शैतानी तुरही
निधि अग्रवाल
तूफान पर बर्बादी के आरोप बेबुनियाद थे
कल रात आए तूफान ने दशकों से जमे पेड़ों के पांव भी उखाड़ दिए थे. खपरैल के घरों की तो बिसात ही क्या थी. टेराकोटा के बैरल सूखे पत्तों से उड़ गए थे. बिजली के खंभे और तार औंधे मुँह पड़े थे. तूफान जाहिल था आंगन द्वार पर बने कोलम पर पाँव रख उसके अंग-भंग करता गुजरा. देवी आंडाल और भगवान तिरुमाल अवश्य ही कुपित हुए होंगे. अच्छा? तूफान ने उपेक्षा से ठहाका लगाया. सच बोलो यहाँ आबाद ही क्या था?
शोभना ने समय देखा. 7:10 के हिसाब से अंधेरा कुछ अधिक ही गहरा था और फोन की बैटरी खतरे का लाल निशान दिखा रही थी. पूरा दिन बीते भी बिजली महकमा सुधार नहीं कर सका. शहर किसी महीन टुकड़ों वाले जटिल जिगसॉ पजल-सा दिखता था जिसे जमाने के लिए लंबा धैर्य, समय और दक्षता चाहिए थी.
“डायलन!” उसने बेहद हल्के नर्म स्वर में पुकारा. दो दिन से नीम बेहोशी में तपते अपने अर्द्धमूर्च्छित बच्चे को वह चेताना चाहती थी लेकिन जगाना नहीं.
‘कुछ खा लेता?’ कहते हुए बच्चे की आँख का पीलापन बढ़ा देख वह और चिंतित हो उठी.
मोबाइल की सीधी रोशनी आँखों पर पड़ने पर वह कुनमुनाया. पीड़ा की संघनित रेखाओं से उसका कोमल चेहरा भर गया. दो गीली लकीरें शोभना के गालों पर बह चलीं. इन नहरों में डूबे रहने की अनुमति समय नहीं दे रहा था. डायलन के कंधों तक कंबल चढ़ाती, वह झटके से उठ खड़ी हुई.
नई नौकरी और रोज की देरी. आज फिर देरी से पहुँचने के लिए अस्पताल में डाँट खानी होगी. शोभना ने अपनी कनपटियों को दबाते हुए सोचा.
“अंबर! आरिया!” इस दफा स्वर तेज हो उठा जिससे बिखरते बेबसी के कतरे बच्चों के कानों में जा धंसे. कमरे के सीले कोने में दो मुरझाए बुत उग आए.
“मैं जोसेफ को ढूँढने जाती हूँ. डायलन का ध्यान रखना.” कहते हुए वह दरवाज़े तक पहुँच चुकी थी. बिना उत्तर की प्रतीक्षा करे वह संकरी गली पारकर मुख्य सड़क पर आ गई.
कमरे में जलती मोमबत्ती के मटियाले प्रकाश में भुकभुक करती दरिद्रता को फटी उलझी आँखों से निहारते बुत, पुनः जमींदोंज हो गए.
उसे टार्च लेकर आना चाहिए था. घुप्प अंधेरे ने कानों में फुसफुसाया. अब उसे अपनी भूल का अहसास हुआ.
लौटूं क्या?
समय कहाँ है? पहचानती तो हो मुझे. रास्ते ने दिलासा दिया.
उसने सहमति में सिर हिलाया हालांकि रास्ता केवल उसका जाना पहचाना न था. जंगली जानवरों से भी उसका वैसा ही अपनापा था.
लम्बे डग भरती वह सीधे बालकृष्ण के अड्डे पर पहुंची. शराबियों की जमात जुटनी शुरू हो चुकी थी.
“जोसेफ?” उसने हाथ के इशारे से चिल्लाकर पूछा.
“विष्णुवर्धन.” बालकृष्ण ने पैसे गिनते हुए निर्लिप्त उत्तर दिया.
वह आगे बढ़ गई. दोनों ओर कॉफी और केलों के बागानों की बीच का यह अति संकरा रास्ता था. तिस पर हाथियों का पसंदीदा! बीते माह ऐसी ही काली रात श्रीधर के दोनों लड़कों की जीवन ऊर्जा हाथियों के पांव तले रौंद दी गई थी. मेंढकों का बढ़ता स्वर उसे निरंतर चेता रहा था- लौट जाओ, लौट जाओ!
नम कोहरे में घुली तहदार बेचैनी बढ़ती जाती थी. रुकी हुई पानी की बूंदे कभी किसी पेड़, कभी किसी ढलुआ छत से विपदा जैसी बिना किसी पूर्वसूचना धमक जातीं. उनसे उपजा नाद रात को और रहस्यमयी बना देता. चेहरे पर चुहचुहाते पसीने को उसने कमीज की बाँह से पोंछा. कांपते हाथों से मोबाइल की टार्च जलाई. प्रकाश की पीली बत्ती देख एक पतंगा फड़फड़ाता हुआ आ बैठा. घुटी हुई बे-आवाज़ चीख के साथ उसकी विकराल छाया को चीरती वह आगे बढ़ गई. कभी कुछ चकित नहीं करता था और अब अपनी ही सांसे उसे चौंका देती हैं. अपना ही स्पर्श सांस रोक देता है. उसे अधिक दूर नहीं जाना पड़ा. विष्णु के घर के मोड़ से पहले ही जोसेफ और उसकी बोतल औंधे पड़े मिल गए.
“हरामी, नाली का कीड़ा!” पहली दफा उसके मुँह से गाली निकली. मोबाइल पर बैठे कीट-मकोड़े घबराकर उड़ गए. ऊंघता जंगल जाग बैठा. अपने इस बदलाव पर उसकी आँखें भर आईं. दया… करुणा… रविवारीय प्रार्थना के शब्द स्वयं को स्मरण कराते उसने कुछ गहरी सांस भरीं. मदद की आस में दूर तक अंधेरे को टटोला. हवा सांस रोक नारियल के पत्तों में जा छुपी.
जोसेफ पाँच फुट नौ इंच का भारी आदमी. उसे उठाना शोभना जैसी कोमलांगी के लिए सरल नहीं था. बोतल में बची शराब उसके मुँह पर छिड़कते हुए उसने फटकारा – “जोसेफ! डायलन की दवा के लिए रखे पैसे भी चुरा लिए!” रुकी रुलाई आवेग से फूट पड़ी.
जोसेफ आँखें खोलने की कोशिश करते हुए फिस्स से उन्मादी हँसी हँस दिया. वह सुनने समझने की स्थिति में नहीं था. स्त्री गंध महसूस कर उसके हाथ शोभना की कमीज के भीतर टटोलने लगे.
जोसेफ! हाथ हटाते हुए एक लाचार चीख बस. वह उसे उठाने का प्रयास कर रही थी. जोसेफ ने उसके होंठों को पी लेना चाहा. कच्ची शराब की गंध से शोभना को उबकाई आ रही थी. नहीं, इसकी तो आदी हो चली थी. यह जोसेफ के स्पर्श थे जिनसे उसके दिमाग की नसें चटक रही थीं.
“कोशिश करो खड़े होने की. बच्चे अकेले हैं घर पर.” उसने सायास आवाज़ में स्वामित्व भरा.
जोसेफ अभी स्वप्न लोक में ही विचर रहा था. उसकी स्कर्ट उठा पिंडलियों को सहलाने का प्रयास करता वह शोभना को साथ लिए गिर पड़ा. उसके बदन के भार को धकेल शोभना तेजी से खड़ी हो गई. वह सिहर गई थी. अनचाहे ही जोसेफ पर उठ गए हाथ की अनुगूँजे उसे डरा रही थीं.
मार्ग के दोनों ओर क्रमवार खड़ी गुलाबी- सफेद शैतानी तुरही बज उठीं- दुआ करो कि होश में आने पर उसे यह तमाचा याद न रहे. नहीं तो तुम्हारी दुर्गति निश्चित है.
उसने यीशु से विनती की. जंगल से चुप रहने का आग्रह किया. जुगनुओं की लुपझुप कंदीले झाड़ियों में जल चुकी थीं. जोसेफ को उसी हाल में छोड़, पसीने से तरबतर वह पूरी क्षमता से घर की ओर दौड़ चली. मन ही मन हाथियों के झुंड का आह्वान करती, उन्हें किसी कोर्ट में हाजिरी नहीं देनी पड़ेगी.
आसमान और धरती का रंग एक हो चला था. कभी-कभी हल्की बिजली कौंध जाती और बेतरतीब मकानों के तीसरे नेत्र चमक उठते. इसी के साथ कुत्तों का रोना तेज हो जाता. वह पक्की सड़क न पकड़ पगडंडियों पर ही बेसुध दौड़ रही थी. पैर गीली मिट्टी में धंसते जाते थे. उसे लगता था कि किसी भी पल उसे दबोच लिया जाएगा. घर का मोड़ छूते हुए उसका दम निकलने को था पर हवा में तैरती bidi की गंध महसूस कर निरायस ही गति बढ़ गई. दरवाजा धकेल भीतर दाखिल होते ही उसने कसकर चटकनी लगा दी. घर अंधकार का पुलिंदा बना था. कोई हलचल नहीं. मोमबत्ती बुझ चुकी थी.
“डायलन!” पुकारते हुए बदहवासी में उसकी आवाज़ फट गई.
प्रत्युतर में एक मरियल-सी आह अंधेरे में कहीं छिटक गई.
“अंबर!, आरिया!” उसने रुआँसे स्वर में पुकारा.
डायलन के अगल बगल पसरे भयाक्रान्त बच्चों ने उदास आँखों को खोल दिया.
तेज हवा की ठेल दरवाजा खटका रही थी. “तुम सब ठीक हो?” उसने दरवाज़े से पीठ टिकाए हुए ही पूछा.
“हम्म.” बस इतना ही उनका उत्तर था. एकांतिक प्रवृति के अंतर्मुखी बच्चों के सांचे में ही उन्हें ढाला गया था. उसे बच्चों पर बेतहाशा प्यार आया. स्वयं पर क्रोध भी. अभी तक वह किसी उदासीन रौ में ही इन्हें पालती आई है. मातृत्व ने तो दो दिन पहले ही दस्तक दी. सीने पर रखा पत्थर और भारी हो गया.
अनियंत्रित सांसों को संयत करते हुए उसने दरवाज़े की सांकल को पुनः कसा. जोखिम इस ओर अधिक है या उस ओर? संदेह का सांप करवट बदलने लगा. बेबस आँसू पोंछते हुए वह यीशु- मंदिर के आले पर माचिस तलाशने लगी.
तुम्हारे दोनों हाथ खून से लथपथ हैं. जलती तीली ने चेताया.
गिलगिला तीखा दर्द उसकी उंगलियों के बीच उछलने लगा. दर्द से नहीं, हालातों से होंठ भींचे उसने मोमबत्ती जलाकर मेज पर रखे शीशे के सामने रख दी. प्रकाश के बड़े गोले ने उसे अपनी परिधि में शामिल कर लिया. उसकी दाईं आँख के पास लीच चिपकी थी. हाथों पर भी, गर्दन पर भी, बालों में भी. खून के कई परनाले यहाँ- वहाँ बह रहे थे. मोमबत्ती उठा वह थके कदमों से रसोई में आ गई. देह और कपड़ों पर चिपकी लीच चिमटी से बीन कटोरी में डालने लगी. उसे लगा एक लीच हटाने पर चार और निकल आ रही हैं. पुरानी स्कर्ट जगह- जगह से चिर गई थी. खीझते हुए उसने स्कर्ट खोल दी… कमीज भी… अंतर्वस्त्र भी…. लीच का विस्तृत जाल उसकी धमनियाँ बन गया था. अपनी इस देह का रेशा-रेशा विलगाकर भी मुक्ति संभव नहीं. नमक की बरनी सिर पर उड़ेलती वह घुटनों में सिर दिए फफक उठी. यह पहली बार था क्या? बोझिल नीरवता के बीच वह देजा वू की इस अनुभूति को पकड़ने का प्रयास करने लगी.
भंवरों ने नहीं गिद्धों ने कलियों का रसपान किया था
अपंग स्मृतियों के घटाटोप ने याद दिलाया कि वह कमरा ऐसा श्रीहीन नहीं था. उत्सव का माहौल था. ढोल नगाड़ों की आवाज उसके इतने करीब बज रही थीं कि कानों के पर्दे फटने लगे थे. शोभना बनने का वह उसका पहला दिन था और वह यूँ ही निर्वस्त्र बैठी थी घुटनों में सिर दिए… फफकते हुए. तब भी उसकी आहें सुनने वाला कोई नहीं था. धुंधली स्मृतियों के स्याह सायों ने एक चमकीली तस्वीर फेंकी. वह दुल्हन- सी सजी थी. रेशमी साड़ी, फूलों और गहनों से लदी अपने रूप पर कुछ इठला भी रही थी.
यह अधूरी तस्वीर है. उसने तस्वीर की चिंदियाँ सायों की ओर उड़ाते हुए चिल्लाया.
मैं अकेली नहीं थी. मुझ जैसी कई लड़कियां थीं. कोई भी दस साल से बड़ी नहीं.
इतनी सारी दुल्हनें लेकिन दूल्हा कोई नहीं. सायों ने ठहाका लगाया.
पुजारी के अस्पष्ट उच्चारण संगीत के शोर में डूब जा रहे थे. इससे बेपरवाह वे जल्द से जल्द सारी धार्मिक प्रक्रिया पूरा करना चाहते थे. देसी विदेशी पर्यटकों को अंतिम चरण की प्रतीक्षा थी. तेज उद्घोष के साथ नववधुओं को विवस्त्र होने का निर्देश दिया गया. लताओं ने अपने हाथ बढ़ा उनके नन्हे उभारों और कंदराओं को ढका. उपस्थित भीड़ की अश्लील उत्तेजना चरम पर थी. कुछ और करीब से देख लेने की चाह में भगदड़ मच गई थी. देवघर के पट बंद कर दिए गए.
आवाक दुल्हनें पाषाण निर्मित अपने दूल्हे को अपलक देखती रह गईं. दूल्हा दंभी था. उसके इशारों पर दुनिया का कारोबार चलता था. हर काम के लिए उसने चाकर रखे थे. इन दुल्हनों के भोग के लिए भी लंबी कतार थी. अभी रजस्वला भी न हुई इन लड़कियों को दिन- रात कई घुड़सवार रोंदते रहे और देवता अर्धउन्मीलित नैनों संग मद्धिम मुस्कान देता इस नृशंसता से अछूता बना रहा.
कहीं कोई शोक सभा नहीं हुई न ही कोई निंदा प्रस्ताव पारित किया गया. केवल भंवरों ने शिकायत की कि कलियों को छलने का उनका पहला हक था, गिद्धों का नहीं. गिद्ध अपनी क्षमता पर खुद ही पीठ ठोंकते गर्वित अट्टहास करने लगे फिर कुछ मनुहार के बाद जल्द दोनों पक्षों में समझौता हो गया, देवता का प्रसाद मिल-बांट कर खाने में कल्याण था.
सायों की ठिठौली गायब हो गई, कमरे में मुर्दानगी गहरा गई. वे कोनों में विलीन हो गए. तूफान लौट आया था. आसमान फट पड़ने पर आमादा हो गया था. अचानक खिड़की के बाहर चमकी बिजली में उसे एक तमतमाता चेहरा याद आया. उस रात भी ऐसी ही मूसलाधार बारिश थी. जोसेफ के चेहरे पर पहली बार चिंता दिखी. उसके नाम का भेद खुल गया था. उसकी उजली पीली रंगत, बादामी आँखें और सुनहरे बाल शोभना नाम के आवरण में असल पहचान छिपा लेने में असमर्थ थे. पूरे गाँव में विवाद तूल पकड़ गया था. प्रजापति की बेटी नंदिनी देवसेवा से वंचित रह गई थी. उसे गहरा संताप था. विजातीय, विधर्मी, विदेशी लड़की ने उसका हक छीना था, देवता को दूषित किया था. मंदिर के मुखिया को गोरी देह के लोभ में अपना पद गंवाना पड़ा. हथियारों को तराशा जा रहा था, आरोपियों को तलाशा जा रहा था. रात का अंधेरा ओढ़े वे कई गांवों की सरहद लांघ आए थे. अब वह न शोभना थी न नैंसी. वह नैंसी का चेहरा लिए शोभना की देह हो गई थी.
लाल फूलों की उदास कतारें
उस बरस पारे ने नीचे गिरने के सारे रिकॉर्ड तोड़ देने की ठानी थी. धमनियों में खून जम उठा था. सर्द हवाओं संग बर्फ के कतरे नश्तर से चुभते थे. चारों तरफ फैली सफेद चादरों की तहों में रेंगता स्याह दुर्भाग्य दबे पांव, निर्ममता से उनकी ओर बढ़ रहा था. घर की किचकिच में उसकी सरसराहट अनसुनी रह गई थी.
घुप्प अंधेरे में जोसेफ ने जब उसे सोते से जगाया, उसे अचरज, ग्लानि और गहरा भय हुआ कि ऐसी काली रात उसकी आँख भी लग सकती है. बोझिल, उनींदी देह अज्ञात यात्रा पर घसीट दी गई थी. रात के नाखून पैने थे. क्षण भर में देह से आत्मा खरोंच वहीं दफना दी गई. मलिन क्षोभ निर्दोष बर्फ की देह पर उतर आया था. उनके रक्तरंजित जूतों ने लाल फूलों की कई कतारें घर के पास खिला दी थी. पकड़े जाओगे! फूलों ने तंज किया था लेकिन सुबह के सूरज ने आँख मारते हुए बचा लेने का आश्वासन दिया था और उसने अपना वादा निभाया भी.
कितने-कितने अस्फुट स्वर और विलाप वह चाहकर भी स्पष्ट याद नहीं कर पाती. शहर बदले, देश बदले, धर्म बदला, पहचान बदली, रिश्ते बदले… और जब अतीत धुंधला होते-होते पूर्णतः ओझल हो, विस्मृत हो चुका, वर्तमान ही एकमात्र सत्य जान पड़ने लगा तब हेड नर्स ने अपने आत्मीय हाथ उसके कंधों पर रख उसे यातना के असहनीय नर्क में धकेल दिया. अजीब विडंबना थी. जब गलत घट रहा था तब सही दिखता था अब सही राह तलाशते हुए उसके गलत सिद्ध होने का भय धुकधुक किए है.
देह को देह की दरकार बनी थी
जोसेफ ने संभवत: कभी कोई चाँद पूरे होश में नहीं देखा लेकिन अब दिन भी कठिन हो चले थे. मूर्छित होकर जब वह सिर के बल गिरा तब वह अपनी रात्रि ड्यूटी से लौटी ही थी. अस्पताल में हुई जांचो ने बताया कि उसके दोनों गुर्दों ने काम बंद कर दिया है. दवाइयों और डायलिस के लंबे दौर के बाद गुर्दा प्रत्यारोपण अंतिम विकल्प था. खर्चे की जोसेफ को कोई फिक्र नहीं थी. रूप सौंदर्य के कद्रदान ढूँढने में उसे महारत हासिल थी. जोसेफ ने कोई याचना नहीं की थी स्पष्ट निर्देश दिया था. उसने कोई आपत्ति नहीं की थी, उसका सहज दायित्व था. जोसेफ के जीवन की कामना करते हुए उसने कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए थे.
यह तब की बात. आज जोसेफ की अपने निकृष्ट जीवन के प्रति गहन लालसा उसे चकित करती है. जाने वह कौन-सा कर्ज है जिसे चुकाते उसकी युवा देह भी जर्जर हो उठी है. उसकी अंतिम किश्त उसे अपना गुर्दा देकर चुकानी है. उसने गहरी सांस छोड़ते खुद को दिलासा दिया. गले में लटके क्रास को उसने मुट्ठी में भर लिया.
किताब के सब किस्से छलावा थे
“तमाम बुरे में एक अच्छी खबर है.” हेड नर्स ने उसके सामने रिपोर्ट रखते हुए फीकी मुस्कान दी थी, “टिश्यू बायोप्सी की रिपोर्ट आ गई है. तुम सूटेबल डोनर हो.”
उसने हाँ में सिर हिलाया था. जाने पीड़ा को झटकने के प्रयास में या नियति से जीतने की हठ में.
हेड नर्स की अनुभवी आँखेंं अभी भी उसपर टिकी थीं.
“एक बात बोलूं?” तेज-तर्रार महिला का थरथराता, कांपता स्वर.
दुश्चिंता में घिरी वह सांस रोक उनकी ओर देखने लगी.
“एक बार और सोच लो. तुम्हारी और जोसेफ की उम्र में बड़ा अंतर है. उसकी जीवन रेखा बढ़ाकर भी क्या हासिल करोगी? तुम्हारे सामने पूरा जीवन है, तीन बच्चे हैं. एक माँ के नाते तुमसे कह रही हूँ. भावुकता में निर्णय मत लो.” उन्होंने उसके गाल थपथपाते हुए कहा और फाइलें भरने लगीं. झाड़ू बुहारती कांता के हाथ रुक गए, कमर सीधी कर वह भी उन्हें देखने लगी. हेड नर्स ने कुछ झिड़कते हुए उसे गलियारा बुहारने बाहर भेज दिया.
“आपको लगता है जोसेफ… बचेगा नहीं?” भय ने उसे जकड़ लिया था.
“ऐसा नहीं, तुम्हारी किडनी बढ़िया मैच हुई है. फिर डाक्टर वेंकटेश की काबिलियत तो तुम जानती ही हो. वह भी कह रहे थे कि रक्त संबंधों के बाहर इतना मैच करना बड़ा आश्चर्य है.”
उसके चेहरे का रंग उड़ गया था. हड़बड़ाहट में धड़कनें एक दूजे पर चढ़ बैठी. घोड़ों की टापों संग दौड़ता सच डराने लगा- लो अब पकड़ा गया झूठ!
“चुप… चुप…” वह चिल्ला उठी. यह कोई आवृत सत्य न था. अपनी नग्न कुरूपता और निर्लज्जता संग उसके सम्मुख सदा बना रहा. उसके इतना करीब कि किसी संशय की गुंजाइश न बची. वह उसे अपने चेहरे की भांति पहचानती रही. अपनी सम्पूर्ण वीभत्सता में इतना आत्मीय, इतना सहज कि उसके सौंदर्य के पैमानों, नैतिकता, अभिजात्य की परिभाषाओं का भी मानक बन बैठा. जीवन ऐसा ऊसर था कि नमी की कनी तक न थी. कोटमसर गुफा की अंधी मछलियों की तरह उसके लिए रोशनी का कोई अस्तित्व नहीं था. जीवन पुस्तिका में सुख- दुख, अच्छा- बुरा जैसे कोई शब्द युग्म नहीं थे. स्याह पक्ष ही उसका सहोदर था. कोई और किताब खंगालने की न कभी आवश्यकता थी न सहूलियत.
हेड नर्स चौंक कर उसके पास चली आई थीं.
उसकी गीली हथेलियों को थामते हुए बोलीं, “माफ करना. तुम्हारी परेशानी बढ़ाना नहीं चाहती थी. हमारे इधर भी कई तबकों में लड़कियाँ रक्त संबंधों में ब्याह दी जाती हैं. तुम मात्र 18 साल की हो. जोसेफ के सुधरने की उम्मीद नहीं दिखती. तुम्हारी जगह मैं होती तो ऐसे पति से छुटकारा पाने की सोचती.”
धुआंसा सच आकार लेने लगा. वह निढाल हो कुर्सी पर बैठ गई. हेड-नर्स राउंड के लिए फाइलें बटोरने लगीं और वह कुर्सी सहित स्मृतियों की अंधेरी कंदराओं में भटकती छूट गई. जालेदार दीवारों से टकराती,लहूलुहान होती… एक निर्वात में गहरे धंसती वह आतंकित हो, चिल्ला उठी-
“जोसेफ पिता है मेरा!” शब्द उसके कंठ में फंसते- फंसते अचानक झटके से निकल गए थे और अब अचानक संदिग्ध हो चली विश्वसनीयता का अनुमोदन मानो हेड नर्स से चाहती हो.
हेड नर्स के हाथ से फाइलें छूट गईं. विस्मय उनकी देहभाषा में तैर गया. लंबी ऊहापोह के पश्चात उनके गर्म हाथ उसके ठंडे कंधों पर चले आए थे. लरजते होंठो से उन्होंने कहा, “हे ईश्वर! कैसे सहा तुमने यह सब मेरी बच्ची?”
स्मृतियों पर संघर्षों की गहरी नजरबंदी थी
आठ साल की उम्र से इस सच को जीते वह ऐसी अभ्यस्त हो चुकी थी कि आत्मा सदा निर्भार बनी रही. उपेक्षित ओझल विस्मृति की भारी चट्टान क्षीणकाय हेड नर्स ने पलभर में खिसका दी. नीचे से असंख्य किलबिलाते कीड़े निकल आए.
उस उनींदी रात घर छोड़ने के बाद जोसेफ की धांधलियों और झगड़ों के कारण मृत्यु अपने मजबूत जूते पहने सदा उनके पीछे भागती रही. जहाँ जीवन हर दिन का संग्राम हो वहाँ सही-गलत विश्लेषण का कोई अस्तित्व नहीं बचता. पिता द्वारा माँ का सिर दीवार में मार हत्या का भी नहीं! माँ की लाश संग घर में अकेले छूट गए दुधमुंहे भाई का भी नहीं! बचपन के सपनों और पाठों का भी नहीं! अबोध बच्ची को अपनी ढाल बना उससे अपनी आर्थिक, दैहिक जरूरतें पूरी करते पिता की हैवानियत का भी नहीं!
महत्व बचा था तो तमाम अजनीबियत के बीच जाने पहचाने शोषक का जो इस नितांत अपरिचित दुनिया में उसका एकमात्र अवलंबन था और शोषण दैनंदिन जीवन की ऐसी सहज प्रक्रिया कि कोई चीत्कार, कोई अस्वीकार उसके भीतर न उठते थे. समय का प्रवाह ऐसा तेज था कि सब संग बहता गया था, किसी मोड़ पर कोई अवरोध नहीं. और अब कैसे सहा का उत्तर तलाशती वह ठहरी है तो दुर्गंधमय कीच से उबकाई नहीं रुक रही.
हेड नर्स की फटी, विस्मित आँखों और सकुचाते हाथों ने ग्लानिहीन जीवन के पाप को प्रकट कर दिया था. क्यों? क्यों? उन्हें पदच्युत कर दिया जाना चाहिए. नहीं वह उनके मशवरों को यूँ अपना नहीं सकती. उसकी निस्संगता को भेद उसे बाजारू बना क्या पाया उन्होंने? शोभना ने क्षणिक हिकारत से सोचा. रुंधे गले की एक लंबी हिचकी और सारा आक्रोश बह गया. हेडनर्स का अहित सोच उसे अब अपनी दुर्बलता पर पछतावा हुआ. वह अपना सिर दीवार में मारने लगी. अस्पताल में हुई कुछ मुलाकातों के बाद उन्होंने कहा था,
“मुझे तुम्हारी मूर्खताओं पर क्रोध आता है और मासूमियत पर दया.” बार बार के गर्भपातों पर उसे लताड़ते हुए उन्होंने ही कॉपर टी लगवाई थी. घर के कामों में बिंधी वह अक्सर नियम से गोली खाना भूल जाती थी और उल्टियाँ शुरू होने पर जोसेफ द्वारा मार खाती थी. उनके ही अनुरोध पर उसे अस्पताल में नौकरी दी गई थी और बच्चों को स्कूल भेजने की सुध भी उनके संपर्क में आने के बाद ही उसे आई थी. उनके सान्निध्य ने उसे नई रोशनी दी है. इन दो दिनों में उसकी माफियों की सूची निरंतर लंबी होती जा रही थी. अपनी सोच पर अफसोस करते उसने गहरी सांस भरी.
शैतानी ताकतों का अंतिम नृत्य
कितनी ही बार उसने शोभना को पुकारा था लेकिन वह आँख चुराए निकल गई. किसी पुकार को सुनने, जानने का उसे समय कब मिला. लेकिन आज सुबह वह अनायास ही वहाँ जा पहुंची थी. घनी हरियाली के बीच छोटा- सा गिरजाघर अपने धवल अस्तित्व के सम्पूर्ण गौरव के साथ सिर उठाए खड़ा था. दुनिया की तमाम हलचलों और विद्रूपताओं से बेखबर. मार्ग के दोनों ओर बागीचा बहुवर्णी फूलों से भरा था. उसे आश्चर्य हुआ कि अभी तक वे उसकी नजरों से ओझल कैसे बने रहे थे. हवा का एक हल्का झोंका मोहक महक उसके पास छोड़ निकल गया. वह बालसुलभ उत्सुकता से हर ओर देखने लगी.
पवित्र शनिवार होने के कारण क्यारियों से निकल कितने ही फूल सरीखे लोग रंगीन पोशाकों में बोल-बतिया रहे थे. एक बच्ची मचल कर अपने पिता की गोद चढ़ गई. पिता ने लाड़ से उसका मुँह चूम लिया. उसके भीतर सन्नाटे सघन हो उठे. वह लौट ही रही थी जब थॉमस ने उसे पुकारा था. उसकी प्रतीक्षा में वह वायलिन हाथ में लिए अपने समूह से कुछ पीछे छूट गया था. “आया करो. अच्छा लगेगा.” वह भागता हुआ पास आकर फुसफुसाया. भारी, धीमे कदमों से वह आखिरी बैंच पर जा बैठी.
लोग पास्का मोमबत्ती जलाकर प्रभु यीशु को याद कर रहे थे. फादर डेनियल जेम्स ने कहा कि सबका आदि और अंत आल्फा और ओमेगा ख्रीस्त के अधिकार में है. ख्रीस्त की ज्योति हमारे भीतरी अंधकार दूर करती है. पवित्र जल के छिड़काव ने उसके दग्ध हृदय को कोई सांत्वना न दी. हाँ, क्वायर के बीच उसकी ओर उठती थॉमस की नजरों की मृदुल छुअन ने जरूर उसके अंतस को गहरा भिगोया था. अबुझी अनुभूति से भयभीत वह सभा छोड़ बाहर चली आई थी.
अगले दिन प्रार्थना सभा के पश्चात, गिरजाघर खाली होने पर उसने स्वयं को आत्म-स्वीकारोक्ति की खिड़की के पास खड़ा पाया. असह्य पीड़ा से उबरने के लिए बड़ी शक्ति से साझेदारी जरूरी थी. उसने क्षमा याचना की थी-
मुझे आशीर्वाद दें यीशु! शांति दें… संबल दें! मैंने… नहीं, पिता ने… नहीं, दोनों ने…? पाप किया है… पाप… आगे के शब्द सिसकियों में डूबते-उतराते रहे थे. पर्दे के उस पार न मालूम क्या ईश्वरीय क्षमा निर्धारित हुई, वह सुनने के लिए रुक नहीं सकी थी. जब सब ख्रीस्त के अधिकार में है, तो क्षमा ही उसके करीब अंतिम विकल्प है अन्यथा पाप से मुक्ति का रास्ता भी क्या पाप से होकर गुजरेगा और नए क्षमादान के लिए उसे पुनः प्रस्तुत होना होगा? यह प्रश्न उसके सामने गिरजाघर के घंटे-सा बजे जा रहा है. मौत के मुहाने पर जोसेफ को छोड़ क्या वह मुँह फेर सकती है. यह हत्या न कहलाएगी क्या?
एक चिलकते दर्द से उसका हाथ बाएँ नितम्ब तक पहुँचा. गिलगिली लीच हाथ पर चिपकी चली आई. वह कुछ अनिश्चय, कुछ विस्मय से उसे देखने लगी. अंधी, बहरी, निरीह लीच, कैसी शातिर! कैसी हिंसक, क्रूर! जब खून चूसती है तब दर्द का अहसास तक नहीं होने देती. यही तो जोसेफ ने किया उसके साथ. ताउम्र उसकी देह से लिपटा उसे चूसता रहा, उसकी चेतना को सुन्न किए. फिर अब चेतन होकर क्या पा लिया उसने? आत्मघृणा, आक्रोश, बेचारगी की कीचड़ में प्रतिपल लिथड़ते हुए इस क्षुद्र, तिरस्कृत ,अवमूल्यित जीवन से कम त्रासद, मृत्यु लगने लगी है.
वह एकटक हथेली पर नाचती लहराती लीच को देखती रही जो अब उसकी उंगलियों के बीच दरार में धंसी खून पी रही थी. उसने आहिस्ता से खींचकर लीच को जमीन पर रखा और पाँव तले मसल दिया. गाढ़े ताजे खून से उसका तलवा सन गया. डरो नहीं, लीच की मृत्यु का दोष नहीं लगता. ताजा खिले लाल फूलों ने उसे चूमते हुए कहा. उसका चेहरा आँसुओं में डबडबा गया.
बादलों की गड़गडाहट को भेद मुख्य द्वार की दस्तक बढ़ती जाती थी. चादर लपेट, एक निश्चय के साथ उसने दरवाजा खोला. तेज पीली रोशनी से आँखें चौंधिया गईं.
“जयासुधा ने डायलन के लिए एंबुलेंस भेजी है.”
जोसेफ की जगह थॉमस को पा, वह निस्तब्ध खड़ी रह गई.
छाता और टॉर्च उसे पकड़ाते हुए थॉमस ने भीतर आ, डायलन को गोद में उठा लिया. अंबर और आरिया को बाँहों में समेटते हुए वह फफक पड़ी. खुले दरवाज़े से भीतर दाखिल होती एंबुलेंस की पीली बत्ती ने कहा, आगे बढ़ो नैंसी. यीशु कई रूपों में मरते हैं, कई रूपों में पुनर्जीवित होते हैं.
निधि अग्रवाल झाँसी पेशे से चिकित्सक हैं.‘अपेक्षाओं के बियाबान’ (कहानी संग्रह) ‘अप्रवीणता’ (उपन्यास), ‘कोई फ्लेमिंगो कभी नीला नहीं होता’ (कविता संग्रह है) आदि प्रकाशित. उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के पं. बद्री प्रसाद शिंगलू पुरस्कार आदि से सम्मानित nidhiagarwal510@gmail.com |
स्त्री जीवन की त्रासदियों के कई गवाक्ष खोलती है यह कहानी.
हार्दिक बधाई निधि जी🌹🌹
निधि को इस कहानी के लिए बधाई। कलात्मक बुनावट और भाषा की सहजता के लिए। कहानी के मर्म को पकड़ने के लिए इस कहानी को दो बार पढ़ना जरूरी है।
वर्तमान के आम हो चुके डिस्टर्बिंग यथार्थ की परतों को सघनता और कलात्मक निरपेक्षता से बुनती उम्दा कहानी। निधि जी को इसे रचने के लिए बधाई
निधि अग्रवाल की कहानियाँ और उनके विषय मेरे पसंदीदा होते हैं। इस कहानी में भी वही है। पर यह विषय इतना आक्रोश पैदा करता है पाठक में कि जिसका कोई सानी नहीं है। अगर जोसेफ मेरे जैसे पाठक के हाथ आ जाता तो ना वो जी सकता था नया मार सकता था। कोई अच्छा समीक्षक यदि कहानी की समीक्षा करे तो बात बने।
वाह निधि, तुम्हारी भाषा बहुत कलात्मक है और विषय के अनुरूप ढल जाती है। प्रकृति का खूबसूरत मानवीकरण और उससे किया गया आत्मीय संवाद, शिल्प का सुंदर नमून प्रस्तुत करता है। 🌹❤️
बैक टू बैक दो बार पढ़ गई यह कहानी. पहली बार कहानी जानने के लिए दूसरी बार कहानी महसूसने के लिए. मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है. पंक्ति दर पंक्ति खुलती कहानी अंत में खुलती है तो दिल धक से रह जाता है. उम्र कम थी तो कहती क्यों सहती हैं औरतें? अब बहुत कुछ सहने की आदत के पीछे के संसार को देखने की कोशिश करती हूं. औरतों की ज़िंदगी को समझने के क्रम में मौन सबसे बड़ी त्रासदी लगता है.
अन्त में खुद को संभालने के लिए फिर एक सहारा! प्रश्नचिन्ह हैं बहुत सारे! औरतों की सहने का मनोविज्ञान बहुत दुखी करता है मुझे..
देवता से लेकर पति, पिता तक…
मुझे लगता है वाक्यों की कलात्मक सघनता कहानी को कम करती है अक्सर.
एक ओर पशुता दूसरी ओर मनुष्यता। स्त्री का पक्ष ममता, प्रेम, करुणा है। दुर्भाग्य से यही उसके उत्पीड़न का कारण भी बनता है। स्त्री पुरुष दोनों को मिलकर मनुष्यता को ही साधना चाहिए, मगर ऐसा कहाँ हो पाता है। शोषण व अन्याय के अंधेरे को चीर कर सामने लाती मार्मिक कहानी।
डॉ निधि जी को कवि के रूप में ही जाना है। हालांकि इनका एक शोधपरक ऐतिहासिक उपन्यास अप्रवीणा पढ़ा है और पालतू गिलहरी गिल्लू के बारे में बहुत रोचक मार्मिक संस्मरण की पुस्तक भी पढ़ी है। निधि जी की यह कहानी चौंकाती है। स्त्रियों के ऐसे संघर्ष से जो अव्यक्त रहता है। पुरुष की भोगवादी मानसिकता का चरम है इस कहानी में। एक दुस्साहसी कहानी की रचना के लिए सलाम।
प्रूफ की गलतियाँ हैं कुछ। शुभेच्छा, सादर स्नेह निधि जी को
बेहद गहरी कहानी, इसका गठन इतना शानदार है कि शब्दों का अलंकरण भी इसके प्रवाह को बाधित नहीं कर रहा था। इतनी सुंदर और संवेदनशील कहानी के लिए आपको बहुत सारी बधाई
दो बार कहानी को पढ़ कर यह लिखने बैठा हूँ. अभी एक बार फिर पढूंगा. समालोचन की कहानियों को मैं कुछ वैसे ही पढता हूँ जैसे पाठ्यक्रम की किताबों को – रैपिड रीडिंग एकदम नहीं.
शैतानी तुरही जब मिली तो मैंने फ़ौरन उसे खोजा. इतना तो समझ में आ गया कि यह ट्रम्पेट की आकृति का कोई फूल है. डेविल’स ट्रम्पेट खोजने पर जाना कि धतूरा है. कॉफ़ी और केले के बागान – अवश्य दक्षिण भारत है. पर सर्दियों में बर्फ? शायद आंध्र का वह अकेला हिल स्टेशन. और जगदलपुर के निकट की कोटमपसर गुफा. जुगराफ़िया समझ में आ गयी.
आंध्र के मंदिरों में देवदासी होती थीं. पता नहीं कहानी किस काल का वर्णन कर रही है. गुर्दे के प्रत्यारोपण का मामला भी है. सत्तर के दशक में भारत में गुर्दे का प्रत्यारोपण शुरू ही हुआ था. शायद अस्सी के दशक की बात हो. प्रत्यारोपण की बात के समय नैंसी / शोभना अठारह की थी. शायद सात-आठ साल पहले उसे भेड़ियों ने नोचा होगा यानी सत्तर के दशक में. सत्तर-पचहत्तर में देवदासी की बात जमती तो नहीं है पर असम्भव भी नहीं हो सकती.
जोसफ को निश्चित ही अलकोहलिक नेफ्रोपथी होगा. उसकी देह भारी भरकम थी. डायबिटिक नेफ्रोपथी की संभावना कम है. यूं तो अलकोहलिक नेफ्रोपथी दवाओं की सुनता है पर अल्कोहल से संयम भी खोजता है. आज जो वह गिरा जरूर प्रत्यारोपण के बाद गिरा होगा. उसके उठ पाने की संभावना कम ही लग रही है.
टॉमस जानता है क्या? मुझे लगता है जान गया होगा. कॉन्फेशन सुनते पादरी ने शायद नहीं कहा हो, शायद हेड नर्स से ऐसी बात नहीं पची हो. और तब पूरा गाँव जान ही गया होगा. क्या टॉमस जान कर भी नैंसी को स्वीकारेगा? ये तो भविष्य के गर्भ में है. जो बात मैं नहीं समझ पा रहा वह है मातृत्व का बस दो ही दिन पहले दस्तक देना. क्यों? कॉन्फेशन के बाद?
और, धतूरे का कैसा बिम्ब?
कहते हैं, सबकुछ बताते बताते कहानी हाँफ जाती है. ऐसी ही ठीक है. झकझोरती, बेचैन करती. निधि जी को बहुत बधाई.
Sachidanand Singh नमस्कार सर। कहानी पर मनन के लिए आभार आपका। एक बार और पढ़ने पर निश्चित ही आपको कई प्रश्नों के उत्तर वहीं मिल जायेंगे। एक उत्तर जो वहां नहीं है के संदर्भ में कहना चाहूंगी कि मेडिकल साइंस में बीमारियों को दो कैटेगरी में बांटा जाता है। पहली श्रेणी primary या Idiopathic कहलाती है और दूसरी श्रेणी सेकेंडरी, जिसका आपने जिक्र किया जहां किसी भी ऑर्गन के डैमेज होने का कोई कारण सामने है जैसे हाइपरटेंशन, diabetes आदि। हालांकि यहां कहानी इन कारणों में नहीं उलझती। पुनः आभार।
इतने दिन से इस कहानी को पढ़ना विलंबित था ,आज इसको पढ़ा और पढ़ने से पहले सिर्फ इतना पता था कि गहन पीड़ा की कहानी है । लेकिन यह दर्द से आगे की कहानी है। यह कहानी दर्द की पराकाष्ठा पर पहुंचकर अब नीचे उतरने के रास्ते की तरफ देखती कहानी है। यह कहानी एक शब्दचित्र सी सामने घटित होती रही। सुबह का अंधेरा,कोहरा, पहाड़ी रास्ते, बच्चों का उनींदापन, जोसफ का नशे में देहगंध को पहचान कामुक होना, हेड नर्स का समझाना सब जैसे सामने घटित हो रहा था।
“जोसेफ पिता है मेरा” वाक्य वज्रपात सा गिरता है। कहानी की प्रवाह जैसे नदी में पहाड़ से गिरी चट्टान की तरह दो पल को रुक जाता है फिर औने कोने तलाशकर आगे बढ़ता है । कहानी पढ़ते हुए अब हर कदम ठहरता है कि अब कितना दर्द बाकी है लेकिन दर्द हद से आगे भी दर्द ही कहलाता है । पिता द्वारा पुत्री का दैहिक शोषण और पुत्री की पीड़ा एक लाइन में बताया जाए तो कथानक इतना सा है लेकिन भाषा शिल्प ने कथ्य को इतना खूबसूरत विस्तार दिया कि कहानी मस्तिष्क के एक कोने में हमेशा के लिए कुंडली मार कर बैठ गई है। कहानी का शीर्षक याद नहीं रहेगा लेकिन वो दृश्य याद रहेंगे जब जोसफ को खोजने जाती है,जब डायलन का लगभग बेहोश शरीर छूती है। जब अपने पापो की माफी मांगती है।
सच्चिदानंद जी की टिप्पणी अपनी जगह वाजिब है ।मेरी भी कई बिंदुओं पर उनसे सहमति है ।बस आपकी भाषा ने सब कुछ भुला दिया।एक बेहतरीन कहानी के लिए आपको बधाई।
एक अपना लिखा शेर इस कहानी की नायिका को समर्पित करती हूं
सुना होगा तुमने दर्द की भी कोई हद होती है
मिलो हमसे हम अक्सर उसके भी पार जाते है
जोसफ पिता है मेरा…ऐसा लगा जैसे आसमान सिर पे आ गिरा हो ।
इस कहानी को कोरी कल्पना तो कतई नहीं कह सकते, पश्चिम बंगाल और बांग्ला देश के सीमावर्ती क्षेत्र में ऐसे ही एक इंसान को मैं जानता था जो अपनी बेहद सुंदर बेटी के लिए कहा करता था कि पहला हक़ तो उसी का है ।
भाषा करिश्माई है आपकी, हर शब्द न जाने क्या कुछ कहते हैं, निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि हिंदी साहित्य जगत में एक नए सितारे का अवतरण अवश्य ही हो चुका है, आपकी कलम को सदैव माँ सरस्वती का आशीर्वाद मिले 🙏