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समालोचन

Home » मुंबई : राकेश श्रीमाल » Page 3

मुंबई : राकेश श्रीमाल

मुंबई ख़ुद अपने में एक महागाथा है. अंग्रेजों के आने के बाद वह भारत का केन्द्रीय शहर बन गया और आज तक बना हुआ है. कथाकार-पत्रकार राकेश श्रीमाल के मुंबई प्रवास ने उन्हें इस शहर और इसके पात्रों को समझने का अवसर दिया. इस ‘मुंबई’ में वह इसी गाथा को रच रहें हैं. इसके चार हिस्से यहाँ प्रस्तुत हैं. इनमें लेखक-मित्र हैं, प्रेम है, कला की दुनिया है, जीवन संघर्ष है, शहर है, उसकी आबो-हवा है, बारिश है.

by arun dev
September 27, 2011
in कथा
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3.
मिस नींबू पानी और मारियो मिरांडो

मुंबई के काला घोड़ा से मेरा वैसा ही रिश्ता है जैसे बेहद खूबसूरत फूल को सब कुछ भुलाकर देखने से पनपता है या अपने प्रिय लेखक की सबसे पसंदीदा पुस्तक को साथ रखने और हर मौसम में उसे बार-बार पढ़ने की वजह से बनता है. काला घोड़ा ही वह वजह रही जिसके कारण मुझे भारतीय कला-संस्कृति के इतिहास बन चुके अतीत में बार-बार टहलने को मन करता है. वहां टहलते हुए मैं अपने आप को संतुष्ट प्रेमी की भूमिका में गर्वित होते हुए महसूस करता हूं. मुझे यकीन ही नहीं, अटूट आत्मीय अंधविश्वास है कि अतीत के वायुमंडल में समाहित हुई नृत्य संगीत की लयकारी, आरोह-अवरोह, आमद, पढंत और घुंघरुओं की सधी हुई आवाज, उस दौरान नए-नए फलक पर अवतरित हुए लगातार प्रयोगशील चित्र संसार और इसी क्षणभंगुर देह से उपजा कालातीत अभिनय मुझे कभी बेवफा बनकर धोखा नहीं देगा.

मुझे पता नहीं, उन सबसे मेरी जीवन-दृष्टि में जो रस-श्रुति का भाव आया, उसका ऋण मैं इन निरीह शब्‍दों से चुका पाऊंगा या नहीं, पर इस ऋण साधना में कथक के लखनऊ  घराने के लास्‍य अंग की माफिक अपनी भाव मुद्राओं को संतुलित, अनुशासित और अर्थपूर्ण भाव के साथ जीवंत बनाए रखने की पूरी कोशिश अपने तई जरूर करूंगा.

अपने दो वर्षों के दिल्ली  रहवास के दौरान मंडी हाऊस की किसी गैलरी, आडिटोरियम या अकादमी में गुजारी गई शामों की ऐसी कोई पार्श्व छवि मेरी स्‍मृतियों में नहीं उभरती, जिसे सहेजकर रखा जाना मुझे जरूरी लगा हो. दिल्ली  की कला-संस्कृति में एक तरह की लालफीताशाही, पीत संस्कृति और स्‍वनामधन्‍य कला की बहुआयामी अफसर शाही का बोलबाला तेज कडक धूप के दिनों में वातानुकूलित कला-दरबारों में मौजूद रहता है. मुंबई कला की लाख व्यावसायिकता के बावजूद, कला बाजार का एक और अबूझ दलाल स्‍ट्रीट होने की देशव्‍यापी स्वीकृति के बाद भी मूल कला और रचना में हमेशा वैसा ही सहज-सरल और हर वक्‍त नया सीखने-समझने का न केवल समर्पित भाव रखता है बल्कि दक्षिण मुंबई के काला घोड़ा नाम से लोकप्रिय जगह में अपनी इस कला को समर्पित लोकतंत्र को उतना ही विनम्र और हमेशा उपलब्‍ध रखता है जितना कि पांच दशक पूर्व स्थानांतरित हुआ अपने नामकरण का जनक शिल्प.

दुनिया में सबसे बड़ा लोकतंत्र अगर भारत में है तो भारत की कलाओं का लोकतंत्र मुंबई के कालाघोड़ा में है. इसी काला घोड़ा और उसके इर्दगिर्द संस्कृति के न जाने कितने अघोषित सचिवालय बिना किसी अवकाश दिवस के सतत कार्य करते रहते हैं. लुटियंस के समतल और कहीं-कहीं रसातल में विलीन होते जा रहे टीलों से बेखबर महासागर के किनारे यह काला घोड़ा अपने अमूर्त रूप में एक साथ तमाम कलाओं की पताकाएं लिए एक ऐसे रचनात्मक युद्ध में संलग्न रहता है जिसका ध्येय सांस्कृतिक इतिहास को रचा जाना है.

यह कहने में कोई संकोच नहीं कि भारत की आजादी के बहुत पहले से मुंबई का यह काला घोड़ा भारतीय कला संस्कृति को संरक्षित करने, उसका संवर्धन करने और उसका गरिमामय प्रदर्शन करने का काम कर रहा है. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की ‘भारत की खोज’ केवल भारी भरकम बजट वाली अकादमियां खोलने तक सीमित रह गई. इसका जीता-जागता प्रमाण वर्तमान में मंडी हाऊस के आश्‍चर्यचकित ठहराव से लगाया जा सकता है. रही-सही कसर इन्‍हीं अकादमियों से अनुदान प्राप्‍त या सीधे संस्कृति विभाग के रहमो-करम पर पलने वाली तमाम सांस्‍कृतिक एनजीओ ने पूरी कर ली.

भारत जैसा बहुआयामी संस्कृति, अजब-गजब विरोधाभासी परंपराओं और सदियों से पनप रही परंपराओं में शामिल लोक और जन-जातीय कलाओं से भरा-पूरा देश है, इसकी बहुवर्णी-बहुधर्मी सृजन धाराओं को संचालित करने की राज्‍य की भूमिका न केवल संदेहास्‍पद ही रहेगी बल्कि उसके द्वारा किए जा रहे इन सबके उत्‍थानों के कार्य भी औपचारिक दिखावट की तरह ही देश के ड्राइंगरूम मंडी हाऊस में सजे-धजे रहेंगे. ललित कला अकादमी की जो स्थिति पिछले दो-तीन दशकों में रही है, वहां से कलाकारों के एक बडे वर्ग ने अपनी उम्‍मीद ही त्‍याग दी है. इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि मैकाले की शिक्षा पद्धति ने भारत में गिने चुने ही कला प्रशासकों को जन्‍म दिया है. जिनके बलबूते समूचे देश की कला बहुलता को देखने-परखने और उसे सहेजने-संवारने का उत्तरदायी काम संभव नहीं है.

समूहगत चेतना की प्रतीक समझी जाने वाली लोक संस्कृति हो या नित नए प्रयोग और नवीनतम परिभाषाओं में ढलने वाली समकालीन कला हो, काला घोड़ा ने इन सबका राष्‍ट्रव्‍यापी प्रतिनिधित्व करने में हिचकिचाहट नहीं रखी है. वह तो भला हो सरकार की उदार-अनुदारवादी उन नीतियों का, जिनके फलस्वरूप काला घोड़ा के इर्दगिर्द की कुछ संस्थाएं सरकारी बन गई, कुछ को अच्छा खासा अनुदान मिलने लगा, जिससे उनके पूर्व के उद्देश्यों को क्रियान्वित होने में अप्रत्यक्ष मदद मिली. लेकिन ये संस्थाएं मंडी हाउस बनने से बची रहीं.

भारतीय कला संगीत के जो अनंत गूढ़ अर्थ हमारी व्यापक स्मृति परंपरा के वाहक बन आज किसी भी रसिक के समक्ष उपस्थित हो सके हैं, वे निजी प्रयासों से ही संभव हुए हैं. गौर करने वाली बात यह है कि वे भारत की आजादी के बाद से सार्वजनिक उपस्थिति में शामिल नहीं हो पाए हैं. बल्कि उसके बाद से एक तरह का घटिया फ्यूजन उनमें बढ़ा जो आज नयी पीढ़ी के लिए भले ही समकालीन शास्त्रीय हो लेकिन उसकी महान परंपरा और अनुशासन में निकृष्‍ठतम रूप से सेंध मार चुका है.

दिल्ली  और मुंबई की तुलना अगर कहीं व्‍यापक लोक सांस्कृतिक पैमाने पर की जा सकती है तो वह इन दोनों महानगरों में होने वाली रामलीलाओं के कारण. पिछली शताब्दी के आखिरी दशक का वह दौर मुंबई में बसे उत्तर भारतीयों के लिए अपनी संस्कृति में जीने  का सुनहरा दौर था.

कोलाबा के पास स्थित आजाद मैदान से लेकर घाटकोपर, चेंबूर, मुलुंड, अंधेरी इत्‍यादि के मैदानों या उपलब्‍ध जगहों पर रामलीला का मंचन हुआ करता था. बाकायदा उत्‍तर-प्रदेश से इन्‍हें खेलने वाली नामी-गिरामी रामलीला संस्‍थाओं और समूहों को आमंत्रित किया जाता था. मुंबई के समस्‍त दैनिक और सांध्‍यकालीन अखबारों के लिए यह महत्वपूर्ण और बड़ी सांस्कृतिक घटना होती थी. जनसत्ता में रहते हुए मैंने भी प्रतिदिन अलग अलग स्‍थानों पर मंचित होती रामलीलाएं देखी हैं, उनके कलाकारों से बातें की हैं और उसकी विस्‍तृत रिर्पोटिंग की है. जनसत्ता ने कुछ वर्ष इन रामलीलाओं को प्रतियोगी दृष्टिकोण से देखते हुए पुरस्कार भी बाटें है. निःसंदेह यह सब उस समय के मुंबई जनसत्ता के संपादक राहुल देव ही कर सकते थे.

धीरू भाई भी नए-नए मुंबई आए थे. मंडी हाऊस से उलट उसका सकारात्‍मक चेहरा काला घोड़ा अभी उनकी आंखों के सामने गुजरना बाकी था. अलबत्‍ता अपने दिल्ली  के दिनों में अनगिनत शामें वे मंडी हाऊस में गुजार चुके थे. उसी मंडी हाऊस को केंद्र बनाकर वे एक कहानी ‘जन्‍म भूमि’ लिख चुके थे. हरिपाल त्‍यागी के साथ मंडी हाऊस स्थित गैलरियों में लगी कला-प्रदर्शनियां देख चुके थे और रस-तत्‍व ग्रहण करने के उपरांत वे कला-रस से तर-बतर बातें भी किया करते थे.

मुंबई का मेरा पहला वर्ष मुंबई को मेरी जानने की जिज्ञासा का पूर्व-पीठिका वर्ष था. किसी प्रदर्शनी में लगा कोई एक चित्र अगर मुझे अच्‍छा लगता तो मैं उसे देखने एकाधिक बार जाया करता था. नए चित्रकारों से उनकी भावी योजनाओं को लेकर और उन्‍हें अपनी दृष्टि से विरासत में मिले कला इतिहास पर ढेरों बातें किया करता था. मुझे उस दौरान कुछ चित्रकारों का काम काफी अच्‍छा लगा था. उनमें से जयपुर की मीनाक्षी भारती के चित्र भी थे. यह उस सौम्य और मृदुल चित्रकार का तीसरा नाम है. सर्वप्रथम मीनाक्षी जैन, फिर जयपुर के ही एक चित्रकार के साथ निकाह करने पर मीनाक्षी काजी और तबसे अब तक केवल अपने बच्चों के साथ रहने पर मीनाक्षी भारती. उनके रचनाकार्य की गंभीरता में उनके जीवन अनुभवों का सारतत्‍व भी मौजूद रहता है. उस समय दक्षिण भारत से बहुत कम चित्रकार अपनी एकल प्रदर्शनियों के साथ मुंबई में उपस्थित रहते थे.

आज के ख्‍यातनाम चित्रकार बोस कृष्‍णामचारी और सुबोध गुप्‍ता उन दिनों मुंबई में प्रदर्शनी करके अपने चित्रकार होने के अस्तित्‍व को कला बाजार मे खोज रहे थे. उस समय सुबोध के साथ लंबी बातचीतें होती रहती थी. वे शुरू से ही रचनात्‍मक उधेडबुन के धनी रहे हैं. समकालीन भारतीय चित्रकार में आज वे अपना उल्‍लेखनीय मुकाम बनाए हुए हैं और कला के प्रति अपने दो टुक विचारों के कारण प्राय: चर्चित रहते हैं. सुबोध गुप्‍ता उन दिनों अपने चित्रकार होने के वजूद की लड़ाई लड़ रहे थे. वे और उनकी पत्‍नी भारती खेर मुंबई में प्रदर्शनी के दौरान साथ-साथ ही रहते. उस दौरान भारती और मैं सुबोध को परेशान करने के नए-नए तरीके खोजते रहते थे. सुबोध यह सब समझता था. आज समकालीन कला परिदृश्‍य में सुबोध की सशक्‍त उपस्थिति इस तरफ आश्‍वास्‍त करती है कि अकेले बलबूते हिन्‍दी-पट्टी भी अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर की शीर्ष रचनात्मकता पर पहुंच सकती है.

उन दिनों छुट्टी वाले दिनों में मैजेस्टिक एमएलए होस्‍टल के ठीक सामने स्थित कैफे मोंडेगर दोपहर बिताने की मेरी प्रिय जगह हुआ करती थी. उसके अपेक्षाकृत छोटे हॉल में चारों दीवारों पर मारियो मिरांड़ा ने अपनी चिरपरिचित शैली में मुंबई को रेखांकनों में शुमार किया था. उसके काम से इसके पूर्व में इलेस्‍ट्रेटेड वीकली से परिचित था. जिसमें उनके रेखांकनों का शायद एक नियमित स्‍तंभ था. वैसे द टाइम्‍स आफ इंडिया और इकोनोमिक टाइम्‍स में भी आर के लक्ष्‍मण के बाद कार्टूनों के मुहीद उन्‍हें ही चाहते रहे हैं. मेरे मुंबई छोड़ने से पहले उन्‍हें पदमश्री और मुंबई को मेरे अलविदा करने के 2 वर्ष बाद उन्‍हें पद्म विभूषण प्राप्‍त हुआ.

गोआनी  केथोलिक परिवार में दमन में 1926 में जन्‍में मारियो की रेखाओं में गजब का डिटेलवर्क होता था. वे अपने पात्रों को एक विशिष्‍ट तरीके से रेखाओं मे पकडने में माहिर थे. उन्होंने घर की दीवारों से अपनी कलाकारी के क ख ग की शुरूआत की थी. उनकी इस रुचि को देखते हुए उनकी मां ने उन्‍हें एक खाली नोटबुक दी जिसे वे ड़ायरी कहते थे. उस ड़ायरी में केथोलिक पादरीयों के स्‍केच बनाने पर उन्हें स्‍कूल में बेहद परेशानी का सामना करना पड़ा.

उनके कार्टूनों की एक श्रृंखला ‘मिस नींबू पानी’ बेहद चर्चित रही थी. जो शायद फेमिना में प्रकाशित होती थी. लिलिपुट, मेड, और पंच पत्रिकाओं में काम करने के उपरांत लंदन से लौटने के बाद मिरांड़ा की मुलाकात एक कलाकार हबीबा हायडन से हुई, उन्‍हें परस्‍पर प्रेम हुआ और उन्होंने शादी कर ली. राहुल और राशिद उनके दो बेटे हैं. मारियों के रेखांकनों में मुंबई की तीव्रतम धडकन, उर्जा और उसके जीवंत स्‍पंदन को एक नजर देखकर ही समझा जा सकता है. मैं कैफे मोंडेगर में अपनी ड्राफ्ट बियर के मग के साथ उन्‍हें देखकर रोमांचित हुआ करता था. मुंबई के मेरे शुरूआती वर्ष के अकेलेपन को मारियों की रेखाऍं किस हद तक दूर कर पाती थी, यह उस वक्‍त भी मैं समझ नहीं पाता था और यह सब याद करते हुए इस वक्‍त भी नहीं. दरअसल मारियों जीवन के खूबसूरत क्षणों को और उसके उल्‍लास के समय को ही अपनी रेखांकन-स्‍मृति में ढ़ालते थे. वही सब मुझे भोपाल और इन्‍दौर के मेरे दिनों की याद दिलाया करते थे. जब तपती गर्मी की किसी दुपहर में खुद को भादो के किसी मौसम में खड़ा पाकर मैं अचकचा जाता था.

अक्तूबर से फरवरी तक का समय मुंबई में सबसे खुशनुमा मौसम हुआ करता है. मैं अपनी तमाम व्यस्तता के बावजूद इस मौसम से गाहे-बगाहे बतकही कर लिया करता था. कभी अकेले कोलाबा काजवे की विदेशी सामानों से लदी-फदी लंबी फुटपाथों पर टहलते हुए, तो कभी किसी एसटीडी बूथ से अपने पुराने मित्र के साथ फोन-काटी करते हुए. उस समय मोबाईल तो क्‍या, पेजर का भी जन्‍म नहीं हुआ था. मैं अक्‍सर देर रात को अपने मित्रों की नींद में इस तरह खलल ड़ाला करता. वे जरूर अपने स्‍थानीय मित्रों से इस बाबत मेरी शिकायत करते रहे होंगे.

मारियो ने ड़ाम मोरेस की कृति ए जर्नी टू गोवा, मनोहर मूलगावकर की इन साइड गोवा और मारियो केब्ररल की लीजेंडस आफ गोवा किताबों को अपने रेखाकंनो से सजाया है. उनकी चुनिंदा कृतियों की भी कई पुस्‍तकें है जिनमें लाफ इट आफ, गोवा विथ लव और जर्मनी इन विंटर टाइम्‍स प्रमुख हैं. मारियो के बनाए रेखांकनों मैं गंभीर किस्‍म की हंसी-ठिठौली हुआ करती है दरअसल वे मुंबई और गोवा के उन चरित्रों को स्‍पर्श करते हैं जिनसे वहां के जनसमूह का प्रतिनिधित्व चेहरा उभरकर सामने आता है. मुंबई उस महानगर का नाम है जहां सचिन तेंडुलकर या अमिताभ बच्‍चन या मुकेश अंबानी अकेले कुछ नहीं हैं. वे हैं क्‍योंकि मुंबई के अनगिनत प्रतिनिधियों में वे भी मात्र एक हैं. मुंबई इन सबसे सर्वोंपरि है. मुंबई ने न जाने कितने-कितने रचनात्मक व्यक्तियों का उतार-चढाव देखा है, जाने कितनों को कुछ समय के लिए अपने कंधे पर रखा है और जाने कितनों का नामों निशान लेने वाला तक भी कोई मुंबई में नहीं मिलता. एक तरह से कहा जाए तो मुंबई भावुक मन से व्‍यावहारिक रेलमपेल है. यानी हर जगह, हर तरफ बेशुमार आदमी, फिर भी तन्‍हाईयों का शिकार आदमी.

मुंबई के उस पहले वर्ष में मैंने मुंबई को दिया कम, लेकिन लिया बहुत अधिक….. शायद इतना कि उसकी कई हिदायतें, उसकी कई सीखों को फिलवक्‍त अमल में लाना अभी शेष है. हिंदी में काम करने वालों के साथ समय-बाध्‍यता कोई मायने नहीं रखती. मैंने यह डेड लाइन पत्रकारिता से नहीं, मुंबई से सीखी है. बावजूद इसके मालवी होने के कारण अपना आलस्य पूरी तरह से नहीं, लेकिन थोड़ा सा हटा पाया हूं. इस हिस्‍से में समाए कम शब्‍द उस थोडे बचे-खुचे आलस्‍य का कुपरिणाम है. यकीन करें, आगामी हिस्‍सों में आपको यह शिकायत करने का मौका नहीं दूंगा.

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