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समालोचन

Home » एक प्रेमकथा में रेणु : कविता

एक प्रेमकथा में रेणु : कविता

कहानियों में प्रयोग का सिलसिला रहा है. कई लेखकों ने मिलकर एक कहानी लिखी तो किसी अधूरी कहानी को दूसरे लेखक ने पूरा किया. प्रसिद्ध कहानियों को नए लेखकों द्वारा फिर से लिखने के अनेक उदाहरण हैं. पर किसी प्रसिद्ध लेखक की कहानी में उस लेखक को ही नायक बनाकर दुबारा उसे लिखने के शायद कम ही प्रयास हुए हैं. चर्चित कथाकार कविता ने रेणु की कहानी ‘एक लोकगीत के विद्यापति’ में ऐसा ही रचनात्मक जोखिम उठाया है. इस कहानी को पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे रेणु को ही पढ़ रहे हैं. भाषा और शिल्प उसी तरह ढल गए हैं. रेणु का जीवन भी आ गया है. एक तरह से उन्हें फिर से देखा जा रहा है. अब यह कहानी आपके समक्ष है. आप देखें. इस जातीय कथाकार का आज स्मरण दिवस भी है. और ईद के लिए आप सबको मुबारकबाद.

by arun dev
April 11, 2024
in कथा
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एक प्रेमकथा में रेणु : कविता
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एक प्रेमकथा में रेणु
कविता 

II प्राक्कथन II 

 

रेणु की कहानी ‘एक लोकगीत के विद्यापति’ अपनी चुप्पी में सबसे ज्यादा प्रभाव डालनेवाली कहानी है. छोटी-सी यह कहानी जितनी कहे गए में है, उससे ज्यादा अनकहे में- रिक्तियों के भीतर, चुप्पियों के अंतराल में, न समझे जाने और समझ पाने की किसी अकथ पीड़ा के ठीक बीचोबीच… ‘विदापत नाच’ रेणु का लिखा पहला रिपोर्ताज है, जिसके लिए उनका शोध जगतव्याप्त है. उसके लगभग दस साल बाद लिखी थी उन्होंने ‘एक लोकगीत के विद्यापति’.

इस कहानी को पढ़ने के क्रम में एक नयी कहानी के कई सूत्र मेरे आसपास विचरने लगे. इसकी ‘मैं’ शैली भी लगातार मेरे इर्दगिर्द एक नयी कहानी का प्रस्थान बिन्दु रच रही थी. इसे पढ़ते हुए यूँ  भी लगा कि कथा-सूत्रों के बीच कोई गहरा अंतराल है, जो छूटा रह गया, अछूता रह गया. मेरे भीतर चल रही उस नई और समानान्तर कथा में विद्यापति की जगह रेणु, कोइली के पिता की जगह जनकदास और कोइली की जगह जनकदास की विधवा बिटिया ने आकार लेना शुरू कर दिया था. एक अंजान से गाँव में दोनों ही आगंतुक अनागत अतिथि ही तो हैं…

इस कहानी को लिखने के क्रम में क्या रेणु विद्यापति नहीं हुए होंगे? क्या उनका मन नहीं पिघला होगा, उस रूपसी के आतिथ्य भाव से? रेणु का पल-पल प्रेम में घुल जानेवाला, उसमें डूब फिर न उपरानेवाला उनका प्रेमिल मन? प्रेम प्राप्ति और फिर उस प्रेम को अपने हिस्से का बनाए रखने के लिए झूठ-सच, नैतिक-अनैतिक के पचड़े में न पड़ने वाला स्नेहिल-मोहिल मन…कोई तो तर्क होगा, कोई जीवन-दृष्टि जो उन्हें यह सब करने से बरजती नहीं होगी?

हुया क्या था? कुछ हुआ भी था कि नहीं? यह सच है कि गल्प? यह तो सिर्फ रेणु जानते होंगे… पर छाती पर किताब रखे अचानक आई किसी तंद्रा में सारे सूत्र अपने आप एकमेक होते रहे. कड़ियाँ से कड़ियाँ स्वतः जुड़ती गईं.

एक प्रश्न कहानी के किरदारों को लेकर भी था, एक किंवदंती पुरुष और लेखक को बा-वजूद कहानी में खड़ा करने, उसके आसपास के सारे चरित्रों को सनाम लाने को लेकर आशंकायें, प्रश्न-प्रति-प्रश्न का डर और सत्य और गल्प को एकमेक किए जाने के बावजूद व्यक्ति और व्यक्तित्व को मौलिक बनाए रखने और धुंधला न पड़ने देने की अकथ चुनौती…

डर से लड़ने में स्वयं रेणु ही सहायक हुए. ‘एक लोकगीत के विद्यापति’ ही उदाहरण बनी और इस समानान्तर कहानी का प्रस्थान बिन्दु भी.

रेणु की  कहानी से उधार ली गयी पंक्तियाँ यहाँ  अलग से रेखांकित हैं. जिन पाठकों ने रेणु की वह कहानी नहीं पढ़ी है, उनके लिए ये अंश दोनों कहानियों के बीच एक पुल का निर्माण तो करेंगे ही,  शायद  उस कहानी को पढ़ने के लिए उत्प्रेरित भी करें.

 

II 1)

(जनकदास की पलानी में मैं पुआल पर लेटा रहा दिन-भर उसको दया नहीं आयी. उसकी बेबा जवान बेटी ने मेरी ओर से वकालत की, तब भी वह नहीं पसीजा. उसने साफ़-साफ कहा- अपने खानदान की ‘हँसाई‘ की बात भला कौन ‘गजट‘ में ‘छापी‘ करवाना चाहेगा?’ बूढ़ा जनकदास बैलों को खोलकर चराने चला गया.)

जब से रेणु खुद को भद्र और शिक्षित समझने लगे तब से ’विदापत नाच’ से दूर रहने लगे.  अक्सरहाँ तथाकथित भद्र समाज के लोग इस नाच को देखने में अपनी हेठी समझते हैं, किन्तु थोड़े दिन पश्चात  उन्हें अपनी ग़लती मालूम हुई और वे फिर से इसके पीछे ‘फिदा’ हो चले. लेकिन अब जब वे नाच के समय पहुँचते, नाचने वाले के पाँव शिथिल पड़ जाते, मृदंग की आवाज़ धीमी पड़ जाती और नाच बन्द होने-होने को हो आता.

मेलों में अब वे प्रायः अपने दिल की साध पूरी करते, पर पर वह भी बहुत थोड़ी देर के लिए…

विदापत नाच के लिए उनकी यही उत्कंठा इस अज्ञात-अजात गाँव तक खींच कर ले आई थी… लेकिन यहाँ भी उन्हें इसी बेदिली का सामना करना होगा, भला यह कब सोचा होगा उन्होंने?

तो दूसरी रात को जनकदास ने, बहुत खुशामद करवाने के बाद अनुमति दी. उनको जब यह विश्वास हो गया कि ‘विद्यापति-नाच-मंडली’ के नाम पर, खर्च करने के लिए हजार-दो हजार, सरकार के खजाने से लेकर रेणु नहीं निकले, तब जाकर कहीं उन्होंने अपने मृदंग पर थाप दी थी…

नर्तक ने समाजिये के चारों ओर भाँवरी देना शुरू किया. ‘विकटा’ भी उसके पीछे-पीछे चक्कर लगा रहा है और मृदंग के प्रत्येक ‘श्रृंग’ पर मुँह विकृत कर जोर-जोर से ‘ओय्-ओय्-ओव् करता है.

‘अब नर्तक एक ही स्थान पर जम कर झूमने लगा. गन्दी घाघरी फूल की तरह खिल गयी और उससे गुमी हुई दुर्गन्ध निकल कर चारों ओर फैलने लगी. ‘बिकटा’ भी नर्तक का अनुकरण कर रहा है, पर बेचारे का तंग पतलून खिले तो कैसे?

‘हे लेल परबेश परम सुकुमारि
हंस गमन वृषभान दुलारि
अवसर अनिता मन नही मेरे…….’

‘हे विहंसि उठलि पिऊ देखि सुहागिनि लाज बदन लेल फेरि…

नर्तक विहंस कर मुँह फेर लेता.

‘नाच समाप्त. अब चलिये घर चलें.’ जनकदास ने जब कहा तब भोर का तारा आकाश में जगमगा रहा था.

 

II 2)

(मैंने जब दूसरे दिन, जनकदास से इस नाच के उद्गम-उत्पत्ति और इतिहास के बाबत पूछा तो वह बोला- पता नहीं कब से हमारे खानदान में इस नाच की ‘मूलगैनी‘ चली आ रही… जनकदास की इस उदासी का कारण था, मेरा टेपरेकार्डर. दूसरा मेरा सरकारी कर्मचारी न होना..’चुपचाप सब गीत फीता में आप भर लिये, चालाकी से. फोकट में अपना काम बना लिया आपने?’

और, अंततः पचास रुपये नकद देने के बावजूद उसने मेरे इस प्रश्न का कोई जवाब नहीं दिया कि खेतिहर मजदूर, चरवाहे और गाड़ीवानों ने कैसे और कब विद्यापति की पदावली को गा-गाकर नाचना शुरू किया.)

लेकिन जाने से पहले उन्हें टारने के लिए यह जरूर कहा- “नाच-वाच तो यह भला क्या  होगा? खिन्न-दीन, अभावग्रस्तों ने घड़ी भर हँस-गाकर जी बहला लिया, व्यंग्य बाण चला लिया, इतने से जी हल्का हो गया उनका. अतृप्त जिन्दगी में कुछ क्षण सुख से बीते. मिहनत की कमाई, मुट्ठी भर अन्न के साथ आज उन्हें थोड़ा सा मनोरंजन भी मिला. जीवन सार्थक हुआ कुछ पल को…इसके सिवा इसकी और क्या सार्थकता है?’

आप आर्ट, फॉर्म और न जाने क्या-क्या कह रहे इसे. लेकिन मैं आपसे सिर्फ इतना कहता हूँ कि यह महज़ ‘बिदापत-नाच’ था. गाँव-जवार के निचली जात के लोगों का एक सस्ता मनोरंजन…यहाँ कोई कला-वला, फॉर्म-वर्म कुछ भी नहीं…”

लेकिन एक आधी-अधूरी कहानी किसी ने किसी को चुपके से सुनाई थी…पर आधी के बाद बात थमी रही. जनकदास जिदिआए रहे, बेटी पर कड़ी-निगाह रखते रहे- कच्चे मन की लड़की सेंत-मेत में सब किस्सा कहीं कह ही न जाये…

लेकिन वह किस्सा कह रही थी…और वे किसी चलचित्र की तरह सब देख-सुन रहा थे-

वो सुना रही…. बैशाख शुक्ल चतुर्दशी का चाँद, एक घड़ी साँझ को जबर्दस्ती पनघट पर रोक रहा है, गाँव की लड़कियों को. कोसी की दुबली-पतली धारा में जलकेलि कर रही हैं…

बप्पा बुला रहे हैं. जरूर कोई बात है.  “बेटी! अतिथि आये हैं, एक. उच्च वर्ण के अतिथि.“

उन्हें स्मरण हो रहा-‘ मैं जब पहुँचा था कनचीरा, जनकदास ने भी ऐसे ही पुकारा था-‘ बेटी मेहमान आए हैं, गुड़ पानी कुछ लेकर आओ.

उधर कहानी में ‘कोइली तुनककर कहती है – “उच्च वर्ण के हैं तो हम नीच-जन के घर क्यों आये हैं? उन्हें ब्राह्मण टोली का रास्ता दिखला दीजिए.”

उन्हें ख्याल आता है- “जनकदास की इस बिटिया की  निगाहों में भी तो कुछ ऐसा ही तुर्श उपालंभ था. इस संभ्रांत अतिथि का इस दीनहीन के घर भला क्या काम? बिटिया की निगाहों की बेचैनी पढ़ता है जनकदास…”विदापत नाच के बारे में कुछ जानना चाहते हैं. हाँ, पता है, मड़ैया में जगह नहीं उनकी खातिर गोठान  में रहेंगे, काम खतम करेंगे और चले जाएँगे…खाने-पीने की भी चिंता न करनी हमें इनकी…बाजार पर जाकार खा आएंगे…”जनकदास की बेटी की आँखों में फिर भी नागवारी है…

वे छटपटा रहे, सिर दर्द से फटा जा रहा था, शायद ताप भी हो रहा… काढ़ा और भुजा हुआ चिउरा-चबेना लेकर आई थी वही लड़की- “खा लीजिये, बाजार पर भी नहीं जा रहे, खाना पीना कुछ नहीं…लगता है मन खराब हो रहा आपका. बप्पा के मन बदलने का इंतजारी बेकार है…चले जाइए अपने घर. बप्पा नहीं बतानेवाले…”

उन्होंने कहा था- ‘अब जाएँगे तो सच जानकर ही, पूरी कथा सुनकर ही…वरना नहीं जाएँगे.  यहीं पड़े रहेंगे पलानी में, तुम्हारे बप्पा की मदद कर दिया करेंगे खेती-पानी और गाय-गोरु की देखभाल में…”

न जाने ऐसा क्या कह दिया है कि कन्या की आँखों में अविरल बहती जलधार है….रोते-रोते वह भीतर भाग चली है…

बाद उसके उन्हें चौक जाने की जरूरत नहीं पड़ी. वक्त-वक्त पर उनसे जो भी संभव हो वैसा अच्छा भोजन…शीतल पानी का लोटा और जब भी वे बाहर गए, उनका दूसरा धोती कुर्ता धोकर पसारा हुआ मिला.

कहानी में ‘बाहर, मड़ैया में लेटा हुआ अतिथि ज्वर में बड़बड़ाने लगा- ‘समुचित औषदे ने रहय बेवाधि! हे हरि, हे हरि…!!’

उनकी औषधि तो अब वह कथा ही है…उसे जाने बिना न अब कोई चैन है न आराम…

कहानी में कोइली चौंकी है, अतिथि का प्रलाप सुनकर उसकी देह सिहर उठी- “इतनी मधुर वाणी!”

लड़की हैरत में है- इतना धैर्य, इतनी विनम्रता, ज्ञान कितना और ऊपर से यह अतुल रूप…देखो जो एकटक तो नजर सिहा जाये…वही नहीं देखती कभी अतिथि की आँखों में…

‘वे छोटे से अपने रिकार्डर में बोलकर टेप कर रहे, जितनी थोड़ी जानकारियाँ हैं, वे भी कहीं स्मृति से निकल न लें- ‘जब जब मैंने मैथिल पंडितों से पूछा- यह कैसे हुआ, बोले, आप किस फेर में पड़े हैं? इन्हीं मूखों के कारण आज विद्यापति की दुर्दशा हो रही है. ऐरे-गैरे-न्त्थू-खैरे जिसके जी में जब आया-विद्यापति के नाम पर ‘चार पदावली’ जोड़ दी. आपको धोखा दिया जा रहा…आप गुमराह हो रहे हैं…’

बातों को मशीनबद्ध करते-करते वे ठमके हैं. दूर किवाड़ की ओट से कोई एकटुक उन्हें सुन रहा, दो भरे हुए नयनों के साथ. सोचते हैं, ये इसकी आँखें इतनी भरी-भरी क्यूँ रहती हैं हमेशा…? मृगनयनी…अपरूप रूप…

ये आँखें किन आँखों की स्मृतियाँ दिलाती रहती हैं?

 

II 3)

फणीश्वरनाथ को बसंत पंचमी का वह दिन याद आ रहा. जगह इलाहाबाद है. प्रकाशक के कहने और उसके खर्च पर वे इलाहाबाद में रहकर ‘परती परिकथा’ लिख रहे हैं. पटना में रहना लिखने से रोक रहा इन दिनों…कॉफी हाउस के रेणु कॉर्नर में रोज जुटते हैं लोग. उनकी मेजबान की भूमिका तय हो रखी है. बहसें और बहसें…ढेरों बातचीत…लेकिन पान, कोला, कॉफी, सिगरेट का बिल रेणु ही भरते हैं…इसीलिए आर्थिक समस्या और वक्त बचाने दोनों की दृष्टि से, लिखने के लिए अबकी पटना छोडना पड़ा…

एक शाम जब वे टहलने के लिए संगम तक निकले हैं, देखते हैं- ‘माता सरस्वती की पूजा हो रही, वेद मंत्र पढ़े जा रहे…कुछ बंगालिन महिलाएँ अपने बच्चों का विद्यारंभ संस्कार कराने आई थीं, उन्हीं में से एक पंद्रह-सोलह साल की सुंदर सी लड़की पर रेणु जी की नजर अटक गई- अरे, यह तो बनारस वाली बबली लग रही…वे पहले की तरह झिझकते नहीं, जाकर साफ-साफ पूछते हैं- “तुम्हारा नाम बबली है क्या?”

उस लड़की ने अपने पीछे खड़ी औरत की ओर इशारा करके कहा है- “मेरी माँ का नाम बबली है.  वो रही मेरी माँ.”

पल भर को खुद पर ही हँस देते हैं फणीश्वर. वे नवयुवा से अधेड़ होने लगे, तो क्या बबली अबतक …?

औरत भी वह संकोची बालिका कहाँ रही, छूटते ही कहती है- “तुम वही हो न जो बनारस में मेरे पीछे-पीछे…”

रेणु संकोच में आ जाते हैं…वे नजरें चुराकर देख रहे, रूप भी कैसे अपना विस्तार करता है; एक ही मिट्टी की दो प्रतिमाएँ, एक अगाध-भोली, अनगढ़ किशोरी. एक सुगढ़, अनुभवी, श्वेत केशों वाली. पर उससे क्या, रूप तो अभी भी वही अपरूप है, दोनों ही अपरूप…

उन्हें याद आता है, बनारस का असमेघ घाट! बंगाली मोहल्ले के जिस मकान में रहकर फणीश्वर नाथ बनारस में पढ़ते थे, उसकी छत पर खड़े होकर शाम के वक्त वह सड़क पर आते-जाते लोगों को देखते रहते हैं, यूँ ही, मन बहलाने के लिए! घर परिवार से दूर उनके मन बहलाव का यही एक मात्र साधन है. एक दिन अचानक उनकी नजर उस बंगाली लड़की पर अटक गई- उस अद्भुत सौंदर्य को फणीश्वरनाथ निहारते रहे, देर तक…उठते-बैठते, सोते-जागते फणीश्वरनाथ को बस अब वही चेहरा दिखाई पड़ता है. उसी अलौकिक सौंदर्य के बारे में  सोचते रहते हैं, वे हमेशा…एक-एक क्षण उसी मृगनयनी की चिंता में बीतता है, फणीश्वर नाथ का. कई बार छत पर से तेजी से उतरकर फणीश्वरनाथ ने उस लड़की का पीछा किया है, लगभग भागते हुए. लड़की तुरंत कहीं लापता हो जाती है. उस दिन बहुत ढूंढने के बाद वह दिखाई पड़ी! उन्होंने मुश्किल से उसका नाम पूछा है, जीभ जैसे तालु से चिपकी पड़ी हो…लड़की ने नाम बताया- “बबली”…लड़की फिर लापता है, न जाने कितने दिन इस इंतजार में बीतेंगे…

इन्हीं अनमन दिनों में फणीश्वरनाथ को अपने पिता शिलानाथ मंडल का पत्र मिला है- ‘शादी पक्की हो गई है, घर आ जाओ. मन में उछाह से अधिक कहीं दुख है…उन्होंने  खो दिया है उस मृगनयनी को…उसका कोई  अता-पता नहीं…वे खुद को सहेजते-समझाते हैं- ‘पत्नी आई तो जो होगी, जैसी होगी, उनकी होगी. उन्हें उसके पीछे-पीछे पढ़ाई-लिखाई छोड़कर, अपने काम त्यागकर नहीं भागते रहना होगा. वो उन्हें छोड़कर नहीं जाएगी कहीं…गाँव पहुँचकर फणीश्वरनाथ ने अपनी माँ से पूछा है- “कहाँ का बरतुहार है?”

माँ ने प्रसन्न होकर कहा है- “बेलवा गांव, कटिहार से पाँच कोस पूरब. लड़की का नाम ‘रेखा’ है. थोड़ी पढ़ी लिखी है. बाबू इसी मारे तो तैयार हुए.”

सोचते हैं फणीश्वर, रेखा कितनी सुंदर हैं, कितना सुंदर गाती है- “तोहे शरण यह तन-मन-जीवन… अरज यही बस रहूं सुहागन..” लेकिन फिर भी वो एक सुराजी होने के नाते, सुराज के लिए रेखा को अकेली छोड़कर जेल जाना चुनते हैं.

जेल से लौटकर आये फणीश्वरनाथ उसे देखकर सन्न हैं…डॉक्टर ने कहा है- “पैरालाइसिस का अटैक है! कितनी जीवंत और सुंदर रेखा, मिट्टी की बेजान मूर्ति जैसी रह गई है. शरीर हिलता-डुलता तक नहीं. दिनभर बिछावन पर पड़ी रहती है…रो-रो कर बुरा हाल हुआ रहता है उसका. डॉक्टर इलाज कर के थक गए हैं, कोई सुधार नहीं. डाक्टर ने फणीश्वरनाथ से साफ-साफ कह दिया है- “कलकत्ता ले जाइए. शायद कुछ हो सके. बाढ़ के बाद हैजा-पीलिया-मलेरिया-कालाजार का प्रकोप है चारों तरफ. कहते हैं सब विपत्तियाँ एक साथ आती हैं…कैसे ले जाये वो रेखा को कलकता? अब वे दिन भर घर से बाहर रहते हैं…रेखा के सामने पड़ना ही नहीं चाहते.

उस दिन सबसे कहकर उसने उन्हें अपने कमरे में बुलवाया है. वही कमरा जो कभी रेखा के संग-साथ की वजह से उनका नितांत प्रिय हुआ करता था. जहाँ की रातों और बातों के बाद लगता था, दुनिया में इससे कुछ सुंदर भला क्या होगा? वहाँ चारों तरफ रेखा के बीमार शरीर की गन्ध तैर रही थी…सिवाय अंधेरे और अवसाद के वहाँ कुछ भी नहीं…है तो बस रोती-बिलखती-तड़पती रेखा… बगैर उसकी आँखों की तरफ देखे उन्होंने  पाइरालाइज्ड रेखा की जिद को उस दिन अस्वीकार कर दिया था- ‘नहीं वे नहीं करेंगे दूसरी शादी, उसके जीते जी तो कत्तई नहीं. क्या हुआ जो वो अभी बीमार है, क्या हुआ जो वो उसका इलाज भी नहीं कर पा रहे? उन्हें अभी भी उम्मीद है वो ठीक हो जाएगी…

रेखा उनकी प्यारी पत्नी है… उनका प्यार है, संबल है, उसके जीते-जी वो नहीं कर सकते दूसरी शादी. बिटिया के लिए भी नहीं…

 

II 4)

(तो आखिरकार’ जनकदास ने स्वीकार किया- पहले इस नाच में ‘राधा‘ बनती थी- मूलगैन की बेटी ही. राधा बनती थी, पदावली गाती थी और पैर में घुंघरू बाँधकर नाचती थी. विद्यापति-नाच की पदावली स्वयं विद्यापति ने उसके परिवार को दी थी…किंतु उसने बार-बार अनुनय किया, यह बात किसी ‘गजट‘ में छापी हो तो उसको पैसा जरूर मिले इसका में खयाल रखूँ.)

लेकिन बावजूद इसके, आगे की कहानी पता लगने का कोई ओर छोर नहीं, जनकदास की बिटिया नहीं आती अब गोठान, सख्त मनाही है…उनके रहते तो गलती से भी नहीं…पर दूर से भी महसूसते हैं वो उसकी छाँह-आह…उन्हें बराबर लगता है वे निगाहें लगातार उन्हें ही निरख रही…वो मृगनयनी …अपरूप रूप..’

ऊबे-खीजे पर अपनी जिद पर अटके रेणु उस दिन बाजार निकले हैं. तनिक देर को तो मन हल्का हो…उन्हें वहाँ गोधन दास मिला है. उन्हें देखकर चिहा गया है एकदम से… ‘का महराज एकदम से ना-पता हो गए. बताइये अइसा कोन करता है भला? बच्चा सब कुहुक रहा, पद्मा भौजी कठकरेजी बनकर घर दुआर हमेशा जइसन संभारे जा रही. एतना त ऊ बरदास करिए लेती हैं… आदत है… उनको पता है, आप गाम कम रहते, पटना जादा. जानती हैं आपका गोड़ टिकबे नहीं करता एक जगह. लेकिन किसी-न-किसी को तो पता होना चाहिए? किसी को तो बता के आना चाहिए?’ उनको पता लगा है, आप पटना भी नहीं हैं, छोटकी भौजी पास…पद्मा भौजी बता रही थीं लतिका भौजी बिछौना से लग गयी हैं, बोलवाने पर भी घर-दुआर नहीं आतीं. अपना पढ़ाई का, टरेनिंग का बहाना…आपने ही कहा है शायद कि ‘दुन्नो गृहस्थी अपना-अपना जगह रहे उहे ठीक…’

गोधन को सुनते-सुनते वे अचानक से पलटे हैं और निकल भागे हैं उल्टे पाँव. आकर कपड़ा लत्ता समेट रहे…सब समान जोड़-चेत रहे…ना, अब नहीं रहना इस गाँव…चाहे कहानी आधा रहे कि पूरा…चाहे जानकारी आधी-अधूरी ही क्यूँ नहीं रह जाये…पर बच्चों से, लतिका से, पद्मा से, दूर नहीं रहना. उनसे कुछ छुपाना भी नहीं…

 

II 5)

पी.एम.सी.एच. में इलाजरत फणीश्वरनाथ की तबीयत धीरे-धीरे सुधर रही है. उस नर्स की दिन-रात की समर्पित सेवा ने रंग दिखाना शुरू कर दिया है. खून की उल्टियाँ बंद हो गई हैं, दर्द भी कम हो गया है. लेकिन आज तक फणीश्वर से उसका नाम पूछने की हिम्मत नहीं हुई है. नर्स रात में दो-तीन बार आती है. नर्स को वार्ड में आता देख फणीश्वरनाथ आँखें बंद कर लेते हैं, जान-बूझकर! जागते हुए भी सोये रहने का नाटक! वह नर्स आकर फणीश्वरनाथ का नब्ज टटोलती है, सिर के नीचे तकिया ठीक कर देती है और चादर भी ओढ़ा जाती है! निस्वार्थ सेवा की प्रतिमूर्ति है वह! कल रात वार्ड की बिजली गुल थी; वह नर्स एक हाथ में लैंप और दूसरे हाथ में पानी भरा गिलास लिए आई, चुपचाप.  फणीश्वर को ग्लास देते वक्त लैंप की रोशनी में उसका चेहरा दमक रहा था…उनके मुँह से अचानक निकला है- द लेडी, द लैंप…फ्लोरेंस नाइटिंगेल!

क्या यह नर्स सभी मरीजों के साथ ऐसा ही कोमल व्यवहार करती है या सिर्फ उन्हीं के साथ? आज फणीश्वर उसका नाम पूछ कर ही रहेंगे…सुबह में जब वह नर्स दवाई देने आई, उन्होंने पूछ ही लिया है- “आपका शुभ नाम क्या है? इस हॉस्पिटल में कब से हैं?”

नर्स लतिका खुल कर चहकने लगी है- “पाँच साल पहले पटना आए थे, हजारीबाग से. यहीं रहकर दो साल की नर्सिंग की, अब नौकरी कर रही हूं. मेरे पिता हजारीबाग के एक कॉलेज में प्रोफ़ेसर हैं.”

फणीश्वरनाथ की हिम्मत धीरे-धीरे बढ़ रही है. एक दिन उन्होंने उससे हिम्मत करके पूछ ही लिया  है- “मेरे बारे में क्या ख्याल है आपका?”

वो हँसती है और कहती है, कहती है और हँसती है- “बदमाश..जंगली…वारियर… इसलिए तो हाथ-पैर में बेड़ी डाली गई है.”

हाहाहा… हँसते हुए कहते हैं फणीश्वर- “यह बेड़ी प्रेम में पड़ी है मेरे हाथ-पाँव. प्रेम करना मेरा स्वभाव है. प्रेम किए बिना मैं जी ही नहीं सकता…अगाध प्रेम…अपने देश से बहुत प्रेम करता हूँ मैं. यहाँ के एक-एक इंसान से…यह बेड़ी इसी प्रेम की निशानी है…”

“…मैं तुमसे भी बहुत प्यार करता हूँ नाईटेंगल!” फणीश्वरनाथ की यह बुदबुदाहट न जाने लतिका से सुनी की नहीं, कि सुनकर भी उसे जाने दिया, हमेशा की तरह स्वभावतन और आदतन.

फणीश्वरनाथ हँसते हुए अपने बेड़ियों को निहार रहे हैं. निहार रहे हैं और मुसकुरा रहे हैं.   नर्स लतिका की सेवा से फणीश्वरनाथ स्वस्थ हो गए हैं. एक दिन पुलिस ने आकर उन्हें यह सूचना दी है- “ढाई साल की सजा में डेढ़ साल की सजा तुम काट चुके थे, शेष सजा सरकार ने माफ़ कर दिया है, तुम्हारी  बीमारी के कारण.”

वे घर जाना चाहते हैं? आजाद होना चाहते हैं? जीना चाहते हैं? उस लतिका के बिना, जिसने उन्हें उनकी ज़िंदगी वापस की है? वो नहीं होती तो…

दासता की बेड़ियों से आजाद होकर फणीश्वरनाथ पीएमसीएच से विदा तो हो रहे हैं पर बड़े अनमन, लतिका की भीगी हुई पलकों को निहारते हुए; टुकुर-टुकुर. लतिका ने फणीश्वरनाथ की जेब में अपना पता लिखा एक पर्ची रख दी है…

दुबारे और घने बीमार होकर आए हैं फणीश्वर लतिका के पास. वे बीमार ही शायद इसीलिए पड़े हैं कि लतिका के पास जा सकें. लतिका के पास जाने का बहाना हो उनके पास…

पानी का ग्लास हाथ में देती लतिका ताना मारती हैं- “जब बीमार होते हो तो मेरी याद आती है, ठीक होते हो तो फिर अपने घर…” उन्होंने गौर किया है, पानी बढ़ाती हुई लतिका के हाथों पर नीले रंग से गुदा है- एफ.एन.एम. वे नजरें फेर लेते हैं…वे उदास और दु:खी नहीं, खुश भी नहीं…

वे खुश हैं कि लतिका के पास हैं…लतिका ने अपनी नौकरी छोड़कर सिर्फ उनकी देखभाल करना चुना है…लतिका ने जी-जान लगा दी, उन्हें बचाने के लिए…लतिका से ज्यादा उन्हें यह भरोसा है, वे उन्हें बचा लेंगी…उनने भी ठान लिया है, अब यह बची ज़िंदगी लतिका की. तेरा तुझको अर्पण… अब उसके बिना नहीं जीना और नहीं जीना…

झूठ बोलना होगा लतिका से…वह यह जानकर कि फणीश्वर शादीशुदा हैं, कभी उनसे ब्याह नहीं करेगी. झूठा होना सही है पर लतिका के बिना जीना बिलकुल नहीं…

वे बोल लेंगे झूठ लतिका से…पर पद्मा और बच्चे? वे मना लेंगे पद्मा को…लेकिन रेखा? कैसे करेंगे उसका सामना…वहाँ, जहाँ ‘न हाथी है, न घोड़ा है, पैदल ही जाना है’, उस जगह रेखा को अपना कौन सा मुँह दिखलाएंगे?

रेखा समझती हैं उनका कोमल-मन. प्यार के लिए उनकी तड़प, लाचारगी और बेचारगी सबको… रेखा बहुत कोमलमना हैं. वे नहीं देख सकती अपने परम प्रिय पति को इस तरह दुख और अवसाद में…माफ कर देंगी वे उन्हें…

 

II6)

बेड़ियाँ काट दी गई हैं…वो आजाद हो गये…पर सचमुच आजाद हो गए क्या, घर जाने के लिए?

घर किसका है? घर तो पद्मा का है…उनके बच्चों कविता, पद्म और दक्षिणेश्वर का है. जिनकी माँ उन्हें उनसे बेहतर संभाल रही…

उनके भरोसे रहता तो सबकुछ कबका बिला गया होता…पद्मा ही सब संभारे-सहेजे हुई हैं…वे तो एक अनाधिकार मेहमान जैसे हो चले हैं इन दिनों वहाँ, जो सारा देश-प्रांत, गाँव और जेल में दिन बिताने के बाद कभी-कभी वहाँ भी चला आता है…पद्मा ने सब संभाल लिया है, खेती बारी, घर-परिवार और उनके बच्चे…रेखा के नहीं रहने पर कविता को पालने के लिए पद्मा से किया था विवाह. पर पद्मा कविता को ही नहीं, उनके पूरे परिवार को चला और पाल रही थी. उन्हें भी. अग-जग घूमते रहते वे तभी तो निश्चिंत होकर, जानते हैं कि पद्मा है और वो सब संभाल लेगी… पद्मा हमेशा उनके लिए ‘कवितिया माय’ ही रही और रहेंगी…

सिमराहा स्टेशन पर कुसुमलाल ट्रेन टाइम  से पहले ही पहुँच जाता है.  पद्मा उन्हें ताकीद करके  भेजती हैं, राह में कहीं बिलमना-बिलमाना नहीं. उनकी बात बिलकुल नहीं सुनना. सीधे पहले घर लेकर आना…फणीश्वरनाथ का पटना से औराही हिंगना आना परिवार भर के लोगों के लिए तो उत्सव जैसा होता है. पद्मा स्वयं उनके पसंद का खाना बनाती है. घर-आंगन लीपा जाता है. बच्चे अपने ख़्वाहिश बयां कर रहे हैं. घर में चहल-पहल का वातावरण छाया होता है…इसके उलट पटना लौटो तो घर एकदम शांत…पर वहाँ लौटने के लिए लतिका की प्रतीक्षारत आँखें ही काफी हैं…

वे कुसुमलाल को हिदायत देते हैं -‘रसगुल्ला वाला बर्तन बैलगाड़ी पर से धीरे से उतारो, ठोकर न लग जाए! पटना के पिंटू होटल का रसगुल्ला है. कविता को बहुत पसंद है. दक्षिणेश्वर के लिए पटना से इंग्लिश खिलौना आया है, बैटरी वाला हवाई जहाज! चाबी घुमाओ और जहाज फुर्र! घर के लोग आज बहुत प्रसन्न दिख रहे हैं! पद्मा अत्यंत उत्साहित है, “पहले खाना खा लीजिए, फिर कहीं जाइएगा…

पद्मा की नजरों में नजरें डालकर फणीश्वरनाथ कहते हैं, “अब रात में ही खाऊंगा.

धनिक लाल आकर पैट्रोमैक्स जला चुका है! कबूतर के माँस के चखना के साथ बिरानडेड लाल पानी, चीलम का कश… लाजवाब!

 

II 7)

(विद्यापति कवि राजा शिवसिंह से रूठकर न जाने कहाँ चले गये हैं. चारों ओर ढिंढोरा पीट दिया गया है-राजा शिवसिंह और रानी लखिमा ठकुरानी ‘खटपासी‘ लेकर पड़ी हैं. जब तक विद्यापति लौटकर नहीं आते-वे अन्न-जल स्पर्श भी नहीं करेंगे! चारों ओर दूत दौड़े!…खोजो, खोजो. कहाँ है कवि विद्यापति ? राजा ‘लवेजान‘ है. रानी अंतिम साँस ले रही है-विद्यापति कहाँ? कहाँ हो कवि!)

नहीं उन्हें अब एक पल को भी नहीं रुकना… भाड़ में जाये’ बिदापत नाच’ और घूर में जाये अधूरी कहानी…उन्हें अपने परिवार में लौटना है. अपने बाल-बच्चों के पास…लतिका के पास पटना… पद्मा के पास तो परिवार है, बच्चे हैं, पर लतिका तो नितांत अकेली हैं उनके बगैर…यदि उन्हें कुछ हो गया तो…? वे सोचकर भी विचलित हुए जा रहे…

उन्हें सामान समेटते देख वे भरी-भरी आँखें कहती हैं- “बस आज की रात रुक जायें…कल के दिन उन्हें वह जरूर सुना देगी अधूरी छूटी कहानी…नहीं बप्पा नहीं मना करेंगे अबकी. कल वैसे भी बोआई का दिन है, बप्पा को फुर्सत कहाँ…”

फणीश्वर पूरी रात छटपटाते हुए काटते हैं- क्यूँ रूक गए वो उस अधूरी कहानी की खातिर…बाल-बच्चे वहाँ राह देख रहे…लतिका और पद्मा इंतजार में होंगी…फिर भी…फिर भी…वे बार-बार कमजोर क्यूँ पड़ते हैं…बार-बार क्यों बंधते रहते हैं, अजाने मोहपाश से…अब और कितनी बार…?  लतिका के वक्त ही कसम ली थी, नहीं, अब नहीं…अब कभी नहीं…कहीं नहीं…और किसी से नहीं…यह आखिरी बार…

मृगनयनी  के नयनों के मोहपाश में बंधकर! रुक तो गए ही आखिर, चाहे एक रात को ही सही…अगर उसने कह दिया होता ‘कवि…यहीं रुक जाओ हमेशा के लिए…आपने तो कहा ही था कि आप यही रहेंगे…तो?

उनपे नहीं चलेगा अब प्रेम के देवता का कोई वार…वे नहीं बंधेंगे, अब किसी मोहपाश में…चाहे जो हो, वे नहीं रुकेंगे…वे कसम खाने को तैयार हैं…किसकी कसम, सोच रहे वे…लतिका, पद्मा… कविता…पद्म, दक्षिणेश्वर…नहीं…कोकाकोला की कसम…कोकाकोला जो उन्हें जान से भी अधिक प्रिय है…लाल-पानी से भी कहीं बहुत-बहुत ज्यादा…कि दोनों के बीच कोई तुलना भी नहीं मन में…  जिसके लिए कोई भी मना करे वे नहीं सुनते…डॉक्टर-वैद्य, घर-परिवार, दोस्त-महिम, पद्मा-लतिका…कोई भी…फिर भी नहीं…

 

 

II 8)

(एक गाँव के पास आकर कवि ने कहा, “यहाँ पालकी रोको!”
“क्या है महाराज?”
“यहाँ…यहाँ…इस गाँव में मेरा कुछ खो गया है.”
“क्या खो गया है?”
“हाँ, इसी गाँव में. क्या खो गया है सो नहीं कह सकता. लेकिन कुछ अवश्य खोया है, मेरा इस गाँव में! पता लगाओ.“)

 

फरवरी की धूप भरी हुई है गोठान में….वो उनसे बहुत दूर बैठी कथा कह रही…बड़ी मुश्किल से तैयार हुई है वो अपनी आवाज़ फीता में भरवाने को…कहानी रोककर वो न जाने कहाँ जाने को उठ खड़ी हुई है…

वे चिहुँक पड़ते हैं एकदम से– “नहीं अभी नहीं. उठिए नहीं. कहानी पूरी कीजिये…दोपहर होने को है. दिन ढल जाएगा. फिर जाना आज भी रह जाएगा…मेरा परिवार…”

उसने कहा- “नहीं देर नहीं होगी, साँझ के आने से पहले आज आपकी विदाई होगी कवि! मेरे बप्पा के आने से पहले. बप्पा आपमें अपना परिवार देख रहे. भविस देख रहे. घर का विस्तार देख रहे… कथा नहीं बताना तो बस एक बहाना है…लेकिन, हम ऐसे बिलकुल नहीं…स्वारथ से हमरा मन बिलकुल नहीं भरा. आप अपने परिवार में उहाँ खुश रहेंगे, तो हम भी यहाँ…लेकिन ई गोठान आना अब नहीं होगा हमसे…जो चाहे गाय-गोरू देखे, उसे संभारे…” कहती हुयी वो बिना पीछे मुड़े चली गयी है, पर उसके अदेखे आँसुओं से भींगा हुआ है, पूरा गोठान, उनका मन…

‘वो शायद खाना पका रही, मैं गोरुओं कि सेवा कर देता हूँ…. काम जल्दी निबट जाएगा. इस तरह घर जल्दी..’

नहीं… सब झूठ…वे आज आखिरी दिन उसका हाथ बँटाना चाह रहे…उसका बोझ बांटना भी…अकहे रूप से आज के लिए ये उनकी संयुक्त गृहस्थी है…

उसकी तरफ से तो हमेशा से थी…वो स्वार्थी नहीं…पर स्त्री तो है…सपने उसकी आँखों में भी तो होंगे ही…जिसे वह पिता का स्वप्न कहकर खारिज भले करती रही हो, पर लगातार बहते उसके आँसू जिसकी तसदीक हर पल किए जाते हैं…

एक स्त्री उनके भीतर भी है और सदा रहती है…जो बहुत उदास है, जो रो रही उसके साथ जार-जार…

बबली, रेखा, पद्मा और लतिका ने मिलकर जैसे उसका और विस्तार किया है…आँखों से आंसू बह रहे जार-जार…मूक जानवर भी इन पनियाई आँखों के साथ बहे जा रहे…वे रंभा रहे, उनकी आँखें भी गीली हैं…

यह प्रेम इतना रुलाता क्यों है…ऊपर से एकतरफा प्रेम तो और ज्यादा… बचपन से अबतक…मन टूटता है इतना कि जोड़े भी जुटने को तैयार न हो…बेचारी यह लड़की….पर फणीश्वर का मन बचनबद्ध है…अबकी प्रण नहीं टूटेगा…अबकी मन को बांधना है…अबकी ताप को सहना है, साधना है…

 

II 9)

 न जाने कितना कुछ याद आ रहा…अनगिन यादें…

आगे-पीछे, काल-अकाल-सुकाल…कोई तारतम्य नहीं…वे बस देख रहे…देखते जा रहे, सब किसी चलचित्र की मानिंद…

गाँव के स्कूल में फणीश्वरनाथ तीसरे दर्जे में पढ़ रहे. स्कूल में सिर्फ दो खपड़ैल कमरे हैं- वर्ग एक से लेकर पाँच तक के सभी विद्यार्थी एक कमरे में बैठते हैं. आठ साल के फणीश्वरनाथ बिना हिज्जे लगाए बेधड़क पढ़ लेते हैं, जबकि बारह साल का लालमोहर चौथे दर्जे में पढ़ने के बावजूद हिज्जे लगाकर भी पढ़ नहीं पाता! लालमोहर अपने बस्ते में एक नई चमचमाती हुई किताब लेकर आया है. बस्ते से नई किताब निकालकर वह अपने बगल में बैठे फणीश्वर को दिखाता है- “अरे फनीसर, इस किताब में क्या लिखा है?”

फणीश्वरनाथ किताब देखकर पूछता है- “कहाँ से लाए हो यह किताब?”

लालमोहर घुड़की लगाता हुआ कहता है -“कहीं से लाया; तू पढकर बता कि लिखा क्या है?”

फणीश्वरनाथ किताब पर नजर डालते हुए पढ़ते हैं – ‘पिता का पत्र- पुत्री के नाम’ लेखक- नेहरू.

किताब के कवर पर रंगीन चित्र में एक गांधी टोपीधारी वयस्क पुरुष और उसके साथ दस-बारह साल की एक अत्यंत सुंदर किशोरी लड़की का चित्र है! फणीश्वर नाथ उस चित्र को देर तक निहारते हुए कुछ सोचते हुए बुदबुदाते हैं- “अपरूप रूप!’

लालमोहर पूछता है, “अपरूप रूप कौन है?”

फणीश्वर अचकचा जाते हैं, “… कोई नहीं, कोइयों तो नहीं…यह टोपी वाला आदमी तो जवाहर लाल नेहरू है, लेकिन इस इंग्लिश परी को मैं नहीं चीन्हता हूं.”

लालमोहर उत्सुक होकर पूछता है,” तू जवाहरलाल को चीन्हता है!…

क्लास में स्कूल के इकलौते गुरुजी आते हैं. वे हाजिरी लेने के बाद पढ़ाने लगते हैं, परंतु फणीश्वरनाथ का मन बार-बार लालमोहर की किताब वाली इंग्लिश परी पर अटका हुआ है…एकदम अपरूप रूप! फणीश्वरनाथ ने तय कर लिया है- इस इंग्लिश परी का फोटो घर ले जाकर वह बाबूजी को दिखाएगा जरूर कि यह है कौन?

छुट्टी होने से थोड़ी देर पहले लालमोहर गुरुजी से ‘पाँच मिनट’ माँग कर बाहर जाता है. फणीश्वरनाथ चुपके से लालमोहर की किताब का कवर फाड़कर इंग्लिश परी निकालकर अपने बस्ते में रख लेते है. लालमोहर आता है कि छुट्टी की घंटी बज जाती है.

घर पहुँच कर फणीश्वरनाथ देखते हैं  कि पिता शिलानाथ मंडल और उसकी दादी दरवाजे पर बैठ कर बात कर रहे हैं. अपने बस्ता से फोटो निकालकर अपनी उंगली से इंग्लिश परी की ओर इशारा कर वे पूछते हैं – “बाबू जी ई कौन है?

शिलानाथ मंडल फोटो को गौर से देख कर कहते हैं -“यह तो नेहरू जी की बेटी इंदिरा प्रियदर्शिनी है! क्यों?… क्या बात है?”

फणीश्वर अचकचा जाते हैं , “बात?… कुछ नहीं…! नहीं चीन्हता न, इसलिए पूछा …”

फणीश्वर की दादी अपने बेटे शिलानाथ मंडल के हाथ से फोटो लेकर देखती है -” बड़ी सुंदर लड़की है…!”

शिलानाथ मंडल मुस्कुराकर कहते हैं, “सुंदर है इसलिए तो…

दादी फणीश्वर की चुटकी लेती हुई पूछती है, “क्यों रिनुआ, इससे ब्याह करेगा?” अपनी दादी के हाथ से फोटो झपट वे भाग लेते हैं एकदम से…

“किताब वाली फोटो तुमने चुराई है?” अगले दिन फणीश्वर जब विद्यालय पहुँचते हैं  तो गेट पर ही लालमोहर उसे रास्ता रोके खड़ा मिलता है. उसने फणीश्वरनाथ की कमीज का कॉलर पकड़कर उसे जमीन पर पटक दिया है…

“स्साला कॉलर छोड़…” फणीश्वर घबराहाट में अपने टिन का बस्ता उसके सिर पर दे मारते हैं…लालमोहर के माथे से खून बहने लगता है और बहता खून देख अपना बस्ता छोड़ वे  नौ दो ग्यारह…

इंगलिश परी का जैसे उनपर जुनून सवार है…अररिया हाईस्कूल के हॉस्टल में रहते हुए फणीश्वरनाथ को मालूम हुआ कि इंदिरा प्रियदर्शिनी जी की वानर सेना है. फणीश्वर ने भी अपने स्कूल के दोस्तों के साथ मिलकर ‘वानरसेना’ का गठन कर लिया है. नमक सत्याग्रह के दौरान गांधीजी गिरफ्तार हुए हैं. गिरफ्तारी के खिलाफ अररिया में भी हड़ताल और विरोध प्रदर्शन हुआ. अररिया हाई स्कूल को भी बंद करने का निर्णय लिया गया. उनकी वानर सेना भी मुखालफत पर उतर आई है…इंकलाब…जिंदाबाद! गांधीजी को… रिहा करो!! भारत माता की…जय !!! अररिया हाई स्कूल के छात्रों की बानरी सेना ने हेडमास्टर को स्कूल में प्रवेश करने से रोका. सबसे आगे फणीश्वरनाथ और पीछे पीछे उनकी वानर सेना.  गुस्सा से कांपते हुए हेडमास्टर की लाल-लाल आँखें…पुलिस आई और वो जेल में…पर अफसास है कि उस बार जेल से मुक्ति बड़ी जल्दी हो गयी थी, बस 14 दिन में…शायद बालक जानकर…

वह पचीस जून सन् पचहत्तर की मध्य रात है…इंदिरा गांधी के इमरजेंसी के प्रस्ताव पर भारत के राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने मुहर लगा दी है. छब्बीस जून की सुबह इंदिरा गांधी ने रेडियो पर घोषणा की है- “प्यारे देशवासियों, राष्ट्रपति जी ने देश में इमरजेंसी लगा दी है, इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है…”

इमरजेंसी को प्रभावी बनाने के न जाने  कितने उपाय किए…  अखबारों की बिजली काट दी गई, प्रेस पर सेंसरशिप थोप दिया गया, अदालतों को बंद कर दिया गया और विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया जाने लगा. जयप्रकाश नारायण को गिरफ्तार कर गांधी-शांति-प्रतिष्ठान में कैद कर दिया गया. हजारों विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था. जेल में जगह नहीं है…

इंदिरा बनाम जेपी…रेणु जेपी के साथ हैं… ‘अंधकार में एक प्रकाश, जयप्रकाश-जयप्रकाश’… ‘सम्पूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है…’

मोहभंग तो कबका हो चुका और प्रेम, बचपन का प्रेम, इकतरफा प्रेम, जिसे रेणु अब क्षणिक आकर्षण का नाम देते हैं, न जाने हवा में कहीं विलीन…

लोकतंत्र, लोकमानस और लोकनायक में रेणु की आस्था और भी दृढ़ हो रही. रेणु का मनोरथ पूरा हो रहा, सत्ता के अहंकार को पराजित करने का मनोरथ. भीड़ को उकसाने और उसकी अगुआई करने के जुर्म में रेणु फिर जेल में हैं…बयालीस में जब वे इस जेल में आए थे, साफ- सफाई की अच्छी व्यवस्था थी. अब तो जेल परिसर में चारों ओर गंदगी और बदबू फैली रहती है.  दूषित परिसर रेणु को बीमार बना रहा है, फिर से.

जेल में रेणु के बीमार पड़ने की खबर सुनकर जयप्रकाश चिंतित हैं. उन्होंने रेणु को जमानत पर रिहा होने की सलाह दी, लेकिन रेणु नहीं माने तो नहीं माने. रेणु ने कहा, “इंदिरा की सरकार ने मुझे गैरकानूनी तरीके से गिरफ्तार किया है, इसलिए वह मुझसे माफी माँगकर मुझे बाइज्जत रिहा करे, मैं तब जमानत लूँगा, नहीं तो नहीं लूँगा”

रेणु अपने पैप्टिक अल्सर का आपरेशन करवाने के लिए तैयार नहीं. पूर्णिया जेल से निकलने के बाद ही डाक्टर उन्हें आपरेशन करवाने की सलाह दे रहे, लेकिन वे नहीं मानते…पहले चुनाव हो जाये, परिणाम आ जाये…

 

II 10)

वो दृश्य की तरह देख रहे सब…

औराही हिंगना, पटना, जोगबनी, बनारस, इलाहाबाद, फारबिसगंज…

उनका छाप- नाव छाप…उनकी हार…फारबिसगंज में गांधी जी के अंदाज़ में जन-सम्बोधन… अनशन…पद्मश्री को पापश्री कहकर उसे लौटाना…

नेपाल, कोइराला परिवार…नेपाल उन्हें कभी पराया देश नहीं लगा तो नहीं लगा, इस परिवार के कारण…वे तो गर्व से कहते थे- “भारत यदि मेरी माँ है तो नेपाल मेरी मौसी है; मेरी मौसी अम्मा!”

निर्मल और अज्ञेय का दिया मान, स्नेह उन्हें याद आ रहा रह-रहकर. बेनीपुरी याद आ रहे. याद आ रहा उनका चला जाना. चले जाने के बाद भी उन्हें लोगों का राजनीतिज्ञ की तरह याद करना, साहित्यकार की तरह नहीं…

उन्हें लोग उनके जाने के बाद कैसे याद करेंगे…एक हारे हुए राजनीतिज्ञ की तरह कि बतौर लेखक….?

ज़िंदगी अगर थोड़ा सा मुहलत दे दे तो वे खुद को एक अच्छा राजनीतिज्ञ भी जरूर साबित करेंगे… लेकिन जानते हैं वो, अब इतना वक्त नहीं उनके पास …

 

II 11)

(कोइली को देखते ही महाकवि मूक हो गये! कोइली हँसी, “क्या खोया है आपका?”
कोइली बोली, “मैं बताती हूँ. महाराज जब हमारी मडैया में अचेत अवस्था में थे तब बेहोशी में पदावली बार-बार दुहराते थे.” कवि बोले, “हाँ, हाँ, मेरी पदावली… ठीक, ठीक.” …
कोइली बोली, “ठीक है, पालकी उठाइए. हम राह चलते-चलते महाकवि की थाती लौटा देंगे.“)

 

कहानी अपने चरम की ओर है…कहानी खत्म…सब खत्म…

वो उन्हें खाना खिला रही…वह उनके लिए रास्ते की पोटली बाँध रही…वे बरजते-बरजते भी रह जाते हैं…‘कोई इतनी दूर नहीं जाना…चल दिये तो दू- ढाई घंटा में…’

उनकी एक कमीज नहीं मिल रही…वो उससे पूछते नहीं उसकी बाबत…पूछते हैं तो बस इतना- “अब तो अपना नाम बता दो?”

“नाम जानकर का करिएगा कवि…जैसे सब लिखने वाला आपके लाख समझाने के बाद हमरे लिए कवि…वइसे ही सब लड़की जइसे हम भी बस एक लड़की…”

“नहीं उदास मत होइए…आपका मुश्किल आसान किए देते हैं…हम आज से अपने को एक नया नाम देते हैं…आपके लिए…आज से हम भी ‘कोइली’ हुए. वही कहानी वाली कोइली समझिए. लेकिन ये कोइली विद्यापति जी की नहीं, अपने कवि की कोइली हुयी…”

दूर कहीं सूरज डूबने-डूबने को है, उनके मन का सूरज भी जैसे अस्त ही हुआ जा रहा…वो पलटकर नहीं देखते…वो पीछे पीछे दूर तक आती है…लगभग भागती हुइ …जैसे कह रही हो– ‘कवि, हमने तो अपना प्रण पूरा किया…’

 

II 12)

(दस कोस तक कोइली, राह के किनारे दौड़-दौड़कर नाचती रही. उसका बूढ़ा बाप मृदंग बजाता रहा. पालकी के अगल-बगल दौड़ती-नाचती कोइली एक जगह ‘झमा‘ कर गिर पड़ी, कोइली के पैर, लहूलुहान हैं…कोइली ने पानी माँगा!

महाकवि को हठात् ज्ञान हुआ. पालकी से कूदकर उतरे
  और नदी की ओर दौड़े…महाकवि के हाथ से चुल्लू-भर पानी पीकर

कोइली ने आँखें खोलीं, “महाराज! अब हमारे पास आपका कुछ नहीं.” कोइली ने आँखें मूँद लीं.
कवि ने पुकारकर कहा, “हे “देवी! मुझे क्षमा करती जाओ. ये पदावली मेरी नहीं तुम्हारी है. तुम्हारी ही…!!)

 

कोइली का आखिरी कहा टेपरिकार्डर पर फणीश्वर बार-बार सुनते हैं…एक बार, बार-बार, हजार बार…जैसे कुछ खो गया हो उनका एकदम से…रिपोर्ताज़ लिखने में मन ही नहीं लग रहा…

रेणु की आँखें गीली हैं, रिपोर्ताज छप चुका है, नाम-गाम हो रहा उनका इससे, हिन्दी का पहला रिपोर्ताज. पैसे भी आए हैं टेलीग्राम से. पूरे पचास रुपये…पर इस प्रसिद्धि में, इस रिपोर्ताज में उनका अपना क्या है…उन्हें कोइली याद आती है, जनकदास याद आते हैं-  ‘यह बात किसी ‘गजट’ में छापी हो तो उसको पैसा जरूर मिले इसका खयाल रखिएगा.’

रेणु के पास बहाना है, ये पैसे तो जनकदास के निमित्त हैं, बल्कि उससे भी ज्यादा कहीं कोइली के. जनकदास ने कहाँ सुनाई थी उन्हें कहानी…वो तो कोईली थी कि…

वही मड़ैया है, वही गोठान….गाय गोरू सब न जाने कहाँ बिला गए हैं…एकदम निस्संग सा है घर… घर में फणीश्वर पहली बार पाँव रखते हैं…रखते हुए काँप रहे उनके पाँव…जैसे मृगनयनी  की आँखें बरज रही हों एकदम से…निषिद्ध-प्रवेश…

बिछावन से कोइली लगी पड़ी है. जनकदास उसके सिरहाने हैं मूर्तिवत….जैसे हमेशा से वहीं हो, वैसे ही निश्चल मूर्तिवत….बहुत पूछने पर कहते हैं- “मियादी बुखार…दवा-दारू कर-करके थक गए… अब न रुपये हैं, न हिम्मत…वैद्य जी का काढ़ा है…पर उनने भी मना किया- ‘उधारी बहुत औषधि जा चुकी. अब पहले पैसा, फिर औषधि’…”

वे सोत्साह कहते हैं- “है न पैसा…और आपका ही है…बल्कि कोइली का ही…उसी ने तो सुनाई थी कहानी…अब गज़ट में छप चुकी है. आपसे वादा था तो देने आ गया था…मैं जा रहा वैद्य जी के पास, हिसाब देकर और दवा लेकर, जल्दी से आता हूँ…”

वे भागते हुए निकले रहे…उधर कोइली कुछ बुदबुदा रही…

वो रुकते हैं…सुनने के लिए कान देते हैं…

नहीं वह कुछ कह नहीं रही, बल्कि अपने अस्पष्ट-अस्फुट स्वर में गीत जैसा कुछ गा रही- ‘कमलनयन मनमोहन रे कहि गेल अनेके…’

फणीश्वर फिर बेचैन कदमों से जाने को उद्यत हैं….

कोइली की क्षीण पुकार है-‘कवि …’

वे उसकी तरफ देखते हैं…कोइली के बदन पर उन्हीं की कमीज है…वो देख रहे हैं बस…सुन नहीं रहे शायद…उनके लिए भूत-भविष्य सब मिटा जा रहा, बस जीवित है तो यह क्षण और कोइली के शरीर पर वह कमीज. कोइली रहे और हमेशा रहे, इसके लिए उसे बेहतर से बेहतर इलाज देना होगा. पहले वैद्य जी की दवा ले आयें…फिर अंग्रेज़ी इलाज…

कोइली इशारा करती है, हथेलियों से अंजुरी बनाई है उसने….

“प्यास लगी है? पानी दूँ…?” वे उसे पानी दे रहे हैं, न जाने कितनी प्यास है जो खत्म नहीं हो रही. उसके सिरहाने पड़ा नन्हा घड़ा रीत चुका है…

कोइली इस क्षण वही पहले वाली कोइली है- मानिनी, मृगनयनी, अपरूप रूप…उसने तृप्ति से आँखें मूँद ली है…वे दवा लेने जाने को उद्यत हैं…

बाहर निकलते उनके कदमों को जनकदास ने रोका है. उसकी रुलाई और कुहक भरी आवाज कह रही – ‘साहब कहाँ जाइएगा, अब नहीं जाइए….अब जरूरत नहीं दवाई की…कोइली तो सो चुकी हमेशा की नींद…’

जनकदास इस तरह रो क्यूँ रहा…कोइली तो….कोइली तो सो रही…निश्चिंत नींद…

तो क्या कोइली जिंदा नहीं है? बसएक लाश है…रो रहा इसीलिए जनकदास…?

 

II 13)

दिन बीत रहा…डॉक्टरों की उम्मीदें जाती रही हैं… रेणु के परिजनों को सूचित किया जा रहा…

पीएमसीएच में भर्ती होने के समय इस बात का एहसास कहाँ था कि अब लौटना नहीं होगा…बीस दिन बाद जो लौटेगी तो सिर्फ उनकी लाश…

पेप्टिक अल्सर के आपरेशन की सारी तैयारियां पूरी कर ली गई हैं; दिल्ली के प्रसिद्ध सर्जन डॉ. शाही को उनके आपरेशन के लिए बुलाया गया है. डॉ. शाही ने रेणु जी को एनेस्थेसिया का डोज़ दिया है, रेणु बेहोश हो गए हैं…पर इसी बेहोशी में देख रहे वे सबकुछ…आगत-विगत, भूत-वर्तमान सब…

सब एकमेक, सब गड्डमड्ड…

अचानक आपरेशन थियेटर के दरवाजे पर चीफ अथोरिटी ने दस्तक दी है- “इस आपरेशन को रोको; अभी एक वीआईपी पेशेंट एडमिट हुआ है, पहले उसका आपरेशन जरूरी है!”

डॉ. शाही ने प्रतिवाद किया है- “सर, पहले इनका आपरेशन होना जरूरी है; एनेस्थेसिया का डोज दिया जा चुका है!” उन्होने डांटकर डॉ. शाही को चुप करा दिया है- “आई डोंट केअर! वीआईपी इज वीआईपी; आपरेट हिम फर्स्ट.”

चीफ़ अथोरिटी का आर्डर मानते हुए आपरेशन थिएटर में पहले वीआईपी पेशेंट का आपरेशन हो रहा…एनेस्थेसिया के प्रभाव से अचेत रेणु के बॉडी को साइड कर दिया गया है.

रेणु बिलकुल नहीं घबड़ा रहे, उन्हें कोई चिंता भी नहीं…वे आगे-पीछे सब विचर रहे, विचार रहे…. यहाँ-वहाँ इत-तित सभी जगह देख-सुन आ रहे…होश में रहते यह आजादी कहाँ…

शाही चिंतित हैं रेणु के लिए…वीआईपी पेशेंट के आपरेशन में करीब ढाई घंटे का वक्त लगा है…अब डॉ. शाही ने आपरेशन के लिए रेणु के बॉडी को लाने का आदेश दिया है…

असिस्टेंट ने चिल्लाकर कहा है- “सर, फणीश्वरनाथ को होश आ रहा है; एनेस्थेसिया का प्रभाव समाप्त हो रहा है. शाही हैरान हैं-“हाउ इज इट पॉसिबल?”

कंपाउंडर ने डाक्टर से कहा है- “सर इन्हें फिर से बेहोश करना होगा.” रेणु को फिर से अनेस्थीसिया दिया गया है…

एनेस्थेसिया का डबल डोज़ लेने के बाद अब सचमुच उन पर अचेतनता हावी होती जा रही. कुछ भी साफ नहीं है, कुछ भी स्पष्ट नहीं…चेहरे में चेहरे विलीन हो रहे, आवाजों में आवाजें…

रेखा…लतिका…पद्मा…सब एक साथ, एक स्वर में शिकायत कर रहीं उनसे…सजन रे झूठ मत बोलो…

‘झूठ कहा आपने हमसे…हम सबसे…झूठ कहा कि प्यार करते हैं…बहुत-बहुत प्यार…’

‘एक साल भी तो नहीं रुके आप… कवितिया तो बस बहाना हुयी…निर्बोध बच्ची के बहाना पर खेप लिए आप…’

‘सौत की बेटी को अपनी बेटी से ऊपर रखा, लेकिन दूसरी सौत…आपको मेरे विधवा होने से दिक्कत थी शायद. तभी न आप मन से नहीं टिके मेरे पास? कभी दस-पाँच दिन लगातार नहीं रहे गाँव में मेरे साथ? मैं अक्षत कुंवारी नहीं थी, रेखा जिज्जी जैसी, लता के जैसी…तो इसमें मेरा क्या दोष? आप मना कर देते न शादी को? आपने तो एकबार मन रखने तक को न पूछा, झूठ भी नहीं- कि कर लें दूसरा ब्याह..?’

‘आपने शादी तो की मुझसे, पर आपका मन अपने परिवार में रहा…जीजी और बच्चों में. नर्स की मेरी नौकरी छुड़वा दी, टीचर्स ट्रेनिंग करने को मजबूर किया? क्या आपको डर था, आपकी ही तरह फिर किसी से…बच्चे नहीं होने दिये मेरे कि आपके हिस्से का प्यार न बंट जाये…आपका मन न बंट जाये मेरे और आपके दूसरे बच्चों के बीच…पर एक औरत का बच्चे के बिना जीवन जानते हैं आप…उसका मन… उसका दुख…मैं तो अकेली की अकेली रही. पटना में अकेली. आप अपने गाँव में अपने लोग, अपने परिवार, अपने बाल-बच्चों और अपनी बीबी के साथ…आपके खरीदे खिलौने चुपके से देखती…आपके लाये बच्चों के जूते के नाप को छूती-सहलाती…आपने तो मुझपर कभी कोई दया नहीं की…एकदम नहीं की…’

‘कभी मेरे लिए सोचा कुछ…’ वे तीनों एक स्वर में चीख रहीं, चीख- चीखकर कह रहीं… ‘आपने सिर्फ खुद से प्यार किया…केवल अपने से…’

वे भी पुरजोर आवाज़ में कहना चाहते हैं सबसे…‘हाँ, मैंने तुम सबको धोखा दिया, सबसे गलत किया. पर सिर्फ इसलिए कि तुम सबसे प्यार करता था…अथाह प्यार…खोना नहीं चाहता था मैं, किसी को…किसी एक को भी…’

उन्हें इस वक्त अपने प्रिय कवि रवीन्द्र याद आए. नहीं, उनकी कुछ पंक्तियाँ याद आ रहीं-

‘निःस्व आमि, रिक्त आमि, देबार किछु नाई
आछे शुधु आलोबाशा, दिलाम आमि ताई!’

अर्थात मेरे पास सिर्फ प्रेम है, वही मैंने दिया. यह देना अपना हृदय ही तो सौंप देना था.

मेरी गलती तो नहीं है यह…’

‘मैं जन्मना ऋणी था, मेरे पैदा होने के लिए मेरे पिता को कर्ज लेना पड़ा था… और आज मरूँगा भी ऋणी ही. तुम सब के प्यार के, विश्वास के, ऋण से उऋण भी नहीं होना चाहता…ये ऋणों की गठरी सिर पर लिए ही चला जाना चाहता हूँ…चाहे यह गठरी कितनी भी भारी क्यूँ न हो…’

सब चले गए, सब जाते हैं तो उनका जाना कोई कौन सी अनोखी बात  तो होगी…

पटना के गंगा तट पर दिनकर की जलती हुई चिता के सामने खड़े रेणु अप्रतिम हैं, हतप्रभ! पहले बेनीपुरी चले गए…और अब दिनकर…इस तरह भी कोई छोड़कर जाता है भला? उनकी चिता के सामने सामने खड़े वो सोच रहे थे- यह दिनकर की ही चिता जल रही है या कोई स्वप्न जल रहा…आवाज है कि निकलती ही नहीं…

प्यास है, बस अगाध प्यास…एक घूंट पानी…नहीं…गंगाजल नहीं…बस एक बूंद कोला…

शैलेंद्र न जाने कहाँ से आ खड़े हुए हैं एकदम सामने…कोका कोला की एक बोतल लिए हाथ में… उनके उदास होंठों पर मुस्कुराहट तिर जाती है…

सामने एक दृश्य जग रहा, करवटें ले रहा…शैलेंद्र के पूछने पर हीरोइन के लिए एकमात्र वहीदा रहमान का ही नाम आया था उनके मन में…वहीदा नाच रही, अनुपम. वे देख रहे एकटक उनका अपरूप रूप… ‘चाँद छुपने लगा, रात ढलने लगी, आ, आ भी जा…’ वहीदा सुंदरता और अभिनय के सम्मिश्रण के साथ-साथ मेहनत का भी अपूर्व संगम हैं. बिरजू महराज से इन दिनों सीख रही वो नृत्य…

कोकाकोला की एक बोतल शैलेंद्र उन्हें थमा जा रहे…पर वहीदा को देखते हुए कोककोला पीना भी जैसे उन्हें कोई बेकार-बेमतलब का काम जान पड़ रहा, पाप जैसा कुछ.

इस दृश्य से गुजरते हुए उनके मन में अचानक अधूरे गीत की पंक्तियाँ कौंधती हैं- ‘तेरी बाँकी अदा पर मैं खुद हूँ फिदा, तेरी चाहत का दिलबर बयां क्या करूँ…यही ख़्वाहिश है कि तू मुझको देखा करे और दिलोजान मैं तुझको देखा करूँ…’ वे बुदबुदाते हुए दुहराते हैं इसे बार-बार.

शैलेंद्र इसे सुनकर उछल पड़ते हैं…

‘दोस्त…प्रिय दोस्त, शैलेंद्र…’

उनके शुष्क होंठ बुदबुदाये हैं…‘कौन दोस्त…?’ शैलेंद्र एक अजनबी की निगाह से उन्हें देख रहे…‘मेरे अंतिम समय में तुमने भी मेरा साथ छोड़ दिया न रेणु…मुझे तुम ले डूबे…तुम्हारी कहानी ले डूबी… तुमने मुझे मार डाला…’ शैलेंद्र कोला की बोतल उन्हें सौंपने के बजाय दूर घुमाकर फेंक दे रहे…

एक घूँट कोकाकोला बस इतना ही चाहिए…बस एक घूँट कोकाकोला…कोई तो…जीवित-मृत कोई भी, कोई भी…उन्हें क्यों नहीं लाकर दे रहा, एक घूँट कोकाकोला…इन सूखे होंठों और आत्मा के साथ ही क्या प्रयाण करना होगा…?

अचानक से चुपचाप तैरता आ रहा उनकी आँखों में कोइली का चेहरा, जो अपनी ओक से पिलाती है एक घूँट पानी…यह पानी कितना तरल है, कितना मीठा, कोकाकोला से भी कहीं अधिक…मन आत्मा सबकी प्यास को बुझा देनेवाला, अपनी एक ही घूँट से… उनकी भीगी आँखें कहती है-‘तुम्हारा यह उपकार…’

कहती है वो- ‘कोई उपकार नहीं किया तुम पर, यह एक घूँट पानी है बस…यह तो कर्ज था मुझ पर तुम्हारा…तुमने भी तो…’

उसकी आँखों में उनके लिए करुणा है, दया है…  वो अब भी उनसे कोई शिकायत नहीं कर रही…उसकी विहंसती आँखें उन्हें बुला रही, क्या अपने पास…?

सच्चा प्रेम! अपरूप रूप…घोर तंद्रा में भी उनकी लटपटाती जीभ बुदबुदाई है, सूखे-पपड़े होंठ एकदम से नम हुए हैं. आत्मा भी…जाना चाहिए उन्हें…कि कोइली बुला रही…जाना ही होगा…

अचेत हो गए रेणु…उनके पैप्टिक अल्सर का आपरेशन अब जाकर सम्पन्न हुआ. डॉक्टर को उम्मीद है कुछ घंटों में होश आ जाएगा, जबकि वे जान रहे ऐसा कुछ भी नहीं होगा…

रेणु की टूटती साँसों को जोड़ने के लिए कृत्रिम जीवन रक्षक प्रणाली का उपयोग किया जा रहा, टूटती साँसें फिर भी नहीं लौटती…

जाते-जाते मन-ही-मन बुदबुदा रहे रेणु- ‘मारे गए गुलफाम, अजी हाँ मारे गए गुलफाम…’

 

कविता
15 अगस्त, मुज़फ्फरपुर (बिहार)

सात कहानी-संग्रह – ‘मेरी नाप के कपड़े’,  ‘उलटबांसी’, ‘नदी जो अब भी बहती है’, ‘आवाज़ों वाली गली’, ‘गौरतलब कहानियाँ’, ‘मैं और मेरी कहानियाँ’ तथा ‘क से कहानी घ से घर’  और दो उपन्यास  ‘मेरा पता कोईऔर है’ तथा ‘ये दिये रात की ज़रूरत थे’ प्रकाशित. 

‘मैं हंस नहीं पढ़ता’, ‘वह सुबह कभी तो आयेगी’ (लेख), ‘जवाब दो विक्रमादित्य’ (साक्षात्कार) तथा ‘अब वे वहां नहीं रहते’ (राजेन्द्र यादव का मोहन राकेश, कमलेश्वर और नामवर सिंह के साथ पत्र-व्यवहार) का संपादन. 

‘मेरी नाप के कपड़े’ कहानी के लिये अमृत लाल नागर कहानी पुरस्कार, ‘क से कहानी घ से घर’ के लिए स्पंदन सम्मान, राजभाषा विभाग बिहार सरकार द्वारा विद्यापति सम्मान ।

चर्चित कहानी ‘उलटबांसी’ का अंग्रेज़ी अनुवाद जुबान द्वारा प्रकाशित संकलन ‘हर पीस ऑफ स्काई’ में शामिल. कुछ कहानियाँ अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित.

ईमेल – kavitasonsi@gmail.com

 

Tags: 20242024 कहानीएक लोकगीत के विद्यापतिफणीश्वरनाथ रेणुरेणु
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Comments 11

  1. प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा says:
    1 year ago

    कविता जी की यह कहानी एक लेखक की आतंरिक निर्मितियों और बाह्य परिवेश की रोचक दास्तान है.एक लेखक जब कुछ लिखता है तो उसके पहले उसे जीता है .और लेखक जब रेणु हों तो जीवन और समाज के साथ स्त्रियों को लेकर वह प्रेम से अपूरित क्यों न हो.रेणु के यहाँ सब कुछ पारदर्शी है.जीवन भी और रचना भी.रेणु का अपने जीवन में जिन भी स्त्रियों से सम्बन्ध बना वह -प्रेम की बिना पर ही बना .बबली,रेखा लतिका पदमा ये सारी स्त्रियाँ रेणु को रेणु बनाने में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं.एक बड़ी रचना बिना प्रेम के संभव नहीं.कविता जी की इस कहानी को पढ़ते हुए हम यह जान सकते हैं की अपने समय के बड़े लेखकों को बिना अतिरंजित किये इस तरह भी देखा जा सकता है.बधाई समालोचन और कविता जी का शुक्रिया इस अच्छी कहानी की प्रस्तुति के लिए.

    Reply
  2. Hari Bhatnagar says:
    1 year ago

    कविता की यह कहानी नायाब है । बधाई

    Reply
  3. पंकज मित्र says:
    1 year ago

    एक शब्द में “अद्भुत “लिखा है कविता जी ने। अभिनव प्रयोग और रेणु की भाषा का आस्वाद

    Reply
  4. उपेंद्र प्रसाद says:
    1 year ago

    रेणु के व्यक्तित्व में ,उनकी भाषा -शैली में ,परकायाप्रवेश असंभव और अकल्पनीय है ! लेकिन ,कविता जी ने इसे संभव करने का प्रयास किया है ।नमन !

    Reply
  5. Ravi Ranjan says:
    1 year ago

    बहुत सुन्दर, मार्मिक, रेणु जी और उनकी जीवन संगिनी समूह का विदयापत नाच से जुड़ी संवेदना पर आधारित आपकी रचना को सलाम। सादर।

    Reply
  6. Anonymous says:
    1 year ago

    लगा जैसे रेणु समक्ष हो गए हों।

    Reply
  7. कुमार मंगलम says:
    1 year ago

    कई दिनों बाद एक अच्छी कहानी पढ़ी। भाषा की रवानी और संरचना लाजवाब है। परकाया प्रवेश किया हो भाषा ने जैसे। एक लेखक की सम्पूर्ण बनावट को पकड़ने की कोशिश भी ईमानदार है और संदर्भ भी संगत और सटीक। बधाई हो कविता जी।

    Reply
  8. फ़रीद ख़ान says:
    1 year ago

    शानदार प्रयोग है यह. मैंने पहले ऐसा कोई प्रयोग नहीं देखा है. इसकी सबसे ख़ास बात इसकी दृश्यात्मकता और गतिशीलता है. एक सुगठित पटकथा की तरह कविता दी ने इसको लिखा है. भाषा में जो प्रवाह है, उसका मैं पहले भी मुरीद रहा हूँ. पर एक लेखक के दिमाग़ की बुनावट को जिस तरह से इसमें बुना गया है और अद्भुत है. बहुत बहुत बधाई लेखक को.

    Reply
  9. Anonymous says:
    3 months ago

    बहुत अच्छी और मार्मिक कहानी।

    Reply
  10. Dr. Arun Chandra Dwivedi says:
    3 months ago

    अप्रतिम। कहानी अपने पूरे परिवेश के साथ हमें उस युग में ले जाती है जब रेणु, अज्ञेय,नागर जैसे लेखक अपने शब्दों से कहानी को सीधे हृदय में उतार देने का सामर्थ्य रखते थे। कविता जी शायद आधुनिक युग में उस दौर का प्रतिनिधित्व करती नजर आती हैं। उन्होंने रेणु को हमारे सामने साकार कर दिया और वह भी उनके जटिल व्यक्तित्व को इतने कम शब्दों में। आपके लेखन की जितनी प्रशंसा की जाये कम होगी।

    Reply
    • Kavi Ta says:
      3 months ago

      बहुत-बहुत शुक्रिया आपका!
      आप सबका!
      -कविता

      Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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