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Home » मोहन राकेश : रमेश बक्षी

मोहन राकेश : रमेश बक्षी

यह मोहन राकेश (8 जनवरी, 1925 - 3 दिसंबर, 1972) का जन्म शताब्दी वर्ष है. उनके नाटकों के प्रदर्शन और उनके साहित्य को समझने का यह वर्ष होना चाहिए. आधुनिक हिंदी साहित्य के वे एकमात्र ऐसे लेखक हैं जो जितने महत्वपूर्ण कथाकार हैं उतने ही महत्वपूर्ण नाटककार भी. जिस तरह से उनका जीवन है अगर वे किसी यूरोपीय देश में होते तो उनपर न जाने कितनी फ़िल्में बन चुकी होती. दिसम्बर 1972 में उनका देहांत हुआ और रमेश बक्षी के संपादन में जनवरी 1973 में आवेश का यह अंक प्रकाशित हुआ. इस आलेख में रमेश बक्षी ने उन्हें जिस तरह से याद किया है, वह अपने आप में उनके महत्व और प्रभाव को दर्शाता है. इस पत्रिका के कुछ ही अंक निकले. मनोज मोहन ने इस पत्रिका को तलाश कर यह आलेख आपके लिए सुलभ किया है. यह ख़ास आलेख प्रस्तुत है.

by arun dev
June 11, 2025
in आलेख
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मोहन राकेश : रमेश बक्षी
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एक काँच का ग्लास
रमेश बक्षी

एक भरा हुआ ग्लास किसी के हाथ से छूटकर गिर गया था. एक क्षण के लिए सबकी नज़र उस पर पर गई न गई कि मैं उठकर खड़ा हो गया था. ग्लास ने गिरकर सारे गुस्से पर विराम लगा दिया था. मैं उठा और सीढ़ियाँ उतर गया. उन दोनों में से किसी ने भी मेरी तरफ़ नहीं देखा. मेरी मुट्ठियाँ तनी हुई थीं और सीढ़ियाँ उतरते मैंने देखा था मोहन राकेश के चेहरे पर भयंकर खीज थी. निर्मल वर्मा ख़ासे तरन्नुम में थे और शायद उन्हें पता भी नहीं कि क्या हो गया.

उस शाम मैं निर्मल के साथ था और जब रात काफ़ी बीत गई तो यह तय किया गया कि किसी के घर जाया जाय. हम दोनों चले. साथ में बची हुई बोतल भी थी. मैं जहाँ तक संभव हुआ राकेश से मिलने तब ही गया हूँ जब फ़ोन पर अपाइंटमेंट ले लिया है. लेकिन उस रात, क्योंकि निर्मल लंदन से लौटे लौटे ही थे और सब दोस्तों से मिल रहे थे, सोचा कि चलो आज बिना तय किये ही सही. राकेश जितने प्यार से मिले उसने मज़ा ला दिया. बात नाटक और थियेटर से उठकर पिछले बरसों की हिंदी कहानी पर आ गई. निर्मल अपने अंदाज में बोले थे, ‘यह जो कमलेश्वर ने ऐयाश प्रेत लिखा था मैं सोचता हूँ उसमें इंटेंशन ठीक नहीं था.’

राकेश पल भर में हमसे सहमत हो गये लेकिन जमकर कमलेश्वर की डिफ़ेंड करने लगे—  ‘बात यह है निर्मल, कमलेश्वर ने जो लिखा और बात को जिस तरह उछाला उसकी बड़ी ज़रूरत थी. तुम तो यहाँ थे नहीं’. निर्मल ने कहना चाहा— ‘लेकिन नई पीढ़ी का विरोध किस लिए?’  राकेश को पाइंट मिल गया— ‘अब जिसे नई पीढ़ी कहते हैं उसके लेखन को देखो तो वह क्या है आख़िर, क्या लिखा जा रहा है आख़िर उसमें. मैं कहता हूँ उसमें गलाजत है. बुरा मत मानना लेकिन उसके लेखन में से मुझे सड़ी हुई बदबू आती है.‘

मैंने राकेश की तरफ़ देखा था. मेरी तरफ़ मुख़ातिब होकर वह बोले— ‘उसमें से क्या रमेश, मुझे तुम्हारे लेखन में से भी वही स्मेल आती है.’  मैंने राकेश की तरफ़ देखा और फट से कह दिया ‘इसमें मेरा क्या दोष है जिसकी नाक ही सड़ गई हो उसे हर चीज़ में से बदबू आती ही दिखाई देगी.’

पता नहीं ग्लास उस बिंदु पर राकेश के हाथ से छूटा या मेरे. मेरे हाथ से छूटा होगा क्योंकि मैं उसी क्षण वहाँ से उठ गया था.

सच तो यह कि राकेश मुझे नापसंद करने लगे थे और बदले में मैं उन्हें करने लगा था. इस बात की शुरुआत कब हुई पता नहीं. लेकिन एक कड़ुआहट थी कि पिछले छह-सात बरस से सान पर चढ़ती जा रही थी.

जब भी दूधनाथ सिंह दिल्ली आते और मुलाक़ात होती, मेरा पहला वाक्य होता था-  ‘राकेश के घर तो हो आये होगे?’

जब भी राकेश की किसी बड़े लेखक से तुलना की जाती, मैं कहता-  ‘मोहन यानी कृष्ण और राकेश यानी चंद्र…. वाक़ई राकेश का लेखन कृष्णचंद्र के लेखन के समानांतर है…’

जब भी किसी नये लेखक से पहचान हुई मैं उसे राकेश से भिड़ा देता. संपादक होता तो अपनी संपादकीय टिप्पणी में जड़ देता कि राकेश का भावबोध सांस्कृतिक और पाठ्य पुस्तकीय है.

जब भी पद्मश्री की लिस्ट या किसी सरकार के पुरस्कारों की सूची आती मैं उसमें राकेश का नाम ढूँढता.

जब भी भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार की चर्चा चलती मैं कहता यह पुरस्कार हिंदी के लिए राकेश को ज़रूर मिलेगा क्योंकि पुरस्कार की सारी पात्रता उनमें है.

जब भी राकेश की किताबों के विज्ञापन देखे, कहा- ‘अब कौन-सा प्रकाशक उनकी समस्त कहानियों को तीन भागों में छाप रहा हैं? हाँ राजपाल— पहले का नाम क्वार्टर तो दूसरे का नाम हॉफ़ और तीसरे का नाम फुल होगा.’

नहीं. मोहन राकेश न मेरे हमदम थे न दोस्त. नहीं, मैं उन्हें मेरा दोस्त, मेरा दुश्मन भी नहीं कह सकता .

 

 

राकेश एक संपन्न आदमी थे. हमेशा उनके पास फ़ोन होता, हमेशा वे फ़ोन करके टैक्सी बुला लेते. एक बार राजेन्द्र नगर में मेरे लिए भी टैक्सी बुलवा दी थी. वहाँ तो मैं उसमें बैठ गया था लेकिन ज़रा दूर आकर अपनी जेब का एकमात्र एक का नोट ड्राइवर को देकर पीछा छुड़ा लिया था. एक बार फ्रीलांसिंग के लिए राकेश से सलाह ली थी. राकेश ने मेरा बजट बना दिया था— नौ सौ रुपये में तुम्हारा काम चल जायेगा.  मैं अवाक् रह गया था. मैं तो केवल साढ़े तीन सौ कमाना चाहता था और वह भी दिल्ली में हो नहीं पा रहा था. उस दिन मैं राकेश से कट गया था. मुझे ऐसा लगा कि राकेश अभिजात वर्ग के हैं और उनकी मानसिकता भी उसी वर्ग की है. मैं उनसे न बात कर पाता, न उसकी सलाह पर अमल. एक बार जीवन की न्यूनतम जरूरत के बारे में राकेश ने कहा था— ‘एअर कंडीश्नर के बग़ैर रहना असंभव है और लिखने के लिए पहाड़ ज़रूरी है. मुझे फिर झटका पहुँचा था.’

कलकत्ता में अनामिका के द्वारा ‘लहरों के राजहंस’ खेला जाने वाला था. मैं उन दिनों ‘ज्ञानोदय’ में था और एक किसी संयोजक ने मुझसे फ़ोन पर पूछा— ‘राजहंसजी आ आ गये क्या ?’  मैं समझा नहीं कि वे किसके लिए पूछ रहे हैं.  उन्हीं सज्जन ने फिर कहा- ‘वही राजहंस जी जिनका नाटक ‘लहरों के राकेश’ खेला जा रहा है.’  मैंने लतीफ़ा राकेश को सुनाया था और उसके बाद मैं कई महीनों तक उन्हें इसी नाम से पुकारता रहा .

हाँ, याद आया, पहला झगड़ा हुआ था 1965 में निकले ‘समकालीन कहानी विशेषांक’ को लेकर. किसी ने राकेश से कहा होगा उसमें टी-हाउस के बारे में कुछ छप रहा है. मेरे पास पत्र आया-  ‘ऐसा कुछ है तो मैं सहयोग नहीं दूँगा.’  हुआ यह कि मैंने उस पहले भाग में राकेश की एक रेस लगाती तस्वीर छाप दी क्योंकि मेरे दिमाग में वह एक सफलतम व्यक्ति के रूप में स्थापित हो चुके थे. राकेश ने अंक देखते ही लिख दिया-  ‘अब सहयोग का सवाल ही नहीं उठता. यह आख़िरी ख़त है.’ मैंने भी उस क्षण उत्तर दिया-  ‘आख़िरी ख़त मिल गया लेकिन अगले अंक के लिए कहानी कब मिलेगी ?.’ उत्तर जाने से पहले ही राकेश का फिर पत्र आ गया-  ‘उस पत्र को कैन्सिल समझना, कहानी जा रही है.’

बाद में मैं जब दिल्ली आया तो राकेश से साफ़ पता चला कि हमें नई कहानी के एक ग्रुप को डेवलप करना है और फ़िजूल के हल्लेबाज़ों को उसमें कोई ज़रूरत नहीं है.

मैं दिल्ली की बात दिल्ली में ही छोड़ वापिस कलकत्ता चला गया. इससे पहले जब सारिका संपादक चंद्रगुप्त विद्यालंकार से मैं उलझ पड़ा था तो राकेश ने उनसे नये लेखकों के पक्ष में दस सूत्रीय फ़ैसले पर हस्ताक्षर करवाये थे. यह मुझे बहुत बाद में समझ में आया कि उसमें सारा झगड़ा पारिश्रमिक को लेकर था और सौदेबाज़ी ऐसे की गई थी जैसे हापुड़ की गुड़ मंडी में होती है. मज़े की बात यह कि उन दिनों कहानी को लेकर सारी योजनाएँ और तिकड़म दिल्ली में ही बनती थीं. ज़ाहिर है इन सबने हिंदी कहानी में एक गड़बड़ पैदा कर दी. देखें तो पता चलेगा नयों को लेकर सारा विद्रोह राकेश, यादव और कमलेश्वर पर जाकर ख़त्म हो जाता था. वह सारिका में रंगीन तस्वीरें छपने का हो या राजपाल या अक्षर से नई कहानी सीरीज का प्रकाशन. इन तीन के अलावा मन्नूजी का नाम जुड़ जाता था या पाँचवें सवार के रूप में रेणु का नाम घसीटा जाता था. यह अलग बात है कि राकेश इस सबसे एकदम बोर हो गये और इस कीचड़ से अपने को काट लिया जिसमें बाक़ी दो अब भी लिपटे हुए हैं.

राकेश से पहला झगड़ा कलकत्ता कथा समारोह के समय हुआ. वही हवाई जहाज़ से आने-जाने के किराये की बात और राकेश अड़े हैं कि मुझे मद्रास जाना है तो मद्रास जाने का एअर-फेअर दो. यह बहुत बाद में मेरी समझ में आया कि कोई पैसेवाला दिख जाये तो उसे मूँड़ना चाहिए.

समकालीन बोध वाली गोष्ठी में मैं लगातार अपने विद्रोह और एक सड़ी ज़िंदगी ढोने की विवशता की बात कर रहा था जब कि राकेश सब कुछ समाज की प्रतिबद्धता से जोड़ रहे थे. उस कथा समारोह में दस तरह के झगड़े थे लेकिन मेरा मन सबसे अधिक उस चिंतन पक्ष से ऊबा था जिसे हर कोई लेकर भाग रहा था.

एक बार और जब राकेश कलकत्ता आये थे. कहा मैंने था-  ‘आप जालान वालान से मिलकर लौट जाते हैं यह ठीक नहीं हैं. कई लोग हैं यहाँ जिनसे मिलकर आपको मज़ा मिलेगा.’  उत्तर मिला-  ‘एक शाम कॉफी हाउस चलेंगे और सबको निबटा देंगे.

दूसरी शाम हम साथ थे मैट्रो के पीछे शॉ-वेलेजली के पब में. सुनील गांगुली और संदीपन च‌ट्टोपाध्याय भी आ गये. शुरू में बात हज़ार तरह से शुरू हुई और फिर हमेशा वाला दृश्य उजागर था-  ‘और चाहिए.’

इस और चाहिये के बाद नंगे होने तक जेब  का एक एक पैसा दे देना होता है. एक आर्डर राकेश ने दिया और जेब से पर्स निकाल कर दस का एक नोट वेटर को दे दिया .

संदीपन ने ग्लास ख़ाली करके कहा— ‘और चाहिए.’ और बात की बात में सुनील और संदीपन राकेश पर पिल पड़े थे-  ‘तुम्हारी जेब में पैसा हम आँख से देख चुके हैं.’  राकेश ने मना कर दिया— ‘आई हेव मनी एंड आई रिफ्यूज़ टु पे.’  कहा सुनील ने था-  ‘आई हेव सीन मनी इन योर पाकेट एंड आई वुड मेक यू पे. तभी संदीपन ने कहा था-  ‘इट्स जेंटलमैन्स रूल. आई डोंट हेव मनी, वी थ्री डोंट हेव मनी एंड वी वोंट पे. एंड यू हेव टू पे. ‘जैसे-तैसे झगड़े को वहीं ठेलकर मैं राकेश को टैक्सी तक पहुँचाने गया था.

 ‘आपको दस बीस और ख़र्च कर लेना चाहिए था.

 ‘व्हाई?’

 ‘जस्ट .’

मेरे इस ‘जस्ट’ का कोई उत्तर नहीं है और राकेश का ‘व्हाई’ मुकम्मल था. लेकिन दूसरे दिन जब मिले तो पहले दिन का टेंशन ग़ायब था. हम बैठे थे अंबर में. राकेश ने काँटे से खेलते हुए कहा था- ‘कई बार तबीयत होती यह काँटा घुसा दिया जाय पेट में और इसे गोल-गोल घुमाकर अंदर से आँतों को बाहर खींच लिया जाये.’

‘लेकिन किसकी ?’

‘जिससे भी दुश्मनी हो.’

‘मैं ऐसा नहीं करूँगा. दुश्मनी में तो मज़ा होता है.’

राकेश हँस दिये— ‘तुम्हारी सारी पीढ़ी यही कहती है.’

 

 

एक बार भयंकर घबराई हुई मन: स्थिति में मैं राकेश से मिला था. उनके पास उस तरह के अनुभव थे और उनकी सलाह काम कर सकती थी. राकेश ने दस मिनट में सुना दिया—  ‘जाहिर है कि उसने तुम्हें नीचा दिखाया है.  ख़ैर अब अगर वाक़ई गुस्सा हो तो जाओ प्लेन से और उसे शूट करके लौट आओ.’ मैं चुप उनकी बात सुन रहा था. राकेश ने मेरे तनावों पर एक जुमला कसा और कहा-‘और नहीं तो चलो कुछ पीते हैं  या कहीं चलकर फ़िल्म देखते हैं.’  जाहिर है मैंने दूसरा काम ही किया लेकिन मन को लग गया कि चीज़ों को सुलझाने के इस आदमी के अपने तरीके हैं.

मैं, शायद इसलिए, कि मेरी हर बात उनके सामने गिर जाती थी या मुझे अपनी हर बात के उत्तर में एक तीखी प्रतिक्रिया ही मिलती थी, कारण खोजने लगा कि आख़िर बात क्या है जो राकेश से पटती ही नहीं.

कारण मुझे मिला नहीं और बदले में मेरे मन में राकेश की प्रतिमा एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभरने लगी. मैंने पिछले ‘आवेश’ में साफ़ लिखा था राकेश अब लिखने में उतने व्यस्त नहीं हैं जितने प्रकाशक-पटाऊ जन-संपर्क में. छोटी पत्रिकाओं की प्रदर्शनी के समय राकेश को आवेश का अंक देते हुए मैंने कहा था-  ‘आप आवेश लेना पसंद करेंगे ?’

उत्तर था— ‘क्या करें, इसे न उगल सकते हैं न निगल सकते हैं. हाँ, तुम इसे देना पसंद करोगे?’

मैं हमेशा लो-विटेड रहा हूँ लेकिन उस समय तपाक से बोला था— ‘मेरा हित इसी में है कि आप इसे निगल लें.’.

ठहाकों के बीच अंक राकेश ने ले लिया था जबकि दूसरे कई समकालीन लेखक प्रदर्शनी में झाँकने भी नहीं आये थे.

याद आया, कथा समारोह के अंक के लिए मैंने राकेश की कहानी शिड्यूल कर रखी थी. अंक छपने लगा तो राकेश ने एक टाईप किया पृष्ठ भेजा कि कहानी शुरू कर दी है बाक़ी कल-परसों में भेज दूँगा. चार दिन के बाद फिर एक पन्ना मिला. अंक मुझे रोकना पड़ रहा था और परेशान होकर मैंने लिखा- ‘अगर चार दिन में कहानी नहीं आई तो मैं खुद उसे पूरा कर दूँगा.’

चार दिन में कहानी आ गई. लिखा था-  ‘भेज रहा हूँ लेकिन जल्दी में मैं कहानी घसीटूँ, या तुम उसे पूरा कर दो एक बराबर रहेगा.’

मुझे यह बात लग गई. कहानी थी  ‘एक ठहरा हुआ चाकू’. जब मैंने उत्तर नहीं दिया तो राकेश ने अपनी पंक्ति लिख भेजी थी-  “यार से छेड़ चली जाये  ‘असद’.” लेकिन खुँदक मेरे मन में बनी ही रही. राकेश को जब नेहरू फैलोशिप मिली तो सबने बधाइयां भेजी थीं और मैंने अपना व्यंग्य :

‘ग़ालिब’ वज़ीफ़ा-ख़्वार हो दो शाह को दुआ
वो दिन गए कि कहते थे नौकर नहीं हूँ मैं’

राकेश ने कोई उत्तर नहीं दिया. साल भर बाद मुझे राकेश से मिलना था. बाकायदा मैंने समय लिया और ठीक समय से पहुँचा. कहीं एक क्षण को मुझे ऐसा लगा कि हमारे बीच भयंकर फार्मेलिटी ने जन्म ले लिया है. यह दूरी है या इसे कोई और नाम दे सकते हैं, पता नहीं मुझे. जब मैंने पूछा कि- ‘आपकी स्टडी कहाँ है.’ तो राकेश की आँखें चमक गईं.’ हम फिर अन्दर वाले कमरे में बैठे थे और दूरी अपने आप सिकुड़ गई थी.

अपना पहला नाटक लिखकर मैंने राकेश तक ख़बर पहुँचाई थी. विष्णु प्रभाकर की षष्ठी पूर्ति के समय मुलाक़ात हुई तो मैंने बतलाया- ‘अब दूसरा नाटक लिख रहा हूँ.’

राकेश ने कहा- ‘मुझे तीन नाटक लिखने में बारह साल लगे हैं.’

मैंने हँसकर कहा था- ‘लेकिन मैं बारह महीने में तीन लिखकर फेंक देना चाहता हूँ.’

राकेश ज़ोर से हँस दिये थे- ‘जब तीसरा लिख लो तो ख़बर करना.’

शिमला के लेखक-शिविर में हर दिन कोई न कोई बढ़िया बात होती. हर गोष्ठी में मुझे लगता कि हम लोग किसी न किसी बात पर उलझ पड़ेंगे.

हुआ भी यह कि एक दिन श्रीमती निर्मलप्रभा बारदोलाई ने पूछा- ‘हमने तो सुना था कि आपके हिंदी साहित्य में नये और पुरानों के बीच ख़ासा झगड़ा चलता रहता है लेकिन यहाँ तो दूधनाथ, रमेश और आप झगड़ ही नहीं रहे हैं. सारे समय हँसते रहते हैं.’ राकेश ने ठहाके के साथ कहा था- ‘आपके असम में भी शरीफ लोग घर के अंदर ही झगड़ते होंगे.’

फ़ोन किया था ओंप्रकाशजी ने राकेश को— ‘यह उपन्यास तुम कहते हो कि छाप दूँ लेकिन इसमें पहले पृष्ठ से ही मुर्दा और श्मशान आ गया है, लोग पढ़ेंगे कैसे ?’ राकेश ने कह दिया— ‘तुम ख़ातिर-जमा रखो उसे छाप दो. मैंने उसे पढ़ लिया है और वह बढ़िया है.’ दूसरे दिन जब घटना राकेश ने बतलाई तो मैंने पूछा लेकिन आपने उपन्यास कहाँ पढ़ा.

‘लेकिन यह तो कह ही सकता हूँ ना कि तुम्हारे उपन्यास के शुरू में लाश-वाश नहीं होगी तो किसके उपन्यास में होगी…?’

‘लेकिन उपन्यास बुरा भी हो सकता है.’

‘तो यह पाठक और प्रकाशक का मामला है, मुझे उससे क्या ?’

फिर मुझे प्रेस क्लब में राकेश के पीछे पड़ने का मौक़ा मिला था. ‘देवयानी का कहना है’ पर राकेश ने पहले तो अपनी कमेंट रिजर्व रखी फिर कहा— ‘उसमें बहुत कुछ काटा जाना था और अगर तीन-चार बार उसे लिखते तो.’

‘उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. बार-बार आपकी पीढ़ी लिखती होगी मुझे उसकी फुरसत नहीं .’

चूंकि मैं खीज गया था, राकेश ने मुँह फिरा लिया. मैं फिर टी-हाउस आकर अपने एक दोस्त से कह रहा था- ‘राकेश की तरफ़ देखो तो वह आदमी लेखक भी नहीं लगता. क्या लिखा है आख़िर उसने. केवल शोर और पब्लिसिटी में उसकी रुचि रही है. जो कहानियाँ हैं वे टिअर जर्कर (tear-jerker ) हैं; जो उपन्यास हैं वे बड़े कैनवास पर पोता गया सफ़ेदा हैं.’

जो दोस्त सुन रहा था उसने मेरे कंधे पकड़ लिये ‘ लेकिन यहाँ तो आस-पास कहीं राकेशजी नहीं हैं.’

 

मोहन राकेश : जन्म 8 जनवरी 1925 निधन – 3 दिसम्बर 1972.

मेरी डायरी में उद्धृत ‘परिवेश’ पृष्ठ 14 से राकेश की कुछ पंक्तियाँ :

“यह व्याकुलता, यह अस्थिरता, स्वभाव बनती जा रही है. कोई भी क्षण आनेवाले क्षण को जल्दी से पा लेने की चाह में, सहज नहीं रह पाता. जो हो, वहाँ से उठो, कहीं और चल दो. जो कर रहे हो, उसे छोड़ो, कुछ और करने लगो. पढ़ने बैठो तो दो-दो मिनट में पन्ने पलटकर देख लो कि अध्याय कहाँ समाप्त हुआ है. खाने बैठो तो चार मिनट में सब कुछ निगलकर हाथ धो डालो. काँच का ग्लास हाथ से छूट जाये तो उसके ज़मीन को छूने से पहले ही मान लो कि वह टूट गया है….”

लेकिन मैं आज कह सकता हूँ कि वह काँच का ग्लास छूटकर तो गिरा था, टूटा नहीं था.

 

रमेश बक्षी
(1936-1992)

कहानी संग्रह : मेज पर टिकी हुई कुहनियाँ, कटती हुई जमीन, दुहरी जिंदगी, पिता-दर-पिता, एक अमूर्त तकलीफ, मेरी प्रिय कहानियाँ, दस प्रतिनिधि कहानियाँ.

उपन्यास : हम तिनके, किस्से ऊपर किस्सा, अट्ठारह सूरज के पौधे, बैसाखियों वाली इमारत, चलता हुआ लावा, खुलेआम.

नाटक : देवयानी का कहना है, तीसरा हाथी, वामाचार, छोटे नाटक, एक नाटककार, कसे हुए तार, खाली जेब आदि

संपादन : ज्ञानोदय (कोलकाता से निकलने वाली मासिक साहित्यिक पत्रिका), आवेश (लघु पत्रिका), शंकर्स वीकली (साप्ताहिक पत्रिका), भुवनेश्वर की चुनी हुई रचनाएँ. 
मनोज मोहन

वरिष्ठ पत्रकार व लेखक.वर्तमान में सीएसडीएस की पत्रिका ‘प्रतिमान: समय समाज संस्कृति के सहायक संपादक.  सीएसडीएस की आर्काइव परियोजना में शामिल

 

Tags: मनोज मोहन
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Comments 5

  1. पीयूष कुमार says:
    15 hours ago

    मोहन राकेश का मिजाज उनके चरित्रों में जाहिर होता रहा है। मानव मन के अस्थिर और गैर सामाजिक विशेषताओं को उन्होंने ही हिंदी में पहले पहल जाहिर किया था। मनुष्य की इस जटिलता के पीछे उसकी कुदरती आज़ाद वृत्ति और पूंजीवादी जीवन शैली का बड़ा हाथ है। इसीलिए भौतिक सभ्यता के विकास के साथ मानव मन जटिलतम होता जा रहा है। अभी घट रही घटनाएं उसी का परिणाम हैं। मोहन राकेश का लेखन इन्हीं जटिलताओं से उपजी समस्याओं को साहित्य में दर्ज करनेवाला सबसे बड़ा मोड़ है।
    यह संस्मरण रोचक है और तत्कालीन साहित्यिक हलचलों के साथ मोहन राकेश के मिजाज को और भी जाहिर करता है। मोहन राकेश के लेखन पर अभी आलोचनात्मक चर्चाओं, संगोष्ठियों और विशेषांकों की आवश्यकता है।

    Reply
  2. मूलचंद गौतम says:
    13 hours ago

    हमदम सीरीज से अलग और ऐतिहासिक. रमेश बक्षी पर प्रभाष जोशी का जनसत्ता में छपा ऐतिहासिक संस्मरण भी दो.

    Reply
  3. Ashok agarwal says:
    8 hours ago

    मोहन राकेश पर ऐसा बेबाक संस्मरण रमेश बक्षी ही लिख सकते थे। मनोज मोहन को बधाई कि अपने समय की युवा लेखकों के बीच चर्चित पत्रिका ‘आवेश’ के अंकों को उन्होंने संरक्षित कर रखा है। आवेश के किसी अंक में मेरी कहानी ‘गुहावासी’ प्रकाशित हुई थी, जिसकी अब कोई प्रति मेरे पास भी उपलब्ध नहीं है।

    Reply
  4. पद्मसंभवा says:
    2 hours ago

    हिन्दी के नये कलमघसीट देख लें, यूँ भी लिखते हैं संस्मरण.
    बला की पठनीयता. एक वाकया भी ऊबाउ नहीं.

    Reply
  5. राजाराम भादू says:
    3 minutes ago

    रमेश बक्षी ने बिना लाग- लपेट अपने नजरिये से लिखा है। मोहन राकेश की सृजन- यात्रा उनके नाटकों में एक दार्शनिक उत्कर्ष तक पहुंचती है। उनके लेखन का पुनरावलोकन उनके शताब्दी वर्ष का एक जरूरी कार्यभार है। समालोचन ने इस टिप्पणी से उस प्रक्रिया का आरंभ तो कर ही दिया है।

    Reply

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