जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता कुमार अम्बुज |
जब आप कला-संग्रहालय में अनवरत बैठते हैं तो ख़ुद भी उसका हिस्सा होने लगते हैं. जैसे कोई विस्तारित कलाकृति. या उसका अनुसंलग्नक. मेरे पीछे एक पुरातन बंद दरवाज़ा है और आगे रस्सी की बाड़. यह बाड़ मर्यादा है ताकि चित्रों को एक सुरक्षित, दूरीजन्य दीर्घायु मिल सके. संग्रहालयों के प्रवेश कक्ष का यह सामान्य-सा दृश्य है. मैं यहाँ रक्षक के पद पर काम करता हूँ. इस रोज़गार को ऊब भरा कह सकते हैं लेकिन ख़राब नहीं. ख़ासकर जब आप पहले बढ़ईगिरी में हाथ आज़मा चुके हों, आरा मशीन की कर्कश आवाज़ों और झरते-उड़ते बुरादे से निकलकर आए हों. फिर एक चलित-बैंड से विदा लेकर जो शहर-दर-शहर लंबी यात्राएँ करता हुआ अपना संगीत पेश करता हो. उन दिनों मेरे पास अपने हिस्से का शोर था, अब यहाँ अपने हिस्से की चुप्पी है. आपने देखकर सुना होगा और सुनकर देखा होगा कि संग्रहालयों में ख़ास तरह की शांति होती है, जिसे दर्शकों की खुसुर-पुसुर भंग नहीं करती, रेखांकित करती है. कला संग्रहालय शांति को केवल आमंत्रित ही नहीं करते बल्कि किसी अदृश्य नियम से उसे लागू भी कर देते हैं.
यहाँ मैं अनेक युगों के बीच विचर सकता हूँ. साम्राज्यों के उत्थान, पतन, प्रेम और हिंसा से साक्षात कर सकता हूँ. सभ्यताओं की असभ्य यात्रा के संस्मरण बाँच सकता हूँ. उठे हुए हाथ, कटे हुए सिर देख सकता हूँ. और प्रफुल्लित, गर्वीली मुख मुद्राएँ. इतिहास की जीवनचर्या और रंगों के संयोजनों को एक साथ देखने का दरीचा खुला है. मैं संग्रहालय का चक्कर लगाता हूँ, दीर्घाओं से गुज़रता हूँ तो अपनी ऊब से मुक्त होने लगता हूँ. यहाँ काम कर रहे सभी रक्षकों, कर्मचारियों के साथ ऐसा नहीं होता. वे दूसरी मौज़ मस्तियों के बारे में सोचते रहते हैं, अपनी आपाधापी और तनावों में डूबे रहते हैं. वे ऊबते ही रहते हैं. संग्रहालय में नौकरी का यह अर्थ सबके लिए नहीं हो सकता कि वे कलाकृतियों से प्यार करने लगें. उनसे उनका संवाद होने लगे. या उनसे कोई जैविक संबंध बन जाये. जैसा मेरा बन गया है.
संग्रहालय में मेरा प्रिय कमरा ‘पीटर ब्रुएगल द एल्डर’ के चित्रों का है. यह अतिशयोक्ति नहीं. यह दर्शकों के बीच भी सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है. मेरे लिए यह गहरी श्वास भरने जैसा है. थकान और उदासी पर विजय पाने की तरह. ब्रुएगल के चित्रों में किसी विशाल कालखंड की अनगिन गतिविधियाँ एक साथ दिखती हैं. जीवन का संकुल और सत्व एक संग. एक अखंडित कथा. संपूर्णता में अपरिमित दृश्यावली. कितनी भी सावधानी, किसी क़दर ध्यान से देखो फिर भी कुछ न कुछ देखने से छूट जाएगा. देख लिया तो समझने से रह जाएगा. किसी अगली मुलाक़ात के लिए स्थगित. फिर कभी बीच नींद में, चैतन्यावस्था या मूर्च्छा में याद आएगा कि हाँ, उस चित्र के पास अभी एक बार और जाना है. यह एक बार कभी अंतिम बार नहीं होता. ब्रुएगल के बारे में यह उक्ति कुछ अधिक सच्चाई है. कलाओं के बारे में एक बार फिर तुम्हें याद आएगा कि जब-जब उनके पास जाओेगे तो वे हर बार अपना नया आयाम दिखाएँगी. तुम हर बार कुछ पुनराविष्कार करोगे. या कोई एक नयी खोज. किसी नये रंग की. स्वप्न में देखी किसी चीज़ की. दृश्य में रह गए अदृश्य की.
(दो)
यहाँ कितने दिनों बाद यह एक दिलचस्प दर्शक है. उत्सुकता और जिज्ञासा से भरी. जिसके पास कला को देखने का धीरज है. इस तरह धैर्य के साथ कलाकृति देखते हुए तुम नक्षत्रों के पास जा सकते हो. कई बार तुम नक़्शों में कुछ खोजने लगते हैं. किसी रंग, किसी बिंदु, कोई वनस्पति, एक टटकी भंगिमा से जिज्ञासु हो उठते हो. भ्रम, संदेह और उत्कंठा के त्रिकोण के अचरज में पहुँचकर उल्लसित. कैनवस की ज़मीन का धूसर हिस्सा, मिट्टी का ढेला, आसमान का कोना या वृक्ष की कोई टहनी, टूटा हुआ खिलौना या एक निर्वात, एक द्वार, एक अँधेरा याद दिलाता है कि तुम भी किसी स्मृति से पीठ टिकाकर अपना जीवन बिता रहे हो. तब अदेखे भूदृश्य तुम्हें आवाज़ देने लगते हैं और अवश तुम नक़्शे पर झुक जाते हो. उन ख़ुशियों का पीछा करना चाहते हो जो कल्पनाओं में आरक्षित हैं. चूँकि उन्हें अग्नि जला नहीं सकती, बारिश गला नहीं सकती, हवा उड़ाकर नहीं ले जा सकती परंतु वे विस्मृति के कोटर में जाकर गिर सकती हैं. कोई चित्र उनकी याद दिलाता है तो वे कोहरे से, धुंध से बाहर आती हैं. फिर उनका विलीनीकरण, वाष्पीकरण रुक जाता है. वे सुबह शाम की धूप में पीली-सुनहरी होकर चमकने लगती हैं. दुपहर की झपकी में तुम्हारी पलकों पर बैठ जाती हैं. चाँदनी में तुम्हें तुम्हारे नाम से पुकारती हैं. वे तुम्हें अपना पीछा करने के लिए बाध्य करती हैं.
अचानक तुम कलातंद्रा से बाहर निकलती हो, संज्ञान लेती हो कि अभी तुम कहाँ हो और दरअसल तुम्हें कहाँ होना चाहिए. अपनी चाहत, अपने उजाड़ को याद करते हुए सोच रही हो कि यह चित्र संभवत: तुम्हें तुम्हारी सपनीली जगहों तक पहुँचाकर कोई चिराकांक्षी जीवन दे सकेगा. तुम रास्ता पूछती हो तो याद आता है इस शहर में तुम किसी और काम से आई हो. किसी बीमार की तीमारदारी के लिए. उसकी चिकित्सा के लिए. इस संग्रहालय में तो तुम यों ही, समय व्यतीत करने के लिए चली आई हो. तुम बरसों पहले भी इस शहर में आईं थीं लेकिन अब कुछ याद नहीं आता. चौराहे, गलियाँ, इमारतें, रास्ते धूमिल हो चुके हैं. बदल गए हैं. जितने स्मृति में नहीं उतने यथार्थ में. अब उन्हें पहचानना, ढूँढ़ पाना कठिन है. अगर एक-दो चीज़ें नहीं बदली हैं तो वे तुम्हें विस्मित करती हैं. जैसे शहर के कैनवस में चित्रित उन जगहों को ऋतुओं ने, धूल और उमस ने, सीलन और बर्फ़ ने किसी दया या प्रेम के अधीन बख़्श दिया है.
एक आईना तुम्हें देखता है और परावर्तित करता है. लेकिन यहाँ तुम एक चित्र देखती हो और उस से परावर्तित होने लगती हो, मानो वह कोई जादुई आईना है जिसमें पिछले जीवन के प्रतिबिंब भी दिखते हों. तुम चित्र को इतनी देर तक देखती हो कि बाक़ी दर्शकों से पृथक हो जाती हो. तुमसे बातचीत संभव है. तुम उस भाषा को समझ सकती हो जिसे मैं बोलना चाहता हूँ. मैं तुम्हारी अभिव्यक्ति समझ सकता हूँ. संग्रहालय के पास मुँडेर पर दो कबूतर बैठे हैं, एक दृष्टि से वे किसी पेंटिंग में चित्रित लगते हैं. जैसे कहते हों- एक चित्र, दो मित्र.
गंभीर रोगग्रस्त, अचेत मरीज का इलाज कराने की ऊब समझी जा सकती है. तुम इसकी उदासी से पार पाने के लिए अस्पताल के क़रीब इस संग्रहालय में आती हो. कलाकृतियों के पास. उनमें तुम्हें जैसे कोई सूत्र दिखता है, कोई वर्णन जो तुम्हारी कथा कह रहा है. जीवन का कोई रंग जो तुम्हारे पास नहीं है लेकिन चित्र में है. मैं यह सोचकर तुम्हारे साथ इस शहर में घूमता हूँ कि यदि मैं तुम्हारे शहर में भटक रहा होता तो कोई मेरी भी मदद करता. शायद तुम ही. यह जीवन है, इसकी राहें उलझाती हैं तब यकायक कोई मिलता है जिससे तुम राह पूछते हो, कोई है जो रास्ता बतलाता है. कोई कुछ दूर तक साथ चलकर रास्ता दिखाता है- इधर से, उस तरफ़ बाएँ, कोने के पेड़ से दाएँ, उस पुलिया से सीधे. एक बढ़ा हुआ हाथ. जैसे किसी चित्र में केवल हाथ महत्वपूर्ण हो जाता है, बाक़ी चीज़ें, अंग, प्रत्यंग और जगहें पृष्ठभूमि हैं लेकिन वह एक हाथ हमें थाम लेता है. दूसरे चित्रों में किसी फूल का विदीर्ण लाल या पत्ते का जर्जर पीला या एक करुण आँख. तुम कुछ नये प्रकार के फूल, तितलियाँ, अलग तरह की घास पहली बार चित्र में देखती हो क्योंकि वे तुम्हारे निवासीय भूगोल में नहीं हैं. तुम्हारे आवासीय पर्यावरण में नहीं. तुम उनके भीतर धँस जाना चाहती हो, जैसे वे तुम्हें अभिमंत्रित कर रहे हैं और आमंत्रित भी. हर अच्छी कलाकृति में से उत्सुक दर्शक के लिए एक आवाज़ उठती है- ‘कृपया, भीतर आइए’. अब तुम चित्र में हो और चित्र के बाहर भी.
यह द्वैत है. यही अद्वैत.
(तीन)
निश्चेतनता में पड़े आदमी से बात करना, कलाकृति से बात करने की तरह लग सकता है. तुम बोल रहे हो, वह सुन रही है. जवाब कुछ नहीं लेकिन कुछ देर में लगेगा कि वार्तालाप हो रहा है. देह स्थिर है. लेकिन बात करो क्योंकि अचेत होने से पहले यह एक संग्रहालय में थी. इसे चित्रकला से प्रेम है. चर्चित चित्रों के बारे में कुछ बात करो, उनका विवरण दो तो शायद इसकी चेतना फिर जाग्रत हो सके. जैसे कहो कि रेम्ब्राँत के आत्मचित्रों को सस्ते कैनवस पर देखकर लगता है मानो ग़रीबी ही कला की संरक्षक है. और यह कि निर्धनता कलाकार की हो सकती है, कला की नहीं. आरचिमबोल्दो के बनाये ऋतुओं के चेहरों के बारे में बताओ कि वसंत, ग्रीष्म और शीत में वे कैसे लगते हैं. क्या नीले आसमान के नीचे नदी भी नीली रह पाई है. लेकिन यहाँ देखो: वह चट्टानों, पहाड़ियों के सानिध्य में इतनी नीली है कि अतेरिकी लगती है. नष्ट होने में बचे रहने और बचाए रखने की प्रगल्भ कोशिश.
चलो, बाहर घूमते हैं. यह ख़ूबसूरत शहर है. यह चित्रमय है. यह ध्वंस को झेलकर वापस खड़ा हुआ है. इसलिए अधिक सुंदर हो गया है. इसका पूरा क्षेत्रफल ही कैनवस है और जो कुछ हमें दिखता है वह मानो किसी ने इस पर चित्रित कर दिया है. चलायमान है लेकिन चित्रित है. तुम कला नहीं समझते तो इस वाक्य को भी नहीं समझोगे. चौराहे पर यह शिल्प है- औंधी कर दी गई लाईब्रैरी का शिल्प. इसमें पुस्तकों की ज़िल्द से पन्ने बाहर की तरफ़ दिखते हैं. मानो जितने पृष्ठ, उतने ही मारे गए निरीह लोग. यह घृणा का, हत्यारी मानसिकता का स्मारक है. ये यहूदी थे, लेकिन इनकी जगह कोई दूसरी जाति हो सकती है. किसी दूसरे देश में कोई दूसरी प्रजाति. मैं तुम्हें विएना की सैर कराऊँगा और संग्रहालय की. बात एक ही है. अपने शहर के स्थल अतिथि को दिखाना एक अलग अनुभव है, ख़ुद अकेले देखना दूसरा अनुभव. तब आप वह देखते हैं जो दिखाते समय नहीं दिखता. इसका उलट भी सच है. आप जब शहर में भ्रमण करते हैं तो अप्रत्याशित प्रसन्नता मिल सकती है, यह सोचते हुए कि क्या यह विशाल मूर्ति, यह पत्थर, यह वृक्ष, यह स्थापत्य अभी तक मेरी राह तक रहा था. जैसे मेरी प्रतीक्षा में व्याकुल था. लेकिन धीरोदात्त भी. ऐसी व्यग्रता जो धैर्य में निवास करती है.
अपने ही शहर में बिखरी हुई कला से मुलाक़ात करने में लंबा अंतराल बन जाता है क्योंकि जीवन ऐसा हो चुका है जिसमें जीवित रहने के लिए सुबह से देर रात तक काम करना पड़ता है. या कई तरह के काम, एक दिन में कई जगह जाकर करना पड़ते हैं. इसके बिना गुज़ारा नहीं. हम अपनी इच्छा से क्रीतदास बनने के लिए विवश हो चुके हैं. हमारी सहमति से ही हमारा अपहरण किया गया है. लेकिन हम ख़ुश होते हैं कि हम बारोज़गार हैं. एक समय था, शायद हमारे पूर्वजों के पास, कि वे ग़लतियाँ करते थे और उनसे कुछ सीखते थे. अब ग़लती करने का मौक़ा नहीं. आप एक ग़लती करेंगे और उसी वक़्त रोज़गार से हाथ धो बैठेंगे. आपके पीछे एक अंतहीन क़तार इंतज़ार में है. मेरी ख़़ुशनसीबी है कि मैं संग्रहालय में हूँ. और इसका वेतन मिल रहा है. क्या इसे मैं दोहरी ख़ुशी समझ सकता हूँ?
(चार)
देखो, इस चित्र में स्त्री-पुरुष नग्न हैं लेकिन वे नग्न नहीं हैं. मुझे तो ये अपने होने के गौरव से आप्लावित प्रतीत होते हैं. किसी प्रागैतिहासिक भावसंपदा से संपन्न. अश्लील नहीं. और इधर इस चित्र में, इन चेहरों पर परेशानियों की सघन रेखाएँ हैं. ताने-बाने. खड़ी और आड़ी धारियाँ. चारख़ाने की तरह. क्या ये चित्रकार की निजी चिंताएँ हैं जो चेहरों पर उतर आईं हैं. अथवा ये दर्शकों की अपनी परेशानियाँ और दुखों की परछाइयाँ हैं जो चित्र में अंतरित हो रही हैं? कभी-कभी ख़याल आता है कि क्या वस्त्रहीन चित्र देखने के लिए वस्त्रहीन होने का अनुभव करना होगा. चिड़िया का चित्र देखने के लिए चिड़िया बनना होगा. क्या बादल और पत्थर जैसा होकर ही बादल और पत्थर के चित्रों को समझा जा सकेगा? लोहे की पटरियों का दुख और सहनशीलता समझने के लिए ख़ुद के ऊपर से रेल गाड़ी गुज़ारना होगी? कला को समझने की अपनी चुनौतियाँ हैं. आत्मसंघर्ष हैं. और उनसे निबटने के अपने-अपने तरीक़े.
कला के प्रति प्रेम आपको सारे रास्ते बता देता है. गुत्थियाँ खोल देता है.
कायांतरण तो एक मामूली बात है.
सोचो, क्या संग्रहालय में प्रदर्शित सारी पेंटिंग, सारी कलाकृतियाँ धन की पर्याय हैं? इन्हें देखकर अधिसंख्य लोगों के मन में विचार कौंधता है कि इनकी क़ीमत क्या होगी. यह तो ख़ज़ाना है. सिमसिम बोले बिना ही यह खुला हुआ है. वे मुझसे मूल्य जानने की कोशिश करते हैं. क्या इस तरह भी कलाकृतियों को देखा जा सकता है? क्या यह कोई पूँजीवादी अथवा सर्वसत्तावादी तरीक़ा है? या बाज़ारवादी दृष्टि? क्या शक्ति संरचनाएँ चुपचाप तय कर देती हैं कि कैसे चित्र बनाए जाएँ. कि कलाकारों को स्वतंत्रता इस तरह दी जाए कि उनका हर काम ‘कमीशंड’ हो. आदेशित किया हुआ. और उन्हें अंदाज़ा भी न लगे कि ये कृतियाँ वे बना नहीं रहे हैं, उनसे बनवाई जा रही हैं. कि हर काल में परिभाषाओं और नैतिकताओं का अनुकूलन हो सके. कि विमर्श हो मगर निष्कर्ष पहले से तय हों. खैर, छोड़िए. यहाँ कर्मचारी होने के नाते इतना तो निश्चित कह सकता हूँ कि ये संग्रहालय इन बहुमूल्य कृतियों, बेशक़ीमती कला को देख सकने का अवसर सामान्यजन को देते हैं. यही इनकी लोकतांत्रिकता है. अनेक चित्र महलों की दीवारों, उपेक्षित तलघरों, वर्जित इमारतों से लाए गए हैं. कुछ तो कबाड़ से. फिर रक्षित किए गए हैं. अब ये सबके लिए उपलब्ध हैं, महज़ एक टिकट की दूरी पर.
सुनो, ब्रुएगल की यह विशेषज्ञ, इस कोने में कला जिज्ञासु समूह से क्या संवाद कर रही है:
ब्रुएगल के चित्र समयातीत हैं क्योंकि वे अपने समय में दूसरे समय को जगह देते हैं. जैसे वे हर समय के यात्री हैं. अपनी लंबी समय-यात्रा में उन चित्रों से भले कुछ छूट जाता है लेकिन कुछ नया जुड़ भी जाता है. जो कहानी चित्र में कही गई है वह बदल भी जाती है. चेहरे-मोहरे, रेखाएँ-रंग बदल जाते हैं, स्मृतियाँ बदल जाती हैं लेकिन वे नयी भी हो जाती है. कुछ समय के लिए ये चित्र अप्रासंगिक हो सकते हैं और तब वे वक़्त के एक कोने में पड़े हुए अपने ऊपर धूल गिरने देते हैं लेकिन फिर वक़्त आता है तो वे अपनी धूल झाड़कर खड़े हो जाते हैं. ठीक आपके सामने कि देखो, यह मैं हूँ और यहाँ हूँ. इस वक़्त में, इसी वक़्त की कथा कहता हुआ. तुम्हारे समय की और उस निकट भविष्य की जो अतीत में रच दिया गया था. तुम्हारे इतिहास में. इसलिए तुम्हारा वर्तमान ऐसा है.
मेरे भीतर झाँककर देखो. सब कुछ दिखेगा. मैं कलाकृ्ति हूँ.
साक्षी हूँ और प्रमाण भी.
ब्रुएगल जैसे चित्रकारों की मुश्किल यह रहती आई है कि वे किसानों, मज़दूरों, वंचितों और मज़लूमों का, युद्ध में असमय मारे गए लोगों, पीड़ितों का चित्रण करेंगे तो शासकों की निगाह में अपराधी बन जाएँगे. आज नहीं तो कल. या परसों तो निश्चित ही. अथवा अपनी मृत्यु के दशकों बाद. शताब्दियों के पार जाकर भी. क्योंकि जो सत्तासीन होंगे वे एक दिन अपना कला-न्याय करेंगे. उनका संवेदित जीवन से या किसी कला से कोई वास्ता नहीं होगा लेकिन वे ही न्यायाधीश हो जाएँगे. लेकिन यह होता ही है कि सच्ची कलाकृतियों में कलाकार का समय रहने चला आता है. मिथकीय चेहरे, वास्तविक ज़िंदगी में पहचाने जा सकते हैं. और वे मुश्किल में फँस जाते हैं.
जब निरंकुश सत्ताएँ अपनी क्रूरता और मूर्खता के युग्म के चरम पर होती हैं तो सबसे पहले कलाकृतियों को नष्ट कर देना चाहती हैं. यदि उनके सर्जक जीवित हैं तो उन पर या उनके परिजनों पर टूट पड़ना चाहती हैं. एक शासक जिन चित्रों, जिन शिल्पों को सुंदर और महत्वपूर्ण बताता है, अगला सत्ताधारी उन्हें अचानक अनैतिक और अवांछित घोषित कर देता है. बदलती सत्ताएँ मनमर्ज़ी से कलाकृतियों को धर्म विरोधी, समाज विरोधी या ख़तरनाक कहने लगती हैं. चित्र वही हैं, शब्द वही, रचना वही लेकिन हर काल में उनकी मारक व्याख्या वे लोग करते हैं जो न चित्र समझते हैं, न शब्द. जो कला-निरक्षर हैं वे जूरी में होते हैं. सरपंच. अभी, इस वक़्त में भी यह हो रहा है. सौ बरस पहले, पच्चीस बरस पहले भी हुआ था और अभी पंद्रह मिनट पहले भी यही हुआ है.
ब्रुएगल के कैनवस पर श्रमशील, उत्पीड़ित और दुखी जनता उमड़ आई है. मनुष्य जीवन की आपदाएँ और उत्सव यहाँ समवेत हैं. इतने तरह के चेहरे और इतनी तरह की रंगत कि हर एक का पृथक नाम रखा जा सकता है. कितने ‘क्लोज़ अप’ और कितने ‘लाँग शॉट’, कितनी आँखें और कितनी यातनाएँ. इन भृकुटियों को देखें और इन पेशानियों को. और इन पर दमकते, चमकते बल. शिकन. सिलवटें. सब कुछ लौकिक. इसी दुनिया में, इसी दुनिया का, इसी दुनिया के लिए. पार्श्व दृश्य और भूदृश्य हलचल से भरे हैं. एक परिचित संसार नये सिरे से अपना परिचय दे रहा है. जैसे हम उसे अब तक देखते तो रहे मगर जानते नहीं थे. वास्तविकताओं ने फंतासियों का मार्ग प्रशस्त कर दिया है और फंतासियों ने वास्तविकताओं का. दोनों एकाकार, एक-दूसरे के बाहुपाश में जीवंत. इस युग्म ने नये सपनों को साकार कर दिया. एक-दूसरे को चरितार्थ करता सर्जनात्मक प्रसव. सुलझकर भी उलझी रहनेवाली पहेली, जिसका अपना-अपना हल सबके पास हो सकता है. उत्तप्त और विचारमग्न. ये चित्र जैसे अपने समय के वृत्तचित्र हैं- रस्मों, सांस्कृतिक उपक्रमों, क्रीड़ाओं, चालाकियों और मुखौटों से भरे हुए. सब एक साथ. घड़ियों में अलग-अलग समय है लेकिन वे सभी एक कृति में रह सकती हैं.
टिक्-टिक् से दिगंत गुँजाती. यहाँ इस संग्रहालय में.
और क़रीब जाकर देखो- दोहरे आचरण के संत, भ्रष्ट शक्तिमान, लोलुप पुजारी, उनकी बदतमीज़ियाँ और बदनीयतियाँ दिखेंगी. नदी रक्तिम दिखेगी, धूल-धूसरित मुकुट और झरे हुए हरे पत्ते. उठकर खड़ी होती घायल देह. निजी संताप का पर्वत और वेदना की सामूहिक उठान. फिर वह एक कविता को जन्म देगी, जैसे कथा ने और एक गीत ने चित्र को जन्म दिया था. और उसने एक मार्मिक स्वर को. और आर्तनाद को. यह कलाओं की वंशावली है. इतिहास में छूटी हुई जगहों, उनके अंतराल को एक कृति पाट देती है. वह ख़ाली स्थलों को अपनी तरह के ‘टैक्स्ट’ से, चित्रावली से भर देती है. अनेक अनुत्तरित, कठिन प्रश्नों को फिर हमारे समक्ष करती हुई. जैसे यही कि युद्ध क्यों होते हैं और एक आठ-दस बरस के बच्चे को भी सैन्य पोशाक पहनकर युद्ध में क्यों जाना पड़ता है?
(पाँच)
हम संग्रहालय के भीतर गुज़रा ज़माना इस ज़माने में देख रहे हैं. संग्रहालय के बाहर देख सकते हैं कि जैसे यह शहर भी कोई लगातार बनता-बिगड़ता, विकसित होता, चोट खाया संग्रहालय है. यह उद्यान, यह पुरानी गली, यह खंडहर, कूड़े का पहाड़ और नया बनता पुल, चमकते साइनबोर्ड और चलते-फिरते लोग, ये आड़े-तिरछे, जगमग, उदास चेहरे भी इस असमाप्य संग्रहालय का हिस्सा हैं. जिधर निगाह डालो उधर एक कृति. इस नगर के संग्रहालय में प्रदर्शित. हम गुज़र चुके और आनेवाले ज़माने को इस ज़माने में देख सकते हैं. क्या संग्रहालय अंतरिक्ष की तरह होते हैं. लगातार बढ़ते, प्रसारित होते हुए?
ये बच्चे अपने विद्यालय की तरफ़ से, सहपाठियों के साथ संग्रहालय देखने आए हैं. इनमें से अधिकांश कुछ नहीं देखते. अपने मोबाइल देखते हैं या संदेश भेजते रहते हैं. कभी-कभी कलाकृतियों को देखकर उनकी हँसी छूट जाती है. ये वे बच्चे हैं जिनका कलाओं से सर्जनात्मक संबंध नहीं बन पा रहा है. वे मिथकीय चरित्रों को हॉरर की तरह देखते हैं या फिर नग्नता देखकर किसी मनोरंजक, हारमोन प्रेरित ख़याल में चले जाते हैं. हालाँकि, ऐसा ही व्यवहार कई वयस्क दर्शक भी करते हैं. मैं यहाँ गार्ड हूँ, सबको देखता हूँ. तार्किकता और औचित्य की सीमा बन जाती है.
कला असीम की कामना करती है.
यहाँ वे सब चीज़ें भी हैं जो एक समय उपयोगी थीं, ख़तरनाक थीं या बस वे थीं, अपने होने में ही वैभव से भरी. आज गुमसुम हैं, यहाँ क़ैद हैं. आप बात करेंगे तो उनकी चुप्पी टूट सकती है. आप उनसे मिलते हैं तो वे अपने कारागार के सींखचों से झाँककर देखती हैं. युद्ध-विभीषिका, विजयजन्य पराजय या पराजित होकर भी मुक्ति से गुज़रे शहर बताते हैं कि देखो, ये वे जगहें हैं- फूटे क़िले, तलघर, गर्भगृह, जिनमें आम लोगों ने बमबारी के समय छिपकर अपनी जान बचाई. तुम हमें आज अवशेष कह सकते हो या एक तरह के जीवाश्म लेकिन हमने अपना काम किया. कुछ चेहरे, कुछ शिल्प, कुछ उजाड़ स्थल अनेक कलाकृतियों की याद दिलाते हैं. हमें उनका अंश बनाते हैं. कई चीज़ें जो कभी हमारे स्वप्न में, किस्सों में रहती थीं, हमारे किसी पूर्वजीवन में थीं, अब संग्रहालयों में हैं. संग्रहालय हमारे स्मृति-घर हैं. जैसे हमारे भीतर स्मृतिकोष भी संग्रहालय हैं. सारे संग्रहालय महान, सुंदर और अमर उदासियों के घर हैं. हम सब किसी न किसी संग्रहालय के रक्षक हैं. अपनी प्रसन्न उदासियों से ऊर्जस्वित और सक्रिय. हम सब एक संग्रहालय के नीम-अँधेरे या नीम-प्रकाश में रहते हैं. हमारे भीतर से भी एक संग्रहालय की गंध उठती है.
अब मुझसे कोई किसी चित्र का मूल्य पूछता है तो मैं सही उत्तर देना जान गया हूँ. सहज और सच्चा उत्तर: ‘यह अमूल्य है’. कोई कलाकृति यदि संग्रहालय में आ गई है तो इससे अधिक उसका और क्या मूल्य हो सकता है. एक असंभव क़ीमत के अलावा. एक मूल्य, जिसे दिया जा सकता हो लेकिन चुकाया न जा सकता हो. आप अनुमान लगाते रहें. लेकिन सोचता हूँ जब इसे बनानेवाला चित्रकार भूखों मर गया हो और आज इसकी नामुमकिन-सी क़ीमत भी दुनिया को स्वीकार्य हो तब इसका भला क्या मूल्य बताया जा सकता है? इस पर कितनी राशि की परची चिपकाई जा सकती है. दूसरी तरह से सोचा जाए तो संग्रहालय की सबसे बेशक़ीमती कृतियाँ वे हैं जो सर्जक के जीवनकाल में उसकी दुर्दशा, उपेक्षा और विपन्नता का अनचाहा स्मरण दिलाती हैं.
कौन है जो इनका मूल्य चुका सकेगा?
अंत में एक रोचक बात. यहाँ पर्यटक, दर्शक, आगंतुक, जो भी आता है, चित्रों, शिल्पों या वस्तुओं संबंधी उत्सुकता के अलावा एक और जिज्ञासा करता है. लगभग फुसफुसाते हुए पूछता है- ‘वॉशरूम किस तरफ़ है?’ उन्हें सहयोग करना मेरे काम का हिस्सा है लेकिन कई लोग इतनी बदतमीज़ी से पूछते हैं कि फिर मुझे कुछ चक्करदार, लंबा रास्ता बताना पड़ता है जो उन्हें कई तरह की कलाकृतियों के बीच में से गुज़ारकर गंतव्य तक ले जाता है. मैं उन्हें बस इतनी ही आत्मीय सज़ा दे सकता हूँ कि जाओ, इन लंबे गलियारों की सभी कलाकृतियों के बीच से होकर जाओ और शांति प्राप्त करो.
(उपशीर्षक पंक्ति के लिए निदा फ़ाज़ली के प्रति आभार.)
Movie- Museum Hours, 2012/ Director- Jem Cohen
कुमार अम्बुज जन्म: 13 अप्रैल 1957, ग्राम मँगवार, ज़िला गुना प्रकाशित कृतियाँ-कविता संग्रह: ‘किवाड़’-1992, ‘क्रूरता’-1996, ‘अनंतिम’-1998, ‘अतिक्रमण’-2002, ‘अमीरी रेखा’-2011, ‘उपशीर्षक’- 2022. कविताओं का चयन ‘कवि ने कहा’-2012, किताबघर से. राजकमल प्रकाशन से ‘प्रतिनिधि कविताएँ’- 2014.कहानी और अन्य गद्य: ‘इच्छाएँ’-2008.‘थलचर’- 2016.‘मनुष्य का अवकाश’-2020.कहानी संग्रह: ‘मज़ाक़’ और चयनित फ़िल्मों पर निबंधों का संकलन ‘आँसुओं का स्वाद’ शीघ्र प्रकाश्य.‘वसुधा’ कवितांक-1994 का संपादन. गुजरात दंगों पर केंद्रित पुस्तक ‘क्या हमें चुप रहना चाहिए’- 2002 का नियोजन एवं संपादन. अनेक वैचारिक बुलेटिन्स और पुस्तिकाओं का भी प्रकाशन, संपादन. हिन्दी कविता के प्रतिनिधि संकलनों एवं कुछ पाठ्यक्रमों में रचनाएँ शामिल. साहित्य की शीर्ष संस्थाओं में काव्यपाठ, बातचीत तथा वक्तव्य. कविताओं के कुछ भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में अनुवाद तथा संकलनों में कविताएँ चयनित.कवि द्वारा भी कुछ चर्चित कवियों की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित. ‘विश्व सिनेमा’ से कुछ प्रिय फ़िल्मों पर अनियत लेखन. भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार(1988), माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार,(1992), वागीश्वरी पुरस्कार(1997), श्रीकांत वर्मा सम्मान(1998), गिरिजा कुमार माथुर सम्मान(1998), केदार सम्मान(2000). संप्रति निवास- भोपाल. kumarambujbpl@gmail.com |
समालोचन पत्रिका है यह अधूरी बात है। वह खुद में एक आर्ट वर्क भी है ।
Lajawab👌उफ़्फ़ क्या शैली है ये अम्बुज जी की। गजब मस्तिष्क विलोड़ित हो गया
यह पूरी शृंखला कमाल की है। बड़ी तन्मय यात्रा है भाई Kumar Ambuj की। एक शानदार किताब की प्रतीक्षा।
The writing is dense (in a way that is intellectually rewarding for the reader),mysterious and luminous- like Bruegel’s paintings.The article reads like exchange of notes between art and life.Sub-title brings to mind what Robert Frost said about life- ‘ It goes on.’
कुमार अंबुज की हर कड़ी एक चुनौती की तरह आती है. वह भाषा और कहन के प्रचलित रूप के अभ्यस्त हो चुके दिमाग़ को जैसे हर बार झटका-सा दे डालते हैं. ईमानदारी से कहा जाए तो यह श्रृंखला पाठक के सामने केवल दो विकल्प छोड़ती है : प्रशंसा के लिए कुछ अच्छे विशेषण ढूंढते रहिये या फिर पढ़ कर चुप रहिये.
असल में, अंबुज इस श्रृंखला में फ़िल्मों के कथ्य और आशयों में जिस सृजनात्मक बेचैनी के साथ उतरते हैं, वह एक बहुत अनूठी परिघटना है. यहाँ शायद एक अलग विधा जन्म ले रही है जिसमें फ़िल्म का प्रसंग विचार और संवेदना के लिए केवल बीज का काम करता है— बाक़ी मूल से स्वायत्त होकर एक नयी रचना बन जाती है.
अब ‘संग्रहालय में जीवन’ को ही लें. यहाँ संग्रहालय अपने निर्धारित और स्थिर स्थल से उठकर मनुष्य के पूरे जीवन और उसके लक्षित-अलक्षित कार्य-व्यापारों में दाख़िल हो जाता है! कभी वह ‘गहरी श्वास भरने, थकान और उदासी पर विजय पाने’ की जगह है; कहीं ‘स्मृति से पीठ टिकाकर’ अपने जीवन को देखने का बिंदु बन जाता है तो कहीं पूरा शहर अपनी गलियों और खंडहरों, नयी बनती चीज़ों और अपने जगमग/ उदास चेहरों के साथ एक ‘असमाप्य’ संग्रहालय बन जाता है!
कहना ज़रूरी है कि हम अपनी आँखों के सामने सृजन का एक नया उन्मेष या आविष्कार देख रहे हैं.
विशेषणों के पार आपकी टिप्पणी ने यह बताया कि जिस तरह लिखते हुए मैं दृश्यावलियों के बारे में और उनसे बाहर निकलकर सोच रहा था, वैसा आप पढ़ते हुए सोच रहे थे, दृश्यमान कर रहे थे। इस शामिल नाज़ुक धागे ने संबल और गतिज ऊर्जा दी।
शुक्रिया।
कुमार अंबुज जितने बड़े कवि हैं उतने ही बारीक कला-पारखी भी।मैं उनकी कविता,टिप्पणी और अब फिल्म समालोचना का इंतज़ार करता हूँ ।उनकी सलाह पर कुछ फ़िल्में मैंने भी देखीं। लेकिन अंबुज की नजर कहाँ से लाऊँ!
इन शब्दों में अग्रज का
बड़प्पन शामिल है।
🙏🌹
Beauty will save the world.’
( The Idiot, Dostoyevsky)
फिल्मों पर चर्चा के बहाने यह सिलसिला कुमार अंबुज जी ने शुरू किया है, वह अपने आप में एक अनूठा प्रयास है।
निश्चित ही इनके संकलन से एक शानदार किताब बनेगी ही, जैसा कि विनय कुमार जी ने लिखा है लेकिन इस बहाने हिंदी के विशाल पाठकवर्ग के लिए एक अलग किस्म के विमर्श के दरवाजे़ खुल रहे हैं।
उनकी भाषा ऐसी बन पड़ती है गोया आप एक लंबी कविता पढ़ रहे हों।
यह प्रस्तुति भी इसी तर्ज पर है।
कई बार फिल्म की उनकी चर्चा हमारे वर्तमान पर तीखी टिप्पणी करती दिखती है या हमारे आज के यथार्थ को बेपर्द करती दिखती है, मिसाल के तौर पर वह इसी आलेख में लिखते हैं :
“जब निरंकुश सत्ताएँ अपनी क्रूरता और मूर्खता के युग्म के चरम पर होती हैं तो सबसे पहले कलाकृतियों को नष्ट कर देना चाहती हैं. यदि उनके सर्जक जीवित हैं तो उन पर या उनके परिजनों पर टूट पड़ना चाहती हैं. एक शासक जिन चित्रों, जिन शिल्पों को सुंदर और महत्वपूर्ण बताता है, अगला सत्ताधारी उन्हें अचानक अनैतिक और अवांछित घोषित कर देता है. बदलती सत्ताएँ मनमर्ज़ी से कलाकृतियों को धर्म विरोधी, समाज विरोधी या ख़तरनाक कहने लगती हैं. चित्र वही हैं, शब्द वही, रचना वही लेकिन हर काल में उनकी मारक व्याख्या वे लोग करते हैं जो न चित्र समझते हैं, न शब्द. जो कला-निरक्षर हैं वे जूरी में होते हैं. सरपंच. अभी, इस वक़्त में भी यह हो रहा है. सौ बरस पहले, पच्चीस बरस पहले भी हुआ था और अभी पंद्रह मिनट पहले भी यही हुआ है. “
कलाओं से वंचित इस समाज मे एक सिक्योरिटी गार्ड की दृष्टि से हम उस संग्रहालय मे प्रवेश करते हैं। कुछ चित्रों के बारे मे जानते हैं। उन्हे देख रहे लोगों के बारे मे कुछ जानते हैं और अन्ततः उस बाहर और भीतर के भेद को देखते हैं (यह गार्ड की लोकेशन की वजह से सम्भव होता है)
पेंटिंग्स दीर्घायें आम तौर पर श्रम से त्रस्त शहरों मे ज्यादा नही पायी जाती हैं। उनमे प्रवेश या वहाँ होने के जिक्र को कोई विलासिता के तौर पर भी देख सकता है। ऐसा उनके आस पास बन गये माहौल या आम मनुष्य से स्वतः बन गयी दूरी की वजह से है।
आपका कला आधारित यह आलेख वहाँ होने या न जा सकने की कमी को भी पूरा करता है और इसलिए भी पसन्द किया जाता है।
बहुत अच्छा लगा इसे पढ़ना ।
यह पूरी श्रृंखला ही लाजवाब है. संग्रहणीय
मित्र कुमार अम्बुज कवि तो हैं ही, आहिस्ता-आहिस्ता एक कला-मर्मज्ञ के रूप में भी उभर रहे हैं. विश्व सिनेमा और कला की विविध दुनिया से उनके माध्यम से परिचित होता रहा हूँ. उन्हें पढ़ना स्वयं को समृद्ध करना होता है. वह ऐसा ही लिखते-करते रहें.
बेहतरीन ! बेहतरीन !! बेहतरीन !!!