• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » उत्तर भारत के घुमंतू और विमुक्त समुदाय: रमाशंकर सिंह

उत्तर भारत के घुमंतू और विमुक्त समुदाय: रमाशंकर सिंह

ब्रिटिश सरकार ने 1871 में ‘Criminal Tribes Act’ लागू किया था जिसके अंतर्गत लगभग डेढ़ सौ जनजातियों (190 के करीब समुदाय) को जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया गया, उन्हें कभी भी कहीं से भी गिरफ्तार किया जा सकता था. आज़ाद भारत में 1952 में आज ही के दिन, 31 अगस्त को यह कानून निरस्त किया गया. तब से इस तिथि को ‘विमुक्ति दिवस’ के रूप में मनाया जाता है. समाज-वैज्ञानिक और लेखक रमाशंकर सिंह ने उत्तर भारत के घुमंतू और विमुक्त समुदायों पर यह महत्वपूर्ण आलेख लिखा है. बेहद पठनीय और विचारणीय है. इस अवसर पर ख़ास आपके लिए प्रस्तुत है.

by arun dev
August 31, 2022
in समाज
A A
उत्तर भारत के घुमंतू और विमुक्त समुदाय: रमाशंकर सिंह
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

किनारे कर दिए गये लोग
उत्तर भारत के घुमंतू और विमुक्त समुदाय

रमाशंकर सिंह

बचपन के बिम्ब

मेरे घर से पूरब की ओर एक बाग़ थी जिसे हम लोग ‘लाला बगिया’ कहते थे लेकिन उस पर हमारे मौज़े के अन्य आधा दर्जन ठाकुरों का स्वामित्व था-सबके नाम एक-दो आम के पेड़. बाग़ चारों तरफ़ से खुली थी. बारिश के आने के ठीक बाद, सावन-भादो में वहाँ महावतों का एक डेरा आता जिसमें कुत्ते, मुर्गियाँ, भैंस-भैंसा होते और स्त्री पुरुष. लंबे-छरहरे. सुंदर. कान में बाली पहने हुए. वे अपने डेरे में तेज-तेज आवाज़ में बोलते, झगड़ते और गाते. स्त्रियाँ नजदीक के गाँवों में जातीं, गाना गातीं और कान से ‘खूँट’ निकालतीं. पुरुष गाकर भिक्षा माँगते, वे पतले लंबे पेड़ों की छँटाई करते और क्वार से अगहन तक अपने भैंसों(नर) से आसपास के गाँवों के किसानों की भैंसों(मादा) का गर्भाधान कराते. मेरी सबसे पुराने स्मृति बीस रुपये या पाँच-सात किलो चावल की है जो उन्हें अपने भैंसे से किसी भैंस का गर्भाधान कराने के बदले में मिलता था. बचपन में यानी इंटरमीडिएट में पहुँचने तक, कई बार मैं अपने किसान पिता के साथ अपनी किसी भैंस के साथ उनके डेरे पर जाता जब वह ‘हीट’ में आती. तब हम उसे ‘उठना’ बोलते थे. उस समय न तो कोई किसान महावत के डेरे पर पैसा लेकर जाता और न ही चावल. डेरे से लौटने के बाद प्राय: महावत का लड़का और उसकी पत्नी आतीं, चावल या पैसा लेतीं. इसके अतिरिक्त वे अपने जानवरों के लिए भूसा भी ले जातीं. इसका पैसा नहीं देना होता. यह बातें 1999 के पहले और 1980 के बाद की हैं.

लगभग एक दशक तक वे मेरी ज़िंदगी से गायब रहे. 2010 में जब मैंने गोबिंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद से पीएचडी करनी शुरू की तो वे एक बार फिर आ धमके. इस बार वे गणेश देवी, मीरा राधाकृष्ण और भांग्या भूक्या की किताबों में थे. इसने मुझे मेरे बचपन को फिर से याद करने और उसकी पड़ताल करने का एक मौका दिया और तब मुझे लगा कि उनकी जिन आवाज़ों को मैं ‘लड़ाई-झगड़ा’ कहकर टाल देता था, वह तो मेरे सामाजिक पालन की एक घटना थी. मैं उनको जानता ही नहीं था, बस दूर-दूर से ‘देख’ रहा था और उमसें भी वे धारणाएं काम कर रही थीं जिन्हें मेरे परिवेश ने मुझे थमाया था. स्नातक के ही दिनों में मेरे सीनियर अनिल कुमार वर्मा ने रांगेय राघव के ‘कब तक पुकारूँ’ पढ़ने के ले लिए दिया तो था लेकिन मैं उसकी सामाजिकी को समझने में असमर्थ था. हाँ, इस उपन्यास के नायक सुखराम और शिवप्रसाद सिंह के उपन्यास ‘शैलूष’ के लल्लू नट के जीवन से आकर्षित होने लगा था.

2013 में गणेश देवी गोबिंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान आए और उन्होंने लगभग एक चुनौती के रूप में मुझसे कहा कि क्या मैं महावतों के बारे में, उनकी भाषा के बारे में लिख सकता हूँ? लगभग डेढ़ साल की मेहनत से मैंने तीन हजार शब्दों का एक लेख लिख डाला. अब मुझे अपनी सारी धारणाओं को उतार फेंकना था जिसे मेरे परिवेश ने मुझे ओढ़ने को दी थीं. विभिन्न पुस्तकालयों, अभिलेखागारों और घुमंतू जनों से लगातार बातचीत के बाद जो कहानी सामने आती है, वह कुछ इस प्रकार की है.

 

घुमंतू समुदायों का उपनिवेश से सामना

जिन समुदायों को मैंने इतने नजदीक से देखा था, उनका अंग्रेज़ीराज से बड़ा भीषण साबका पड़ा था. उनकी सारी पहचान को जैसे एन नए रूप में अंग्रेज़ी भारत में प्रस्तुत किया गया था. वास्तव में आधुनिक भारत के विभिन्न समुदायों का सामना उपनिवेश से अलग-अलग हुआ और उसी अनुपात में भविष्य में उनकी ज़िन्दगी भी प्रभावित हुई. ब्रिटिश उपनिवेश ने घुमंतू समुदायों के जीवन में एक स्थायी बहिष्करण, हिंसा और कलंक को स्थापित कर दिया. वास्तव में ब्रिटिश शासन का आरम्भ, 1857 के बाद, प्रजाकरण की एक कठोर औपनिवेशिक परियोजना से हुआ. ऐसा नहीं था कि भारतीय समाज में बहिष्करण और कलंक ब्रिटिश उपनिवेश के आगमन से पहले नहीं था. विभिन्न जातियों और पेशों के प्रति यह पहले से था, और विभिन्न रूपों में पुनरुत्पादित होता रहता था लेकिन वह कठोर परिभाषा और वर्गीकरण में सिक्काबंद भी नहीं था. अब यह कठोर और शास्त्रीय होता गया. ब्रिटिश शासन में कोई भी व्यक्ति या समुदाय उपनिवेश की प्रजा हुए बिना बचा नहीं रह सकता था. वे लोग जो शहरों और गाँवों की सुनिश्चित चौहद्दी में बसे थे, उन्हें आसानी से प्रजा बना लिया गया. उन पर राजस्व और कानून-व्यवस्था के नियम आसानी से लागू किए जा सकते थे. दूसरी तरफ ब्रिटिश उपनिवेश द्वारा अपरिभाषित क्षेत्रों के रहवासी जैसे चलवासी पशुपालक, घुमंतू समुदाय, पर्वतों के दुर्गम इलाकों में रहने वाले लोग, समुद्र तटों पर रहने वाले,  मछुआरे और नदियों के किनारे बसने वाले समूह उनकी विश्वदृष्टि में खटक रहे थे. वे आसानी से ब्रिटिश उपनिवेश की प्रजा नहीं बन रहे थे और उनके ऊपर कानूनों की पाबंदी उस तरह से लागू नहीं हो पा रही थी जिस प्रकार मुख्य भूमि पर बसने वाले समूहों पर लागू हो जाती थी. इसी तरह से वे राज्य की सांख्यिकीय कल्पनाओं में अँट नहीं पाते थे. वास्तव में आधुनिक समय में जनगणना उपनिवेश का सबसे महत्त्वपूर्ण जुगत बन गयी और इसने उपनिवेश और उसके द्वारा स्थापित राज्य के औचित्य प्रतिपादन की सबसे शक्तिशाली भाषा भी विकसित कर ली थी.[1]

इस भाषा और कल्पना में इन समूहों को समाहित करने के लिए सर्वथा एक नए कानून की आवश्यकता थी इसलिए ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट, XVII, 1871’ के तहत देश की एक बड़ी जनसंख्या को आपराधिक जनजाति घोषित कर दिया गया. यह कानून एक साथ ही कई आवश्यकताओं की पूर्ति करता था.[2] इससे न केवल 190 के करीब समुदाय कानून की निगहबानी में ले आए गए बल्कि उन्हें एक ऐसी सामाजिक श्रेणी में परिभाषित प्रजा में बदल दिया गया जिसका नियंत्रण औपनिवेशिक राज्य के पास था.[3] इस कानून की व्यापकता इसी से पता चलती है कि 1947 में जब देश आज़ाद हुआ तो केवल तब उत्तर प्रदेश में पूरे भारत की ‘क्रिमिनल ट्राइब’ की जनसंख्या का 40 प्रतिशत निवास कर रहा था. 1500,000 लोग उत्तर प्रदेश में इस श्रेणी मे चिन्हित किए गए थे.[4]  उन्हें ‘जन्म से अपराधी’ (क्रिमिनल ट्राइब्स) कहा गया जाता था. बाद में 1952 में जब ऐसे समुदायों को इस श्रेणी से निकालने की प्रक्रिया शुरू हुई तो वे ‘विमुक्त’ समुदाय कहे गए. [5]

ऐतिहासिक रूप से ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति हुई थी, इसके बाद बाड़ांबंदी की गयी और कृषि से अतिरिक्त श्रम शहरों की ओर कूच करने को बाध्य हुआ. दूसरी तरफ ब्रिटेन में कृषि का भी आधुनिकीकरण हुआ. इसके विपरीत भारत में कृषक जीवन पद्धति से बाहर एक बड़ा समूह मौजूद था. इस समूह में वनों में रहने वाले और नदियों के किनारे गुजारा करने वाले समुदाय थे. उनका वनों और नदियों से जुड़ाव था. इस जुड़ाव को औपनिवेशिक शासन ने न केवल भंग कर दिया बल्कि उसने ‘अनाज उपजाने वाले किसानों से परिपूरित गाँव’ का विचार प्रसारित किया गया.[6] इतिहासकारों का ध्यान इस ओर गया है कि राज्य प्रायोजित सिंचाई परियोजनाओं और भूमि को संपत्ति बना देने के बाद किस प्रकार चरागाही, घुमंतू और अन्य वैकल्पिक जीवन प्रणालियाँ बहिष्करण का शिकार होती गयीं. ब्रिटिश शासन के दौरान विकसित भूमि व्यवस्था में ‘शामिलात देह‘ एक खास भूमि होती थी. इस पर पशुओं को चराया जाता था. भूमिहीन घुमंतू चरागाही जनों को किसानों से परिपूरित गांव की कल्पना से बहिष्कृत कर दिया गया.[7] इसके कारण ‘गाँव में जाति-प्रथा, कृषक सम्बन्ध, विभिन्न जातियों के बीच सामाजिक एवं सांस्कृतिक सम्बन्ध, जजमानी व्यवस्था’ का अध्ययन हुआ लेकिन इस दायरे के बाहर के वैकल्पिक समुदाय अकादमिक विमर्श में पीछे छूटते गए.

यह समुदाय ‘मुख्य धारा के समुदाय की संरचना में अवांछित’ करार दिए दिए गए. जी. एन. देवी का मानना है कि इंग्लैण्ड और यूरोप में भी घुमंतूओं के प्रति एक अलग नजरिया काम कर रहा था. उन्हें कम प्रतिष्ठा प्राप्त थी, इसका कारण सत्रहवीं सदी में इंग्लैण्ड और फ्रांस के बीच जारी युद्धों में बड़ी संख्या में सैनिक रखने और उन्हें वेतन देने के लिए बहुत सारे धन की जरूरत थी. धन जुटाने के लिए उन्होंने कर संग्रह के प्रारूप में बदलाव किया. पहले उपजाऊ फसलों पर कर लेने का प्रावधान था लेकिन अब भूमि मापन के आधार पर कर आरोपण किया गया. जो कर अदा कर सकते थे समाज में उनकी इज़्ज़त  थी और जो भूमिहीन थे, कर नहीं अदा कर सकते थे, समाज में उनकी इज़्ज़त कम होने लगी.[8]

भूमिहीन वैकल्पिक समुदायों की भी समाज में इज़्ज़त इतनी कम हो गयी कि इन्हें संशय की दृष्टि से देखा जाने लगा. यूरोप के जिप्सी समुदाय को वहाँ बहुत प्रताड़ना सहनी पड़ी. इस बात का असर औपनिवेशिक भारत में अंग्रेज प्रशासकों पर भी हुआ उसके परिणामस्वरूप घुमन्तू जनों को आपराधिक जनजाति सूची में रख दिया गया. इस एक्ट को पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत, पंजाब और अवध में लागू किया गया. इसने पुलिस को बहुत अधिकार दिए. समुदायों को पुलिस थाने में जाकर अपना पंजीकरण करवाना होता था. पुलिस उन्हें एक लाइसेंस देती थी. वे पुलिस की अनुमति के बिना जिले से बाहर नहीं जा सकते थे. यदि वे अपना स्थान बदलते तो इसकी सूचना पुलिस को देनी होती थी.[9]

सौजन्य: भगवानदास मोरवाल

बिना पुलिस की अनुमति से यदि समुदाय का कोई सदस्य एक से अधिक बार अपनी बस्ती या गाँव से अनुपस्थित रहता था तो उसे तीन वर्ष तक का कठोर कारावास का भागीदार होना पड़ता था. उनके लिए स्पेशल रिफॉर्म कैंप की भी व्यवस्था की गयी जिसमें उन्हें सुधारा जाना होता था. उत्तर प्रदेश[10] में इस प्रकार के रिफॉर्म कैम्प खीरी और कानपुर के रुरा में खोले गए. इन स्कूलों को खोलने में सॉल्वेशन आर्मी की केंद्रीय भूमिका थी. इसी प्रकार का एक सुधार स्कूल इलाहाबाद जिले में भी खोला गया. यह स्कूल फूलपुर में था जहाँ ‘चोरी-बदमाशी पेशावालों की लड़कियाँ’ सिलाई-कढ़ाई का काम सीखती थीं. ‘चोरी-बदमाशी पेशावालों की लड़कियाँ’- यह वाक्य खंड शालिग्राम श्रीवास्तव ने अपनी किताब ‘प्रयाग प्रदीप’ में लिखा में 1937 में लिखा था. यह दिखाता है कि आज़ादी आने के मात्र दस वर्ष पहले तक वह पहचान एक सामान्य पहचान बन चुकी थी जिसे सरकार ने एक कानून के द्वारा सृजित किया था. खैर, 1910 में यह स्कूल फूलपुर में एक परित्यक्त अफीम गोदाम में खोला गया जिसके लिए सॉलवेशन आर्मी के कमिश्नर बूथ-टकर ने युनाइटेड प्रोविंसेज के सचिव एम. एल. स्टुअर्ट को राजी कर लिया.  बूथ-टकर ने सरकार को मस्का लगाते हुए यह भी लिखा कि इस स्कूल का नाम ‘फूलपुर द लेडी हेविट गर्ल्स होम’ रखा जाए. इसके लिए सरकार ने तीन हजार रुपयों का अनुदान भी मंजूर किया. इस स्कूल में विभिन्न ‘क्रिमिनल ट्राइब्स’ की बालिकाओं को लाया जाना था जिन्हें ‘इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग’ दी जानी थी. इसमें रेशम के कीड़े का पालन, बुनाई और सिलाई का काम होना था. 26 नवम्बर 1910 को लिखे एक पत्र में बूथ-टकर ने एम. एल. स्टुअर्ट को सुझाव दिया कि फूलपुर इलाहाबाद शहर से मात्र 25 किलोमीटर दूर है, इसलिए यहाँ जो माल तैयार होगा, वह शहर में बेचा जा सकता है. इन लड़कियों को ‘व्यवहरिक प्रशिक्षण’ देकर आया का काम दिलाया जा सकता है जिसकी आजकल काफी माँग है. यहाँ यह ध्यातव्य है कि ब्रिटिश शासन क्रिमिनल ट्राइब से श्रेणीकृत अपनी प्रजा को उस प्रकार की शिक्षा देने के पक्ष में नहीं थी जैसी शिक्षा वह ‘मुख्यधारा के समाज’ के बालक-बालिकाओं को देती थी.

इस तरह उपनिवेश ने भारत का एक नैतिक और सामाजिक बोध गढ़ने की जो परियोजना आरम्भ की, उसके प्रमुख धारक इन्हीं समुदायों के लोग थे. अफ़ीम गोदामों में इसी प्रकार के स्कूल रुरा, कानपुर और कर्वी, बांदा में खोले गए. गोरखपुर में डोम समुदाय के लिए वहाँ की एक पुरानी जेल के एक हिस्से को सुधार स्कूल में बदला जाना था, जिसे उच्चाधिकारियों ने नहीं माना और कहा कि ‘डोम आकर यहाँ पर फिर ‘छोटी-मोटी चोरियाँ’ करेंगे. 1922 में कानपुर शहर के भौगोलिक सीमांत पर कल्याणपुर में हबुड़ा और भातू समुदाय के लिए एक सुधारगृह और स्कूल की स्थापना की गयी. वास्तव में उपनिवेश द्वारा यह मानकर चला जा रहा था कि यह समुदाय पतित हो गए हैं और उन्हें एक नए किस्म के नैतिक शास्त्र की आवश्यकता है. सॉल्वेशन आर्मी इसमें ब्रिटिश उपनिवेश की सहायता कर रही थी. यह दोनों के लिए फायदे का सौदा था. सॉल्वेशन आर्मी को धर्म प्रचार में सहायता मिलती थी और उपनिवेश को बिना पैसा खर्च किए अपनी प्रजा में ‘ब्रिटिश नैतिक शास्त्र’ को बढ़ावा देने का अवसर मिल जाता था. खीरी में खोले गए कैम्प में सॉल्वेशन आर्मी को काफी सहायता मिली. मुरादाबाद के सांसी समुदाय के लोगों को लखीमपुर लाए गए. एटा के भाटू काशीपुर में बसाए गए. सॉल्वेशन आर्मी के एफ. बूथ टकर बार-बार ऐसा दिखा रहे थे कि ऐसा करके वे सरकार की कितनी बड़ी सहायता कर रहे थे. यहाँ तक कि एक बार जब सहारनपुर से काशीपुर के लिए भाटू समुदाय को ले जाना था तो इसके लिए सरकार को एक हजार रुपये का बजट आवंटित करना पड़ गया. सरकार भाटू जनों पर विशेष ध्यान दे रही थी क्योंकि वे ‘आसानी से काबू में नहीं’ हो रहे थे. इसी समय एटा और मैनपुरी के ‘क्रिमिनल ट्राइब्स’ को काशीपुर के कैम्प में स्थानांतरित किया गया. इस प्रकार औपनिवेशिक पुलिस, ईसाई नैतिकता और भारतीय समाज की वंचना एक ही दायरे में सक्रिय होकर इन समुदायों का वर्तमान और भविष्य निर्धारित कर रही थी.

खैर, इन सबका एक प्रभाव यह पड़ा कि घुमंतू जन मजबूरी में बसने लगे और इसी के साथ वे जहाँ भी बसे, उस बस्ती को पुलिस की सीधी नज़र में लाया गया. इन बस्तियों को कलंकित बस्ती होने में देर न लगी. उन्हें स्थानीय शक्तिशाली लोगों ने बसाया भी और इसी के साथ 1871 के क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट के प्रावधानों ने स्थानीय जमींदारों को जोड़ भी दिया था. जमींदारों को न केवल पंजीकरण में पुलिस की सहायता करनी होती थी बल्कि वे पंजीकृत समुदायों के सदस्यों की खोज-खबर भी रखते थे. अवधी के प्रसिद्ध साहित्यकार बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’ ने कहानी ‘पाँखी’ के नाम से लिखी थी. 1930-40 के दशक में कभी लिखी गयी इस कहानी में ‘रजिस्टर नंबर दस’ का उल्लेख किया गया है जिसमें इन समुदायों का विवरण लिखा जाता था.[11]

समुदाय की ‘पहचान’ निर्धारित करने का अधिकार उच्च अधिकारियों को दिया गया. उत्तर प्रदेश में गोंडा जिले के बरवार समुदाय को 1 जुलाई 1884 को आपराधिक जनजाति घोषित किया गया. उनकी बस्तियों को चिन्हित किया गया और उनकी संख्या को दर्ज किया गया. उत्तर प्रदेश के इंस्पेक्टर जनरल की रिपोर्ट में लिखा गया कि यह ‘विश्वास करने के पर्याप्त कारण’ हैं कि गोंडा के बरवार, एटा के अहेरिया और ललितपुर के सुनरहिया समुदाय को अपराधी घोषित कर दिया जाए. क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट के घोषित होने के दो वर्ष बाद ही 1873 में ग्यारह गाँवों के 48 अहेरिया परिवारों को इसके अधीन अपराधी घोषित कर दिया गया. अलीग़ढ़ के अहेरिया समुदाय के लोगों के साथ भी यही हुआ. गोरखपुर के डोम 1880 के बाद इस कानून की जड़ में आए और उन्हें अपराधी घोषित किया गया. इसी प्रकार बस्ती जिले के पुलिस अधीक्षक ई. जे. डब्ल्यू. बेलेयर्स की 1913 की एक रिपोर्ट बताती है कि अगस्त 1911 में परसुरामपुर थाने के एक दर्जन के करीब गाँव अपराधी घोषित किए गए. इन गाँवों में खटिक समुदाय के लोग रहते थे. इस प्रकार इस औपनिवेशिक कानून ने व्यक्ति, समुदाय और एक दिए गए दायरे (स्पेस) को कलंकित करने की जो परियोजना शुरू की, वह अभी भी महीन रूपों में जारी दिख सकती है जब किसी स्थान को किसी धर्म, समुदाय, लिंग और नस्ल के रहने वालों के कारण कलंकित कर दिया जाता है.

औपनिवेशिक भारत में इस कानून का सबसे बड़ा झटका निषादों को भी लगा. उनकी अधिकांश बस्तियाँ प्रायः नदियों के किनारे थीं. ब्रिटिश शासन के प्रकट और अप्रकट रूपों से उनका रोज का सामना हो रहा था. नदियों पर क़ब्जा जमाया ही जा रहा था. रेलवे के आगमन ने उन्हें लगभग दरिद्रता और बेरोजगारी की ओर धकेल दिया था. यही बात अन्य समुदायों के साथ भी हुई थी. बनारस के कलेक्टर ने 1883 में यह दर्ज किया कि ईस्ट इण्डियन रेलवे के कारण गंगा में बंगाल की तरफ जाने वाला नौ व्यापार घटता जा रहा है. पहले यह पाँच-छह लाख माउंड से घटकर एक लाख माउंड रह गया है.  और जैसे ही गंगा पर रेलवे का पुल बन जाएगा तो यह भी समाप्त हो जाएगा. ध्यातव्य है कि इससे पहले गंगा नदी पर डुमरी और राजघाट के बीच नावों वाला एक पुल बनता था जो नवम्बर से जून तक काम करता था. उसी समय अवध एण्ड रुहेलखण्ड कम्पनी गंगा पर रेलवे पुल बना रही थी. इन सब कारणों से निषाद समुदाय में गरीबी का प्रसार हुआ. नदी में उनकी गतिविधियाँ सीमित होते-होते स्थानीय हो गयीं. उनके ‘मल्लाही महीने’ गायब हो गए. मल्लाही महीने वे महीने होते थे जब नदियों में बहुत ज्यादा पानी भरा होता था और समाज आवश्यक परिवहन के लिए उन पर निर्भर रहता था. जुलाई से अक्तूबर तक वे नदियों के बेताज़ बादशाह हुआ करते थे. इसके बाद के महीनों में मछली का शिकार और उत्सवों का मौसम आ जाया करता था. नौ चालन भी इस समय बेहतर होता था. पुलों के निर्माण और स्टीमर ने उनके इस अवसर को बहुत ही सीमित कर दिया. वर्ष 2020 के अगस्त-सितम्बर में चंदौली जिले के एक नाविक ने यह बात बलुआ घाट के पुल की ओर इशारा करते हुए कही थी :

“इस पुल ने हमारे लोगों को गरीब बना दिया. पहले हम नदी पार कराने वाले एकमात्र बिरादरी थे. अब आप इक्का, जीप, कार या बस के द्वारा पुल पार कर लेते हैं. अब किसी को हमारी जरूरत नहीं है.”

उस समय मुझे बनारस के कलेक्टर की 1883 की रिपोर्ट याद हो आई. उत्तर प्रदेश में कानपुर, इलाहाबाद और वाराणसी में निषाद जनों ने सामूहिक और एकल बातचीत में यह बात बार-बार दोहरायी है. ऐसा नहीं है कि वे पुराने युगों में लौट जाना चाहते हैं बल्कि अपनी वर्तमान गरीबी को वे अपने अतीत के आलोक में देखते रहते हैं. मौखिक इतिहास कमजोर समुदायों के लिए कभी-कभी मरहम का काम करता है लेकिन उसका सामना करना आसान नहीं होता है. निषाद जनों के लिए आधुनिक भारत का इतिहास सरल और ऋजुरेखीय नहीं रहा है. जुलाहों की तरह उनकी भी हड्डियाँ गंगा के मैदानों में कबूतर की अस्थियों की तरह सूखती रही हैं लेकिन उसके विवरण आर्थिक इतिहासकारों ने उस प्रकार से नहीं जुटाए हैं जिस प्रकार अन्य समुदायों के इतिहास पर काम करने वाले इतिहासकारों ने किया है. आधुनिक भारत में ब्रिटिश उपनिवेश का निषादों से सीधा सामना हुआ. गंगा नदी को निरापद बनाने की कोशिशें तो 1820 के दशक से हो रही थीं लेकिन ब्रिटिश शासन को एक बड़ी बढ़त 1871 के कानून से मिल जाती थी. जनगणना रिपोर्टों में निषादों पर ध्यान केंद्रित किया गया. इलाहाबाद, बलिया, जौनपुर, फ़ैज़ाबाद, लखनऊ, कानपुर, एटा, मैनपुरी, आगरा, मथुरा, बुलंदशहर और अलीगढ़ के मल्लाह 1910 में क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट के अधीन ले आए गए. उन्हें सामान्य कानून व्यवस्था के साथ-साथ रेलवे के लिए भी खतरनाक माना जाने लगा. आगरा और मथुरा के अधिकारियों के रिपोटों में  इसी ओर इंगित करती हैं. निषादों में ‘चाईं’ उप समुदाय के ऊपर विशेष ध्यान देने की बात बार-बार नोटिस की जा सकती है.

रेलवे उपनिवेश को मजबूती देती थी लेकिन यह उन समुदायों के लिए भी उपयोगी साबित हो रही थी, जिनके आने-जाने पर नियंत्रण स्थापित किए जाने की कोशिश की जा रही थी. माना जा रहा है था कि आगरा और मथुरा के मल्लाह रेलवे को न केवल चकमा देते हैं बल्कि उनकी संपत्तियों को नुकसान पहुँचाते हैं, छोटी-मोटी ‘उठाईगिरी’ करते हैं. इसके लिए दूसरे अन्य प्रांतों के पुलिस और खुफ़िया अधिकारी इस बात पर बार-बार जोर दे रहे थे कि युनाइटेड प्रोविंस के मल्लाहाओं पर नज़र रखी जाए और उनके वित्तीय लेनदेन पर विशेष ध्यान दिया जाए. वास्तव में इस दौर में ही गठित डाकखानों ने लोगों को मनीऑर्डर से पैसा भेजना आसान बना दिया था. 1880 के दशक से उत्तर भारत के औपनिवेशिक अधिकारी यह भी मानने लगे थे कि आपराधिक जातियाँ इनका उपयोग ‘सुरक्षित पैसा’ भेजने में करती हैं लेकिन वे प्राय: इसका कोई सबूत नहीं पाते थे. कभी-कभी इन जातियों के सदस्यों की जेब में कुछ धन होना भी मुसीबत का कारण बन जाता था और पुलिस उन पर चोरी का शक करती थी. बहुत बाद में इसे एक नाटक में दर्ज किया गया है जहाँ एक शबर आदिवासी को इसलिए पुलिस पकड़ लेती है कि वह एक दुकान पर पान खाने आया था. पुलिस के शक का आधार यही था कि उसके पास पैसा कहाँ से आया होगा? ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लेख है कि विश्वामित्र ने अपने पुत्रों को आज्ञा दी थी कि वे शुनःशेप को भाई मानें. पुत्रों ने उसकी आज्ञा नहीं मानी. विश्वामित्र ने अपने इन पुत्रों को शाप दिया कि वे सभी आंध्र, पुंड्र, शबर, पुलिंद और मूतिब हो जाएँ. शबर जनों के प्रति जो आरम्भिक भारत का दृष्टिकोण था, आधुनिक भारत में उसमें उपनिवेश के कानून और पुलिसिया नजरिये का मेल हो गया. जातियों के बहिष्करण की कहानी कोई एक दिन में घटित नहीं हुई है. उसने एक लम्बा समय लिया है.

भारत के आज़ाद होने की पूर्व बेला में जब भारत की संविधान सभा का गठन हुआ तो ‘आपराधिक जनजातियों’ को अधिकार देने की बात उठी. सेंट्रल प्रोविंस और बरार से संविधान सभा में आए एच. जे. खांडेकर ने 21 जनवरी 1947 को उन ‘एक करोड़ लोगों की बात उठायी जो जो जन्म लेते ही बिना किसी जुल्म के जरायम पेशा मान लिए जाते हैं’. उन्होंने इस समुदाय के लिए सुरक्षात्मक उपाय लागू करने की अपील की.[12]

21 नवम्बर 1949 को एक बार फिर उन्होंने संविधान सभा का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की. उन्होंने कहा कि इस संविधान के अधीन बोलने की आजादी और कहीं भी आने-जाने की आजादी तो दी जा रही है लेकिन देश के एक करोड़ अभागे नागरिकों को आने जाने की आजादी नहीं है. यहाँ के अपराधी जनजातियों को कहीं भी आने-जाने की सुविधा अभी प्राप्त नहीं है. इस संविधान में इनके बारे में कुछ नहीं कहा गया है. क्या शासन ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ को हटाकर उन लोगों को स्वतंत्रता प्रदान करेगा ?[13]

संविधान सभा में तो इस बात पर आगे कोई चर्चा तो नहीं हुई लेकिन उसी वर्ष 28 सितम्बर 1949 को ही गृह मंत्रालय ने अनंतशयनम अयंगर की अध्यक्षता में एक ‘क्रिमिनल ट्राइब्स इनक्वायरी कमेटी’ का गठन कर दिया था और 1950 में जब इसकी रिपोर्ट आयी तो इन समुदायों का दुर्भाग्य देखिए कि एक बार फिर कहा गया कि यह समुदाय बस तो जाएंगे लेकिन अपराध करते रहेंगे. इसलिए उन्हें ‘आदतन अपराधी’ अधिनियम में पाबंद किया जाये. साथ ही उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए ईमानदारी और कर्मठता के जीवन में लाने की बात की गयी. इस तरह कमजोर और सुभेद्य समुदायों की ईमानदारी और कर्मठता का अभिभावकत्व आज़ाद भारत की सरकार ने ले लिया. यह अभी भी यदा-कदा प्रकट होता रहता है. पहले जो समुदाय ‘नोटीफाइड’ थे, अब वे ‘डि-नोटीफाइड’ हो गए. पहले वे अपराधी कहे जाते थे. अब कहा गया : ‘अब आप अपराधी नहीं माने जाएंगे.’ यह एक दूसरी कम अपमानजनक पहचान को इन समुदायों पर आरोपित कर देने जैसा था.

 

आज़ाद भारत के अनुभव

क्रिमिनल ट्राइब एक्ट के लागू हुए 150 वर्ष हो गए हैं. एक अनुमान के मुताबिक 100 में से 6 लोग विमुक्त समुदायों से जुड़े हैं. इनकी बेहतरी के लिए गठित रेणके कमीशन और इदाते कमीशन दोनों ने माना है कि यह समुदाय गरीबों में भी सबसे गरीब हैं. इनकी ठीक-ठीक से जनसंख्या नहीं पता है. इनकी जनगणना होनी चाहिए. आजकल ‘कास्ट सेंसस’ की काफी चर्चा रहती है. ओबीसी समूहों ने इसके लिए व्यापक लामबंदी की है, लेकिन यहां ध्यान रखना चाहिए कि इदाते कमीशन ने स्वयं माना है कि मुख्य जनसंख्या के साथ इन समुदायों की जनगणना कराने की आवश्यकता है. अब यह समूह राजनीति और लोकतंत्र के दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं. देश की 94 प्रतिशत जनसंख्या को इनकी आवाज़ सुनने की जरूरत है. पिछले वर्ष यानी 2021 में देश की जानी-मानी पत्रिका ‘इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ इन समुदायों के इतिहास, राजनीति और भविष्य पर एक ऑनलाइन विशेषांक प्रकाशित किया था.[14] पिछले वर्ष से ही एंथ्रोपोलिजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया और नीति आयोग मिलकर एक देशव्यापी सर्वेक्षण कर रहे हैं जिसकी रिपोर्ट का विभिन्न अध्येता बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं.

 

घुमंतू और विमुक्त समुदायों की दुनिया

लगभग एक दशक होने को आए हैं. इस बीच मैंने उत्तर प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न समुदायों के जीवन को नजदीकी से देखा है. उनके प्रति वृहत्तर समाज के नज़रिये को समझने की कोशिश की है और पाया है-

घुमंतू और विमुक्त समुदाय प्रायः भूमिहीन हैं. रोजगार देने वाली किसी औपचारिक शिक्षा से वे दूर हैं. समाज के सबसे निचले स्तर के श्रम बाजार में वे स्वतः नियोजित हैं जैसे कूड़ा बीनने के काम में, ईंट भट्टों पर या दिहाड़ी मजदूरी पर. बेघरी चरम पर है. स्वास्थ्य का स्तर पहली ही नज़र में गिरा हुआ दिखाई देता है. चूंकि वे किसी अच्छी जगह नियोजित नहीं हैं और सबसे खतरनाक कामों के करने के लिए बाध्य हैं इसलिए पुरुष विकलांगता/दिव्यांगता की दर काफ़ी तीव्र है. महोबा, ललितपुर, बांदा, औरैया, उरई, कानपुर नगर और देहात, इलाहाबाद, कौसाम्बी, फतेहपुर, झाँसी, आगरा, मथुरा, मेरठ, मुरादाबाद, अलीगढ़, बनारस, चंदौली, गोंडा, बहराइच, अयोध्या, लखनऊ, लखीमपुर खीरी और जहाँ भी मैं इन समुदायों के डेरों, बस्तियों, गाँवों और राजकीय बस्तियों में गया हूँ, वहाँ मुझे इस भौतिक तथ्य ने दुःखी किया है कि किसी नौजवान या किशोर का हाथ, पैर, आँख या शरीर के कोई अंग को गंभीर चोट से खराब हो गया है और वह जीवन भर के लिए कष्ट से घिर गया है. एक बार एक जगह मैं फील्डवर्क कर रहा था, उसी समय एक व्यक्ति के ऊपर ट्रक से एक पत्थर उस समय गिर गया जब वह वहाँ पर अपना मजदूरी वाला काम कर रहा था. बाद में उसका कमर से नीचे का हिस्सा बेकार हो गया. यह दर्दनाक है. जैसे-जैसे समाज के बिलकुल निचले और उपेक्षित दायरों की तरफ़ आप जाएंगे तो यह दर्द बढ़ता जाएगा.

यह मानी हुई बात है जो सबसे निचले स्तर पर उसका अधीनस्थीकरण सबसे ज्यादा होता है. एक कलंदर, नट, बहेलिया, मोघिया, कंकाली, पथरकट, सांसी, भातू और ऐसे ही समुदायों को वाइसराय की कलम और पुलिस थाने के चौकीदार के बीच स्थित सभी सत्ताधारियों- अधिकारी, जमींदार, स्थानीय प्रभु वर्ग- के अत्याचार का शिकार होना पड़ा है. यह इतना सतत और तीव्र रहा है कि कुछ समुदायों ने उस सच को अपना सच तक मान लिया जिसे उपनिवेशवाद और उसके स्वाभाविक भारतीय सामाजिक संरचनाओं ने गढ़ा था.

आज भी उपनिवेश का थमाया हुआ दृष्टिकोण न केवल बना हुआ है बल्कि कई-कई बार तो तीव्र हुआ है. यहीं, राजधानी दिल्ली में, कश्मीरी गेट से यमुना नदी की तरफ जाते समय मई 2022 में एक व्यक्ति ने मुझसे कहा कि वहाँ कहाँ जा रहे हो? उधर तो चोर रहते हैं. यही बात मजनू के टीले के पास चाय की एक दुकान पर एक अध्यापक ने कही. अध्यापक एमए तो पास ही रहा होगा ! अभी कुछ समय पहले आगरा में फील्डवर्क करने के बाद, शाम को एक सस्ते से होटल में खाना खाते समय एक अनजान व्यक्ति ने एक समुदाय विशेष के बारे में कहा: वहाँ जा तो रहे हो सावधान रहना.

कोविड ने भारतीय जनों को सैनीटाइज़र, डोलो टैबलेट और वेबसीरीज का चस्का लगा दिया है. वेबसीरीज तो मुख्यता अर्बन मिडिल क्लास और बेरोजगार युवाओं में समय काटने का जरिया बन गयी है. लोग एक दूसरे को वेबसीरीज ऐसे सुझाते हैं जैसे वे किसी कविता संकलन का नाम सुझा रहे हों! तो ऐसी ही एक वेबसीरीज ‘दिल्ली क्राइम सीजन 2’ नेटफ्लिक्स पर प्रसारित हो रही है. और इसके ख़ास सीन को रविंदर कुमार ने मुझे भेजा.

रविंदर आईआईटी मद्रास में पीएचडी के छात्र हैं. मैंने अपने एक दोस्त से नेट फ्लिक्स का पासवर्ड माँगा और उस ख़ास हिस्से को देखा जिसकी व्याख्या मयंक कुमार ने की है और कहा है कि ‘फिल्ममेकर्स की इंटेंशन तो बढ़िया थी मगर क्या करते- बेचारे सेवियर कॉम्प्लेक्स के मारे भी तो हैं. सो बना दी’. [15]

यह सेवियरपन कभी-कभी शोधकर्ताओं में भी पाया जाता है, जिससे उन्हें बचना चाहिए.

संदर्भ
____________

[1] कल्पागम, यू (2014), रूल बाइ नम्बर्स : गवर्नमेंटालिटी इनकॉलोनियल इण्डिया, नयी दिल्ली, ओरियंट ब्लैकस्वान, पृष्ठ 17.
[2] निगम, संजय (1990), “डिसिप्लिनिंग एण्ड पोलिसिंग द क्रिमिनल बाइ बर्थ, भाग-1, द मेकिंग ऑफ़ अ कॉलोनियल स्टी रियोटाइप- द क्रिमिनल ट्राइब्ज एण्ड कास्ट्स ऑफ़ नॉर्थ इण्डिया”, इण्डियन इकोनॉमिक एण्ड सोसल हिस्ट्री रिव्यू, 27, 2, पृष्ठ 257-287.
[3] देवी, जी. एन. (2017), द क्राइसिस विदिन : नॉलेज एण्ड एजुकेशन इन इण्डिया, नयी दिल्ली, अलेफ़ बुक्स, पृष्ठ 62- 71.
[4] https://journals.sagepub.com/doi/abs/10.1177/001946469002700201
[5] क्रिमिनल ट्राइब्स इनक्वायरी कमेटी की रिपोर्ट(1951), गवर्नमेंट इण्डिया प्रेस, नयी दिल्ली: 28.
[6] गुहा, सुमित (1999), एनवायरेनमेंट एंड एथ्नीसिटी इन इंडिया: 1200-1991, कैम्ब्रिज़ युनिवर्सिटी प्रेस, कैम्ब्रिज़.
[7] सरकार, सुमित (2014), माडर्न टाइम्स 1880-1950, परमानेंट ब्लैक, 91-92.
[8] देवी, जी. एन. (2017).
[9] राधाकृष्ण, मीना (2001) डिसऑनर्ड बाइ हिस्ट्री : ‘क्रिमिनल ट्राइब्ज एण्ड ब्रिटिश कॉलोनियल पॉलिसी, नयी  दिल्ली, ओरियंट ब्लैकस्वान.
[10] उत्तर प्रदेश से सम्बन्धित सभी विवरण उत्तर प्रदेश राज्य अभिलेखागार लखनऊ, क्षेत्रीय अभिलेखागार प्रयागराज और क्षेत्रीय अभिलेखागार वाराणसी से हासिल फ़ाइलों से जुटाए गए हैं. ज्यादा जानकारी के लिए ‘नदी पुत्र : उत्तर उत्तर भारत में निषाद और नदी’, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, सेतु प्रकाशन, नोयडा 2022 पढ़ें.
[11] रामविलास शर्मा एवं युक्तिभद्र दीक्षित(1999), पढ़ीस ग्रन्थावली, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ, पृष्ठ 185-204
[12] भारतीय संविधान सभा के वाद-विवाद की सरकारी रिपोर्ट(2015), पुस्तक संख्या एक, लोक सभा सचिवालय, नयी दिल्ली, पृष्ठ 15.
[13] भारतीय संविधान सभा के वाद-विवाद की सरकारी रिपोर्ट(2015), पुस्तक संख्या आठ : 3885.
[14] https://www.epw.in/engage/article/criminalisation-and-political-mobilisation-nomadic   
[15] https://navbharattimes.indiatimes.com/web-series/latest/opinion-delhi-crime-season-2-denotified-tribes-history-filmmakers-saviors-complex-shefali-shah/articleshow/93829793.cms

रमाशंकर सिंह डॉ. अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में एकेडमिक फ़ेलो हैं. वे इस समय वहाँ पर  ‘अभिलेखागार, पांडुलिपि और ज्ञान के प्रसार’ पर काम कर रहे हैं. उत्तर भारत के घुमंतू समुदायों के जीवन और राजनीति पर उनकी किताब अपने अंतिम दौर में हैं.

ram81au@gmail.com

Tags: 20222022 समाजnomadic-and-denotified-tribesउत्तर भारत के घुमंतू और विमुक्त समुदायघुमंतूदिल्ली क्राइम सीजन 2निषादरमाशंकर सिंहविमुक्त समुदाय
ShareTweetSend
Previous Post

जसविंदर सीरत (पंजाबी): अनुवाद: रुस्तम

Next Post

रूस, रशिया और रासपूतिन: यतीश कुमार

Related Posts

2024 : इस साल किताबें
आलेख

2024 : इस साल किताबें

चरथ भिक्खवे : रमाशंकर सिंह
आलेख

चरथ भिक्खवे : रमाशंकर सिंह

बुद्ध और नेहरू: आधुनिक भारत की खोज: रमाशंकर सिंह
इतिहास

बुद्ध और नेहरू: आधुनिक भारत की खोज: रमाशंकर सिंह

Comments 12

  1. Madhu B Joshi says:
    3 years ago

    Hila denevala vivran. Nishadon ke dinondin badhte hashiyakaran ne kuch kala rupon ko bhee khatm kiya hai.
    Darasal is samaj kee durgati ke itihas ka pata mujhe chitrkala ke ek roop ke lupt ho jane se hee mila.

    Agami kitab ka intzaar hai.

    Reply
  2. प्रवीण कुमार says:
    3 years ago

    पढ़ गया । जबरदस्त है। मुझे तो इस लेख में एक उपन्यास नज़र आ रहा है.

    Reply
  3. Dr Chaitali sinha says:
    3 years ago

    पूर्वाग्रह से ग्रसित मानसिकता का खण्डन होना बहुत लाज़मी है आपके इस आलेख को पढ़ने के पश्चात्। यह सच है कि ब्रिटिश हुकूमत ने न केवल भारत की धन संपदा को लूटा बल्कि एक ऐसे समुदायों का जीवन भी सदा के लिए संदेह के कटघरे में खड़ा कर दिया है जिसका हर्जाना यह समुदाय आज भी चुकाने को विवश है। बहुत ही महत्वपूर्ण और संवेदनशील विषय पर आधारित यह आलेख आज सर्वाधिक प्रासंगिक भी है । आपको साधुवाद।

    Reply
  4. विजय बहादुर सिंह says:
    3 years ago

    पढ़ा।प्रामाणिक और महत्वपूर्ण है।रमाशंकर और मेरा अंचल एक ही है।वे गोंडा और मैं फैजाबाद का ।अवध ही अवध।उनके इस शोधपूर्ण निबंध में शासन और उसके द्वारा सुविधा प्राप्त समाजों की वह निगाह काम कर रही है जिसे आजतक सिर्फ अपनी ही चिंता रही है।रमाशंकर स़िह ने अपने लेखन में तटस्थता बरती हैऔर करणा से काम लिया है।
    व्यवस्था और तंत्र का आधारभूत चरित्र आजादी के बाद भी बदला नहीं है।नंगा सच यही है कि सत्ताधीश बदले हैं उनका नजरिया नहीं।यों भी समूचा भारतीय समाज आज भी अपने मूल चरित्र में अस्सी प्रतिशत वर्णवादी है।और यही सबसे चिंतनीय है।

    Reply
  5. बटरोही says:
    3 years ago

    रमाशंकर जी ने बहुत आकर्षक ढंग से जानकारियों को अपडेट किया है। मैंने सबसे पहले इनके बारे में काॅर्बेट की ‘मेरा हिन्दुस्तान’ में पढ़ा था। जानकारी देने के लिए धन्यवाद।

    Reply
  6. धनंजय वर्मा says:
    3 years ago

    आदमी का आदमी के शोषण का, रोंगटे खडा कर देने वाला शोध परक आख्यान.सिंह सा.को सलाम

    Reply
  7. कुमार अम्बुज says:
    3 years ago

    यह ज़रूरी आलेख, खोजपरक सुंदरता के साथ लिखा गया है। बधाई। और धन्यवाद भी। (शिरीष खरे की नयी पुस्तक में भी एक घुमंतू जाति की मार्मिक विवरण है।)

    Reply
  8. nathnikhil021 says:
    3 years ago

    बहुत अच्छी जानकारी आप अपने लेख में लाते हैं.

    Reply
  9. sudeep Thakur says:
    3 years ago

    अत्यंत महत्वपूर्ण आलेख। औपनिवेशिक शासन के इस पहलू पर कम ही लिखा गया है। वंचितों, आदिवासियों और घुमंतू समुदायों के साथ अंग्रेजों का व्यवहार माई-बाप वाला ही रहा। घुमंतू समुदाय के लोगों को आज तक औपनिवेशिक शासन के दिए कलंक के साथ जीना पड़ रहा है। शोध परक और दिशा दिखाने वाला आलेख।

    Reply
  10. Rajesh Singh bhadoriya says:
    3 years ago

    अत्यंत ज्ञानवर्धक व शोधपरक आलेख

    Reply
  11. Alok singh nishad says:
    3 years ago

    जिनके बारे में कही भी चार लाइने लिखी नही मिलती उनके बारे में आप ने पूरा शोधपत्र ही दे डाला।
    निःसंदेह आपकी एक एक शब्द व शब्दावली शत प्रतिशत सत्य है।

    धन्यवाद सर

    Reply
    • Surendra kumar says:
      2 years ago

      आपके इस शोध से मुझे यह जानकारी मिली कि गोरखपुर के डोम 1880 के बाद इस कानून की जड़ में आए और उन्हें अपराधी घोषित किया गया। डोम जाति को क्रिमिनल ट्राइब एक्ट में रखा गया था लेकिन कब किया गया यह स्पष्ट नहीं था। आपका बहुत बहुत आभार

      Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक