2.
सबसे पहले इस ‘मान्य सत्य’ की ऐतिहासिकता पर संदेह गौरीशंकर ओझा (1928 ई.) ने किया. वे भी रत्नसेन, पद्मिनी, अलाउद्दीन ख़लजी का ऐतिहासिक अस्तित्व मानते हैं. वे यह भी मानते हैं कि अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया और इसमें जन संहार हुआ और पद्मिनी सहित कई स्त्रियों ने जौहर किया. वे यह भी मानते हैं कि दुर्ग बाद में लगभग दस वर्ष तक अलाउद्दीन के बेटे ख़िज्रख़ाँ के अधीन रहा.7 रत्नसेन का विवाह सिंघल की पद्मिनी से हुआ, अलाउद्दीन ने आक्रमण पद्मिनी के लिए किया, रत्नसेन छलपूर्वक बंदी हुआ, गोरा-बादल ने युक्ति से उसको मुक्त करवाया आदि घटनाएँ उनके अनुसार जायसी की कल्पना है.8 ये सभी घटनाएँ राजस्थान के पारंपरिक जैन और चारण कथा-काव्यों में भी हैं, लेकिन गौरीशंकर ओझा का निष्कर्ष यह है कि “भाटों ने उसको पद्मावत से लिया.”9
उनके बाद इतिहासकार किशोरीसरन लाल (1950 ई.) भी कथा की कल्पना का श्रेय जायसी को ही देते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि उनकी यह कथा बहुत जल्दी लोकप्रिय हो गई, सब जगह कही-सुनी जाने लगी और परवर्ती फ़ारसी इतिहासकार, जो कथा और तथ्य में बहुत फ़र्क नहीं करते थे, इस कहानी को ले उड़े. उनके अपने शब्दों में
“रोमांस, कुतूहल और दुःख जायसी की इस कथा में इस तरह एक-दूसरे के साथ मिलाए गए थे कि यह बहुत जल्दी लोकप्रिय हो गई और यहाँ-वहाँ सब जगह कही-सुनी जाने लगी. तथ्य और कहानी में फ़र्क की बहुत चिंता नहीं करने वाले फ़ारसी इतिहासकारों ने इसको इतिहास की तरह स्वीकार कर लिया. बाद के फ़रिश्ता और हाजी उद्दबीर सहित बहुत से इतिहासों में इसीलिए इस प्रकरण का उल्लेख मिलता है.”10
इतिहासकार कालिकारंजन कानूनगो ने 1960 ई. में विस्तार से इस प्रकरण की ऐतिहासिकता पर अपने एक लेख ‘ए क्रिटिकल एनेलेसिस ऑफ़ पद्मिनी लिजेंड’ में विचार किया और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यह पूरा प्रकरण केवल कथा है, जिसकी कल्पना जायसी ने की और अबुल फ़ज़ल, फ़रिश्ता और राजस्थान के भाटों ने यह प्रकरण जायसी से लिया.11
वे तो इसमें दूर तक गए, उन्होंने रत्नसेन के अस्तित्व को ही संदेहास्पद कर दिया. उन्होंने आर.सी. मजूमदार के हवाले से यह भी दावा किया कि पद्मावत का चित्तौड़, मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ नहीं, इलाहाबाद के पास का चित्रकूट है.12 फिल्म पद्मावत पर हुए विवाद के दौरान मध्यकाल के विशेषज्ञ दो विख्यात इतिहासकारों, इरफ़ान हबीब और हरबंश मुखिया ने भी इसी तरह की राय ज़ाहिर की. इरफ़ान हबीब ने कहा कि पद्मिनी की कथा का उल्लेख बहुत बाद में पहली बार जायसी ने अपनी कविता में किया. हरबंश मुखिया के अनुसार
“पद्मिनी की अवधारणा कामसूत्र तक में मिलती है. यह एक कथानक फ़ार्मूला है, जिसमें एक पराक्रमी पुरुष सुंदर स्त्री को जीतने के लिए सभी बाधाओं को पार करता है. यह फ़ार्मूला बैताल पच्चीसी सहित सभी लोक कथाओं में मिलता है. जायसी ने यही फ़ार्मूला उठाकर अपनी कविता पदमावत लिखी.”13
एक और इतिहासकार रजत दत्ता ने भी लिखा कि
“तत्कालीन परिस्थितियों के आधार यह निष्कर्ष निकालना युक्तिसंगत है कि पद्मिनी राजपूत इतिहास के एक वंश में, बाद में, संभवतया चारणों द्वारा जोड़ी गई, जिन्होंने यह कथा जायसी के लोकप्रिय और बहुप्रचारित आख्यान से उठायी.”14
विवाद के दौरान रम्या श्रीनिवासन के शोधकार्य दि मेनी लाइव्ज़ ऑफ़ ए राजपूत क्वीन को बतौर साक्ष्य इतिहासकारों और पत्रकारों ने ख़ूब उद्धृत किया. श्रीनिवासन ने पद्मिनी-रत्नसेन कथा संबंधी सभी पारंपरिक ग्रंथ देखे-समझे थे. इस प्रकरण की ऐतिहासिकता पर उनकी राय कमोबेश कालिकारंजन कानूनगो, इरफ़ान हबीब और हरबंश मुखिया से मिलती-जुलती है, लेकिन वह इस संबंध में पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं कि यह कथा जायसी के यहाँ से राजस्थान के चारण और जैन कवियों तक पहुँची. उन्होंने लिखा कि
“हम नहीं जानते कि क्या पद्मावत अवध से 600 मील दूर उस क्षेत्र में व्यापक रूप से प्रचारित हुई? जो साफ़ है वह यह कि स्थानीय संभ्रात राजपूतों द्वारा संरक्षित राजस्थान के आख्यान, जायसी के आख्यान से एकदम अलग हैं.”15
रम्या श्रीनिवासन की राय को रहने भी दें, तो कुल मिलाकर वी.ए. स्मिथ, गौरीशंकर ओझा, किशोरीसरन लाल, कालिकारंजन कानूनगो, इरफ़ान हबीब, हरबंश मुखिया और रजत दत्ता की राय यह है कि जायसी की पद्मावत बहुत कम समय में लोकप्रिय हो गई और इसका व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ, इस्लामी वृत्तांतकारों के साथ यह अवध से बहुत दूर पश्चिम में राजस्थान के चारणों और जैन कवियों तक पहुँची और उन्होंने इसको आधार बनाकर अपनी रचनाएँ कीं.
Badhiya vishleshan
जायसीकृत महाकाव्य पद्मावत की वास्तविक कथा और इस कथा का इतिहास से क्या तालमेल है-जानना-समझना जरूरी है। क्योंकि समाज में भ्रम फैलाकर कुछ लोगों ने इसका गलत फायदा उठाया है। वीरता गौरव का विषय है, मगर इसका इस्तेमाल निहित स्वार्थ के लिए न हो, यह सरकार की जिम्मेदारी है।
इसलिए इतिहास की वास्तविकता को सामने रखना जरूरी है। कवि तो हमेशा कल्पना का सहारा लेता ही है।
एक बैठक में पढ़ गया। बहुत समृद्ध और शोधदृष्टि से परिपूर्ण आलेख है।
किसी मिथकीय आख्यान के ऐतिहासिक श्रोतों की खोज एक श्रमसाध्य कार्य है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में इतिहास लेखन की कोई परंपरा नहीं दिखाई देती।मध्य-काल में मुस्लिम आक्रमणकारियों के लश्कर में इतिहास लेखक भी होते थे। अल बेरूनी महमूद गजनी के कई अभियानों में सुल्तान के साथ था। माधव जी के इस शोधपरक लेख के लिए उन्हें बधाई।
भारत में इतिहास लेखन की कोई परंपरा नही है।अनुरोध है कि इस औपनिवेशिक धारणा पर इस पर पुर्विचार करें। इतिहास लेखन हमारा अपनी एक पद्धति है जो यूरोप और इस्लामी इतिहास लेखन की पद्धति से अलग है। टैगोर के विचार इस संबंध शायद आपको प्रासंगिक लगेंगे, जो इस तरह हैं-
“दरअसल इस अंध विश्वास का परित्याग कर दिया जाना चाहिए कि सभी देशों के इतिहास को एक समान होना चाहिए। रॉथ्सचाइल्ड की जीवनी को पढ़कर अपनी धारणाओं को दृढ़ बनाने वाला व्यक्ति जब ईसा मसीह के जीवन के बारे में पढ़ता हुआ अपनी ख़ाता-बहियों और कार्यालय की डायरियों को तलाश करें और अगर वे उसे न मिलें, तो हो सकता है कि वह ईसा मसीह के बारे में बड़ी ख़राब धारणा बना ले और कहे: ‘एक ऐसा व्यक्ति जिसकी औकात दो कौड़ी की भी नहीं है, भला उसकी जीवनी कैसे हो सकती है?’ इसी तरह वे लोग जिन्हें ‘भारतीय आधिकारिक अभिलेखागार’ में शाही परिवारों की वंशावली और उनकी जय-पराजय के वृत्तांत न मिलें, वे भारतीय इतिहास के बारे में पूरी तरह निराश होकर कह सकते हैं कि ‘जहाँ कोई राजनीति ही नहीं है, वहाँ भला इतिहास कैसे हो सकता है?’ लेकिन ये धान के खेतों में बैंगन तलाश करने वाले लोग हैं। और जब उन्हें वहाँ बैंगन नहीं मिलते हैं, तो फिर कुण्ठित होकर वे धान को अन्न की एक प्रजाति मानने से ही इनकार कर देते हैं। सभी खेतों में एक-सी फ़सलें नहीं होती हैं। इसलिए जो इस बात को जानता है और किसी खेत विशेष में उसी फ़सल की तलाश करता है, वही वास्तव में बुद्धिमान होता है।”
फिर भी ख़त्म नहीं होती ज़िम्मेदारियाँ
कि उलझा हुआ है स्थिर और चलित का समीकरण
अभी कटघरे में खड़ा है इतिहास
जिस पर अजीब से आरोप हैं
कि उसने चुराए हैं शास्त्रों से कुछ शब्द
कुछ मिथक छीन लिए हैं गाथाओं से
तथ्य उठा लाया वह मुँह अंधेरे
जब यह दुनिया अज्ञान का कंबल ओढ़े सो रही थी
शायद उसे फिर लिखे जाने की सज़ा मिले
सौंप दी जाए कलम फिर इतिहासकारों के हाथ में
भाषा लिपि और शिल्प जुगाड़ दे कम्प्यूटर
पुरातत्त्ववेत्ताओं को तथ्य जुटाने का आदेश मिले
प्रश्न यह नहीं कि यह उनका कार्यक्षेत्र है या नहीं
और इस तरह इतिहास में सीधे सीधे हस्तक्षेप में
और सभ्यता और संस्कृति और परम्परा सब पर
अपने ढंग से कहने में
जोखिम है या नहीं
यह बात अलग है कि ख़तरे वहाँ भी हैं
जहाँ वे होते हुए भी नहीं दिखाई देते
और आँख मूँद लेने का अर्थ विश्वास नहीं
शरद कोकास की लंबी कविता ‘पुरातत्ववेत्ता ‘से यह
सर्वप्रथम मैं माधव हाड़ा जी को इस विस्तृत शोध परक आलेख के लिए बधाई देना चाहता हूं ।इतिहास में ऐसे बहुत सारे विवाद हैं । जहां तक फार्मूले की बात है लोक में ऐसे कई फार्मूले चलते थे जिनके आधार पर कथाएं कही जाती थी जैसे कि किसी राजा की स्त्री का हरण, जो हमारे यहां की रामायण से लेकर तो इलियड की कथा में भी मिलती है जहां पर हेलन का अपहरण किया जाता है ।
वैसे ही अन्य कथाएं भी हैं जो हमारे यहां का दुर्योधन है वह ग्रीक मायथोलॉजी मेंएकिलीज़ है । मध्यकालीन इतिहास के अभिलेख बहुत कम मिलते हैं इसलिए लोक कथाओं , किंवदंतियों इत्यादि का सहारा लेना ही पड़ता है ।साहित्यिक स्त्रोत इतिहास लेखन हेतु काफी नहीं होते। उन पर विवाद भी स्वाभाविक है क्योंकि कल्पना का पुट अधिक होता है ।
अतः आज की स्थिति में बात उसी समय होती है जब उस पर कोई विवाद होता है अन्यथा ऐसी चीजें छुपी ही रहती है ।फिर वह सलीम अनारकली का किस्सा हो या शीरी फरहाद, लैला मजनू आदि । प्रश्न तो सभी पर खड़े किए जाते हैं । स्थानीय स्तर पर आप जाएं या प्राचीन किलो में तो आपको वहां के स्थानीय लोग और गाइड नए किस्से सुनाएंगे जो आपको बिल्कुल इतिहास की तरह दिखेंगे । इसलिए ऐसी चीजों को लेकर बहुत हार्ड एंड फास्ट नहीं होना चाहिए ।ऐसा मेरा विचार है ।
हां शोध अवश्य होते रहने चाहिए जैसे कि हाड़ा जी ने किया है । सामान्य रूप से जिन्हें दिलचस्पी होती है या जो साहित्य इतिहास किंवदंती, लोक कथाओं इत्यादि में फर्क करना जानते हैं वे इस में रुचि लेते ही हैं।
शरद कोकास
आभार !
आदरणीय हाडा सर के इस कार्य का मैं साक्षी रहा हूँ। उन्होंने संस्कृत आदि स्रोतों की प्रामाणिकता को लेकर बहुत गम्भीरता बरती है। इस प्रकार का वास्तविक शोधकार्य होता जा रहा है।
आभार ! आपके सहयोग के बिना यह संभव नहीं था।
इतिहास और पुराणों के माध्यम से वेद का उपबृंहण या विस्तार होता है। वेद के कथा बीज इतिहास, पुराण और परवर्ती साहित्य में फैले हुए हैं। रामायण, महाभारत और सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर, वंशानुचरित के रूप में प्राचीन पौराणिक कथा सूत्र कविसमय, उन्मेष और परम्परा के साथ भारत के जातीय इतिहास को पीढी दर पीढी आगे बढाते गये। श्रुति से निकलने वाली परम्परा को अभिलेखों में ढूँढ कर उनकी अनुपलब्धि पर उसके इतिहास को नकार देने के अपने आग्रह हैं। कथा बीजों की रससिद्धि कवि कल्पना के साथ होती है । हजारों साल से कथाव्यास कथाबीज के समास का व्यास करते आ रहे हैं इसलिए इनके संवादों में कालान्तर में बहुत कुछ समाता चला गया । 8000 श्लोकों की जयसंहिता एकलाख श्लोकों में फैल कर महाभारत बन गई । भागवतों के प्रभाव से गीता आदि मूल बीज से एकाकार हो गये । सूत मागध चारण भाट इस परंपरा के निरन्तर उत्तराधिकारी रहे । देश के हर नागर ग्राम्य आदिवासी कोने में कथा सहस्राब्दियों से सहस्रमुखों से गाई और सुनाई जा रही है। ये कथायें इतिहास शोधकों या साहित्य आलोचकों के लिए नहीं अपितु जन रंजन सहित दुःखार्त शोकार्त श्रमार्त्त मनुष्यों की विश्रान्ति के लिए सुनाई जा रही हैं। यदि आपको चाहिए तो आप अपना चश्मा साफ करके इनके एडीसन तैयार कीजिए । भारतविद्या का मर्म अध्यवसाय से ही जाना जाएगा । भारतीय कसौटी पर इतिहास ढूंढने के लिए शास्त्र के साथ लोक (देसज) और प्रवाही परम्परा की समझ भी होनी जरूरी है। गोमुख से निकलकर गंगासागर जाने वाली पूरी गंगा ही है परन्तु गंगोत्री गए बिना कानपुर के गंगाजल की कसौटी पर गंगा को परखना अनुचित होगा । प्रो. माधव हाडा ने जो अत्यन्त श्रमसाध्य काम किया है वह निस्संदेह प्रशंसनीय और वर्धापनार्ह है। लोक में जगह बनाना आसान नहीं है, न तो इससे अधिक कोई उदार है और न ही निष्ठुर और निर्मम । लोक का प्रवाह सबको समेट कर बहता और बहाता है, चाहे तो किनारे भी लगा देता है । इस प्रवाह में इतिहास भी सदा से बहता चला आ रहा है, घाट सबके अपने अपने है। संग्रहणीय और शोधपूर्ण लेख के लिए हाडा जी को बधाई ।
नीरज
आभार!