हिमा कौल
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शिल्पकार हिमा कौल का जीवन कुछ ऐसा था जैसे किसी लेख के फुटनोट में एक किताब का ज़िक्र आए और हम पढ़ना रोक कर उस किताब की छानबीन करने में लग जाएं लेकिन थोड़ी ही देर बाद हमें यह पता चले कि वह किताब अब उपलब्ध नहीं है- कि अब वह केवल संदर्भों और उद्धरणों में दिखाई देती है!
हिमा को शायद ऐसी ही ज़िन्दगी मिली थी जो सफ़हे तक पहुँचने से पहले ही हाशिये पर ख़त्म हो गयी- एक ऐसी ज़िन्दगी जिसका अर्थ अभी पूरी तरह खुला नहीं था; जिसकी सुगंध ने हवा का स्पर्श भर किया था और जिसकी सर्जना डार्क रूम से उठकर केवल बरामदे तक आ पाई थी!
इस कायनात में उसे केवल पचपन साल मिले जिनमें दस बरस एमएनडी (मोटर न्यूरॉन डिजीज) जैसी लाईलाज बीमारी ने छीन लिए.
इसी बित्ते भर की ज़िन्दगी में हिमा ने शिल्प का प्रशिक्षण लिया, अभिव्यक्ति का रास्ता खोजा, उस पर अपनी आवाजाही के निशान लगाए और जनजीवन की प्रचलित संवेदना द्वारा आमफ़हम मान कर छोड़ दिए गए दृश्यों को अपने टेराकोटा, कांस्य और फाइबर ग्लास के शिल्पों में स्थायी आसरा दिया.
यह देखना सुखद है कि इस अल्पचर्चित और नेपथ्य में रह गयी शिल्पकार हिमा कौल की जीवनी ‘अपराजित’ को राजाराम भादू ने श्रद्धांजलि लेख की नियति से बचा लिया है. असल में, हिमा के जीवन की त्रासदी अपने आप में इतनी विदारक है कि सावधानी न बरती जाए तो कोई भी जीवनीकार भावावेग में बह सकता है. इस मामले में भादू जी ने संयम और धैर्य का परिचय दिया है. यह शायद चीज़ों को फ़ासले से देख पाने का हासिल है कि उन्होंने हिमा के जीवन को उनके कलागत सरोकारों, रचनात्मक संवेगों, स्मृतियों और उनके पैतृक परिवार की संरचना में निहित अलगाव, तनावों और जीवन विरोधी प्रवृत्तियों, व्यक्ति की निजता और स्वतंत्रता के विरुद्ध जड़ जमाए और अंधविश्वास की हद तक जाते पूर्वाग्रहों के बीच रखकर देखा है.
यह ठीक ही है क्योंकि किसी भी रचनाकार की कला-यात्रा को उसके वृहत्तर सामाजिक परिवेश से निरपेक्ष होकर नहीं परखा जा सकता. आखिर कोई भी रचनाकार अपने प्रदत्त परिवेश से अंतक्रिया करते हुए ही आत्म-संघर्ष करता है. हां, इसका यह मतलब क़तई नहीं है कि रचनाकार का संसार उसके सामाजिक संसार का स्थूल प्रतिफलन होता है.
ख़ैर, हिमा कौल के शिल्पगत वैशिष्ट्य को रेखांकित करने के लिए जीवनीकार ने समकालीन कला-समीक्षकों और कला-चिंतकों की टिप्पणियों का उपयोग किया है. इस संबंध में इब्राहिम अलकाज़ी, वर्षा दास, वंदना कालरा, राना सिद्दिकी, गोपाल नायडू तथा विश्वनाथ त्रिपाठी आदि की टिप्पणियां हिमा के शिल्पों और उनकी प्रेरणाओं को समझने के आवश्यक संदर्भ प्रदान करती हैं.
मसलन, 2008 में आर्ट हैरिटेज में हिमा कौल के कला-जीवन की सबसे महत्त्वपर्ण प्रदर्शनी के प्रेरणा-स्रोत और आयोजक इब्राहिम अलकाज़ी अपने वक्तव्य में हिमा की कला को ‘निर्धनों की तकलीफों पर केंद्रित’ और ‘अपने अंतःकरण, अपने हृदय के कंपन और अपनी आत्मा के गौरवपूर्ण समर्पण’ की अभिव्यक्ति कहते हैं. अलकाज़ी उनके रचना-संसार और समय को इंगित करते हुए कहते हैं कि हिमा कौल ‘भयानक समय… में पैदा हुई हैं. उन्होंने अपना पूरा रचनात्मक जीवन अपने दिनों की वीभत्सता के गवाह के रूप में जिया है. आप जो अपने सामने देख रहे हैं, वे पीड़ादायक शिल्प हैं, फिर भी ऊष्मा, कोमलता और मानवता से स्पंदित हैं.’
हिमा कौल किसके लिए काम कर रही हैं?… ‘हिमा कौल अपने अंतःकरण, अपने हृदय के कंपन और अपनी आत्मा के गौरवपूर्ण समर्पण के लिए काम करती हैं.’
वर्षा दास ने उक्त प्रदर्शनी में रखे गए हिमा के काष्ठ, कास्यं और फाइबर ग्लास से बनी एक-एक कलाकृति पर विस्तार से लिखा है. वर्षा ख़ास तौर पर काष्ठ के सपाट टुकड़ों को कुरेद-खुरच कर बनायी गए तीन काष्ठ शिल्पों का उल्लेख करती हैं जिसमें एक कृति का शीर्षक ‘दिवास्वप्न‘ है. इसमें एक लड़की तकिए के ऊपर हाथ रखकर लेटी हुई है. उसका सिर अपने हाथ पर टिका हुआ है. वह अधखुली आँखों से जैसे कोई सपना देख रही है. उसके चेहरे पर तनाव है. दूसरी कृति में एक लड़की दोनों हाथों से फोन का रिसीवर पकड़ कर खड़ी है. इस लड़की की आँखें भी अधखुली हैं, होंठ भिंचे हुए हैं, न जाने यह क्या सुन रही है. लेकिन चेहरे पर प्रसन्नता नहीं है.’
तीसरे शिल्प में एक बालिका को गुब्बारे के साथ दर्शाया गया है. वर्षा दास कहती हैं कि इन कृतियों में
‘मनुष्याकृति के निरूपण में पृष्ठभूमि और परिवेश में, ऐसा कुछ भी नहीं जो छूट गया है, जिससे कलाकृति अधूरी लगे… आकृतियों और रिक्त स्थान के संतुलन का ध्यान रखा गया है.’
वर्षा दास ने हिमा के दो अन्य शिल्पों- फाइबर से बने मछुआरों के एक भित्ति-चित्र तथा कांसे से बनी ‘गोधूलि’ का भी उल्लेख किया है. पहली कृति में पानी में खड़े मछुआरे नाव को धकेल रहे हैं. उनके उठे हुए कंधों और झुके हुए सिरों से पता चलता है कि वे बहुत श्रमसाध्य काम कर रहे हैं. ‘गोधूलि’ में एक औरत अपने सिर पर लकड़ियों का गट्ठर रखे आ रही है. वह एक हाथ से लकड़ियों को संभाल रही है और दूसरे से बच्चे को. शिल्प में शायद बच्चे का बड़ा भाई भी है. छोटे बच्चे ने उसका भी हाथ पकड़ रखा है. वर्षा दास इस कृति में संरचना के अनुपात और सौष्ठव की भी प्रशंसी करती हैं. इस क्रम में उन्होंने फाइबर से बने दाढ़ी-मूँछों वाले एक खिलखिलाते वृद्ध का जिक्र भी किया है जो बाक़ी शिल्पों से झरती उदासी और तनाव को संतुलित कर देता है.
गोपाल नायडू हिमा को ‘समाज के विस्थापन, संघर्ष और असंगति, नेटिव स्मृतियों, जीवन-मृत्यु के द्वंद्व और आत्मा को बचाने के संघर्ष, मनुष्य के संताप और पराजित जिजिविषाओं, श्लथ शरीराकारों और चीज़ों की गतिमयता’ का शिल्पकार बताते हैं.
हिमा की इस प्रदर्शनी के प्रसंग में साहित्यालोचक विश्वनाथ त्रिपाठी का अवलोकन विशेष महत्त्व रखता है. सच यह है कि विश्वनाथ जी इन शिल्पों की नाजुक शिराओं और उनमें उदबुद बहते भाव को जिस गहरी संपृक्ति से पकड़ते हैं, वैसा तो अन्य समीक्षक भी नहीं कर पाए हैं. मिसाल के तौर पर, विश्वनाथ त्रिपाठी लिखते हैं:
“हिमा के मूर्ति-बिंबों में अनगढ़ता है, अनगढ़ता गहरी मौलिक संवेदना पैदा करती है. चित्रकूट में सिर पर बोझा रखे स्त्री के साथ दो मूर्तियाँ अंतर्संबद्धता में प्रभाव पैदा करती हैं. अनूठे रूप में ये मानव-आकृतियाँ पशुवत् यानी वन्य लगती हैं. खासतौर पर बच्चों की आकृतियाँ. मानव-शिशु निरीह होते हैं. मानव-शिशु और जानवर-शिशुओं में अंतर लगभग नहीं होता. निरीहता में मानव शिशु को पशु-शिशु में रूपांतरित जैसा करके प्रस्तुत करना मौलिक सर्जक का ही काम है. कलाकार रूप और रूप-संबंधों में अदल-बदल कर मौलिक संवेदन तीव्रता अभिव्यक्त करता है.”
हिमा के एक अन्य शिल्प- ‘मदारी’ की विश्वनाथ जी ने अपूर्व व्याख्या की है :
“आप मदारी देखें. मदारी से बंदर का बच्चा चिपटा नहीं है. थोड़ा अलग खड़ा है. बंदर-बच्चा बंदर का बच्चा है या मदारी का बच्चा है, पता नहीं चलता. मदारी का चेहरा देखिए, वह मदारी है या बड़ा बंदर. मदारी कहीं और देख रहा है. बच्चा उसका कुर्ता पकड़कर उसका ध्यान खींच रहा होगा जैसा कुछ. मदारी की निरीहता देखिए, श्रम की ऐसी निरीहता जो पवित्रता में रूपांतरित हो जाती है.‘’
अपने अवलोकन के आखिर में विश्वनाथ जी जैसे हिमा कौल के कला-मर्म की मुंडेर पर पहुंच जाते हैं. वे कहते हैं कि
“हिमा के यहाँ उल्लास शांत में पर्यवसित हो जाता है. … हिमा की मूर्तिकला गंभीरता और औदात्य की है. इससे कमतर की कोई जगह उनकी कला में है ही नहीं…. कला-अनुभव शायद मानवीय अनुभव का सच्चा रूप है जिसे हिमा की कृति ‘टूटा पहिया’ देखकर अनुभूत कर सकते हैं.”
लेकिन, हिमा की कला-विवेचना के इस प्रसंग में यह बात निराश करती है कि पूरी किताब में यही खंड सबसे छोटा है. दूसरे, जीवनीकार ने कला-समीक्षा के तत्कालीन जगत से निस्संदेह सार्थक टिप्पणियों का चयन किया है, लेकिन यहाँ उनका अपना अवलोकन लगभग न के बराबर है.
इसके बावजूद, यह अलग से कहा जाना चाहिए कि बतौर जीवनीकार राजाराम भादू ने इस किताब में हिमा के निजी जीवन के ब्योरों की प्रस्तुति में गहरी रचनात्मक संलग्नता का परिचय दिया है. यहाँ हिमा के कश्मीर से दिल्ली आने, नौकरी, कला के प्रशिक्षण, प्रदर्शिनियों की तैयारी, वर्किंग वीमेंस हॉस्टल में उनके अनुभव और घुमक्कड़ी के प्रसंगों को विरल तन्मयता से रचा है. भादू जी के शब्दों में यहाँ जैसे कोई रोशनी गुंथी है जिससे हिमा के व्यक्तित्व की बाहरी तहों को देखना आसान हो जाता है. जीवनी में हिमा कौल की डायरी के अंशों का बड़ा कल्पनाशील उपयोग किया है. इससे निश्चय ही उसकी प्रामाणिकता में इज़ाफ़ा हुआ है. सच तो शायद यह है कि डायरी के अंशों के बग़ैर हिमा की जीवनी कब-क्या-कहाँ जैसी कोई फ़ेहरिस्त या एक्सेल शीट बनकर रह जाती. इनके बिना हमें कभी पता नहीं चल पाता कि जीवन की किन परिस्थितियों, आवेगों, दृश्यों, प्रेरणाओं और तकलीफ़ों ने इस शिल्पकार के अंतर्मन को गढ़ा था. इसके बग़ैर हम कभी उसके निम्न-मध्यवर्गीय संसार के बारे में नहीं जान पाते जो यहाँ अपने समस्त विद्रूप, नियंत्रण और कलह के साथ नमूदार होता है और जिसमें हिमा के आज़ाद व्यक्तित्व को ही उसकी बीमारी का कारण समझता है. मसलन, एक जगह बीमारी के कारण शारीरिक तौर पर लगभग लाचार हो चुकी हिमा की स्थिति को देखकर उसकी मां कहती है कि वह मूर्ति बनाया करती थी और अब खुद मूर्ति बन कर रह गयी है.
यहाँ से पता चलता है कि परिवार के विस्थापन और मां के आत्मकेंद्रित, अंधविश्वासी व स्वार्थी मानस का अतिक्रमण करके हिमा का वह निस्पृह व्यक्तित्व कैसे बना होगा जो न सुख में अपने से बाहर छलकता है, न दुख में अधीर होता है. इसी से यह भी उजागर होता है कि हिमा ने अपनी संवेदना से जो देखा, सुना और महसूस किया था वह उनके शिल्पों में कहां-कहां पुनर्विन्यस्त हुआ है.
अगर हिमा कौल की डायरी में दर्ज अनुभवों का एक संक्षिप्त कोलाज बनाया जाए तो हमारे सामने एक ऐसा नज़र उभरती है जो श्रीनगर की लाइब्रेरी में शीशे की दीवारों के पार जगह-जगह जलते हुए पत्तों के ढेर देख रही है; यह नज़र सड़क पर दूर जाती उस लड़की को देख रही है जिसकी पीठ पर लंबे बालों की गुंथी हुई गुत लटक रही है… और यह नज़र भीतर मुड़कर अपने मन से कह सकती है कि ‘इस लड़की का चित्र बनाया जा सकता है- एक ऐसा चित्र जिसमें कोई चेहरा नहीं बनाना है. सिर्फ सिर के बालों का आकार, गर्दन और ये मोती सी लटकती गुत’ ; यह नज़र दिल्ली के वर्किंग वीमेंस हॉस्टल में उस लड़की को लख लेती है जो अब बस विवाह कर लेना चाहती है और जो जीवन के इस पड़ाव के लिए पहले से ही इतनी अनुकूलित हो चुकी है कि विवाह के तीन प्रस्ताव भेजने के बाद उसका ‘सोचना एक सामान्य पारिवारिक लड़की जैसा हो गया है’. वह विवाह की कल्पना मात्र से ख़ुद को इस क़दर बदलने में लग गयी है कि अपने लिए सौंदर्य-प्रसाधन भी ले आई है ‘ताकि त्वचा में कहीं भी खुरदरापन न रहे’;
यह नज़र एक और लड़की पर जाती है जो ब्यूटी प्रोडक्ट्स के बाज़ार में कोई काम ढूंढ रही है. अभी तक उसे कोई काम नहीं मिला है. वह सप्ताह में कई-कई दिन बाहर रहती है. हिमा के पूछने पर कि ‘क्या कर रही हो’ कोई ढुलमुल-सी बात कह देती है. यह लड़की जब भी वापस हॉस्टल लौटती है तो उसके चेहरे पर झिझक-सी रहती है. और हिमा की नज़र यह दर्ज करती है कि ‘एक नहीं कई ऐसी जिंदगियां ऐसी हैं जो पूछने पर स्वयं को कटघरे में खड़ी पाती’ हैं.
हिमा की यह नज़र दूसरों को ही नहीं ख़ुद को भी देखती है:
चारपाई पर टांगे फैलाते ही… एक कश सिगरेट लेने की इच्छा हुई… साथ ही भगवद्गीता का नित्य स्मरण करने की भी. वास्तव में दोनों का संबंध मेरे अतीत के साथ था. आज स्वतंत्र पक्षी की भांति मैं यहाँ हिसाब लगा रही है. कितना परतंत्र किया एक नौकरी ने. फिर भी वह अनिवार्य जो है.
हिमा उस विद्रूप से नज़र नहीं फेरती जिसे देखकर मध्यवर्गीय होता मानस जुगुप्सा से भर जाता है. यह मालगाड़ी में मवेशियों के बीच सो रहे एक आदमी का दृश्य है. इस आदमी का मुंह खुला हुआ है. आसपास खड़ी और चारा खा रही भैसों के मुंह से एक चिपचिपी-सी लार इस आदमी के मुंह में गिर रही है. लेकिन, वह इस सबसे बेखबर सो रहा है.
हिमा की नज़र दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान के रेस्तरां में दूर बैठी एक उदास लड़की को गौर से देखती है. लड़की के हाथ में चाय का प्याला है जो उसके मुँह के पास ठहरा हुआ है. उसकी आंखों में इंतज़ार की बेचैनी है. जीवनी के विवरण से पता चलता है कि हिमा ने इस क्षण को अपनी एक कृति में ‘ठहरा’ लिया था. यह क्षण उनकी पहली एकल प्रदर्शनी में प्रदर्शित हुआ था.
आखिर में, डायरी में दर्ज हिमा का जीवन शायद उनकी नानी के एक प्रसंग के बग़ैर अधूरा रह जाएगा. हिमा की नानी बाल-विधवा है. केवल बासी चावल खाती है. कई दिनों तक कुछ नहीं पकाती. दिन भर सोती है और रात को चूहों से लड़ती रहती है. घर की दरारों और खाईयों को पत्थरों और मिट्टी से भरती रहती है. वह पूरी गर्मियों में राजमाश आदि के दानों को सुखाकर उनका भंडारण करती रहती है ताकि सर्दियों में जिस लड़की के पास ठहरने का कार्यक्रम बने उसे यह सामग्री सौंपी जा सके. हिमा के इस अवलोकन यह बात फिर पुख्ता होती है कि हिमा के पास एक ऐसी अविचल दृष्टि थी जो अपने सामने घटित हो रहे दृश्य के अप्रस्तुत पार्श्व को पकड़ती थी.! इसलिए, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि हिमा की डायरी में दर्ज ऐसे अनुभव समय-समय पर उनके शिल्पों में अपना कलात्मक रूपाकार खोजते रहते थे. जैसा कि हिमा के मित्र और कथाकार अशोक अग्रवाल उनकी यात्राओं के संबंध में अपनी एक टिप्पणी में कहते हैं, ‘हिमा के शिल्पों का एक बडा संसार… यात्राओं का सृजनात्मक रूपांतरण है. उसके अनेक कांस्य, काष्ठ और टेराकोटा के शिल्प तथा भित्तिचित्रों में उकेरी गयी छवियों में इन यात्राओं की आहटों को बखूबी सुना जा सकता है.‘
राजाराम भादू ने हिमा कौल के आखि़री दस सालों की पीड़ा का एक भावाकुल वृत्तांत लिखा है. सच तो यह है कि हिमा एक हारी हुई लड़ाई लड़ रही थी. इस बीमारी का कोई ईलाज नहीं था. लेकिन, इसे जीवनी की एक उपलब्धि के रूप में देखा जाना चाहिए कि इससे गुज़रने के बाद हमारी स्मृति में एक अशक्त या कृशकाय देह नहीं बल्कि एक उजला और अपने आसपास की दुनिया के लिए अपार स्नेह से भरा व्यक्तित्व रह जाता है. इस संबंध में किताब के परिशिष्ट ‘गाशा-गाथा’ को ख़ास तौर पर पढ़ा जाना चाहिए- गाशा हिमा कौल की बहन का बेटा है जिसे परिवार और बाहरी समाज मंदबुद्धि मानता है. गाशा सबके लिए समस्या है, लेकिन हिमा के लिए बेशर्त और असीम प्यार का पात्र है. गाशा अपनी मां, दादी, अध्यापक-अध्यापिकाओं- सबको देखकर चिड़चिड़ा जाता है, उनके अपमानजनक व्यवहार से कई दफ़ा रो भी पड़ता है, लेकिन यही बालक हिमा की उपस्थिति में ख़ुश रहता है. एक बार वह हिमा के बैग से पेंसिल चुरा रहा होता है, वह हिमा को आते देखकर सकपका जाता है लेकिन हिमा इसे चोरी नहीं उस बच्चे की सक्रियता के रूप में देखती है. हिमा जब कहीं बाहर चली जाती है तो लौटने पर उसकी देखभाल के लिए नियुक्त किए गए लोग बताते हैं कि इस दौरान गाशा अनमना रहा, नाख़ुश रहा. हिमा के लौटने पर वही बच्चा खिलखिलाने लगता है.
कहना न होगा कि हिमा केवल मिट्टी, कांसे या फाइबर ग्लास की ही शिल्पकार नहीं थी. वह मनुष्य के अभ्यंतर में फैले अनगढ़-अबूझ शिल्प को पढ़ना भी जानती थी. इस मायने में वह शायद मानवीय चेतना की एक विरल प्रतिनिधि थी जिसके लिए गाशा जैसे बच्चे और बाहर की बालिग़ दुनिया के बीच कोई अंतर नहीं था- शायद वह जानती थी कि सारी भिन्नताएं और विभाजन केवल बाहर स्थित हैं.
आखिर में, इस किताब की योजना, तैयारी, आकल्पन और प्रकाशन से जुड़े सभी लोग बधाई के पात्र हैं. दरअसल, यह एक ऐसे व्यक्तित्व के जीवन को सार्वजनिक स्मृति में पुनर्स्थापित करने का ज़रूरी काम था जो कुछ घनिष्ठ मित्रों और संबंधियों को छोड़कर शेष दुनिया के लिए लगभग अनस्तित्व होने लगा था. जैसा कि हमने इस टिप्पणी की शुरुआत में कहा था, इस अर्थ में यह किताब हिमा कौल को उद्धरणों और द्वितीयक संदर्भों से बरामद करके उन्हें न केवल स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रदान करती है बल्कि उन्हें वह ‘एजेंसी’ भी लौटाती है जो इन वर्षों में उनसे छूट गयी थी.
यह किताब यहाँ से प्राप्त करें.
नरेश गोस्वामी समाज विज्ञानी और हिंदी के कथाकार ‘स्मृति-शेष: स्मरण का समाज विज्ञान’ पुस्तक और अनुवाद आदि प्रकाशित. वर्षों तक प्रतिमान का संपादन. सम्प्रति: डॉ. बी.आर. अंबेडकर युनिवर्सिटी के देशिक अभिलेख-अनुसंधान केंद्र में अकादमिक फ़ेलो. naresh.goswami@gmail.com |
जिन मित्रों ने हिमा को क़रीब से देखा है और जिन्हें पिछले कई वर्षों से उसकी कोई खबर नहीं रही, मैं हिमा के उन मित्रों में से हूँ।
मुझे बिल्कुल नहीं मालूम उसके साथ क्या हुआ … अन्त में । उफ़्फ़… पढ़कर स्तब्ध रह गयी हूँ और उदासी घेरने लगी है मुझे।
बहुत वर्ष तक हिमा से मंडी हाउस में मिलना होता रहा। लंच कई बार हम लोग साथ साथ करते। उसके पास एक टिफ़िन भी हुआ करता था।
फिर वह अपने स्टूडियो में मुझे/हमें?? ले जाती और उसके चल रहे और मुकम्मल हो चुके उत्कृष्ट काम को देख मैं चकित रह जाती।
एक मित्र थे उनके उन दिनों जो मेरे अज़ीज़ हैं। मैंने भी कभी उनसे हिमा के बारे में नहीं पूछा। बस संकोचवश… हालांकि हिमा की याद मुझे आती रहती है। उसकी कला से मेरा साक्षात्कार हाल के वर्षों में नहीं हुआ लेकिन उसकी कृतियों को एक बार एक साथ देख सकूँ तो मुझे सुकून मिलेगा।
किताब तो मंगवाती ही हूँ।
राजाराम भादू के लेखन की काइल तो मैं पहले से ही हूँ। और नरेश गोस्वामी का लिखा भी मुझे हमेशा से प्रेरित करता आया है। मुलाकात दोनोँ से होना अभी बाकी है।
बढ़िया आलेख। किताब और हिमा तक बड़ी शिद्दत से ले जाता हुआ