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समालोचन

Home » और तितली उड़ गई: नूतन डिमरी गैरोला » Page 2

और तितली उड़ गई: नूतन डिमरी गैरोला

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला पेशे से चिकित्सक हैं और कविताएं लिखती हैं, संग्रह प्रकाशित हो रखा है. कुछ महीनों पहले ‘महादेवी वर्मा स्मृति’ पेज पर उनकी इस कहानी का वाचन सुना था, उत्तराखंड की संस्कृति, जीवन और स्त्री की अपनी इच्छाओं के ताने-बानों से बुनी इस कहानी का प्रभाव गहरा था. उनसे यह कहानी मांग ली थी सो आज वह कहानी यहाँ प्रकाशित हो रही है. कल जब डॉ. गैरोला को प्रकाशन की सूचना के लिए फोन किया तो पता चला कि सख्त बीमार हैं और अस्पताल में भर्ती हैं. जल्दी स्वस्थ हों यही कामना है और कहानियाँ लिखें यह आग्रह भी है.

by arun dev
July 22, 2021
in कथा
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जैसा स्वभाव था बिंदुली का वैसा ही उसका पहनावा … साड़ी बस लपेटती भर थी.. साड़ी किस करीने से पहनना है, इसका उसे पता नहीं था न जरूरत ही लगी उसे कभी.

आखिर गाँव में इतना काम करना होता है तो तरतीबी से कब तक पहने साड़ी, हल के फल के पीछे दौड़ना, मिट्टी के ढेले फोड़ना और खेत में बीज बोने के लिए बराबर मात्रा में चारों दिशा में छिड़कना, लकड़ी इकट्ठा करना, घर का खाना, चौका बर्तन, गाय, भैंसों के लिए घास काट कर लाना, दूध दुहना, उन्हें नहलाना, गौशाला में गोबर की सफाई, और वहां गाय भैस के लिए पराल और पत्तर बिछाना, उधर खेतों में गुड़ाई निराई कटाई, अनाज इकट्ठा करना, दाल कूटना, खेतों में गोबर डालना, सेब के पेड़ों और बाग बगीचे की देखभाल के साथ-साथ बच्चों की देखभाल, घर की साफ़ सफाई, गांव के नीचे मंगरे से बंठे पानी भर कर सर पर उठा कर लाना, यहां तक कि सिलबट्टे पर मसाला पीसना, ओखली में साठी कूटना, चावल निकालना, कच्चे चावल गेहूँ से चूड़ा, ऊमी बनाना और चौक में गेहूं की बालियों पर बैल और बच्चों के साथ दें कर, जाने कितने ही काम, दिन तो वही चौबीस घंटे का होता था, पर पहाड़ की सुबह देर से और शामें जल्दी होती है, सो बस कुछ घंटे हाथ में और ढेर सारे कामों का सिलसिला.

तो ऐसे में साड़ी या धोती जो भी हो, ऊँची नीची जैसी भी हो, जल्दी-जल्दी लपेट कर निकल पड़ती …

लेकिन एक बात थी साड़ी खरीदते समय फेरी वाले से बहुत चटख भड़कीले रंग की साड़ी ही खरीदती, साड़ी की कीमत नहीं, साड़ी के रंग ही उसको खुशी देते थे.  इन रंगों के साथ जाने उसके जीवन में कौन से खुशियों के फूल खिल उठते थे कि उसका मन उन रंगों के साथ गदगद हो उठता था.

अपनी बेफिक्री और काम की दौड़ में उसे ज्ञात न था कि उसके जीवन में किस रंग की कमी है बस उसे तो रंगों की भूख थी, जाड़ों के लिए फेरीवाले से लाल मोज़े खरीदती और अपनी सहेलियों से कहती- अरी! क्यों हँसती हो लाल रंग देख कर? जाड़ों में भी दूर से देख कर ही गर्मी का अहसास भर जाता है, सहेलियां उससे चुहलबाजी करती वह भी मजाक का जवाब मजाक में देती.

पर बिंदुली के इतने चटख रंगों का पहनावा, गर्मी हो, जाड़ा हो, उसको फरक नहीं पड़ता, बस फेरी वाले से रंगबिरंगी चूडियाँ खरीदना और बहुत ही रंगरंगीली फूलों बुटीयों वाली साडियां, यही तो उसका शौक था.

गाँव में फेरी वाला आया है, यह सुन कर वह अपने हाथों की कुटली, दरांती, कंडी रस्सी सब फैंक कर, दूर खेतों को फांदती दौड़ती हुई फेरी वाले के पास आ धमकती, गाँव की औरतें भी फेरी वाले के पास की पोटली से उसके लिए लाल, नारंगी, पीली, नीली, गुलाबी तीखे रंगों वाली साड़ी निकाल कर उसे दिखाते- “ए ली – देख ये भी अच्छी लगेगी तुझ पर.” और बिंदुली का चेहरा रंगों के साथ अजब खिल उठता.

हां, उसके चेहरे पर मेकअप तो कभी नहीं दिखा, उसके तीखे नैन नक्श उसकी सांवली सलौनी सूरत का यूँ भी श्रृंगार करते थे, उस की निश्छल खिलखिलाहट और उसका पहनावा उसके भोलेपन को उजागर करता था.

फेरीवाला उसके हाथों को थामता और चूड़ी पहनाता था. बिंदुली को तो मानों इस घड़ी का इंतजार रहता कि अपने पसंद की रंगीन चूड़ियां उसके हाथों में छुड़मुड़ करें और एक अजीब सी तृप्ति का अहसास भर-भर चूड़ियों से उसे होता. वह हाथ नचा-नचा कर उन्हें बजाती और मुस्कराती.

पर बिंदुली के फटे खुरदरे हाथों पर एक बार फेरीवाला कह ही पड़ा था: तुमने अपने हाथों का क्या हाल बना रखा बिंदुली.

वह पिछले आठ साल से भी अधिक समय से इस ठेठ पहाड़ी सीमांती गांव में कई किलोमीटर पैदल चल चढ़ाई पार कर आता था. और वह गांव की सभी महिलाओं को मय नाम के पहचानता था.

उसने बिंदुली को कहा था कभी काम के सिवा भी इनकी देखभाल कर लिया करो बिंदुली.

बिंदुली बोली थी: सिताबो, कैसे होती रे हाथ की देखभाल.

सिताबो बोला था:

“रोज रात को समय निकाल कर गर्म पानी से धोया करो और तेल घी मलाई लगा कर सोया करो. तुम लोग तो गाय भैस पालते हो. सिर्फ गोबर गोबर, अरे मलाई घी भी अपने लिए रखा करो.”

फिर ठठाकर कर हंस दिया था.

बिंदुली बोली थी- काम करना तो बस अपना भाग्य है सिताबो, देखभाल तो कर लूंगी पर क्या तुम मेरे खेत करोगे, गौशाला से गोबर निकालोगे. बण्ठे में पाने भर लाओगे नीचे मंगरे से तो मैं अपने हाथ पैर की देखभाल के लिए समय निकाल लूंगी. रात तो सारा शरीर काम से दुख जाता है बस जैसे तैसे बिस्तर में बैठते ही नींद आ जाती है.

सिताबो बोल पड़ा:

“मैं ये ही करने लगा तो सोलह किलोमीटर की एकदम बीहड़ खड़ी चढ़ाई पार कर तुम्हारे गांव फेरी लगाने चूड़ियां साड़ी साफा ले कर कैसे आऊंगा?”

बिंदुली ने कहा:

“फिर तू चूड़ी पहनाने ही आना सिताबो और फेरी करने से मतलब रखना, मेरे हाथ से नहीं.

हमारे हाथ की बात भी मत करना.”

सिताबो बोला अरे बिंदुली तुम तो खामखाह नाराज हो गयी हो.

बिंदुली ने रुके बिना कहा था-

“चल अबकी पीली के साथ वो नीली चूड़ी मिला के दे.”

चूड़ीवाला सिताबो चूड़ियों का सेट बनाने लगा.

बिंदुली ने उससे पूछा यह बता तू दुबारा कब आएगा.

सिताबो जाने को था तो सभी औरतों की गुजारिश थी जल्दी आना. बिंदुली ने भी कहा था- तेरी इंतजार करेंगे.

और बिंदुली दिनों का हिसाब रखती.

महीना गुजर गया संक्रांति आ गयी है अब चार गति हुई फिर कुछ दिन उसके कान खड़े हो जाते फेरी वाले की आवाज के लिए.

अबकी बार जब फेरी वाला जाने को था तो बिंदुली ने अपनी फरमाइश रख दी: देख सिताबो अबकी आएगा तो इस बार शहर वाली लड़कियों के जैसे कड़े लाना. बिल्कुल नए डिजाइन के मीना वाले. जैसे मकानसिंह की बेटी ने शहर से आने के बाद पहने थे.

“हां हाँ पूरी कोशिश रहेगी संक्रांति से पहले आऊंगा और अबकी बार कैसी सुंदर चीजें लाऊंगा देखना.”

“मेरे लिए इस बार खूब सुंदर गुलाबी रंग की साड़ी भी लाना 500 रुपये तक की.”

अपनी साड़ियों की पोटली और चूड़ियों का बक्सा उठाते हुए सिताबो ने बोला:

जरूर, जरूर! नोट कर लिया. और वह अपनी छोटी सी डायरी में सबकी डिमांड नोट करने लगा.

उसके जाने के बाद सब सहेलियां अपनी-अपनी साड़ी चूड़ी को एक दूसरे को दिखा कर खुश होतीं. और वह दिन उनके लिए इन पर ही बातचीत करते गुजरता. पर कभी-कभी बिंदुली चूड़ियों के साथ चूड़ीवाले की बात छेड़ देती. और महिलाएं चूड़ीवाले को ले कर भी आपस में हंसी मजाक करतीं, खिलखिलाती. पर बिंदुली सच में उसका खासा इंतजार करती क्योंकि उसके जीवन में छाने वाली जादुई रंगों की पोटली फेरीवाले के पास जो थी.

एक दिन पूछा था बिंदुली ने: ए तू किस गांव से आता है रे.

वह बोला अपना इधर कोई गांव नहीं. बिजनोर की तरफ से आते हैं और नीचे कस्बे में समान रख कर इस गांव के लिए सुबह साढ़े चार बजे निकल लेते हैं. मेरा एक दोस्त दूसरे गांव जाता है और मैं यहां आता हूँ ताकि शाम को कमरे में समय रहते वापस पहुंच पाऊं नहीं तो पहाड़ की ढलान में अंधेरे में पैर मुड़ने का डर तो कभी रीछ बाघ से ही आमना सामना हो जाता है.

पर आप लोगों का स्नेह, प्रेम और विश्वास है वरना इतनी दूर पिछले कई सालों से कैसे आ पाता. हमें अहसास रहता है कि हमारी इंतजार करते है आप लोग, और मेरी पोटली खाली कर देते हैं. मुझे यह डर नहीं रहता कि मेरी बिक्री नहीं होगी और फिर आप लोगों के स्नेह और विश्वास को तोड़ नहीं सकता सो आता हूँ.

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Comments 8

  1. ज्ञानचंद बागड़ी says:
    2 years ago

    नूतन जी जल्द स्वस्थ होने की कामना है। बहुत सुन्दर कहानी के लिए नूतन जी और समालोचन को बधाई।

    Reply
  2. शिरीष मौर्य says:
    2 years ago

    शीघ्र स्‍वस्‍थ हों। वे लेखक होने के साथ संवेदनशील मित्र भी हैं। यह अच्छी कहानी है। उन्हें ख़ूब शुभकामनाएँ।

    Reply
  3. vandana gupta says:
    2 years ago

    नूतन जी जल्द स्वस्थ हों – पुरानी मित्र हैं – एक संवेदनशील कहानी के लिए हार्दिक बधाई

    Reply
  4. दयाशंकर शरण says:
    2 years ago

    यह कहानी मर्म को छूती है। बहुत बारीकी से एक स्त्री के जीवन की व्यथा और उसके शोषण को तह-दर-तह उघाड़ती है। दुःख की भट्टी में तपकर ही जीवन और निखरता है। कथा नायिका एक यादगार चरित्र है। एक नदी की तरह उसके उन्मुक्त जीवन को भी बाँधना मुमकिन नहीं। इस कहानी में स्त्रीवादी अस्मिता एक अंतर्धारा की तरह मौजूद है। नूतन जी एवं समालोचन को बधाई !

    Reply
  5. मनोज कुमार वर्मा says:
    2 years ago

    बहुत मर्मस्पर्शी कहानी।पूरी कहानी में पहाड़ो का जीवन अपनी गीतात्मक तरलता के साथ उपस्थित है।

    Reply
  6. Naveen Joshi says:
    2 years ago

    बढ़िया कहानी।

    Reply
  7. Uma bhatt says:
    2 years ago

    Nice dear Nutan ,
    पहाड़ी महिलाओं की हंसी,खुशी, दर्द को उकेरती एक अच्छी कहानी लिखी तुमने 👌👌👌❤️

    Reply
  8. Professor Manjula Rana says:
    2 years ago

    नूतन जी, बहुत मार्मिक कहानी,सारे आंचलिक संदर्भों के साथ पर्वतीय जीवन को उद्घाटित करता हुआ कथानक आकृष्ट करता है।आपकी लेखनी को सादर नमन 🙏🎉🎉

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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