नदी और निषाद
|
भारत में लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया जैसे-जैसे आगे बढ़ी है वैसे-वैसे अनेक ऐसे समुदायों ने जो भारतीय समाज में बहिष्करण का शिकार थे, भारतीय राष्ट्र-राज्य में अपने लिए एक निश्चित स्थान की तलाश की है. इस तलाश के क्रम में कई बार उन समुदायों के बीच से पैदा हुये बुद्धिजीवियों,लेखकों और पत्रकारों ने अपनी जातीय स्मृतियों, पुराकथाओं, मिथकीय चरित्रों और एतिहासिक संदर्भों के आधार पर अपना जातीय इतिहास गढ़ने की कोशिश की है तो कई बार दूसरे समुदायों के बुद्धिजीवियों, लेखकों और पत्रकारों ने इसे संभव बनाया है. इतिहास के ढांचे में इसे सबाल्टर्न स्टडी का नाम दिया गया है. भारतीय समाज और इतिहास में लंबे समय से हाशिये पर रह रहे निषाद समुदाय की जातीय स्मृतियों, लोकगाथाओं, लोककथाओं, मिथकीय चरित्रों और एतिहासिक संदर्भों का व्यवस्थित अध्ययन कर युवा इतिहासकार और सामाजिक चिंतक रमाशंकर सिंह ने नदीपुत्र नाम से एक पुस्तक तैयार की है. यह पुस्तक हिन्दी समेत संभवतः किसी भी भारतीय भाषा में निषाद समुदाय के इतिहास लेखन का पहला व्यवस्थित और प्रामाणिक प्रयास है.
निषाद समुदाय एक ऐसा समुदाय है जो भारतीय आख्यान परंपरा और मिथकीय चेतना में आरंभिक काल से अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहा है. पौराणिक आख्यानों से लेकर महाभारत और रामायण आदि अनेक ग्रन्थों में निषाद जल के समीप रहने वाले एक प्रभावशाली समुदाय के रूप में चित्रित है. राम के मिथकीय चरित्र से जुड़ जाने के कारण हिन्दू धर्मतंत्र में भी उसकी एक अलग भूमिका बनती हुई दिखाई देती है. राम के नाम पर विकसित हुई राजनीति और उस राजनीति में विराट हिन्दुत्व की अवधारणा ने निषाद समुदाय की धार्मिक अवस्थिति को नया स्वरूप प्रदान किया है. इन सभी ने जहां एक तरफ निषाद समुदाय को एक पोलिटिकल टूल की तरह प्रयोग करने की कोशिश की वहीं दूसरी तरफ इस समुदाय की राजनाइटिक आकांक्षाओं को भी बल प्रदान किया. निषाद समुदाय के राजनेताओं, बुद्धिजीवियों और लेखकों ने भारतीय परंपरा में निषाद समुदाय की उपस्थिति का इतिहास की शक्ल में एक नया आख्यान रचा.
रमाशंकर सिंह ने इस आख्यानपरक इतिहास, निषाद समुदाय की स्मृति, भारतीय ग्रन्थों में निषाद समुदाय की मौजूदगी और उनकी वर्तमान स्थिति का विवेचन करते हुये एक समुदाय के रूप में उनके विकासक्रम को चिन्हित करने का काम किया है. यही नहीं इस समुदाय का जलस्रोतों के साथ अनादिकाल से कैसा रिश्ता रहा है और आज वह रिश्ता किस रूप में मौजूद है उसकी भी पड़ताल की है. वे यह भी देखने का प्रयास करते हैं कि जब जलस्रोतों पर राज्य (State) की पहरेदारी लगातार बढ़ती जा रही है तब उस पर निर्भर रहने वाले इस समुदाय के जीवन में क्या कुछ बदलाव आता है. जलस्रोतों पर उसकी लगातार कम होती जा रही पकड़ को वह समुदाय किस रूप में देखता व परिभाषित करता है? इन सबका वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करती हुई यह किताब निषाद समुदाय के जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज़ बनती है.
कुल सात अध्यायों में लिखी गयी किताब का पहला अध्याय ‘प्राकृतिक संसाधन एवं हाशिये के समुदाय: पूर्व औपनिवेशिक भारत में नदियों और निषादों का सामाजिक-सांस्कृतिक सहजीवन’ के अंतर्गत परिधि पर रहने वाले समुदाय के रूप में जिन्हें हम चिन्हित करते हैं उनकी सामुदायिक पहचान को जातीय स्मृतियों और आख्यानों के सहारे खोजने की कोशिश की गयी है. यहाँ लेखक के पास इतिहास लेखन के लिए जरूरी प्रामाणिक सामग्री की कमी देखने को मिलती है. वह बार-बार जातीय स्मृतियों, मिथकों और किंवदंतियों के सहारे इन समुदायों के विकासक्रम की एक रूपरेखा प्रस्तुत करने की कोशिश करता है. इस कोशिश में जातीय स्मृतियाँ, भारतीय आख्यान परंपरा में इनकी उपस्थिति और औपनिवेशिक भारत में इन समुदायों की संघर्ष चेतना एक आधार के रूप में काम करती है जहां से इनके एतिहासिक बोध को पकड़ना थोड़ा आसान जान पड़ता है. यहाँ गंगा नदी एतिहासिक दस्तावेज़ की तरह उपस्थित होती है जो अपने गर्भ में अनगिनत सच को छिपाए बैठी है.
गंगा नदी की स्मृति और भारतीय जन मानस में उसकी उपस्थिति पूर्व औपनिवेशिक भारत के इतिहास को दर्ज करने का एक सशक्त माध्यम है यह भी इस अध्याय में दर्ज हुआ है. गंगा नदी को लेकर जिस तरह की प्रार्थनाएँ हैं, उसका जो एतिहासिक महात्म्य है उसे समझना असल में भारतीय इतिहास के एक नए परिप्रेक्ष्य को समझना है. रमाशंकर लिखते हैं –
‘भारतीय साहित्य में ऐसी कोई शताब्दी नहीं बीती जब गंगा नदी पर कविता न लिखी गयी हो. ऋग्वेद के कवियों-ऋषियों से लेकर नागार्जुन तक यह काव्य नदी बहती चली आई है. ………….. इन कवियों की गंगा नदी के प्रति श्रद्धा का एक सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय परिप्रेक्ष्य भी है जिस पर समाज विज्ञान और मानविकी के विद्वानों द्वारा अभी तक ध्यान नहीं दिया गया है. संस्कृत और हिन्दी में गंगा नदी पर लिखी इन कविताओं का एक गहन पाठ भारतीय इतिहास और संस्कृति के कई अनछुए पहलुओं को उजागर तो कर ही सकता है, यह पाठ गंगा नदी की पारिस्थितिकी, पेड़-पौधों, वनस्पतियों, जानवरों और मछलियों के बारे में एक नवीन दृष्टि प्रस्तुत करता है’.
इस अध्याय में साहित्य के इसी पाठ को आधार बनाकर गंगा नदी और उस पर निर्भर इन समुदायों के एतिहासिक संदर्भों का विवेचन किया गया है.
दूसरा अध्याय ‘जाति व्यवस्था की समझ और आरंभिक भारत में शूद्रों की स्थिति’ शीर्षक से है. इतिहास लेखन की मौलिक दृष्टि के नजरिए से यह अध्याय कमजोर है. इस अध्याय में अधिकांशतः पूर्व उल्लिखित सामग्री का ही प्रयोग किया गया है. यह इसलिए भी संभव हुआ होगा कि इसमें जिस विषय को केंद्र में रखा गया है उसपर हिन्दी-अँग्रेजी में पर्याप्त लेखन हो चुका है और लेखक का उद्देश्य इस विषय पर यहाँ कोई मौलिक लेखन करना न होकर इतिहास की गतिकी में परिधीय समुदायों की उपस्थिति का सिलसिलेवार ब्योरा देना है जिससे आगे के विश्लेषण का आधार तैयार हो सके. इसीलिए आप पाएंगे कि यहाँ अधिकांशतः इस विषय पर गंभीर लेखन करने वाले विद्वानों पीवी काणे, रामशरण शर्मा, वासुदेव शरण अग्रवाल आदि के अभिमतों के विश्लेषण से अपनी बात की प्रतिपुष्टि की गयी है.
‘नदी, सामाजिक व्यवस्था और उसका प्रस्तुतीकरण: पूर्व औपनिवेशिक उत्तर भारतीय समाज में निषाद समुदाय’ नामक तीसरे अध्याय में एक समुदाय के रूप में निषादों के उदय, भारतीय समाज में मौजूद उनकी अलग-अलग छवियों, उनकी वीरता, अस्पृश्यता और वंचना के आख्यान, निषादों के सामुदायिक अधिकार और राजस्य प्रदान करने वाले और धन सृजन करने वाले समुदाय के रूप में उनकी उपस्थिति का विश्लेषण इस अध्याय के केंद्र में है. यहाँ वेद,उपनिषद,पुराण,महाभारत और अन्यान्य ग्रन्थों में एक समुदाय के रूप में निषाद किस तरह की भूमिका में मौजूद हैं साथ ही मुख्यधारा के समाज से उनका कैसा रिश्ता है इसकी पड़ताल करते हुये रमाशंकर इस निष्कर्ष तक पहुँचते हैं कि भारतीय राजनीति की प्रेरणा से निषाद समुदाय का जो रूप हमारे सामने आता है उससे भिन्न भारतीय इतिहास और आख्यान में निषाद समुदाय सर्वथा परिधि पर रहने वाला एक ऐसा समुदाय है जो अपनी आजीविका के लिए राज्य द्वारा संचालित और नियंत्रित आर्थिक संरचना से अलग एक मौलिक आर्थिक संरचना पर जीवित है. इस संरचना में उसकी मदद इस देश के जलस्रोत करते हैं. यहीं वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि निषाद समुदाय ने अपनी जिन स्मृतियों का सृजन और रक्षण किया है उनमे उनकी अस्पृश्यता और वंचना के आख्यान के साथ-साथ उनकी वीरता के आख्यान भी मौजूद हैं.
उपनिवेश पूर्व भारत में आवागमन के साधन के रूप में नदियां एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती थीं. इनमें धार्मिक-सांस्कृतिक यात्राओ से ज्यादा व्यापारिक यात्राएं महत्वपूर्ण थीं. इन यात्राओं में नदियों की भीतरी तहों तक की जानकारी रखने वाला एकमात्र समुदाय निषाद था. इस दृष्टि से विचार करें तो पाएंगे कि आधुनिक पूर्व युग में व्यापारिक दृष्टि से निषाद समुदाय की भूमिका बेहद निर्णायक थी. इस भूमिका के बारे में लेखक ने अन्य स्रोतों की मदद लेकर अगर विस्तारपूर्वक लिखना चाहिए था.
एक शोधार्थी की, एक इतिहासकार की और एक समाज विज्ञानी की दृष्टि, समझदारी और प्रतिभा का सर्वोत्तम इस पुस्तक के चौथे और पांचवे अध्याय में देखा जा सकता है. यहाँ रमा यह बताते हैं कि आधुनिक युग में निसाद समुदाय ने अपनी सामूहिक भागीदारी के माध्यम से वे कौन-कौन से कार्य किए जिनके परिणाम स्वरूप भारतीय लोकतन्त्र और भारतीय राष्ट्र-राज्य में उन्होने अपने लिए एक निश्चित जगह बनाई. वे प्रसन्न कुमार चौधरी के संदर्भ से लिखते हैं –
‘आधुनिक समय में परिधीय समुदायों ने दो काम किए: उन्होंने अपने साथ हुये ऐतिहासिक अन्यायों के प्रमाण जुटाये और दूसरा उन्होंने अपना इतिहास रचने का प्रयास किया’. जाहिर सी बात है इतिहास रचने में और इतिहास लिखने में अंतर होता है, यह अंतर इन समुदायों द्वारा रचे गए इतिहास में दिखाई भी देता है लेकिन जहां तथ्यों की कमी होगी वहाँ लिखने की बजाय रचने का ही विकल्प बेहतर होगा इसलिए अगर इन समुदायों ने अपना इतिहास रचा तो उसमें इनका उतना दोष नहीं है जितना भारतीय सभ्यता के उन नियामकों का है जिन्होने हरसंभव कोशिश करने इनकी उपस्थिति के तथ्यों को नष्ट करने का काम किया. इतिहास रचने के बाद इन समुदायों ने भारतीय राष्ट्र-राज्य में अपने लिए एक निश्चित भूमिका की मांग की. इस मांग के आगे कई बार सत्ताओं ने बर्बर तरीके से दमन का रास्ता चुना तो अनेक बार इनके प्रतिरोध के आगे झुककर उन्हें मानने का काम किया. इसी अध्याय में वे औपनिवेशिक शासन के दौरान बने उन क़ानूनों का भी उल्लेख करते हैं जिन्होने इन परिधीय समुदायों को कलंकीकृत करने का काम किया. ‘क्रिमिनल ट्राइब एक्ट,16, 1871’
इसी तरह का कानून है जिसने इस देश कि जनसंख्या के एक बड़े भाग को आपराधिक जनजाति घोषित करने का काम किया. उत्तर भारत में निवास करने वाले निषाद इसी आपराधिक जनजाति के रूप में पहचाने जाते थे. इस कानून ने किस-किस तरह के कहर ढाये इसका विस्तृत ब्योरा देते हुये आज भी उस मानसिकता के जीवित होने का प्रमाण देते हुये वे लिखते हैं –
‘औपनिवेशिक कानून ने व्यक्ति, समुदाय और दिये गए दायरे(स्पेस) को कलंकित करने की जो परियोजना शुरू की, वह अभी भी महीन रूपों में जारी दिख सकती है जब किसी स्थान को किसी धर्म, समुदाय, लिंग और नस्ल के रहने वालों के कारण कलंकित कर दिया जाता है’.
‘पर्यावरण और जीविका का सवाल: नदी तट पर जीवन और राजनीति की निर्मिति’ नामक पांचवे अध्याय में भूमंडलीकरण और बाजार के तेजी से प्रसार के बाद की पर्यावरणीय संरचना में नदियों के किनारे बसने वाले और उन पर निर्भर रहने वाले निषाद समुदाय का जीवन किस तरह संकट में आ गया है इसका तार्किक विश्लेषण यहाँ मिलता है. निषाद समुदाय अपने सभ्यतागत विकास और स्मृति के आधार पर यह मानता है कि नदी से उसका रिश्ता कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा एक बेटे/बेटी का अपनी माँ से होता है. नदी उसके लिए जीवन डैनी है इसलिए जब भी नदीतन्त्र को प्रभावित करने का कोई कानून बनाया जाता है या जबरन कोई ऐसा काम किया जाता है जिससे वह प्रभावित हो तो निषाद एकजुट होकर उसका प्रतिकार करते हैं. बालू की ठेकेदारी के संदर्भ से इस अध्याय में रमाशंकर इस मत की पुष्टि करते हैं.
‘शास्त्र, लोक और स्मृति में नदी: गंगा का संदर्भ’ शीर्षक अध्याय में भारतीय जनमानस का गंगा नदी से जो एक अलौकिक किस्म का रिश्ता है उसका शोधपूर्ण विवेचन हमें यह बताने के लिए पर्याप्त है कि गंगा सिर्फ एक नदी का नाम नहीं है. न ही वह उस रूप में हमेशा से पूज्य रही है जैसा इन दिनों बीच-बीच में ‘नमामि गंगे’ का नारा देकर पूजने की कोशिश की जाती है. गंगा नदी को उत्तर भारत के सामाजिक जीवन में सर्वथा एक लोकहितकारिणी माँ का दर्जा प्राप्त रहा है. वैदिक साहित्य से लेकर आधुनिक काल तक गंगा नदी इसी रूप में चित्रित हुई है. जैसे-जैसे हमारा समाज बाजार और विज्ञापन की गिरफ्त में आता गया है वैसे-वैसे गंगा के प्रति वह रिश्ता भी कमजोर होता गया है. समकालीन साहित्य में गंगा नदी का चित्रण ‘शहरी मध्यवर्गीय पर्यटक मानस’ से देखी गयी नदी के रूप में ही ज्यादा मिलता है. इस नदी के प्रति भारतीय समाज के बदलते रिश्ते का सर्वाधिक प्रभाव इस प्पर आश्रित समुदायों पर पड़ा है, यही कारण है कि जब-जब नदीतन्त्र को प्रभावित किया गया है तब-तब इन समुदायों के जबरदस्त मुखालिफ़त की है.
निषाद समुदाय ने अपने संघर्ष और संगठनात्मक क्षमता के बल पर आज भारतीय राष्ट्र-राज्य में एक समुदाय के रूप में अपनी निश्चित पहचान और राजनैतिक हैसियत प्राप्त की है. राजनैतिक रूप से उसने अपने लिए इतना स्पेस बनाया है कि उसकी आवाज अब अनसुनी नहीं की जा सकती. इसका परिणाम यह हुआ है कि अब इस देश के लगभग सभी राजनीतिक दलों ने अपने दायरे में उन्हें एक निश्चित जमीन मुहैया कराने का काम शुरू कर दिया है. सातवाँ अध्याय इसी जमीन की भूमिका के बारे में बात करता है. यह अध्याय हमें बताता है कि पिछले एक दशक में उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति में निषाद समुदाय की जो भूमिका बनी है वह निषाद समुदाय के बुद्धिजीवियों, लेखकों और राजनेताओं के समूहिक प्रयासों का नतीजा है. 2017 व 22 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनाओं में निषाद समुदाय ने अपने लिए एक निश्चित स्पेस तैयार करने में आंशिक सफलता तो प्राप्त कर ही ली है.
रमाशंकर सिंह की यह पुस्तक निषाद समुदाय के हजारों वर्ष लंबे स्मृति, आख्यान और इतिहास का लेखा-जोखा जिस एतिहासिक दृष्टि के साथ प्रस्तुत करती है वह उनके इतिहासबोध का परिचायक तो है ही भारतीय समाज के लोकवृत्त में निषाद समुदाय की उपस्थिति का आख्यान भी है.
इतिहास की किताबों के बारे में आम धारणा है कि वे जटिल,बोझिल और उबाई होती हैं लेकिन यह किताब किसी उपन्यास की तरह पढ़ने का आनंद देती है. इस किताब को पढ़ते हुये आप इसमें डूब सकते हैं. भाषिक विन्यास और तार्किक दृष्टि इस किताब के विश्लेषण को रुचिकर बनाता है. यह इतिहास लेखन और समाज विज्ञान के क्षेत्र में एक नया हस्तक्षेप है.
जगन्नाथ दुबे असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग राजकीय महाविद्यालय, खैर, अलीगढ़ ईमेल- jagannathdubeyhindi@gmail.com |
एक अच्छी किताब की पठनीय समीक्षा ।
लेखक समीक्षक दोनों को बधाई ।
जब भी नदीतन्त्र को प्रभावित करने का कोई कानून बनाया जाता है या जबरन कोई ऐसा काम किया जाता है जिससे वह प्रभावित हो तो निषाद एकजुट होकर उसका प्रतिकार करते हैं. बालू की ठेकेदारी के संदर्भ से इस अध्याय में रमाशंकर इस मत की पुष्टि करते हैंl बहुत ही जरूरी सवाल उठाती किताब पर बेहद सारगर्भित सुरुचिपूर्ण लेख
बहुत ही सुंदर समीक्षा. पुस्तक को ऐसे समीक्षक मिलें तो लेखक की खुशी को समझा जा सकता है।
इस पुस्तक पर समालोचन में मेरी स्मृति से यह शायद दूसरी समीक्षा है जो इस विषय की महत्ता और गंभीरता को स्वतः सिद्ध करती है।इस आलेख के लिए बधाई !
विषय-वस्तु से आत्मीय परिचय कराती, पुस्तक के प्रति जिज्ञासा जगाती समीक्षा. बधाई!