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Home » राही डूमरचीर की कविताएँ

राही डूमरचीर की कविताएँ

दुमका (झारखण्ड) के राही डूमरचीर की कविताएँ बता देती हैं कि वे आदिवासी समाज के सरोकारों से जुड़ी हैं. मिथकों में अपनी जगह तलाशती ये कविताएँ आदिवासी समाज के प्रति मुख्यधारा की सोच और व्यवहार को प्रत्यक्ष करती हैं. कविता के साथ-साथ यह वंचितों का समानांतर पाठ भी है. प्रस्तुत है.

by arun dev
February 23, 2022
in कविता
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राही डूमरचीर की कविताएँ
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राही डूमरचीर की कविताएँ

 

1.
लाक्षागृह में आदिवासी

आयुधागारमादीप्य दग्ध्वा चैव पुरोचनम् ।
षट् प्राणिनो निधायेह द्रवामोsनभिलक्षितः ।।

युधिष्ठिर अपने भाइयों से कहते हैं: इस आयुधागार में आग लगाकर पुरोचन को जला करके इसके भीतर छह प्राणियों को रखकर हम इस तरह भाग निकलें कि कोई हमें देख न सके.*

 

महाभारत की कथा सुनते हुए
मुझे चिंता पाण्डवों की नहीं होती
हर कथा के अंत में
कथावाचक के नायक होते ही हैं अंततः विजयी
पहले उनके विजयी होने की ख़बरें फैलाई जाती हैं
फिर सुनाई जाती है कथा तफ़सील से

एकलव्य की चिंता होती है
पर उसके अद्मय जिजीविषा पर यकीन है
वह बिना अंगूठे के भी साध लेगा निशाना
सिखायेगा अपने वंशजों को
तर्जनी और मध्यमा के संयोग से तीर चलाना
और हर हाल में बचे रहने का हुनर

माँ के गर्भ से ही
युद्ध के गुर सीखने वाले अभिमन्यु के प्रति होती है सहानुभूति
सोचता हूँ कैसी दुनिया में आ रहे हो अभिमन्यु
जहाँ तय है जन्म से पहले ही तुम्हारी मृत्यु
कथा सुनते हुए कथावाचक का सम्मोहन होता है हावी
दोषी मानते हैं श्रोता सुभद्रा को अभिमन्यु के मारे जाने का
सम्मोहन से बाहर अब भी नहीं सोचते हम
कि एक ऐसी स्त्री को कैसे हो सकती है अभिरुचि उस युद्ध में
जिसमें संभावित है मृत्यु उसके होने वाले शिशु की
अभिमन्यु की मृत्यु पर उस माँ का आर्तनाद बताता है
अनायास नहीं था उस रात सुभद्रा का सो जाना
मर्दों और युद्ध की हिंसा से भरे समय में
वह मासूम कोशिश थी एक माँ की
अपने जिगर के टुकड़े को बचाने की
पर स्त्रियाँ आज भी कहाँ बचा पाती हैं दोषारोपण से खुद को
और षड्यंत्रों से अपने बच्चों को

कर्ण के बारे में सोचते हुए थोड़े समय के लिए आँखें भर आईं हैं
जब भरी सभा में उसे पहचानने से इनकार कर देती है उसकी माँ
उसकी वीरता में उसकी क्षत्रिय माता के रक्त होने को
अंततः प्रमाणित कर ले जाता है कथावाचक
और वह सूर्यपुत्र के नाम से होता है विख्यात
सूत पुत्र कर्ण भी चुनता है सत्य का अपना पक्ष
जिसकी प्रशस्ति हथियारों से लिखी जाती है

हर्ष हुआ था देखकर –
लाक्षागृह में कुंती द्वारा आयोजित भोज में
आमंत्रित थे आदिवासी भी
राजप्रासाद में उनके प्रवेश पर नहीं था प्रतिबन्ध
यहाँ तक कि उनके मदिरा पान से भी नहीं थी आपत्ति
जंगल में रहने वाली भीलनी और उनके बेटों के लिए यह एक नया अनुभव था
रोमांचित हो रहे थे अनुपम सौन्दर्य उस महल का देख कर
अपार हर्ष से भरे जा रहे थे पाण्डवों और उनकी माता के व्यवहार से
उन्हें अब डर नहीं था क्रूर शासन से
उन्होंने भी मान लिया था तन-मन से अपना राजा पांडवों को
यकीन हो गया था निर्भय-स्वच्छंद रह सकते हैं उनके राज में

पता नहीं मदिरा का नशा था
या महल की चकाचौंध हावी था उन आदिवासी माँ-बेटों पर
या वह यकीन था अपने शासकों पर जो बन कर आया था नींद का झोंका
जन्मेजय को महाभारत की कथा सुनाते वैशम्पायन कहते हैं-
उस रात वे मौजूद थे लाक्षागृह में देवताओं की इच्छा से

निश्चित सोई भीलनी माता अपने पाँचों बेटों के साथ
वैसी नींद फिर कभी नहीं सोई जैसे
झुलसाते तापमान से जब टूटी उनकी तन्द्रा
आग ही आग था चारों तरफ
चीख-पुकारें थीं आपस की
एक दूसरे की आँखों के सामने एक-एक कर जल कर गलते जिस्म के टुकड़े थे
कहा न जा सके किसी भी भाषा में ऐसी हाहाकार थी
महाभारत के कथा की सबसे बड़ी तबाही थी

उन्हें नहीं पता था सुरंग का
जैसे जनता को नहीं होती खबर शासकों के षड्यंत्र की
जंगल में रहने वालों का महल में यह त्रासद अंत था
इसके आगे महाभारत की कथा का नहीं कोई अर्थ था

जो मारे गए उन्हें नहीं पता था
जमीन के लिए भी ली जा सकती है जानें
अपनी जान बचाने के लिए
जान ली जा सकती है मासूमों की बिना किसी ग्लानि के
प्रकृति के खुले प्रांगण में रहने वाले कैसे जान सकते थे
महज पाँच गाँवों के एवज़ में
रचा जा सकता है ऐसा भीषण युद्ध
जिससे कराह उठेगी धरती
धू-धू कर जलेगा जंगल
न सिर्फ निरपराधी मनुष्य
बल्कि मारे जायेंगे खांडव वन के निरीह वन्य-प्राणी भी

पूरा वारणावत खुश था अपने शहर में कुंती और पांडवों के प्रवास से
पुण्य भोग रहे हों जैसा महसूस हुआ था उन्हें
उसी शहर में बनाया गया है पांडवों की हत्या के निमित्त लाक्षागृह
तनिक भी खबर नहीं थी उन्हें

जल कर भस्म हुए लाक्षागृह को देख कर
विलाप कर रहा था पूरा वारणावत शहर
पांडवों और कुंती के विलाप में कराह-कराह हुआ था शहर बेसुध
पर उनके लिए नहीं जिनकी लाशें थीं सम्मुख
बाद में नहीं विलापा वारणावत

कुंती, युधिष्ठर, अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव का नाम ले लेकर
थाह न मिल पाए ऐसी पीड़ा से विलाप रहे थे महाबली भीष्म
पर विदुर से सूचना मिलते ही पांडवों के
लाक्षागृह से जीवित बच निकलने की
भीग गई आँखें भीष्म की ख़ुशी से

मौत किसी का भी श्रेयस्कर नहीं होता
पांडवों की भी नहीं, कौरवों की भी नहीं
मासूमों की तो बिल्कुल नहीं
जब भी मारा जाता है कोई निरपराधी
पृथ्वी की आयु से एक पल छिटक जाता है
दुःख का बोझ उस पर बढ़ जाता है
जंगल की अपनी प्यारी दुनिया में
बेफिक्र जो जीते रहे लहराते से
जिन्होंने नहीं चाहा कुछ भी
सिवाय हरियाली के
वे बने शिकार युद्ध की राजनीति के

मरने वाले उन मासूमों के लिए जब रोया उनका जंगल
नदी ने एलान किया शोक का
पर पता नहीं चला इसका महाभारतकार को
उसकी ख़ुशी पांडवों के बच जाने में समाहित थी
कौरवों के और एक बार हार जाने से वह बेहद उत्साहित था
एक बार फिर से उसने असत्य को जीतने से रोक दिया था अपनी वाणी से
यह बात उसके गर्व से खुश हो जाने के लिए फिलहाल काफी थी

पांडव होते हैं विजयी
कौरवों को होना ही था पराजित
‘सत्य’ जीत जाता है
‘असत्य’ अंततः हारता है कथा में
कथा सुनते हम बस इंतजार में होते हैं पांडवों की जीत के

कथा सुनने वाले हम कई सौ वर्षों बाद आज भी
जानते हुए पांडवों की जगह
जल कर मरे थे छः आदिवासी
खुश होते हैं बच गए पांडव सभी और माता कुंती
आश्वस्त होते हैं फिर से हुई है मात बुरे कौरवों के षड्यंत्र की
हमारी चेतना में नहीं रही जगह आदिवासियों के लिए
आज भी कई सौ वर्षों बाद
टीवी पर देखते हुए महाभारत
और लाक्षा गृह में जलते आदिवासी
हमें खुशी से ही भरते हैं

सत्य और असत्य की कथित लड़ाई में
शहीदी देते हैं आदिवासी
बिना किसी नज़र को प्रभावित किये
मैंने कई कविताएँ और कहानियाँ पढ़ी हैं
महाभारत की कथा से प्रेरित
देखा है सत्य को जीतते और असत्य को हारते हुए
पर ज़िक्र तक नहीं सुना उनका जो
इस जीत-हार पर अंकित हैं क़ुर्बानी की तरह
सत्य-असत्य की इस लड़ाई में मारे गए जो निरपराध ही

बार-बार उस कथा को दोहराते
उस कथा को सुनते
मारे जा रहे हैं बारम्बार वे निरपराध ही

*जतुगृहपर्व (आदिपर्व), अध्याय 147, श्लोक 04, महाभारत-प्रथम खण्ड, गीता प्रेस, गोरखपुर

 

 

2.
अर्जुन की मुस्कान

 

ततोsर्जुनः प्रतिमना वभूव विगतज्वरः।
द्रोणश्च सत्यवागासोन्नान्योsभिभवितार्जुनम्”।।

इस घटना से अर्जुन के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई. उनकी सारी चिन्ता दूर हो गई. द्रोणाचार्य का भी वह कथन सत्य हो गया कि अर्जुन को दूसरा कोई पराजित नहीं कर सकता.*

 

मुस्कान किसे अच्छी नहीं लगती
मोनालिसा की तस्वीर में ख़ास वो मुस्कान ही है
जो लियोनार्डो का दिल बनकर उतरी थी रंगों में
बुद्ध की मुस्कान ने कितनों को नींद दी सुकून की
सुकून के दुश्मन इसे सबसे बेहतर जानते हैं
मुस्कान तितली के पंखों के रंग हैं
जिन्हें तूफान नहीं बेरंग कर पाते
पर छूते ही हमारे हाथों में गुनाह की तरह उतर आते हैं

मुसकुराने की कोशिश करता है तानाशाह भी
जब तक कैमरे उसकी तस्वीर नहीं उतार लेते
अपनी कुटिलताओं को छिपाता है कवि
उसकी कल्पनाओं में अट्टहास करते हैं राक्षस
जबकि वे कहीं नहीं होते धरती पर

बीरबल की खिचड़ी नहीं पकी
राजा की अक्ल जगी
उस कहानी में भी सारी रात पानी में खड़ा
ठिठुरता व्यक्ति अनुपस्थित रह जाता है
तारीफ़ होती है बीरबल के अक्ल की
हीरो बन जाते हैं बीरबल
हम उस व्यक्ति को भुला
बीरबल की अक्लमंदी के अगले क़िस्से की तरफ बढ़ जाते हैं

खिचड़ी नहीं पक सकती थी आग से दूर होकर
द्रोण ज़रूर गुरु हो सकते थे मूर्ति बनकर
माँग सकते थे गुरु-दक्षिणा
दयालुता पर चढ़ा सकते थे ख़ंजर का रंग

उस दिन शब्दवेधी बाण की करामात देख
दुःख और खीझ से भर गए थे अर्जुन
गुरु पर हुआ था कोप
द्रोण को झूठा तक कहा
एक बच्चे की तरह किया इसरार-
‘झूठ ही कहा था आपने मुझे बनायेंगे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर
कोई दूसरा न होगा मुझ सा इस धरा पर’
पसीज गया था द्रोण का हृदय
दृढ़ निश्चय उतर आया था कुटिलता का बाना बन

मूर्ति से बाहर निकल साक्षात्
द्रोण ने गुरू दक्षिणा में माँग लिया अँगूठा एकलव्य से
एकलव्य ने बेहिचक काट कर पेश कर दिया
गुरु ने बड़प्पन से कर लिया था स्वीकार
सोचता हूँ-
उस अंगूठे का क्या किया होगा द्रोण ने
डर अंगूठे से था
तो उसको रखा या फेंक दिया
गाड़ दिया होगा किसी गुप्त जगह
या टुकड़े किए होंगे उस अँगूठे के भी कई
डर लाख परतों में हो फिर भी जाता नहीं

द्रोण के सामने पड़े देख उस सबसे क़ाबिल अँगूठे को निस्सहाय
मुसकुराये थे अर्जुन
उन्हें यकीन हो गया था
सचमुच गुरु द्रोण की है उन पर माया बहुत
वही हैं अब धरती के धनुर्धर सर्वश्रेष्ठ
इसरार उनका सफल हुआ था

कथा आगे बढ़ जाती है
अर्जुन की उपदेश सुनने वाली भंगिमा हो जाती है प्रसिद्ध
असल में कथा अर्जुन को मुसकुराते देख
निकल जाती है तलाश में एक ऐसी दुनिया की
जहाँ युद्ध के लिए मासूमों की क़ुरबानियाँ नहीं होतीं
जहाँ मुस्कुराहटों में निर्दयता नहीं होतीं शामिल

यह कैसी कथा है वैशम्पायन
जिसमें अर्जुन ख़ुश होते हैं साथ में आप भी
उनकी तरह आप भी होते हैं आश्वस्त
पर कथाओं का अंत नहीं होता अपेक्षित
जैसे एक कथा के बाद हजारों कथाएँ निकलीं महाभारत में
अंतहीन इंतज़ार में रहीं कुछ कथाएँ भी इस आस में
कि कभी तो उनका पक्ष सुना जाएगा
कभी तो कथा के भी ज़ार-ज़ार रोने को सुना जाएगा
इसलिए हर तरह से मोड़े जाने के बावजूद
कथाकार के हाथ से छिटक जाती रही हैं कथाएँ

क्रूरता द्रोण से ज़्यादा उस मुस्कान में थी
जो अब तक स्थिर है उस जंगल में
जहाँ अन्याय को सभ्यता की जरूरत बताया गया
जहाँ उनके होने को नहीं होने की तरह बरता गया
जहाँ अंगूठा काटा गया
तेज़ ख़ून का फव्वारा फूटा
और सुसज्जित वस्त्र पहने हथियारों से लैस विजेता बताए गए

ग़लत थे कवि
इतिहास टूटे हुए पहियों का आश्रय नहीं लेगा
वह उस मुस्कान के ख़िलाफ़ खड़ा होगा
तीर किसी निरपराध पर न चलाया जाए कहेगा
अपराधी को सज़ा देगा बिना रक्त बहाए
प्रतिभा को मौका देगा बिना सर नवाए

नामालूम कितने ही लोगों को किया गया अनुपस्थित
उनकी अनुपस्थिति गूँजती है हिनहिनाते घोड़ों की बेचैनी की तरह
हम सब जो कहते-कमाते हैं
यह उनकी सदाशयता है
उन्होंने हिसाब माँगा किसी दिन
तो इतिहास टूटे हुए पहियों का आश्रय नहीं लेगा
पहिये तो हमारी ज़िन्दगी की ख़ुशहाली के प्रतीक होना चाहते थे
हम ने उन्हें पहले रथों में फिर युद्ध विमान के पहियों में तबदील कर
रफ़्तार के व्याकरण में कैद कर दिया

*सम्भवपर्व (आदिपर्व), अध्याय 131, श्लोक 60, महाभारत-प्रथम खण्ड, गीता प्रेस, गोरखपुर

 

 

3.
हिम्बो कुजूर

 

कोड़ा कमाने गए थे
असम के गझिन चाय बागान
शिलांग के सड़क की अठखेलियाँ
लखीमपुर के बूढ़े दरख़्त
पहचानते हैं हिम्बो कुजूर को
चाय बागानों में छूटे रह गए गीत
तड़पते हैं उनकी मांदर की ताल को
जाड़ा-बरसातों में घर से रहते दूर
बच्चों की पढ़ाई के लिए
सारी कमाई भेजते रहे थे देस
बढ़ते हुए बच्चे पढ़ते रहे
नौकरी मिलते ही बड़ी बेटी
बेहद मनुहार से वापस ले आई उन्हें
छोटा नागपुर की याद उन्हें भी सताती थी
उनके हर गीत उनके जंगल-नदियों को ही पुकारती थीं
अनगिनत किस्सों के साथ वापस लौटे
गीत जो जवानी में वे छोड़ गए थे
आकर खेलने लगे उनके मांदर पर
भूले-बिसरे रागों ने भी भरी अँगड़ाई
रीझ ने अपना रंग पा लिया था जैसे
मांदर को बजाते-बजाते जब
अपने पंजों पर बैठ कर उठते थे
झूम उठती थी तरंग सी अखड़ा की टोली
हिम्बो कुजूर जैसा रीझवार पूरे गुमला जिला में नहीं था

फिर एक दिन
जब घर बनाया जा रहा था ‘ठीक’ से
पहाड़ किनारे वाले अपने पुश्तैनी घर में वापस लौट आए
पुराना मिट्टी का बना मकान था
जिसके आँगन से पहाड़ दीखता था
पहाड़ की तरफ मुँह करके
आँगन में जब वह मांदर पर ताल देते
पूरा गाँव जुट जाता था दिन-भर की थकान भुला
फिर देर रात तक चलता गीतों का सिलसिला
पुराने-पुराने पुरखों के गीत
जीवन के रंगों से लबालब गीत
अब उनका एक नाती है आठ साल का
उनके साथ अपनी नन्ही उँगलियाँ फेरता है मांदर पर
पुरखों के क़िस्से सुनता है अनगिनत अपने आजा से

पूछ बैठा एक दिन –
कितना तो सुन्दर घर बनाया है आयो ने
आपके लिए एक अलग से कमरा भी है
जैसा मेरा है
आप क्यों चले आये हमें छोड़कर यहाँ आजा
चिहुँकते हुए कहा उसने –
पता है छत से आपका पहाड़ भी दीखता है
मुसकुराते हुए कहा हिम्बो कुजूर ने
थोड़ा बड़े हो जाओ
बढ़ जाए दोस्ती मांदर से और थोड़ी
तब समझ पाओ फ़र्क़ शायद
आँगन से पहाड़ नहीं दीखता अब वहाँ
इसलिए चला आया यहाँ वापस

आज हिम्बो कुजूर को
उनके ही गाँव की नदी से बालू ढोने वाली
एक अंजान ट्रक
नई पक्की बनी सड़क पर कुचल कर चली गई.

राही डूमरचीर
24 अप्रैल 1986 दुमका (झारखण्ड).

दुमका में शुरुआती तालीम के बाद शांतिनिकेतन, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और हैदराबाद विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी करके इन दिनों आर.डी. एण्ड डी.जे. कॉलेज, मुंगेर (बिहार) में अध्यापन.
कुछ कविताएँ एवं अनुवाद प्रकाशित.

M: 7093196127/Email: rdumarchir@gmail.com

Tags: 20222022 कविताएँराही डूमरचीर
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Comments 15

  1. कृति बहुमत says:
    1 year ago

    राही डूमरचीर एक प्रतिभाशाली युवा कवि हैं। इनकी कविताएं बहुत अलग हैं और विशिष्ट भी।

    Reply
  2. M P Haridev says:
    1 year ago

    दुनिया का कोई भी समाज अपनी न्यूनताओं और उज्ज्वल पक्षों से मिलकर बना है । जिस प्रकार सवर्णों में अति निर्धन और धनाढ्य व्यक्ति हैं उसी प्रकार आदिवासियों, अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों में भी होते हैं । यहाँ और अन्य आदिवासी कवि या लेखक ने अनेक मंचों पर भी कविताओं में आदिवासियों की पीड़ा को मुखर होकर लिखा है । पिछड़ी जातियों में भी ऊँची-नीची होने की भावना विद्यमान है । धोबी, कुर्मी, कुम्हार, नाई, चमार, मोची, जाटव, खटीक, लुहार और सैनी एक-दूसरे समाज को ऊँचा-नीचा मानते हैं और रिश्ते नहीं करते । कवि ने महाभारत दो श्लोकों को चुनकर व्यथा का इज़हार किया है । पाँच हज़ार वर्ष पूर्व रचित इस ग्रंथ की ख़ूबी है कि इसके रचनाकार ने सभी को छुआ । भारत में ही नहीं बल्कि संसार के सभी देशों में बड़े देश छोटे देशों पर आधिपत्य स्थापित करना चाहते हैं । रशिया के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन के दो इलाक़ों पर अपने सैन्य कार्रवाई से क़ब्ज़ा करा लिया और उन्हें संप्रभु राष्ट्र की मान्यता दे दी ।

    Reply
  3. कुमार अम्बुज says:
    1 year ago

    ये कविताएँ संवेदित भी करती हैं और विचारोत्तेजना भी देती हैं। इसलिए इधर पढ़ी कविताओं में ये अलग हैं, अच्छी हैं। राही डूमरचीर को बधाई। अरुण जी को इनसे परिचित कराने के लिए धन्यवाद।

    Reply
  4. सुजीत+कुमार+सिंह+ says:
    1 year ago

    लाजवाब

    Reply
  5. Anonymous says:
    1 year ago

    हर सृजन का एक मकसद होता है और हर सृजन की एक उम्र भी होती है।किसी सृजन के पीछे साहित्यकार की अपनी प्रतिभा, अध्ययन, चिंतन,दृष्टि और साधना उसको किस हद तक परिमार्जित कर सकती है,कवि को पढ़ते हुए यह ख्याल में आता है। भारतीय समाज में एक ही समय में विकास की कई कई शताब्दियाँ निवास करती हैं।लेकिन विधान को समझें तो सबसे पहले जो आदिवाक्य है ,प्रिएम्बल है ,उस तरफ हमारा ध्यान सबसे पहले जाता है। भाषा के हिसाब से उसको हम स्थानीयता कहते हैं। वो तमाम बातें जिसको साधरण जन समझते हैं और महसूस कर पाते हैं हमारे अवचेतन और कभी कभार चेतना में भी रहती हैं।जटिल भगौलिक परिस्थिति के वास्तविक मर्म को सरल भाषा में रचकर ‘हिम्बो कुजूर’ जैसी बोधगम्य कविता कवि ने पाठकों के लिए उसी प्रिएम्बल में दी हैं। मेरी बधाई स्वीकार करें।

    वल्लभ, आरा, बिहार
    7903474548

    (मुझे लिंक प्रभात मिलिंद जी ने दिया था और मैं यहाँ एक पाठक की हैसियत से अपनी बात दर्ज कर रहा हूँ। )

    Reply
  6. प्रभात मिलिंद says:
    1 year ago

    राही एक कवि के रूप में ही नहीं बल्कि एक मनुष्य के रूप में भी विस्मित करते हैं। सिर्फ़ एक वाक्य में अगर कहना हो तो चूंकि वे एक संकोची व्यक्ति है शायद इसलिए एक विरल कवि हैं। यह कनेक्शन संभव है, तर्कसंगत न भी लगे लेकिन जिन चिंताओं को उनकी कविताएँ अड्रेस करती दिखती हैं, वे चिंताएँ हमारी सामाजिक-सार्वजनीन मुखरता का स्वाभाविक और वांछित अपहरण करती ही करती हैं।

    आदिवासी जनजीवन, उनकी अस्मिता और हितों से मुख़ातिब इन कविताओं का एक अवसन्न कर देने वाला पक्ष यह है कि अपनी सूक्ष्मता में ये आंतरिक विस्थापन की भी कविताएँ हैं। जंगल-नदी-पहाड़ से ग़मे-रोजग़ार की वजह से निकल आए इस कवि के मन से जंगल-नदी-पहाड़ शायद ही कभी निकल पाए। आदिवासियत इन कविताओं का मेटाफर मात्र नहीं है, बल्कि राही के कवि का खाद-पानी भी है। मिथकों और जनश्रुतियों का सवाल करने वाले टूल्स की तरह इस्तेमाल, उनकी काव्य-पक्षधरता की ओर स्पष्ट संकेत करता है। ये बिल्कुल भिन्न ज़ायके की कविताएँ हैं जो अपने अंतर्वस्तु के स्वतंत्र निर्धारण के लिए प्रतिबद्ध दिखती हैं। समालोचन और अरुण देव को इन कविताओं को स्थान देने के लिए आभारपूर्ण बधाई।

    Reply
  7. अरुण कमल says:
    1 year ago

    कवि राही को इन जीवंत कविताओं के लिए बधाई

    Reply
  8. दया शंकर शरण says:
    1 year ago

    हमारे पौराणिक आख्यान और बाद का इतिहास भी राजा- महाराजाओ की कथा-कहानियों से भरे पड़े हैं। वहाँ आम आदमी का कोई इतिहास तफसील से दर्ज नहीं है।बस एक वाक्य में सिमटा है कि फलाँ के शासन में प्रजा बहुत सुखी या दुःखी थी। दलित समाज तो हमेशा से ही एक सबाल्टर्न समाज रहा है। ये कविताएँ हमें चौंकाती हैं कि कथाओ को अबतक जिस सामंती नजरिये से देखा गया है, उससे अलग हटकर भी उन्हें देखा जाना चाहिए। मिथकों में लगभग उपेक्षित रहे आम जन की संवेदना से गुजरती ये कविताएँ हिन्दी साहित्य में एक नयी धारा का संकेत है। राही एवं समालोचन को बधाई !

    Reply
  9. Hari mridul says:
    1 year ago

    राही डूमरचीर की कविताएं महाभारत के प्रसंगों को जिस कोण से प्रस्तुत हैं, वह नई अभिव्यक्ति है। इस नव्यता ने मोह लिया। जो वितान उन्होंने रचा, वह विशिष्ट है। उन्हें बहुत बधाई।

    Reply
  10. Vishakha says:
    1 year ago

    कविताएँ बहुत अच्छी लगी । कवि को बधाई । आभार समालोचन

    Reply
  11. हीरालाल नगर says:
    1 year ago

    अभी मैं राही डूमरचीर की कविताओं से उबर नहीं पाया था कि प्रभात मिलिंद की कविताओं घेर लिया। समझ गया कि जब लाक्षागृह में पांच आदिवासियों को ज़िंदा बचकर निकल नहीं पाए तो मैं कैसे बच निकलता। बहुत दिन हुआ मन। कथावाचक पहले ही तय कर देता है कि किसे जीतना है और किसे मृत्यु द्वार तक ले जाना है।
    राही डूमरचीर अत्यंत मेधावी लगे मुझे। उन्होंने आदिवासी युवा कविता को नया क्षेत्र चुनने की आज़ादी दी है कि वह क्षेत्र अब अलभ्य नहीं रहा।
    करुणा की एक प्रछन्न लहर बार-बार दबोचती है, कवि प्रभात मिलिंद की कविताओं में। मां की पीड़ा, उसकी तकलीफ़ और उसके संघर्ष में एक परिवार की गतिशीलता बरकरार है। उनका न रुदन है और न कोई आक्रोश है, बस जीवन जीने की उत्कट लालसा है। उसमें भी कोई जद्दोजेहद नहीं। लंबे अरसे बाद प्रेम और दुख की धीमी आंच में पकी कविताएं पढ़ने को मिली। आभार मिलिंद जी का और आपका भी।
    ।

    Reply
  12. अनुराधा सिंह says:
    1 year ago

    कथा सुनने वाले हम कई सौ वर्षों बाद आज भी
    जानते हुए पांडवों की जगह
    जल कर मरे थे छः आदिवासी
    खुश होते हैं बच गए पांडव सभी और माता कुंती
    आश्वस्त होते हैं फिर से हुई है मात बुरे कौरवों के षड्यंत्र की
    हमारी चेतना में नहीं रही जगह आदिवासियों के लिए
    आज भी कई सौ वर्षों बाद
    टीवी पर देखते हुए महाभारत
    और लाक्षा गृह में जलते आदिवासी
    हमें खुशी से ही भरते हैं|

    बहुत अच्छी कविताएँ

    Reply
  13. राहुल राजेश says:
    1 year ago

    अच्छी कविताएँ। नए दृष्टिकोण से अलक्षित को लक्षित करने की यह काव्यात्मक कोशिश आकर्षित करती है। राही डूमरचीर जी को बधाई और शुभकामनाएँ।।

    -राहुल राजेश।

    Reply
  14. Anonymous says:
    1 year ago

    Rahi Dumarchir जी झारखंड के युवा महत्वपूर्ण कवि हैं। वे ऐसे प्रदेश से हैं जहाँ एक ऐसी सभ्यता है , जिसमें जल व मिट्टी अहम है । यहाँ निष्कलुष जनजातियाँ हैं , जो अपने सांस्कृतिक महत्व को संघर्ष के दम पर बचाने की जद्दोजहद करते रही हैं। यही राही जी की कविताओं के सरोकार है ।

    ऐतिहासिक पात्रों के सहारे उन्होंने उपेक्षित लोगों की पीड़ा का, उनके अदम्य साहस व क्षमता का नये सन्दर्भों को जोड़ते हुए पुनरावलोकन किया है। इन कविताओं में स्पष्ट है कि आदिवासियों के साथ आदिकाल से छल किया जा रहा है। वे प्रताड़ित किये जा रहे हैं। उनकी वेदनायें आज भी समझे जाने की माँग करती हैं । इन कविताओंबके माध्यम से वंचित व शोषित लोगों को सावधान करने की अच्छी कोशिश है । उन्होंने इसमें ब्राह्मणवाद के कुरूप व अराजक चेहरे को भी बेनक़ाब किया है। तीसरी कविता में आदिवासी औरतों के दर्द व व्यथा को रखा गया है, जिससे उबरने की उनमें जिजीविषा है।

    राही जी की इन कविताओं में किस्सागोई है। वे रूपकों के माध्यम से कविता को पाठकों को सजग व सचेत करते हैं। पुराने विषय से नई बातों का अर्क निकलने में उनके भीतर का कवि सक्षम है। वे कम लिखते हैं किंतु कुछ नये तरीके से अपनी बातों को प्रस्तुत करना चाहते हैं , जिसका स्वागत है। उन्हें हमारी शुभकामनाएं हैं । Arun Dev सर भी ऐसे ताज़ा चेहरों से हमलोगों को तार्रुफ़ करा रहे हैं , उन्हें भी साधुवाद 💐

    Reply
  15. Kumar Arun says:
    9 months ago

    आखिरी आदमी को अपने ब्यौरों में शामिल करने केलिए इतिहासकार को वजह नहीं मिलती और महाकाव्य में उनके लिए अवसर नहीं रहता .. डूमरचीर ने उनके पक्ष को नया शब्द दिया है ..

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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