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समालोचन

Home » अम्बरीश की बारह कविताएँ (पंजाबी): रुस्तम और तेजी ग्रोवर

अम्बरीश की बारह कविताएँ (पंजाबी): रुस्तम और तेजी ग्रोवर

हिंदी में अनूदित पंजाबी कविताओं की इस श्रृंखला में अपने गुरप्रीत, बिपनप्रीत और भूपिंदरप्रीत की कविताएँ समालोचन पर पढ़ी हैं.  इस क्रम में आज अम्बरीश की बारह कविताओं का अनुवाद आपके लिए प्रस्तुत है. मूल पंजाबी से इनका अनुवाद रुस्तम और तेजी ग्रोवर ने किया है. इस श्रृंखला का व्यापक स्तर पर स्वगत हुआ है. अंग्रेजी के प्रतिष्ठित पत्र ‘The Hindu’ में Shafey Kidwai ने अपने चर्चित स्तम्भ में भूपिंदरप्रीत की कविताओं की चर्चा की है.

by arun dev
June 18, 2018
in अनुवाद
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अम्बरीश की बारह कविताएँ (पंजाबी): रुस्तम और तेजी ग्रोवर
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पंजाबी

अम्बरीश  की  बारह  कविताएँ

मूल पंजाबी से अनुवाद : हिन्दी कवि रुस्तम और तेजी ग्रोवर

प्रेम में

हल्की पीली रोशनी में लिपटा
भरपूर खिला अमलतास हूँ
गुंजारता
हज़ारों भँवरों की
गुंजार से
महकता
मद्धिम मीठी
अमलतासी महक से
घने बाग में और वृक्षों में
घिरा भी, अकेला भी हूँ
शिखर बहार पे हूँ
पूरे रंग निखार में हूँ
प्रेम में हूँ.

 

यह आना भी क्या आना हुआ !

न आकाश मृदङ्ग जैसे बजा
न धरती अपनी धुरी पे डोली
न रात ही
बांध कर घुंघरू नाची
न फ़िज़ा में गूंजते
साधारण शब्दों ने
मन्त्र बन
माहौल को मुग्ध किया
न घर ही मेरा
सैंकड़ों दीपों वाला
बौद्ध-मन्दिर हुआ
यह आना भी तुम्हारा
क्या आना हुआ !

 

रोटी

तवे से ताज़ा उतरी गंदमी
गर्म, नर्म, गुनगुनी
मीठी महक वाली
छोटी गोल रोटी
रात्रि-नीले
आकाश में
पूरे चाँद से
सोने की डली से
हीरे की कणी से
दुनिया के सब से

सुन्दर फूल से

समस्त जनों के
समस्त पेटों की तृप्ति जितनी
लुभावनी  सुन्दर  मोहिनी
छोटी गोल रोटी.

 

चिन्ता

उमड़-उमड़ कर
घनी काली भरी भारी
घटा चढ़ी है
झम… झमाझम
झम… झमाझम
मेघ बरस रहा है
प्यास मिट्टी की मिट रही है
रंग पेड़ों के
निखर रहे हैं
और एक मैं हूँ कि
चिन्ता सूखे की
करने भी लगा हूँ.

 

घर तेरे बिना

तीखापन, ताज़गी नहीं
उड़द की दाल में
पके चावलों में
धरती की बास नहीं

फ्रिज में पड़ी चीज़ों से
गन्ध की तरह उड़ता है ख़तरा
भभक कर जलता है
चूल्हा गैस का

रसोईघर में
कुछ बोलता नहीं नल
घण्टे भूल गए हैं अपनी चाल
घर कर्फ्यू में बंधा
कोई शहर लगता है
या बीच समुद्र में रुकी खड़ी
पाल वाली नाव
हवाओं के फिर चलने की
प्रतीक्षा करती है.

 

पत्नी के लिए कविता

पुरानी बासमती जिस तरह
जैसे-जैसे पुरानी होती है
पकने पर दाना-दाना खिल जाती है
खुशबू आँगन, मुंडेरें लांघ जाती है

समय के साथ जैसे
मीठे हो जाते हैं
और भी चावल
और खाते वक़्त
कौर मुँह में घुल जाता है

इसी तरह
साथ-साथ हम
पुराने हुए हैं.

 

अचार

मर्तबान में है भर रही
आम की
खट्टी रसीली
महकती फाँकें ––
मेरी बीवी अचार डाल रही है
और पता नहीं क्यों
अच्छा लगता है मुझे
गहरे कहीं लगता है
कि ठीक-ठाक ही रहेगा
अगला बरस भी

चाहे पता है मुझे
कि गिरगिट होता है बिल्कुल
आने वाला कल
फिर भी अच्छा लगता है
यूँ देखना उसे ––
जैसे सहेज-सम्भाल रही हो
अनदेखे समय को
और डली-डली, फाँक-फाँक
भर रही हो मर्तबानों में
स्वाद सुरक्षित और शान्त

अचार डाल रही है मेरी बीवी ––
महफूज़ कर रही है
पूरा बरस एक.

 

बहार : कुछ शब्द-चित्र

यह जो कोंपलों में आग है
हौले-हौले मन्द पड़ जाएगी
बिछुड़ने के दुःख की तरह

*
बूढ़ा बरगद
चुप्पी साधे देखता है
बालिश्त-भर सफेदा
रगड़कर बड़ा होता है
आकाश छूना चाहता है

*
सदियों से
हर बहार
वही प्रश्न
कलियाँ बन फूटते हैं

*
हर सुबह कोई
एक और हरी तितली
नंगी भूरी शाख पे
बिठा जाता है

*
पड़ोस के वृक्ष की टहनियों पे
पत्ते उग रहे हैं इन दिनों ––
बहार की इस रात की
गहन निस्तब्धता में
धीमे-धीमे उभरते हैं
स्वर होरी के

*
कोई नाज़ुक हाथ
टहनियों पर
‘इकेबाना’ सजाता है

 

खुली और खाली जगहें

फूल अच्छे लगते हैं मुझे
और खुली और खाली जगहें
धूप के मैदान और
विस्तार घनी छाहों वाले
और पक्षियों के गीतों से
गूंजती हुई सुबहें

यूँ चाहता हूँ मैं इस सब को
जैसे अति सुन्दर किसी देह को
लगता है तृष्णा कोई
अनबुझी चली आ रही है
कई जन्मों से

यह शहर तो
बहुत इधर की
बहुत बाद की बात है
पहले तो सिर्फ़
खुली और खाली जगहें थीं
घाटियाँ, मैदान थे
घने, सांवले दरख्तों के
झुण्ड
जंगल बियाबान थे

और उनमें
कूदता, दौड़ता उन्मुक्त
मैं

 

केले बेचती औरत

सुबह गुज़रा था यहाँ से
तो धूप गुलाबी अभी
पेड़ों की चोटियों पर
पहुँची ही थी
साये लम्बे थे अभी
और टोकरी में सजे
केलों का रंग सुनहरी था
और चित्ती उनकी अदृश्य थी

शाम फिर गुज़रता हूँ वहीं से
धरती अपनी धुरी के चौफेरे
आधा चक्कर घूम गयी है
और छिलकों पर चित्ती
कालिख़ बन चुकी है

और यह औरत है
कि अब भी
आधी भरी टोकरी के सामने
वैसे ही
उसी मुद्रा में बैठी है

 

बहनें

मेरे घर से उनके घर का
फासला बहुत है
कभी मैं खिड़की में से
देख रहा होता हूँ बाहर
तो दिख जाती हैं वे
अपने आँगन में चलतीं

छोटी सबसे लम्बी है
बड़ी छैल-छबीली
देखते ही बनती है उसकी चाल की मटक
कभी देखती नहीं वह किसी की तरफ़
निकल जाती है पास से अनजान बन
आँखें उसकी, चेहरा कहते :
पैरों में बिछी है सारी दुनिया !
इसी साल हुई है वह सोलह बरस की
इसी साल हुई है वह कालेज में दाखिल

बड़ी सबसे
छोड़ चुकी है कब से स्कूल
रोज़ करती है
भतीजे-भतीजियों को तैयार
रिक्शे में बिठाती है
फिर करने लगती है इंतज़ार
मुहँ-माथा, नक्श उसके
हो रहे है उसकी माँ सरीखे

मँझली के बाल
काले, बहुत घने हैं
वह भी घर के अन्दर-बाहर
करती ही होगी कुछ
नाक ज़रा लम्बी, तनिक मोटी है वह
पर सुन्दर बहुत है
बड़ी जँचती है उसकी नाक में नथिनी
यौवन की है चमक अभी
चेहरे पे उसके

खिड़की में खड़े मुझे
दिख जाता है बाबुल उनका
जो है नहीं किसी भी
महल का मालिक
सुन जाती है मँझली की
घुंघरुओं सी खनकती हँसी

दिख जाती है कभी
सब से छोटी की सिकन्दरिया चाल
दिख जाती है सब से बड़ी कभी
लटकी हुई घर के बाहरी दरवाज़े पर
मोटे पुराने ताले की तरह
जिसकी गुम हो चुकी हो चाभी

और वह सारे सफ़ेद घोड़े
जो पटक छोड़ आये होते
पता नहीं कहाँ
अपने पे सवार राजकुमार
आकर इकट्ठे होते हैं मेरे अन्दर
हिनहिनाते
ऊधम मचाते

 

घास

घास अच्छी लगती है मुझे
हर जगह उग आती है
और उन जगहों पर भी
उगता नहीं जहाँ कुछ भी और

उग आती है वह
फुटपाथों की कंक्रीट-पट्टियों के बीच से
अनगिनत पैरों के नीचे
कुचले जाने के बाद भी

पहले
उन पट्टियों के चारों ओर
किनारियाँ बुनती है
धीरे-धीरे फिर
घेर लेती, लपेट लेती है उन्हें
और मिलते ही अवसर
छिपा लेती है
समो लेती है अपने भीतर
घास
कंक्रीट की पट्टियों को

सूरज तक पहुँचने की चाह में
सदा जिरह्बख्तर में से
कमज़ोर बिन्दु तलाशती
नमी के मात्र स्पर्श से
हरापन अपना
बरकरार रखती

होने
और होते रहने की
अमर अमिट
हरी लचकीली आदिम प्रवृत्ति वाली

घास
अच्छी लगती है मुझे.

अम्बरीश (जन्म १९५३) पंजाबी के वरिष्ठ और समकालीन परिदृश्य में अत्यंत महत्वपूर्ण कवि हैं. उनके छह कविता संग्रह और एक यात्रा वृत्तांत प्रकाशित हुए हैं. छठा संग्रह अभी हाल ही में २०१८ में आया है. वे अमृतसर में बच्चों के डॉक्टर हैं.
Tags: अम्बरीशतेजी ग्रोवरपंजाबी कविताएँरुस्तम
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