कथाकहन विज्ञान
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शेक्सपियर ने लिखा है कि ‘द प्लेज द थिंग’ यानी कि नाटक ही वह असल चीज है जो सच्चाई को सामने लाएगा. शेक्सपियर के नाटक हैमलेट का यह एक प्रसिद्ध वाक्यांश है. हैमलेट को संदेह होता है कि उसके पिता की हत्या उसके चाचा क्लाडियस ने की है, किन्तु उसके पास इसका कोई ठोस आधार नहीं है. तब वह एक नाटक का आयोजन करता है जिसमें उसके पिता की हत्या के समान घटना को दिखाया जाएगा. उसका मानना है कि अगर वास्तव में क्लाडियस दोषी है तो वह इस नाटक को देखकर घबरा जाएगा और अपने अपराध को महसूस करेगा. इसलिए यहाँ द प्लेज द थिंग का अर्थ हुआ कि नाटक ही वह असल चीज है जिससे क्लाडियस का अपराधबोध प्रकट हो सकेगा.
इसी तरह नैरेटिव के सिद्धांतकारों का यह मानना है कि नैरेटिव हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया है. किताबों में, फिल्मों में, संगीत में, हम जिसमें भी होते हैं उस समय हम पूरी तरह से नैरेटिव में होते हैं. और हम बिना नैरेटिव के इनके ठोस अर्थ को नहीं पा सकते. यहाँ हम नैरेटोलाजी के विवेचन में साहित्य तक और उसमें भी कथा-कहानी तक सीमित रहेंगे.
परम्परागत रूप से साहित्यिक विधाओं को तीन भागों में विभाजित किया जाता है : कविता, नाटक और कथा. कथा में उपन्यास और कहानी आते हैं. साहित्यिक विधाओं में नैरेटोलाजी का संबंध मुख्य रूप से कथा से यानी कि उपन्यास और कहानी से है.
नैरेटोलाजी शब्द का हिन्दी अनुवाद है कथाकहन विज्ञान. हमारे सामने पहला सवाल यही है कि कथाकहन विज्ञान क्या है? इस प्रश्न के बहुत से विविधतापूर्ण उत्तर हैं. और इसे जानने के लिए हमें कथाकहन विज्ञान के इतिहास में जाना पड़ेगा.
अरस्तू को कथाकहन का पहला सिद्धांतकार कहा गया है. उन्होंने कथानक की घटनाओं को, कथानक के किरदारों से ज्यादा महत्व दिया. उनके समय में नाटक और महाकाव्य प्रमुख साहित्यिक विधाएं थी. इसके बाद जब उपन्यास प्रमुख साहित्यिक विधा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ तब ई एम फोस्टर ने उपन्यास के संदर्भ में कथाकहन का विश्लेषण प्रस्तुत किया और कथा एवं कथानक में उदाहरण सहित अन्तर प्रतिपादित किया. कथाकहन सिद्धांत के विकास में हेनरी जेम्स और पर्सी लुब्बक ने भी योगदान दिया है. उन्होंने दिखाने और कहने में अन्तर करते हुए कहने के बजाय दिखाने को वरीयता दी है.
कथाकहन विज्ञान में तोदोरोव और रोनाल्ड बार्थ के बाद प्रमुखतम सिद्धांतकारों में फ्रेंच स्टेनजेल, गेरार्ड जेनेट,सेमूर चेटमैन, माइक बाल और राइमन- केनन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है. इन्हें शास्त्रीय सिद्धांतकार कहा गया है. उत्तर शास्त्रीय अथवा उत्तर आधुनिक सिद्धांतकारों में एंड्र्यू गिब्सन, मार्क करी और पेट्रिक ओ’ नील के नाम प्रमुख है.
कथाकहन विज्ञान की कुछ प्रमुख शब्दावली
सबसे पहले हम कथाकहन विज्ञान में प्रयुक्त होने वाले कुछ शब्दावली पर विचार करेंगे :
नैरेटोलाजी – कथाकहन विज्ञान
नैरेटिव – कथाकहन
स्टोरी – कथा
नैरेटर – कथावाचक
डिसकोर्स – कहन
ओवर्ट – प्रकट
कवर्ट – प्रच्छन्न
होमोडाइजेटिक – समरूपी
हेटरोडाइजेटिक – विषमरूपी
फोकेलाइजेशन – दृष्टिकरण
फोकेलाइजर – दृष्टिकारक
रिफ्लेक्टर – परावर्तक
औथोरियल – लेखकीय
फिगरल – अलंकृत
जैसा कि पहले यह कहा जा चुका है कि कथाकहन विज्ञान के उद्गम की जड़ें प्लेटो और अरस्तू तक जाती हैं. उन्होंने अनुकरण (माइमेसिस) और कथात्मक (डाइजेसिस) में भेद किया है. उन्होंने कथात्मक रचनाओं में महाकाव्य, उपन्यास और कहानी, जबकि अनुकरण विधा में नाटक को शामिल किया है. यद्यपि कथाकहन विज्ञान की बातों को इन रचनाकारों की काव्यशास्त्रीय विवेचना में पाया जा सकता है. किन्तु इसका सबसे अधिक तात्कालिक स्रोत रूसी रूपवादी और संरचनावादी विचारों में निहित है.
नैरेटोलाजी शब्द का पहली बार प्रयोग फ्रांसीसी लेखक ज्वेतन तोदोरोव ने 1969 में किया. उन्होंने बायोलॉजी, सोशियोलॉजी की तर्ज पर नैरेटोलाजी यानी कि कथाकहन विज्ञान का प्रयोग किया. इसे कथाकहन का विज्ञान (साइंस आफ नैरेटिव )कहा. तोदोरोव तब संरचनावाद के उत्कर्षकाल में एक ऐसी नियमावली बनाने पर विचार कर रहे थे जिसमें सभी प्रकार के कथाकहन को वर्गीकृत किया जा सके. यहाँ हम कथाकहन विज्ञान को संरचनावाद की एक उपविधा कह सकते हैं. उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि उनका इस क्षेत्र में यह कार्य अभी उड़ान भरने की तैयारी की अवस्था में है, उड़ान भरना अभी बाकी है.
उन्होंने रोनाल्ड बार्थ के विचारों को आगे बढ़ाते हुए कथाकहन के विज्ञान की आधारशिला रखी. बार्थ ने 1966 में अपने एक लेख में कथाकहन को सर्वव्यापी बताया था कि यह मिथकों, किंवदंतियों, कहानियों, इतिहास, नाटकों, समाचारों, वार्तालाप सभी में उपस्थित है. यह हर युग में, हर स्थान पर और हर समाज में असीम रूपों में उपस्थित है.
कथाकहन विज्ञान को कथाकहन सिद्धांत भी कहते हैं जो कथाकहन को एक रचना पद्धति के रूप में अध्ययन करता है. इसकी औपचारिक विशेषताओं की विवेचना और व्याख्या करता है. इस दृष्टि से कथाकहन विज्ञान कथाकहन के तर्क, सिद्धांत और व्यवहार को उजागर करता है.
कई सिद्धांतकारों का यह कहना है कि कथाकहन विज्ञान किसी कथा की व्याख्या अथवा उसके निरूपण से संबंधित नहीं है. बल्कि यह तो कथात्मक संरचना और उसकी मूल विशेषताओं की पहचान करता है जिससे यह निर्धारित होता है कि कथा क्या है और यह अन्य विधाओं से कैसे भिन्न है. साथ ही यह भी कि विभिन्न कथाओं में कथात्मक संरचना की दृष्टि से क्या भिन्नता होती है.
किन्तु कुछ सिद्धांतकार इससे सहमत नहीं हैं. उनका कहना है कि कथाकहन विज्ञान कथाकहन संसार से यानी कि कथावस्तु से और कथात्मक संरचना या कथात्मक रूप से दोनों से जुड़ा हुआ है. कथावस्तु और कथात्मक प्रस्तुति दोनों की परस्पर सम्बद्धता को खोजना पड़ता है. और सिर्फ कथावस्तु पर ध्यान देकर और कथा के कथाकहन पहलू की उपेक्षा कर कथा को भलीभांति नहीं समझा जा सकता है. यही नहीं, साहित्यिक कथाकहन उसके पाठ तक सीमित नहीं है. इसे संदर्भ में देखना पड़ता है. और संदर्भ सदैव विचारधारा से जुड़ा हुआ होता है. इससे रचयिता की विश्वदृष्टि का पता चलता है. उसकी मनुष्य के प्रति, बराबरी के प्रति, जेंडर के प्रति धारणा रेखांकित होती है.
कथाकहन हमारे अनुभव को रूपायित करता है और साहित्य और वृहत्तर विश्व को अर्थपूर्ण बनाता है.
कथाकहन सिद्धांत से यह समझा जा सकता है कि कोई कथा अथवा रचना कैसे कार्यशील है. रचनाकार ने जिस ढंग से कथा को रखा है उसके बारे में हम विचार करने में लगते हैं. क्योंकि किसी कथा को एक से अधिक तरीके से कही जा सकती है. इससे हम कथा के प्रभाव को महसूस कर सकते हैं. और इस आधार पर अपनी राय बना सकते हैं, उसकी विवेचना-व्याख्या कर सकते हैं.
शास्त्रीय और उत्तर- शास्त्रीय कथाकहन विज्ञान
कथाकहन विज्ञान के अध्ययन को मुख्य रूप से दो चरणों में विभाजित किया जाता है :
शास्त्रीय चरण और उत्तर-शास्त्रीय चरण
शास्त्रीय चरण की अवधि 1960 के मध्य से 1980 के प्रारंभ तक की है. इस चरण में कथाकहन के उन तत्वों की पहचान करने और उन्हें परिभाषित करने में रुचि प्रदर्शित होती है जो सभी कथाओं में सामान्य होते हैं.
कथाकहन विज्ञान के अध्ययन का उत्तर शास्त्रीय चरण में कथाकहन विज्ञान में अन्तरानुशासन विधि को अपनाया गया. इसमें स्त्रीवादी कथाकहन, संज्ञानात्मक कथाकहन, उत्तर आधुनिक कथाकहन को जगह मिली. इस तरह से कथाकहन विज्ञान की अवधारणा को दो दृष्टिकोण से देखा जा सकता है. पहला है रूपवादी-संरचनावादी विधा के रूप में, और दूसरा है अन्तर-अनुशासन कथाकहन विधा के रूप में.
कथाकहन (नैरेटिव) का अर्थ
कथाकहन को समझने में सबसे पहले कथाकहन और कथा में अन्तर को जानना जरूरी है. कथा में घटनाओं की श्रृंखला, किरदार और जगह होते हैं. इन्हें विभिन्न तरीकों से संयोजित किया जा सकता है. यहाँ से कथाकहन की शुरुआत होती है कि कथा सामग्री को कैसे बुना जाता है, उसे संरचित किया जाता है, उसे किस तरह के आकार में ढाला जाता है. कथाकहन कथा सामग्री को संगठित करना और इच्छित प्रकार से उन्हें साथ-साथ रखना है.
किन्तु कथाकहन क्या सिर्फ कथा सामग्री का संगठन भर है? कथाकहन की भी यहाँ रचनात्मकता प्रदर्शित होती है. जब कोई रचनाकार कहानी अथवा उपन्यास लिखता है तो यह उसका चुनाव होता है कि वह इसमें कैसे कथा को कहता है. यह जरूरी नहीं कि सभी कथाकहन में प्रारंभ, मध्यभाग और अन्त, इस प्रारूप का अनुसरण किया जाए.
विचार कीजिए कि एक ही कथा को दो भिन्न लेखक पूरी तरह से भिन्न कथाकहन में प्रस्तुत कर सकते हैं. देवदास पर तीन फिल्में बनी हैं. प्रमथेस बरुआ ने 1936 में, बिमल राय ने 1955 में और संजय लीला भंसाली ने 2002 में. किन्तु वे एक जैसी नहीं हैं. तीनों फिल्मों की कथाकहन में बहुत ही अन्तर है.
अब हम कथाकहन को परिभाषित कर सकते हैं. कथाकहन यानी कि नैरेटिव किन घटकों से बनता है. इसका सरल उत्तर है कि :
(१) सभी कथाकहन में कथा होती है.
(२) सभी कथा में चरित्र या किरदार होते हैं. कथा मौखिक या लिखित रूप में कही जा सकती है. अतः कथा को कहने के लिए कथावाचक होता है.
सारांश में, कथाकहन ( नैरेटिव) का अर्थ है कथा की प्रस्तुति. कथा (स्टोरी) में घटनाओं की श्रृंखला होती है जिसमें चरित्र पाये जाते हैं. और कथावाचक (नैरेटर) कथा को कहता है.
यद्यपि हम कथा में कथावाचक को देख या सुन नहीं सकते, किन्तु कथा में कथावाचक की आवाज होती है. चूंकि कथा में कथावाचन की आवाज होती है, इसलिए हम कथा को कथा – विमर्श भी कह सकते हैं. इससे स्पष्ट है कि कथा का पाठ (टेक्स्ट) कथा – विमर्श भी है. यहाँ दो बातें रेखांकित होती हैं : कथा और विमर्श. कथा में घटनाओं का अनुक्रम आता है, विमर्श में कथाकहन या कथात्मक प्रस्तुति आती है.
कौन बोलता है
अब हमें कथावाचन की आवाज पर ध्यान केंद्रित करना है और यहाँ पूछना है कि कथा विमर्श में कौन बोल रहा है.हम जितना कथावाचक के बारे में जानेंगे, उतना ही हमारी कथा की समझ बढ़ेगी.
कथावाचक की आवाज किन बातों को प्रस्तुत करती है : विषय सामग्री को, दुखान्त और सुखान्त विषयों के लिए सहज और सभ्य आवाज.विषयनिष्ठ अभिव्यक्ति: कथावाचक की अभिव्यक्ति से उसकी शिक्षा, विश्वास, विचारधारा, रुचि, मूल्य, भावना तथा लोगों, घटनाओं व वस्तुओं के प्रति उसकी मनोवृत्ति का संकेत मिलता है. व्यवहारमूलक संकेत : कथावाचक प्रेषक के रूप में अपने प्रापक के प्रति कितना सजग है.
कथा का पाठ कथावाचन की आवाज को दर्शाता है, किन्तु हम जानते हैं कि कथा – पाठ का कथावाचक लौकिक, स्थानिक और अस्तित्व के रूप में हमसे दूर है. अस्तित्वगत दूरी का अर्थ है कि कथावाचक एक भिन्न संसार में रहता है, कल्पित कथा संसार में. कल्पित कथा का अर्थ है जो आविष्कृत है, काल्पनिक है, वास्तविक नहीं है. कथावाचक, उसका प्रापक, कथा का किरदार सभी कल्पित कथा संसार के हैं. उनका अस्तित्व कागजी है.
ध्यान रहे कि कथा का रचनाकार कथावाचक नहीं है. कथा का रचनाकार वह है जिसने कथा लिखी है. हमें कथा में आए आप या तुम से संबोधित प्रापक से स्वयं को जोड़ना नहीं है. स्वयं यानी कि वास्तविक पाठक से. कथावाचक हमें संबोधित नहीं कर सकता. क्योंकि उसे हमारे अस्तित्व का पता भी नहीं है.हम भी उससे बात नहीं कर सकते (यद्यपि अपनी कल्पना में कर सकते हैं). क्योंकि हमें पता है कि उसका अस्तित्व नहीं है. किन्तु हम पाठकों और रचनाकार के बीच वास्तविक संबंध है. हम रचनाकार को पत्र लिख सकते हैं.
प्रकट कथावाचक और प्रच्छन्न कथावाचक
कथा में कथावाचक दो प्रकार के होते हैं :
प्रकट कथावाचक और प्रच्छन्न कथावाचक. प्रच्छन्न कथावाचक की आवाज तटस्थ, कम भावनात्मक और अविशिष्ट अथवा अनिर्धारणीय होती है. जबकि प्रकट कथावाचक की आवाज विशिष्ट होती है. कथा की अभिव्यक्ति में भावना, विषयनिष्ठता एवं प्रयोजन से प्रेरित कथावाचक की आवाज का पता चलता है.
समरूपी और विषमरूपी कथाकहन
कथावाचक अपनी कथा से कितना जुड़ा हुआ है, इस दृष्टि से दो विकल्प हैं :
जब कथावाचक अपने बारे में कथा कहता है. यह प्रथम पुरुष कथाकहन है. हम इसे व्यक्तिगत अनुभव की कथा भी कह सकते हैं. यदि कथावाचक अन्य लोगों की कथा कहता है तो यह तृतीय पुरुष कथाकहन है.अब प्रथम या तृतीय पुरुष के बजाय समरूपी कथाकहन और विषमरूपी कथाकहन का प्रयोग किया जाता है. समरूपी कथाकहन में कथावाचक अपने व्यक्तिगत अनुभव की कथा कहता है. वह इस कथा में एक चरित्र होता है.वह कथा कहता है और कथा में उसका अपना अनुभव भी शामिल है.
विषमरूपी कथाकहन में जो कथावाचक कथा कहता है, वह कथा में एक चरित्र के रूप में उपस्थित नहीं होता है.वह सिर्फ कथा कहता है, किन्तु कथा में उसका अपना अनुभव शामिल नहीं होता है.
स्पष्ट है कि समरूपी कथावाचक सदैव अपने व्यक्तिगत अनुभव की कथा कहता है, जबकि विषमरूपी कथावाचक अन्य लोगों के अनुभव की कथा कहता है. इससे कथावाचक के कथाकहन की स्थिति का पता चलता है. समरूपी कथावाचक पर सामान्य मानवीय सीमाएं लागू होती है.वह अपने व्यक्तिगत एवं विषयनिष्ठ दृष्टिकोण तक सीमित होता है. वह उन घटनाओं का साक्षी नहीं होता जो उसके सामने घटित नहीं होते. वह एक ही समय में दो स्थानों पर नहीं हो सकता.वह अन्य चरित्रों के मन में चल रही बातों से अनभिज्ञ होता है. इन सीमाओं के कारण ऐसे कथावाचक के आवाज से उसकी मनोवृत्ति और कथा कहने के प्रयोजन के बारे में बहुत कुछ पता चल सकता है.
विषमरूपी कथावाचक वह है जो उस कथा संसार में किसी चरित्र के रूप में नहीं होता है. वह कथा संसार के बाहर होता है. इसलिए हम उसे लेकर जो कुछ स्वीकार करते हैं, उसे हम वास्तविक जीवन में कभी स्वीकार नहीं करते हैं. विषमरूपी कथावाचक असीमित जानकारी रखता है. उसके पास बेहिसाब सत्ता होती है. वह सर्वज्ञ होता है.वह सब कुछ जानता है. वह सभी स्वाभाविक बातें जानता है. जब विषमरूपी कथावाचक प्रकट रूप में बोलने को इच्छुक होता है तो वह अपने प्रापक से सीधे कह सकता है. ऐसे में प्रापक कथा में, उसमें निहित क्रिया पर और चरित्रों पर खुलकर टिप्पणी कर सकता है.कथाकहन की इस स्थिति को लेखकीय कथाकहन स्थिति कहा जाता है. इसे लेखकीय कथाकहन भी कहते हैं.
व्यवहार में, विषमरूपी कथावाचक बहुत अधिक ताकतवर होता है. उसके कथाकहन की शक्ति सशक्त होती है. वह अपनी व्यापक व सशक्त विश्वदृष्टि के आधार पर कथा के चरित्रों की नैतिक सबलता और दुर्बलता को प्रकट कर सकता है. उदाहरणार्थ बीसवीं सदी के मध्य तक उस अवधि में प्रेमचन्द, यशपाल और भगवती चरण वर्मा के उपन्यास व कहानियां लेखकीय मंतव्य वाले कहे जा सकते हैं.
कौन देखता है
समरूपी और विषमरूपी कथावाचक में इस आधार पर भेद किया जाता है कि कथा में कथावाचक उपस्थित है अथवा अनुपस्थित. अब हम कथात्मक परिप्रेक्ष्य पर विचार करेंगे कि कथा की प्रस्तुति किसके दृष्टिकोण से की जाती है. यदि कथा की प्रस्तुति कथा के किसी चरित्र के दृष्टिकोण से की जाती है तब इसे आन्तरिक दृष्टिकरण कहते हैं. और जिस चरित्र के दृष्टिकोण से कथा प्रस्तुत की जाती है उसे आन्तरिक दृष्टिकारक कहते हैं. कुछ सिद्धांतकार दृष्टिकारक को परावर्तक कहना पसंद करते हैं.
जैसे हम यह पूछते हैं कि कथा में कौन बोलता है ? यानी कि कथावाचक कौन है. इससे हम कथाकहन की आवाज की पहचान करते हैं.उसी तरह सवाल है कि कौन देखता है ? किसके दृष्टिकोण से हम कथा की घटनाओं से अवगत होते हैं.
विषमरूपी प्रच्छन्न कथाकहन और आन्तरिक दृष्टिकरण, सम्मिलित रूप से अलंकृत कथाकहन स्थिति है. हम अलंकृत कथाकहन में तृतीय पुरुष आंतरिक दृष्टिकारक के माध्यम से कथा की घटनाओं से अवगत होते हैं. अलंकृत कथाकहन का कथावाचक प्रच्छन्न विषमरूपी कथावाचक होता है, जो आंतरिक दृष्टिकारक की चेतना को, उसकी धारणाओं और विचारों को प्रस्तुत करता है. आंतरिक दृष्टिकारक का प्रभाव यह होता है कि हम इसमें कथावाचक के बजाय परावर्तक – किरदार के मन पर ध्यान देते हैं.
इस अलंकृत कथाकहन तकनीक को पहली बार जेम्स ज्वायस,कैथरीन मेन्सफिल्ड और फ्रेंच काफ्का ने अपनी रचनाओं में उपयोग किया है. इसमें कथावाचक की आवाज पर उतना ध्यान नहीं जाता जितना कि परावर्तक के मन में चल रही बातों पर जाता है.
कथा और कथानक
कथा और कथानक के बीच अन्तर को पहली बार फोस्टर ने रेखांकित किया है. इसमें तीन बातें आती हैं :
(१) विमर्श के अनुरूप घटनाओं का क्रम
(२) घटित होने वाली क्रिया का वास्तविक कालानुक्रमिक क्रम (=कथा) और
(३) कथा की कारण- कार्य संरचना (=कथानक).
कथा कालानुक्रमिक घटनाओं की श्रृंखला होती है. यहाँ मूल प्रश्न यह होता है कि ‘ आगे क्या होगा .’ इस संबंध में यह उदाहरण भी है कि राजा मर गया और फिर रानी मर गई. कथाकहन को क्रिया के साथ आरंभ किया जा सकता है, और पूर्व दीप्ति का प्रयोग भी हो सकता है.
कथानक कथा की तार्किक तथा कार्य कारण संरचना है. इससे संबंधित मूल प्रश्न है कि ‘ ऐसा क्यों हुआ.’ उदाहरण है कि राजा मर गया और उसके दुख में रानी मर गई.
कथाकहन का तरीका
परम्परागत रूप से ‘ दिखाना ‘ और ‘ कहना ‘ के बीच अन्तर किया जाता है. दिखाने की विधि में बिना मध्यस्थता के घटनाओं की क्रिया का विस्तृत चित्रण किया जाता है, जबकि कहना विधि में कथावाचक घटनाओं की क्रिया का संक्षेप में विवरण प्रस्तुत करता है. उस पर टिप्पणी करता है.
अब यहाँ सवाल उठ सकता है कि क्या कथाकहन सिद्धांत से कहानी या उपन्यास के लिखने में सहायता मिल सकती है ? इस संबंध में हम यह कह सकते हैं कि कथाकहन विज्ञान कहानी या उपन्यास कैसे लिखें ,इससे उतना संबंधित नहीं है जितना कि इस बात से संबंधित है कि कथाकहन से कोई रचना कैसे क्रियाशील होती है, प्रभावी बनती है.
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संदर्भ
(1) ‘the play’s the thing .’
(2)Abbott Porter. The Cambridge Introduction to Narrative, Cambridge,2002.
(3) Mike Bal. Narratology, Toronto,1985
(3) Roland Barthes. An Introduction to the Structural Analysis of Narrative. New Literary History 6:237- 272.1982.
(4) Seymour Chatman. Story and Discourse.London,1978.
(5) Monika Fludernik. An Introduction to Narratology. New York.Routledge.2009
(6) Gerard Genette. Narrative Discourse. Oxford, Blackwell.1988.
(7) Percy Lubbock. The Craft of Fiction. New York.Viking.1957.
(8) Gerald Princ. Narratology : The From and Functioning of Narrative. Berlin.Mouton.1982
(9) Franz Stanzel. A Theory of Narrative.Cambridge.1982.
(10) Manfred Jahn. Narratology 2.3 : A Guide to the Theory of Narrative. English Department, University of Cologne. URL www.uni- koein.de/ ame02/pppn.pdf.
दर्शन, अर्थशास्त्र, इतिहास और साहित्य में अभिरुचि. बुद्ध पर एक पुस्तक प्रकाशित. प्रोफेसर और प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त |
प्रमोद जी ने बहुत कायदे से विषय को प्रस्तुत किया है।
जहाँ तक मेरी समझ है अँग्रेज़ी में narrative का लगभग वही अर्थ है जो story का है, जिसमें कहानी और उपन्यास दोनों तो आ ही जाते हैं, लेकिन उसमें किसी भी तरह के वृत्तान्त को शामिल किया जा सकता है, जैसे यात्रा वृत्तान्त। इसलिए narrative को हिन्दी अनुवाद में कथाकहन कहना ठीक नहीं है। उसका हिन्दी अनुवाद बनता है कथा या कहानी या वृत्तान्त। और इसीलिए narratology का हिन्दी अनुवाद बनता है कथा विज्ञान —- कथाकहन विज्ञान नहीं।
सुंदर। बहुत लाभदायक। भाई अरुण और प्रमोद शाह दोनों को धन्यवाद। कविता पर भी इस तरह की प्रविध्यात्मक आलेख दिया करें।
मुझे लगता है कि narratology का सही अर्थ कथा विज्ञान हो सकता है.यहां logy बिल्कुल उन्हीं अर्थों मैं प्रयुक्त होता है जैसे बायोलॉजी और दूसरे disciplines में.(The study of ).
इसके इसी अनुशासन की प्रक्रिया में ही इसकी मुश्किलें भी उपस्थित रहती हैं.कभी कभी narrative का भार इतना ज्यादा उभर कर सामने आ जाता है कि दर्शक या पाठक उस text को अपने अपने अनुसार व्याख्यायित करने की जगह ही खो देते है.
एक ही समय में दिखाए गए दृश्य दो व्यक्तियों के लिए किस तरह अलग अलग हो सकते हैं और कैसे वे दोनों इससे एक नया narrative बनाकर अगली पीढ़ियों तक पहुंचाते है,यह एक मुश्किल विषय है.
इस आलेख में कई जरूरी बातें आई ,दूसरी नई बातों का इंतजार रहेगा.
शुक्रिया .
मुझे लगता है हिंदी में वृतांत विज्ञान,वृतांत शास्त्र, कहन शास्त्र जैसे शब्द भी प्रयोग में लाए जा सकते हैं। विवरण भी निकट का शब्द है । इस लेख में प्रमोद शाह जी ने बहुत विस्तार से कथा कहन, वाचक, समरूपी, विषम रूपी, कौन बोलता है ,कौन देखता है जैसे बिंदुओं पर बहुत विस्तार से अपनी बात रखी है और विभिन्न संदर्भों से लिए गए विवरण को हिंदी के पाठकों के लिए क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत किया है । हिंदी साहित्य के अंतर्गत भी देखा जाए तो केवल कथा या उपन्यास के संदर्भ में ही नहीं अन्य विधाओं के संदर्भ में भी यह लागू होता है।
शरद कोकास