‘अदाकारी मेरा स्वभाव है.’
मोहन अगाशे से अरविंद दास की बातचीत
मैंने मोहन अगाशे से कहा कि आप में ‘बहुवस्तुस्पर्शिनी प्रतिभा’ है, जो एक साथ कई चीजों को छू सकती है. फिर मैंने उनसे पूछा कि मराठी भाषा में भी कोई शब्द तो होगा इसके लिए. उन्होंने कहा कि ‘अष्टपैलू’ – जो एक साथ आठ चीजों को करने में माहिर हो. पर दो घंटे तक विभिन्न विषयों पर उनसे हुई बातचीत में वे ख़ुद के लिए इस विशेषण के इस्तेमाल से मना करते रहे. वे कहते रहे कि ‘मैं एक साधारण मनुष्य हूँ.’
अभिनय प्रतिभा की वजह से पद्मश्री, संगीत नाटक अकादमी समेत अनेक पुरस्कारों से देश-विदेश में सम्मानित अगाशे रंगकर्मी, हिंदी-मराठी सिनेमा के अदाकार, मराठी फिल्मों के प्रोड्यूसर, मनोचिकित्सक और दृश्य-श्रव्य माध्यम के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने वाले एक्टिविस्ट हैं.
पिछले महीने जब मैं पुणे आया उनसे फोन और मैसेज के जरिए टच में था. इससे पहले दिल्ली से मैंने उनसे फोन पर दो-चार बार बातचीत की थी.
वर्ष 1947 में जन्मे अगाशे इन दिनों थोड़े अस्वस्थ रहते हैं. फिर भी उन्होंने दो अक्टूबर को दोपहर एक बजे शहर के पुराने हिस्से में मिलने के लिए कहा. मैं साढ़े बारह बजे उनके घर पहुँच गया. अपार्टमेंट के गेट से अंदर होते ही मैं मकान की तलाश कर रहा था कि एक दरवाज़ा खुला दिखा और वे दिखे. मैं उनके घर में दाखिल हो गया. वे फोन पर किसी से बातचीत कर रहे थे. मैंने माफी मांगते हुए कहा कि मैं पहले तो नहीं आ गया, उन्होंने कहा हाँ, फिर कहा कि मुझे यह बातचीत खत्म कर लेने दीजिए.
फोन स्पीकर पर था और मैं बातचीत सुन रहा था. दूसरी तरफ एक भद्र महिला उनसे बुर्जुगों के लिए दिल्ली में एक एक्टिंग वर्कशॉप के सिलसिले में बात कर रही थी. बातचीत के बीच-बीच में वे मुझे देखते हुए आँख मारते हुए मुसकुरा भी देते थे. खैर बातचीत जब खत्म हुई तब उन्होंने मुझे मेल का प्रिंट आउट पढ़ने के लिए दिया जो उस महिला ने उन्हें भेजा था. फिर टिप्पणी की: बुर्जुगों के लिए ‘मैथड एक्टिंग’ का वर्कशॉप, समझ में नहीं आता !
उन्होंने कहा कि मैंने कभी कोई एक्टिंग कोर्स नहीं किया. हाँ, जैसा कि बचपन में होता है हम सब कभी-कभी अपने शिक्षक या पिता की मिमिक्री करते हैं. मैं भी करता था, जब चार-पाँच साल का था. यह भी संप्रेषण का एक माध्यम है.
अभिनय मेरे स्वभाव में है. मेरे लिए खुद और दुनिया को जानने का यह एक तरीका रहा है. और यह अवचेतन में है. जिस स्कूल में मैं गया वहाँ पर कुछ शिक्षक ऐसे थे जो रंगकर्म में अच्छे थे और छात्रों को नाटक के लिए प्रोत्साहित करते थे. हर साल स्कूल के नाटक के लिए वे छात्रों का चयन करते थे. उसी समय सई परांजपे और अरुण जोगेलकर ने बच्चों के लिए थिएटर की शुरुआत की जहाँ वे ‘बालोदयान’ के लिए ‘टैलेंट हंट’ करते थे. यह कार्यक्रम ऑल इंडिया रेडियो, पुणे के लिए होता था. लेकिन ‘बालोदयान’ से पहले मैंने रवींद्र जन्मशती (1961) के अवसर पर उनके नाटक ‘डाकघर’ में अमल की भूमिका की थी. अमल, एक ऐसा बच्चा है जो मरणांतक रोग से पीड़ित है. वह कहीं बाहर नहीं जाता, बस खिड़की के पास जाकर दोस्त बनाता है.
क्या यह ऑल इंडिया रेडियो के लिए आपने किया?
नहीं, देखिए महाराष्ट्र में एमेच्योर थिएटर की परंपरा रही है. विजया मेहता ने रंगायन की शुरुआत की, सत्यदेब दुबे ने थिएटर ग्रुप की. भालवा ने प्रोग्रेसिव थिएटर एसोसिएशन की शुरुआत की. यह महाराष्ट्र कलोपासक के तत्वावधान में हुआ था और साधारण जनता के लिए था. इसी दौर में मैं बालोदयान में भी भाग लेता था.
इसी बीच उनकी ‘हेल्प’ आ गई और मराठी में उन्होंने कहा कि दो-तीन दिन से फ्रिज से निकाल कर खाना खाता रहा हूँ.
वे अकेले रहते हैं और शादी नहीं की है. ड्राइंग रूम के बीच में एक बड़ा-सा मेज, उस पर दवा के कुछ डिब्बे, एक टिफिन का डब्बा, कुछ किताबें और तीन मोबाइल फोन. कुर्सियां और दो-तीन अलमारी. बेहद साधारण घर, अतिरिक्त सुरुचि की कोई गुंजाइश नहीं.
बातचीत जारी रखते हुए उन्होंने बताया कि सई परांजपे, गोपीनाथ तळवलकर और नेमिनाथ बालोद्यान से जुड़े थे. नेमिनाथ मिमिक्री में पारंगत थे और मैंने उनसे ही मिमिक्री सीखा. काफी अह्लादकारी था यह. मैंने सई के नाटक ‘निरुपमा आनी परीरानी’ में काम किया जिस पर विनय काले ने बाद में फिल्म (1961) बनाई और मैंने उसमें पिनाचियो की भूमिका निभाई. एक तरह से यह मेरी पहली फिल्म थी. मैं सई की तीन-चार नाटक में काम किया.
तो आप पहले एक्टर बने, फिर डॉक्टर और बाद में फिल्म और टेलीविजन संस्थान, पुणे के डायरेक्टर?
मैं कहना यह चाह रहा था कि जो कोई भी अदाकार बनता है बाद के जीवन में, असल में उसकी शुरुआत बचपन में ही हो जाती है. जरूरी नहीं कि स्टेज पर हो, घर ही उसके लिए स्टेज होता है.
उनकी ख्याति विजय तेंदुलकर के लिखे नाटक ‘घासीराम कोतवाल’ से हुई. उन्होंने बीस वर्षों तक (1972-1992) देश-दुनिया में इस नाटक का मंचन किया. वे कहते हैं कि वर्ष 1975 के आते-आते यह नाटक भारतीय रंगकर्म में एक ‘माइलस्टोन’ बन चुका था. इस नाटक को बीस अंतरराष्ट्रीय नाटक समारोहों से निमंत्रण मिला था और उन्होंने 12 में भाग लिया, जिसमें कुल 61 प्रदर्शन हुए थे.
मैंने उनसे कहा कि मुझे घासीराम कोतवाल में आपको देखने का सौभाग्य नहीं मिला, लेकिन उन्हें (नाम लिखने से उन्होंने मना किया था) घासीराम में देखा है.. मुझे बीच में टोकते हुए, अभिनय करते हुए कहा कि उनका अभिनय तो घटिया था, मेरे मित्र हैं फिर भी…
बातचीत को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि उस दौर में फिल्मी और रंगमंच की दुनिया का ऐसा कोई शख्स नहीं था जिसने यह नाटक नहीं देखा हो. और यही वजह रही कि श्याम बेनेगल जब ‘निशांत’ (1975) लेकर आए तो बिना किसी स्क्रीन टेस्ट के अगाशे को अपनी फिल्म में लिया, जबकि अगाशे अपनी तस्वीरों, रिपोर्ट आदि के साथ तैयार होकर उनसे मिलने गए थे. असल में निशांत का स्क्रिप्ट विजय तेंदुलकर ने लिखा था. फिर इसके बाद ‘मंथन’ फिल्म में भी वे साथ रहे.
मैंने उन्हें बताया कि पिछले दिनों जब एक बार फिर से ‘मंथन’ को संरक्षित कर सिनेमाघरों में रिलीज किया गया तब दर्शकों में काफी उत्साह था. प्रसंगवश, इस फिल्म में अगाशे ने एक डॉक्टर के किरदार को परदे पर निभाया है.
अगाशे ने कहा कि ‘चूंकि मनोचिकित्सा में मेरी काफी रुचि थी इसलिए मैं पुणे छोड़ कर बंबई नहीं गया और साल में एक-दो फिल्में करता रहा’.
बाद में समांतर सिनेमा के मणि कौल, गोविंद निहलानी, गौतम घोष, प्रकाश झा जैसे निर्देशकों के साथ उन्होंने काम किया. पर वे सत्यजीत रे के साथ अपने काम का खास तौर पर जिक्र करते हैं. वर्ष 1981 में बनी ‘सद्गति’ फिल्म और टीवी सीरीज में उन्होंने रे के साथ काम किया था. वे कहते हैं:
‘मैं सत्यजीत रे के ऊपर कुछ भी बात कहने का अधिकारी नहीं हूँ. वे मेरे लिए कद्दावर निर्देशक, कलाकार हैं, जैसा कि वे सबके लिए हैं. उन्होंने मुझे एक पत्र लिख कर सद्गति फिल्म का हिस्सा बनने का निमंत्रण दिया था, जिसे मैंने बिना विलंब किए स्वीकार किया.’
हालांकि अगाशे अपने करियर में समांतर के साथ मुख्यधारा की फिल्मों में भी काम करते रहे. वे कहते हैं कि मैं ऐसी फिल्मों में विश्वास करता हूँ जो मनोरंजन से आगे बढ़ कर आपको सोचने पर मजबूर करे. चर्चित फिल्मकार प्रकाश झा की बिहार की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों मसलन, मृत्युदंड, अपहरण, गंगाजल में उन्हें दर्शकों ने खूब सराहा था. बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि जब झा की राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म ‘दामूल’ को दर्शक नहीं मिले तब उन्होंने कहा कि ‘मैं अपनी कहानी कहूँगा लेकिन उसकी भाषा बॉलीवुड की फिल्मों की होगी’.
यह सत्तर-अस्सी के दशक में चले समांतर सिनेमा आंदोलन पर भी एक टिप्पणी है. मणि कौल, कुमार शहानी जैसे प्रयोगशील फिल्मकारों की फिल्में भले फिल्म समारोहों में सराही गईं, पर उन्हें दर्शक नहीं मिले.
वे बातचीत में मणि कौल की फिल्म ‘घासीराम कोतवाल’, जिसमें वे एक किरदार थे, की अबूझ होने को लेकर आलोचना करते हैं. वे टिप्पणी करते हैं कि कौल और शहानी की फिल्मों में किरदार एक मानव के रूप में बात नहीं करते, वे महज ‘प्रॉप्स’ हैं वहाँ. हालांकि मणि कौल की फिल्म ‘दुविधा’ की वे तारीफ करते हैं. आषाढ़ का दिन फिल्म के लिए श्रेय वे लेखक मोहन राकेश को देते हैं यह कहते हुए कि मणि ने कहानी को हू-ब-हू परदे पर उतार दिया.
बातचीत के बाद उन्होंने मुझे घासीराम कोतवाल की एक डीवीडी देते हुए (मैंने उनसे खरीदा), कहा कि देख कर बताइएगा यदि कुछ समझ आए. तेंदुलकर ने नाटक को आधार बनाते हुए खूबसूरत स्क्रिप्ट लिखा था. मणि इस फिल्म में जब अंग्रेज भारत आए तब जमीन के माप के सवाल के इर्दगिर्द सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों का विश्लेषण करना चाहते थे.
अगाशे ने फिल्म के बारे में एक वाकया सुनाते हुए कहा कि श्रीराम लागू ने फिल्म देखने के बाद एक वक्तव्य दिया था:
‘मैंने कभी नहीं सोचा था कि जीवन में ऐसा भी होगा कि मुझे कोई मराठी फिल्म समझ नहीं आएगी. घासीराम एक ऐसी फिल्म है जो मुझे समझ नहीं आई.’
जब मैंने उनसे गिरीश कर्नाड से उनके संबंधों के बारे में पूछा तब उन्होंने कहा कि वह मेरा दोस्त था, पर हमारे संबंध पेशेवर नहीं थे. उसने मुझे अपनी किसी फिल्म में नहीं लिया था. हाँ, वह जीनियस था, पर अच्छा एक्टर नहीं था. नाटक उसने लाजवाब लिखे हैं. आप देखिए कि मंथन में भी नसीर (नसीरुद्दीन शाह) उस पर भारी है.
जब बात वर्तमान बॉलीवुड फिल्मों की होने लगी तब वे ‘लापाता लेडीज’ और ‘बधाई हो’ जैसी फिल्मों की सराहना करने लगे, पर ये जोड़ना नहीं भूले कि आज कल बॉलीवुड ‘बाहुबली’ फिल्म से ज्यादा प्रभावित हैं. ओटीटी उभार के सवाल पर वे कहते हैं कि पहले इन प्लेटफॉर्म ने प्रतिभाशाली फिल्मकारों को मौका जरूर दिया लेकिन अब वे खुद प्रोड्यूसर बन गए हैं!
मराठी फिल्म निर्माता सुमित्रा भावे के साथ उन्होंने ‘अस्तु’, ‘देवराई’ और ‘कासव’ फिल्मों का निर्माण किया है. मानसिक बीमारी को केंद्र में रख कर बनी इन फिल्मों में विभिन्न किरदारों में अगाशे खुद मौजूद हैं. वे कहते हैं कि पापुलर सिनेमा में मानसिक बीमारी और मनोचिकित्सा का मजाक बनाया जाता रहा है. साथ ही जोड़ते हैं कि ‘तारे जमीन पर’ एक अलग फिल्म थी.
इस सवाल पर कि पुणे शहर उनकी रचनात्मक जिंदगी में किस रूप में मौजूद रहा है, वे वे निराश हो कर कहते हैं कि पुणे में अब संस्कृति नहीं बची है, कॉस्मोपोटिलन होकर उसने अपनी पहचान खो दी है. यदि आप मराठी में बात करेंगे तो लोग घूरते हैं. यह पूछने पर कि उन्हें थिएटर-सिनेमा के कलाकार या मनोचिकित्सक, किस रूप में ज्यादा ख़ुशी मिलती है.
अभिनय और मनोचिकित्सा जीवन की दो धाराएँ रही हैं. वे दुहराते हुए कहते हैं कि ‘अदाकारी मेरे स्वभाव का हिस्सा है.’
आखिर में मैंने फिर से अपनी वही बात दुहराते हुए कही कि आपने बहुवस्तुस्पर्शिनी प्रतिभा को जीवन में कैसे साधा? फिर टका सा वही जवाब- मैं एक साधारण मनुष्य हूँ. फिर बात को बदलते हुए उन्होंने कहा कि
‘जब आप मुड़ कर अपने जीवन को देखने लगते हैं तब समझ लीजिए बुढ़ापा आ गया है.’
अगाशे सहज, जीवन से भरपूर, एक दिलचस्प व्यक्ति हैं.
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अरविंद दास लेखक-पत्रकार. डीयू, आईआईएमसी और जेएनयू से अर्थशास्त्र, पत्रकारिता और साहित्य की मिली-जुली पढ़ाई. एफटीआईआई से फिल्म एप्रीसिएशन का कोर्स. जेएनयू से पत्रकारिता में पीएचडी और जर्मनी से पोस्ट-डॉक्टरल शोध. डीवाई पाटिल इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, पुणे के स्कूल ऑफ मीडिया एंड जर्नलिज्म में प्रोफेसर-डायरेक्टर.‘बेखुदी में खोया शहर: एक पत्रकार के नोट्स’ और ‘हिंदी में समाचार’ ‘मीडिया का मानचित्र’ किताबें प्रकाशित. रिलिजन, पॉलिटिक्स एंड मीडिया: जर्मन एंड इंडियन पर्सपेक्टिव्स के संयुक्त संपादक. मीडिया के विभिन्न संस्थानों में बीस वर्षों से अधिक पत्रकारिता का अनुभव |
2014 में मैंने भी उनसे एक लंबी बातचीत की थी। यह अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित “मनोचिकित्सा संवाद”। में प्रकाशित है।
संक्षिप्त होते हुए भी यह बातचीत मोहन जी के विचारों से गहराई से परिचित कराती है। बहुत बधाई।
उनके व्यक्तित्व का बेहद दिलचस्प पहलू उनकी विनोदप्रियता और जीवन को बिना भारी बनाए गंभीर बातें सिर्फ इंगित करते हुए कह जाने की है। संभवत: मनोचिकित्सा से उनका जुड़ाव उनके व्यक्तित्व का यह पहलू समृद्ध करता है। फोन पर उनसे अस्तु फिल्म के उद्घाटन समारोह से जुड़ी बातचीत की स्मृतियां हैं।
दिलचस्प बातचीत।
चिरपरिचित कलाकार के मन को संवादों में पढ़ना रुचिकर अनुभव से गुज़रना है।
बहुत अच्छी बातचीत के लिए धन्यवाद. सबसे अच्छा काम आपने यही किया कि घासीराम कोतवाल की डीवीडी खरीद ली. भले ही लोग कहे कि बहुत खराब फिल्म है क्योंकि नाटक और फिल्म में कोई तालमेल नहीं है, लेकिन उन्हें यह समझना चाहिए कि फिल्म नाटक नहीं है.