प्रभात मिलिंद की कविताएँ |
पतझड़ के दिनों में माँ
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(डिमेंशिया से ग्रस्त माँ के लिए)
एक फक्कड़ टीचर के साथ
बस दो जोड़ी कपड़ों में विदा होकर आई थी
तीसरी साड़ी कोई डेढ़ बरस बाद लाकर दिया था
मामा ने, कानपुर से मंझली मौसी के बियाह में
तब तलक पहले वाली दोनों की चमक
एकदम धुंधली पड़ चुकी थी
आधे जेवर उसके, चाँदी की कमरधनी
और फूल-कांसे के बरतन
चचेरी बहिना के बियाह के दहेज में चले गए सब के सब
बाबूजी की हथेली पर सिर्फ़ तेरह सौ रुपये धर कर
डबडबायी आँखों के साथ हाथ जोड़ लिए थे बड़े बाबू ने
माँ एक टीस से भरी
परदे की ओट से देखती रही बेबस
और बाबूजी अपना भातृ ऋण चुकाते रहे
बेटी को ब्याहने के छह महीने बाद ही बड़े बाबू ने
सात कमरों का सफ़ेद फ़र्श वाला दुतल्ला मकान ख़रीदा
कोई बाईस हज़ार में, बीच बाज़ार पर
फिर परिवार से अलग हो गए महीने भर के भीतर
ठगे से बाबूजी अकेले रह गए
गिरवी पड़े पुश्तैनी खपरैल घर में
साथ रह गया बाबा का छोड़ा क़र्ज़
जिसे अब अकेले तोड़ना था उनको
माँ की हँसी और सपनों को
आने वाले बहुत से सालों तक रौंद कर
२.
जिसमें हम भाई बहन बचपन में
कभी एक साथ खाया करते थे
पीतल की चौड़े कोर वाली घर की वह इकलौती थाली
अब भी मेरी स्मृतियों में है
और, घर में आया प्लास्टिक का वह डिनर सेट भी
जिसे एक-एक पैसे जोड़ कर
करोलबाग के फुटपाथ से मंगाया था माँ ने
उस रोज़ घर में खीर बनी थी
और हम सब बेहद ख़ुश थे
लेकिन उस सेट में खाने का मौका हमें
किसी मेहमान के आने पर ही मिलता था
फिर जतन से सफाई कर के माँ
रख देती थी उसे अपने टीन के बक्से में
उस छोटे से बक्से में रखी होती थीं
घर की और भी कई ज़रूरी
और क़ीमती समझी जाने वाली चीज़ें
फिर भी उसमें बची रहती थी
अच्छी ख़ासी ख़ाली जगह
उस ख़ाली जगह को धीरे धीरे भरना था माँ को
अपने समस्त सुखों की क़ीमत पर
३.
हमारी ज़रूरतें हमारे क़द और वक़्त के
हिसाब से बढ़ती जाती थीं मुसलसल
घर के फर्नीचर और दूसरे असबाब
हमारे जूते-कपड़े और खेलने के सामान
बस एक माँ की जरूरतें थीं जो किसी कोने में
पड़ी बोन्साई की तरह थीं, बेआवाज़
जिन चीज़ों और ज़रियों से हमें
दुनियावी ख़ुशियाँ हासिल हैं
माँ ने उन तमाम चीज़ों के बग़ैर जीने का
हुनर सीख लिया था
या शायद हमारी ख़ुशियों के
बरअक्स अपने सारे सुख साध लिए थे उसने
हमें जब पाँच रुपयों की दरकार होती
तो हम माँ को अक्सर दस बतलाते
अपने अँचरे की गंधाई गाँठ से
बमुश्किल वह दो रुपये का एक नोट निकालती
कहती कि भागो, पता है कुछ,
महीना ख़त्म होने में बारह दिन बचे हैं अभी
उस वक़्त माँ की यह कृपणता
हमें बहुत खिन्न कर देती थी
लेकिन हम रोज़ सुबह घी-भात और रात को
दूध-रोटी खा कर सब कुछ भूल जाते थे
४.
उस रोज़ बाबूजी कैसे हक्के बक्के रह गए थे
जब बहन की शादी एक दिन तय हो गई अचानक
और माँ ने एक छोटी सी लाल गठरी
खोल कर पसार दी थी उनके सामने
एकदम नए गढ़े सोने के सीकड़,
एक जोड़ा कर्णफूल और कंगन, दो-दो अंगूठियाँ …
बाबूजी किसी के सामने हाथ फैलाने से बच गए
वर्ना अभी-अभी तो वे क़र्ज़ से उबरे थे
फिर मिसिर जी की बगल वाली परती का
केवाला भी हो गया एक दिन
जिस पर तिनका-तिनका जोड़ कर माँ ने
बसाया था हम सब का संसार
बाबूजी की मामूली सी तनख्वाह से पाई-पाई बचा कर
माँ ही कर सकती थी ऐसा जादू
जबकि उसके हाथ में
घरखर्च से ज़्यादा पैसे
कभी दिए भी नहीं थे बाबूजी ने
बाबूजी को तो यह भी इल्म नहीं था
कि सालों-साल नई चादरें और खिड़की-दरवाज़े के परदे तक
घर की रद्दियाँ और पुराने अख़बार बेचकर
ख़रीदती रही थी माँ
कभी-कभी हमें भी बमुश्किल यक़ीन होता
कि माँ के पीहर में आठ गायें थीं
और फिटन पर बैठ स्कूल जाया करती थी अपने ज़माने में वह …
आह ! कच्चे तेल में पकी हुई सूखी लाल मिर्च की
वह तीखी-सोंधी झांस
जिसके चोखे और चाय के साथ
माँ बरसों-बरस बासी रोटियों का नाश्ता करती रही
और जमादारिन और महरी से लेकर
गाय, कुत्ते और कव्वे तक का उसका कुनबा
जो उन बासी रोटियों में बरसों-बरस उसका साझीदार रहा
५.
अलमारी में भरी पड़ी हैं तांत, जरी और रेशम की
सुंदर साड़ियाँ और शालें
जिन्हें माँ ने ख़ास-ख़ास मौक़ों के लिए
सालों से सहेज रखे थे
लेकिन बाबूजी की हठात मृत्यु ने
एक दिन उसके इस हुलस को भी तोड़ दिया
और, कपास का फाहा तक भी
नश्तर की तरह चुभता हो जिसमें
बेतरह जर्जर हो चुकी वह देह इनका बोझ
उठा पाने के क़ाबिल भी कहाँ रही अब !
कोई तीसेक साल पहले मंगल चाचा ने अपने कैमरे से
हम सबकी जो ब्लैक एंड व्हाईट फ़ोटो खींची थी
उसमें बाबूजी की बग़ल में लजाती खड़ी माँ
कितनी भव्य और सुंदर दिखती है !
उस वक़्त हमने कहाँ सोचा था
कि कभी वह रोज़-ब-रोज़ ज़रा-ज़रा सी
सूखती एक नदी बन जाएगी
और जिसका प्रवाह एक दिन हमारी उदास स्मृतियों का हिस्सा बन जाएगा
मैं अक्सर सोचता हूँ कि
क्या कुछ चलता होगा उसके ज़ेहन में इन दिनों
अपनी शेष बची उम्र की कुछ आख़िरी सीढ़ियाँ
उतरते हुए क्या सोचती होगी माँ !
६.
अब तो आँख-कान और देह-स्वांग के साथ-साथ
स्मृतियाँ भी दग़ा दे रही हैं
अपनी जिजीविषा और ज़िद की बुनियाद पर
बसाई थी उसने जो गृहस्थी
उसके मोह से भी मुक्त हो चुकी थी वह कमोबेश
तबादले की ख़बर के बाद जैसे कोई
बांधता-समेटता है सामान अपना
उसी तरह गुज़िश्ता सालों में समेट ली हैं
उसने अपनी स्मृतियाँ एक-एक कर
मुझे अब भी उसके मीठे गले की धुंधली सी याद है
माँ कितना सुंदर गाती थी
लेकिन धनतेरस के रोज़ जब विदा हुए मुन्नू भैया दुनिया से
उसके बाद कभी गाते हुए नहीं सुना उसको
और न वो पुरानी डायरी देखी
जिसमें लिख रखे थे उसने अपनी पसंद के गाने
माँ के मौन रुदन में आज भी मैं
उन गीतों की तलाश करता हूँ
लेकिन बीमार और अशक्त माँ के स्पर्श में भी
एक अद्भुत आश्वस्ति होती है
बाहर की निष्ठुर दुनिया से लड़-हार कर
रोज़ जब हम घर लौटते हैं
तब वही हमारे लिए कड़ी धूप की छाया
और सूखे कंठ का पानी होती है …
आप मानें या न मानें, लेकिन माँ के जीवन के साथ-साथ
आज भी मेरे मन में जीवित हैं
न जाने कितने स्वाद और गन्ध की स्मृतियाँ
अपने देवता-पित्तरों को पूजते हुए उसने
हमेशा अपने पति और बच्चों की
उम्रदराज़ी और ख़ुशियाँ ही मांगी …
लेकिन अपने इन आख़िरी दिनों में
माँ थोड़ा ख़ुदगर्ज़ हो गई लगता है
अब याचना में जब कभी उठते हैं उसके दोनों हाथ
अस्फुट से स्वर में बस यही बुदबुदाती है वह
राम मेरे ! मुक्त करो
इस पापिन को अब काया के इस पिंजर से
माँ अब ज़िन्दगी और मौत के बीच बस
एक ठिठका हुआ लम्हा है.
दो दोस्तों की कथा
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(प्रेमचन्द की एक कहानी और एक अज़ीज़ दोस्त की याद)
यह इत्तेफ़ाक़ की बात थी
कि हमारा नाम हीरा और मोती नहीं था
ज़ाहिरन हम किसी किस्से का
क़िरदार होने के क़ाबिल नहीं थे
वैसे भी हम कोई पैदाइशी बैल तो थे नहीं
अपनी बुनियादी और मुख़्तलिफ़ ज़रूरतों से
बंधे दो बेहद मामूली आदमी थे हम
लेकिन किसी ज़माने में हमारी दोस्ती
हीरा और मोती से कमतर भी नहीं थी
और कमोबेश उतनी ही गहरी और पक्की
कि रश्क कर सकें हमसे
जीवन के किसी अक्षांश पर जब हम मिले थे
तब हम दरअसल दो बैल ही थे
मेहनत करने की नियति लेकर जन्मे
उनकी ही तरह निष्कलुष और संशयमुक्त
हालाँकि हम किसी कोल्हू या गाड़ी
या फिर हल में जुतने के लिए अभिभप्त नहीं थे
हमारी गरज़ पेट की भूख और रात की नींद से
ज़्यादा
कुछ ख़ास थी भी नहीं
हम तो आने ही जैसे अनगिनत दूसरे
कामगारों की तरह बाज़ार के बैल थे
हम जीवन के दो विपरीत ध्रुवों से आए
दो अलग-अलग मिट्टी मिट्टी के बने शख़्स थे
मुझे सर्दियों की शाम वोदका पीते हुए
राग यमन सुनना पसंद था
और बारिश के दिनों में भींगते हुए
फ़ैज़ या साहिर को गुनगुनाना
और उसे दुनिया की सख़्त खुरदरी और तपी हुई
ज़मीन पर नंगे पाँव चलने की आदत थी
इतवार की दोपहर जब मैं
अपनी किसी पसंदीदा किताब के पन्ने पलटता रहता
उस वक़्त वह अस्पताल में अपने
किसी बीमार पड़ोसी के सिरहाने बैठा होता
वह किसी बच्चे की तरह साफ़गो था
तबीयत से ख़ालिस फ़कीर
ज़हीन लोगों की संजीदा और बनावटी
दुनिया में जैसे सांस घुटती थी उसकी
हैरत की बात थी कि हम दो बेमेल आदमी थे
अपने-अपने संतापों के सिवा
हमारे पास कुछ भी नहीं था एक जैसा
२.
आप बेशक इस बात पर ताज़्जुब कर सकते हैं
लेकिन दोस्ती हमारे लिए अकूत दौलत की तरह थी
जिसके नशे में ख़र्च रहे थे
हम अपनी ज़िन्दगी के साल दर साल
अपनी रतजगों में जब हम
अपने नाकाम प्रेम के क़िस्से साझा करते होते
तब यह भूल जाते थे कि अपनी-अपनी
ख़ानादारियों में डूबे दो दुनियादार लोग थे हम
जिनकी आँखों के नीचे झुर्रियाँ
और कनपटियों में सुफ़ेदी छाने लगी थी अब
एक-दूसरे के बारे में हम
एक-दूसरे से ज़्यादा जानते थे,
एक अरसे से हमें इसी बात का भरम रहा
लेकिन यह फ़क़त हमारी ख़ुशफ़हमी थी
हमारी दोस्ती का रंग जब अपने शबाब पर था
ठीक उन्हीं दिनों गिर पड़े थे
वे मुखौटे अचानक एक रोज़,
जिनके पीछे छुपा रखी थीं हमने
अपनी-अपनी शातिर शक्ल को
यह हादसा दरअसल तब हुआ
जब बरसों-बरस बाज़ार में घूमते-घूमते
एक रोज़ दाख़िल हो गया बाज़ार हमारे भीतर
और हमें इसका एहसास तक नहीं हो पाया
कब हम दोस्त से साझीदार हुए पता नहीं
फिर हम मुक़ाबिल खड़े हो गए एक-दूसरे के ही
इस तरह धीरे-धीरे हमारी दोस्ती के पाँव
हैसियत की रुखड़ी-गर्म रेत पर लड़खड़ाने लगे
बाज़ार के कोलाहल ने पहले तो आखेट किया
हमारे रिश्तों के लम्स की गरमाहट का
और फिर धकेल दिया हमारी यारबाशी के
दिनों को ज़िन्दगी के सीमांत के पार
एक रोज़ फ़कीर से दिखने वाले
मेरे यार ने हौले से छुआ मेरी हथेली को
और हम मुड़ गए जीवन की
दो विपरीत धाराओं की ओर हमेशा के लिए
‘फ़ालतू की यारी ख़ानाख़राबी है प्यारे’
गोया जाता-जाता कहता गया वह
हमारी आत्मीयता के इस क्रूर-त्रासद अंत
और बिखरी-विच्छिन्न स्मृतियों के बीच
इसी शहर की रगों में रुधिर की तरह
आज भी भटकते-फिरते हैं हम सुबह से रात तक
उन दो अजनबियों की तरह
जो कभी मिले ही नहीं थे
ज़िन्दगी की गर्म-रुखड़ी ज़मीन पर चलने वाला
किसी ज़माने का मेरा वह दोस्त
अब गाहे-बगाहे ही उतरता है
अपनी उस शानदार चमकती हुई गाड़ी से
जिसके कूलबॉक्स में भरी होती हैं
सोडा और स्कॉच की महंगी बोतलें
उसकी शामें सुनी हैं, इनदिनों शहर के
रसूखदार और नफ़ीस लोगों के साथ गुज़रती हैं
क्या अब भी वह किसी बीमार परिचित
को देखने जाता होगा अस्पताल !
मैंने भी तो कब का छोड़ दिया राग यमन सुनना
बाज़ार का शोर ही अब मुझे
किताब और संगीत सा आनन्द देता है
बेसुध हो जाता हूँ मैं
सिक्कों की खनक सुन कर
हम बेशक आज अपनी-अपनी
दुनिया में राज़ी और मसरूफ़ हैं
लेकिन क्या वह अब भी
मुझे कभी याद करता होगा,
ठीक उसी तरह जिस तरह से मैं करता हूँ उसको !
क्या उसके ज़ेहन में भी ज़िंदा होगी
उन साथ गुज़ारे दिनों की ख़लिश !!
कितने नाराज़ और मायूस दिखते हैं
फ्लाईओवर के वे सूने फुटपाथ
रेलवे कालोनी का वह घना नीम, हाईवे का ढाबा
और शहर के वे तमाम चोर रास्ते
जो हमारे पुराने दिनों की
सरगोशियों के बेज़ुबान गवाह रहे थे
आज वे सब के सब हम पर
तानाकसी करते मालूम पड़ते हैं जैसे कहते हों
कि इससे बेहतर तो हम दो बैल ही होते
हमारी आदमियत ने ही मरहूम कर दिया
और हम एक कहानी बनते-बनते रह गए.
प्रभात मिलिंद अनुवाद की 8 पुस्तकें प्रकाशित कहानी, कविताएँ, समीक्षा और अनुवाद आदि सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित मेल: prabhatmilind777@gmail.com |
प्रभात मिलिंद की माँ पर कविताएँ मुझे अपनी माँ की जीवन यात्रा की तरह लगती है । माँ की दुनिया सूनी सूनी थी । देश के विभाजन के समय मेरे मामा जी का क़त्ल कर दिया गया था । मुलतान ज़िले के मख़्दूम पुर गाँव ने सबसे ज़्यादा क़त्लेआम का मंजर देखा था । दो मौसियाँ भी मार डाली गयीं । नानी-नाना के पास माँ को दहेज देने के लिये कुछ भी नहीं था । ग़रीब परिवार को मेरे पिता जी का ग़रीब परिवार ही मिला । पिता की ने चौथी जमात में दर्ज़ी का काम सीखना शुरू कर दिया था । कि घर का ख़र्चा चल सके । घर में एक रत्ती सोना नहीं था । माँ कहाँ से रक़म इकट्ठा करती । विभाजन के बाद हाँसी में आ गये । चाचा जी और लाल जी (पिता जी) के हिस्से छोटा सा घर आया । फिर दोनों भाइयों ने आधा-आधा बाँट लिया । कालांतर में हम दोनों भाइयों ने । हमारे हिस्से पचास पचास स्क्वेयर गज़ का मकान आया । हमारी ज़िंदगी की अगली कहानी दुखों से भरी हुई है ।
जिस समय प्रभात मिलिंद का कविता संग्रह प्रकाशित हो जाये तो मुझे सूचना देना ।
बहुत अच्छी कविताएँ। खासकर माँ की कविता। यह हम सब की कविता है। माँ की स्मृतियों को रुई के फाये से स्पर्श करती। प्रस्तुत करने का आभार।
ये कविताएँ कई कहानियों की दबी हुई दास्तान भी हैं।
माँ शब्द में कितनी शक्ति है ।
बाबूजी बार बार क्यों छले जाते हैं और दोस्त हर बार गड्ढे भरने अविलम्ब आ जाते हैं ।
मैं कविता पढ़ता हूँ या उनकी स्मृतियों में तीरता हूँ पता नहीं चल रहा। बहुत बहुत बधाई Prabhat भाई
ये केवल कविताएँ नहीं, माँ नाम की एक स्त्री के समूचे जीवन का आत्मीय आख्यान भी हैं। ऐसी स्त्रियाँ हम सबके दिलों में ज़िंदा हैं उन्हें कविताओं में भी बार – बार गढ़ा जाना चाहिए। कविताओं के बेहतरीन पाठक व आलोचक प्रभात जी की ये रचनाएँ विस्मित भी करती हैं और आश्वस्त भी कि ऐसी कविताएँ भी सुंदर होती रहेंगी जिनमें कवि का जीवन बहुत अकृत्रिम भाव से सहेज दिया गया है। अंतिम दो कविताएँ बिल्कुल भिन्न आस्वाद व सामर्थ्य में लिखी गईं हैं। वे भी सुंदर हैं।
आज के दिन का नायाब तोहफा हैं प्रभात मिलिंद की कविताएं। कितना सशक्त कथ्य कितने सादे अंदाज और सहज सरल भाषा में बखान कर दिया।यह सादगी ही इन कविताओं की ताकत है। इनमें जो स्मृतियां तैर रही हैं वे कालातीत हैं। बधाई।
बहुत ही सुंदर कविताएं। माँ पर लिखी गई कविताएँ जैसे मेरे माँ की कविताएँ हैं। वह माँ जो गर्दिश के दिनों में हम भाई बहनो को भरपेट टटका (ताज़ा) खाना खिलाकर पढ़ने के लिए बैठा देती या सुला देती और वह खुद रसोई घर में बैठ चुपके से बासी रोटी या कुछ मुठ्ठी भात नमक मिर्च में सानकर कर खाती। बहुत ही मार्मिक कविताएं प्रभात सर को शुभकामनाएँ
बहुत सुन्दर मार्मिक कविता। माँ पर लिखी कविता एक आख्यान की तरह है। इसे पढ़ना पीड़ा की एक नदी से गुजरना है। इसे लिखना कितना कठिन रहा होगा इसका अनुमान कर सकता हूँ। हार्दिक बधाई
प्रभात मिलिंद की कविताएँ आज की जिंदगी के उपर पड़नेवाले आर्थिक-सामाजिक दबावों को रिश्तों के संदर्भ में बारीकी से उघाड़ती हैं।धीरे-धीरे सबकुछ बाजार का हिस्सा बनता जा रहा है-यह एक कड़वी सच्चाई है। प्रभात जी एवं समालोचन को बधाई !
तकलीफों का दस्तावेज़ हैं ये कविताएं।बार बार याद आयेंगी
सघन संवेदना और आत्मीयता से सराबोर कविताएं ।कवि का सूक्ष्म अवलोकन और गहन अंतर्दृष्टि हमेशा चकित करती है।
इन्हें भुलाना मुश्किल है ।
हमारे समय का एक ऐसा कवि जिसे इत्मिनान से रुक-रुक कर पढ़ा जाना चाहिए। वैसे भी कविता की दुनिया में जल्दबाजी की गुंजाईश नहीं होती। प्रभात मिलिंद के व्यक्तित्व में संयम नैसर्गिक रूप से मौजूद है। इसी से उन्हें इसे बरतने की सायास चेष्टा नहीं करनी पड़ती और इसी कारण उनकी कविताएँ बहुत सधी, कॉम्पैक्ट और भावप्रवण होती हैं। उनकी कविताओं से गुजरते हुए महसूस होता है कि इंटेंस भावों के लिए भी उन्होंने एक-एक शब्द को चुनने और बरतने में किस संयम से काम लिया है। यह मेरे जैसे नए लोगों के लिए एक काव्य-सबक की तरह है। बहुत बार शब्द,क्राफ्ट आदि के प्रति अत्यधिक सजग होने से कविता का भावलोक स्वर्गवासी हो जाता है, स्वर्णमुखी कविताओं का मोह जो न करवाए,पर…पर…सुखद है कि प्रभात मिलिंद के साथ ऐसा बिल्कुल नहीं है। उनकी कविताएँ इसी ज़मीन की हैं और हमारी अपनी दुनिया को ठोक-बजा कर, ठीक से देखने वाली कविताएँ हैं।
माँ पर लिखी कविता सन्न कर देती है। बहुत देर तक कुछ सोचना मुश्किल हो जाता है…
बेहद मर्मस्पर्शी कविताएँ हैं प्रभात जी। मां सीरीज़ की कविताएँ आप ही से सुनी हैं। ये लगभग हम सबकी कविता है ।
… आप अच्छे कवि हैं , मैं आपके भीतर के कवि को इसके गूढ़ और मार्मिक स्वर से पहचानती हूँ।
प्रभात मिलिंद Prabhat Milind सम्बन्धों के स्पर्श को महसूस कराने वाले कवि हैं । दुनिया इन्हीं मुलायम छुवन से आबाद होती है । और इन्हें ही महफूज़ रखने की कवायद रचनाधर्मिता का प्रथम उद्देश्य होता है । इन दोनों कविताओं में रिश्तों के सहारे दुनियादारी को समझने व समझने की मर्मस्पर्शी कोशिश है ।
मेरा मानना है कि माँ पर दुनिया से सारे कवियों ने अपनी संवेदनशील लेखनी चलायी है । उन्हें करुणा व त्याग की प्रतिमूर्ति दर्शाया गया है। किंतु घर व रिश्तों को कैसे निबाहा व सहेजा जाता है , इसे कवि ने अपनी बारीक व पैनी दृष्टि से कविता में रखा है । कैसे तिनके- तिनके को जोड़कर माँ घर को संवारती है, यह काफी मर्मस्पर्शी है। दूसरी कविता में साथी और समय का सामंजस्य है । वक्त के मिज़ाज़ को देखकर पल क्षण बदलते रिश्तों की मुकम्मल कहानी इस कविता में है ।
प्रभात मिलिंद की कविताओं का काव्य शिल्प व लेखन शैली काफी उम्दा है और भाषा पानी की तरह पाठकों को भावनाओं में बहा ले जाती है । बिम्ब व प्रतीक को नमक की तरह इस्तेमाल किया गया है , बौद्धिकता का बोझ से इन्हें परे रखा गया है । ये कविताएँ उनके काव्य कौशल का सुंदर नमूना हैं । उन्हें मेरी बधाई । #समालोचन के ज़रिये इनका काव्य-सुख हम पाठकों को मुहैया कराने के लिए आदरणीय Arun Dev सर का आभार ! 💐
कल ही राही डूमरचीर जी की कविताएँ पढ़कर आगे बढ़ गया था। ये कविताएँ बेशक अच्छी और आकर्षक थीं, पर इनके साथ देर तक ठहरने जैसा महसूस नहीं हुआ था। अब प्रभात भाय की कविताओं से मुखातिब था। प्रभात भाय का कुछ भी लिखा ठहरकर, चैतन्य होकर पढ़ता हूँ क्योंकि वे कम लिखते हैं लेकिन बहुत महीन और बहुत मार्मिक लिखते हैं। कल उनकी पहली कविता ‘पतझड़ के दिनों में माँ’ पढ़ा और चाहकर भी फिर अगली कविता तक जाने की जेहन में ताकत नहीं बची… कि पहली कविता ने ही इतनी शिद्दत से मेरे मन-प्राण को अपनी गिरफ्त में ले लिया… किसी अच्छी कविता की इससे बड़ी ताकत और क्या हो सकती है कि वह पाठक को इस कदर बाँध ले कि उसके पाँव देर तक थम जाएँ… यह कविता भाव के स्तर पर, प्रभाव के स्तर पर, या कि शिल्प के स्तर पर इतनी बारीक, इतनी गझिन, इतनी गहरी और इतनी पारदर्शी है कि उसके असर से तत्काल बाहर निकल पाना लगभग असम्भव-सा है! कहने की जरूरत नहीं कि जब कविता बेहद निष्कलुष और ईमानदार होती है तो उसमें हर कोई अपनी ही आत्मकथा बाँच लेता है! यह कविता लगभग हर उस मध्यम वर्गीय परिवार और व्यक्ति के जीवन की शाश्वत पीड़ा है जो पारिवारिक मूल्यों को संजोने के लिए अपना सर्वस्व सहर्ष न्योछावर करने को तत्पर रहा है। इस कविता को पढ़कर कल दिनभर मन एंठता रहा… तत्काल प्रभात भाय को फोनकर लंबी बातचीत की तो मन हल्का हुआ…
आज अभी उनकी दूसरी कविता पढ़ने का मन बना। उन्हें पुनः बधाई कि उनकी कविताएँ एक आइना भी होती हैं जिनमें कविता का ही नहीं, मनुष्य का भी जीवंत चेहरा देखा जा सकता है।
– राहुल राजेश।
प्रभात भाई की कविता से गुजरना जीवन के सच्चे रूपों से फिर से परिचित होने के समान है। फिर से, इसलिए कहा, कि कई बार हम इन आयामों के आमने सामने होते हैं, फिर इनकी रेखाएं धुंधली पड़ जाती हैं। प्रभात के यहां यह बिल्कुल स्पष्ट, जिसे अंग्रेजी में crystal clear कहते हैं, ऐसी हैं। मां, और दो बैलों की कविता अपनी मार्मिकता में लगभग एक समान हैं और अपनी मानवीय कंपकंपाहट के साथ हमारे अंतस की प्रस्तर गुफाओं में उतरती हैं। अपनी स्मृतियों को यत्न से संभाले एक सच्चा और संजीदा कवि। बधाई मेरे भाई!
बेहद मार्मिक और हमारी मां की ही दास्तान सी लगी प्रभात भाई की कविताएं..कई बार मन से आह निकली मां पर लिखी हुई कविताओं को पढ़ते हुए..मेरी मां अब अल्जाइमर से पीड़ित है ..मेरी भी उनसे जुड़ी बहुत सारी यादें है ..इन कविताओं के बहाने मां स्मृतियां में वापस लौट रही है..