मगही का प्रथम उपलब्ध उपन्यास अनुवादक : गोपाल शर्मा |
अध्याय – 1 |
बिहार शरीफ़ में बाबू सामलाल बड़े मुख़्तार थे. लेकिन वे इतने बड़े बहुत नीचता के बाद हुए थे. पहले वे बड़े गरीब थे. उनके बाबूजी गाड़ीवानी किया करते थे, और इनके फूफा अध्यापकी का काम करते थे और उन्होंने इनको मिडिल पास कराया. बाद में वे बिहार में एक मुख़्तार के यहाँ रसोईगिरी करके मुख़्तार का इम्तिहान दिए, और तीन बार फेल होने के बाद किसी तरह से पास हुए. आदमी वे होशियार थे और धूर्त भी. कुछ ऊंच-नीच तरीका से मोख्तारी चला ली. एक गरीब कायस्थ को कुछ रुपये उधार दिए, सूद समेत मूलधन लगाकर उससे मकान लिखवा लिया और कुछ समय में दोमंजिला मकान आलीशान बना लिया. वही कायस्थ सुगनलाल फिर उनके यहाँ रसोइए का काम करने लगे.
ऐसे तो लगभग सभी सरकारी काम करने वाले थोड़े-बहुत ख़ुशामदी होते हैं. यह तो मुस्लिम साम्राज्य और हिंदुस्तान की ग़ुलामी का नतीजा है. लेकिन इनमें ख़ुशामदी का स्तर कुछ ज्यादा ही था, और हाकिम आदि से बहुत ही करीबी रखते थे. कुछ ऊंच-नीच तरीके से मोख्तारी चला ली. ख़ुशामद के काम में चुगलखोरी के बिना तरक्की नहीं होती, इसलिए शहर के अमीर इनसे कुछ ख़फ़ा रहते थे. सन् 1326 फसली के चैत में मौलवी मोजफ्फर नवाब मानभूम से एसडीओ के रूप में आए, और हलधर सिंह एक साल से सब-डिप्टी थे. कुछ समय से सामलाल को राय बहादुर बनने का जुनून सवार हो गया था. वह जानते थे कि वे इस क़ाबिल नहीं हैं, लेकिन अपनी चालाकी पर भरोसा रखते थे. जैसे ही ख़बर मिली, सामलाल एक दिन पहले किउल स्टेशन पहुंच गए. उन्होंने केलनर के यहाँ चाय-पानी का इंतजाम कराया. शाम सात बजे, जब नवाब साहेब ट्रेन से उतरे और बख्तियारपुर जाने वाली ट्रेन में सवार हुए, सामलाल ने उनसे मिलकर आदाब-‘अर्ज़ की. उन्होंने अपना परिचय दिया और कहा कि पश्चिम की ट्रेन आने में अभी देर है, तब तक नाश्ता कर लिया जाए. नवाब साहेब ने कहा कि अभी इच्छा नहीं है. तब सामलाल ने बहुत मिन्नित की और कहा कि वे कल से ही यहाँ इंतजाम कर रहे हैं. नवाब साहेब भीतर-भीतर असहज हुए लेकिन रईस पृष्ठभूमि के कारण सीधे तौर पर कुछ नहीं बोले.
उन्होंने कहा: अभी माफ़ कर.
सामलाल: नहीं, हुज़ूर.
नवाब: बैठने से तबीयत परेशान हो गई है. खाया है, लेकिन हज़्म नहीं हुआ, ऐसा लग रहा है.
सामलाल (इधर-उधर देखकर और फिर धीरे से पैर छूते हुए): मुझ पर खाने का एहसान किया जाए.
नवाब साहेब को इतनी ख़ुशामद से पहले ही खीझ हो चुकी थी, ऐसा बेमतलब किसी ने नहीं देखा. अंत में सोचा कि ये नहीं मानेगा, इतनी दूर से आया है. इसे नाराज़ करना भी इंसानियत के खिलाफ़ होगा.
बोले : चलो.
आखिर केलनर के कमरे में दोनों गए और ख़िदमतगारों को सामान लगाते देखा. ख़ानसामाँ तीन-चार बिस्कुट, चाय, और अंडे आदि लाकर नवाब साहेब के पास रखने लगा, और मुख़्तार साहेब टेबल के दूसरी तरफ बैठ गए.
नवाब साहेब बोले : अपने लिए भी ले आओ.
ख़ानसामाँ: जो हुक्म.
मुख़्तार साहेब तुरंत हाथ जोड़कर बोले : माफ़ करें.
ख़ानसामाँ रुक गया.
नवाब: नहीं, ये तो फिर किरकिरी हो जाएगी.
सामलाल: नहीं, मैं वैसे ही ठीक हूँ.
नवाब: ओह, ठीक होना दिल से होना चाहिए.
सामलाल: नहीं हुज़ूर, बड़ी मुश्किल है.
नवाब: अच्छा, कुछ फल लाओ और हिंदू चाय वाले को बुलाओ.
सामलाल: जी हाँ.
ख़ानसामाँ तब कुछ केले और अन्य फल लेकर आया और हिंदू चाय वाले को बुलाकर अलग टेबल पर दो प्याले चाय रख दी. दरवाज़ा बंद करके वह चला गया.
खाने के दौरान, नवाब साहेब ने पूछा: “बिहार कैसा स्थान है?”
सामलाल: बहुत पुराना और बहुत अच्छा स्थान है.
नवाब: मुख़्तार लोग कैसे हैं?
सामलाल: अच्छे हैं.
नवाब: वकील?
सामलाल: जी हाँ.
नवाब: वकील और मुख़्तार के बीच बनती है?
सामलाल: बनती है, लेकिन मुख़्तारों के बीच आपस में मनमुटाव रहता है.
नवाब: क्यों?
सामलाल: यही आपस में जलन है.
नवाब: यह जलन किस बात की है?
सामलाल: अब जैसे सब मेरे खिलाफ़ हैं. मेरा किला जैसा मकान है, जो उन्हें अच्छा नहीं लगता. मेरे पास दस-पाँच हजार रुपये बैंक में हैं, और सब यह चाहते हैं कि वह उनके पास हो. हाकिम लोग मुझे अच्छा मानते हैं, यही सब वजह है.
नवाब: और मजिस्ट्रेट?
सामलाल: मानते हैं.
नवाब: वे कैसे हैं?
सामलाल: जैसे और जगहों के होते हैं.
नवाब: मतलब?
सामलाल: वे सब हाकिम हैं. उनकी बातें हमसे क्या पूछी जाएंगी.
नवाब: तुम ऐसा मत सोचो. मेरी वजह से तुम्हें कोई नुकसान नहीं होगा. बताओ.
सामलाल: हुज़ूर, मैं क्या कहूँ. दो-तीन को छोड़कर सब रिश्वतखोर हैं. पैसे जमा कर रखे हैं.
नवाब: बाकी लोग कैसे हैं, जैसे जमींदार?
सामलाल: पढ़े-लिखे ग्रेजुएट तो गिने-चुने हैं. बाकी थोड़े-बहुत पढ़े लोग हैं. अगर जमींदारी में दस रुपये किसी से ले लिए तो उससे एक जैसा व्यवहार नहीं करते. और अगर पाँच रुपये ज्यादा सलामी दे दी तो उसका पक्ष ले लेते हैं.
नवाब: क्या एसडीओ को यह सब पता नहीं है?
सामलाल: पता तो जरूर होता है.
नवाब: तो वे इन्हें मामले क्यों देते हैं?
सामलाल: एक बार गुडिअर साहेब आए थे और तुरंत मामले देना बंद कर दिया. लेकिन बाद में ख़ुशामद और सिफ़ारिश के कारण छोटे-मोटे मामले वापस मिलने लगे. फिर वही हाल.
नवाब: यह तो बहुत ख़राब है. पुलिस और प्रशासन में रिश्वतखोरी का होना तो आम है, लेकिन हाकिम का ऐसा होना सल्तनत के लिए खतरा है.
नवाब: हाँ, हाँ. (चाय खत्म करते हुए और रुमाल से मुँह पोछते हुए बाहर निकले). उन्होंने नौकर को बिल देखकर भुगतान करने के लिए कहा.
सामलाल: इसकी ज़रुरत नहीं है, मैंने सब दे दिया है.
नवाब साहेब: : सुनो, यहाँ के हालात सुनकर मुझे बहुत दुख हुआ.
सामलाल: हुज़ूर, ये सब मेरे दोस्त हैं. उन पर सख्ती न हो.
नवाब: नहीं, मैं किसी की बुराई नहीं कर रहा. सुनो, मैं बादशाही खानदान से हूँ.
सामलाल: जी.
नवाब: वाज़िद अली शाह मरहूम मेरे नज़दीकी रिश्तेदार थे.
सामलाल: जी.
नवाब: मेरे परनाना उनके मौसेरे भाई थे.
सामलाल: ओह. (समझ न आने पर भी मुसकुराते हुए और गंभीर दिखने की कोशिश करते हुए).
नवाब: कभी-कभी मेरा खून खौल उठता है. जो बेईमानी से बादशाहत छीनी गई है; तुर्की और अरब में हमारे लोगों के साथ जो हुआ, उसे ख़ुदा देख रहा है.
सामलाल: जी हाँ.
गाड़ी आने का समय हो गया. दूसरे यात्री प्लेटफॉर्म पर अपने सामान के साथ जाने लगे. सामलाल ने अपने नौकर से कहा कि सामान नज़दीक ले आए.
अध्याय – 2 |
गाड़ी आई. सभी यात्री अपना सामान चढ़ाने लगे और सामलाल भी चढ़ने लगे. नवाब साहेब का ख़ानसामाँ भी सामान चढ़ाने में लगा हुआ था. उसी दौरान, एक ड्योढ़ी से एक महिला ने सामलाल को सलाम किया. सामलाल ने जवाबी सलाम किया और इशारे से बता दिया कि यही एसडीओ जा रहे हैं. वह महिला तब चुपचाप दब गई.
नवाब साहेब ने इसे देख लिया, लेकिन ऐसे बर्ताव किया जैसे उन्होंने कुछ नहीं देखा हो. वे गाड़ी में चढ़ गए. सामलाल भी उसी डिब्बे में चढ़ गए.
गाड़ी चलने लगी. तब नवाब साहेब खिड़की के पास बैठे हुए थे. उन्होंने धीरे से पूछा :
नवाब:! तुम्हें सलाम करने वाली वह महिला कौन थी?
सामलाल: “हुज़ूर, वह बिहार की एक कस्बी (वेश्या) औरत है. एक बार दफा ६० के मुक़दमे में हम उसकी मदद किये थे.
नवाब: कभी कभी पुलिस भी बदमाशी करती है. जरा सी बात पर लोगों के खिलाफ़ दफा ६० की रपट लिख देते हैं.
सामलाल: नहीं, बात ये नहीं थी.
नवाब: “क्या?”
सामलाल: “यह बात तो मुक़दमे से जुड़ी है. हमें कुछ बड़ा (तफ़्सील से) कहने में झिझक महसूस हो रही है.”
नवाब: तुम निडर रहो. हमारी वजह से तुम्हें कोई नुकसान नहीं होगा.”
सामलाल: “अब जो हुज़ूर का हुक्म हो, हम तो हुज़ूर के हाथों में अपनी जान सौंप चुके हैं.”
नवाब: तुम बे-ख़ौफ़ रहो.”
सामलाल : “नसीबन नाम है इसका, और लोग कहते हैं कि अभी इसका खुल्लम-खुल्ला नथुनी नहीं उतरा है. बाबू हलधर सिंह वहाँ सीनियर अफसर थे, उन्होंने इसे एक बार देखा था और जब कुछ बोले तो कोई काम नहीं बना. फिर उनके दोस्त, पहले एक नितनेश्वर बाबू, जो इंस्पेक्टर थे, उन्होंने भी नसीबन से बात की पर ये न मानी. और तब पुलिस ने इसे धारा 60 के तहत कार्यवाही की. नितनेश्वर बाबू ने इसी तरह मुक़दमा अपने कोर्ट में चलाया. मुझे नसीबन ने अपना हितकारी समझकर अपना मुख़्तार बनाया और मैंने किसी तरह उसे रिहा कराया.
नवाब: ओह! (बड़ी प्रसन्नता से, उठकर बैठते हुए) “तब तो तुम एकदम लाजवाब आदमी हो. मैं तो समझ रहा था कि इतने दूर के सफर में कहाँ कोई आरामदायक हालात होंगे? तुम तो ख़ुदा के दिए हुए हो.
सामलाल: नहीं हुज़ूर, मैं कौन क़ाबिल हूँ.
नवाब साहेब ने अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा “तुम मेरे दोस्त हो, ऐसा समझो.”
सामलाल ने भी हाथ बढ़ाकर मिलाया.
सामलाल: जैसा हुज़ूर का हुक्म. मैं तो खुद को हुज़ूर के थूक के बराबर भी नहीं मानता.
नवाब साहेब: तो एक बात, अगर बेअदबी हो गई हो तो माफ़ करना.
सामलाल: हुज़ूर, मुझे आप शर्मिंदा कर रहे है.
नवाब: ज़रा देख न, नसीबन को यहीं बुला, जिससे रास्ते में बातचीत होती रहे. लेकिन उससे मत कहना कि मैं नया एस.डी.ओ. हूँ.
सामलाल: (हिचकिचाते हुए) अच्छा, तो इस बार अगले स्टेशन पर. लेकिन कोई दूसरा आदमी सेकेंड अफसर वहाँ रहा तब?
नवाब: समझते हुए (कुछ अचकचाते हुए ) बोले : वो सेकेंड अफसर के ताबे में है क्या ?
सामलाल: नहीं, ताबे में क्यों रहेगी, वो ठहरी रंडी. लेकिन हाँ, ज़रा परदे में रहकर छिप छिपाकर कोई बात करे है और अभी (धीमे से) बिलकुल नई-नवेली है.
नवाब साहेब बिल्कुल बेताब हो कर, “अब ज्यादा मुश्किल मत करो, जल्दी जाओ.”
सामलाल: गाड़ी रुके तब न, हुज़ूर.
मोकामा में गाड़ी रुकी, और सामलाल उतरकर नसीबन के डिब्बे (ड्योढ़ी) में गया और नसीबन को बुलाया. लेकिन नसीबन नखरे करने लगी और कहने लगी कि हलधर बाबू सुनेंगे तो जान से मार देंगे. सामलाल ने उसे बहुत दिलासा दिया और क़सम तक खाई, लेकिन वह नहीं मानी. मजबूरी में वह नवाब साहेब के पास लौट आया.
हँसते हुए नवाब साहेब अपने डब्बे से बाहर उतरकर टहल रहे थे. यह सब सुनकर उन्होंने तुरंत दस रुपए का नोट दिया और कहा, “जाओ और अगर फिर भी न माने, तो आखिर में थोड़ा भू भड़क धमकाना भी देख लेना.”
किसी तरह सामलाल नसीबन को फर्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट में ले आया. नवाब साहेब उसे डिब्बे से उतरते देख तुरंत अपनी कोच में चढ़ गए और गद्दी पर टिककर अख़बार देखने लगे.
नसीबन जब आई, तो उन्होंने गंभीरता से अख़बार एक तरफ रख दिया और बोले, “बैठ, बी-जान.” ऊपर का पंखा खोल दिया और रास्ते भर उसके साथ गपशप और हंसी-मज़ाक करते चलते रहे. गाड़ी अदलते-बदलते, जब बिहार पहुँचने के दो-तीन स्टेशन बाकी रह गए, तो नवाब साहेब ने नसीबन को वापस उसकी कोच में भिजवा दिया.
अध्याय – 3 |
आने के कुछ ही दिन बाद, नवाब साहेब ने ऑनरेरी मजिस्ट्रेटों के इजलास में मुक़दमे भेजना कम कर दिया. केवल दफा ‘३४’ या इकरारी दफा ‘६०’ के मुक़दमे ही कभी-कभार भेजते, और जितना काम होता, खुद कर लेते या दोनों डिप्टी को सौंप देते. लेकिन बाहर जाने का काम ज़्यादातर बाबू हलधर सिंह को देते, जिससे उनके दोनों काम- लोक और परलोक सध जाते. शुरू में तो दो-तीन महीने हलधर सिंह ने जैसे-तैसे निभा लिया, लेकिन जब बरसात आ गई, तो उन्होंने देखा कि ज्यादा बाहर जाना जान जोखिम में डालने जैसा है.
इसीलिए एक दिन हलधर सिंह ने मौका देखकर बड़े डिप्टी साहेब के पास जाने का फैसला किया. वहाँ पहुंचकर इधर-उधर की बातें करते हुए आखिर बोल पड़े: “आजकल स्वराज के हल्ले से मुक़दमे एकदम कम हो गए हैं, फिर भी हम सबकी जान परेशान ही रहती है.”
नवाब साहेब: “यही तो, ख़ास महाल का काम कुछ बढ़ा हुआ है, और तहक़ीक़ात सरजमीन का काम कम हो गया है.”
सिंह जी : “ख़ास महाल का काम जो छोटा साहेब ने मुझे दिया है, वह तो उतना मुश्किल नहीं है. लेकिन सरजमीन के हर मुक़दमे में जाना बहुत ख़राब लगता है. ये सब तो पहले ऑनरेरी मजिस्ट्रेट ही कर लिया करते थे.”
नवाब साहेब: “नहीं, मैंने ठान लिया है कि जहाँ तक हो सके, झगड़ालू मामले तुम सबके हाथ में नहीं दूंगा. गरीब फरियादियों पर बहुत जुल्म होता है.”
सिंह जी: “हाँ, यह बात तो एक तरह से सही है. बाकी दो-चार ही ईमानदार हैं.”
नवाब : “यही तो मुश्किल है. अगर केवल उन दो चार को दिया जाए तो बाकी लोग बहुत दुखी हो जाएंगे और फिर दूसरों को बिना किसी सुबूत के बे-‘इज़्ज़त करना होगा.”
सिंह जी: “तो इसे कहाँ तक रोका जा सकता है? हर तरफ तो रिश्वत की बदबू फैली हुई है. अरे, जब खुद हाईकोर्ट के जजों के खिलाफ़ भी आधी-अधूरी शिकायतें हो रही हैं, तो इन बेचारों का क्या ठिकाना?”
नवाब : “हम लोगों का उनसे कोई मतलब नहीं है. वो तो सरकार जाने, और जब बहुत ज्यादा हद हो जाती है, तब लोग खुद उन्हें दबाने लगते हैं. लेकिन छोटे दायरे में जो हमारे अधिकार हैं, उसमें कुछ करना तो ईमानदारी की बात है.”
सिंह जी: “हम लोग कितना कर सकते हैं? सबसे बड़ा जुल्म तो पुलिस की घूसखोरी है. जिसमें दस, बीस या पचास भी ईमानदार मिल जाएं तो बहुत हैं, नहीं तो ये तो रैयत के बदन से जोंक से भी ज्यादा खून चूसते हैं. सरकार भी इसे जानती है, लेकिन वो भी कुछ नहीं कर पाती. इसे कैसे रोका जाए, और हम लोग इसमें क्या कर सकते हैं?”
नवाब : “यह तो बेकार की बात है. इसमें सिर्फ दो ही बातें हो सकती हैं: या तो जिनके हाथ में इसे रोकने की ताकत है, वे जानते ही नहीं, या फिर जानते हैं, लेकिन रोकना नहीं चाहते. डाकघर को देख लो- कितना कम वेतन मिलता है उन कर्मचारियों को और कितनी कम रिश्वतखोरी होती है. क्यों? तुम कहोगे कि उनका अधिकार कम है. लेकिन यह बात पूरी तरह सही नहीं है. हर वक्त पैसों के लेन-देन का काम होता है, चिट्ठियां भेजने और लाने का काम होता है, इसमें भी बहुत वसूली की जा सकती है. लेकिन इसमें पब्लिक का अफसरों पर ज्यादा भरोसा है. जहाँ ज़रा भी शिकायत होती है, तुरंत तहक़ीक़ात और सजा होती है. इसी वजह से लोग बिना वाजिब वजह के शिकायत नहीं करते, जब तक मजबूर न हो जाएं. और जो कोई जरा-जरा सी बात पर शिकायत करता है, तो बाकी आम लोग उसकी मदद नहीं करते. और वहीं, सरकार की दाईं आँख की तरह देखी जाने वाली पुलिस को देखो ! अगर कोई गुमनाम शिकायत होती है, तो उसकी कोई परवाह नहीं की जाती. यदि करने वाला कोई नामधारी है, तो फिर तहक़ीक़ात के लिए पहला दर्जे का मजिस्ट्रेट बुलाया जाता है और गवाहों से पूरी तरह साबित करवाया जाता है. डर की वजह से कोई गवाही नहीं देता. अगर अपना आदमी गवाही देता है, तो उस पर भरोसा नहीं किया जाता, और अगर कभी कोई दूसरा अजनबी आदमी गवाही देता है, तो ज्यादातर डर से, हम लोग यह सब नहीं कर पाते. तो अगर डाकघर की तरह जनता पर भरोसा किया जाए, तो काम क्यों नहीं चल सकता? लेकिन इसमें सरकार का रोब खत्म हो जाएगा. मुहब्बत का पानी जब दरख्त को जिंदा नहीं रख पाता, तो उसे रोब और रिश्वत के कीड़े कब तक बचा सकते हैं?”
सिंह जी: ” हमारे सोचने का यह तरीका तो बिल्कुल सही नहीं है, क्योंकि जहाँ इतना बड़ा अधिकार दरोगा को दिया गया है, वह हम सब से कम नहीं है, और शायद कहीं तो इससे बेसी ही होगा. वहाँ पर अगर आदमियत का ख्याल करके लालच को रोकने के उपाय भी किए जा सकते हैं. और दूसरी बात, इस सिलसिलेवार ख्याल का भी ध्यान रखना चाहिए, कि पुलिस में ऐसा है कि जो जाता है वो ख़राब हो जाता है, वह फिर वापस अच्छे काम नहीं कर पाता.”
नवाब : “ये हम ठीक नहीं समझते. ५० रुपये दरोगा को शुरुआत में मिलते हैं, पर उसकी उम्मीद १०० तक पहुंच सकती है, और अच्छा काम करने पर इंस्पेक्टर, डिप्टी, या सुपरिंटेंडेंट भी बन सकता है. और अगर हम देखें, तो इस देश में ऐसा नहीं है कि किसी और जगह पर ऐसा आदमी जाए और उसे इससे ज्यादा मिले. इस पैसों में पाँच लोग अच्छे से गुजर-बसर कर सकते हैं. अगर ऐसे हालात में पुलिस पर कड़ी नज़र रखी जाए और शिकायतों पर पूरा ध्यान दिया जाए, तो जिला बहुत कम समय में ठीक हो सकता है. कम से कम देख तो सकते हैं कि एक-दो मामलों में दरोगा और जमादार कैसे काम कर रहे हैं, और इससे जो तुमने कहा था, वह असली सिलसिला भी बदल सकता है. लेकिन दूसरी समस्या यह है कि इसमें लंबा समय लगेगा, और शायद कुछ दूसरी गड़बड़ियां सामने आएं, जो अभी हमें समझ में नहीं आ रही हैं. इसीलिए सबसे अच्छा उपाय, जिसे मैं बहुत समय से सोच रहा हूँ, यह है कि अब दरोगा के स्थान पर डिप्टी को भेजा जाए. इतने पढ़े-लिखे होने के बावजूद, पूरे वेतन मिलने के बावजूद, खाली नाम के असर से इनकी घूस लेने की आदत बन गई है. मैं यह समझता हूँ कि डिप्टी को सब थाना में भेजा जाए और उनका ओहदा और वेतन सब जगह समान रखा जाए.”
सिंह जी : इससे कितना खर्चा और बढ़ जाएगा?”
नवाब साहेब: “६० करोड़ से ज्यादा न होगा ? जो गोला-बारूद और ख्याली दुश्मन को रोकने में खर्च किया जाता है, उससे कहीं ज्यादा तो नहीं है ये ? क्या यह इंसाफ है कि बाहर से किसी को न आने दिया जाए, आफत को रोका जाए,इन संकटों को रोकने के लिए तोप और हवाई जहाज खरीदे जाएं, और घर में रैयत के पीछे सैकड़ों ताजे कुत्ते छोड़ दिए जाएं, जो झूल-झूल के लोगों को मारें? कितना अच्छा होता (और मेरे मुरसाले के बारे में अंग्रेज लोग इसी तरह शिकायत करते थे कि ऐसा हो रहा है), अगर सरहद से तोप-बंदूक हटा दी जाती और हिंदुस्तानियों को हथियार रखने में कोई रुकावट न होती, तो मरे हुए हिंदुस्तान में खून दौड़ने लगता. कब तुमने देखा है कि हवा के हलके झकोरे से बचाकर और धूप की गर्मी से हटाकर पौधे को कोठरी में रखा जाए और वो फिर से खिलने लगे? इससे इंग्लिस्तान से हिंदुस्तान की तिज़ारत और बढ़ जाती और उनको ही सबसे ज्यादा फ़ायदा होता. पर इससे सब के दूसरे काम बंद हो जाते. फिर इनको मीर ज़ाफ़र और मीरकासिम सा कोई नहीं मिलता!”
सिंह जी: “लेकिन ये बात तो हो नहीं सकती ? सरकार साठ करोड़, चाहे अपनी ज़रुरत से, या अपनी गलत समझ के कारण, खर्च नहीं करेगी, और न ही तोप-गोला सरहद से हटा सकेगी.”
नवाब साहेब : “तो टैक्स बढ़ा दो. मेरा ख्याल है कि लगभग हर मुक़दमे में औसतन थाना में २०० रुपये से कम नहीं लगते, और अगर खुल्लमखुल्ला तौर पर मुक़दमे की फीस, जैसे १० या १५ रुपये कोर्ट फीस के रूप में ली जाए, तो मुक़दमे के खर्च से डिप्टी के वेतन के बराबर पैसा निकल आएगा. जो गरीब हों, उन्हें टैक्स माफ़ किया जा सकता है, और लोग ख़ुशी-ख़ुशी देते रहे हैं, वे इसी समझ से काम लेकर देते रहेंगे कि रिश्वत से कुछ निजात मिलेगी. कोर्ट फीस बढ़ाकर इनके वेतन में थोड़ा इज़ाफ़ा किया जा सकता है. और अदालत में ऐसे कानून बनवाए जा सकते हैं कि जहाँ भी कोई दरख़्वास्त हो, फ़रीक़ को उसकी नक़्ल जरूर दी जाए.”
सिंह जी : इज़हार-उज़हार (जमीन) की नक़्ल में तो रिश्वत का चलन अदालत में बना हुआ है. बोकारो में तो हर तरह के नक़्ली कागजात तैयार किये जाते हैं. यहाँ हर कागज की रोशनाई से लिखकर तीन कार्बन कॉपी तैयार की जाए, और इसी तरह हर हुकम की तीन-तीन कॉपी तैयार करके एक-एक कॉपी दोनों फ़रीक़ को दे दी जाए, और एक-एक मिसिल में रखा जाए, तो कुल मिलाकर सारे बखेड़े हल किए जा सकते हैं.”
नवाब: “मैं इन सब बातों पर एक किताब भी लिख चुका हूँ और सरकार के सामने इसे पेश करने की चाह भी है, लेकिन मुझे डर है कि कौन सुनेगा?”
सिंह जी : “फिर देखा जाएगा, नहीं सुनेंगे तो खुद पछतायेंगे .”
नवाब: “यह तो हो ही रहा है.
सिंह जी: “तो कम से कम इस बरसात में हमें हैरान न किया जाए. ऑनरेरी मजिस्ट्रेट जहाँ रहते हैं, वहाँ उनको काम सुपुर्द कर दिए जाएं.”
नवाब: मैं क्या करूं? मेरा ईमान कांप रहा है.”
सिंह जी: “तो यह सब क्या, उन्हें बेकार में नौकरी पर क्यों रखा जाता है?”
नवाब: “देखो, जो ईमानदार होते हैं, वे कभी ज्यादा ख़ुशामद नहीं करते. और ये जो पहले से हाकिमों की ख़ुशामद करने वाले होते हैं, उन्हें ज्यादातर ईमान -इकराम और पद मिलते हैं.”
सिंह जी: यही तो बड़ी मुश्किल है, मुझे मालूम है.”
नवाब: “अभी कुछ दिन चलने दो.”
अध्याय – 4 |
अंधेरी रात है, रह-रह के ज़रा-ज़रा बिजली भी चमक रही है. सामलाल एक आदमी के साथ भटियारी सराय के उत्तरी नाले के किनारे-किनारे बिजली की हथबत्ती (टार्च) के सहारे टोहते-टोहते चल रहे हैं. जहाँ कहीं पत्ता-उत्ता खड़खड़ाए, चौकन्ना होकर इधर-उधर देख लेते हैं. आखिर उत्तर खिड़की पर पहुँच कर सामलाल खटखटाते हैं.
एक बूढ़ी औरत ने भीतर से पूछा, “कौन है?”
सामलाल: “हम “
बूढ़ी: “बाबू, अरे बाप! ऐसी रात में ! ” बोलते हुए दरवाज़ा खोल दिया.
सामलाल: “कितनी बार कहा कि दूसरे मकान में डेरा बदल लो, लेकिन तुम मानती ही नहीं.”
सामलाल अंदर गए, और बूढ़ी औरत ने दरवाज़ा बंद कर दिया.
सामलाल: “नसीबन कहाँ है?”
बूढ़ी: वो तो लेटी हुई है.
सामलाल नसीबन के पास गए, उसका हाथ पकड़कर उठाया और बोले, “क्या हुआ?”
नसीबन: “सिर में बहुत दर्द है.”
सामलाल: “चल चल, नखरा छोड़. सच्चे नसीब तो तेरे ही हैं. सारे डिप्टी और सब-डिप्टी तेरे ग़ुलाम बने हुए हैं.”
बूढ़ी: “और मुख़्तार?”
सामलाल: “अरे, हम सब उनके ग़ुलाम हैं. तो अपनी क्या बात करें?”
नसीबन: “सुनो, सच बात यह है कि सिंहजी आज आ रहे हैं. और अगर यह बात उनको पता चल गई, तो सबके लिए बड़ी मुश्किल हो जाएगी.”
सामलाल: “नहीं, सिंहजी को तो रसातल भेज दिया गया है. आज बड़ा जाके कहना सुनना करे था, पर कहीं शिकायत करे से काम बने है?”
नसीबन: “नहीं, ख़ुदा की क़सम, आज माफ़ कर दो.”
सामलाल: “क्यों?”
नसीबन: “तुम्हें क्या हो गया है? इतने बड़े आदमी होकर…”
सामलाल: “अरे, बड़ा आदमी कौन है? उनकी बात उठाने की हिम्मत किसकी है? एक बार वो नज़र उठाकर देख भर लें तो तर जा सकें.
नसीबन: “हाँ, यह तो सुना ही है. आजकल आपकी खूब चर्चा हो रही है. मुवक्किलों की अनठेल भीड़ लगी रहती है, लेकिन और सब ओली-बोली (प्रशंसा और चुगली दोनों ) मारते हैं.”
सामलाल : इन भडुओं पर मार पड़े ! हमारा क्या घट जायेगा जो इनकी परवाह करेंगे. हम खाली ये चाहें कि तू डिप्टी साहेब से कह कर हमारी राय बहादुरी पक्की लिखवा ले.
नसीबन: “हम तो बहुत कोशिश कर रहे हैं, और वो भी तुमसे ख़ुश हैं. लेकिन वो कहते हैं कि ऊपर वाले सब आएं-बाएं कर रहे हैं. तुम्हारे दुश्मन सब तरह-तरह का बखेड़ा लगा रहे हैं. कहते हैं कि कौन काम किया, कौन जमींदार है, अटपटा सवाल करते हैं.”
सामलाल :”क्यों! देखो, अस्पताल के लिए मैंने दो हज़ार रुपये दिलवा दिए. और सेरम के नाम से बैंक खड़ा करवाया. पहले रघुवर दयाल एसडीओ था, वो रट-रटकर मर गया, लेकिन बस चार सोसाइटी बनीं. मैंने पचास सोसाइटी बनाईं, तब कहीं जाकर बैंक चला. बाबू, ऐदल सिंह के कितने पैर पड़ के मिन्नतें करके कॉलेज बनवाया. मेरे जैसा कोई मुख़्तार है कहाँ? जमींदारी से क्या होगा? कहो तो अभी लाखों रुपये निकालकर दिखा सकता हूँ. विरजी-फिरजी जैसे रईसों ने भी कितना कोशिश किया, लेकिन स्कूल-कॉलेज बनाने के वास्ते क्या कर पाए? यहाँ मैंने सब कुछ चला दिया. सब जगह गांधीजी के नाम से स्कूल बनवा दिए, लेकिन यहाँ क्या कोई मेरी बराबरी में कुछ कर पाया? खादी का नाम तक यहाँ नहीं था. यह सब किसकी बदौलत हुआ?”
नसीबन: “हमसे क्या मतलब?”
सामलाल: (चूमने और गोद में उठाने की कोशिश करते हुए) “समूची जान तुम्हारी खातिर ही तो है.”
नसीबन: (नखरा करते हुए अलग होकर) “हमारी तबीयत ख़राब है, माफ़ करो.”
सामलाल: “मालूम होवे है कि तुम्हारे नवाब साहेब तुम्हे ख़ुश नहीं कर पा रहे.”
नसीबन: “नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं है. लेकिन आज माफ़ करो.”
सामलाल: (नसीबन के पैर छूते हुए) “देखो, मेरी इज़्ज़त रख लो. कोई गड़बड़ मत करो.”
नसीबन: (पैर हटाते हुए) “छोड़ो!” (इतने में बूढ़ी घबराहट में उधर आ जाती है.)
बूढ़ी: “अरे, सिंहजी आ गए! मैं तो कुंजी लेने के बहाने आई.”
सामलाल और नसीबन दोनों पीले पड़ गए.
सामलाल: “अरे, बचाओ!”
नसीबन: हमारे कहने से तो तुम मानते ही नहीं. कहा नहीं था कि वो जरूर आएगा. तुम सामने वाले दरवाज़े से चले जाओ.”
सामलाल: “नहीं-नहीं, वहाँ तो सब दुकानें खुली हैं.”
नसीबन: “तो बगल की कोठरी में छुप जाओ.”
सामलाल: “वहाँ कोई है क्या?”
नसीबन: “तफजुला.”
सामलाल: “अरे बाप रे ! वो तो कल सब जगह शोर मचा देगा.”
नसीबन: “तो अब क्या बताऊं?”
सामलाल: “दाईं तरफ की कोठरी कैसी है?”
नसीबन: (हँसते हुए) “पैखाना है.”
सामलाल जल्दी से “क्या फर्क पड़ता है ” कहते हुए उसी में घुस गए.
सिंहजी कमरे में आए, चेहरा रंज से भरा हुआ था. उन्होंने खिड़की बंद कर बूढ़ी से कुंजी ली और कमरे में दाखिल हुए. नसीबन जो पहले से ही सिर पकड़े लेटी थी, धीरे से उठकर बोली, “आइए, बैठिए.”
सिंहजी ने भौंहें चढ़ाते हुए पूछा, “सामलाल आया था?”
नसीबन: “नहीं, मुझे तो पता नहीं. मेरा सिर तो सुबह से ही दर्द कर रहा है.”
सिंहजी: “साला, आज मुझसे अकड़ दिखा रहा था. खुद बेईमान, दुनिया का सबसे बड़ा रिश्वतखोर और मुझे बेईमान कहता है. अब जो भी हो, मैं सब देख लूंगा.”
इसके बाद सिंहजी बाहर निकले और तफजुला की कोठरी में जाकर देखा, लेकिन वहाँ कोई नहीं था. फिर सामने वाले कमरे में गए, वहाँ भी कोई नहीं मिला. इधर-उधर घूमते हुए उनकी नज़र पैखाने की तरफ गई.
सिंहजी लालटेन लेकर पैखाने की तरफ गए. अंदर देखा तो एक कोने में सिमटा हुआ, मुँह छिपाए सामलाल बैठा हुआ था. सिंहजी गुस्से से चीख पड़े, “साला हरामखोर!” कहते हुए उन्होंने लात मार दी.
सामलाल दर्द से चीख उठा, “बाप रे!”
सिंहजी: (दूसरी लात उठाते हुए) “चुप, छछूंदर के बच्चे ! ” (जेब से तमंचा निकालकर दिखाते हुए) “ख़बरदार, यहीं पर सारी बहादुरी खत्म कर दूंगा.”
(सामलाल का हाथ पकड़कर खींचते हुए) “नसीबन, देखो, यह कहाँ से पैदा हुआ?”
सामलाल, नसीबन, और बूढ़ी, तीनों घबराने लगे.
नसीबन: “हम कैसे कह सकते हैं कि यह कैसे अंदर आया? बड़े आदमियों के यही सब लक्षण होते हैं?”
बूढ़ी: (जल्दी से आले में पर हाथ रखते हुए) “ख़ुदा की क़सम, रसूल पैगंबर की क़सम! हम कुछ नहीं जानते. यह लड़की तो सुबह से बीमार है, और मैं तो बस उसी में परेशान थी.”
सिंहजी: (सामलाल को घूरते हुए) “तो चचाजी (नवाब साहेब) ने इन्हें भेद लेने के लिए भेजा होगा. मैंने आज ही उनसे इतनी मिन्नतें कीं, और जब वह नहीं माने, तो समझ गया कि वो पक्का बदमाश है. यह मेरे पीछे-पीछे पड़ा है. ऐसे लोग चाहते हैं कि नाम मेरा ख़राब हो और यह भडुआ (सामलाल की तरफ इशारा करते हुए) पीछे से खेल करे. इससे तो अच्छा है कि ये और कुछ ख़राब काम करके छिप-छिपकर कमा लेता.”
बूढ़ी: “मुख़्तार साहेब, आपने सब कुछ बर्बाद कर दिया. आप हमारे घर क्यों चोर की तरह आए?”
सिंहजी: (तमंचा दिखाते हुए) “मुख़्तार साहेब, सच-सच बोलो, यहाँ कैसे और क्यों आए? नहीं तो जान से मार दूंगा. आगे-पीछे जो होगा, देखा जाएगा.”
सामलाल: (कुछ वक्त शांत होकर) “मेरे और एक दोस्त के बीच बाजी लगी थी. वह कह रहे थे कि सिंहजी रोज़ नसीबन के पास जाता है, लेकिन मैंने कहा नहीं. फिर वही दोस्त कहने लगा कि सांझ को खिड़की का ताला खुला रहता है, तुम जाकर देखो.”
सिंहजी: “तो खिड़की में तो यहाँ हमेशा ताला लगा होता है और वही ताला रहता है, फिर तुम कैसे गए?”
सामलाल: “मुझे तो ये बात पहले नहीं पता थी, जब कभी मैं पहले आया होता, तब मुझे इसका कोई ख्याल रहा होता.”
सिंहजी: “यह तो बस मुद्दालय की सफाई है, तुम तो इन सब चीज़ों में प्रवीण हो.”
सामलाल: (सिंहजी के पैरों को छूते हुए) “आप ब्राह्मण हो, अगर झूठ बोलूं तो कोढ़ी हो जाऊं.”
सिंहजी: (थोड़ा सिटपिटाते हुए) “मैंने तो सुना था कि तुम रंडियों को उस उस बदमाश के यहाँ पहुंचाते रहे हो, और नसीबन भी वहाँ जाती रहे है. लेकिन जब तुम दोनों ने क़सम खाई और मुझे तुम्हारी ये सब बातें झूठ नहीं लगती हैं. बाकी देखो, ये सारी बातें किसी से मत कहना. मैं भी तुम दोनों को रंगे हाथों पकड़ने आया था. नसीबन मेरी रखैल है, यह बात सब झूठ है. (फिर पुराने मुक़दमे के बारे में सोचते हुए) कई लोगों ने मुझसे कहा है कि वो नामुराद मुझे बार बार इसी वास्ते बाहर भेजे है. क्यों ये सब करे है. मैं तो कहूँ हूँ कि उसके ऐसे बर्ताव का मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता. मुझे इस तरह वनवास क्यों भेजे दे रहे हैं ? मैं उसके मुँह पर ये सब नहीं बोलता. लिहाज करता हूँ, थोड़ा डरता भी हूँ.
सामलाल: “मैं तो नहीं जानता इस सब के बारे में, मैं इसमें पड़ना भी नहीं चाहता.”
सिंहजी: “क्यों? मैंने तो सुना है कि तुमने सरबतिया को रख लिया है, उसे घर बनवाकर भी दिया है और एक बेटा भी हो गया है.”
सामलाल : हाँ, हो गई एक मरतबे गलती, बाकी रंडी-पतुरिया से हमारा कोई वास्ता नहीं.
सिंह जी : अच्छा तो चल, जो हमसे गलती हुई तो हुई बाकी अब उसे भुला देने में ही भलाई है. इससे हमारी पुराणी दोस्ती में खलल नहीं पड़नी चाहिए.
सामलाल : जी, हुज़ूर
सिंहजी ने फिर बुढ़िया से केवाड़ी (दरवाज़ा) खोलने को कहा और कुंजी दे दिए. बुढ़िया ने तब खिड़की खोल दी.
सिंहजी और सामलाल बाहर निकले और खिड़की बंद हो गई. आगे चलकर बोले – “देख, इस बार जो एस डी ओ आया है, वह सुई की की तरह वार करने वाला है. इससे थोड़ा बचकर रहना.”
सामलाल – “जी हाँ, हम इनसे दो कोस उछट कर ही रहते हैं.”
सिंहजी – “देख, ये सारी बातें किसी से कहना मत.”
सामलाल – “नहीं हुज़ूर, यह भी कोई कहने वाली बात है!”
अध्याय – 5 |
उसी रात बाबू हलधर सिंह जब बाबू सामलाल से मिलकर लौटे और अपने घर-डेरा की ओर चलने लगे, तो रास्ते में उनके मन में तरह-तरह के विचार आने लगे. कभी सोचते कि “अगर इसे मार-पीट कर दिया होता, तो क्या ठीक रहता? यह आदमी बड़ा चुगलखोर है और एसडीओ का दुलारा है. कहीं उल्टा-सीधा जाकर कुछ लगा-बुझा कर न कह दे और झगड़ा-लड़ाई करा दे.” फिर दूसरे ही क्षण सोचते कि “सामलाल शरीफ़ आदमी है, उसने क़सम खाई है. उसके बारे में जो कुछ मैंने सुना, वह झूठा लगता है. तो फिर एसडीओ के दुलारे होने की बात भी शायद झूठी अफवाह हो. लेकिन अपनी इस बे-‘इज़्ज़ती की बात कहीं और न फैल जाए, इस डर से इन सब बातों को वह किसी से नहीं कहने वाला. रास्ते में वे नसीबन के घर जाने का सोच रहे थे, लेकिन उसके सिर दर्द की बात याद आने पर चुपचाप अपने डेरा पर लौट गए और जाकर सो गए.
दूसरे दिन सोच-विचार के बाद हलधर सिंह ने तय किया कि सामलाल और नवाब साहेब के बीच कोई टकराव करवा देना चाहिए. साथ ही, उन्होंने नसीबन के घर पर कड़ा पहरा भी बिठा दिया.
उधर सामलाल, हलधर सिंह की दी गई लात की मार को भुला नहीं पाए थे. लाज तो नहीं आई थी, लेकिन उनके मन में बाबू हलधर सिंह के प्रति गहरी रंजिश पैदा हो गई.
नवाब साहेब रातभर बेचैनी में रहे थे. उनकी नज़रें बार-बार दरवाजे पर जाती थीं, इंतजार था कि नसीबन अब आवे है तब आवे है. कई मर्तबा उन्होंने अरदली को नसीबन के घर भेजा कि जाकर पता करे, साथ बुला लाये. अपने कई नौकरों-अर्दलियों को सड़कों और गलियों में दौड़ाया कि वे पता करें कहीं आती न हो. बाकी आखिर में एक अर्दली सामलाल की लिखी हुई एक पुर्जी लेकर आया. लिखा था- “मेरी जान मुश्किल से बची है. दुश्मन पहुँच गया और उसने खूब रगेद मारा. अभी तबीयत बहुत परेशान है. मैं आपसे बाद में मिलूंगा. “
सुबह होते ही बाबू हलधर सिंह नवाब साहेब के पास पहुंचे.
आदाब-बन्दगी के बाद नवाब साहेब ने पूछा, “कहिए, क्या हाल-चाल हैं?
सिंहजी बोले, “अच्छा है, पर मैं तो मरा जा रहा हूँ.”
इधर उधर के मामलों मुकदमों की बातों से होते हुए बातचीत मुख़्तार सामलाल की तरफ मुड़ गयी.
नवाब साहेब बोले, “मुख़्तार लोग तो बड़ी मुश्किलें खड़ी कर देते हैं. असल बात हमें कभी जानने नहीं देते. हमें तो काठ का उल्लू बनाकर रख दिया है.”
सिंहजी ने कहा, “परमेश्वर ही उनसे जवाब लेगा. यहाँ किसी बात का कोई सिरा समझ नहीं आता. एक बार मैंने बाबू कन्हैया लाल से पूछा तो उन्होंने सारा दोष हम लोगों पर ही डाल दिया.”
नवाब साहेब ने हैरानी से पूछा, “हम लोगों का क्या दोष?”
सिंहजी ने जवाब दिया, “बस यही कि अगर सच बात बताई जाए, तो हम लोग उन पर यकीन ही नहीं करते.”
नवाब साहेब बोले, “ये भी कोई बात है? असल बात तो ये है कि हर लड़ाई में थोड़ा-थोड़ा दोष दोनों पक्षों का रहता है. लेकिन अपना कसूर तो मुदई पूरी तरह छिपा लेता है और मुदालह (विपक्षी) सोलह आना सारे इल्ज़ाम चुपचाप सह लेता है.”
सिंहजी बोले, “यही तो है. अब अगर डर के मारे मुदालह झूठ न बोले, तो उसकी मुश्किलें और बढ़ जाएंगी.”
नवाब साहेब : “वकील और मुख़्तार लोग दस-बीस को छोड़कर लगभग सबके सब पैसे के पीछे ख़राब हो चुके हैं. और इसका असर ये हुआ है कि तिज़ारत की आपाधापी में वकील और बैरिस्टर भी लगभग वैसे ही हो गए हैं.”
सिंहजी : “नहीं, ये मुख़्तार लोग तो और भी ज़्यादा ख़राब हैं. ऐसे बहुत ही कम लोग हैं जिनका चाल-चलन और रहन-सहन सही हो. और फिर परमेश्वर और ईमान-धर्म की बात तो उनके लिए कहीं होती ही नहीं.”
नवाब साहेब : तो इन मुख़्तार और वकील-बैरिस्टरों में कौन बेहतर है?”
सिंहजी : थोड़ा-बहुत का फर्क है. हाँ, जो नए दौर के रोशनी वाले लोग हैं, वे पुराने लोगों से कहीं बेहतर हैं. पुराने लोगों में तो बिरले ही कोई ऐसा मिलेगा जो शराब-ताड़ी न पीता हो या दास्ता (रखैल) न रखता हो.”
नवाब साहेब बोले : “तो सामलाल तो पुराने लोगों में ही है, लेकिन वह बड़ा अच्छा आदमी है. उसमें यह सब चीज़ें नहीं दिखतीं.”
सिंहजी : “अरे, वह तो बड़ा ‘कंबल ओढ़ के घी पीने’ वाला आदमी है.”
नवाब साहेब ने हँसते हुए ताज्जुब से पूछा :अरे, वो कैसे?”
सिंहजी : “चंदन-टीका तो बस दिखावे का है. आजकल कचहरी में चंदन-टीका लगाने वालों में सौ में नब्बे तो पक्के बेईमान और धूर्त होते हैं. कोई कायस्थ ऐसा मिल जाए, तो उससे दूर ही रहो. उसके साथ थोड़ा-बहुत भी वास्ता रखने में फ़ायदा छोड़कर नुकसान होने का डर रहता है.”
नवाब साहेब ने तंज करते हुए कहा : “और कायस्थ ऐसे तो तुम बाभनों (ब्राह्मणों) को क्या कहते हैं?”
सिंहजी : “हाँ, वही. लेकिन सामलाल जैसा बटलोही सा चिकना-चौकस आदमी तो कोई ब्राह्मणों में भी नहीं मिलेगा. ऊपर से इतना सीधा-सादा लगता है, लेकिन उसने कितने घर बर्बाद कर दिए हैं!”
नवाब साहेब ने चाव से पूछा : “वो कैसे?”
सिंहजी : “इसके आसपास की कोई जाति नहीं बची होगी, जिसे उसने किसी न किसी तरह बर्बाद न किया हो. अभी शहर की सबसे खूबसूरत कहारिन को फंसा रखा है.”
नवाब साहेब ने भौं सिकोड़कर और हल्की मुस्कान के साथ कहा: “मैंने तो ऐसा कुछ सुना नहीं!”
सिंहजी : “इस पर बड़ा बखेड़ा हुआ था. उसका पति और मालिक शिकायत करने वाले थे, लेकिन सामलाल ऐसा धूर्त और नीच है कि उसने सीधे साहेब-सुपरिंटेंडेंट के यहाँ पहुँच लगाकर उसे एक रात के लिए जेल कटवा दीं. उसके बाद उसका पति बिहार छोड़कर भाग गया, और बिहार आने का अब वो नाम भी नहीं लेता. कहते हैं कि लोगों ने किसी तरह से सौ-पचास रुपए इकट्ठाकर उसे देकर उसकी दूसरी शादी करा दी.
नवाब साहेब: “तो सामलाल की अपनी जोरू नहीं है?”
सिंहजी : जोरू बड़ी खूबसूरत है. लोग बताते हैं, वह मेमसाहेब जैसी गोरी है और आँखें और बाल भी वैसे ही हैं. लेकिन बदमाशों ने एक बार शोर मचा दिया था कि वह अपनी जोरू को साहेब के पास भेजता है.”
नवाब साहेब : “तोबा-तोबा! वह बेचारी तो मर ही गई होगी?”
सिंहजी : “कौन जाने? लेकिन खूब तहक़ीक़ात करने पर पता चला है कि उसकी जोरू के बारे में जो बातें थीं, वे पूरी तरह झूठी थीं. हाँ, चमेलवा को तो मैंने खुद उस रात डाकबंगले से आते देखा था.”
नवाब साहेब : “रात को कैसे देखा कि वह इतनी खूबसूरत थी?”
सिंहजी :”अरे, उसे दिन में कई बार देखा था. और कौन उसके साथ सोना न चाहेगा?
नवाब साहेब ने चुटकी ली: “तो तुम भी उसके साथ सो चुके हो?
सिंहजी : “क्या मुझे बदनाम होना था? लेकिन हाँ, अपने वक्त में अगल बगल के घरों में कुछ दिन कमाल किया है.
इसके बाद नवाब साहेब और सिंहजी कुछ और बहस-मुबाहिसा करते रहे. नवाब साहेब मन ही मन चमेलवा के हाल जानने के लिए उत्सुक थे, लेकिन इतने में डाक लेकर अरदली आ गया. नवाब साहेब डाक देखने लगे, और सिंहजी के डेरा से बुलावा आ गया, तो आदाब करके वे चल दिए.
जाते वक्त नवाब साहेब ने पूछा,: “क्यों ? जा रहे हो, सिंहजी?”
सिंहजी बोले, “हाँ, अभी अपने काम से जा रहा हूँ,” और इतना कहकर चले गए.
डाक में, रांची से आई एक गुमनाम चिट्ठी ने नवाब साहेब को हिलाकर रख दिया. उसमें किसी ने नवाब साहेब की गंभीर शिकायत की थी. ज्यादातर शिकायतें नसीबन से मिलने-जाने को लेकर थीं. कुछ रिश्वत लेने की बात भी थी. सरकार ने इस पर जवाब मांगा था. नवाब साहेब यह देखकर सकते में आ गए और कुर्सी पर पसरकर सोचने लगे, “यह कौन-सी बला आ गई?
अध्याय – 6 |
सुबह भोर के सूरज उगा ही था कि थोड़ी देर में बादल घिर आए. फिर होते होते ऐसा अंधेरा छा गया कि दिन रात जैसा लगने लगा. रह-रहकर बिजली कड़कने लगी. नवाब साहेब सारा दिन भारी सोच-विचार में डूबे रहे. दिन के पिछले पहर उन्होंने सामलाल को बुला भेजा.
सामलाल जब पहुंचे, तो नवाब साहेब को सुस्त पाया. सामलाल कुछ समझ नहीं सके कि बात क्या है. मन ही मन सोचने लगे, “रात को जो कामयाब न हो सके, क्या उसी की वजह से साहेब सुस्त हैं? लेकिन यह तो कोई इतनी बड़ी बात नहीं हो सकती.”
सामलाल अब भी अपनी अक्ल दौड़ा ही रहे थे और बैठना चाह रहे थे कि इतने में नवाब साहेब बोले, “मोख्तार साहेब, हमने ऐसी जगह कहीं नहीं देखी. हम खुद जिसके खिलाफ़, वही दोष अब हम पर लग रहा है. रिश्वत को रोकने की अख्तियार भर कोशिश में हम अपनी पूरी ताकत लगाते रहे हैं, और यहाँ के आदमी देखिए, यहाँ के लोग ऐसे नाशुक्रे हैं कि…”
सामलाल : क्या बात है ?
नवाब साहेब ने वह गुमनाम चिट्ठी सामलाल को थमा दी और जोर देकर कहा कि ये बात किसी को जाहिर न होने पाए.
सामलाल: नहीं हुज़ूर, क्या आप हमसे ऐसी उम्मीद करे हैं ? और वे उस चिट्ठी को पढ़ने लगे.
नवाब साहेब : हमने इसे तुम्हें पढ़ने के लिए दिया. क्योंकि हम तुम्हें अपना आदमी समझते हैं. हम अब किसे अपना कहें ?
सामलाल (पढ़ते हुए बोले): “यह -सब हुज़ूर के खिलाफ़ बेबुनियाद बदनामी का मामला है.” (थोड़ा और पढ़ने के बाद बोले): “यह तो साफ जाहिर होता है कि जिसने भी नुकसान उठाया है, वही इसके पीछे है.”
नवाब साहेब: “तब?”
सामलाल: “यह साफ है कि हुज़ूर के काम से जिसे कोई नुकसान हुआ है, उसी ने यह चाल चली है.”
नवाब साहेब: “क्या ऑनरेरी मजिस्ट्रेट लोग?”
सामलाल: “हो सकता है. लेकिन उन सबको नसीबन से क्या फ़ायदा या नुकसान?”
नवाब साहेब (कुछ ख़ुश होकर): “शाबाश, मोख्तार साहेब! समझ गया. तजर्बे की भी अपनी एक अहमियत होती है.”
सामलाल (मुस्कुराते हुए): “नहीं हुज़ूर, हमारे में एक ख़ासियत है. असल बात को पकड़ने का हुनर. हमने बहुतों के साथ काम किया है, हसन इमाम और दूसरों के साथ भी. और अक्सर वे हमारे खिलाफ़ भी रहते हैं लेकिन सब मेरा लोहा भी मानते हैं. उनका नाम जरूर बड़ा हो है, लेकिन क़ाबिलीयत में वे हमसे आगे नहीं हैं.”
नवाब साहेब: “ठीक है. लेकिन तुम इतनी जल्दी यह सब कैसे समझ गए?”
सामलाल: “ख़ुदा ने अक्ल दी है, हुज़ूर. और कुछ पुरानी बातें भी याद आ गईं. कल जब मैं छिपकर नसीबन के यहाँ बाबू हलधर सिंह की बात सुन रहा था, तो उससे यकीन हो गया.”
नवाब साहेब (चौंककर): ” क्या?”
सामलाल : क्या कहें ?आपकी शान में बुरा बुरा बोला. कहा कि आप खुद बेईमान हैं, पर लोगों को बेईमान कहते हैं. ऐसी ही बातें.
नवाब साहेब : इसी लिए तुम रात को यहाँ नहीं आये ? हम तो रात में बड़े परेशान रहे. आज इस मरदूद ने दूसरी आफत बरपा कर दी. तो तुम फिर बाहर आए कैसे ?
सामलाल : तरह तरह के उपाय करके वक्त काटा. जब वो चला गया तब मैं निकला. पर रात ज्यादा हो गई थी, नसीबन न आई.
नवाब साहेब : अच्छा, तो इसका क्या उपाय किया जाए ? जवाब तो हम दे देंगे, पर वो जात के बामन हैं. वह सीधा तो हंसुआ जैसा, लेकिन पंचानवे हाथ की अंतड़ी रखने वाला चालाक है. चिट्ठी लिखा है कि तहक़ीकात की जाए तो कागज़ी सबूत भी पेश होंगे. हो सकता है कि हमने ज़मींदारों से चंदा-वंदा के नाम पर जो कुछ चिट्ठियां लिखी, उसने उनको जमा कर रखा हो.”
नवाब साहेब: “कोई बात नहीं, हमारा एक ख़ास आदमी सिंह जी के घर में है. उसके बक्से-वकसे भी खोल देवे है. उसे थोड़ा बहुत लालच देंगे तो वह मुँह खोल देगा.
नवाब साहेब “सिर्फ इतना करने से काम नहीं चलेगा. गधे का मांस रेह (नमक और खार-सोडा भरी मिट्टी ) के बिना नहीं पकता. हमें इस मामले को पूरी तरह पलटकर रखना होगा. जब तक उन पर वार नहीं किया जाएगा, यह मामला खत्म नहीं होगा.”
सामलाल: “बिल्कुल ठीक कहे हो. यह कांटा है, इसे जड़-मूल से उखाड़कर फेंक देना चाहिए.”
नवाब साहेब: “तो गवाहों का इंतजाम होगा? और मोअज्ज़िज (संभ्रांत) लोग?”
सामलाल (कुछ सोचकर): “यही तो मुश्किल है, हुज़ूर. ऐसे लोग आसानी से राज़ी नहीं होते.”
नवाब साहेब: “नहीं, तुम कर सकते हो. तुम हमारे भरोसेमंद आदमी हो.”
सामलाल: ” ना हुज़ूर, मैं तो पूरी कोशिश कर रहा हूँ, लेकिन इस सब में मेरी बड़ी बदनामी हो रही है. और अभी तक कोई ख़ास फ़ायदा नज़र नहीं आता.”
नवाब साहेब : तुम्हें ‘राय बहादुर’ बनाकर यहाँ से जायेंगे. और अगर न हो सका, तो अपने हाथ काटकर फेंक देंगे. बदले में, तुम इसमें पूरी कोशिश करो.”
सामलाल: “जहाँ तक हो सकेगा, मैं जरूर करूंगा, हुज़ूर!”
अध्याय – 7 |
मामला तूल पकड़ता ही गया.
सरकार से मामले की तहक़ीक़ात के लिए दो अफसरों को तैनात किया गया. बराड़ साहेब, जो कमिश्नर थे, ने इस जांच की जिम्मेदारी संभाली. राम किसुन सिंह, जो हलधर सिंह के ममेरे साले थे और जिन पर हलधर बाबू का बड़ा भरोसा था, नवाब साहेब की चाल में फंस गए. नवाब साहेब ने अपनी पहुंच और ताकत का इस्तेमाल कर, राम किसुन को सेक्रेटेरियट में बहाल कराने का लालच देकर अपने पक्ष में कर लिया.
नवाब साहेब ने कागजों में हेरफेर करके हलधर सिंह के खिलाफ़ सबूत तैयार करवाए और सामलाल तथा राम किसुन सिंह को झूठे गवाह के रूप में खड़ा करके हलधर बाबू पर रिश्वत लेने का आरोप साबित कर दिया. इस तरह नवाब साहेब खुद को इस मामले से साफ-सुथरा निकालने में कामयाब हो गए.
इस साजिश में नवाब साहेब का एक और मोख्तार, बुलाकी खां, भी शामिल हो गया. बाबू हलधर सिंह को नौकरी से बर्ख़ास्त कर दिया गया. जब वह बर्ख़ास्त होकर बिहार छोड़कर जा रहे थे, तो उनके दिल में गहरा अफसोस था. उन्होंने राम किसुन को देखकर ताना दिया और सामलाल को बद्दुआ दी कि वह निस्संतान रहे और कष्ट में मरे. नवाब साहेब और बुलाकी खां को भी उन्होंने अपने कड़वे शब्दों में शाप दिया.
हलधर सिंह के चाल-चलन में जरूर खामियां थीं, लेकिन बेगुनाह होकर इतनी भारी सजा मिलने से उनका मन परमेश्वर की ओर मुड़ गया. ऐसा माना गया कि उनकी दी हुई बद्दुआ कुछ वर्षों में सच हो गई. सामलाल और राम किसुन की हालत बदतर हो गई. बुलाकी खां और नवाब साहेब की भी साख पर बट्टा लग गया.
जब माघ महीने में बाबू हलधर सिंह बर्ख़ास्त होकर बिहार से चले गए, तो नवाब साहे बाग बाग हो गए थे. लेकिन धीरे-धीरे सामलाल और बुलाकी खां की साख भी खत्म हो गई. बुलाकी खां, हालांकि, रंडी और शराब जैसी बुराइयों से दूर रहते थे, फिर भी उनके कामकाज पर सवाल उठने लगे. नवाब साहेब उन्हें सामलाल के बराबर मानते थे, लेकिन उनकी प्रतिष्ठा में धीरे-धीरे गिरावट आ गई.
सामलाल अपनी राय बहादुरी के लिए बहुत गिड़गिड़ाते हुए अक्सर बोला करते, “हुज़ूर, अब तक मैंने आपके लिए हर काम किया है. ऐसा कोई काम नहीं है, जिसे आपके लिए करने से मैंने इंकार किया हो, और अब भी नहीं करूंगा. देखिए, शहर के बदमाश अब परचा छपवाकर मेरी ओर इशारा कर रहे हैं.”
नवाब साहेब – “कौन सा परचा?”
सामलाल – “देखिए, हुज़ूर.” (नवाब साहेब को एक छपा हुआ परचा देते हुए)
नवाब साहेब – “वाह रे! क्या है यह? मुझे पढ़ा नहीं जा रहा, यह नागरी में है. जरा तुम ही पढ़कर सुनाओ.”
सामलाल (पढ़ते हुए) : खां बहादुरी जनून का नुस्खा
चुगलखोरी – ४ ५ माशा
सुदेश द्रोहिता – १ २ ५ माशा
बेईमानी – २ ५ माशा
कुल योग ८ २५ माशा
और ख़ुशामद – ८ २५ माशा
सामलाल – “यह सब अंग्रेजी विद्या फरोश के यहाँ से खरीद कर मुफ़्तख़ोरों की स्याह सुर्ख कुईंआ से आता है. इसे कमीनपने की नई चक्की में खूब पीस कर पी जाया जाता है. अगर कुछ दिन तक फ़ायदा नहीं होता तो इसे भंडुअई (भडुआगिरी) के माज़ून के साथ इस्तेमाल करने पर जरूर आराम होता है.”
नवाब साहेब (मुसकुराते हुए) – “बहुत बदमाशी की है. तुम नालिश (शिकायत) दर्ज करवाओ, हम सब देखेंगे.”
सामलाल – “मुश्किल यह है कि इसमें छपवाने वाले, लिखवाने वाले, छापाखाना, इन सबका कोई नाम ही नहीं है और न ही कोई पता चल रहा है. दूसरी बात यह है कि मुक़दमे में और भी बे-‘इज़्ज़ती होगी.”
नवाब साहेब – “हम इसे पुलिस को दे दें, वे सब पता लगा लेंगे?”
सामला – “नहीं, इसकी ज़रुरत नहीं है. लोग हमें ताना मारकर कहते हैं, ‘मुख़्तार साहेब, गजट निकल गया क्या ?’ मैं तो अब हुज़ूर से ही इसका समाधान पता करना चाहूँ. इस बार पहली जनवरी को चार बार गजट पढ़ा, कहीं मेरा नाम या कोई संकेत नहीं मिला.”
नवाब साहेब – “जरा सरबतिया को मेरे लिए समझा-बुझा कर भेट करा दो. अब क़सम खाकर कहता हूँ, आगे से यह सब जरूर हो जाएगा.”
सामलाल – “अरे, वही बात! उस रात जब हुज़ूर उसके साथ सोए हुए थे, और वह भी नशे में धुत थी तो सुबह होते ही उन्होंने मुझ पर तेरह तरह की बातें थोप दीं. पंद्रह दिन तक आना-जाना बंद कर दिया, और फिर फर्श पर नाक रगड़ते रगड़ते मेरी हालत मुश्किल हो गई.”
नवाब साहेब – “तो फिर वही तरकीब. इस बार मैं खुद उसके पास तब जाऊंगा जब वह सोती हो. पिछली बार गलती हो गई, मैं सुबह तक सोता रह गया.”
सामलाल – “हुज़ूर, मैं आपको नाराज़ नहीं कर सकता, लेकिन इस बार मुझे पक्की ख़बर दें कि राय बहादुरी की उपाधि मुझे जल्दी और जरूर मिलेगी. वैसे भी, नसीबन तो हुज़ूर के पास आती जाती रहती ही है.
अध्याय – 8 |
आज सामलाल बड़ा ख़ुश था.
आज अंग्रेजी के चौथे महीने का पहला दिन था. सुबह-सुबह तार मिला कि सामलाल राय बहादुर बन गए. वह नवाब साहेब के पास गए. सामलाल के बोलने से पहले ही नवाब साहेब बोले:
नवाब साहेब – “हो! देखो, मेरा तो तबादला हो गया, और मैं यही सोचता था कि तुम मेरे बारे में सोचते रहोगे नवाब साहेब झूठमूठ ही लासा देते रहे. खैर, ख़ुदा ने मेरे मुँह की लाज रख ली, नहीं तो शहरवाले लोग मेरे पीछे तुम्हें नोंच-खोंच डालते.”
सामलाल – (दोनों हाथों से सलाम करते हुए, ख़ुशी से गदगद होकर) “जी हाँ, हुज़ूर, यह सब आपकी मेहरबानी है.” (तार को देखकर)
नवाब साहेब – “हमारे पास भी एक चिट्ठी आई है.” (उन्होंने सचिवालय की चिट्ठी निकालकर सामलाल को दी.)
सामलाल – (चिट्ठी को दो-तीन मर्तबे पढ़कर) “कितना मुख़्तसर (संक्षिप्त और कितनी खूबसूरती से यह सब लिखा गया है!”
नवाब साहेब – “हाँ देखो, हम लोग इसे एक-दो पन्नों में लिखते.
सामलाल: “हमारे बारे में तो उन्होंने राय बहादुर बाबू सामलाल ऊपर लिख दिया है.”
इसी बीच अरदली आकर सूचना देता है कि राय बहादुर सामलाल को खोजते हुए कुछ मुख़्तार और वकील काफी देर से आए हैं.
नवाब साहेब और सामलाल दोनों उठकर बाहर गए और सब से मिले. सभी ने कहा, “आज हम सबके लिए शानदार तवज्जोह होनी चाहिए. हुज़ूर भी जा रहे हैं, तो राय बहादुरी के साथ उनका जश्न मनाना चाहिए.”
सामलाल – “हाँ, हाँ, जरूर. हम हरगिज आप सब से अलग नहीं हैं.”
नवाब साहेब – “जरूर, राय बहादुर. फिर अब हम कहाँ रहेंगे और तुम कहाँ रहोगे.”
सलाह हुई कि पूरे शहर में तवज्जोह (जश्न) आयोजित किया जाए. सामलाल बाबू ने सामसुंदर प्रसाद मोख्तार, जो इन सब कामों में हमेशा सबसे आगे रहते थे, को दुकानदारों और पानवालों के नाम चिट्ठियां भेजने को कहा. उन्होंने लिखा कि जितने भी बीज और तेल की ज़रुरत हो, वे पूरे शहर के लिए रोशनी का इंतजाम करें. सामसुंदर प्रसाद ने हर गली और चौराहे पर रौशनी करने के लिए तेल और ढिबरी भिजवाने का प्रबंध कर दिया.
मोख्तार और वकीलों का एक नाटक क्लब था, जिसने ख़ुशी के इस मौके पर एक हास्य नाटक तैयार किया. सामलाल इतनी ख़ुशी में थे कि उन्हें पता ही नहीं चल रहा था कि कहाँ क्या व्यवस्था हो रही है. उनका उत्साह और उमंग देखते ही बन रहा था.
आखिरकार, सबने खाना-पीना किया. पूरे शहर में रोशनी की गई. रात 8 बजे नाटक शुरू हुआ.
नाटक के शुरू होने से पहले सूत्रधार मंच पर आया और बोला:
“आज का दिन बड़ी ख़ुशी का है. हम यहाँ ‘फूल बहादुर’ नाटक खेलेंगे, ख़ासकर आज के दिन के लिए इसे तैयार किया गया है.”
नवाब साहेब और सामलाल दोनों इस घोषणा से बड़े प्रसन्न हुए.
नवाब साहेब – “नाम तो बड़ा मज़ाक़िया लगता है.”
सामलाल – “बहुत अच्छा खेल (नाटक -प्रहसन) सब खेलते हैं ये लोग.
पर्दा उठते ही किउल स्टेशन का दृश्य दिखाई दिया.
नवाब साहेब – “वाह, बड़ा अच्छा दृश्य है, कितने सीन-सीनरी इनके पास हैं.”
सामलाल – “जी हाँ, हुज़ूर. हम भी इसके लिए 200 रुपये दिए हैं.
नाटक खेल शुरू हो गया था, और लगता था कि, नाटक की किताब या पटकथा बनाई गई थी. नाटक के कुछ दृश्यों के बाद, नवाब साहेब को यह शक होने लगा कि सामलाल को इस बारे में कुछ जानकारी है. नवाब साहेब की जगह एक इंस्पेक्टर का पात्र था और सामलाल की जगह वृंदावन वकील का. सरबतिया के स्थान पर वृंदावन की जोरू का नाम रखा गया.
नवाब साहेब ने तब सामलाल से पूछा – “क्या यह खेल किसी किताब का है?” जरा पता तो करो.
सामलाल ने किताब और पटकथा की मांग की और नवाब साहेब उसे पढ़ने लगे. पैखाना में वृंदावन के मार खाने की बात पढ़कर उन्हें बड़ी हँसी आई. उन्होंने इसे एक मज़ाक़ समझा. जल्दी से पढते पढ़ते उन्होंने यह भी जान लिया कि नाटक के अंत में वृंदावन का दोस्त मोहर डाकघर एक चिट्ठी लेकर आया. उसने कहा कि राय बहादुर की ख़बर लाने वाले लिफाफे और चिट्ठी को गौर से पढ़ा जाये. जब वृंदावन ने उसे गौर से देखा तो उस पर ‘रांची फूल्स पैरेडाइज’ की मोहर लगी थी. गौर से देखने पर पता चला कि चिट्ठी पर पहले से कोई दूसरी मोहर लगी हुई थी, और रांची वाले मोहरे पर एक और मोहर चढ़ा था. टिकट उखाड़ कर देखने पर नीचे अंग्रेजी में लिखा था “अप्रैल फूल”.
नवाब साहेब ने पढ़ते हुए सामलाल से पूछा – “यह मामला गड़बड़ मालूम होता है, चिट्ठी तो तुम्हारे पास है ना?
सामलाल – “जी हाँ. मेरे पास है.”
सामलाल ने चिट्ठी को फिर से पढ़ना शुरू किया. उन्होंने एस-डी-ओ के यहाँ से लिफाफा लिया था, जिसे अरदली ने फाड़कर बिगाड़ दिया था और उसे खोजकर रख लिया था.
नवाब साहेब ने लिफाफे की मोहर को गौर से देखा. नवाब साहेब का सारा ध्यान लिफाफे की मोहर (मुहर) पर था., “ठीक, शिमला ‘फूल्स पैरेडाइज’ की मोहर थी. ‘शाबाश’ कहकर हंसते हुए वे उठ खड़े हुए और चल पड़े.
सामलाल सुन्न हो गए, और फिर उन्होंने टिकट उखाड़कर देखा. साफ अंग्रेजी टाइप से नीचे में छपा था: ‘फूल बहादुर’
II समाप्त II
![]() हिंदी और अंग्रेजी में डॉक्टरेट. अंग्रेजी साहित्य के प्रोफेसर के रूप में देश विदेश में चार दशकों तक कार्य. लगभग 50 पुस्तकें प्रकाशित. एम्स्टर्डम (नीदरलैंड) में रह रहे हैं. prof.gopalsharma@gmail.com |
अरुण भाई
वर्षों पहले इसे मगही में पढ़ा था, एक बार पुनः हिन्दी में भी पढ़ा। गोपाल जी ने बहुत अच्छा अनुवाद किया है।
इस पेशकश के लिए आपका बहुत-बहुत आभार।
मैं झारखण्ड के पलामू जिले का हूँ. हमारी तरफ मगही ही बोली जाती है. पर हमारी मगही उस मगही से कदाचित भिन्न है जो बिहार शरीफ, नवादा क्षेत्र में बोली जाती है. कोस कोस पर पानी बदले सवा कोस पर बानी इत्यादि. मगही शब्द निश्चित ही मागधी से बना होगा, और मागधी हुई मगध में बोली जाने वाली प्राकृत. मगध क्षेत्र आज छः जिलों में फैला हुआ है – पटना, नालंदा, गया, औरंगाबाद, जहानाबाद और नवादा. हमारा पलामू जिला इस मगध में नहीं है किन्तु बोली वही है जो औरंगाबाद की है.
आपको मगही के सबसे पुराने उपलब्ध उपन्यास का हिंदी अनुवाद यहां मिलेगा.
लेखक नवादा के हैं, उपन्यास का देश बिहार शरीफ है. आमुख में लेखक ने बताया है उनके पहले उपन्यास “सुनीता” (प्रकाशन 1928) को लेकर भूमिहार समाज उनसे कुछ रुष्ट हुआ था. लेखक कायस्थ हैं और इस उपन्यास में उन्होंने एक कायस्थ मुख्तार की खिल्ली उड़ाई है. सबडिवीज़नल शहर में एसडीओ और डिप्टी साहबों की चलती थी. एक शिकायत / तकलीफ थी कि कमाई सबसे अधिक पुलिस वालों की थी. हाकिम मुख्तारों के कस्बिनों से रिश्ते आम होते थे.
समस्या उठ जाती थी जब किसी गणिका को कोई अपनी रक्षिता बना ले. इस उपन्यास के प्रतिनायक एक मुख्तार हैं, जो किसी सजातीय मुख्तार के घर कभी रसोइया होते थे और तीन बार अनुत्तीर्ण होने के बाद चौथी बार मुख्तारी पास कर पाए थे. ग्रन्थ-ज्ञान चाहे कितना भी कम रहे, व्यावहारिकता उनमे कूट कूट कर भरी थी. खूब पैसे कमाए, साहबों के बीच नाम कमाया, “किले जैसा घर” बनवाया और अब बस एक ख्वाहिश रह गयी – किसी तरह राय बहादुर बन जाएं.
अवश्य पढ़िए, बहुत छोटा उपन्यास है. देश-काल का बहुत सच्चा वर्णन.
बहुत ही सार्थक प्रयास होल हे।
“आधुनिक मगही साहित्य” विषय पर शोध औ “मगही साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास” लिखे खनि जयनाथपति के गाँव शादीपुर तक गेलूं हल। ऊ गाँव में कभी कायस्थ के समृद्ध टोला हलै। वैसे बाद में ऊ लोग नवादा औ दोसर जगह में समा गेलन।
मगही साहित्य में जयनाथपति अनमोल धरोहर हथ।
“फूलबहादुर” के अँग्रेजी अनुवाद जान के खुशी होल।
अनुवादक के आभार सहित शुभकामना।
नमस्कार।