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Home » और तितली उड़ गई: नूतन डिमरी गैरोला

और तितली उड़ गई: नूतन डिमरी गैरोला

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला पेशे से चिकित्सक हैं और कविताएं लिखती हैं, संग्रह प्रकाशित हो रखा है. कुछ महीनों पहले ‘महादेवी वर्मा स्मृति’ पेज पर उनकी इस कहानी का वाचन सुना था, उत्तराखंड की संस्कृति, जीवन और स्त्री की अपनी इच्छाओं के ताने-बानों से बुनी इस कहानी का प्रभाव गहरा था. उनसे यह कहानी मांग ली थी सो आज वह कहानी यहाँ प्रकाशित हो रही है. कल जब डॉ. गैरोला को प्रकाशन की सूचना के लिए फोन किया तो पता चला कि सख्त बीमार हैं और अस्पताल में भर्ती हैं. जल्दी स्वस्थ हों यही कामना है और कहानियाँ लिखें यह आग्रह भी है.

by arun dev
July 22, 2021
in कथा
A A
और तितली उड़ गई: नूतन डिमरी गैरोला
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और तितली उड़ गई
नूतन डिमरी गैरोला

“बिंदुली?

जी हां बिंदुली,

वह लाल, पीली, नारंगी, नीली, आड़ी तिरछी रेखाओं वाली या कभी गोल-गोल बूटी वाली साड़ी में, तो कभी धोती में बेतरतीबी से लिपटी हुई, सेब के बगीचों में तो कभी अखरोट, पुलम और खुबानी के पेड़ों के नीचे, तो कभी दाल के या आलू के खेत में गुड़ाई करती, सीढ़ीदार खेतों से उतरती किसी पहाड़ी नदी से कम उछलती मचलती नहीं लगती.

तो वहीं कभी ऊँचे डाँडो (छोटी पहाड़ी) के पाखों में चट्टानों के बीच, जहां पैर भर जगह भी रखने को न होती वहां चढ़ लंबी-लंबी घास काटती और उन चटख रंग रँगीली साड़ी में दूर से लोगों को, चट्टान पर बैठी किसी रंगीन तितली से कम न दिखती थी, कभी वह बसंत में पहाड़ को पीले घाघरे में लपेटने वाले खास प्यूली के फूलों सी पीली बसंती हो जाती तो कभी जंगलों में हरे-हरे पेड़ों पर खिल उठे सुर्ख बुरांस सी हरी भरी लाल हो खिल उठती, वह अपनी ही बेखबरी में खोई कभी इतना खिलखिला कर हँसती कि सामने वाला भौचक हो समझ नहीं पाता था कि वह इतना क्यों हँसी.

एक दिन बिंदुली जंगल से घास का बहुत बड़ा भारा ला रही थी. उसके साथ उसकी दो दग्ड्या (साथी) रीना और पुन्नी भी थे. तीनों के पीठों पर लदे उनके घास के भारे उन्हें पूरी तरह ढाँपे हुए थे और वे अपने-अपने भारों के नीचे दबे आगे की तरफ नब्बे डिग्री पर झुक कर एक-एक कदम बढ़ाते तो उनके हर कदम पर उनके ऊपर की घास झक्क-झक्क झूलती थम-थम हिलती तो यूं लगता मानो पहाड़ पर हरी घास के छोटे-छोटे तीन टीले सरक रहें हों. उनके नीचे दबी तीनों स्त्रियों से पसीने की धार-धार उनके माथे और शरीर से लुढ़क कर पगडंडी पर गिर रही थी उनके कपड़े पसीने से भीगे हुए थे. वे अपनी तरजनी को मोड़ माथे से पसीना एकत्र कर छिटक लेतीं और बीच-बीच में पल्लू से मुंह पोंछ लेती.

खड़ी चढ़ाई में धौंकनी हुई सांस से उच्छवास भरते हुए उनके मुंह से हुईशी, हुईशी की सीत्कार निकल रही थी. वे अपनी सामर्थ्य से ज्यादा भार ढो रहीं थीं, पहाड़ की खड़ी चढ़ाई थी. शायद आज उन्हें अच्छी घास मिली थी. कल का क्या भरोसा. इसलिए ज्यादा से ज्यादा घास काट लायीं लेकिन वे थक रहीं थीं.

सो वहीं गांव के बाहर उन्होंने घड़ी भर सुस्ताने के लिए, पीठ के भारे को, खड़ंजे वाली पगडंडी के किनारे की दीवार पर पड़े चौरस पत्थर पर  टेका, और थोड़ा सुसताईं. वहां पर बांझ के पेड़ की छाया भी थी और धार (पहाड़ का बाहरी हिस्सा) की ठंडी हवा भी आ रही थी. उसके साथ उसकी दगड्या रीना ने भी दीवार पर टेक लगाया और लंबी सांस भरी- हुसस्स.

पर तीसरी दोस्त पुन्नी रुकी नहीं उसे घर पहुँचने की जल्दी थी. होती भी क्यों न ? वह दुधमुंही सात महीने की गुनिया को घर अपनी सास के भरोसे छोड़ कर आई है. गुनिया की दादी कान से कम सुनती है और कहीं भैंस को चारा देने चली गयी होगी और गुनिया गोया लगाते हुए (दुधमुंहे बच्चे अपने चारों पांवों पर चलने की कोशिश करते हैं) चोट खा जाए या गिर जाए, दादी तो सुन भी न पाएगी. उसे जल्दी घर पहुंचना चाहिए,  वह भारे के बोझ के नीचे यही सोचते मंद-मंद चाल से पगडंडी में ‘जा रही हूँ’ कह आगे की ओर बढ़ चली.

तो बिंदुली ने अपनी आदत के अनुसार पुन्नी को मजाकिया अंदाज़ में आवाज लगा कर रुकने को कहा. वह रुकी नहीं तो अपने गितवार दिमाग से कुछ गीत जैसे बोल बना कर खिलखिलाते हुए पुन्नी की ओर हवा में उछाल दिया, पुन्नी चाहें सुने न सुने-

फुरफुरे तू उडाण्दी कख
बिसो बिसो भारा यख
तू जाणी कॉ तेरी गेल्याणि यख
क्वे त्वीते फूल माला नि पेरोलु तख
काजे ही काजे बिखर्या छः जख
द्वी घड़ी थाकि बिसौ ली यख

(फुर-फुर करती तू उड़ती कहाँ है आराम के लिए अपने भारे को यहां रख
तू कहाँ जा रही तेरी सहेलियां तो यहां हैं
कोई तुझे फूल माला नहीं पहनाएगा वहां
बस काम ही काम तेरे लिए बिखरे होंगे जहां
ऐ री! दो घड़ी थकान मिटा ले यहां.)

उसके इस खिलंदड़ी गीत पर रीना भी मुस्कराने लगी, बोली-

हुम्, बड़ी गितवार हो गयी है

अपनी बिंदुली

बिंदुली बोली- कोई सजीली बात हो, कोई हंसी की बात हो, किसी के आराम की बात हो तो फूंक दो गिच्चे से (मुंह).

फिर दोनों बुक्का फाड़ कर हँसने लगीं.

फिर थोड़ी मस्ती के मूड में रीना बोली- बिंदुली! एक गीत लगाते हैं साथ-साथ ..

– कौन सा गीत गाये??

-चूड़ी बजली छमाछम?

– या फिर कोई बाजूबंद (लोकगीतों की एक विशिष्ट शैली)

तिस पर बिंदुली ने जाती हुई पुन्नी की ओर इशारा करते एक गीत के बोल निकाले:

जरा माठु-माठु (हौले हौले)

जरा ठुमा ठुमा,

मेरी रंग रंगीली,

मेरी ओ छबीली, नि जाई डांड्यू (पहाड़ी )मां.

फिर दोनों सहेलियां हँसने लगीं

वही पगडंडी के नीचे अपने घर के चौक पर रुकमा बाहर सरसरा कर चलती हवा के झोंके के साथ दाल सतरा कर साफ कर रही थी और साफ दाल को संजोली (रिंगाल की लकड़ी की बनी हथकंडी) में रख रही थी. उसने इन्हें हँसता देखा और बिंदुली पर नजर पड़ी तो दुखम्पा के खेतों की व्ओढे (खेत की सीमा) के लिए परिवारों की बरसों पुरानी लड़ाई दिमाग में घूमने लगी तो उसी के चलते वह रुकमा पर कुछ खुन्नस उतारने के अंदाज़ से बोली, यूं भी वह बिंदुली से डेढ़ बिसी (बीस साल) बड़ी तो है ही, बिंदुली को समझाने का अधिकार तो उम्र और अनुभव उसे देता है, रिश्ते में जेठानी भी है सो रुकमा बोली:

ए री बिंदुली! जरा ठंड भी रखा कर, जब देखो बरड़ बरड़ (ज्यादा बोलना), शांति से भी बात हो सकती है. इतना शोर??? भारी जोर-जोर के हँसती है. हह … बिंदुली, तू तो बहू है गांव की, थोड़ा शर्म लिहाज़ भी बनता है रे. गांव की छोटी-छोटी बेटी माटीयां क्या सीखेंगी तुझसे?

बिंदुली की आश्चर्य से आंखें गोल-गोल हो आयी एकबारगी उसने साड़ी के पल्लू को भींच कर मुंह में दबा दिया. फिर रीना की ओर देख बोली पर मुखातिब रुकमा से थी-

— ए बेss..(बे-माँ) इस रुकमा दीदी को क्या हुआ रे – हः हँसने पर भी गुस्सा हो रही है रे.

फिर बिंदली ने एक चुटकी में रुकमा दीदी को जवाब भी दे दिया..

“ए रुकमा दीदी! बल, जिसको लागे शरम उसके फूटे करम और दीदी बता क्या हँसने मुसकुराने के कोई पैसे लगते हैं, जो मैं हैसु बोलूं तो सोच समझ कर, हिसाब कर करके हेसु.

फिर वह घास का गडोला वहीं तप्पड़ के चौरस पत्थर पर रख नीचे रुकमा दीदी के चौक पर जा पहुंचीं. .

रुकमा के पैर छुवे और रुकमा के गाल को ही प्यार से छू कर एक बुक्की भर (लाड में दिया जाने वाला चुम्बन) ली उसने. रुकमा तो हतप्रभ रह गयी उसके प्यार भरे व्यवहार पर.

उधर बिंदुली साथ-साथ कहे जा रही थी-

अरे दीदी तू भी हंस ले मेरे साथ. छोटी सी जिनगी है. क्यों पेट में दबा कर रखी है हँसी, निकाल ले इसे बाहर खूब खुशी मिलेगी और फिर हंस दी थी इहीहीही फिर रीना की ओर देख कर बोली : “चल आ तू भी, गुदगुदी लगाते हैं रुकमा दीदी को. इन्हें हँसी आ जायेगी.”

रुकमा अवाक सी रह गयी: भगवान बचाये इन शैतान छोरियों  से. क्या समझाने जा रही थी मैं क्या समझाने आ गयी ये. (पर अबकी बार रुकमा के शब्दों में स्नेह था)

बिंदली बोली: ए रुकमा दी! भारी तीस*(प्यास) लग गयी गला सूख रहा है एक लोटय पानी देना और अगर छाँ (मट्ठा) भी बनाया हो तो थोड़ा सा ले आना.

ओं ओं .. कल ही छा बिलोई है मैंने कह कर रुकमा मकान के निचले खंड में जिसे ओबरा कहते हैं के भीतर गयी और एक बड़े लोटे में पानी और दूसरे लोटय में पर्या में ढाँपा मट्ठा ले आयी. दोनों सहेलियों ने उस वक्त थकान मिटाई और गर्मी में अपनी आत्मा तर की.

रुकमा न चौक के किनारे संतरे के पेड़ से रसीले संतरे तोड़े और बिंदुली और रीना को दिया खुद भी एक संतरा छीलते हुए उनसे बतियाने लगी. फिर बात ही बात में खेत के वओढे के बात आई तो बिंदुली बोली ए दीदी हमें तो काम ही करना है ज्यादा खेत ज्यादा काम. फिर कौनसा खेत ले कर हम कहीं जाएंगे. खेत ने यहीं रह जाना, हमने चले जाना है एक दिन. बस मन मत जलाया कर खुश रह और एक दिन उन खेतों ने भी ढुल जाना है. देख ठीक रगड़ा (भू स्खलन) उन खेतों के नीचे तक आ गया है. मैं तो बिल्कुल सोचती ही नहीं इन बातों को, सोचने दो इन मर्दों को.

रुकमा बोली- औ ली! तू ठीक कह रही, हमने तो काम ही करना है खेतों में और अपनी मुसीबतें बढ़ाना ही है. न तुझको मिलना है न मुझको और उन्हें थाम कर हम कब तक जीएंगे.

सही कह रही तू हम आपस में खुश रहे यही बड़ी बात है पर जो सही बात हो ये मर्द लोग देख लें नहीं तो बराबर हिस्सा कर लें. न तेरी न मेरी और हम दोनों की … कर लें

हाँ दीदी ये लोग जो भी करें हम तो आपस में बना कर ही रहेंगे.

दोनों सहेलियों अब जा रही थी तो रुकमा ने बिंदुली को प्यार से छाकु दिया और गले लगा कर बोली, – ए मेरी.. आते रहना. भूलना नहीं इस रास्ते को. दीदी तेरा इंतजार करेगी.

बिंदुली ने रुकमा का हाथ थामा-

हाँ दीदी! तुम इस यकुलकार (नितांत अकेले) में क्या रहती हो? सिर्फ धाण-धाण (काम काम). बेटे बहू तो जब बाहर देश में रहते है. तो अपने लिए भी समय निकालना. दीदी कभी मन न लगे तो मेरे पास आ जाना. तुम्हारे खेत में रोपणि, बुआई में पढोल*(सामूहिक मदद) लगाने हो निश्चिंत हो कर मुझे रैबार* (संदेश) भेज देना .. मैं आ जाऊंगी.

रुकमा सोचती रह गयी कितना अपनापन है इस बिंदुली में और मैं इसे समझ नहीं पाई थी,वह बिंदुली को प्यार भरी नजरों से दूर तक जाते देखती रही. जब तक उसके घास का गट्ठर आंखों से ओझल न हो गया.

कभी लोग आपस में बातें करते, गंभीरता पूर्वक कहते- रे बिंदुली! इतने घने वन और पाखों में तू घास लकड़ी काटती है. यत्ति तड़कीली भड़कीली लाल पींगली साड़ी पहनती है और फिर क्या ऊंची भोंण (धुन) में न्योली (एक किस्म का लोकगीत) गाती और जोर-जोर के हँसती बोलती है. जबकि जंगलों में ये यह सब मना है. तुझे एड़ी आछड़ी* का डर नहीं लगता क्या रे?

और तू तो एड़ी आछड़ी से बचने के सारे जंगल के कानून तोड़ती है, तुझे भी हर ले जाएगी वो कभी, जैसे रीखुली को हर ले गयी थी पिछले साल.

द लो. छि. तुम लोग भी क्या बात करते हो.

एड़ी आछड़ी हम ही हैं लो. हम ही एड़ी आछड़ी को हर लेंगी, मैं तो उन्हें भी दोस्त बना दूंगी फिर अपने साथ घास काटने, खेत खुदवाने में लगा दूंगी और बोलूंगी द खा (एक तरह से ठेंगा दिखाना) एड़ी आछड़ी, बिंदुल हंस पड़ती.

बिंदुली ढेरों काम में हँसते-हँसते हुए जुटी रहती और एक खुशी का माहौल चारों ओर बना कर रखती.

फिर क्या सचमुच बिंदुली के जीवन में कभी दुःख था ही नहीं जो वह बात-बे बात पर हँसती रहती थी.

दिल की इतनी साफ़ थी कि जो कुछ भी मन में आता, खुद को रोके बगैर वह, सामने वालों से जाहिर कर देती थी और कभी तो जोर-जोर से रो भी जाती जब कोई उसका मन दुखाता. तब रास्ते आते जाते लोग ठिठक जाते पर उसे अपनी फिकर न रहती या यूं कहिये कि उसे इस बात की फिकर नहीं रहती कि लोग उसके बारे में क्या कहेंगे, वह नदी जैसी थी कि कोई भी आने वाले आयें या जायें या कुछ भी कहें उसके लिए, उसकी धारा को, उसकी कलकल को कोई रोक नहीं सकता था …

वह निश्छल खुल कर हँसती, उसकी हँसी खनकती हुई वादियों में गूंजती किसी मंदिर की घंटियों से कम न लगती थी.

पर वहीं दूसरी तरफ वह किसी बात पर गुस्से का अहसास मात्र जागने पर खुद ही ज़ाहिर करती और तुनक कर कहती कि जाओ मैं नाराज हूँ तुमसे, मना लो मुझको, और जैसे ही कोई मनाने की बात करता, अगले ही पल खुश हो कर हंस देती पर रंचभर क्रोध या शिकायत को अपने मन में घर बसाने नहीं देती, फिर वह अपनी गलती पर भी मनन करती स्वीकारती सुधारती आगे के लिए.

लेकिन गांव में ब्याह बरात में जब भी कोई लड़की ससुराल के लिए विदा होते रोती, तो बिंदुली विदाई में रो-रो कर सारा गाँव, सारा पहाड़ सिर पर उठा देती. रोते-रोते उसकी सांस हलक पर अटक सी जाती और वह लगभग बेहोश सी होने लगती तब लोग उस पर पानी डालते और संभालते. और कहते

मत रो बिंदुली, दुल्हन भी इतना नहीं  रोई और अब विदा  हो गयी.

पता नहीं इतना दर्द कहां से फूट पड़ता था बिंदुली के भीतर.

अन्यथा बिंदुली का मतलब खुशियों और हंसी की बयार से ही जुड़ा था.

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Comments 8

  1. ज्ञानचंद बागड़ी says:
    4 years ago

    नूतन जी जल्द स्वस्थ होने की कामना है। बहुत सुन्दर कहानी के लिए नूतन जी और समालोचन को बधाई।

    Reply
  2. शिरीष मौर्य says:
    4 years ago

    शीघ्र स्‍वस्‍थ हों। वे लेखक होने के साथ संवेदनशील मित्र भी हैं। यह अच्छी कहानी है। उन्हें ख़ूब शुभकामनाएँ।

    Reply
  3. vandana gupta says:
    4 years ago

    नूतन जी जल्द स्वस्थ हों – पुरानी मित्र हैं – एक संवेदनशील कहानी के लिए हार्दिक बधाई

    Reply
  4. दयाशंकर शरण says:
    4 years ago

    यह कहानी मर्म को छूती है। बहुत बारीकी से एक स्त्री के जीवन की व्यथा और उसके शोषण को तह-दर-तह उघाड़ती है। दुःख की भट्टी में तपकर ही जीवन और निखरता है। कथा नायिका एक यादगार चरित्र है। एक नदी की तरह उसके उन्मुक्त जीवन को भी बाँधना मुमकिन नहीं। इस कहानी में स्त्रीवादी अस्मिता एक अंतर्धारा की तरह मौजूद है। नूतन जी एवं समालोचन को बधाई !

    Reply
  5. मनोज कुमार वर्मा says:
    4 years ago

    बहुत मर्मस्पर्शी कहानी।पूरी कहानी में पहाड़ो का जीवन अपनी गीतात्मक तरलता के साथ उपस्थित है।

    Reply
  6. Naveen Joshi says:
    4 years ago

    बढ़िया कहानी।

    Reply
  7. Uma bhatt says:
    4 years ago

    Nice dear Nutan ,
    पहाड़ी महिलाओं की हंसी,खुशी, दर्द को उकेरती एक अच्छी कहानी लिखी तुमने 👌👌👌❤️

    Reply
  8. Professor Manjula Rana says:
    4 years ago

    नूतन जी, बहुत मार्मिक कहानी,सारे आंचलिक संदर्भों के साथ पर्वतीय जीवन को उद्घाटित करता हुआ कथानक आकृष्ट करता है।आपकी लेखनी को सादर नमन 🙏🎉🎉

    Reply

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