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काला घोड़ा और कला के सवार
भारत का पेरिस दिल्ली की मंडी हाउस में नहीं बसता, वह मुंबई के ‘काला घोडा’ परिसर में जीवंत रहता है. मुंबई के टैक्सी वाले आपको महात्मा गांधी रोड़ स्थित जहांगीर आर्ट गैलरी नहीं ले जा पाएंगे लेकिन काला घोडा स्थित इस गैलरी में ले जाने के लिए तत्पर रहेंगे. मुंबई अपने पुराने और अब ऐतिहासिक हो चुके नामों में जीने का आदी है. वहां छत्रपति शिवाजी टर्मिनल (सीएसटी) की बजाए विक्टोरिया टर्मिनल (वीटी) ही हावी रहता है. कहने को तो मुंबई हर क्षण भागते-दौड़ते लोगों का शहर है. लेकिन उस दौड़ में इस शहर का अतीत हमेशा उनके हमकदम ही रहता है.
मुंबई सड़कों से कम और उन सड़कों पर स्थित इमारतों से अधिक पहचाना जाता है. ये वही इमारतें हैं जहाँ से बहुत सारी खिड़कियॉं अक्सर समूचे देश में तो कभी-कभी यूरोप में भी खुलती रहती है. वैसे कहने वाले मुंबई को यूरोप की खिड़की ही कहते हैं. लेकिन मुंबई में ऐसा कुछ है जो अन्यत्र अनुपलब्ध है, वह केवल मुंबई का है और उसे मुंबई में रहकर ही मानो क्रियान्वित होने का अटल वरदान प्राप्त हुआ है.
मुंबई जाने से थोड़ा पहले मैं मध्यप्रदेश शासन के संस्कृति विभाग की पत्रिका ‘कलावार्ता’ का संपादक रह चुका था. यह राष्ट्रीय स्तर पर चल रही कला-गतिविधियों, समकालीन नृत्य-संगीत और रंगकर्म, समानांतर फिल्मों, लोक कलाओं और इन्हीं सब से जुड़ी हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का लेखा-जोखा करने वाली पत्रिका थी. मैंने उस समय इन्दौर घराने के प्रर्वतक गायक उस्ताद अमीर खॉं, कथक नृत्यांगना दमयंती जोशी, खजुराहो नृत्य समारोह, तानसेन समारोह, विश्व कविता समारोह, निर्मल वर्मा और ‘कला व साम्प्रदायिकता’ पर केंद्रित विशेषांक निकाले थे. इसके साथ ही विश्वविख्यात मूर्तिकार हेनरी मूर, शीर्षस्थ रंगकर्मी फ्रिटस बेनेवेटिस और ब्लैक थियटर पर विस्तृत विशेष सामग्री प्रकाशित की थी. भोपाल में इस पत्रिका में काम करने से पूर्व मैंने अपने दो-तीन मित्रों के साथ मिलकर पूरे एक महीने का ग्रीष्म कला मेला का आयोजन इन्दौर में किया था. जिसका शुभारंभ करने प्रसिद्ध चित्रकार ज. स्वामीनाथन को बुलाया था. यही कि ललित कलाओं को थोड़ा सा जानने-समझने और स्पर्श करने की गंभीरता बन रही थी. मुंबई ने इसे और अधिक संवर्धित करने में मेरी मदद की.
मैं जिस मैजिस्टिक एम.एल.ए. होस्टल में रहता था, वहां से प्रिंस आफ वेल्स म्यूजियम, नेशनल गैलरी आफ माड़र्न आर्ट, जहांगीर आर्ट गैलरी, कैमोल्ड आर्ट गैलरी, पंडोल आर्ट गैलरी, डेविड़ ससून लायब्रेरी, एशियाटिक लायब्रेरी, मुंबई विश्वविद्यालय, टाटा का नेशनल सेंटर फार परफार्मिंग आर्टस, मुंबई आकाशवाणी और बाम्बे आर्ट सोसायटी पैदल टहलने की दूरी पर थे. एक तरह से ‘काला घोड़ा’ का वह पूरा परिसर मुंबई की कला धड़कन को लगातार बदलते हुए उस पर अपना पूरा नियंत्रण रखते हुए उसे अपने हिसाब से ढालने की शक्ति रखने वाला महत्वपूर्ण हिस्सा था. मेरा अपना खाली समय इन्हीं में गुजरता था. अक्सर वहां नए परिचितों और पुराने मित्रों की एकल या समूह प्रदर्शनियां चलती रहती. उन्हीं दौरान अंग्रेजी के शीर्षस्थ कला समीक्षक ज्ञानेश्वर नाड़कर्णी और हिन्दी के मनमोहन सरल से परिचय हुआ और मित्रता हुई. उन दिनों हिन्दी में मुंबई से केवल नवभारत टाइम्स ही कला समीक्षाऍं प्रकाशित करता था जिसे मनमोहन सरल लिखते थे. कभी किसी महत्वपूर्ण प्रदर्शनी या टिप्पणी पर उल्लेखनीय बातचीत ‘धर्मयुग’ में भी प्रकाशित होती थी, उसे भी अधिकतर सरल जी ही लिखते थे. उस समय दूसरे बड़े अखबार ‘जनसत्ता’ में गाहे-बगाहे गीताश्री, जो खुद एक चित्रकार भी थीं, कला समीक्षाएं लिखती थी.
मैं निर्भय पथिक में ही था. मुझे लगा कि जनसत्ता के संपादक राहुल देव से मिलकर जनसत्ता में कला समीक्षाएं लिखना चाहिए. मैं उनसे मिला. उन्होंने मुझे धीरेन्द्र अस्थाना के पास सबरंग भेज दिया. तब सबरंग के रंगीन दोनों मध्यपृष्ठों पर मेरी मुंबई में लिखी पहली कला समीक्षा का प्रकाशन हुआ. इस तरह मैं मुंबई की विभिन्न आर्ट गैलरियों में अपेक्षित मेहमान बन गया.
यहीं से धीरू भाई से मेरी पहचान की रचनात्मक शुरूआत हुई. मेरी उस समीक्षा का शीर्षक और उसकी भाषा धीरू भाई को पसंद आई. मैं यदा-कदा उनके लिए लिखता रहा.
मैजेस्टिक में ऊपर तीसरे माले में किसी विधायक के आवास में ही नागपुर के एक चित्रकार जयंत मैराल रहा करते थे. उनसे मित्रता हुई और लगभग रोज का साथ रहा. वे सीधे-साधे चित्रकार रहे हैं, उनका छोटा भाई पराग मैराल ही तब से लेकर आज तक उनके चित्रों का कारोबार देखता है. पराग मैराल कला के मामले में पूरे कारोबारी था. वह पेंटिग बेचने की नई-नई योजनाएं बनाता ओर हमसे सलाह मशविरा लेकर उन पर व्यस्त हो जाता. मैं कला के उस अरचनात्मक पक्ष यानी बिक्री को लेकर बनने वाले गणित के समीकरण को समझने की कोशिश करता रहता.
उसी दौरान पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह के चित्रों की एक प्रदर्शनी जहांगीर आर्ट गैलरी में हुई और मैंने एक ठेठ राजनीतिक व्यक्तित्व के भीतर छिपे कला मन से एक बातचीत की जो जनसत्ता में प्रकाशित हुई.
तब कापर चिमनी रेस्टारेंट में या ऐसी ही कोई अच्छी जगह अपनी प्रदर्शनी करने कलकत्ता, बडौदा, पटना, जयपुर इत्यादि शहरों से आए चित्रकार हमें (नाड़कर्णी, मनमोहन सरल और मुझे) रात्रिकालीन दावतें देते. रसरंजन करते हुए कला पर गंभीर कम, हल्की-फुल्की बातें ज्यादा होती रहती. ज्ञानेश्वर नाड़कर्णी की पत्नी हमेशा उनके साथ ही रहती. उन्हें मशरूम सूप पीने का शौक था. वहां के सक्रिय कला जगत के लोगों को पता था कि ज्ञानेश्वर दंपत्ति के यहां बरसों से रात का खाना नहीं बनता है. उनका यह प्रतिदिन का रूटीन था. उन्होंने मराठी में मकबूल फिदा हुसैन की पहली जीवनी भी लिखी है. जिसका लोकर्पण हुसैन साहब ने ही किया था और जे.जे. स्कूल आफ आर्टस के उस हाल में मैं भी उपस्थित था.
उस समय भी आर्ट मार्केट में अंग्रेजी समीक्षाओं का ही असर पड़ता था. लेकिन फिर भी चित्रकार हिन्दी में उल्लेखनीय रूप से दर्ज होना पसंद करते थे.
जहांगीर आर्ट गैलरी के भीतर स्थित समोवर रेस्टारेंट उत्कृष्ट कला रसिकों और धन के बलबूते अपना कला प्रेम दिखाने वालों का मनपसंद अड्डा था. वह दिनभर चलता रहता. वहां अक्सर आने वाले ठंडी बियर के साथ हल्का नाश्ता लेते. वहां बैठने, आर्डर करने और बातचीत करने में एक सलीका हमेशा पूरे परिवेश में मौजूद रहता. मुझे वह परिवेश अच्छा लगता. मैंने अपनी कई सारी कला-समीक्षाएं उसी समोवर में बैठकर लिखी हैं. जल्दी ही जहांगीर आर्ट गैलरी की मेलिंग लिस्ट में कला समीक्षकों में मेरा नाम शुमार हो गया.
मैजेस्टिक में रहते हुए जब कभी मैं शाम को नहाकर जहांगीर आर्ट गैलरी पहुंचता तो मुंबई के दूर-दराज इलाकों से लोकल ट्रेन या अपनी कारों से आए कलाकार और कला प्रेमियों के बीच में अलग ही तरोताजा दिखता. मेरे बाल भी तब तक पूरी तरह सूख नहीं पाते. लोग मुझे विशेष तरह से देखते और मिलते. उनके लिए उस इलाके में रहने का सुख कभी न पूरे होने वाले सपने की तरह ही निश्चित होता. मैं उस सुख को अपने भोले संघर्ष की तरह ही देखता.
उस कोलाबा में ही कैलाश पर्वत होटल की गली में जनसत्ता के ही एक अन्य पत्रकार राकेश दुबे का घर था. यानी ऋषिकेश राजेरिया, राकेश दुबे और मेरे अलावा उस पूरे कोलाबा में कोई हिन्दी पत्रकार नहीं रहता था अलबत्ता ससून डाक में इंडियन एक्सप्रेस गेस्ट हाऊस की बिल्डिंग के एक बडे फ्लेट में राहुल देव सपरिवार रहते थे.
उस समय जहांगीर आर्ट गैलरी का पूरा कार्य-संचालन एक दक्षिण भारतीय सुसंस्कृत महिला श्रीमती मैनन के पास था. वे छोटी सी छोटी बातों पर ध्यान देती थी. उस दौरान और आज भी जहांगीर आर्ट गैलरी में अक्टूबर से फरवरी तक के आर्ट मार्केट के ‘सीजन’ में प्रदर्शनी लगाने को कलाकार बेताब रहते हैं. प्रदर्शनी के फार्म भेजने और अन्य जरूरी फोटो इत्यादि की खानापूरी के उपरांत 10 साल की प्रतीक्षा एक सामान्य बात है. बरसात के दिनों में या अन्य कोई प्रदर्शनी केंसल होने की वजह से हो सकता है यह प्रतीक्षा तीन-चार वर्ष की हो. लेकिन मानसून में लगने वाली प्रदर्शनियों में कलाकार भी यही सोचकर वहां आता है कि मात्र उसका खर्चा निकल जाए, वही पर्याप्त है. उसके जीवन वृत में जहांगीर में प्रदर्शनी शामिल होना भी बड़ी बात होती.
आज की तरह उस दौरान भी मुंबई की गैलरियों में सोमवार की शाम शो की ओपनिंग होती. हल्के स्नेक्स और रेड़ वाइन के साथ. प्रदर्शनी करने के साथ-साथ कैटलाग लिखवाने, प्रकाशित कराने, ओपनिंग पार्टी के और आर्ट क्रिटिक के साथ अलग अलग दावत करने का पूरा बजट कलाकार के पास पहले से होता. जिनके बलबूते इस कला बाजार ने अपना अकल्पनीय कारोबार बनाया है.
उस दौरान मेरे अध्ययन अनुमान के मुताबिक सभी गैलरियो, आर्ट ब्रोकरों और बिना गैलरी के सीधे बिकने वाले चित्रों की कीमत पचास लाख रुपए प्रति सप्ताह होगी. इसमें बहुत सारा काला पैसा भी शामिल रहता था.
कोलाबा में ताज होटल के बाद एक मार्ग पर रहने वाले सदरूदीन डाया एक बड़े संग्राहक थे. प्रदर्शनी के बाद डाया के घर जाकर औने-पौने दामों पर या एक तरह से बारगेनिंग के स्तर पर उन चित्रों को बेचकर नकद राशि ले आते थे.
उस जमाने में जहांगीर आर्ट गैलरी में शो करने का अर्थ किसी युवा कलाकार के लिए कला-जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि इस मायने में थी कि इसी जगह से उसकी कला की कीमत आंकी जाना शुरू होती थी.
मैं उस समय ऐसे कई कलाकारों को जानता था जो प्रदर्शनी के लिए मुंबई आने के ऐन पहले अपने परिजनों के साथ मुंबई से खरीद कर लाने वाले महंगे सामानों की लिस्ट बनाकर अपने साथ लाते और उन सामानों को खरीदने के अनुपात में चित्र-बिक्री न होने पर शाम को मेरे साथ बार में बैठकर वह लिस्ट यह कहकर फाड़ देते कि पैसा ही नहीं मिला तो इस लिस्ट का क्या करें.
मेरे अपने जानने वाले चित्रकारों में सबसे जीवंत, मस्तमौला और अलहदा व्यक्तित्व के चित्रकार अब्दुल कादिर रहे है. वे इंदौर के हैं. उस समय इंदौर में रानी रोड़ पर उनका एक फोटो स्टूडियो था जिसे उनके वालिद वाहिद भाई ने शुरू किया था. उनके वालिद मकबूल फिदा हुसैन के लंगोटिया यार थे. हुसैन अपने इंदौर प्रवास में उस स्टूडियों में हमेशा जाया करते थे. अब्दुल कादिर ‘सेल्फ-टाट’ चित्रकार हैं. शुरू में उन्होंने खेल से संबधित कई श्रृंखलाएं बनाई. बाद में उन्हें धीरे-धीरे बाजार का गणित समझ में आने लगा.
मुंबई आने पर वही अब्दुल कादिर मुझे फोन पर कहते थे कि शो रूम में कब आएगा. वे गैलरी को शो रूम ही मानते थे. जो कि अंतत: एक भिन्न अर्थ में है भी. वे इसी शो रूम में प्रदर्शित हो रहे कलाकार को यानी खुद को एक ऐसा नायक समझते थे जिसे वहां आने वाली भद्र महिलाओं को अपने हिसाब से छेड़ने का अधिकार हो. हम जब अक्सर गेट वे आफ इंडिया के पास टहलते तो उनका यह भाव कुछ अधिक ही मुखर हो उठता. बाकी सभी लोग उसे समझाते भी कि यह ठीक नहीं है, वे तपाक से दो टूक जवाब देते ‘फिर मुंबई किसलिए आए है भाई’ मैंने उनके इन सद्प्रयासों को कभी अमल में ढलते नहीं देखा. शायद इसलिए भी कि वे मुंबई को पूरी तरह कभी नहीं समझ पाए.
जहांगीर आर्ट गैलरी समकालीन भारतीय चित्र-शिल्पकला के इतिहास की साक्षी रही है. वर्ष 1952 में सर कॉवसजी जहांगीर ने उसके निर्माण में पूरा सहयोग दिया. जिन लोगो ने वर्ष 1975 में बनी ‘छोटी सी बात’ फिल्म देखी है उसमें इस गैलरी का और इसके समोवर रेस्टारेंट का सूबसूरत चित्रण किया गया है.
इसी गैलरी में एक बार अपनी प्रदर्शनी में हुसैन ने एक ट्रक भरकर कागज की रद्दी को बिखेर दिया था और कहा था यही मेरी कला है. उस प्रदर्शनी का नाम श्वेतांबरी (सफेद आकाश) था.
न जाने कितनी दोपहर और शामें मैंने अपने तमाम मित्रों के साथ इस गैलरी में इसकी सीढियों पर बैठकर बतियाते हुए गुजारी हैं. गैलरी में लगी प्रदर्शनी के चित्रकार से उसके चित्रों पर बात करते हुए मैंने जाना है कि वे अपनी कला के बारे में बताने को उत्सुक तो बहुत रहते हैं लेकिन अंतत: वे उतना ही बता पाते हैं जितना केवल वे उस समय तक जानते हैं, जबकि एक समीक्षक की हैसियत से मेरा उन्हें देखने का तरीका समकालीन कला के संक्षिप्त लेकिन भरे-पूरे इतिहास के खण्ड में उसकी जगह खोजने से होता था.
ऐसा कई बार होता था कि कुछ प्रदर्शनियां बेहद बेहूदी होती थी. मुझे लगता था उनके बारे में न लिखना ही श्रेयस्कर रहेगा. दुख तब होता था जब वे कृतियां बिक जाती थीं.
तब कला संग्राहकों, कला विनियोग और आर्किटेक्टों में बढती कला की मांग और नित नए बन रहे एपार्टमेंटस फ्लॅटस और माल संस्कृति में मात्र सजावट की तरह बिना समझे-बूझे खपती जा रही करोडों रूपए की चित्रकृतियों पर अक्सर मेरी कई लोगो से बहसें हो जाती थी. लोगो को लगता था कि यह आदमी बढते कला बाजार के खिलाफ है. लेकिन मैं समकालीन कला में एकाएक आई धन-वर्षा से उतना हैरान नहीं होता था जितना कि उसके इसी बिक्री तंत्र से स्थापित होते कुछ कमतर कलाकारों के ख्यातनाम होने की वजह से. मैं जानता था कि ऐसे बहुत सारे कलाकार है जो आगे जाकर इतिहास बनाएंगे. लेकिन उन्हें बाजार नहीं मिल पा रहा था. बाजार अपनी शर्तों पर कला चाहता था और वे कलाकार अपनी शर्तों पर कला रचते थे.
बाद में कुछ वर्षो बाद, जब मैं जनसत्ता में था, मैं ललित कला अकादमी, नई दिल्ली की कार्य परिषद का सदस्य बना और उसकी प्रकाशन परामर्श समिति में भी रहा. तब यह जाना कि इस तरह की केंद्रीय अकादमी अपने राष्ट्रीय पुरस्कारों, खरीददारी और अन्य सहायता की वजह से लगभग घृणित किस्म की राजनीति समूचे देश के कलाकारों के बहुलांश को अपने वश में किए हुए है. बिएनाल (कला द्विवार्षिकी) और त्रिनाले (कला त्रैवार्षिकी) की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाली प्रतियोगी-प्रदर्शनियों का भी यही हश्र था. वी एस गायतोंडे और जे स्वामीनाथन इसलिए मुझे वास्तविक बडे कलाकार लगते हैं कि वे यथासंभव इनसे बचते रहे और केवल अपना काम करते रहे. हालांकि स्वामीजी ने दिल्ली में शिल्पी चक्र की शुरूआत भी की और ‘कांट्रा’ जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका भी निकाली.
कोलाबा का यह कला साम्राज्य मुंबई की निन्यानवे फीसदी से अधिक जनसंख्या के लिए एक ऐसा अनजान-अपरिचित हिस्सा है जिसे देखने-समझने या जानने-बूझने की आवश्यकता उन्हें रत्ती भर भी महसूस नहीं होती. सचमुच, यह इस महानगर की देह में बसी कोई अन्यत्र लेकिन बहुल दुनिया है. मुंबई में रहते हुए भारतीय कला इतिहास के लगातार बनते जा रहे इस पूरे क्रिया-कलाप को भी अपने रच जाने और बिक जाने की यात्रा के बीच उन अधिसंख्य आबादी की जरूरत भी नहीं पड़ती. यह तो मकबूल फिदा हुसैन की अपनी सहज-सायास कोशिश थी कि समकालीन कला अपने आकृतिमूलक चित्रों के जरिए जनसामान्य तक पहुंच पाई.
नरीमन पाइंट पर ओबेराय होटल के निकट नेशनल सेंटर फार परफारमिंग आर्टस (एनसीपीए) मेरी एक और मनमाफिक जगह थी. यह रंगमंच, नृत्य और संगीत की विरासत पर शोध करने और इनकी नई प्रायोगिक प्रस्तुतियों के लिए मुंबई में नायाब केंद्र है. डा. जमशेद जे. भाभा ने दोराबजी टाटा ट्रस्ट को वर्ष 1965 में एक पत्र लिखकर यह इच्छा जाहिर की थी कि नरीमन पाइंट एरिया में कलाओं को समर्पित एक पायोनियरिंग इंस्टीट्यूट की स्थापना करनी चाहिए. उन्होंने स्पष्ट लिखा था कि अन्य तमाम देशों की तुलना में हमारा भारतीय संगीत और अन्य संदर्भित कलाएं पांच हजार वर्ष पुरानी हमारी सांस्कृतिक धरोहर को अपने में समेटे हुए उसे पीढ़ी दर पीढी लगातार संवर्धित कर रही है. उस पर विभिन्न पहलुओं से शोध करने और उसकी रेकार्डिंग कर उसका दस्तावेजीकरण करने की जरूरत है. तब महाराष्ट्र शासन ने जगह की कमी को देखते हुए अजंता की गुफाओं के पास इसके लिए जमीन देने की पेशकश की. जिसे जमशेद भाभा ने ठुकरा दिया. बाद में नरीमन पाइंट के ही रिक्लेमेशन एरिया (समुद्र को पाट कर बनाई जगह) में इस केंद्र को जगह मिली और वर्ष 1969 में तात्कालिक प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसका शुभारंभ किया. तबसे अब तक शोध और प्रशिक्षण के लिए यह अत्यंत प्रतिष्ठित केंद्र है.
इसमें गोदरेज डांस थिएटर, जहाँगीर भाभा थिएटर, टाटा थिएटर, एक्सपेरिमेंटल थिएटर और पीरामल फोटोग्राफी गैलरी के साथ साथ एक बडी लायब्रेरी भी है. जहां कला और नृत्य संगीत की बेशुमार नायाब पुस्तकें उपलब्ध हैं जिन्हें एक अलग लिस्टनिंग रूम में सुना जा सकता है.
करोड़ो रूपए का बजट प्रति वर्ष व्यय करने वाली केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी के भारी भरकम दिखावटी काम की अपेक्षा एनसीपीए उससे बडा ठोस काम बहुत शालीनता से पिछले कुछ दशकों से चुपचाप कर रहा है. केंद्र सरकार की इन अकादमियों को तो राष्ट्रीय पुरस्कार और फैलो नियुक्त करने की राजनीति से ही फुरसत नहीं मिलती.
जवाहरलाल नेहरू के कारण भारतीय कला संस्कृति को वैश्विक चेहरा मिला और व्यापक धरातल पर इसकी उपस्थिति ने अपने को दर्ज करना शुरू किया. राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय, साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी जैसी संस्थाओं ने अपने लक्ष्यों को पाने में सफलता भी हासिल की. लेकिन भारत जैसे लोक सांस्कृतिक चेतना से भरी-पूरी समृद्ध परंपरा के लिए कोई राष्ट्रीय स्तर की लोक कला अकादमी नेहरू नहीं बना पाए. इंदिरा गांधी की कला सलाहकार रही पुपुल जयकर ने कुछ वर्ष पहले राष्ट्रीय स्तर की लोक कला अकादमी के अस्तित्व में आने के लिए बहुतेरे प्रयास भी किए. लेकिन अभी तक उसकी कोई उम्मीद कहीं से भी दिखाई नहीं देती. जबकि इन्हीं लोकनृत्य-कलाओं के जरिए इंदिरा गांधी ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में कई विकसित देशों में ‘फेस्टिवल आफ इंडिया’ के आयोजन भी किए. जिसकी बहती गंगा में एक से एक घामड़ लोगों ने बड़ी बेशर्मी से अपने हाथ धोए थे.
मुझे उस्ताद अमीर खॉं को सुनने-गुनने की कमजोरी रही है. एनसीपीए से यह उपलब्ध हो जाता था. वहां स्थित एक्सपेरिमेंटल थिएटर में नाट्य प्रस्तुतियां देखने के उपरांत निर्देशक और कलाकारों से बात करके मन को विशिष्ट किस्म की तृप्ति मिलती थी.
प्रिंस आफ वेल्स म्यूजियम के ठीक सामने है नेशनल गैलरी आफ माड़र्न आर्ट (एनजीएमए). साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और ललित कला अकादमी की तरह ही यह भी पंडित नेहरू के एक नए भारत के सपने की छबि है. पंडित नेहरू के मस्तिष्क में वर्ष 1949 से ही यह विचार आया था कि एक राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय होना चाहिए. उस दौरान मौलाना आजाद ने भी इसकी योजना पर काफी कार्य किया था. भारतीय कला संस्कृति को बेहद चाहने वाले नौकरशाह हूमांयू कबीर भी इसके लिए प्रयत्नशील थे. अंतत: वर्ष 1954 में एन.जी.एम.ए. की स्थापना दिल्ली में हुई. मुंबई स्थित यह केंद्र उसी का विस्तार है.
मुंबई में एनजीएमए बनने के पहले यह जगह सर कॉवसजी जहांगीर पब्लिक हॉल था. संयोग से यह वर्ष 2011 इस सुंदर स्थापत्य के बनने का शताब्दी वर्ष है. सर कॉवसजी जहांगीर ने वर्ष 1911 में बंबई के लिए यह पब्लिक हॉल बनाया था. इस हॉल का अपना एक वैभवशाली सांस्कृतिक इतिहास रहा है. ब्रिटिश आर्किटेक्ट बिटेट ने उस समय 19 लाख रूपए के व्यय से इसे बनाया था. सर करीमभाई इब्राहीम और सर जेकब ससून ने भी इसके लिए अच्छी खासी आर्थिक सहायता की थी. उस समय इसके पूर्व बंबई में पब्लिक हॉल के नाम पर केवल एक टाऊन हॉल था. यह नया हॉल उस समय के बंबई के सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए एक नया प्रतिमान था. इस हाल का शुभारंभ करते हुए लार्ड सिड़नम ने कहा था– ‘संयोग से बंबई में काफी सारे अच्छे और विशिष्ट नागरिक रहते हैं, जिन्हें उनके कार्यों के लिए एक मंच मिलना चाहिए, साथ ही बंबई की बहुआयामी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए बैठकें वगैरह आयोजित करने के लिए भी इस हाल का उपयोग किया जाना चाहिए.’
यह वही लार्ड सिड़नम थे जिनके नाम पर बना सिड़नम कॉलेज अपनी उत्कृष्टता के कारण छात्रों को अपनी तरफ खींचता है.
पिछली शताब्दी के पचास के दशक तक यह हॉल सांगीतिक कंसर्ट, राजनीतिक बैठकें और अन्य कला गतिविधियों के लिए अकेला सुविधाजनक विकल्पहीन केंद्र था. बाद में जहांगीर आर्ट गैलरी, तेजपाल, बिड़ला और पाटकर हॉल जैसे एयर कंडीशन अडिटोरियम अस्तित्व में आ गए. हालात इतने बदले कि साठ और सत्तर के दशक में यह हॉल बाक्सिंग मैच, ट्रेड़-यूनियन बैठकों, वैवाहिक दावतों और रेडीमेड़ गारमेंटस व चमड़े से बने सामानों को डिस्काउँट सेल के लिए किराए पर दिया जाने लगा. उस दौरान प्रसिद्ध मूर्तिकार पीलू पोचखानवाला और मुंबई कला जगत की बडी हस्ती केकू गांधी ने इसका विरोध किया कि समृद्ध सांस्कृतिक गतिविधियों का साक्षी रहा यह हॉल अब बाजार बनता जा रहा है. एक लंबी लडाई के बाद यह निर्णय लिया गया कि इस हॉल को समकालीन कला का संग्रहालय बना दिया जाए. इस हॉल के भीतर का ऊँची गुंबद वाला स्थापत्य लंदन के रॉयल अल्बर्ट हाल से मिलता है. हेरिटेज कानून के मुताबिक बिना उस स्थापत्य से छेड़छाड़ किए दिल्ली के आर्किटेक्ट रूमी खोसला ने पूर्व निर्मित स्थापत्य में नया स्थापत्य बनाया जिसके फलस्वरूप पांच एक्जीबिशन गैलरी बन पाई. लेक्चर आडिटोरियम, लायब्रेरी, केफेटेरिया, कार्यालय और स्टोर रूम के अतिरिक्त एक बडी जगह इसके ट्रेवलिंग शो के लिए स्थायी संग्रह रखने के लिए बनाई गई. इसका पुन: नवीनीकरण करने में लगभग 12 वर्ष का समय लगा. लेकिन इसके पुर्नजन्म के साथ ही मुंबई में अंतरराष्ट्रीय स्तर की फोकस लाइटिंग, हयूमिडीटी और तापमान नियंत्रण के साथ भव्य सुविधा के साथ वर्तमान एनजीएमए किसी भी व्यक्ति को उसकी अल्प जीवन सीमा दिखाता मौजूद है.
वर्ष 1950 के पहले इसी हाल में येहुदी मेन्युहन, पॉल राब्सन और बंबई सिंफनी आर्केस्ट्रा के मेहली मेहता की भव्य संगीत प्रस्तुतियां हुआ करती थीं. मेहली मेहता जुबिन मेहता के पिता थे. जुबिन मेहता पिछले कुछ दशकों से न्यूयार्क फिल्हारमेनिक आर्केस्ट्रा का संचालन अमेरिका में रहकर कर रहे हैं. इसी हॉल में आजादी पाने की कई रेलियां और भाषण हुए है जिनमें महात्मा गांधी, सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू, मौहम्मद अली जिन्ना ने अपने भाषण दिए हैं. बाम्बे आर्ट सोसायटी की वार्षिक कला प्रदर्शनी भी इसी हॉल में हुआ करती थी और पारसी पंचायतों की बैठकें भी.
मुंबई में बनी मेरी उस पहली दोस्त के साथ जब मैंने एनजीएमए को देखा तो मुझे आश्चर्य हुआ कि मुंबई में जन्म लेने के बाद भी वह मेरे साथ पहली बार इस जगह को देख रही थी. मैंने शायद मजाक में उससे कहा भी था कि तुम्हें मालूम ही नहीं है कि तुम्हारा जन्म मुंबई में क्यों हुआ है. पता नहीं ……. यह महज मजाक था या मुंबई में रह रहे अपार जन समूह की हकीकत …… उनके जीवन में कला के अपने मापदंड़ हैं. उनकी सारी स्फूर्ति और रचनात्मकता निश्चित समय पर निश्चित लोकल ट्रेन में बैठकर तयशुदा काम करने के बाद फिर वापस किसी सात तेईस या आठ पचास की फास्ट लोकल में बैठकर एक दिन की इतिश्री करने से बंध गई है. शायद इसीलिए लोक एवं आदिवासी कलाओं को छोड़कर शेष कोई भी कला भारतीय जनजीवन में अपनी पैठ नहीं बना पाई.
जब भी ऐसे किसी चित्रकार की प्रदर्शनी किसी गैलरी में लगती जो मध्यप्रदेश का हो, तब मेरी अतिरिक्त निगाहें वहां रहती. मैं मध्यप्रदेश के कला परिदृश्य से अच्छी तरह वाफिक था. ग्वालियर, जबलपुर और इन्दौर के फाइन आर्टस स्कूलों से उस प्रदेश के युवतम कलाकार उभरते थे. इन्दौर स्कूल ऑफ फाईन आर्टस में मैं अपनी आदतों से कई धमा-चौकडियॉ मचा चुका था. एक वर्ष मैंने इंदौर स्कूल आफ फाईन आर्टस में भी बिताया है. उस समय चंदनसिंह भट्टी, देवीलाल पाटीदार और हेमंत शर्मा हमारे सीनियर स्टूडेंट थे. वरिष्ठ चित्रकार श्रेणिक जैन हमारे प्राचार्य थे.
मुंबई आने के पहले मैं देवकृष्ण जटाशंकर जोशी, नारायण श्रीधर बेंद्रे, रामजी वर्मा, मिर्जा इस्माईल बैग, सुरेश चौधरी, मनोहर गोधने, धवलक्लांत, चंदू नाफडे, भालू मोंढे, श्रेणिक जैन इत्यादि इंदौरी चित्रकारों पर लिख चुका था. ‘आर्ट गैलरी’ पत्रिका का संपादक भी रहा जिसका पहला अंक एन. एस. बेंद्रे ने इंदौर के टाऊन हॉल में किया था. उस दौरान टाऊन हॉल के ऊपरी हॉल को भालू के साथ मिलकर हमने आर्ट गैलरी भी बनाई थी.
तो जब भी इंदौर, भोपाल, जबलपुर, ग्वालियर से कोई प्रदर्शनी आती तो मुझे अच्छा लगता. लेकिन इन्हीं खूब सारे मित्रों के साथ बहस-बाजी होते हुए झगडों की नौबत भी आ जाती. हांलाकि ऐसा बहुत कम ही होता. यह केवल उन्हीं के साथ होता जिनके बारे में उस समय भी मैं यही मानता था कि वे चित्रकार नहीं हैं, अपनी कला के एजेंट हैं. ऐसे लोगों से मिलते और शाम बिताते हुए मुझे भी पूर्व से पता होता कि मुझे किस बात पर खौल जाना है. शायद यह मेरा आक्रोश होता जिसके जरिए मैं अपने आपको भी पहचानता रहता और उन विचारशून्य चित्रकारों पर धमकी के स्तर पर जाकर अपने विचारों को लादता रहता.
चित्र-जगत में मैंने उस दौरान बड़ी मात्रा में युवा चित्रकारों की कला के प्रति विचार शून्यता देखी. उनकी प्रदर्शनी के दौरान उनकी पूरी चेष्टा किसी संग्राहक या ब्रोकर को अपने चित्र बेच देने की होती. इससे मेरे समक्ष उनकी कला दरिद्रता अपने असली रूप में झलक पड़ती. ऐसे कलाकार प्राय: अपने मकसद को पाने में सफल भी हो जाते. मैं उनकी कला की गहराई उनके बिक जाने की ताकत से अच्छी तरह पहचान लेता.
मैजेस्टिक में मेरे साथ रह रहे भरत पंडित को कलाओं और संगीत से प्रेम था. वैसे तो वे मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव थे लेकिन मुंबई आने के पहले से कश्मीर में और उसके बाहर रंगकर्म किया करते थे. वे छुट्टी के दिन अक्सर मेरे साथ गैलरियों में जाते और हम देर रात तक कमरे मैं या गेटवे पर बैठकर कला पर बातें करते रहते. वे बेहद अनुशासित और संयमित व्यक्तित्व के मालिक हैं. लेकिन उन्हें मेरी ‘बुझो तो जानो’ वाली लापरवाही पसंद थी. उन्हें लगता रहा कि मैं मुंबई में एक कलाकार की तरह जीवन जी रहा हूं. भरत को कविताएं लिखना भी अच्छा लगता था. वे मुझे लिखकर सुनाते भी थे.
पता नहीं भरत पंडित अब कविताएं लिखते हैं या नहीं. अगर वे यह पढ़ रहे हैं तो मुझे उसका जवाब जरूर देंगे. यह मुंबईया दोस्ती का दायित्व भी बनता है.
उम्मीद है भरत पंडित अभी तक समय-असमय कविताएँ लिख रहे होंगे. (जारी)
“शायद .. कोई आए और मेरे हाथ में अपना हाथ डालकर मुझे अपनी ही स्मृतियों के अंधेरे में ले जाने के लिए मेरी थोड़ी मदद करे. उन्हीं स्मृतियों की कोई एक सहेली …. जो पहले भी घटा है वह एक बार फिर उन स्मृतियों की यात्रा में उसी सहेली के साथ घटता रहे. अन्यत्र कहीं नहीं …. इन्हीं शब्दों के अपने अतीत से गुजरते पदसंचालन में.”