पंकज प्रखर की कविताएँ
1.
मैं अपने घाव तलाशता हूँ प्रियंगुमंजरी
तुम्हें छोड़कर नहीं आना था प्रियंगुमंजरी!
मुझे ठीक-ठीक हवा का भान न था
कि इतनी सुंदर वर्षा हो सकेगी इस रात
यहाँ पुरवाई चल रही है
कहीं पास से
एक सुगंध-गुच्छ आ कर गिरा है,
मुझे तुम्हारे सुंदर हाथों की याद आई है
सोते हुये तुमने मेरे कपोलों पर रखा था जिसे.
तुम्हारे नाखूनों ने गर्दन पर
जो अनुराग चिन्ह छोड़े है
देखता हूँ तो उसके भर जाने की कल्पना से मन उदास हो रहा है
मुझे तुम्हारे साथ होना चाहिए था प्रियंगुमंजरी!
सोच रहा हूँ कि इस समय तुम क्या कर रही होगी
वही चौके से निकली होगी पसीने से लथपथ
सघन मुक्तकुंतलावली तुम्हारे मुख पर फैल गयी होगी
फिर बालों को खोलोगी
मुँह में क्लचर दबाओगी
और एक झटके में जूड़ा बना लोगी.
तुम्हें सोचता हूँ तो तुम वहीं
चौके के बाहर खड़ी मुस्कराती दीखती हो
उज्ज्वल हिरकावली सी
धवल दन्त पंक्ति चमकती है
तुम्हारी याद मेरी छाती में जम गई है
सोच रहा हूँ ये हवा तुम्हें छू कर आती है मेरी ओर.
2.
तुम्हें कैसे पुकारूँ! प्रियंगुमंजरी
तुम्हारी यादों के बीच
बेला गुलदाउदी हरसिंगार खटकते हैं.
शोर भरी जगहों में तुम्हारी हँसी
किसी मरीचिका सी सुनाई पड़ती है
भागकर पकड़ सकूँ तुम्हें,
सोचता हूँ तो तुम्हारी बात याद आती है.
अजीब वहशत में रात गुजरती है
कि कल दिन होगा,
और अजब कारनामों से भरा होगा
तुम्हारी अनुपस्थिति से भी!
इस ग्रीष्म की तपती दोपहरी में
जब स्वेद सिंचित तन बदन सिहरता है,
कहीं तवे के ताप से
तुम्हारी उगलियाँ भी जल उठती होंगी.
तुम्हें सोचता हूँ तो जी कहता है कि
इन बेकार की बहसों से अच्छा था
तुम्हारा मौन सुनूँ
कोई यत्न करूँ
कोई जोखिम उठाऊँ
और थोड़े दिन तुम्हारे संग रहूँ
अबकी अगर रुकना एक दो रोज मेरे संग
तो अपनी मौन स्वीकृति में ही बतलाना
कि तुम्हारी अनुपस्थिति में
तुम्हें कैसे पुकारूँगा? प्रियंगुमंजरी!
3.
मुझे ग्रसित करो प्रियंगुमंजरी
अधखुली रात की पलकों पे
चाँद ने रख दिए होंठ अपने
सामने खड़े गुलमोहर के नीचे
फुसफुसाता है राहू.
टूट कर अब गिरा कि
तब गिरा पश्चिम से तारा कोई!
कहाँ हो तुम ! प्रियंगुमंजरी..?
4
शीर्ष भार-मुक्ता
स्तोकनम्रा स्तनों वाली नहीं थी तुम
और इस तरह घृताची और
ब्रह्मा की रची तिलोत्तमा भी नहीं.
अधीरता और बौखलाहट के बीच
सुंदरता असुन्दरता से परे
ख़ुद को तुमने चुना
तुम बहुत समकालीन थीं.
तुमने शमी के फूलों से प्रेम किया
छितवन की गंध पर रीझती रहीं
पानी के बदल जाने से
तुम्हारी ही देह पर छाले पड़े
और थक कर चूर होने तक
तवे के ताप से तुमने ही रोटियाँ उतारी.
इस तरह तुम बहुत शिष्ट रहीं और परंपरागत भी.
सबसे ज्यादा धैर्य तुममें ही रहा
सबसे ज्यादा रूप और ओज भी
जीवन को समझने के क्रम में
बहुत बेचैन भी तुम्हीं हुई
अवसाद और नाउम्मीदीयों के बीच
प्रार्थना की तरह तुम्हीं हँसती रहीं.
तुम्हारी ही आँखें थीं सम्भावनाओं से पूर्ण
जो वक़्त पर सिकुड़ कर छोटी होती गई
और विशालाक्षी भी तुम्ही थीं
बहुत उल्लसित दिनों में निर्दयता से
तुमने ही अपने केशों को तिरस्कृत किया
और शोक के दिनों में टूटे नाखूनों तक पर सिसकती रहीं.
यौवन के उत्कर्ष में
बहुत अस्त व्यस्त
देह से बेख़बर बहुत दुःखी करने वाली भी तुम्हीं थीं.
तुम्हारे लिए
कोई वरण संविधान नहीं था
और कोई युद्ध भी नहीं
तुम बिल्कुल भी आसान नहीं थीं
और बहुत मुश्किल भी नहीं
जीवन के सहज रससिक्त दिनों में
सुस्ताते हुए कहीं भी मिल सकता था मैं तुमसे.
5.
भूमा-दर्श
पीठ और कूल्हों के बीच
जहाँ धन्वाकार होती हो तुम
वहाँ सौन्दर्य का भार है:
जीवन की समग्रता का उदात्त स्वरूप
ग़लत समय पर हुई हो तुम
ठीक वक़्त पर देख रहा हूँ मैं
6.
प्रेमिकाएँ
उनका साहचर्य जीवन के कई प्रसंगों में संकटग्रस्त रहा. वे हमेशा किसी दुर्घटना की तरह घटित होती रहीं. बावजूद इसके, इस नक्शेबाज़ दुनिया की परिधि पर स्पर्श रेखाओं की तरह― वे ही एक ऐसी थीं जिन्हें देखकर कहा जा सकता था कि दुनिया और सुंदर होती, अगर हम फेफड़ों में गर्म हवा भर इस चूतड़घिस्स दिनचर्या को लात लगा पाते.
उनके बारे में कुछ भी ठीक-ठाक कह पाना मुश्किल है. बहुत नज़दीक से हमारे साथ पैदा हुईं― दूर से शाकुंतल के किसी पन्ने से निकली― हमारी चौदह साला समझाईंश में वे दसबजिया फूल की तरह थीं.
उनके बारे में ही
सबसे ज़्यादा कहानियाँ थीं
सबसे ज़्यादा मुहावरे थे
सबसे ज़्यादा ग़लतफ़हमियाँ थीं.
बहुत सूखे दिनों में भी
वे बहुत विनम्र
बहुत समझदार बनी रहीं
अधीरता उन्हें छू भी न सकी.
जबकि शुरू से ही वे बहुत व्याकुल
चकित हिरणी की तरह लगती थीं
जहाँ उनके ग़ायब होने का ख़तरा हमेशा से बना रहा.
इधर बहुत दिनों से उन्होंने कुछ कहा नहीं.
कोई बेमन की मुबारकबाद तक नहीं.
इससे पहले कि ग़लतफ़हमियों के सिलसिले कम होते― वे अचानक ग़ायब हो गईं.
7.
बारहमासी
दुःख! मर गये बिलबिला कर
या कुछ पसीने की शक्ल में
बुशर्ट की काँख से चिपके पड़े होंगे.
बेहद बुरा था टूट गया जो स्वप्न
कब तलक साथ देती हरजाई नींद शराब की.
लौटेंगे अभी; बासी मुँह ही
कामनाओं के ज्वर
ले उड़ेंगे
सुख-चैन
गढ़हा है
दलदल है
बहुत हलचल है.
याद आते हैं त्रिलोचन ‘कविता से मिलता ही क्या है!’
याद आती हैं प्रेम करने वाली स्त्रियाँ
याद आता है कि याद आने से मिलता ही क्या है
बहुत भयावह दिन है,
रात है
उदासी है
अब यही बारहमासी है.
8.
इंतज़ार
वह तुम्हें और सुंदर बनाता है
और मेरी समझ को भी
इस तरह तुम्हारा आना भी
सिर्फ़ आने की तरह नहीं
मुझमें अपरिमित धैर्य
और व्यतीत को अर्थ
देने की तरह है.
पंकज प्रखर 24 मई 1994, गोपालगंज, बिहार कुछ कविताएँ और गद्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित. pankaj.prakhar24@gmail.com |
वाह । समालोचन ग़ज़ब के साहित्यकारों से रू-ब-रू कराता है । यूँ एक किताब पढ़ रहा हूँ । द इंडियन एक्सप्रेस, समालोचन और नींद सहित घर के कामों में सामंजस्य बिठाने में यह पत्रिका पढ़ना छूट जाता है ।
कवि महोदय के शब्दों का चयन कंगन पर ख़ूबसूरत क्रिस्टल लगाकर चौंधियाया है ।
सुंदरता पिरोने के पीछे तुम्हारा भी ख़ूबसूरती से साबिक़ा पड़ना बता रहा । अध्ययन किया है । हरियाणा के जाटों में दर्शाने के लिए कहावत है मानो पानी पीना शरीर में घी पीने जितना काम करता है । ‘घी ज्यूँ पाणी पी ज्यों । लेखन में प्रखरता है । फ़िल्मी गीत की पंक्ति है-अंग अंग तेरा तरशा नगीना ओ नाज़नीना, चढ़ती जवानी से मुखड़ा शुरू होता है ।
मूर्खता, पिष्टपेषण, एकरेखीय संलाप, सस्ती-बयानी ही जहाँ हिंदी कविता की समकालीन प्रवृत्ति बनती जा रही है, वहाँ पंकज प्रखर का सजग-सुंदर-सुदीप्त काव्य जेठ-वैशाख में जीवन की धुन बदल देने वाली अचानक की बरखा जैसा है। यहाँ कुछ भी रीति-पीड़ित नहीं है।
सधाव और सुन्दरता – यही दो शब्द पंकज प्रखर की इन कविताओं के लिए कहे जा सकते हैं. अंग्रेज़ी में जिसे chiseled कहते हैं, कुछ वैसा ही लिखा है पंकज प्रखर ने. बेहद शानदार लिखा है पंकज ने
कब तक इन कविताओं के ख़ुमार में रहूंगा, पता नहीं।
अच्छी कविताएँ हैं। पर इनमें भी वही कमी है जो प्रेमिकाओं, और कुल मिलाकर महिलाओं, के बारे में हिन्दी की लगभग सभी कविताओं में होती है: जैसे कि उनमें कोई भी खोट न हो, जैसे कि वे हर तरह से perfect हों। यह एक unrealistic और सरलीकृत रवैया है जो कविता की जटिलता को कम कर देता है। उनके साथ सहानूभूति रखते हुए भी प्रेमिकाओं और कुल मिलाकर महिलाओं को भी उनके गुणों-खोटों समेत उसी तरह देखा और चित्रित किया जाना चाहिए जैसे किसी भी मनुष्य को किया जाता है।
पंकज एक अलग जोनर के कवि हैं l परम्परा कविता मे कैसे आये किस तरह आये उन्हें खूब पता हैँ l भाषा के मिजाज को बरतने वाले कवि हैं l उन्हें शुभकामनायें l
ये कविताएँ भावनाओं की शुद्ध अनुभूति में ‘शुद्धता’ की आश्वस्ति हैं । ये जटिलता से खींचकर सरल स्मृतियों में खोने को कहती हैं । कवि अपनी संवेदना को प्रकट करने में शब्द-संकोच रखता है जैसे भावनाओं को अति की सीमा न छूने देना चाहता हो । वह स्वयं ‘अधीरता’ का शिकार नहीं होता । वह प्राचीनता में लौटता है । जिन दिनों प्रेम की छिछलेपन का बहाव सीवर सा खुला पड़ा है उनमें ये पंक्तियाँ स्वच्छ पारदर्शी नदियों की भाँति हैं । यहाँ उसी पाठक को पहुँचना चाहिए जो प्रेम की पवित्रता को समझता हो, चालाक यहाँ बेचैन हो सकते हैं ।
यथार्थ के नाम पर सौंदर्य और शब्द सौष्ठव से विरक्ति की हद तक बिदके हुए समकालीन काव्य परिदृश्य के बीच पंकज प्रखर की कवितायें पंरपरा के रूपक को आधुनिक पाठ में ढालने का सदप्रयास हैं। आधुनिक प्रियंगुमंजरी के क्लच से बालों को बांधने का चित्र यूं तो नवाचार है लेकिन कविता के ढांचे में अटपटा क्यों लग रहा है जाने?