पंजाबी
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देखो कितना टेढ़ा है
देखो
कितना टेढ़ा है
मोर पंख अटक गया है
मेरे उलझे बालों में
पर तुम इसे चुरा लेना
किसी कुशल चोर की भाँति
अब मत कहना
चाँद नहीं नदी है
अविराम चलती आड़ी-तिरछी
आसमान के मध्य में
तुम इतने भय में क्यों हो
आज तो बारिश का पहला दिन है
स्मृतियों की सीढ़ी लम्बी है
पैर में फिसलन तो होगी ही
और मैं तुम्हारे वक्ष से वक्ष लगाए
नींद में रहूँगी एक लम्बी प्रार्थना की तरह
अब तुम अर्थ मत निकालना
ब्रह्माण्ड के
चाँद जब छिपता है नदी में
तो ईश्वर खिलता है अपराजिता के फूलों में
एकदम सुन्दर नीला
आओ
एक रात खरीदें
अपने-अपने हिस्से की
मैं पृथ्वी को रक्खूँगी दर्पण में
और तुम बिना आहट अपने सारे प्रतिबिम्बों को
रखना उदास धूप में सुखाकर
तुम हमेशा ही खोजते रहे
वो ख़ालीपन मैं भरती रही
वो मेरा भय था
या फिर मेरी कोई अदृश्य चीख
एक मौन पीड़ा
तुम अधपके सेब की तरह आधे मीठे हो
या फिर तुम्हारी पीठ पीछे छिपकर बैठा है मेरा भ्रम
मृत्यु हर लेगी मेरी कड़वाहट
क्योंकि तुम नायक हो मेरी कथा के
इस धीरे-धीरे विलुप्त होती सभ्यता में
मैं भी हूँ तुम भी हो
तो क्यों ना काट लें एक चक्र
दिन भर की थकी हुई पृथ्वी का
इस निजी शहर में
ना तुम्हें और ना मुझे कोई जानता है
ना बारिश तेज है ना धुंध गहरी है
और छतरी जिसको हम बस हवा दिखाने लाए थे
उसमें अब खिड़कियाँ ही खिड़कियाँ हैं
वो वृक्ष अब भी देख रहा है हमारी ओर
अपनी लम्बी जटाओं में से
और कभी-कभार तो उतर आता है इस उदास देह में भी
मोर का रुदन पता नहीं तुम्हें ही क्यों बुलाता है
अँधेरा होने से पहले
सारी स्मृतियों को अच्छे से चमका कर रख लेना
ताकि सुबह धूप भर सके मक्के में पीलापन
मैं बाज़ार से आते हुए ले आऊँगी आग
देह के आधे हिस्से के बदले में.
नदी
1
मैं तुम्हें नदी लिखती हूँ
तुम पानी लिखना
और चल देना उत्तर की ओर
देखना कहाँ तक बहती हूँ
और कहाँ डूबता है सितारा मेरे अन्दर
सदी भर के लिए बस
डूबने मत देना पहाड़ों को
मेरे प्रतिबिम्ब में
मैं तुम्हें रँग दूँगी
पीला नीला नारंगी लाल और फिर स्याह
तुम तोड़ना पीली घास के तिनके
और गिनना मछलियों के घाव
और बताना कितने गैलन आँसू
नदी के वक्ष में समा गये
नदी
2
नदी मृत्यु की ओर अग्रसर है
भरी हुई है पृथ्वी की लालसा से
वह मुड़ती है
एक गड़गड़ाहट में कितने छोटे-छोटे
चमत्कारों से सनी हुई है
वह पहले भी
कई देहों में मरी है
सूरज की कामना
और जलपंछियों की थकान लिए
नदी मृत्यु की ओर अग्रसर है
बह रही है धीरे-धीरे
जम जायेगी
अपनी नियति के विपरीत
थोड़ी देर रुक जायेगी
धीरे-धीरे धँस रही है
लाल रंग के पत्थरों में
वह दुख में है
शायद तभी
दूर तैरती मछलियों का रंग बदल रहा है.
नदी
3
नदी मृत्यु की ओर अग्रसर है
मैं जामुनी रंग में डुबोती हूँ
अपने अँगूठे का अग्रभाग
वह घूरती है मेरी भाषा को
जैसे जान लेना चाहती हो
मेरे छाती के रहस्य
मैं नहीं कहूँगी
कहाँ रखी है मैंने सोने की रेत
जिस पर चमकती हैं
दो सफ़ेद मछलियाँ
तुम ये सारे भ्रम बनाये रखना
मैं सुन सकती हूँ
एक अर्से तक
नदी का सच
नदी
4
नदी मृत्यु की ओर अग्रसर है
सूख रहे हैं
कितने ही पेड़ों के धड़
ढूँढती है
थोड़ी सी धुंधलाती रोशनी
सड़क पर फैली पत्तियों का बदल नहीं रहा रंग
शायद सृष्टि पीड़ा में है
पानी को ताप हुआ है
तहस-नहस हो रहे हैं किनारे
मृत्यु जाग रही है
मन समुद्र सा
दौड़ता हुआ
खा रहा है नदी का एकान्त
नदी
5
नदी मृत्यु की ओर अग्रसर है
देखती है जाने से पहले
धूप में फिसलती रात को
नज़र आते हैं उसे
सारे चेहरे एक जैसे
धुंधले उदास थके-थके से पेड़ों के
जैसे पतझड़ में गिर गये हों उनके सारे पत्ते
और अब कोई भी दृश्य
आलिंगन नहीं करेगा उन्हें
पूरा जंगल किसी अतृप्त प्रेमी सा
मौन को परिभाषित करता
जा बैठेगा अपने ही गर्भ में
जहाँ भाषा और स्वप्न के बीच
तितलियाँ तैरती हुईं
उलझ जाएंगी
तुम्हारे हाथों के स्पर्श में
और नदी अपनी देह ही में
बीत जाने देगी
निःशब्द
डूबते हुए सूरज को
नदी
6
नदी मृत्यु की ओर अग्रसर है
धुंध से घिरी
देखती है बूढ़े होते चाँद की ओर
उड़ रहे हैं जुगनू उसके वक्ष पर
मैं सो नहीं पा रही
वो उड़ते हैं तो आर्तनाद होता है मेरी रीढ़ में
मैं टूटती उदासी की गवाह हो रही हूँ
बांध नहीं पा रही
समय और अन्तरिक्ष में ख़ुद को
तैर रही हैं कश्तियाँ डूबते सूरज की ओर
चलो ढूँढें अँधेरे प्रकाश में
चट्टान को
नदी डूबने वाली है
नदी
7
नदी मृत्यु की ओर अग्रसर है
मैं जानती हूँ
उसे छला जा रहा है
मौन से
प्यार से
फिर भी वो सपना देखती है
रोज़ बारिश में बहती किश्ती का
जब मैं फेंकती थी
ब्रह्मपुत्र में सिक्का तो नहीं जानती थी
क्या माँगना है
बस दूर तक फैलती थी नज़र
देखते हुए उसे
मुट्ठी में बन्द सिक्का पिघलता
और कितने ही लौह कण
घूमने लगते मेरे रक्त में
तैरती थीं कितनी देहें
मेरे ही प्रतिरूप में
तुम छल भर थीं
मात्र अपने होने का
मेरी
ख़ाली सभ्यता में खनकता रहा मौन
जलती रही सूखी घास
सिंक रही है नदी अपने ही ताप में.
जसविंदर सीरत अमृतसर में रहती हैं. ‘कोयला’ (2016) नामक उनका एक कविता संग्रह प्रकाशित है. एक और संग्रह जल्दी ही आने वाला है. यहाँ प्रकाशित सभी कविताएँ नयी हैं. |
नए भावबोध की बेहतरीन कविताओं का प्रवाहपूर्ण अनुवाद । प्रस्तुत करने का धन्यवाद।
Thank you Arun Dev ji for presenting these Punjabi poems translated very effectively by Rustam ji.
Jaswinder ‘s sensibility and diction are very close to metaphysical poetry and fascinate.
Regards
Deepak Sharma
देखो कितना टेढ़ा है कविता एकदम ध्यान खींचती है। बहुत नयापन है और भाषा का एक जादुई संसार उपस्थित है। बहुत कमाल की कल्पना और व्यंजना से भरी हैं पंक्तियां। ऐसा होने के बाद भी जीवन की अनुभूतियों में बेहद ईमानदारी के बिंब मिलते हैं। पंजाबी की समकालीन कविताओं से , उसके मुहावरे से वाकिफ नहीं हूं। यह कविता एकदम अपनी लगी। हालांकि जीवन की भाषा सब जगह एक सी होती है। निश्चय ही रुस्तम जी का अनुवाद बहुत सुंदर है। कवि जसविंदर जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएं। उनके कविता संसार से जुड़े रहना चाहूंगा। समालोचन का आभार।
Jaswinder Sirat इतनी सुंदर कविताओं के लिए तुमसे क्या कहा जाए? कितना अच्छा हुआ न हम सब लोग अमृतसर में मिले…. हमें पंजाबी में लिखने वाले कुछ ग़ज़ब के लोग मिले आपके शहर में जहाँ मैं सिर्फ़ अपनी माँ से मिलने जाती हूँ। अब उस शहर के अर्थ और भी घने हो गए हैं।।
लगता है भविष्य में यह आत्मीयता कविताओं में रूपायित होती रहेगी।
अंतिम कविता की अंतिम पँक्ति पढ़ने में नहीं आ रही। किसी icon के नीचे दब सी गयी है।
अनुवाद भी अच्छा है हालांकि अंतिम ड्राफ़्ट में शायद थोड़ा बहुत बदल भी जा सकता है।
मैं इन कविताओं में इतना डूब गया हूं कि त्वरित टिप्पणी करना अपनी सामर्थ्य से बाहर लगता है। अनुवाद इतने सजीव और भाव प्रवण, लगता ही नहीं कि इन्हें किसी दूसरी भाषा से प्रस्तुत किया गया है। कवि, रुस्तम और अरुण देव का आभार कि इतनी सुंदर कविताएं पढ़ने का अवसर दिया।
अनेक रूपकों में एक नदी को देखना एवं महसूसना सिर्फ कविता में ही संभव है। यह हमारी समग्र संवेदना एवं भावनाओं के सतत प्रवाह का हिस्सा है।इसलिए जीवन का नदी से एक गहरा रागात्मक तादात्म्य रहा है। इन कविताओं में प्रेम की सघनता महसूस की जा सकती है। कवि एवं अनुवादक को हार्दिक बधाई !
कितनी सुन्दर उपमाएं और कितने साक्षात बिम्ब
एकदम भीतर उतरती हुई रचनाएं हैं। अनुवादकों का आभार। समालोचन बहुत महत्व की जगह है। कितना कुछ एकसाथ मिलता है जानने और देखने को। एक पाठ से मन नहीं भरा है अभी मेरा। इन्हें फिर से पढूँगी
कविता का व्यक्तित्व किस तरह सारी सरहदों, भाषाओं, जेनेटिक अंतरालों को समेट कर एक जगह नए संसार के रूप में खड़ा कर देता है, इसकी बानगी इन कविताओं से बेहतर शायद हो नहीं सकतीं। सूफी कवियों की बानगी दुनिया के किस कोने में अपनी आवाज नहीं लगती!
Very nice poetry
बहूत ही अलग कविताए, स्तरों मैं फैला हुआ सूक्ष्म विवरण ही इन कविताओ की रीढ़ है,अनूठे बिंब,पाठक को आवाज़ देते हुए,हर कविता का अंत एक सार्थिक अंत के पार फैलता जाता है। बधाई हो।