4.
होना, मन का तर-बतर होना
मुंबई का पहला साल कुछ-कुछ पहले प्यार की तरह होता है. समझ में कुछ नहीं आता, लेकिन अच्छा लगता है. कोलाबा से वीटी तक के पूरे इलाके के विशालकाय भवनों का स्थापत्य उन सडकों पर घूमते हुए हिन्दुस्तान से बाहर होने की अनुभूति देता है. दिल्ली होगा लुटियंस का और उसके बनाए टीलों को समतल करते और भविष्य को ध्यान में रखते बनाए स्थापत्य का, मुंबई में न मालूम कितने आर्किटेक्टों के सपने अपने ठोस रूप में भौतिक स्थापत्य में ढले हुए हैं. हर भवन का अपना अलग विशिष्ट इतिहास, उसकी खूबसूरत जिजीविषा से भरी निर्माण प्रक्रिया, वहां हुए ऐतिहासिक फैसले, घटनाएं और इतिहास में हमेशा के लिए साधिकार शामिल हो गई महत्वपूर्ण शुरुआतें. पहले साल का मुंबई में रहने का मीठा बावलापन आपके साथ हो तो मुंबई का यह विदेश लगने वाला इलाका आपको एक और जिज्ञासु बचपने में शामिल कर देता है.
मुझे याद है मुंबई का वह पहले साल का बावलापन, जिज्ञासु बचपन जैसी विस्मयकारी लेकिन भली लगने वाली आवारा दिनचर्या और मुंबई के बहाने मुंबई से या मुंबई के बहाने किसी और से घटित हुआ पहला प्रेम. अपनी स्मृतियों में ही नहीं, बल्कि वह बावलापन और बचपन आज भी मैंने अपने साथ बचाए रखा है, मेरे अपने निजी संबंधों में आज भी मैं उतना ही बावला और बचपन से भरा हूं जितना मुंबई के पहले वर्ष में था. यह मेरे जीवन को मिली मुंबई की सबसे बड़ी देन है.
मुंबई का पहला वर्ष हो और मुंबई की आंख-मिचौनी वाली बरसात आपको बाहर से ही नहीं मन की अतल गहराइयों तक न भिगोएं … ऐसा हो ही नहीं सकता. मेरे जैसा व्यक्ति जिसका मन ही सबसे अधिक खुला हो, ऐसी बरसातों की राह देखता था और ऐसी बरसातों में खूब भीगता भी था. यह भीगना मेरे बचपने को, उस समय भी और आज भी उसके चरमोत्कर्ष रूप में एक बार पुन: जीना है.
महालक्ष्मी मंदिर के पीछे रखी बडी-बडी चट्टानों पर दोपहर में केवल वे ही लोग बैठे रहते थे जो सपनों में जीना सीख रहे होते थे. मैं भी मुंबई की मेरी पहली मित्र बनी उस लडकी के साथ ऐसी ही किसी सूखी चट्टान पर बैठा रहता और दो-तीन घंटे बाद जब उठता तो लहरें हम दोनों के साथ उस चट्टान को भी रह-रहकर गीली करती रहती. समुद्र से ऐसी बरसात का आभास भी मुझे मुंबई के पहले वर्ष ही मिल गया. तब तक मैं अच्छी तरह से समझ गया था कि बरसात केवल बादलों से ही नहीं होती है. मुंबई की भरी धूप से खिली दोपहर भी किसी अदृश्य बरसात जैसी ही अनुभूत होती है. मुंबई मेरे लिए एक ऐसी उपस्थिति की तरह रहा है जहां पर में सतत् स्वप्न और अपने मन से मिलता रहा हूं. मुंबई में शुरूआत बसाहट के लिए आपको अपने मन को ही आदिम बनाना पड़ता है, जैसा चल रहा है, उसे नम्रता से स्वीकार करना और उसमें प्रसन्न होकर जीना.
मुंबई कितना ही अतिआधुनिक और टेक्नो-मेट्रोपोलिटन भले हो, लेकिन वहां के रहवासियों में एक खास किस्म का अल्हड देशज भाव मौजूद रहता है. कुछ-कुछ वीतरागी जैसा. शायद इसीलिए मैंने मुंबई के अपने पहले वर्ष में सबसे अधिक अपने को ही पहचानने की कोशिश की. मुंबई में रहते हुए मुंबई को जानना दरअसल अपने आप को ही नए सिरे से अपनी पूरी सीमाओं और ताकतों के साथ जानना है. मुंबई को अधिकाधिक जानने का सीधा सा अर्थ यह है कि आप अपने आप को अधिक पहचानने लगे हैं.
मैंने मुंबई को कभी व्यावसायिक दृष्टिकोण से नहीं देखा. मेरे लिए मुंबई जीवन का जंग जीतने की सीढी की तरह बिलकुल नहीं रही. शायद इसीलिए अपने भीतर की कौशलता को मैंने बाम्बे-बाजार मे कभी भी प्रतिस्पर्धी के रूप में उतरने की इजाजत नहीं दी, सहज शब्दों में मैंने मुंबई से निस्वार्थ प्रेम किया और इसी के चलते अपने भीतर के उस मन को पहचाना जो व्यावसायिक काउंट डाउन की दुनिया से हमेशा बेखबर रहना पसंद करता है. निश्चित ही मुंबई की बरसात ने इसमें मुझे बिना शर्त सहयोग दिया. मुंबई की बरसात मुझसे मेरे पहले वर्ष में इस तरह मिली जैसे वह मेरे जन्म से पूर्व की मेरी गहरी परिचित हो और मेरे जन्म के उपरांत वर्षो बाद मिलते हुए मुझसे इतने बरस दूर रहने की वाजिब शिकायत कर रही हो. वह भी यह जानते हुए कि मेरा जवाब आखिर क्या हो सकता है.
जिस दिन में मुंबई की बरसात में भीग जाता था उस रात बहुत देर तक मुझे नींद नहीं आती थी. मैं अपनी अधनींद के अवचेतन में उसी बरसात से इकतरफा संवाद करता रहता था. तब मुझे भी नहीं मालूम था कि आने वाले वर्षो में मैं अपने उन आत्म-संवादों को मुंबई के पाठकों के लिए लिखूंगा. हर वर्ष 7 जून के आसपास आने वाले रविवार को जनसत्ता के सबरंग की आवरण कथा मैंने इसी बरसात पर लिखी थी शायद 6 या 7 वर्ष तक. मुंबई में कालबादेवी रोड पर छातों की एक बड़ी दुकान है जिसका नाम ही 7 जून है. यही तारीख प्राय: मुंबई में मानसून आने की भी होती है. यानी पहले वर्ष के उपरांत मैं हर वर्ष मुंबई के मानसून और उसकी बरसात का स्वागत अपने शब्दों से करता था, अपने अनगिनत पाठकों के साथ.
मुंबई की बरसात एकाएक ही आती है. आप जब तक अपनी छतरी खोलने के लिए उसका बटन दबाए तब तक वह आपको भिगो देती है. मेरे शहर इंदौर की बरसात के ठीक विपरीत, जहां बरसात अपने आने का संकेत पूर्व में कर देती है और आप उससे बचने और काम निपटाकर घर पहुंचने की सुविधा का लाभ उठा सकते हैं. लेकिन मुंबई की यह बिना दस्तक की बरसात अपने में विशिष्ट रोमांच लिए होती है, किसी को एक नजर देख लेने, थोडी देर बात करने या ऐसी ही अनपेक्षित, अकस्मात किसी भी बात पर प्यार हो जाने जैसी. आपको बरसात का और अपने भीगने का तब पता चलता है जब आप भीग चुके होते हैं. मेरे लिए यह आपसे मिलने की, आपको अपने आगोश में लेने की बरसात की तरफ से आदिम पहल ही है.
उस अपार जनसमूह वाले ग्रेटर मुंबई में यह बरसात ही है जो हर व्यक्ति के लिए अपना एम्पटी स्पेस लेकर आती है. कम से कम मैंने तो उसे इसी तरह जाना है. तब मुंबई कहीं अदृश्य हो जाती है और शेष रहती है बरसात और उसमें भीगता मन. लोगो का जैसा मन होता है, बरसात उसे उसी तरह से भिगोती है. आखिर रतन खत्री और दाउद भी कभी इन्हीं बरसातों में न मालूम कितनी बार भीगे होंगे, हर्षद मेहता की मोटी चमडी ने बरसात को किस तरह से लिया होगा, यह दलाल स्ट्रीट का इतिहास जानता है. अलबत्ता राजकपूर अपनी अल्हड़ मस्ती में निर्विकार भाव से बरसात में जरूर भींगते थे. क्योंकि उन्हें पता था कि बरसात का पानी भी इसी मिट्टी में समा जाना है और एक दिन उन्हें खुद भी. बरसात का राजकपूर के जीवन के साथ अटूट संबध था. अपनी सेल्यूलाइड की रचनाशीलता से उन्होंने इसी बरसात को भव्य सलाम भी किया और बरसात की मूक भाषा को अपने जरिए लोगों तक पहुंचाया.
बालीवुड में एक दौर था जब बरसात के दृश्य फिल्माने के लिए वाकई बरसात के मौसम का इंतजार किया जाता था. अब तो दशकों से पानी के टेंकर ही रूपहले परदे पर बरसात करा देते हैं.
मुझे वाकई विस्मय होता है जब मैं पाता हूं कि कला और नृत्य-संगीत की शास्त्रीय दुनिया में मुंबई की यह बरसात सिरे से नदारद है. क्या वास्तव में मुंबई में बरसात महज एक मौसम का हिस्सा है या उसका वजूद मौसम से कई बड़ा है. मुझ जैसे कई सारे लोगो के लिए वह मौसम मात्र नहीं है. वह मुंबई की अप्रत्यक्ष धडकन है. निश्चित ही सकारात्मक भी और नकारात्मक भी. कुछ वर्षो पूर्व मुंबई में हुई भारी बरसात ने जो अपना तांडव दिखाया था, वह इसके भुक्तभोगी अभी तक भूले नहीं होंगे. अकेली दलाल स्ट्रीट ही समूचे देश को हिला नहीं सकती. मुंबई की बारिश भी ऐसा कर सकती है. वैसे हर बरस बरसात के दिन एशिया की सबसे बडी स्लम बस्ती धारावी के लिए सबसे त्रासद और यातना से भरे होते है. यह मुंबई में रहने की प्रकृति की अपनी चुंगी है, जिसका नाका निश्चित ही बादलों से अपना कार्य संचालन करता है.
मुंबई में प्राय दो-तीन दिन लगातार पानी की झडी लगना बरसात के हर मौसम की खास विशेषता है. इन दिनों मुंबई पूरी तरह ठप्प हो जाता है. वेस्टर्न लाइन, सेंट्रल लाइन और हार्बर लाइन की पटरियों पर दौडने वाली धडकने भी सहम कर रूक जाती हैं. उन पटरियों पर एक फीट से चार फीट पानी जमा हो जाता है. बेस्ट की बसें और टैक्सीयों की बजाए सडकों पर पानी का ही एकमात्र साम्राज्य तैरता रहता है. जो जहां है, उसे वहीं ठहर जाना होता है. दफ्तर हो, स्टेशन हो, ट्रेन हो या अन्यत्र कोई जगह. रात और दिन का फर्क मिट जाता है. न मालूम कितने परिचयों का जन्म इन्हीं अप्रत्यशित ठहराव के क्षणों में होता है. न मालूम कितना परिचय प्रेम में तब्दील होता है और कितना सबसे पुरातन देह-व्यवसाय मे ढलकर उस समय को भी संकोचहीन व्यवसाय बना देता है. मुंबई के लिए अपने एक मिनिट का मतलब होता है करोडो रूपए का व्यवसाय, जीवन भर साथ निभाने का वादा करती अनगिनत आंखे, असंख्य साजिशे और षडयंत्र, अपनी हद में रेलवे लाइन के पास से लेकर लीलावती हास्पिटल तक जन्म लेते न मालूम कितने जीवन….., लोकल ट्रेन से गिरकर, समुद्र में डूबकर, रोड एक्सीडेंट में या बीमारी के चलते पटाक्षेप करती सांसे, हर दिन बदलती डिजाइनर ड्रेस, जूतियों से लेकर सुगंधित मोमबत्तिया. समय के खोखलेपन की हवा से भरा स्टारडम का गुब्बारा, एनकांउटर, सुपारी लेना ओर उसे पूरा करने का जोखिम भरा मकसद, सुबह से लेकर देर रात भर खचाखच भरे देशी और अंग्रेजी बार.
भिंडी बाजार, ग्रांट रोड, ताडदेव और कांग्रेस हाउस तक फैला अनवरत देह व्यापार का रोमांच, नरीमन पाइंट में विराजमान कारपोरेट हाउस के मुख्यालय, तीन मिनिट की मीटिंग में अरबों के कारोबार की डीलिंग, महाकाली केव्स, गोरेगांव ओर म्हाडा चारकोप में बालीवुड में अपने हुनर और देह को बेचने आई लाखों युवा जिंदगियां….. मुंबई के लिए एक मिनिट महज एक मिनिट नहीं है. मुंबई के इस एक मिनिट में डेढ करोड लोग न मालूम कितनी बार सांस लेते होंगे. मुंबई का समय देश के किसी भी महानगर से बड़ा समय है. मुंबई के इस समय में सेंध लगाने वाली आतंकवादी गतिविधियां भी मुंबई की इस लय और गति को थामने में हमेशा नाकाम ही रही है.
मैं उस बरसात को सलाम करता हूं जो मुंबई के इस समय पर बिना आने की सूचना दिए बरस पड़ती है. मुंबई में ऐसा क्या है जो मुंबई की बरसात से छिपा हो. कितने-कितने रहस्यों, भेदों ओर कभी न सामने आई सफलताओं के साथ असफलताओं को यही बरसात चुपचाप देखकर अपनी अनुभव संपदा बढाती रहती है. सआदत हसन मंटो ने कभी इसी बरसात के दौरान अपने कमरे में बैठ न मालूम कौन सी कहानी लिखी होगी? राजिंदर सिंह बेदी, इस्मत आपा, कैफी साहब, साहिर क्या कभी मुंबई की बरसात में भीगकर कुछ नया लिखने की खुराफात में नहीं रहते होंगे? अपने शुरूआती संघर्ष के दिनों में लोकल ट्रेन में सफर करने वाली लता मंगेशकर के गले का स्पर्श क्या इस बरसात ने नहीं किया होगा? अपना पेट भरने के लिए लकड़ी के खिलोने बनाते और सिनेमा के होडिंग्स को पेंट करते मकबूल फिदा हुसैन को क्या कभी मुंबई की बारिश में भीगते हुए मालवा यानी इन्दौर की बरसातें याद नहीं आती होंगी?
दादर स्थित अपनी चाल की खोली में बरसात के कारण बाहर नहीं निकल पा रहे धीरूभाई अंबानी को इसी बरसात की बूंदो से अपने सपने बनाने में मदद नहीं मिली होगी? क्या सुनील दत्त कभी नरगिस के साथ इस बरसात में मुंबई की मैरीन ड्राइव पर नहीं टहले होंगे? शायद उस समय जब संजय दत्त का जन्म भी नहीं हुआ होगा. क्या दक्षिण से आई सभी सुपरस्टार नायिकाओं को बालीवुड के अलावा मुंबई की बरसात से प्रेम नहीं हुआ होगा? क्या ख्यातनाम पक्षी विशेषज्ञ सालिम अली की आत्मा अभी भी बरसात की किसी बूंद में शामिल हो मुंबई का स्पर्श करने की इच्छा नहीं रखती होगी ……. ?
मुंबई की बरसात मेरे लिए आकाश गंगा के बहने जैसी ही रही है. कुछ कुछ रहस्यमय, थोडी अस्पष्ट…… अपने बहने के साथ ही विकल होती हुई….. क्या केवल पानी ही बहाती है यह बरसात….. या अश्रु , स्वेद और रक्त भी….. अपने अन्तर में कितनी व्याकुलता, कितनी छटपटाहट, कितना स्वत्व-रस और कितना अनजाना लेकिन मीठा मनुहार लाती है यह अपने साथ….. आज भी उस बारिश में अपने को तर-बतर करने की इच्छा रखता है यह मन…… मुंबई में बाहर से आने वाले को ताकीद दी जाती है कि वे बरसात में ना आए. गोया बरसात उन्हें लील ही जाएगी. मुंबई छोडने के बाद मैं बरसात में ही मुंबई जाने की उधेडबुन में रहता हूं. मुंबई अगर मेरा प्रेम है तो बरसात उसकी सबसे प्रिय भाव-भंगिमा. जिसमें लास्य भी है, तांडव भी. इसी बरसात में किसी अटरिया पर अपने प्रेम के दीपक को जलाए रखना चाहता हूं मैं. विरोधाभास न हो तो मुझ जैसा व्यक्ति प्रेम कर भी नहीं सकता.
मुंबई में रहते हुए मैंने ऐसे कई मित्रों को देखा है जो वहां की बरसात को कोसते रहते थे. मैं चुप रहता था. ये वही लोग होते थे जिनकी सार्वजनिक छवि बेहद संवेदनशील थी. लेकिन मेरी समझ में उनकी संवेदना का एक बड़ा हिस्सा बरसात से बचने की उठा-पटक के कारण शून्य से भरा था. ऐसे लोग मेरे लिए प्रकृति में भी केवल अपनी सुविधा देखने वाले लोग थे.
चर्चगेट के पास बने होटलों में रूके खाडी देशों के उन पर्यटकों को मैं बड़ी दिलचस्पी से देखता था जो अपने देश से दूर मुंबई में केवल बरसात देखने और उसमें भीगने के लिए आते थे. बरसात उनके जीवन में उनकी देह को स्पर्श करके दृश्यमान होते किसी जादू की तरह होती थी. जनसत्ता में मैंने उन लोगों पर एकाधिक बार लिखा भी था.
मेरी अपनी अल्पबुद्धि में मुझे अब भी यही लगता है कि मुंबई में रहने वाला अगर बरसात से चिढता है तो वह निहायत स्वार्थी किस्म का व्यक्ति होगा. बरसात का मौसम अपनी अप्रत्याशित आंख-मिचौनी के कारण मुझे जितना प्रिय है उतना ठंड या गर्मी की एकरसता नहीं. बरसात तो आकाश और जमीन के दरमियान होने वाला परस्पर अनहद है. इसका न कोई शास्त्र है, न कोई छंद और न ही कोई मात्रा. इसकी कभी न पकड़ आने वाली लय को अपने-अपने जीवन से मिलाना होता है. तभी तो समझ आता है जीवन का बेसुरापन और उसकी अनियंत्रित ताल.
उस समय मुंबई मे कुछ इलाके ऐसे थे जहां थोड़ी बरसात से ही आवागमन ठप्प पड़ जाता था. जैसे बांद्रा से माहिम की तरफ आते पुल का नीचे उतार वाला हिस्सा. लोअर परेल और एलफिंस्टन रोड का कुछ इलाका. मेरे लिए यह उस महानगर की भागती-दौड़ती-हॉंफती जिंदगी में थोड़ा ठहरकर उसी जिंदगी के और अपने होने को थोड़ा ठिठककर और थमकर देखने की तरह ही होता था.
मैजेस्टिक एमएलए होस्टल, कोलाबा में रहते हुए दोपहर की बरसात मैंने कभी कमरे से नहीं देखी. बीमार होने की फिक्र किए बिना नरीमन पाइंट की तरफ बिना छतरी लिए तफरीह करना ही मेरे लिए होने वाली सर्दी-जुकाम की पूर्व तीमारदारी होती. यह सब लिखते हुए मैं अपने उन गीले वस्त्रों को याद कर रहा हूं जो समय के चक्र में पुराने होने की वजह से न मालूम कहां बिसर गए. लेकिन वह शरीर तो अब भी मेरे पास है. अलबत्ता उस भीगते समय की शरीर की सिहरन भी शायद किन्हीं रक्त-कौशिकाओं में जाकर गुम हो गई है.
जब सब कुछ बीत जाता है तब शब्द ही अपने होने से उसका स्मृति-सुख और सामीप्य अनुभव दे पाते हैं. लेकिन ठीक ठीक वैसा नहीं, जैसा कि वास्तव में हुआ था. शब्द आभासीय सुख तो दे सकते हैं, बरसात की उन बूंदो की नमी और तरलता प्रदान करने में वे भी असमर्थ हैं. इतना जरूर जान गया हूं कि शब्द बरसात में भीगने का रोमांच और सुख तो नहीं दे सकते लेकिन बरसात अपने साथ केवल पानी ही नहीं, अभी तक की सभी भाषाओं के शब्द भी बरसाने की सामर्थ्य रखती है, बशर्ते हम उन्हें पढ़ने में अनपढ़ न हो.
मुंबई की बरसात में भींगते हुए मेरा मन ठेठ अपनी मनमर्जी का मालिक हुआ करता था. कभी आसक्त तो कभी अनासक्त…… आज सोचता हूं कि तब क्या बरसात इसी तरह मेरे मन को छेडते हुए मुझे भिगोती रही थी. क्या वह भी समझती थी कि उससे प्रेम करने वाले मन को छेडने का केवल उसे ही अधिकार है. मेरे दस वर्ष के मुंबई रहवास में पहली बरसात ने ही मेरा जीवन अनुशासन ठेठ अपनी स्वछन्द मर्जी से ढाल दिया था. जो मुंबई को विदा करने के बाद भी बदस्तूर जारी है.
मुझे याद है बाद के वर्षो में एक बार बरसात के चलते लोकल ट्रेन और टैक्सियों के बंद होने के कारण प्रेस क्लब से निकलकर मैं और संजय मासूम चर्चगेट स्टेशन से पटरियों के रास्ते, जिन पर दो-ढाई फीट पानी भरा था, दादर तक गए थे और वहां से लबालब भरी सडक के रास्ते काफी दूर चलकर हमारे मित्र सचदेवजी के घर कुछ और रसरंजन ग्रहण करने चले गए थे. उनकी बेटी राजश्री सचदेव ने हमारे लिए कुछ खाने की व्यवस्था की थी. यह वही राजश्री है जिसे कुछ वर्ष बाद श्याम बेनेगल ने ‘सूरज का सातवा घोडा’ में नायिका के रूप में प्रस्तुत किया था. तब उसके जीवन का पहला इंटरव्यू मैंने लिया था और जनसत्ता में ‘मुझे छिपकली से बहुत डर लगता है’ शीर्षक से प्रकाशित किया था. संजय मासूम सनी देवल केम्प की प्राय: सभी फिल्में लिखने के बाद राकेश रोशन से जुडे और क्रिश की अपनी संवाद लेखन की सफलता से गुजरते हुए इन दिनों क्रिश-तीन लिख रहे हैं. फिल्मी दुनिया में आई लेखकों की युवा पीढी में संजय बरसात की बूंद की तरह नम और आल्हादित करने वाले व्यक्तित्व हैं. वे एक बेहतरीन शायर भी है. उस दौर में उन्होंने यह लिखकर काफी वाहवाही लूटी थी.
लम्हा लम्हा जहर हुआ है, रिश्ता रिश्ता घायल है
कहां है शंकर, कौन पिएगा, जीवन एक हलाहल है
संजय मेरी ही तरह बरसात से प्रेम करने वाले रहे हैं शायद इसीलिए हम लोगो ने बरसात में बेवजह बहुत मटरगश्ती भी की है. अंधेरी के जिस फ्लेट में संजय पहले रहते थे, उस कालोनी में भी बरसात में अच्छा खासा पानी भर जाता था और पानी के सांप उसमें तैरते रहते थे. हम लोग अपनी मस्ती में बिना उन सापों की फिक्र किए न मालूम क्या-क्या गुनगुनाते हुए उस फ्लेट में जाते थे और खा-पीकर मेरी नींद वही गुजरती थी. हमें भीगा हुआ देखकर भाभी हमेशा हमारे लिए गर्म खाना बनाती थी. पता नहीं अब शेष जीवन में उस तरह से जीना कभी हो पाऐगा या नहीं.
मैं मुंबई की बरसातों में जिन अन्य मित्रों के साथ बहुत मर्तबा भींगा हूं उनमें गोपाल शर्मा, हरि मृदुल, वेद विलास उनियाल, पूरन पंकज, कमलकांत, राजीव उपाध्याय, ऋषिकेश राजोरिया, सिब्बन बैजी, शीलकुमार शर्मा आदि रहे हैं. इन सभी के साथ बरसात से जुड़ी कई सारी समृतियां हैं जो विदर्भ की कई महीनों चलने वाली तपन में मुझे राहत देती है. बरसात से जुड़ा एक सच्चा वाकया ऋषिकेश राजोरिया का जनसत्ता की एक सहयोगी के साथ हुआ था जिसे उसने कहानी में ढाल दिया था. मैंने मुंबई की अपनी पहली नौकरी निर्भय पथिक के दीपावली विशेषांक में वह कहानी प्रकाशित कर दी थी, तब उस कहानी पर जनसत्ता की संपादकीय टीम में अच्छा-खासा रोचक हंगामा हो गया था.
मेरे मन का मोम आग से उतना नहीं पिघलता जितना बरसात से. मेरे लिए बरसात के वे दिन अतिरिक्त खुशियां लाने वाले दिन होते थे. बरसात में भींगकर पृथ्वी थिएटर के केफे में आयरिश काफी पीते हुए मैं अपने आपको वाकई सुखी महसूस करता था. यह जानते हुए भी कि मुंबई की प्रतिस्पर्धा भरे जीवन में इस सुख का कोई यथार्थवादी अर्थ नहीं है. लेकिन मैं खुश होता था, बरसात मे भीगकर और प्रतिस्पर्धा से हमेशा बाहर रहकर. मेरे खुश रहने के मायने आज भी नहीं बदले.
यह मुंबई की बरसात ही थी जिसने मेरे निजी जीवन में सबसे अधिक साधिकार अप्रत्यक्ष दखलंदाजी की है. पहले विश्वास देकर और फिर कुछ बरस बाद उसी विश्वास को अपने ही पानी में बहाकर मुझे निपट अकेला भी छोड़ा है. बारिश खुद गवाह होगी कि मैंने उसकी वजह से आए मेरे जीवन के बदलाव को नम्रता से ही ग्रहण किया है. मुझे किसी से शिकायत नहीं है. आखिर अपनों से भला शिकायत कैसे ओर क्यों हो सकती है. मेरे अपनों का भी अंतत: अपना जीवन है जिसे सम्मान देना इसी बरसात ने मुझे सिखाया है. इतना जरूर होता है कि रह-रहकर बारिश मुझे मेरी स्मृतियों में भीगने का मौका देती है, मैं भीगता रहता हूं. एक भोली और मासूम इच्छा लिए कि मैं इस तरह भीगते हुए कभी सूख नहीं जाऊँ. और जब सूखने लगता हूं तो कभी-कभी इन शब्दों से ही थोड़ा सा भींग लेता हूं. यह समझते हुए कि कोई मेरे इस भींगने को नहीं देख रहा होगा. शायद आप भी नहीं……
राकेश श्रीमाल पढाई की रस्मी-अदायगी के साथ ही पत्रकारिता में शामिल हो गए थे. इंदौर के नवभारत से उन्होंने शुरुआत की. फिर एकाधिक साप्ताहिक और सांध्य दैनिक में काम करते हुए मध्यप्रदेश कला परिषद की पत्रिका ‘कलावार्ता‘ के सम्पादक बने. इसी बीच कला-संगीत-रंगमंच के कई आयोजन भी मित्रों के साथ युवा उत्साह में किए. प्रथम विश्व कविता समारोह, भारत भवन, कथक नृत्यांगना दमयंती जोशी, निर्मल वर्मा, खजुराहो नृत्य महोत्सव और कला और साम्प्रदायिकता पर कलावार्ता के विशेषांक निकाले. फिर मुंबई जनसत्ता में दस वर्ष काम करने के पश्चात महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से ‘पुस्तक-वार्ता‘ के संस्थापक सम्पादक के रूप में जुड़े. मुंबई में रहते हुए उन्होंने ‘थिएटर इन होम‘ नाट्य ग्रुप की स्थापना की. वे कुछ वर्ष ललित कला अकादमी, नई दिल्ली के कार्य परिषद सदस्य और उसके प्रकाशन परामर्श मंडल में रहे. दिल्ली में रहते हुए एक कला पत्रिका ‘क‘ की शुरुआत की. उनके दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. फिलहाल कोलकाता में इसी विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय केंद्र से ‘ताना-बाना‘ पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं. 9674965276 |