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Home » नाज़िश अंसारी की कविताएँ

नाज़िश अंसारी की कविताएँ

मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों ने भाषा के सौन्दर्य के साथ मिलकर कविता में जो घटित किया, उसकी खुशबु कभी नहीं जायेगी. समय की यात्रा करते हुए किसी ताज़े खिले फूल में उसकी आभा दिख जाती है. और कविता ने जन जीवन से कभी मुंह नहीं मोड़ा है. काम्य न्याय की चाहत और मूक यंत्रणा की अभिव्यक्ति से वह कभी पीछे नहीं हटी है. वह अल्प में अतिअल्प की आवाज़ है, राहत है. युवा कवयित्री नाज़िश अंसारी की इन कविताओं में उस आवाज़ की तड़प को आप महसूस कर सकते हैं. नाज़िश के पास सधी हुई भाषा है.

by arun dev
May 4, 2023
in कविता
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नाज़िश अंसारी की कविताएँ
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नाज़िश अंसारी की कविताएँ

अच्छे घरों की लड़कियाँ

अच्छे घरों की लड़कियाँ कॉलेज में पढ़ सकती थीं
सहपाठियों का नाम जाने बग़ैर
क्लास ले सकती थीं हफ़्ते में दो बार
कभी कभी तीन बार भी
सर पर हिजाब लेकर

अच्छे घर की लड़कियों को
होंठ सुर्ख रंगने के लिए
बालों में गोल्डन स्ट्रीक्स के लिए
स्लीवलेस पहनने के लिए
ब्याहू होने का इंतज़ार करना था

सिलाई बुनाई कढाई जैसी शर्तों पर अब पाबंदी नहीं है
हर चौराहे पर मिल जाते हैं दर्ज़ी
तमीज़ ओ तहज़ीब का अब भी विकल्प नहीं मिलता

दस्तरख्वान पर खाना सजाने के आदाब से घर का रख-रखाव परखती औरतें
शऊर के मे’यार पर खरी नहीं उतरती बेटियों को पकड़ाती रहीं इनकार

हाँ, रुपहली रंगत ने बे सलीक़ा लड़कियों को
अनगढ़ का चोला पहना कर बचाया हर बार

कुछ ऐसी भी थीं जिनकी ज़िल्द मैली
ज़हन रौशन थे
पड़ोसी बताते थे: चार दर्ज़ा पढ़ने के बाद ऊँघती दोपहरों में पेट के बल लेट कर नाविल के क़िरदारों से बतियाती थीं देर तलक
वे अजीब लड़कियाँ थीं

उन अजीब लड़कियों ने नेक खातून की निशानियाँ वाली किताबों पर खाए चने मुरमुरे घोल के पी गयी सिलेबस

मुकाबले के इम्तिहानों में आईं अव्वल
सोचा, नौकरी करेंगी
पैसे से उखाड़ देंगी
साँवले रंग और बद ज़ौक़ियत के धब्बे
और न होकर भी बन जाएंगी अच्छे घर की लड़कियाँ

इनकी झुकी गर्दन ज़रा तनी
ऐतमाद से भरी पूरी हुई
पुरखिनो को भनक लगी तो
खानदान की जनानियाँ सात पुश्तों की इज़्ज़त
उनके गालों पे जड़ के कहती हैं-
अच्छे घरों की लड़कियां नौकरी नहीं करती हैं

 

माँ मुझे क्या करना चाहिए

तुम्हारी आँखों में चलता सपना जिसमें तुम देख रही हो मुझे
लाल जोड़े सजे मेहंदी रचे हाथों में

क़ीमत जिसकी कुछ किताबें
मिलती हैं जो परीक्षा के दिनों में
(अब तुम बेच चुकी होगी रद्दी वाले को)
कुछ “गुड नाईट” कढ़े तकिये कुछ मिठास का हिसाब कुछ हिसाब मसालों का
कुछ महीने भर का ईंधन
कुछ रफू कुछ तुरपन

मगर तुम्हारा सपना इतने से न पूरा हुआ
इसने मुझसे कुछ और भी मांगा जिसे बताना तुम भूल गयी थी

तुमने नहीं बताया
जब बढ़ गया हो सब्ज़ी में तेल
घट जाए नमक
फेंकी जाएं खाने की मेज़ से तश्तरियाँ
तुम्हारे जन्नांगो से अलंकृत शब्दावलियाँ
कानों से टकरा कर लौट न पाएं
तोड़ फोड़ कर दें मस्तिष्क के चारों खंडों मे
बुल्डोज़र बन जाएं
(आपने ढहते देखी होंगी कंक्रीट की आकृतियाँ
हमने रूह देखी है)
जब उड़े रूह की धज्जियां
मुझे क्या करना चाहिए

रात कमरे की मद्धिम रोशनी में
जब गुटखे का भभका छोड़ा जाए मुँह पर
सामने हों दो भूखी आँखें
उतार दिये गए हों शरीर पर से कपड़े
रौंदा जा रहा हो माँस
मुझे क्या करना चाहिए

मेरे शरीर पर रची गयी नीलिमा
लव बाईट्स नहीं थी माँ….

किसी अनिष्ट की आशंका से डरी तुम
आँख दिखाते हुए घूरती हो
नारीवाद के चोंचले.. तौबा यह छुट्टा औरतें.. न घर बना पाई न जन्म सुधार पाएंगी
बाप मार डालेगा भाई काट देगा
बच्चे की तरफ देख, इसका जीवन बिगड़ जाएगा

वैवाहिक बलात्कार समाज के शब्दकोश में नहीं
संविधान पुस्तिका में भी नहीं
कोर्ट यही कहता है तुम भी यही कहती हो
जब तक मियां हामी न भरे
तलाक़ चुटकुले से ज्यादा कुछ नहीं
तुम बढ़ा रही हो मेरी तरफ बर्दाश्त की विरासत और चाहती हो इसके क्रमिक इतिहास के पहिये में कील की तरह ठुक जाऊँ
अपनी सब पुरखिनों की तरह
गृहस्थी के चूल्हे में ईंधन बन के फुंक जाऊँ

तुम्हारा जीवन मैं भी जियूँ इतना मुझमें साहस कहाँ
तुमसे मुहब्बत बहुत है मगर तुम मेरा आदर्श नहीं हो माँ

 

निर्देशक

पिता माँ को मेहमानों की फेहरिस्त देते हैं
पिछली बार कबाब सुर्ख हो गए थे ज़रा आले ही रखना
यखनी में नमक कम
मीठे में खीर के बजाय सिवई बनाना
पिता माँ को अधिकतर निर्देश देते हैं
बेटी को दुपट्टा उढाओ
चादर में कैसे आ जाती है सिलवट
बैठने की तमीज सिखाओ
बाहर निकलते ही लोगों की निगाहें पीछा करती हैं
बुर्क़ा ओढ़ाओ
कर तो लिया है बी ए
घर गृहस्थी सिखाओ
सेल्फ डिपेंड
यह किस डिक्शनरी का लफ़्ज़ है
क़ुबूल है बोलो और ससुराल जाओ

पिता कभी पिता नहीं बनते
कभी कभार बन जाते हैं अभिभावक
अधिकतर निर्देशक ही बने रहते हैं

आदेशों का पालन होते देख अपनी सत्ता सुरक्षित करते पिता
संतुष्ट होकर मूँछों में अदृश्य ताव भर लाते हैं
लेकिन यही पिता जाने क्यों
जवान होते बेटों से डरने लग जाते हैं

 

बुर्क़े वालियाँ

नबी का क़ौल था इल्म हासिल करने के लिए चीन तक जाना पड़े तो जाओ
आगे कोई कोष्ठक नहीं जहाँ लिखा हो “सिर्फ मर्दों के लिए”

लेकिन हर बार बड़ी शातिर तरीक़े से
इल्म के नाम पर औरत को पकडाई गयी धार्मिक किताब
किसी यूनिवर्सिटी से पहले खड़ी कर दी गयी पर्दा, ‘बिरादरी में चलन नहीं है’, ‘पढ़ के कौन सा नौकरी करनी है’ की अदृश्य दीवार

अब आप न की मुद्रा में सर हिलाईये
सानिया मिर्ज़ा, निखत ज़रीन से लेकर जय श्री राम के जवाब में अल्लाह हो अकबर कहती
मुट्ठियाँ भींचती बुर्कागर्ल का उदाहरण लाईये
लेकिन ऐसी नजीरें भी कहाँ मिलती हैं कि बेहिसाब रुपहले तारों ने मिलकर स्याह आसमान को फ़िरोज़ी कर दिया..

सुनो महजबीनों! नाज़नीनों!
कब तक “अब्बा नहीं मानेंगे” कहकर किलसती रहोगी
शौहरों के थप्पड़ों, धमकियों, अबोलों के लिए
क़िस्मत, कभी सूरत को कोसती रहोगी
जैसे बैठ जाती हो शाहीन बाग में पहचान के लिए
उतर आती हो सड़क पर हिजाब के लिए
धर्म से परे कर्तव्यों से इतर
भिड़ो, अपने लोगों से अपने अधिकार के लिए
लाँघो, दीवार उस पितृसता की
जिसने तुम्हारे हिस्से के इल्मखानों, संस्थानों, कार्यालयों को देश दूसरा घोषित कर रखा है

तुम नहीं जानती
टोपी धरे सज़दे झुके सर
अल्लाह से कम समाज से ज़्यादा डरते हैं
उससे भी ज़्यादा उन औरतों से
जिनके हाथों में किताब है…

 

बिलक़ीस

बिलक़ीस,
उम्र क़ैद का मतलब
उम्र भर की क़ैद नहीं होता

तो क्या हुआ जिन्हें मरकर भी जलना नहीं था उन्हें जिंदा जलाया गया
तुम्हारे बच्ची को पत्थर पर पटक कर मारा गया
तो क्या हुआ जो बेहिसाब औरतें नंगी की गयीं
जिस्म उनके गोश्त के लोथड़े बने
वहशी नारंगी भेड़ियों में तक़्सीम हुए

हाँ, सोते में अचानक घुसती होगी तुम्हारे नथुनों में केरोसिन की झार
चमड़ी पिघलने की चिरांध
और गाढ़ा काला गुबार
फिर भी पढ़नी चाहिए शुकराना
तुम्हारा पंचवासा गर्भ तलवार की नेज़े से बच गया
मुखिया ने कहा
अमल का रद्दे अमल था, हो गया.

उस खूनी सुबह से लेकर अगस्त की उमसाई दोपहरी तक
गाँव की पंचायत से दिल्ली की कचहरी तक
हर दरवाज़े पर लिखा मिलेगा कष्ट के लिए खेद है
बन्द करो खटखटाना
बेचारी बनना छोड़ो
कितना सिसकोगी आँसू पोछो
उठो, आपदा में अवसर खोजो

बिलक़ीस, याद रखना!
उम्र क़ैद का मतलब
उम्र भर की क़ैद नहीं होगा
क़ातिल ही तुम्हारा मुंसिफ है
कितना तुम्हारे हक़ में फैसला देगा!

(कविता की आखिरी दो पंक्तियां सुदर्शन फ़ाकिर के शेर से प्रेरित है)

नाज़िश अंसारी
मनोविज्ञान में परास्नातक

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ आदि प्रकाशित.
nazish.ansari2011@gmail.com

Tags: 20232023 कवितानयी सदी की हिंदी कवितानाज़िश अंसारी
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Comments 16

  1. Garima Srivastava says:
    2 years ago

    अच्छी कवितायेँ

    Reply
  2. सपना भट्ट says:
    2 years ago

    नाज़िश को पहले भी पढ़ती रही हूं। जिस तेवर की कविताएँ उनके पास हैं वह समकालीन हिंदी में कम लोगों के पास है, भाषा उनका साथ देती है और कथ्य का पैनापन मर्म बेधता है।

    प्रिय कवि को बहुत बधाई

    Reply
  3. Farid Khan says:
    2 years ago

    नाज़िश की कविताएँ पहले भी प्रभावित करती रही हैं. उनके प्रवाह और सादगी का मैं कायल हूँ. उनकी कविताओं में किश्वर नाहिद, फहमिदा रियाज़, कमला भसीन आदि की अनुगूंज है. नाज़िश अपनी एक कविता में कई सारी कविताएँ समेटे हुए चलती हैं. इस अर्थ में उनकी कविताएँ एक विषय के कई आयामों को उजागर करती हुई चलती हैं. यहाँ दर्ज कविताओं में व्यंग्य का भी पुट है जो पाठक के सीने में सीधे असर करता है. यहाँ पोस्ट की गईं सभी कविताएँ मुझे बेहद पसंद आईं. नाज़िश को मुबारकबाद और शुभकामनाएँ.

    Reply
  4. दयाशंकर शरण says:
    2 years ago

    नाज़िश अंसारी की कविताएँ अपने समाज की रूढ़िबद्ध मान्यताओ पर चोट करती प्रतिरोधी स्वर की कविताएँ हैं।
    वहाँ की पितृसत्तात्मक व्यवस्था के विरोध में खड़ी ये
    कविताएँ आश्वस्त करती हैं उन भीतरी सुगबुगाहटों की
    जो बाहर की खुली दुनिया में आने को व्यग्र है।स्त्री
    अस्मिता की दृष्टि से भी ये संवेद्य हैं।कवि को बधाई!

    Reply
  5. नरेश गोस्वामी says:
    2 years ago

    नाज़िश की अभिव्यक्ति में सटीकता का ज़बरदस्त आग्रह दिखाई पड़ता है. अपनी कहन में वह कुछ भी अधूरा या स्थूल नहीं छोड़ना चाहती. मामला केवल शब्दों की तराश का नहीं है— यह शायद बात को अधिकतम बारीकी और संक्षिप्ति से कहने का हुनर है.

    Reply
  6. धनंजय वर्मा says:
    2 years ago

    अपने नाम के मानी- गर्व- को सार्थक करती नाज़िश् की ये कविताएँ उद्वेलित और विचलित करती हैं.इनमें गहरा दर्द है, लेकिन किसी की दया की मोहताज नहीं है.इनमें चालू स्त्री विमर्श की बजाय प्रतिरोध की आवाज़ बुलन्द है.भाषा में रवानी तो है ही, इज़तराब की कैफियत भी है जो इन्हें ravishe आम से अलग अपनी खास पहचान देती है.मुबारक बाद नाज़िश्, खूब जियो और खूब लिखो…

    Reply
  7. Aishwarya Mohan Gahrana says:
    2 years ago

    नाज़िश की कविताओं में मारक धार है जो सीधे मर्म पर हमला करती है। इन कविताओं में पितृसत्ता उनका पहला निशाना लग रहा, परंतु वह बिना वक़्त बर्बाद किए राजनीति से लेकर समाज के किसी भी पहलू पर कड़ी टिप्पणी दर्ज़ करती हैं। इन्हीं कविताओं में से एक को पढ़ते हुए मन ने पूछा, अरे!! आज इंटरनेट डाउन नहीं हुआ?

    Reply
  8. Bharat says:
    2 years ago

    बेहतरीन कविताएं।

    Reply
  9. Pooja Goswami says:
    2 years ago

    अद्भुत कविताएं है 💓💓💓

    Reply
  10. प्रीति चौधरी says:
    2 years ago

    बहुत अच्छी कविताएं हैं नाजिश की,सादी सरल और मर्मभेदी।नाजिश जैसी कवयित्रियों के पास कहने के लिए समाज के कड़वे और ठोस यथार्थ इतने हैं कि ये अवयक्त और रहस्यमयी होने की लक्जरी अभी नहीं अफोर्ड कर सकतीं ।

    Reply
  11. Anonymous says:
    2 years ago

    हलचल पैदा कर देती हैं आपकी कविताएं और लेख
    आपको बहुत बहुत बधाई और धन्यवाद😊 मैम

    Reply
  12. Poonam Rana says:
    2 years ago

    नाज़िश बहुत प्यार आपको।इतनी बढ़िया कविताएं , जैसे अंतरात्मा का दरवाज़ा तोड़कर निकली हों।दिल कर रहा है बहुत बहुत लिखूं इन पर । हर शब्द कम पड़ जाए इतना। बहुत बहुत बधाई और ढेरों शुभकामनाएं 💐

    Reply
  13. Anuradha Singh says:
    2 years ago

    Nazish Ansari की कविताओं में सच बहुत है, इतना कि कुछ लोग बहुत परेशान हो जायें। और उतनी ही कविता भी है जो इस सच को लम्बे समय तक याद दिलाते रहने का काम करेगी। लड़कियाँ जब कलम को हथियार की तरह पकड़ती हैं तो लगता है कि ये अपने काम के लिए किसी और का मुँह नहीं ताकतीं इन्होंने दुनिया के दोमुँहेपन को उसकी ही भाषा में जवाब देना शुरू कर दिया है।

    Reply
  14. Dr. Shanti khalkho says:
    2 years ago

    समाज के ढकोसलो के खिलाफ आवाज उठाती सुन्दर कविता । बधाई हो बेटी

    Reply
  15. Anonymous says:
    2 years ago

    “आगे कोई कोष्ठक नहीं जहाँ लिखा हो सिर्फ मर्दों के लिए” कोष्ठक स्त्रियों के जीवन-संघर्ष के साथ-साथ कई तरह की यातना-कथा को बया करता है। है। बिना लाग-लपेट बहुत कुछ कह देने की कला अद्भुत है। हार्दिक बधाई💐

    Reply
  16. चंद्रमोहन सिंह रावत says:
    1 year ago

    नाजिश की कविताएं स्वयं के होने के अहसास और उसके बाद उपजे सवालों की तपिश को खुद झेलने और समाज से प्रश्न करने के महत्वपूर्ण अक्षर हैं , कवयित्री को पूछना हैं कि कौन तय कर रहा है और क्यों तय कर रहा है सीमाएं स्त्री की ?! वह साबित और सबूत की तह में जाना चाह रही है अगर कोई है जो उसे ले चले वरना वह “स्त्री” खुद मुख्तार है संसार की अन्य रचनाओं की तरह । उस से जुड़ी हर चीज वह स्वयं तय करेगी जैसे अन्य सब कर रहे हैं !
    बहुत खूब लिख रही हो नाजिश जी !! ताकत और हौसला मिल जायेंगे ,ऐसे ही , तो दीवारें गिरेंगी !

    Reply

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