निधीश त्यागी की कविताएँ |
जैसे मौसम पहनता है
जैसे मौसम पहनता है पृथ्वी
उसकी प्रकृति को पहनना था उसे
देर रात वह अपनी साड़ी
उतार तह बनाती है
उसे छूती है सहलाती है
देर रात वह अपना श्रृंगार
उतारती है जो किया गया था
जा चुके पल और प्यार के लिए
देर रात वह आईने में
शक्ल देखती है
ख़ाली, थकी और अपरिचित
घुप होता चुप उसका
चेहरा टटोलता है
बीच में कई बार
देर रात वह उस लम्बे दिन
को फिर से पलटती है और
उसकी जघन्यता पर
चकित होती है
देर रात वह
पलंग के किनारे बैठ कर
हथेलियों में चेहरा लिए
घुटनों पर कुहनियां टिका
बहुत देर बैठी रहती है
शरीर से ज्यादा आत्मा पर दर्ज
हुए उन हरे होते ज़ख़्मों पर
देर रात फाहा रखती है
देर रात वह सबको माफ़
करती है ईश्वर को भी
पलंग की बग़ल की मेज़ पर
पानी का गिलास रख
देर रात वह बत्ती बुझाती है
जघन्यताओं और पहचान के बाहर
बहुत देर रात तक अंधेरे अकेले
में बची हुई साँस लेती है.
चिलमनों के उस तरफ
नाम पुकारता है
नई जगह से
हर बार
सुनाई पड़ता है
नई जगह पर
उठा डालता है आसमान
हरी कर देता है ज़मीन
परिँदो का झुंड
एक साथ उड़ान भरता है
हरी पत्ती वाली टहनी
हिलती है
एक नये सूर्य की तरफ़
स्मृति के मुहाने से
कल्पना के दहाने तक
नाम उसे बाँधता है
खोलता है
एक नई पहचान में
नई उजास छाया में
भाषा और अर्थों के आरपार
नाम एक मंत्र की तरह
सिद्ध होता जाता है
प्राण में प्रतिष्ठा में
बहुत सारी रंगीन मछलियाँ
एक साथ मुड़ती है
करवटें बदलती हुई
उन तिलिस्मी तालों को खोलती हुई
जिनके होने का पता ही नही था
तर्क और कारणों और दुनियादारियों को.
नाम मना करता है नाम लेने को
पर साँस है
अटकी हुई
अगली पुकार की टोह लेती
ज़िंदा हो उठने की
नाम है कि लेता है
नाम को
अकेले मे, चुप में, अपने घुप में
धमनियों से गुज़रते संगीत में
उसे पुकारता हुआ
जहां वह ग़ुमशुदा तो है
जहां वह लापता तो नहीं.
उस एक दिन
एक दिन
एक राग उसे छेड़ेगा
एक पत्ता उसे हिला देगा
एक कविता उसे लिखेगी
एक दीवार उससे बात करेगी
एक जुराब़ उसे ढूंढ निकालेगी
एक सपना उसे देखेगा
कई झरोखे झांकेंगे उसमें
एक दिन
एक दिन
एक किताब उसका अध्याय पढ़ेगी
बहुत दिनों तक
एक देहरी उसके साथ चलेगी
एक बेड़ी की तरह
उस एक दिन के लिए.
अभी यहीं
अगर जीने का एक ही पल बचा हो बहुत सारे स्थगित और रिक्त और वीतराग समय में अगर एक ही खिड़की हो दीवार में रौशनी के आने और अपने हरे में झाँकने के लिए अगर एक ही पुकार हो और गूँजते रहने के लिए अगर एक ही ख़याल गा रहा हो आत्मा के आरपार अगर एक ही फफक एक ही आँसू एक ही उच्छवास एक ही मौक़ा एक ही चाँद एक ही जंगल एक ही मृदंग एक ही थाप एक ही नाच एक ही आलम्बन, एक बारिश एक शाम एक पार्किंग एक ही स्पंदन एक ही पहला और अंतिम अपने आपमें एक ही आसमान और सूरजमुखी, अगर एक ही जादू हो एक ही मनुष्यता एक ही ब्रह्मांड, अंतरिक्ष, खगोल सपनों और स्मृति को लाँघने की एक ही देहरी, अगर दिल पर रखने को एक ही हाथ हो, एक हू कम्पन, एक ही फुदक, ललक, सिसक, एक ही लहर, एक ही सीपी, एक ही अभी और यहाँ का आदि और अंत
एक नाम. एक हाँ
हर बार. अलग. पहली बार.
एक ही तुम.
एक साँस में तुम्हें लेता हुआ
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