4.
परवर्ती इस्लामी इतिहासकार मोहम्मद क़ासिम फ़रिश्ता (1560-1620 ई.) कृत तारीख़-ए-फ़रिश्ता, अबुल फ़ज़ल (1551-1602 ई.) कृत आईन-ए-अकबरी और अब्दुल्लाह मुहम्मद उमर अल-मक्की अल-आसफ़ी अल-उलुग़ख़ानी हाजी उद्दबीर कृत (1540-1605 ई.) कृत ज़फ़रुल वालेह बे मुज़फ़्फ़र वालेह के पद्मिनी प्रकरण संबंधी वृत्तांत भी जायसी की पद्मावत के बजाय पारंपरिक आख्यानों और ख्यातों सहित अपने समय में इसके प्रचलित कथाबीज पर निर्भर हैं. यह कथाबीज फ़ारसी में भी लोकप्रिय था. 1894 ई. में प्रकाशित एन ओरियंटल बायोग्राफ़िकल डिक्शनरी में पदमिनी के परिचय में इन रचनाओं का भी उल्लेख है. इस संबंध में लिखा गया है कि पद्मावती श्रीलंका के राजा की पुत्री थी, जिसे चित्तौड़ का राजा रत्नसेन अपनी शक्ति के बल पर विवाह करके ले आया. अलाउद्दीन ने जब 1303 ई.(703 हि.) में चित्तौड़ जीता, तो वह रत्नसेन से पदमिनी भी ले गया. उसकी कथा क़िस्स्से पदमावत नाम से गजनी निवासी हुस्सेन में फ़ारसी में लिखी. इसका एक संस्करण भाख़ा में मलिक मुहम्मद जायसी का पद्य में है. एक दूसरा फ़ारसी काव्य राय गोबिंद मुंशी का तुहफ़त-उल-क़ुलूब, जो उसने 1652 ई. (1062 हि.) मे लिखा, जो उस वर्ष क्रोनोग्राम भी है. 1796 ई. (1211 हि.) में इसके उर्दू में अनुवाद दो कवियों- पहला भाग ज़ियाउद्दीन इबरात और अंतिम भाग गुलाम अली इशरत- ने किए.”20 यह धारणा निराधार और मिथ्या है कि फ़रिश्ता, अबुल फ़ज़ल और हाजी उद्दबीर के प्रकरण के वृत्तांत जायसी की पद्मावत पर आधारित है. कतिपय इतिहासकारों और विद्वानों ने यह धारणा इन वृत्तांतों को ठीक से पढ़े-समझे बिना ही बना ली है.
समकालीन इस्लामी इतिहासकार अमीर ख़ुसरो, ज़ियाउद्दीन बरनी, अब्दुल मलिक एसामी ने अपने वृत्तांतों में रत्नसिंह और पद्मिनी का नामोल्लेख नहीं किया और उन्होंने लड़ाई पद्मिनी के लिए हुई, इसकी भी चर्चा नहीं की, लेकिन इन परवर्ती वृत्तांतों में इनके नामोल्लेख भी हैं और लड़ाई पद्मिनी के लिए हुई, यह चर्चा भी है. इससे यह भी सिद्ध है कि फ़रिश्ता, अबुल फ़ज़ल और हाजी उद्दबीर जायसी के साथ अमीर ख़ुसरो, ज़ियाउद्दीन बरनी और अब्दुल मलिक एसामी पर भी निर्भर नहीं हैं और उन्होंने यह वृत्तांत पारंपरिक कथा-काव्यों और लोक से लिया है. फ़रिश्ता ने इस प्रकरण का वर्णन करते हुए लिखा है कि
“इस समय (हि. 704, 1304 ई. और वि.सं. 1361) चित्तौड़ का राजा राय रत्नसेन- जो सुल्तान ने उसका क़िला छीना, तब से क़ैद था अद्भुत रीति से भाग गया. अलाउद्दीन ने उसकी लड़की के अलौकिक सौंदर्य और गुणों का हाल सुनकर उससे कहा कि ‘यदि तू अपनी लड़की मुझे सौंप दे, तो तू बंधन से मुक्त हो सकता है.’ राजा ने, जिसके साथ क़ैदखाने में सख़्ती की जाती थी, इस कथन को स्वीकार कर अपनी राजकुमारी को सुल्तान को सौंपने के लिए बुलाया. राजा के कुटुम्बियों ने इस अपमानसूचक प्रस्ताव को सुनते ही अपने वंश के गौरव की रक्षा के लिए राजकुमारी को विष देने का विचार किया. परंतु उस राजकुमारी ने ऐसी युक्ति निकाली, जिससे वह अपने पिता को छुड़ाने तथा अपने सतीत्व की रक्षा करने में समर्थ हो सकती थी. तदनन्तर उसने अपने पिता को लिखा कि ‘आप ऐसा प्रसिद्ध कर दें कि मेरी राजकुमारी अपने सेवकों के साथ आ रही है और अमुक दिन (दिल्ली) पहुँच जाएगी. इसके साथ उसने राजा को अपनी युक्ति से भी परिचित कर दिया. उसकी युक्ति यह थी कि अपने वंश के राजपूतों में से किसी एक को चुनकर डोलियों में सुसज्जित कर बिठा दिया और राजवंश की स्त्रियों की रक्षा के योग्य सवारों तथा पैदलों के साथ वह चली. उसने अपने पिता के द्वारा सुल्तान की आज्ञा की प्राप्त कर ली, जिससे सवारी बिना रोक-टोक के मंज़िल-दर-मंज़िल दिल्ली पहुँची. उस समय रात पड़ गई थी. सुलतान की ख़ास परवानगी से उसके साथ डोलियाँ क़ैदखाने में पहुँची और वहाँ के रक्षक बाहर निकल आए. भीतर पहुँचते ही राजपूतों ने डोलियों से निकलकर अपनी तलवारें सम्हाली और सुल्तान के सेवकों को मारने के पश्चात राजा सहित वे तैयार खड़े घोड़ों पर सवार होकर भाग निकले. सुल्तान की सेना आने न पाई, उसके पहले ही राजा अपने साथियों सहित शहर से बाहर निकल गया और भागता हुआ अपने पहाड़ी प्रदेश में पहुँच गया, जहाँ उसके कुटुम्बी छिपे हुए थे. इस प्रकार अपनी चतुर राजकुमारी की युक्ति से राजा ने क़ैद से छुटकारा पाया और उसी दिन से वह मुसलमानों के हाथ में रहे हुए (अपने) मुल्क को उजाड़ने लगा. अंत में, सुल्तान चित्तौड़ को अपने अधिकार में रखना निरर्थक समझकर ख़िज्रखाँ को हुक्म दिया कि क़िले को खाली कर उसे राजा के भानजे (मालदेव सोनगरा) को सुपुर्द कर दे.”21
ज़ाहिर है कि फ़रिश्ता का घटना का यह वृत्तांत जायसी और अमीर ख़ुसरो सहित सभी समकालीन इतिहासकारों से सर्वथा अलग है. कदाचित् फ़रिश्ता की जानकारी का स्रोत ही इस प्रकरण की आधी-अधूरी जानकारी रखने वाला कोई व्यक्ति है. जायसी सहित सभी आख्यानकार इस संबंध में एक राय हैं कि अलाउद्दीन ने युद्ध रत्नसिंह की बेटी के लिए नहीं, उसकी रानी के लिए किया था, जबकि फ़रिश्ता उसको राजा की बेटी लिखता है. कुटुम्बियों द्वारा अपनी मान-मर्यादा के लिए राजकुमारी को ज़हर देने के विचार का प्रसंग भी केवल फ़रिश्ता के यहाँ है. स्पष्ट है कि फ़रिश्ता जायसी सहित सभी आख्यानकारों से अपरिचित था और उसने यह वृत्तांत समकालीन इस्लामी इतिहासकारों से भी नहीं लिया. मुनि जिनविजय भी इस कथा के स्रोत की परख-पड़ताल के दौरान इसी निष्कर्ष पर पहुँचे और उन्होंने साफ़ लिखा कि
“फ़रिश्ता के उक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि उसको जायसी की पद्मावत वाली कथा का बिल्कुल परिचय नहीं था, इसलिए पद्मिनी की कथा को केवल जायसी की कल्पना बतलाने वाले तथा उसी के बाद पद्मावत के आधार पर ही राजस्थान के भाटों आदि द्वारा पद्मिनी की कल्पित कथा का प्रचार किया जाना कहने वाले विद्वानों का तर्क-वितर्क सर्वथा असिद्ध प्रमाणित होता है.”22
अकबरकालीन इतिहासकार अबुल फ़ज़ल ने इस प्रकरण का वृत्तांत दिया है, लेकिन वह भी किसी भी प्रकार से इसके लिए जायसी का ऋणी नहीं है. वृत्तांत के उसके मोड़-पड़ावों से लगता है कि उसको इससे संबंधित पारंपरिक देशज कथा-काव्यों का ज्ञान था और उसने एकाधिक बार इसका ज़िक्र भी अपने वृत्तांत में किया है. उसके अनुसार
“प्राचीन वृत्तांतों में लिखा है कि दिल्ली के बादशाह सुलतान अलाउद्दीन ख़लजी ने सुन रखा था कि मेवाड़ के राजा रावल रतनसी की स्त्री बहुत रूपवती है. उसने उसकी माँग की, परंतु अस्वीकृत कर दिए जाने पर अपनी इच्छा पूरी करने के लिए उसने एक फ़ौज के साथ चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी. एक अरसे तक उस स्थान पर घेरा डाले रहने पर जब कोई नतीजा न निकला, तो उसने कपट का मार्ग अपना कर सुलह और मित्रता का प्रस्ताव आगे रखा. राजा ने तुरंत ही अपनी सहमति प्रकट कर उसे जश्न का न्यौता दिया. अपने चुनिंदा साथियों को लेकर सुलतान ने क़िले में प्रवेश किया और आमोद-प्रमोद के वातावरण में दोनों की भेंट हुई. परंतु, अवसर पाते ही वह राजा को पकड़ कर वहाँ से ले आया. कहते हैं, सुलतान के नौकर-चाकरों की संख्या 100 थी तथा सिपाहियों के वेश में 300 चुनिंदा साथी साथ थे. राजा की फ़ौज एकत्रित होती इससे पहले ही विलाप करते हुए उसके लोगों के बीच से, उसे जल्दी से बादशाह के डेरे की तरफ़ ले जाया गया. अपनी इच्छा को मनवाने हेतु बादशाह ने राजा को कड़ी क़ैद में रक्खा. उसे बहुत सताया गया, इसलिए राजा के विश्वासपात्र मंत्रियों ने बादशाह से याचना की कि उसके प्रेम पात्र को सौंप देने के अतिरिक्त उसके हरम के लायक अन्य स्त्रियाँ भी उसके पास भेज दी जावेंगी. उन्होंने उस धर्मपरायण नारी से एक जाली पत्र भिजवा कर उसकी आशंकाओं को भी बहला कर शांत कर दिया. बादशाह प्रसन्न हुआ और राजा पर बल प्रयोग के बजाय उससे नरम व्यवहार करने लगा. ऐसा वर्णन मिलता है कि 700 चुने हुए सिपाहियों को जनाने लिबास में डोलियों में बैठाकर बादशाह के ख़ेमे की ओर रवाना कर दिया गया तथा यह घोषणा कर दी गई कि रानी अपनी बहुत-सी दासियों के साथ शाही ख़ेमे को प्रस्थान कर चुकी है. ख़ेमे के निकट आने पर यह इच्छा व्यक्त की गई कि बादशाह के निवास स्थान में प्रविष्ट होने से पूर्व रानी राजा से भेंट करना चाहती है. मोहात्मक स्वप्न के चक्कर में पड़ कर बादशाह ने भेंट की अनुमति प्रदान कर दी; इसी समय सिपाहियों ने अवसर का लाभ उठाकर अपना भेष बदला और वे राजा को छुड़ा लाए. राजपूतों ने पीछा करने वालों का बड़ी मर्दानगी से बराबर मुकाबला किया और राजा के दूर निकल जाने तक बहुतों को मौत के घाट उतार दिया. अंत में, गोरा और बादल चौहानों ने मृत्यु पर्यन्त युद्ध किया, जिससे सर्वत्र जय-जयकार के बीच रावल सकुशल चित्तौड़ पहुँच गया. घेरा डाले रहने में बड़ी कठिनाइयों को सहन न कर सकने के कारण तथा इसे निरर्थक जानकर बादशाह वापस दिल्ली लौट आया. कुछ समय पश्चात उसने वापस इसी योजना पर दिलज़मी की, परन्तु हार कर लौट आया. इन आक्रमणों से उकता कर रावल ने सोचा कि बादशाह से मुलाकात करने से शायद कोई संबंध सूत्र बँधे और इस प्रकार इस स्थायी कलह से वह छुटकारा पा सके. एक बागी के बहकावे में आकर चित्तौड़ से 7 कोस दूर एक स्थान पर वह बादशाह से मिला, जहाँ छलपूर्वक उसका वध कर दिया गया. इस घातक घटना के पश्चात उसके वंशज अरसी को गद्दी पर बैठाया गया. सुलतान ने चित्तौड़ को पुनः घेर कर उस पर अधिकार कर लिया. राजा लड़ते-लड़ते मारा गया तथा सभी नारियाँ स्वेच्छा से अग्नि में जल मरीं.”23
अबुल फ़ज़ल का यह वृत्तांत भी जायसी के पद्मावत से अलग है. यह विवरण पद्मावत की जगह, इससे संबंधित चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा से अधिक मिलता है. यह निश्चित है कि जायसी की पद्मावत से अलग कोई पारंपरिक देशज कथा-काव्य अबुल फ़ज़ल की निगाह में ज़रूर आया होगा, जिसको आधार बनाकर उसने यह प्रकरण लिखा. यह तय है कि पद्मिनी प्रकरण का अबुल फ़ज़ल का विवरण किसी प्राचीन वृत्तांत पर निर्भर है. यह उल्लेख उसने स्वयं किया है24, लेकिन यह प्राचीन वृत्तांत पद्मावत नहीं है, क्योंकि पद्मावत की कथा के मोड़-पड़ाव अबुल फ़ज़ल से अलग हैं. अबुल फ़ज़ल जायसी की तरह रत्नसेन को बंदी बनाकर दिल्ली ले जाने का उल्लेख नहीं करता. इसी तरह रानी का अलाउद्दीन को छद्म प्रेम पत्र लिखना, अलाउद्दीन का दिल्ली चले जाना और फिर लौटकर आक्रमण करना आदि प्रकरण अबुल फ़ज़ल के यहाँ हैं, लेकिन जायसी के यहाँ नहीं हैं. लगता तो यह है कि अबुल फ़ज़ल भी उन्हीं प्राचीन वृत्तांतों पर निर्भर है, जिन पर पारंपरिक देशज कथा-काव्यों के रचनाकार निर्भर हैं.
अब्दुल्लाह मुहम्मद उमर अल-मक्की अल-आसफ़ी अल-उलुग़ख़ानी हाजी उद्दबीर ने अपनी ज़फ़रुल वालेह बे मुज़फ़्फ़र वालेह (एन अरेबिक हिस्ट्री ऑफ़ गुजरात) में इस प्रकरण का जो वृत्तांत दिया है, वह भी जायसी से अलग है. उसकी कुछ सूचनाएँ सर्वथा भिन्न और नयी हैं. वह लिखता है-
“अलाउद्दीन ने 1303 ई. में विशालकाय सेना के साथ चित्तौड़ के लिए प्रयाण किया. वह ख़ुद सेना के साथ था. (चित्तौड़ पहुँचकर) जब सुल्तान ने पहाड़ की तलहटी में अपना शिविर लगाया, तो वहाँ के शासक ने अपने को असहाय पाकर बिना अपने सामंतों, जो उसके मित्र थे, को सूचित किए उसके ख़ेमे में जाकर उसके समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. उसने पहाड़ और जो भी वहाँ थे, उन पर सुल्तान का आधिपत्य मान लिया और मौक़े का इंतजार करता रहा. उसने एक व्यक्ति के साथ निर्णय लिया, जो सुलतान के ख़ेमे में जाने के लिए उसकी राय का समर्थक था. सुल्तान यह मानकर पहाड़ पर गया कि यह उसका है और वहाँ के निवासियों ने भी इसकी तस्दीक़ कर दी है. वे (पहाड़ के लोग) बाहर निकले और जितना संभव हुआ मजबूती से लड़े. अंततः विजय सुल्तान की हुई. सूर्य जब मध्याह्न में था तब उसने तलवार के साथ दरवाज़े बंद कर दिए. पहाड़ के 30 हज़ार निवासी मारे गए. यह मंगलवार 1304 का दिन था. सूर्योदय पर सुल्तान वहाँ था और सब पहाड़ के शासक के साथ थे जो उससे अलग नहीं हुआ था. उन्होंने पहाड़ को अच्छी तरह घेर लिया. पहाड़ का शासन सुल्तान के बेटे ख़िज्रख़ाँ को सौंप दिया गया और चित्तौड़ का नाम ख़िद्राबाद किया गया. सुल्तान इसके बाद पहाड़ से नीचे उतर कर अपने ख़ेमे में आ गया. …. जब अलाउद्दीन चित्तौड़ से दिल्ली चला आया, तो उसके कुछ लोग चित्तौड़ की रक्षा के लिए वहीं रुक गए. उसने (चित्तौड़ के शासक) अपनी पत्नी को सुल्तान के पास आत्म समर्पण के लिए भेजा. सुल्तान ने सुन रखा था कि वह सुंदर स्त्री थी और उसके जैसा दूसरा कोई नहीं था. उससे यह भी बताया गया था कि वह सर्वोत्तम स्त्री थी. वह एक ऐसी स्त्री थी, जिसे हिंद में पद्मिनी कहा जाता है. ऐसी स्त्री का होना दुर्लभ है. सुल्तान के दूत ने उसे सूचित किया कि सुल्तान चाहते हैं कि वह उसे भेज दे. उसने उसे सौंप देने का वचन दिया. संक्षेप में, वह ऐसा करने के लिए राजी हो गया. ऐसा कहा जाता है कि दिल्ली प्रयाण से पहले सुल्तान की पत्नी ने उसे छोड़ देने के लिए कहा, जिस पर वह राजी हो गया. जब उसने प्रयाण किया, तो उसे उसके घोड़ों की टाप को देखते हुए उसके पीछे-पीछे जाना था, उसने उससे कहा कि वह खड़ा रहे और वह किसी और को उसे बुलाने के लिए भेजेगा. उसका समर्पण उसे प्रसन्न कर देगा. सुल्तान इस पर राजी हो गया. उसने दिल्ली की ओर चलना आरंभ किया. काफ़िर ने नौकर से कहा कि वह उसे उसके (सुल्तान) लिए भेज देगा, लेकिन वह अकेले नहीं आएगी, रनिवास की सभी स्त्रियाँ उस के साथ पर्वत पर आएँगी. जब वे अपने आपको समर्पित कर देंगी, तो मैं उसको आपको समर्पित कर दूँगा. ऐसा उसने उत्तर दिया. उसने अपने आदमियों को सूचना देने के लिए पर्वत पर भेजा. उसने कहलवाया कि पाँच सौ लोग पालकियों में बैठेंगे. प्रत्येक पालकी चार आदमियों द्वारा ले जायी जाएगी. ऐसा करते हुए वे शिविर में आए. सुल्तान के लोगों ने स्त्रियों की माँग की. जब पालकियाँ कंधे से उतारी गईं, तो शिविर चकित रह गया. 25000 आदमी तलवार लेकर शिविर में कूद पड़े. पालकी में आए हुए लोगों के बीच राजा घोड़े पर सवार हुआ. अलाउद्दीन के कुछ आदमी ही जीवित बचे, उनमें से बहुत से भाग खड़े हुए. जब सुल्तान को इसकी सूचना मिली कि पर्वत पर जो घटना हुई थी, उसे राजा की बहन की बेटी ने अंजाम दिया था, जो सुल्तान के साथ ब्याही गई थी. उसने पर्वत पर अपना आधिपत्य जमाया और इसे अपने नियंत्रण में रखा. शासक के वज़ीर ने आने वाले समय में लगभग सुल्तान का दर्ज़ा प्राप्त कर लिया.”25
चित्तौड़ के शासक का अपने साथियों को बिना बताए अलाउद्दीन के साथ जा मिलना और उचित मौक़े की तलाश में रहना और अलाउद्दीन से विवाहित राजा की किसी बहन राजा को मुक्त करवाने के लिए षड्यंत्र में शामिल होने जैसी घटनाएँ जायसी सहित और किसी इस्लामी वृत्तांतकार के यहाँ नहीं है. यदि हाजी उद्दबीर को पदमावत के कथाक्रम की जानकारी होती, तो वह घटनाक्रम का विवरण इस तरह नहीं देता. स्पष्ट है की परवर्ती फ़ारसी-अरबी वृत्तांतकारों ने अपनी कथा किसी प्रचलित पारंपरिक कथा बीजक या आख्यान से ही ली. यह धारणा निराधार है कि जायसी की कथा अपनी रचना के बाद इतनी लोकप्रिय हुई कि परवर्ती अरबी-फ़ारसी वृत्तांतकार ‘उसको ले उड़े.’
Badhiya vishleshan
जायसीकृत महाकाव्य पद्मावत की वास्तविक कथा और इस कथा का इतिहास से क्या तालमेल है-जानना-समझना जरूरी है। क्योंकि समाज में भ्रम फैलाकर कुछ लोगों ने इसका गलत फायदा उठाया है। वीरता गौरव का विषय है, मगर इसका इस्तेमाल निहित स्वार्थ के लिए न हो, यह सरकार की जिम्मेदारी है।
इसलिए इतिहास की वास्तविकता को सामने रखना जरूरी है। कवि तो हमेशा कल्पना का सहारा लेता ही है।
एक बैठक में पढ़ गया। बहुत समृद्ध और शोधदृष्टि से परिपूर्ण आलेख है।
किसी मिथकीय आख्यान के ऐतिहासिक श्रोतों की खोज एक श्रमसाध्य कार्य है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में इतिहास लेखन की कोई परंपरा नहीं दिखाई देती।मध्य-काल में मुस्लिम आक्रमणकारियों के लश्कर में इतिहास लेखक भी होते थे। अल बेरूनी महमूद गजनी के कई अभियानों में सुल्तान के साथ था। माधव जी के इस शोधपरक लेख के लिए उन्हें बधाई।
भारत में इतिहास लेखन की कोई परंपरा नही है।अनुरोध है कि इस औपनिवेशिक धारणा पर इस पर पुर्विचार करें। इतिहास लेखन हमारा अपनी एक पद्धति है जो यूरोप और इस्लामी इतिहास लेखन की पद्धति से अलग है। टैगोर के विचार इस संबंध शायद आपको प्रासंगिक लगेंगे, जो इस तरह हैं-
“दरअसल इस अंध विश्वास का परित्याग कर दिया जाना चाहिए कि सभी देशों के इतिहास को एक समान होना चाहिए। रॉथ्सचाइल्ड की जीवनी को पढ़कर अपनी धारणाओं को दृढ़ बनाने वाला व्यक्ति जब ईसा मसीह के जीवन के बारे में पढ़ता हुआ अपनी ख़ाता-बहियों और कार्यालय की डायरियों को तलाश करें और अगर वे उसे न मिलें, तो हो सकता है कि वह ईसा मसीह के बारे में बड़ी ख़राब धारणा बना ले और कहे: ‘एक ऐसा व्यक्ति जिसकी औकात दो कौड़ी की भी नहीं है, भला उसकी जीवनी कैसे हो सकती है?’ इसी तरह वे लोग जिन्हें ‘भारतीय आधिकारिक अभिलेखागार’ में शाही परिवारों की वंशावली और उनकी जय-पराजय के वृत्तांत न मिलें, वे भारतीय इतिहास के बारे में पूरी तरह निराश होकर कह सकते हैं कि ‘जहाँ कोई राजनीति ही नहीं है, वहाँ भला इतिहास कैसे हो सकता है?’ लेकिन ये धान के खेतों में बैंगन तलाश करने वाले लोग हैं। और जब उन्हें वहाँ बैंगन नहीं मिलते हैं, तो फिर कुण्ठित होकर वे धान को अन्न की एक प्रजाति मानने से ही इनकार कर देते हैं। सभी खेतों में एक-सी फ़सलें नहीं होती हैं। इसलिए जो इस बात को जानता है और किसी खेत विशेष में उसी फ़सल की तलाश करता है, वही वास्तव में बुद्धिमान होता है।”
फिर भी ख़त्म नहीं होती ज़िम्मेदारियाँ
कि उलझा हुआ है स्थिर और चलित का समीकरण
अभी कटघरे में खड़ा है इतिहास
जिस पर अजीब से आरोप हैं
कि उसने चुराए हैं शास्त्रों से कुछ शब्द
कुछ मिथक छीन लिए हैं गाथाओं से
तथ्य उठा लाया वह मुँह अंधेरे
जब यह दुनिया अज्ञान का कंबल ओढ़े सो रही थी
शायद उसे फिर लिखे जाने की सज़ा मिले
सौंप दी जाए कलम फिर इतिहासकारों के हाथ में
भाषा लिपि और शिल्प जुगाड़ दे कम्प्यूटर
पुरातत्त्ववेत्ताओं को तथ्य जुटाने का आदेश मिले
प्रश्न यह नहीं कि यह उनका कार्यक्षेत्र है या नहीं
और इस तरह इतिहास में सीधे सीधे हस्तक्षेप में
और सभ्यता और संस्कृति और परम्परा सब पर
अपने ढंग से कहने में
जोखिम है या नहीं
यह बात अलग है कि ख़तरे वहाँ भी हैं
जहाँ वे होते हुए भी नहीं दिखाई देते
और आँख मूँद लेने का अर्थ विश्वास नहीं
शरद कोकास की लंबी कविता ‘पुरातत्ववेत्ता ‘से यह
सर्वप्रथम मैं माधव हाड़ा जी को इस विस्तृत शोध परक आलेख के लिए बधाई देना चाहता हूं ।इतिहास में ऐसे बहुत सारे विवाद हैं । जहां तक फार्मूले की बात है लोक में ऐसे कई फार्मूले चलते थे जिनके आधार पर कथाएं कही जाती थी जैसे कि किसी राजा की स्त्री का हरण, जो हमारे यहां की रामायण से लेकर तो इलियड की कथा में भी मिलती है जहां पर हेलन का अपहरण किया जाता है ।
वैसे ही अन्य कथाएं भी हैं जो हमारे यहां का दुर्योधन है वह ग्रीक मायथोलॉजी मेंएकिलीज़ है । मध्यकालीन इतिहास के अभिलेख बहुत कम मिलते हैं इसलिए लोक कथाओं , किंवदंतियों इत्यादि का सहारा लेना ही पड़ता है ।साहित्यिक स्त्रोत इतिहास लेखन हेतु काफी नहीं होते। उन पर विवाद भी स्वाभाविक है क्योंकि कल्पना का पुट अधिक होता है ।
अतः आज की स्थिति में बात उसी समय होती है जब उस पर कोई विवाद होता है अन्यथा ऐसी चीजें छुपी ही रहती है ।फिर वह सलीम अनारकली का किस्सा हो या शीरी फरहाद, लैला मजनू आदि । प्रश्न तो सभी पर खड़े किए जाते हैं । स्थानीय स्तर पर आप जाएं या प्राचीन किलो में तो आपको वहां के स्थानीय लोग और गाइड नए किस्से सुनाएंगे जो आपको बिल्कुल इतिहास की तरह दिखेंगे । इसलिए ऐसी चीजों को लेकर बहुत हार्ड एंड फास्ट नहीं होना चाहिए ।ऐसा मेरा विचार है ।
हां शोध अवश्य होते रहने चाहिए जैसे कि हाड़ा जी ने किया है । सामान्य रूप से जिन्हें दिलचस्पी होती है या जो साहित्य इतिहास किंवदंती, लोक कथाओं इत्यादि में फर्क करना जानते हैं वे इस में रुचि लेते ही हैं।
शरद कोकास
आभार !
आदरणीय हाडा सर के इस कार्य का मैं साक्षी रहा हूँ। उन्होंने संस्कृत आदि स्रोतों की प्रामाणिकता को लेकर बहुत गम्भीरता बरती है। इस प्रकार का वास्तविक शोधकार्य होता जा रहा है।
आभार ! आपके सहयोग के बिना यह संभव नहीं था।
इतिहास और पुराणों के माध्यम से वेद का उपबृंहण या विस्तार होता है। वेद के कथा बीज इतिहास, पुराण और परवर्ती साहित्य में फैले हुए हैं। रामायण, महाभारत और सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर, वंशानुचरित के रूप में प्राचीन पौराणिक कथा सूत्र कविसमय, उन्मेष और परम्परा के साथ भारत के जातीय इतिहास को पीढी दर पीढी आगे बढाते गये। श्रुति से निकलने वाली परम्परा को अभिलेखों में ढूँढ कर उनकी अनुपलब्धि पर उसके इतिहास को नकार देने के अपने आग्रह हैं। कथा बीजों की रससिद्धि कवि कल्पना के साथ होती है । हजारों साल से कथाव्यास कथाबीज के समास का व्यास करते आ रहे हैं इसलिए इनके संवादों में कालान्तर में बहुत कुछ समाता चला गया । 8000 श्लोकों की जयसंहिता एकलाख श्लोकों में फैल कर महाभारत बन गई । भागवतों के प्रभाव से गीता आदि मूल बीज से एकाकार हो गये । सूत मागध चारण भाट इस परंपरा के निरन्तर उत्तराधिकारी रहे । देश के हर नागर ग्राम्य आदिवासी कोने में कथा सहस्राब्दियों से सहस्रमुखों से गाई और सुनाई जा रही है। ये कथायें इतिहास शोधकों या साहित्य आलोचकों के लिए नहीं अपितु जन रंजन सहित दुःखार्त शोकार्त श्रमार्त्त मनुष्यों की विश्रान्ति के लिए सुनाई जा रही हैं। यदि आपको चाहिए तो आप अपना चश्मा साफ करके इनके एडीसन तैयार कीजिए । भारतविद्या का मर्म अध्यवसाय से ही जाना जाएगा । भारतीय कसौटी पर इतिहास ढूंढने के लिए शास्त्र के साथ लोक (देसज) और प्रवाही परम्परा की समझ भी होनी जरूरी है। गोमुख से निकलकर गंगासागर जाने वाली पूरी गंगा ही है परन्तु गंगोत्री गए बिना कानपुर के गंगाजल की कसौटी पर गंगा को परखना अनुचित होगा । प्रो. माधव हाडा ने जो अत्यन्त श्रमसाध्य काम किया है वह निस्संदेह प्रशंसनीय और वर्धापनार्ह है। लोक में जगह बनाना आसान नहीं है, न तो इससे अधिक कोई उदार है और न ही निष्ठुर और निर्मम । लोक का प्रवाह सबको समेट कर बहता और बहाता है, चाहे तो किनारे भी लगा देता है । इस प्रवाह में इतिहास भी सदा से बहता चला आ रहा है, घाट सबके अपने अपने है। संग्रहणीय और शोधपूर्ण लेख के लिए हाडा जी को बधाई ।
नीरज
आभार!