संवाद
प्रिय व्यक्ति : प्रिय व्यक्ति समय समय पर बदलता रहा है. १९४१ में गाँधी जी को देखा था उनकी ऐसी गहरी छाप पड़ी उससे पहले जब मैं प्राईमरी दर्जा में पढता था सन १९३४ में कमालपुर में जीप में आये थे.
प्रिय गीत : छापक पेड़ छिबलिया छाप पड़ी पतवन
प्रिय फिल्म : किस्मत, अशोक कुमार अभिनेता वाली
प्रांत : उत्तर प्रदेश
शहर : वाराणसी / बनारस
गाँव: जीअन पुर
लेखक (पुराना) : हजारी प्रसाद द्विवेदी,
(नया) : मुक्तिबोध
विधा : कविता
भोजन : सत्तू
पेय पदार्थ : ठंडाई
पोशाक : कुरताखरा
वाक्य : क्रिया केवलम उत्तरम
प्रिय शब्द : तात (व्यंग्य में ), बचुवा (प्यार से)
क्रोध में कहा वाक्य : क्रोध में चुप हो जाता हूँ
प्रिय राजनैतिक व्यवस्था : लोक नायक जो लोक का हो
प्रिय दोस्त : मार्कण्डेय सिंह (वह स्कूल के दिनों से मेरे सहपाठी थे.. बाद में आई. पी. एस. बनेआज भी जिनकी याद आती है :
पिता तुल्य कामता प्रसाद विद्यार्थी
कोई लम्हा जिसे दोबारा जीना चाहते हैं : बी. एच. यू. में अध्यापन का पहला वक्तव्य १९५१-५२ में
आलोचक लेखक न होते तो : तो कवि ही होता
साहित्यकारों को सक्रिय राजनीति में आना चाहिए : नहीं
प्रिय सपना : किसी आदमी की आँख में आंसू न आये
कौन लोग पसंद नहीं आते : चापलूस
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(संदीप अवस्थी से यह बातचीत यहाँ पढ़ें)
मैनेजर पाण्डेय
नामवर जी के मार्क्सवाद के पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ लिखा गया है. उस पर मैं कुछ नहीं कहूँगा. हिंदी का अच्छा आलोचक होना इस बात पर निर्भर नहीं करता कि वह मार्क्सवादी है या नहीं है. हिंदी में पहले भी ऐसे आलोचक हो चुके हैं जो मार्क्सवादी नहीं थे, आचार्य शुक्ल, आचार्य द्विवेदी, नन्द दुलारे वाजपेई आदि. निर्द्वन्द्व और निर्भ्रांत रूप से कहा जा सकता है कि ये लोग बड़े आलोचक हैं.
नामवर सिंह की साहित्य से अटूट प्रतिबद्धता है और यही प्रतिबद्धता उनकी आलोचना की ताकत है. इस प्रतिबद्धता से साहित्य के संबंध में उनकी जो दृष्टि बनती है उसे लेकर मतभेद तो है पर उसके महत्त्व को ख़ारिज नहीं किया जा सकता है. नामवर जी की आलोचना दृष्टि का सबसे पहला पता उनकी छायावाद नामक पुस्तक से लगता है. इसमें कविता की साहित्यिकता की व्याख्या और पहचान है. छायावाद की कविता को समझने में इसके महत्व को सबलोग स्वीकार करते हैं. इसमें भी साहित्य से जुड़ने का भाव ही अधिक है. उनकी दूसरी किताब कहानी और नई कहानी है. उन्होंने इसमें कहानी की शास्त्रीय और प्राध्यापकीय आलोचना को तोड़ कर पहली बार हिंदी में कहानी की गम्भीर आलोचना की शुरुआत की है.
नामवर सिंह अत्यंत पढ़े लिखे आलोचक हैं. इतना बहुपठित मैं हिंदी में सिर्फ रामचंद्र शुक्ल को पाता हूँ. समकालीन दुनिया की आलोचना से वह पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों के माध्यम से जुड़े रहे हैं. इसका असर उनकी आलोचना दृष्टि से लेकर उनकी भाषा तक पर है. कहानी और नई कहानी में कहानी की आलोचना की जो प्रक्रिया और पद्धति है उसमें एक ताज़गी है. आज भी उनके मूल्यांकनों से यदा कदा मतभेद होते हुए भी उनको खारिज़ नहीं किया जा सकता.
उनकी आलोचना का अगला महत्वपूर्ण पड़ाव कविता के नए प्रतिमान है. इसकी आलोचना भी हुई है. नामवर सिंह के प्रसंग में मुझे जार्ज लुकाच की याद आती है. उन्होंने अपने जीवन में अपनी कई किताबों को disown किया. उसी तरह नामवर सिंह ने अपनी कई किताबों और मान्यताओं को disown किया है. इनमें उनकी दो महत्वपूर्ण किताबें हैं- एक तो इतिहास और आलोचना और दूसरी किताब कविता के नए प्रतिमान. पर मैं D.H. Lawrence की उस बात पर विश्वास करता हूँ कि कहानी पर विश्वास कीजिए कहानीकार पर नहीं. तो नामवर सिंह के own, disown को छोडकर उनकी कविता के नए प्रतिमान को ध्यान में रखें तो पाएंगे कि उसका मूल्य उसके विवादास्पद होने में ही है. नामवर जी ने उसमें दो तरह के विवाद किए है – एक विवाद डॉ. नागेन्द्र और उनकी आलोचना दृष्टि और इनकी कविता संबधी समझ से है, दूसरा विवाद अज्ञेय की कविता से है.
नागेन्द्र के संदर्भ में नामवर सिंह रामचंद्र शुक्ल को ध्यान में रखते हैं और अज्ञेय के प्रसंग में मुक्तिबोध को रखते हैं. हिंदी आलोचना में विचारों के विकास में बहस की भूमिका की अगर किसी दिन खोज़ और खबर ली जायेगी तो कविता के नए प्रतिमान का यह योगदान स्वीकार किया जायेगा.कविता के नए प्रतिमान की शुरुआत रामचंद्र शुक्ल के प्रसिद्ध निबन्ध कविता क्या है से होती है.ऐसा लगता है जैसे नामवर सिंह यह चाहते हो कि रामचन्द्र शुक्ल ने कविता के जैसे नए प्रतिमान बनाए उसी तरह की उम्मीद इस किताब से भी की जाए. बाद में खुद नामवर सिंह ने यह स्वीकार किया कि उसमें इस तरह का कोई नया प्रतिमान नहीं है.
उनका आखिरी महत्वपूर्ण कार्य है दूसरी परम्परा की खोज. इसकी भाषा बहुत ही सृजनशील है. नामवर सिंह की भाषा बहुत ही जानदार है और इसी लिए वह असरदार आलोचना लिखते हैं और बोलते हैं. नामवर सिंह की आलोचना की भाषा पर उनकी वक्तृता का गहरा असर है. दूसरी परम्परा की खोज में हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना और रचनाशीलता की नई व्याख्या की कोशिश है, पर रामचन्द्र शुक्ल के महत्व को कम करने के लिए इसमें जो तर्क दिए गए है वह गले नहीं उतरते. कुल मिलाकर उनकी आलोचना में साहित्य के प्रति जो प्रतिबद्धता है वही मुझे मूल्यवान लगती है.
(मैनेजर पाण्डेय से यह बातचीत यहाँ पढ़ें)
जे.एन. यू और नामवर सिंह
पुरुषोत्तम अग्रवाल
1987 में जब नामवर जी साठ साल के हुए, ज्ञानरंजन ने ‘पहल’ का अंक उन पर केन्द्रित किया था. मुझे भी उस अंक में लिखने का सौभाग्य मिला, मैंने लिखा, ‘वे सिर्फ पढ़ाते नहीं, सिखाते हैं.’ यही लेख सुधीश पचौरी ने ‘नामवर के विमर्श’ (1995) में पुनः प्रकाशित किया. फिर नामवर जी के पचहत्तर वर्ष पूरे करने पर, 2002 में अमृत महोत्सव कार्यक्रम में प्रभाष जी और केदार जी के आदेश पर भाषण दिया, जिसे ओम थानवी ने ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित किया. यह भाषण नामवर जी के व्यक्तित्व के बारे में नहीं, ‘दूसरी परम्परा की खोज’ के बारे में था, कुल मिलाकर आलोचनात्मक. नामवर जी के व्यक्तित्व के बारे में तो पूरे बाइस साल बाद ही लिख रहा हूँ. आशा है कि जब वे एक सौ एक वर्ष के होंगे, तब भी उनके बारे में कुछ लिखने के लिए मैं उपलब्ध रहूँगा.
यह लेख जे.एन.यू. के नामवर जी के बारे में है. भारतीय भाषा केन्द्र की विशेषताओं, कोर्सेज, अध्यापकों के बारे में नहीं, यह लेख जे.एन.यू. के जे.एन.यू.पन और नामवर जी के नामवरपन के बारे में है. ऐसे व्यक्ति का हलफनामा है यह लेख-जिसे अपने जे.एन.यू.आइट होने पर आज तक बेधड़क अभिमान है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह नामवर जी के निकट है, लेकिन खुद जिसे ऐसा कोई मुगालता नहीं.
नामवर जी सन् चौहत्तर में जे.एन.यू. आए; भारतीय भाषा केन्द्र को नामवर जी ने बनाया. सोचना यह चाहिए कि जे.एन.यू. ने नामवर जी को, और अनेक अध्यापकों, छात्रों, कर्मचारियों, नागरिकों को बनाने में कोई विशेष भूमिका निभाई या नहीं? यों तो जे.एन.यू. भी एक और यूनिवर्सिटी ही थी और है, लेकिन क्या सचमुच जे.एन.यू. के होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता? कुछ संस्थाएँ किसी समाज में मानक का दर्जा क्या यों ही हासिल कर लेती हैं?
शान्तिनिकेतन, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बी.एच.यू., ए.एम.यू., सागर, जामिया, जे.एन.यू. ये सब क्या सिर्फ इमारतें हैं? या ये सपने हैं-जागती आँखों सपने देखने के आदी, ‘विचित्र’ लोगों द्वारा देखे गए सपने. ऐसे सपने जिन्हें देखना और जिनकी ताबीर करना जितना मुश्किल है, चौपट कर देना उतना ही आसान. जे.एन.यू. ने इतने दिनों तक खुद को बचाए रखा, यह क्या भावुक हो जाने लायक बात नहीं? खासकर इन दिनों जबकि जे.एन.यू. गोया खुद ही अपनी निजी पहचान से पिंड छुड़ाकर भीड़ में शामिल होने को व्याकुल दिख रही है.
शान्तिनिकेतन, आई.आई.एस., बी.एच.यू., सागर, जामिया-ये सब सपने इतिहास के एक खास मोड़ पर देखे गए सपने थे. राजनैतिक के साथ-साथ बौद्धिक और सांस्कृतिक स्वाधीनता भी हासिल करने की हौंस रखनेवाले समाज में कुछ शानदार शख्सियतों द्वारा देखे गए सपने. जे.एन.यू. भी एक सपना था. ऐसे समय में देखा गया सपना जो अब ‘रेस्टलेस सिक्सटीज’ के नाम से इतिहास में दर्ज हो चुका है. साठ के उस दशक की वह विश्वव्यापी बेचैनी सत्तर के दशक तक भी सच ही लगती थी. यह प्रति संस्कृति (काउंटर कल्चर) का दौर था. जे.एन.यू. में जो बोहेमियनपन था, वह इस काउंटर-कल्चर ही की उपज था. काउंटर कल्चर का ही एक पक्ष है-दूसरी परम्परा (अदर टैडीशन) की खोज. संयोग नहीं कि इस नाम की पुस्तक ‘जे.एन.यू. के नामवर जी’ ने ही लिखी. इस पुस्तक में भी, और उन दिनों के जे.एन.यू. में भी, वर्चस्व की संस्कृति का केवल विरोध नहीं था, विकल्प खोजने और रचने की छटपटाहट भी थी. इस अर्थ में नामवर जी की पुस्तक ‘दूसरी परम्परा की खोज’ भी खाँटी जे.एन.यू.-आइट है.
बहरहाल, प्रतिवाद, प्रतिरोध और विकल्प-रचना की इस विश्वव्यापी संस्कृति के प्रति अलग-अलग लोगों के अलग-अलग रवैये थे. विश्व-व्यवस्था का अपना तरीका था, विश्वव्यापी बेचैनी से निपटने का. जैसा कि नामवर जी ने ही एक बार क्लास में कहा था, ‘पूँजीवाद में क्रान्ति भी बिकती है. चे ग्वेवरा की तस्वीरों वाली कमीजों से लेकर उनकी डायरियाँ तक अमेरिकी बाजार में बहुत लोकप्रिय हैं.’ लेकिन इसी व्यवस्था में गुंजाइश निकलती है प्रतिरोध की. प्रतिरोध के लिए पहले चाहिए बोध. संसद में जे.एन.यू. का प्रस्ताव पेश करते समय सरकार के मन में जो भी रहा हो, जी. पार्थसारथि और मूनिस रज़ा जैसे लोगों ने जे.एन.यू. का सपना एक ऐसी यूनिवर्सिटी के रूप में ही देखा जहाँ बीसवीं सदी के सातवें-आठवें दशक में व्याप्त बेचैनी को व्यवस्था और विरासत दोनों के बेहतर बोध में बदला जा सके.
जिन विशेषताओं ने जे.एन.यू. को जे.एन.यू. बनाया, वे आकाश से नहीं टपक पड़ी थीं. बल्कि शायद कल्पना के आकाश में तो वे थीं, उन्हें अरावली की पहाड़ियों पर उतार लाना बड़ा काम था. मुझे तो मूनिस रज़ा से ठीक से बात करने का भी मौका कभी नहीं मिला, लेकिन उनके विट के किस्से कई सुने हैं. ऐसा ही एक किस्सा यह है कि शुरुआती दिनों में प्रोफेसरों की किसी गप-गोष्ठी में मूनिस साहब नया कैम्पस विकसित करने की समस्याओं पर बात कर रहे थे. बोले, ‘‘भई सब कुछ सिरे से ही शुरू करना होगा. अभी तो आलम यह है कि पहाड़ियों पर उल्लू बोलते हैं.’’ किन्ही प्रोफेसर साहब ने जुमला जड़ा, ‘‘अच्छा है, अभी तो बस बोलते हैं, कुछ दिनों बाद पढ़ाएँगे.’’
‘‘लेकिन आपको तो हम एपॉइंट ही नहीं कर रहे, पढ़ाएँगे कैसे?’’-मूनिस साहब की तरफ से नहले पर दहला आया.आत्म-साक्षात्कार का वह पल उन प्रोफेसर साहब पर कैसा गुजरा होगा, यह कल्पना आप कर लीजिए.
अभी पिछले ही दिनों एक मित्र ने कहा कि जे.एन.यू. में मुझे अब तक परायापन लगता है. जिस यूनिवर्सिटी में मैंने एम.ए. किया, वहाँ बिलकुल अपने गाँव जैसा लगता था. बात ठीक ही है. हाँ, उनके हिसाब से जो कमजोरी है, मुझे वही जे.एन.यू. की सबसे बड़ी ताकत लगती है. अंग्रेजी में यूनिवर्सिटी और हिन्दी में विश्वविद्यालय जिस जगह का नाम हो, वहाँ पहुँचकर भी आपको लगे कि आप अपने गाँव या मोहल्ले से बाहर निकल ही नहीं पाए, तो यह चिन्ता की बात है. आपके लिए भी. यूनिवर्सिटी के लिए भी. जे.एन.यू. का नयापन शुरू में जरूर अटपटा लगता था, कुछ लोगों को शायद ‘पराया’ भी लगता हो, लेकिन जे.एन.यू. की खूबी यह थी कि यह किसी को पराया नहीं समझती थी.
शैक्षणिक संस्थाओं में नए छात्रों से परिचय करने के लिए ‘रैगिंग’ की विधि से हम सब वाकिफ हैं. अब तो यह बाकायदा अपराध की श्रेणी में है. लेकिन जे.एन.यू. में नए छात्रों के ‘पराएपन’ और अपरिचय को दूर करने के लिए रैगिंग कभी मान्य विधि नहीं रही. नए छात्र जे.एन.यू. में आतंकग्रस्त तुच्छ जनों जैसा नहीं, शब्दशः ‘वी.आई.पी.’ जैसा महसूस करते थे. किसी हद तक अभी भी करते हैं. इस बात का क्या महत्त्व है, यह मेरे जैसे छोटे शहरों से आए विद्यार्थी भली-भाँति समझते हैं. इस बात का क्या मानवीय मोल है, यह उन लड़के- लड़कियों के माँ-बाप से पूछिए जिन्होंने रैगिंग के आतंक और यातना के दबाव में आत्महत्याएँ की हैं.
जे.एन.यू. का ‘अपराध’ यह अवश्य था कि यह अपने गाँव की याद दिलाती नहीं, आत्मसजग रूप से ‘कॉस्मोपॉलिटन’ होने का प्रयत्न करती संस्था थी, अपने सदस्यों को भी वैसा ही बनाने का प्रयत्न करती संस्था थी. केवल अंग्रेजी को खुले मन का अकेला प्रतीक उन दिनों के जे.एन.यू. में कभी नहीं माना गया, अंग्रेजियत की बातें करनेवाले कितनी भी करते रहें. हाँ, यह सही है कि अंग्रेजी के खिलाफ जिहाद को ही लोकतान्त्रिक होने का पर्याप्त प्रमाण भी नहीं माना जाता था. लोकतान्त्रिक मिजाज इसमें झलकता था कि जो अंग्रेजी नहीं जानते थे, उनके नाम जे.एन.यू. में नोटिस बोर्ड पर नहीं लगा दिए जाते थे, जैसे कि टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ में आजकल लगा दिए जाते हैं.
अंग्रेजी की हो, या किसी और तरह की, असुविधाएँ दूर करने का प्रयत्न लोगों के आत्म-सम्मान की चिन्ता करते हुए ही किया जाता था. कॉस्मोपॉलिटन होने की परख फैन्सी अंग्रेजी बोलने के आधार पर नहीं, कुछ अन्य आधारों पर हुआ करती थी-इस बात का सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण तो वह सम्मान ही है, जो नामवर जी को जे.एन.यू. समुदाय के हर हिस्से से प्राप्त था और है.
बढ़िया अंग्रेजी न जानने के कारण, कम-से-कम उन दिनों के जे.एन.यू. में एहसासे कमतरी की सम्भावना न के बराबर थी, कोई गाँव से ही ग्रन्थियों की गठरी लेकर चला आया हो, तो बात अलग है. मुझे खुद अपने अंग्रेजी ‘ज्ञान’ के तो कई चुटकुले आज तक याद हैं, लेकिन उनके कारण कभी मेरी खिंचाई की गई हो, ऐसा कोई प्रसंग याद नहीं, बल्कि हर लड़की दोस्त को ‘गर्लफ्रेंड’ नहीं कहा जाता, यह मुझे बड़े प्यार से मेरे अंग्रेजीदाँ दोस्तों ने ही बताया था. हाँ, जब मैं अच्छी-खासी अंग्रेजी बोलने-लिखने लगा था, अध्यापक हो चुका था, तब जरूर छात्रों के एक कार्यक्रम में मेरे अंग्रेजी ज्ञान और लहजे की खिल्ली, मेरे सामने ही उड़ाई गई थी. मेरे छात्र रामचन्द्र की व्याख्या के अनुसार, यह शब्द और कर्म दोनों में मेरे बहुत मुखर रूप से दलित समर्थक होने का ‘दंड’ था. खैर, यह दंड देनेवाले वे छात्र निश्चय ही ‘क्वींस इंग्लिश’ बोलते रहे होंगे, वह भी ठेठ ‘ऑक्सोनियन’ लहजे में. वे नहीं, तो उनके संरक्षक अध्यापक तो बोलते ही रहे होंगे- ‘नॉन’ को ‘नन’ और ‘बॉडी’ को ‘बडी’ में बदलते हुए. यह घटना नामवर जी के रिटायरमेंट के बाद की है. 1993 की.
नामवर जी के सम्बन्ध अपने सभी अध्यापक साथियों के साथ अच्छे ही नहीं थे. सभी का दिल से सम्मान भी वे नहीं करते थे. लेकिन मजाल है कि औपचारिक कार्यक्रम तो दूर की बात, अनौपचारिक रूप से भी कोई नामवर जी के सामने किसी अध्यापक साथी की शान में गुस्ताखी कर सके. यही बात उस वक्त के कई वरिष्ठ प्रोफेसरों के बारे में कही जा सकती है. अपनी उपस्थिति मात्र से नामवर जी और उन दिनों के जे.एन.यू. के अन्य प्रोफेसर ‘सिर्फ पढ़ाते नहीं सिखाते’ थे, सिखाते हैं. मुझे याद है, प्रो. शेषाद्रि डीन ऑफ स्टूडेंट्स वेल्फेयर होते थे. एक बार छात्र नेता के धर्म का निर्वाह करते हुए मैंने उनसे कुछ बातें ऊँची आवाज में कह दी थीं. शाम को ही नामवर जी ने तलब कर लिया. इतने सख्त ढंग से वे आम तौर से बोलते नहीं, जितने से उस दिन बोले. हालाँकि जब मैंने अपना पक्ष रखा तो थोड़े शान्त हुए. बहरहाल, महत्त्वपूर्ण तो वह गुरुमंत्र था, जो अन्ततः प्राप्त हुआ-‘‘पुरुषोत्तम जी, विनम्रता और दृढ़ता में कोई विरोध नहीं हुआ करता, यह याद रखिए.’’
बात चल रही थी, अंग्रेजियत की. अंग्रेजी माध्यम थी जे.एन.यू. में अध्यापन- अध्ययन, राजनैतिक-सांस्कृतिक जीवन की. धीरे-धीरे जब जे.एन.यू. की ही प्रवेश- नीति के कारण हिन्दी पृष्ठभूमि के छात्रों की संख्या बढ़ती गई, तो स्थिति भी बदलती गई. लेकिन, किसी को आँकने का, किसी की खिल्ली उड़ाने का जरिया बनने का सौभाग्य अंग्रेजी ज़बान को नामवर जी की पीढ़ी के रिटायरमेंट और जे.एन.यू. के धीरे-धीरे रूपान्तरण के बाद ही मिला. उन दिनों तो कामरेड पशुपतिनाथ सिंह अपनी अत्यन्त ‘लोकतान्त्रिक’ अंग्रेजी के साथ ही ए.आई.एस.एफ. के सम्मानित नेता हुआ करते थे. स्पोर्ट्स ऑफिसर टोकस साहब की अंग्र्रेजी तो किसी भी अंग्रेज को हत्या या आत्महत्या पर उतारू कर देने के लिए काफी थी-‘‘प्ले, डू नॉट प्ले. वाट माई फादर्स गोज़, वाट एवर गोज़, योर फादर्स गोज़. यू नो, योर वर्क नोज़.’’
उन दिनों के माहौल को समझे बिना ही कुछ लोग जे.एन.यू. की ‘अंग्रेजियत’ के विरुद्ध जिहाद मुद्रा में रहते थे. ऐसे ही एक सज्जन हम लोगों के किसी जूनियर बैच में पटने से पधारे थे. बात-बात में अंग्रेजी और जे.एन.यू. की अंग्रेजियत को कोसते ये महानुभाव नामवर जी की ही तरह धोती-कुर्ता पहनते थे. इस आधार पर वे स्वयं को नामवर सिंह द्वितीय मनवाने के फेर में भी रहते थे. हालाँकि हमारे लिए वे ‘जायका’ ही थे. हम लोग अपने सीनियर पंडित घनश्याम मिश्र का धोती-कुर्ता मंडित और चौधरी रामवीर सिंह तथा मौलाना अनीस का अचकन-चूड़ीदार सज्जित व्यक्तित्व देखे हुए थे. इसलिए इन सज्जन द्वारा बजरिए पोशाक दिए जा रहे सांस्कृतिक वक्तव्य की मौलिकता पर हमारा कोई ध्यान नहीं था. गोरख पांडे, आनन्द कुशवाहा, शन्ने मियाँ और रमाशंकर विद्रोही पर ध्यान था तब के जे.एन.यू. का, तो उनकी पोशाक के कारण नहीं, शख्सियत के कारण था. ध्यान देने या न देने का यह चुनाव ही जे.एन.यू. की ओर से वक्तव्य था. वैसा ही जैसा अष्टावक्र ने जनक की राजसभा में दिया था-‘हम कपड़े से या चमड़े से नहीं, सामर्थ्य से परखते हैं, इनसान को.’
नामवर जी को भी जे.एन.यू. ने उनके धोती-कुर्ता से नहीं, सामर्थ्य से ही परखा था. नियुक्ति की नहीं, मैं बात परख की कर रहा हूँ. नियुक्तियाँ तो और भी हुईं, और कुछ ‘जायकों’ की भी हुईं. बात नियुक्ति की नहीं, जो सम्मान नामवर सिंह, रोमिला थापर, विपिन चन्द्र, योगेन्द्र सिंह आदि को मिला-उसकी है.लेकिन बड़े-बड़े विद्वान तो और विश्वविद्यालयों में भी रहे हैं, अभी भी हैं. इसमें ऐसी बड़ी बात क्या है?
जे.एन.यू. केवल शीर्षस्थ विद्वानों को नियुक्त करके ही तो निश्चय ही जे.एन.यू. नहीं बन गई. जे.एन.यू. जे.एन.यू. बनी क्योंकि नामवर जी जैसे लोग सचेत भाव से जे.एन.यू. वाले बने, जे.एन.यू. को बनानेवाले बने.जिन दिनों जे.एन.यू. बन रही थी, उन दिनों की जे.एन.यू. की सबसे बड़ी तारीफ उस हिकारत में ही छिपी थी, जिसके साथ जे.एन.यू. को ‘सफेद हाथी’ या (दीन-दुनिया से बेखबर) ‘टापू’ कहा जाता था. जे.एन.यू. को सफेद हाथी कहनेवाले नहीं जानते थे कि भारतीय परम्परा में सफेद हाथी एक ही माना गया है-ऐरावत. करोड़ों काले हाथियों के बरक्स एक अकेला सफेद हाथी-ऐरावत.
जे.एन.यू. सचमुच सफेद हाथी था. पचीसों नई-पुरानी, महान-सामान्य यूनिवर्सिटीज के बीच एक अकेला, अनोखा जे.एन.यू..
कहनेवाले नहीं जानते थे कि व्यंग्य करके भी वे जे.एन.यू. का माहात्म्य-वर्णन ही कर रहे हैं. वे बेचारे तो यूरोप के अवज्ञापूर्ण मुहावरे का देशी अनुवाद भर कर रहे थे. ऐरावत को जानते होते या उन हाथियों के रंग के बारे में सुना होता जो सिद्धार्थ को गर्भ में धारण किए जननी के सपनों में दिखते थे, तो शायद कोई और शब्द गढ़ते. लेकिन उससे भी क्या फर्क पड़ना था. किसी की निन्दा को विश्वसनीय बनाने के लिए भी तो उसकी विलक्षणता पर ध्यान देना ही पड़ता है. सो, कहनेवाले जो भी कहते, इतना तो जरूर ही कहते कि जे.एन.यू. विलक्षण था. ‘ह्नाइट एलीफैंट’ कह लो, ‘आइलैंड’ कह लो, बता तो यही रहे हो कि ‘है बात कुछ ऐसी…’क्या थी वह बात?और क्या था नामवर जी का, उनकी पीढ़ी का योगदान उस बात में?
बातचीत
सुमन केशरी
आप जोधपुर से जे.एन.यू. आए थे.
नामवर सिंहजोधपुर के अप्रिय प्रसंग की चर्चा न ही करें तो अच्छा है. उस प्रसंग का सम्बन्ध ‘आधा गाँव’ को लेकर है. वहाँ किताब कोर्स में लगाने का विरोध हुआ था. अन्यथा जोधपुर का ऋण मेरे ऊपर है, क्योंकि जोधपुर ने पहली बार मुझे प्रोफेसर बनाया बिना इंटरव्यू के. मेरी अनुपस्थिति में मैं वहाँ चुना गया था. मुझे ऑफर देने में, निर्णायक भूमिका में, विशेषज्ञ के रूप में बुलाए गए विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के उपकुलपति श्री शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ थे और कुलपति थे प्रो. वी.वी. जॉन, जो अहिन्दी भाषी थे और जिनका ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में एक नियमित कॉलम छपता था. वे अंग्रेजी साहित्य के बहुत अच्छे विशेषज्ञ थे. उनके और राजस्थान के बारे में बहुत-सी बातें कही जा सकती हैं. वे साहित्य प्रेमी थे और ‘कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम’ के एडीटर थे, जहाँ से ‘क्वेस्ट’ नाम की एक पत्रिका निकलती थी. वे राजनीतिक रूप से कम्यूनिस्ट विचारधारा के विरुद्ध रहा करते थे. सुमन जी ने उनसे बता दिया था कि और सब ठीक है लेकिन वह (मैं) राजनीतिक रूप से कम्यूनिस्ट है. वह कम्यूनिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ चुका है.
वी.वी. जॉन ने हँसते हुए कहा कि ‘‘है तो रहा करे, मुझे तो कन्वर्ट नहीं कर देगा और अगर वो अच्छा स्कॉलर है, विद्वान है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है, मैं तो ऐसे ही लोगों को ले आना चाहता हूँ.’’ और इस तरह से उस विश्वविद्यालय में बहुत से पदों पर अच्छे स्कॉलर आए, जैसे-संस्कृत के प्रो. जोशी, अंग्रेजी के उषा कृष्णमूर्ति, जो केरलवासी थे. विज्ञान विभाग में भी उन्होंने ऐसे कई लोगों को रखा. प्रो. जॉन उस विश्वविद्यालय में इस तरह कई लोगों को ले आए और जोधपुर यूनिवर्सिटी ज्यादा आकर्षक, बल्कि जयपुर यूनिवर्सिटी से ज्यादा आकर्षक हो गई थी. प्रो. जॉन विद्याप्रेमी, अच्छे एकेडमीशियन और पक्के क्रिश्चियन थे. संडे को नियमित चर्च जाते थे, कैथलिक थे, केरला के थे. जब उन्होंने कम्पेरेटिव लिटरेचर का एक नया डिपार्टमेंट खोला तब वे साठ साल के हो चुके थे. वे अज्ञेय को इस डिपार्टमेंट में ले आए, इसमें उन्होंने मेरी राय ली थी.
एक बड़ा ही बौद्धिक वातावरण था. मैंने जो जोधपुर में शुरू किया था उसे करने के लिए ही सम्भवतः आगे मुझे जे.एन.यू. आना था. तो उन्होंने वहाँ पूरी छूट दी कि ‘‘एकदम नया कोर्स बनाओ.’’ मैंने सारे कोर्स बदलकर जोधपुर में एक नए ढंग का कोर्स बनाया-बी.ए. का थ्री ईयर कोर्स बनाया, प्री यूनिवर्सिटी का कोर्स बनाया, फिर उनके लिए किताबें तैयार कीं. आज भी मेरे पास उनकी कॉपियाँ होंगी. मैंने करीब एक दर्जन किताबें तैयार कीं. प्री यूनिवर्सिटी कोर्स से लेकर बी.ए. तक के कोर्स के लिए. गद्य-पद्य संकलन भी तैयार किए. चूँकि वहाँ रहते हुए मैं वहाँ के पब्लिक सर्विस कमीशन का मेम्बर भी था और राजस्थान बोर्ड में हिन्दी कमेटी का चेयरमैन था, अतः कोर्स तैयार करते समय मैंने ये बराबर ध्यान में रखा कि वहाँ के पास किए लड़के यहाँ पब्लिक कमीशन में आ सकें.
मैंने इस तरह के पाठ्यक्रम तैयार किए जिससे दोनों संस्थानों को फायदा हो. मैं जोधपुर अक्टूबर 1970 में पहुँचा और जे.एन.यू. सितम्बर 1974 में आया. मैं रहता तो जोधपुर में था किन्तु जयपुर अक्सर आया-जाया करता था. जयपुर में कई मित्र थे, लेकिन हिन्दी के नहीं. उनमें से एक प्रोफेसर दया कृष्ण सागर के दिनों से ही मेरे मित्र थे और इलाहाबाद के दिनों के मित्र थे प्रोफेसर गोविंदचन्द्र पांडेय. हिन्दीवालों में प्रोफेसर सरनाम सिंह से मेरे सम्बन्ध बहुत अच्छे हो गए थे.
तो जयपुर में बड़ा अच्छा समाज था. एक और अनुभव जो मुझे जोधपुर जाने से मिला वह था एक बड़ा खुला हुआ नया वातावरण और सबसे बड़ी बात कि हिन्दी विभाग को नए ढंग से बनाने की चुनौती, जिनमें कुछ नई नियुक्तियों का अवसर भी उपलब्ध था. वहाँ प्रगतिशील लेखक संघ को भी मैंने मजबूत किया और इस तरह से एक साहित्य समाज भी वहाँ बन गया. लेकिन जोधपुर जहाँ मैंने ये प्रयोग किए, था तो एक छोटा-सा शहर ही और उसका प्रभाव क्षेत्रीय ही रह सकता था, अखिल भारतीय नहीं हो सकता था. जोधपुर में रहते हुए ही साहित्य अकादमी की नई जनरल कौंसिल बनी और संयोग से 1971 के आस-पास मैं उसका सदस्य हो गया. तो दिल्ली से हमारा सम्बन्ध साहित्य अकादमी के चलते बना रहा. दिल्ली से गया था तो दिल्ली का साहित्यिक वातावरण और मित्र लोग तो यहीं रह गए थे. मैं अक्सर अप-डाउन करता रहता था. अकेला तो था ही.
इस बीच जे.एन.यू. बन गया था. हमारे जोधपुर के कई मित्र जे.एन.यू. आ गए थे. इनमें योगेन्द्र सिंह भी थे. बहुत बाद में प्रोफेसर योगेन्द्र अलघ आए जो उपकुलपति होकर आए थे. वे पहले जोधपुर में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर थे. उन्हें मैं जोधपुर के दिनों से ही जानता था. संयोग से उसी समय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग में प्रोफेसर सतीशचन्द्र चेयरमैन हो गए थे. उनसे हमारा पुराना सम्बन्ध था. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की कमेटी में मैं था. तो एक पूरा मैदान मुझे मिला, जोधपुर में प्रोफेसर होने से, क्योंकि अगर मैं लेक़्चरार होता तो इन कमिटियों में न होता. प्रोफेसर होने के जितने लाभ हो सकते थे और अवसर मिल सकते थे-वो सब मुझे मिले. तो अकसर मैं जब दिल्ली आता था तो योगेन्द्र जी से, विपिन जी से मिलता था. विपिन को मैं सन् 1965 से जानता था, दिल्ली यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग में थे. और कई लोग थे जिनसे मेरा परिचय था.
राही मासूम रज़ा के नाते भी कई लोग जानते थे. जोधपुर में दो-ढाई साल बीतते-बीतते कुछ ऐसा हुआ, कुछ ऐसी राजनीति चली कि प्रोफेसर वी. वी. जॉन को जाना पड़ा. त्यागपत्र दे दिया उन्होंने. उनके बाद लखनऊ विश्वविद्यालय के राजनीति विभाग के प्रोफेसर थे-प्रो. मसलदान. वो उपकुलपति बनकर आए. बहुत भले आदमी थे लेकिन प्रोफेसर जॉन के जाने के बाद वो जो एक माहौल था यूनिवर्सिटी का, जाहिर है, वो तो रहा नहीं और मेरा मन भी उचाट था. लक्ष्य तो यही था कि दिल्ली वापस आ जाऊँ.
खासतौर से जे.एन.यू. बनने के बाद एक आकर्षण पैदा हो गया था कि यहाँ कुछ बड़ा काम करने का मौका मिलेगा. उन दिनों जे.एन.यू. के स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज़ में विदेशी भाषाएँ ही पढ़ाई जाती थीं. प्रोफेसर नागचौधरी उपकुलपति थे. उन्होंने कहा कि जे.एन.यू. में भारतीय भाषाओं को भी होना चाहिए. मुझे लगता है कि इसकी प्रेरणा उन्हें जापानी भाषा के लेक्चरार सत्यभूषण वर्मा साहब से मिली होगी. वर्मा जी ने मेरे साथ काम किया था. जापानी भाषा जानते थे इसलिए जापानी विभाग में लेक्चरार हुए. तो गर्मियों में हिन्दी विभाग की रूपरेखा तय करने के लिए एक मीटिंग हुई जिसमें मुझे बुलाया गया. तब तक यह नहीं कहा गया था कि मुझे यहाँ आना है. मैं तो विशेषज्ञ के रूप में बुलाया गया था. चूकि यहाँ स्कूल और सेन्टर का कॉन्सेप्ट है इसलिए मैंने कहा कि हिन्दी-उर्दू को एक ही सेन्टर में रखा जाए- सेन्टर ऑफ इंडियन लैंग्वेजेज.
जोधपुर से ही मेरी यह धारणा थी कि हिन्दी और उर्दू की पढ़ाई साथ-साथ होनी चाहिए, यह दोनों ही के हक में है. दोनों की उपाधियाँ अलग-अलग दी जाएँ पर दोनों की पढ़ाई साथ-साथ हो. यह बात मैंने उस मीटिंग में रख दी. इसके बाद उपकुलपति ने मुझे बुलाया और कहा कि हम चाहते हैं कि आप हमारे यहाँ आ जाएँ. सारी कार्यवाही पूरी करने में विश्वविद्यालय को कुछ समय लगा और मुझे सितम्बर 1974 में ऑफर मिल गया. उसी समय आगरा विश्वविद्यालय के उपकुलपति बालकृष्ण राव ने मुझे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी विद्यापीठ के डाइरेक्टर पद का ऑफर भेज दिया. उन्होंने कहा कि रामविलास शर्मा यहाँ से अवकाश प्राप्त कर रहे हैं. अब तुम यहाँ आ जाओ. मैंने उन्हें बताया कि मुझे जे.एन.यू. का पत्र मिल चुका है और मैं वहीं जाना चाहता हूँ. जोधपुर के बाद आगरा का मतलब था ताड़ से गिरे खजूर पर अटके, पर राव नहीं माने. बोले-ये डाइरेक्टर की पोस्ट है. मैंने उनसे कहा कि पद महत्त्वपूर्ण नहीं है.
नए विभाग को शुरू करने का काम मुझे ज्यादा चुनौती भरा लग रहा है, इसलिए जे.एन.यू. ही जाना पसन्द करूँगा. तो बालकृष्ण राव जी बोले कि ‘‘भई, वह तो मैंने तमाम विरोधों के बावजूद पास करा लिया है. यहाँ तरह-तरह के लोग थे और मैं उन्हें लेना नहीं चाहता था, फिर मेरी रामविलास जी से भी बात हो गई है और उन्होंने कहा है कि नामवर सिंह को ले लो. तो अब तुम्हें यहाँ आना ही पड़ेगा. अभी ज्वाइन तो नहीं किया है जे.एन.यू. में?’’ मैंने कहा, ‘‘ज्वाइन तो नहीं किया है,’’ तो बोले, ‘‘हमारे यहाँ ज्वाइन करो.’’ जे.एन.यू. की चिट्ठी मिल चुकी थी. तब मैंने उपकुलपति से कहा कि देखिए मैं कोशिश करूँगा कि एक महीना वहाँ रहूँ और ठीक एक महीने के बाद यहाँ आ जाऊँ और इस बीच मैं बालकृष्ण राव जी को भी मना लूँगा. उनका आदेश है, और उनकी बात भी रह जाए, तो मैं आगरा जाऊँगा. आगरा का क्वार्टर खाली था लेकिन मैं वहाँ गया नहीं, गेस्ट हाउस में रहता था और शनिवार को दिल्ली आ जाता था. मेरा सामान दिल्ली में मार्कंडेय सिंह जी के यहाँ था. वे रेलवे में थे और स्कूल के दिनों के दोस्त थे.
रेलवे स्टेशन के पास उनका बहुत बड़ा बँगला था, जहाँ एक कमरा मेरे लिए रहता था. जब भी मैं दिल्ली आता, वहीं रहता था. मार्कंडेय जी, चन्द्रशेखर के बहुत अच्छे मित्र थे, क्लासफेलो थे. मेरे आगरा जाने के बाद डॉ. रामविलास शर्मा की विदाई हुई और उन्होंने मुझे चार्ज दिया. आगरा-दिल्ली अप-डाउन करते हुए मैं जब भी सोमवार की सुबह दिल्ली से आगरा जाता तो सीधे रामविलास जी के घर पहुँचता और इंस्टीट्यूट की अम्बेसडर कार से उनको अपने साथ ही संस्थान ले आता. यह नित्य का नियम था. यू. जी. सी. का एक प्रोजेक्ट रामविलास जी को मिला था. ज्वाइन करने के बाद मैंने इस आशय का एक पत्र उन्हें दिया कि वे विश्वविद्यालय में प्रोजेक्ट पूरा करने तक रहेंगे. करीब-करीब एक महीना मैं के. एम. इंस्टीट्यूट में रहा. फिर मैंने बालकृष्ण राव से कहा कि अब आपकी बात रह गई, आपको कोई नया डाइरेक्टर मिल जाएगा.
राव बोले कि अगर मैं नियम का सख्ती से पालन करूँ तो आपको तीन महीने से पहले नहीं छोड़ सकता. मैंने कहा कि आपका टर्म तो खुद खत्म हो रहा है और आप दुबारा उपकुलपति होंगे या होना चाहेंगे अथवा नहीं पर आपके यहाँ न रहने पर इस संस्थान की जो हालत होगी, वह आप खुद जानते हैं. यहाँ की जो पॉलिटिक्स है और जिस तरह के लोग यहाँ हैं उसमें आपकी छाया के बिना काम करना मुश्किल होगा. सोचिए, मेरा क्या हाल होगा? फिर रामविलास जी भी यहाँ नहीं हैं, एक प्रोजेक्ट पर ही काम कर रहे हैं. इस पर उन्होंने कहा कि ठीक है वरना मैं तो आपसे तीन महीने की तनख्वाह रखवाकर ही छोड़ता. मैंने कहा, मैं एक काम करता हूँ, एक महीने की जो तनख्वाह मिलनी है वो मैं लिखकर दे देता हूँ कि मैंने उसे संस्थान को दिया.
उन्होंने संस्कृत में गीता का एक श्लोक लिखा और दिया. वो मेरे पास है अभी भी. अक्षर धँधले हो गए हैं. एकाध शब्द पढ़ा नहीं जाता- यथोक्तं तत्रभवता श्रीकृष्णेन ‘‘सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्.’’…अतः यथानिश्चितं सम्यग् विचारणानंतरं यथाऽदिष्टम् अन्तःकरणेन तथैव कर्तव्यम्. आगे लिखा है: ‘‘शुभं भवतु.’’ हस्ताक्षर बालकृष्ण राव: (26.10.74.)
उन्होंने रामविलास जी की विदाई और मेरे अभिनन्दन की तस्वीरें दीं. मेरे जोधपुर और आगरा रहते हुए ही जे.एन.यू. में उर्दू की दो नियुक्तियाँ हो चुकी थीं. मुझे ठीक से याद नहीं है, हिन्दी की नियुक्ति मेरे सेन्टर में आने के बाद हुई थी या फिर मैं विशेषज्ञ के रूप में आया था. क्योंकि जो चयन समिति हुई थी, सम्भवतः मेरे आने के बाद ही हुई थी क्योंकि डॉ. नगेन्द्र विशेषज्ञ थे, एक विशेषज्ञ देवेन्द्रनाथ शर्मा थे और मैं अध्यक्ष था. रीडर और लेक्चरर की दो नियुक्तियाँ हुईं जिसमें सुधेश जी और शोभा जी आए. गंगा प्रसाद विमल भी कंडिडेट थे और मैं चाहता था कि उन्हें ले आऊँ, विमल जाकिर हुसैन में काम कर रहे थे. डॉ. नगेन्द्र ने विमल का विरोध किया, शोभा जी चूँकि यू.जी.सी. चेयरमैन की पत्नी थीं तो लगभग तय-सा था, और मुझे बता दिया गया था.
उन दिनों ओल्ड कैम्पस ही था. वहाँ स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज़ की बिल्डिंग में कमरे ही नहीं थे. फर्स्ट-फ्लोर पर डीन का कमरा होता था. उन्होंने बताया कि दो कमरे खाली हैं. एक आप ले लीजिए, दूसरा कमरा जो हमारे ऑफिस के ठीक सामने है, उर्दू के किदवई साहब ले लेंगे. बाकी लोगों के लिए कोशिश करते हैं, जब कमरे खाली होंगे तब मिल जाएँगे. जर्मनवाले चौथे तले पर थे; फ्रेंचवाले दूसरे तले पर, तीसरे पर कोई और था यानी जब हम आए थे तो जगह भी नहीं थी.खास बात यह कि हम लोगों के आने के पहले ही जो दबाव पड़ा हमारे छात्रों पर…प्रवेश प्रक्रिया के द्वारा जे.एन.यू. में हिन्दी के सात छात्र एम.ए. के लिए जुलाई-अगस्त में ही प्रवेश ले चुके थे.
स्थिति यह थी कि छात्र हैं लेकिन पढ़ानेवाला कोई अध्यापक है ही नहीं. उर्दू का एडमीशन अगले साल हुआ था. हमारा ऑफिस और क्लासरूम एक ही था, जिसमें हम पढ़ाते भी थे. हमारे पहले विद्यार्थियों में मनमोहन, घनश्याम मिश्रा, विजय चौधरी के अलावा चार विद्यार्थी और थे जिनमें दो लड़कियाँ भी थीं. इस प्रकार हिन्दी में सात विद्यार्थी थे. उर्दू में नामांकन नहीं होने के कारण वे निश्चिन्त थे.
छात्रों के चयन में हमारा कोई हाथ नहीं था, विश्वविद्यालय द्वारा चयन किया गया था. आते ही हमारा पहला काम था पाठ्यक्रम बनाना क्योंकि विद्यार्थी आ गए थे, कोई पाठ्यक्रम नहीं था, पढ़ाई भी नहीं हो रही थी. पहला सेमेस्टर दिसम्बर तक खत्म करना था, जिसकी परीक्षा भी होनी थी. अध्यापकों में सुधेश जी और शोभा जी आ गए थे. बी. एम. चिन्तामणि के पिताजी और हमारे नागचौधरी साहब के पिताजी मित्र थे, पारिवारिक सम्बन्ध थे. इस नाते नागचौधरी जी ने मुझे घर पर बुलाकर चिन्तामणि जी को टेम्परेरी रखने की बात की. द्विवेदी जी के नाते भी चिन्तामणि को मैंने ले लिया. इस प्रकार अध्यापक तो हो गए थे और पाठ्यक्रम को लेकर जो एक टेंटेटिव नक्शा मेरे दिमाग में था, वो दे दिया. मुकम्मल कोर्स तो दूसरे सेमेस्टर से हमने बनाया अर्थात् जनवरी-फरवरी तक सही कोर्स बन पाया.
(सुमन केशरी से यह पूरी बातचीत यहाँ पढ़ें )
भारतीय अस्मिता की खोज और जवाहरलाल नेहरु
नामवर सिंह
भारत के स्वाधीनता आन्दोलन के मूलभूत लक्ष्यों में एक बड़ा लक्ष्य यह था कि इस देश के नागरिकों को अंग्रेजी हुकूमत से मुक्ति तो मिले ही, वे अपनी राष्ट्रीय पहचान और समृद्ध संस्कृति के वारिस होने का आत्मिक गौरव भी अनुभव कर सकें. वही सांस्कृतिक गौरव, जो सिन्धु घाटी की सभ्यता, आर्य सभ्यता, वैदिक संस्कृति, बौद्ध-जैन संस्कृति, मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन और वैचारिक समन्वय की सुदीर्घ परंपरा से निर्मित हुआ है.
आज इस राष्ट्रीय पहचान और आत्मगौरव की भावना का महत्व इसलिए भी बढ़ गया है कि हमारी जातीय स्मृति में एक प्रकार का भ्रंश दिखाई पड़ रहा है. भ्रंश इस अर्थ में कि हम सिर्फ आज में जीते हैं, दस वर्ष पहले की घटनाओं को भी याद रखने की सामर्थ्य हम खोते जा रहे हैं. राष्ट्र के उन तमाम नायकों को भूलते जा रहे हैं, जिनका हमारे अपने अतीत और वर्तमान से गहरा ताल्लुक रहा है. ऐसे वातावरण में यदि हम यह भी भूल जाएं कि हम किस देश के हैं, किस देश के संस्कारों से बने हैं और जिस देश के संस्कारों से बने हैं, वह केवल एक छोटा-सा भौगोलिक क्षेत्र भर नहीं है, बल्कि एक महान् सभ्यता का वारिस है, उसकी एक महान् संस्कृति रही है, जिसमें भारतवासी होने के नाते ही नहीं, बल्कि मनुष्य होने के नाते किसी की भी दिलचस्पी हो सकती है.
इस देश के विकास में दिलचस्पी रखने वाले लोग यह भली भांति जानते हैं कि आजादी के बाद इस देश के आर्थिक निर्माण के लिए जो राष्ट्रीय नीति तय की गई थी, उसे तैयार करने में पं. जवाहरलाल नेहरू की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, हालांकि इस दस्तावेज को तैयार करने में वे अकेले नहीं थे, और भी बहुत-से लोग थे, जिन्होंने इसे तैयार करने में अपना योग दिया. उस नीति में इसी बात पर सबसे अधिक बल दिया गया था कि इस देश को किस तरह आत्म-निर्भर बनाया जाए. इस काम को अंजाम देने के लिए पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से एक ऐसा आधारभूत आर्थिक ढांचा तैयार करने का लक्ष्य सामने रखा गया, जिसके सामने बाकी सारे विकल्प गौण थे. इस राष्ट्रीय नीति में सार्वजनिक क्षेत्र की केन्द्रीय भूमिका मानी गई और बाकी गैर-सरकारी क्षेत्र को सहायक की भूमिका में रखा गया. विकास के इस ढांचे में जमींदारी प्रथा को खत्म करके भूमि संबंधी नये नियम बनाने पर गंभीरता से विचार किया गया, ऐसे नियम जिनमें गांवों का विकास हो, औद्योगीकरण को बढ़ावा मिले और दुनिया के दूसरे विकसित देशों की तरह यहां भी आधुनिकीकरण की प्रक्रिया तेजी से विकसित हो. पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनी यह राष्ट्रीय नीति आजादी के बाद स्वतंत्र भारत की आर्थिक प्रगति का मूल आधार थी.
विदेश नीति के मामले में भी इस नेतृत्व ने गुटों में बंटी दुनिया से अलग अपना एक निरापद रास्ता चुना – यह रास्ता था, गुटनिरपेक्षता की नीति का, जिसमें भारत जैसे और भी कई विकासशील देश थे, जो न सब्जबाग दिखाने वाले पूंजीवादी देशों के साथ जाना चाहते थे, न लड़ाकू समझे जाने वाले समाजवादी देशों के साथ. इस नीति के पीछे भी सबसे बड़ा दबाव उस राष्ट्रीय एकता और सामाजिक संस्कृति का ही रहा, जिसकी पुख्ता नींव धर्मनिरपेक्षता या सेकुलरिज्म की भावना पर आधारित थी, जो सारे विभेदों और बहुलता के बावजूद राष्ट्र की अन्तर्निहित एकता को प्रोत्साहन देती थी.
अपनी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सोच के चलते पंडित नेहरू ने तीन महत्वपूर्ण पुस्तके लिखीं थीं – विश्व इतिहास की झलक, मेरी कहानी और हिन्दुस्तान की कहानी. इन तीन पुस्तकों के अलावा अपनी पुत्री इंदिरा गांधी के नाम जो उन्होंने पत्र लिखे थे, वे भी एक पुस्तक के आकार में सामने आ चुके हैं और इन पत्रों में भी पंडित नेहरू ने इन पुस्तकों के अच्छे-खासे हवाले दिए हैं. ये सभी पुस्तकें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं. पंडित नेहरू से कई सौ साल पहले यूरोप में यही काम महान् चिंतक हॉब्स ने भी करने का प्रयत्न किया था. हॉब्स, लॉक और रूसो दुनिया में लोकतंत्र की विचारधारा पर गंभीरता से विचार करने वाले महान् चिन्तकों में गिने जाते हैं, जिन्होंने यूरोप में सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक चिंतन के एक नये युग का सूत्रपात किया.
हॉब्स ने भी यह प्रतिज्ञा की थी कि वे तीन ऐसी पुस्तकें लिखेंगे, जिनमें एक में विश्व के स्वरूप पर विचार होगा, दूसरी पुस्तक में वे राष्ट्रीय राज्य के स्वरूप पर विचार करेंगे और तीसरी पुस्तक स्वयं उनकी अपनी जीवन कहानी पर आधारित होगी. हॉब्स केवल ‘लिवायथन’ के रूप में मुख्य रूप से राज्य के स्वरूप पर ही विचार कर सके, इस किताब की भूमिका के रूप में उन्होंने अपने जीवन की कहानी भी लिखी लेकिन विश्व की वह इसी पुस्तक में मात्र झलक ही प्रस्तुत कर सके. हॉब्स जो काम नहीं कर सके, पंडित नेहरू ने वही कार्य अपनी कहानी, अपने देश की कहानी और सारे संसार की कहानी के रूप में ही कर दिखाया.
(यह पूरा आलेख यहाँ पढ़ें)
उन्नीसवीं सदी का भारतीय पुनर्जागरण : यथार्थ या मिथकनामवर सिंह
भारत की रचना एक कल्पना की तरह की जा रही थी और काल्पनिक भारत के प्रतिबिंब का निर्माण हमारी आंखों के सामने किया जा रहा था. एडवर्ड सईद ने अपना ओरियंटलिज्म बाद में लिखा, जिसमें उन्होंने पूर्वी रहस्यवाद का जो सावधा नी से निर्माण किया गया था, उसे खुले रूप में पेश किया. ये पौराणिक कथाएं, ये मिथक बिल्कुल निर्दोष हों, ऐसा भी नही है. हमारे शासक, हमारे देश का सुंदर व जादुई चित्र बना रहे थे. परंतु इन सुंदर चित्रों के नीचे शोषण की जमीन तैयार हो रही थी. एक नई मिथकीय कहानियां गढ़ी जा रही थी और इसकी आड़ में वारेन हेस्टिंग्स ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारियों की सहायता से नील के व्यापार पर पकड़ जमा रहा था. इतना ही नहीं बंगाल और बिहार के बाद वह उत्तर को जीतने के लिए आगे बढ़ रहा था. दक्षिण में आक्रमण की तैयारी करके पश्चिमी भाग तथा बंदरगाहों पर कब्जा करने के लिए बंबई और मद्रास से पैदल गया. इस तरह हमें मानसिक रूप से दास बनाया जा रहा था. विडंबना देखिये कि हम लोग इसके बाद भी प्रसन्न थे और यह सोचकर गर्व का अनुभव करते थे कि देखो, हम इतने महान हैं कि हमारी महानता का अध्ययन करके ब्रिटिश लोग हमारी कीर्ति गा रहे हैं.
प्रेमचंद की एक कहानी है-‘मंगनी का सुखसाज’. प्रतिष्ठा का यह भाव भी उधार लिया गया था और इसकी उत्पत्ति ओरियंटलिज्म द्वारा की गई थी. उन्होंने अकेले इसे पैदा नहीं किया था. सबसे निचली श्रेणी थी दासता, जिसमें दास मालिक के लिए काम करता था. पहला काम उन्होंने यह किया कि बनारस में संस्कृत कालेज की स्थापना की. जिसमें उन दिनों प्रिंसिपल ब्रिटिश लोग ही हुआ करते थे. उन्हीं दिनों ग्रिफिन ने ऋगवेद का अंग्रेजी में अनुवाद किया और यह अनुवाद आज भी सबसे अच्छा अनुवाद माना जाता है. इसमें उन्होंने संस्कृत के पंडितों की सहायता ली. इसका प्रयोग वे विधि एवं न्याय में करना चाहते थे. आज कहा जाता है कि ब्रिटिश ने कानून का राज स्थापित करके एक अविस्मरणीय कार्य किया. आखिर कानून का अर्थ क्या है? जहांगीर के दरबार में एक घंटा लगा रहता था. लोग रस्सी खींचते थे तो घंटा बज उठता था. इसके बाद बादशाह खुद आकर शिकायत सुनता था. इस प्रकार बादशाह के पास न्यायिक शक्ति भी थी. वास्तविक शक्ति राजा के पास नहीं होती थी. राजा तो मुकुट धारण करके राजनीतिक शक्तियों का लाभ उठाता था. सेना का संचालन वह कर सकता था, लेकिन नियम के सम्मान में और धर्मशास्त्र के अनुसार न्याय राज-पुरोहित करता था.
याद करिये, जब शकुंतला आयी और उसे पहचानने की बात जब अधूरी रह गई, तो पंडितों की एक सभा हुई और वहां यह विचार किया गया कि क्या न्यायसंगत क्या है ? न्याय की शक्ति राजा के हाथ में नहीं होती थी, मगर वह धर्मशास्त्र और न्यायसंहिता की मदद से निर्णय लेता था. वह अपना निर्णय स्वयं नहीं कर सकता था. ऐसे मामलों में तो उसका न्याय स्वीकार नहीं किया जाता था. पंरतु मुगल काल में स्थितियां बदल चुकी थी. जरूरत पड़ने पर राजा, पंडित को बुलाता था. यह माना जाता है कि अंग्रेजों ने समानता के आधार पर कानून बनाए. कानून की नजर हर व्यक्ति समान है, चाहे उसका संबंध किसी जाति, धर्म या लिंग से हो. आज के इतिहासकार गर्व से लिखते हैं कि 19वीं शताब्दी में पहली बार आदमी को समानता का अधिकार मिला. चाहे संपत्ति विवाद हो, हत्या या कोई अन्य अपराध, न्याय आईपीसी यानी भारतीय दंड सहिता के अनुसार होता था. जो आज भी उसी रूप में विद्यमान और उसमें आजादी के बाद भी कोई खास परिवर्तन नहीं आया है. यह सब अंग्रेजों की देन है.
इस प्रक्रिया में हम यह भूल गए कि पहले पंडित और मौलवी मुकद्दमा सुनने के लिए हाजिर होते थे और एक पंच चुनते थे. यह सिद्ध करने के लिए कि वे न्याय धर्मशास्त्र और हदीस के अनुसार कर रहे हैं. ब्रिटिश लोगों ने भारतीय परंपरा को पुनर्जीवित किया. उपनिवेशवादियों ने जो कुछ किया, उसकी परंपरा हमारे यहां पहले से मौजूद थी. हमारे लोग जो न्याय और दंड देने के मामले में कुशल थे. वारेन हेस्टिंग्स के समय में इसी लिए कानून बनाने के मामले में पंडितों और मौलवियों की सहायता ली गई. अंग्रेजों ने उनकी सहायता ज्यादा ली. आज जो‘पद्म पुरस्कार’ दिये जाते हैं, वह पुरानी परंपरा के अनुसार ही है. उन दिनों भी ऐसे ही पुरस्कार दिये जाते थे, बस उनके नाम अलग-अलग हैं. संस्कृत के पंडित और हिंदी के विद्वान‘महामहोपाध्याय’ के नाम से सम्मानित किये जाते थे. ‘शम्स-उल-उलेमा’ का बहुत गहरा अर्थ है. शम्स का मतलब होता है सूर्य और उलेमा का अर्थ होता है विद्वान. इस प्रकार शम्स-उल-उलमा का अर्थ होता है ‘विद्वानों के बीच सूर्य’ है.
कुछ मिथक मदरसों और संस्कृत कालेजों में भी बने. संस्कृत कालेजों की स्थापना तीन महाप्रांतों में हुई-कलकत्ता, बंबई और मद्रास. बाद में बनारस में भी संस्कृत कालेज स्थापित किया गया. पौराणिक कथाओं को बनाने वाले एशियाईयों ने शिक्षा की एक नई शाखा शुरू की, जिसे ‘ओरियंटलिज्म’ या ‘ओरियंटल लर्निंग’ के नाम से जाना गया. यह उस ‘ओरियंटलिज्म’ के विरुद्ध था, जिस ‘ओरियंटलिज्म’ को लेकर एडवर्ड सईद ने लिखा है. तत्कालीन संस्कृत कालेजों में अंग्रेजों ने ऐसे मिथक इसलिए गढ़े गए, ताकि सैनिक विजय को स्थायी विजय में बदला जा सके.
असल में ओरियंट शब्द इतना प्रचलित हुआ कि कुछ संस्थाओं के नाम ही ओरियंट के नाम से रखा गया. मसलन ‘स्कूल ऑफ ओरियंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज’ (SOAS). इंडोलाजी औरओरियंटलिज्म शब्द 19वीं शताब्दी की कल्पना है. यद्यपि ऑक्सीडेंटल, ओरियंटल शब्द का विलोम है, फिर भी यह नहीं सुना गया न उपयोग किया गया. हममें से कोई ऑक्सीडेंटल कालेज से नहीं आया है. लेकिन कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के एशियाई विभाग में हिंदी और संस्कृत पढाई जाती है. लंदन यूनिवर्सिटी में ‘स्कूल ऑफ ओरियंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज’ (SOAS) है, जिसमें उन्होंने अफ्रीका को ओरियंट से दूर रखा हुआ है. ओरियंट में एशिया और केवल भारत ही शामिल है. उपनिवेशी शासकों ने भारत को तो अपना उपनिवेश बनाया, मगर वे चीन को अपना उपनिवेश नहीं बना सके. वस्तुतः अफीम युद्ध के दौरान वे व्यापार में आए, इसलिए चीन को अपना उपनिवेश नहीं बना सके. सिनो-जापान युद्ध के बाद 1935 के आसपास चीन केवल कुछ ही समय के लिए जापान का उपनिवेश बना था. ओरियंटल, ओरियंटलिज्म और ओरियंट शब्द इतने विख्यात हुए कि इनके नाम पर दुकान, बैंक, पत्रिका और प्रकाशन गृहों तक के नाम रखे गए. अंग्रेजी में ओरियंट इतना प्रसिद्ध हुआ कि आज भी हमारे देश के विभागों और अकादमिक प्रशिक्षण कालेजों में ओरियेंटेशन प्रोग्राम करवाया जाता है. ओरियंट और ओरियंटलिस्ट के द्वारा अंग्रेजों ने प्रस्ताव रखने की कोशिश की, कि हमारे आगमन के साथ ही यहां नये युग का आरंभ हुआ.
उन्होंने बंगाल के स्वर्ण युग को खोजा. वास्तविकता यह है कि भारत को ‘सोने की चिड़िया’कहा जाता था और अंग्रेज यहां सोने की चिड़िया पकड़ने आए थे. यह उनके आवश्यक था कि वे इस सोने की चिड़िया को अपने अधिकार में रखें. हम यह सुनकर खुश होते रहे कि हम सोने की चिड़िया हैं. जबकि यह सुंदर चिड़िया इस बात से अनजान थी कि धीरे-धीरे उसका गला रेता जाएगा. यह इसलिए कहा गया क्योंकि भारत का अतीत सुनहरा है. यह स्वर्ण युग कौन-सा युग था? इतिहास की किताबें हमें बताती हैं कि यह गुप्त काल था, लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि गुप्त काल ही क्यों स्वर्ण काल था, अशोक का काल क्यों नहीं? गुप्त काल सुधारों का काल था. दूसरी ओर अशोक ने धर्म का राज्य स्थापित किया, जो भारत से लेकर अफगानिस्तान, श्रीलंका तक छाया हुआ था. अशोक का राज्य पहला भारतीय साम्राज्य था. गुप्त मध्यदेश से बाहर कभी नहीं जा सके. अशोक का साम्राज्य चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य से बड़ा था, लेकिन गुप्त काल को ही स्वर्ण काल कहा गया. क्योंकि इस काल में हिंदुओं का उत्थान हुआ. यह बौद्ध और जैन के विरुद्ध ब्राह्मणों का उद्धारक था. यह बहुत कुछ उसी के अनुरूप है, जैसे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के ‘साम्राज्यों का युग’ में गुप्त वंश के युग को भारत के इतिहास में श्रेष्ठ बताया गया है.
अंग्रेजों ने अतीतकालीन भारत पर इसलिए लिखा कि वे ऐसा करके यह सिद्ध करना चाहते थे कि हमारे इतिहास का स्वर्ण युग विक्टोरिया काल था. हममें से बहुत लोगों ने औपनिवेशिक युग के सोने और चांदी के सिक्के देखे होंगे, जिसमें रानी विक्टोरिया और जार्ज पंचम का एक राजा और रानी के रूप में चित्र अंकित है. इसका यह अभिप्राय है कि दोनों युनाइटेड किंगडम के राजा-रानी थे, लेकिन वे भारत के सम्राट और सम्राज्ञी थे. मुझे 1935 में जार्ज पंचम का वह चित्र याद है, जिसमें में वे सिंहासन पर बैठे हैं. उन दिनों हमलोग स्कूल में एक गीत गाते थे-‘चिरंजीवी राजा-रानी हमारे’. हमलोगों को राजा और रानी अंकित सिक्का दिया गया और यह महसूस कराया गया कि भारत में स्वर्ण युग इन्हीं के कारण आया. इस प्रकार 19वीं शताब्दी नया स्वर्ण युग था या हमलोग जिसे रेनेसां के नाम से जानते हैं ?
स्पष्ट हो गया होगा कि रेनेसां चारों तरफ चेतना प्राप्ति के केंद्र रहा है. लेकिन प्रश्न है कि इस चेतना प्राप्ति का साधक या प्रतिनिधि कौन था? क्या यह ब्रिटिश सम्राट या ब्रिटिश राजा-रानी थे? इतिहास का प्रतिनिधि कौन था? मैंने संक्षेप में जागृति से संबंधित चीजों पर तर्क करने की कोशिश की है और अब आप समझ गये होंगे कि यह परियों की कहानी या काल्पनिक कथा थी. इसलिए मैंने इस रेनेसां को एक कल्पना कहा और यह कल्पना ब्रिटिश शासन काल के विद्वानों द्वारा गढ़ा गया, जिन्हें हम औपनिवेशिक कहते हैं. पहले यह बहुत चर्चित नहीं था, लेकिन आजकल यह बहुत प्रचलित है और हम इस प्रक्रिया में शामिल हैं. यदि हम इसमें शामिल नहीं होते तो यह कभी नहीं होता. हमने अपने आप मान लिया कि यह पुनर्जागरण, चेतना-प्राप्ति तथा जागरण था और 19वीं शताब्दी में हमने पुनः अपने सुनहरे अतीत को पाया. हमें लगा कि हम अपने अतीत को प्राप्त कर रहे थे, लेकिन हमारी स्मरण शक्ति बिल्कुल स्थिर अवस्था में थी और हमारा विवेक एक स्पष्ट दिशा की ओर अग्रसर था. इन सभी को किसने प्रभावित किया? यह तत्कालीन अध्यापकों द्वारा किया गया. इसलिए मैंने कहा पुनर्जागरण एक कल्पना है और यह ओरियंटलिज्म द्वारा रचा गया, जिसमें हम भी शामिल थे. रमेशचंद्र दत्त, बंकिम और कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का ऐतिहासिक लेख इसके एक भाग हैं. ब्रिटिश लोग अकबर के समय को स्वर्ण युग कहें.
कुछ लोग हिंदू पुनर्जागरण पर बात करते हैं. हम यह न भूलें कि उस वक्त बहावी आंदोलन चल रहा था तथा मुसलमानों का स्वर्णिम अतीत के विषय में बिल्कुल अलग विचार थे और वे इसकी रचना फिर से कर रहे थे. इसी असाधारण विषय के महत्व पर कुछ विद्वान लिख चुके हैं. इसको लेकर इकबाल अहमद और एजाज अहमद ने थोड़ा-बहुत लिखा है. तारिक अली ने भी मुस्लिम इतिहास के विषय में लिखा है. उनकी एक किताब ‘जिहाद’ भी आ चुकी है. एडवर्ड सईद ने अपनी किताबों में मुख्य रूप से मिस्र और फिलिस्तीन के बारे में लिखा है. टामस मुनरो ने अपनी किताब में अकबर के बारे में जो लिखा है, उसका शीर्षक है- ‘इंडिया अंडर अकबर’.
उन्हीं दिनों एक नया शब्द गढ़ा गया-हिंदुइज्म. यह शब्द उसी युग की कल्पना है. मैं नहीं समझता कि ‘इज्म’ प्रत्यय द्वारा उन्होंने कुछ चीजों को एक विचारधारात्मक रूप दिया, जो केवल एक धर्म था. धर्म समान विचार नहीं रखता था. जैसाकि ‘रिलीजन’ रखा. लेकिन मैं इसके विस्तार में नहीं जाना चाहता. इसके साथ उन्होंने एक पद ‘हिंदू भारत’ का परिचय दिया. जो साफ तौर पर निर्दोष और हानिरहित प्रतीत होता है. यह ‘हिंदू भारत’ क्या है? वे दो पदों का परिचय देते हैं-‘हिंदू इंडिया’ और ‘हिंदुइज्म’. क्या ‘भारत’ अपने आप में पर्याप्त नहीं था?नयी कल्पना ने इतिहास को तीन बंद डिब्बों में बांट कर रख दिया- ‘हिंदू भारत’, ‘मुस्लिम भारत’ और ‘ईसाई भारत’. यह सभी नाम इतने निर्दोष और हानिरहित नहीं थे. इसी के फलस्वरूप वीर सावरकर ने ‘हिंदुइज्म’ का पक्ष लिया जो उन दिनों बहुत प्रसिद्ध हुआ. हमने सोचा कि हम स्वयं को एक नया नाम दे रहे थे, लेकिन वास्तविक तथ्य यह था कि हमने इसे दूसरों से उधार लिया. यहां यह गौरतलब है कि नाम देना एक खतरनाक प्रक्रिया है.
यदि कोई शासन करना चाहता है, तो उसे नया नाम देना चाहिए. बाईबिल में कहा गया कि ईश्वर ने संसार की रचना की और तब प्रत्येक चीजों को एक नया नाम दिया. सेंट जॉन्स के अनुसार गोस्पेल में कहा गया है- प्रारंभ में शब्द था और शब्द ईश्वर था. इसका क्या अर्थ है?जंगल में असंख्य पेड़ होते हैं, झाड़ियां होती हैं. वे सुरक्षित हैं. आप उन्हें पहचानकर उसे प्रयोग करना सीखते हैं, तो वे आपके अपने हो जाते हैं. आप उन्हें उगा सकते हैं. इसलिए जब लोग पालतू कुत्ता खरीदते हैं, तो उसे नया नाम देते हैं. जब एक बच्चा पैदा होता है, तो उसका नामकरण संस्कार करते हैं. तब तक वे सबके लिए ईश्वर का वरदान होता है. इसलिए हिंदू भारत जैसे एक काल्पनिक पद के द्वारा उन्होंने देश को दो भागों में विभाजित किया. वे यह परिभाषा देते हैं कि हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी धर्मों के लोग हिंदुओं की तरह ही हैं और यह ‘हिंदू भारत’ है. इस आधार पर रेनेसां स्वयं दो भागों में बंटा-हिंदू जागरण और मुस्लिम जागरण.
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‘अंग्रेजी ढंग का नावेल‘ और भारतीय उपन्यास
नामवर सिंह
बंकिमचन्द्र के उपन्यासों के माध्यम से ‘राष्ट्रीय रूपक‘ की परिकल्पना को आसानी से समझा जा सकता है. ‘राजसिंह‘ (1882) के संदर्भ में तो बंकिमचन्द्र ने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है कि ”हिंदुओं का बाहुबल ही मेरा प्रतिपाद्य है”. कारण यह है कि ”अंग्रेज साम्राज्य में हिंदुओं का बाहुबल लुप्त हो गया है.” इसी प्रकार ‘मृणालिनी‘ (1869) में भी उनका स्वदेश प्रेम स्पष्ट रूप में व्यक्त हुआ है. सिर्फ सत्रह घुड़सवारों को लेकर बख्तियार खिलजी ने बंगाल को जीता था, इस कहानी पर बंकिमचन्द्र को बिल्कुल विश्वास न था. वे बंगाली जाति के शौर्य-वीर्य के प्रति इतने आस्थावान थे कि ‘मृणालिनी‘ के द्वारा वे इस जातीय कलंक को दूर करने में प्रवृत्त हो गए. कहने की आवश्यकता नहीं कि बख्तियार खिलजी की बंगाल-विजय भी एक रूपक ही है. इससे अनायास ही अंग्रेजों की बंगाल-विजय व्यंजित है.
बंकिमचन्द्र इस राष्ट्रीय कलंक से इतने उद्वेलित थे कि अपने पहले उपन्यास ‘दुर्गेशनन्दिनी‘ में भी इसका जिक्र करना न भूले. तीसरे ही अध्याय में वे लिखते हैं : ”यह परिच्छेद इतिहास-सम्बन्धी है. पाठकवर्ग बहुत अधीर हों तो इसे छोड़ सकते हैं, किन्तु ग्रंथकार की यह सलाह है कि अधैर्य अच्छा नहीं. पहलेपहल बंगदेश में बख्तियार खिलजी के मुहम्मदीय जयध्वजा फहराने पर मुसलमान बेरोकटोक कई शताब्दी तक उसके राज्य का शासन करते रहे.”
वैसे, ‘दुर्गेशनन्दिनी‘ मुख्यत: ‘रोमांस‘ है जिसके केंद्र में हिंदू राजकुमार जगत सिंह और मुस्लिम और मुस्लिम शाहजादी आयशा की प्रेम कहानी है. यह प्रेम कहानी दु:खान्त है. प्रेम की परिणति विवाह में नहीं होती. फिर भी आयशा का आत्म्बलिदान मन पर अमिट छाप छोड़ जाता है . आयशा के आदर्श प्रेम के सामने राजकुमार का सारा शौर्य-पराक्रम फीका पड़ जाता है. रोमांस में जो एक जीवट या साहस होता है, वह इस प्रेमकथा का अतिरिक्त आकर्षण है. इसमें अद्भुत का भी पुट है और रहस्य की भी सृष्टि है. इन सबको आकर्षक रंग देता है बंगाल के प्राकृतिक परिवेश का आँखों-देखा वास्तव-सा चित्रण. क्या यह सब एक रूपक नहीं है?
राष्ट्रीय रूपक का इससे अच्छा उदाहरण है ‘कपालकुंडला‘, शुद्ध रोमांस. दु:खान्त यह भी है. दुर्गेशनन्दिनी की तरह यहाँ भी नायक की एक पूर्वपत्नी है – अधिक ईर्ष्यान्तु और पतित भी. पृष्ठभूमि है गंगा सागर का वन्य, असाधारण और रोमांचक परिवेश. अन्तिम दृश्य हहराते समुद्र में कपालकुंडला की छलाँग और उसे बचाने के प्रयास में नायक की भी जल-समाधि.
लगता है, गोया कपालकुंडला स्वयं ही वह हहराता सागर है. एक हहराते समुद्र-सी युवती. पुरुष की काम्या! उस ज्वार में निमज्जित होता पुरुष! क्या यह सब कुछ रूपक नहीं प्रतीत होता है?
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(प्रस्तुति अरुण देव )