पारुल पुखराज की कविताएँ |
1
पॉपी के फूल
i
कितने ही नामों से पुकारते हैं
कितनी ही बार करते हैं अनसुना
मृदु पंखुरियाँ लजाई
मुख फेर लेती हैं
करती हैं कानाफूसी
कनखियों से बात
ii
मोहित कपोल पर रक्तिम
तितली सफेद एक
देखो
तुम देखो
जाएगी नजरा
चितवन से मेरी
iii
झुका देते हैं शीष
भ्रमर की गुहार पर
कभी तो सर्वस्व न्योछावर
कभी तो पलक बन्द
फागुन की रीत निराली
नेह-छोह फागुन का
iv
काश देखा होता
मुस्काना
सदा हाँ में सर हिलाना
काश देखी होती
जिजीविषा
बने रहने की अदम्य
लालसा
पत्ती-पत्ती
चुक जाना
v
अनवरत पुकारते हैं
काँपते हैं
धूप के आलिंगन में
चैन हर लेते हैं सजीले
यह नहीं सम्भव कि सिर्फ़ खिलें और
झर जाएँ
vi
आकाश में तारे टिमक ही रहे थे
होने लगीं प्रस्फुटित कलियाँ
सूर्योदय संग करतल ध्वनि हुआ
दिन-आरम्भ
फूल हो गए
भूल दूसरे पहर की झंझा
संध्या पूर्व क्यारी में एक न रहा
शोख़ कहा था जिसे हमने
vii
प्रस्तुत हैं आज भी
स्वागतोत्सुक
मनोहर दुशाले में झूमते
बड़े तड़के ही
मूसलाधार वर्षा बाद
लज्जित मनुष्यता के सिरहाने
रण-भेरी गूँज रही
viii
अयोग्य हैं गुलदानों के
प्रिया की वेणी में भी नहीं टाँकता कोई
ईश अर्चना में सर्वोपरि
गेंदा, गुलाब
फुलचुक्की नहीं ठहरती निकट
एक मेरे अधीर मन को
ऋतु आह्वान पर उपजते हैं
मधुकर के मीत
ix
यत्र-तत्र सर्वत्र
आदमक़द सूरजमुखी
चैत की प्रतिपदा
किसी कौतुक-सा
रुआब को उनके मुँह बिराता
बचा है एक
चंचल
चित्त
2
एक व्यक्ति डर से ढका
एक उसे ढाँपता
एक निगलता शब्दों को
एक उन्हें उच्चारता
सुबह के टटके आकाश पर
शोर का पसारा
“जीवन सहस्त्रमुख भय
सहस्त्रमुख शोक का स्थान।”
3
पढ़ पाएँगे नहीं
पखेरू
पशु भी
किन्तु ठहरेंगे
जिसका पता है यहाँ
जो है नहीं
उस जल को
ऋतु यह एक अबूझ
पेड़ हैं जहाँ
धूप है
छाया नहीं
4
वहाँ तयशुदा रास्ता नहीं पगडंडियाँ हैं
पेड़-पत्तों की झूम
दूर इक छुपी नदी की मद्धम उपस्थिति के बीच
दिन चढ़े धूप की आत्मीयता
सन्नाटा इतना कि गाँठ बाँधी जा सके
हवा की बारीक कहन
गूँज पलटती हमारे ही शब्दों की हम तक
ऊँघ तोड़ निहारती गिलहरी डोलती नहीं तनिक
गुज़रता बेआवाज़ पखेरू दल
हम नाप-तौल रखते कदम
भंग न हो रियाज़
मुड़ जाता तभी पाँव
आन लगती
न जाने किसकी आह
5
दूर है मधुमास
किन्तु आभास कि आ पहुँचा
झील उगलती है वन में पगडंडियाँ
प्रवासी बिसारते हैं राह के दुःस्वप्न
समय सरकता निःशब्द
दुख-सा दुख नहीं कोई
तुम पहचानते जिसे
मैं चीन्हती हूँ
कुछ सुहाता नहीं बस
फूँक कर गरम जल गटकते एक वर्ष और बीता
कभी लगा इक उजला पंख गिरेगा मुझ पर
कभी लगा एक उजला दिन
मुहाफिज़ों की मुहाफ़िज़
स्वयं तक लौटने का मार्ग भूल चुकी
दूर है मधुमास
साधक कह गया
प्रपंच व प्रेम का भेद जानो
6
तबदील हो गयी हूँ चूहे में जाने कैसे
हिम्मत घुटनों के बल रेंग रही
काया समूची मैली-कुचैली
निकल आई है पूँछ रीढ़ से खदबदाती
बिल में नहीं एक भी कोना सूखा शेष
गुम हो रहे लोग निरन्तर
बचे जो
हैं कलह में निमग्न
सब पता है सबको
बात करते मैं तुम्हारे बिल्ली नाखून टोहती हूँ
तुम मेरे चूहे दिल पर मन ही मन लगाते हो ठहाका
अलाव जल रहे हैं
कुहरा गिर रहा है
दबी है मेरी पूँछ मुँह में मेरे
7.
कहो किसकी अगवानी
आ विराजा सांध्य तारा
दक्षिण दिशा यह
मेघ छितराये पूरते आकाश पर
अल्पना साँवली-सी
रह-रह उमगती गन्ध
शेफालिका की
कहो किसकी प्रतीक्षा
चुप हैं दीप
देवालयों के शंख सारे
मौन
पारुल पुखराज जन्म, उन्नाव, उत्तरप्रदेश. प्रकाशन : कविता संग्रह जहाँ होना लिखा है तुम्हारा व डायरी आवाज़ को आवाज़ न थी. दोनों सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर, से प्रकाशित. बोकारो स्टील सिटी में रहती हैं./ parul28n@gmail.com |
अद्भुत, सूक्ष्म, सुगठित और अतिसुन्दर कविताएँ। पारुल पुखराज इधर के कवियों में और वास्तव में हिन्दी कविता के पूरे परिदृश्य में अद्वितीय हैं, अलग हैं। ऐसी कविता पहले नहीं लिखी गयी, न आज ही कोई लिख रहा है। वे इधर के उन थोड़े से कवियों में हैं जिन्होंने अपने पहले संग्रह से ही अपना निजी स्वर, अपनी भाषा और कहन का अपना ढंग विकसित कर लिए हैं। तेजी ग्रोवर के अलावा वे शायद अकेली ऐसी कवि हैं जिनकी कविता में कुछ भी, ज़रा भी अतिरिक्त नहीं होता — सब कुछ नपा-तुला, बस उतना ही जितना होना चाहिए।
बहुत बढ़िया। पारुल दी सभी कुछ बढ़िया लिखती हैं। उनकी एक संस्मरण की किताब भी आई है ‘ आवाज़ को आवाज़ ना थी’। उनकी पसंद चित्रों और संगीत में झलकती है। बहुत बधाई उनको और समालोचन को।
पारुल जब रज़ा फाउंडेशन के एक कार्यक्रम में दिल्ली आई थीं, तब सुनी थीं उनकी कविताएं। उनकी कविताए कलात्मक अभिव्यक्ति की ताजगी लिए हुए हैं और उनमें बंदिश से निकलने की छटपटाहट है।
इधर कम ही देखने को मिलती हैं उनकी कविताएं।
इन बेहतरीन कविताओं के लिए बधाई और शुभकामनायें।
हीरालाल नागर
मौन प्रकृति की एक दुर्लभ सौगात है और केवल यही शाश्वत है। ये कविताएँ एक दृश्य रचकर मौन हो जाती हैं। समकालीन कविता से अलग ये कविताएँ प्रकृति को अपना आसंग बनाती हैं।इसलिए इनमें एक अलग किस्म का स्वाद है। पारूल जी को बधाई !
पारुल की इन कविताओं ने भी मेरा मन पूरी तरह मोह लिया।
मैं पारुल से हमेशा कुछ सूक्ष्म, सुंदर, सुगठित, सुवासित ग्रहण करती हूँ, सीखती हूँ। शास्त्रीय संगीत और ऐन्द्रिक भाषा की संगत जो उनके जीवन में है, वह उनकी कविता में पूनो के चांद के समान बिम्बित रहती है।
कवियों की कवि! क्या हुआ यदि शमशेर के लिए ऐसा कहा गया है? पारुल की कविता इस बात का जीता जागता प्रमाण है कि कवियों के कवियों की भी उपस्थिति हिंदी में बराबर बनी हुई है, और उस उपस्थिति का उजास पारुल जैसे कवियों की बदौलत शिद्दत से महसूस होता है।।
कविता वहीं घटित होने में सहजता पाती है जहाँ उसे ‘कहने’ के दबाव से मुक्ति हो। यथासंभव अनकहे में वह सहज साँस ले पाती है। यह कविता कर्म यह पुष्टि करता है। यहाँ देखना ही कहने की भूमिका है। दृश्यों के अपने शब्द और स्पेस और सन्नाटा है इन्हें साध लेना या इन्हें निभा लेने की सामर्थ्य व मर्म हासिल कर लेना काव्य कर्म के प्रति संलग्नता का प्रमाण है। हिन्दी कविता को ये कविताएँ उनका वांछित राग प्रदेश देती हैं, उस की विराट परम्परा की भूमि को इस तरह कवि ने उसका वैभव व स्पंदन प्रदान किया है। कवि का यही काव्याग्रह होता है। प्रकृति जहाँ पृथक से उत्पाद की तरह आरोपित न हो अपने प्राण संचयन की प्राकृतिकता में रूप पाती है। कला का सत्याग्रह इसी तरह निभता है।
बेहतरीन कविताएँ हैं। सूक्ष्म भावों की महीन चितेरी हैं पारुल जी। इनकी कविताएँ बहुत हौले से छू जाती है मन को और देर तक सुवासित रखती हैं।