह लय में लिखा गया लगता है लेकिन ठहरकर पढ़ना पड़ता है. इसे पढ़ते हुए इसमें डूबना उतराना है.

    Reply
  13. शशिभूषण says:
    20 hours ago

    बहुत सुंदर।

    भाषा का सिनेमा है कुमार अम्बुज जी का सिनेमा विषयक लेखन।

    मैं अगर इस निबंध की प्रशंसा में कुछ कहूँ यानी साबित करूँ कि मैंने समझ लिया या कि मैं समझने के लायक हूँ, तो यह ऐसा ही होगा जैसे ग़रीब के शब्दों में अमीर की प्रशंसा। मैं अनुमान करता हूँ कि ग़रीब अमीरी की प्रशंसा करे, तो उसमें बहुत अधिक भाषा होगी, ‘मुखर’। ‘अव्यक्त’ जो होगा वो ‘कमी’ होगी।

    अम्बुज जी इतनी सघनता, इतने एकांत और हृदयग्राही विदग्धता से व्याप्तिपूर्ण लिखते हैं कि यह मुग्ध कर लेता है।

    सिनेमा के लिए एक टीम होती है। इस भाषा सिनेमा के अकेले अम्बुज जी टीम हैं। यह अप्रतिम उपलब्धि है।

    क्या कहूँ अधिक…

    आत्मबल से कहता हूँ कि अम्बुज जी की लेखक धारिता मुझे “द बुक ऑफ़ मिरदाद” के लेखक मिखाइल नईमी की-सी लगती है। अंतर केवल यह है कि उन्होंने ‘विहार’ को विषय वस्तु बनाया और आपने फ़िल्म का चुनाव किया है।

    ‘विहार’ सा ही ‘सिनेमा’ भी मानवता का सहचर है यह कुमार अम्बुज जी ही भान करा सकते थे।

    जब ये निबंध पुस्तक में सचित्र होंगे तब मुझे केवल एक ही अपेक्षा लगती है कि इस किताब की साज सज्जा में भी सौंदर्य का ख़याल रखा गया हो।

    इस किताब की डिजाइन पुस्तक प्रकाशन में भी कुछ नया जोड़ सकती है।

    • शशिभूषण

    Reply
  14. Pooja Singh says:
    19 hours ago

    आदरणीय अग्रज कुमार अम्बुज जी की कलम से ही यह सम्भव था। सुबह से लगी और काफी समय बाद जाकर मैं पूरा पढ़ पाई। सुबह से ही एक-एक पार्ट पढ़कर उसे सोचती रही। अपने जीवन से जोड़ती रही। मैं भी स्मृतियों की आकाशगंगा में खोई रहती हूं। इस सार्थक लेख के लिए कुमार अम्बुज जी और आप, दोनों को बधाई।

    Reply
  15. Chandrashekhar Sakalley says:
    9 hours ago

    अद्भुत, कल्पनातीत। शास्त्रीय सिनेमा का शास्त्रीय साहित्य में इतना गहरा रुपांतरण अंबुज जी के सिवाय और कहीं संभव नहीं।

    Reply
  16. हीरालाल नागर says:
    59 minutes ago

    पहले तो पढ़ना शुरू नहीं होता, उसे अगले दिन, चंद घंटों के लिए खिसका दिया जाता है। जानता हूं कि यह कुमार अम्बुज का गद्य है। एक बार शुरू किया तो छोड़ा नहीं जा सकता। यही हुआ। विचार अपनी सतह तोड़ता हुआ बढ़ रहा है और उधर भाषा भी निर्बंध होकर बहती चली आ रही है कि प्रूस्त और कुमार अम्बुज को अलग कर पाना असंभव सा प्रतीत हो रहा है। ,’विवेक कहता है विश्वास मत करो। लेकिन कामनाओं के आगे विवेक एक पराजित योद्धा है। वासनाएं शक्तिशाली होती हैं, ये अधिक प्रमाण या व्यवधान नहीं चाहतीं हैं। यही ‘केच’ है-प्रेम पागलपन है, दुर्निवार है। ‘ इतना पढ़ने के बाद, लगता है जैसे किसी बड़ी यात्रा से होकर लौटे हैं।

    हीरालाल नागर

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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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